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श्रीमद् राजचन्द्र
[धर्मके मतभेद
हैं; वैष्णव आदिका भी यही उपदेश है; इस्लामका भी यही उपदेश है; और इसी तरह क्राइस्टका भी यही उपदेश है कि हमारा कथन तुम्हें सब सिद्धियाँ देगा । तब हमें किस रीतिसे विचार करना चाहिये !
वादी और प्रतिवादी दोनों सच्चे नहीं होते, और दोनों झूठे भी नहीं होते । अधिक हुआ तो वादी कुछ अधिक सच्चा और प्रतिवादी कुछ थोड़ा झूठा होता है; अथवा प्रतिवादी कुछ अधिक सच्चा, और वादी कुछ कम झूठा होता है । हाँ, दोनोंकी बात सर्वथा झूठी न होनी चाहिये । ऐसा विचार करनेसे तो एक धर्ममत सच्चा सिद्ध होता है, और शेष सब झूठे ठहरते हैं ।
जिज्ञासु-यह एक आश्चर्यकारक बात है। सबको असत्य अथवा सबको सत्य कैसे कहा जा सकता है ! यदि सबको असत्य कहते हैं तो हम नास्तिक ठहरते हैं, तथा धर्मकी सचाई जाती रहती है । यह तो निश्चय है कि धर्मकी सचाई है, और यह सचाई जगत्में अवश्य है । यदि एक धर्ममतको सत्य और बाकीके सबको असत्य कहते हैं तो इस बातको सिद्ध करके बतानी चाहिये । सबको सत्य कहते हैं तो यह रेतकी भींत बनाने जैसी बात हुई क्योंकि फिर इतने सब मतभेद कैसे हो गये ! यदि कुछ भी मतभेद न हो तो फिर जुदे जुदे उपदेशक अपने अपने मत स्थापित करनेके लिये क्यों कोशिश करें ? इस प्रकार परस्परके विरोधसे थोड़ी देरके लिये रुक जाना पड़ता है।
फिर भी इस संबंधमें हम यहाँ कुछ समाधान करेंगे। यह समाधान सत्य और मध्यस्थभावनाकी दृष्टिसे किया है, एकांत अथवा एकमतकी दृष्टिसे नहीं किया । यह पक्षपाती अथवा अविवेकी नहीं, किन्तु उत्तम और विचारने योग्य है । देखनेमें यह सामान्य मालूम होगा परन्तु सूक्ष्म विचार करनेसे यह बहुत रहस्यपूर्ण लगेगा।
५९ धर्मके मतभेद
(२) इतना तो तुम्हें स्पष्ट मानना चाहिये कि कोई भी एक धर्म इस संसारमें संपूर्ण सत्यतासे युक्त है। अब एक दर्शनको सत्य कहनेसे बाकीके धर्ममतोंको सर्वथा असत्य कहना पड़ेगा ! परन्तु मैं ऐसा नहीं कह सकता । शुद्ध आत्मज्ञानदाता निश्चयनयसे तो ये असत्यरूप सिद्ध होते हैं, परन्तु व्यवहारनयसे उन्हें असत्य नहीं कहा जा सकता । एक सत्य है, और बाकीके अपूर्ण और सदोष हैं, ऐसा मैं कहता हूँ। तथा कितने ही धर्ममत कुतर्कवादी और नास्तिक हैं, वे सर्वथा असत्य हैं । परन्तु जो परलोकका अथवा पापका कुछ भी उपदेश अथवा भय बताते हैं, इस प्रकारके धर्ममतोंको अपूर्ण और सदोष कह सकते हैं । एक दर्शनं जिसे निर्दोष और पूर्ण कहा जा सकता है, उसके विषयकी बात अभी एक ओर रखते हैं।
___अब तुम्हें शंका होगी कि सदोष और अपूर्ण कथनका इसके प्रवर्तकोंने किस कारणसे उपदेश दिया होगा ! इसका समाधान होना चाहिये । इसका समाधान यह है कि उन धर्ममतवालोंने जहाँतक उनकी बुद्धिकी गति पहुँची वहाँतक ही विचार किया। अनुमान, तर्क और उपमान आदिके आधारसे उन्हें जो कथन सिद्ध मालूम हुआ, वह प्रत्यक्षरूपसे मानों सिद्ध है, ऐसा उन्होंने बताया ।