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श्रीमद् राजवन्द्र
[ब्रह्मचर्यकी नौ बारे मनसे इन्द्रियोंकी लोलुपता है । भोजन, वादित्र, सुगंधी, स्त्रीका निरीक्षण, सुंदर विलेपन यह सब मन ही माँगता है । इस मोहिनीके कारण यह धर्मकी याद भी नहीं आने देता । याद आनेके पीछे सावधान नहीं होने देता । सावधान होनेके बाद पतित करनेमें प्रवृत्त होता है । इसमें जब सफल नहीं होता तब सावधानीमें कुछ न्यूनता पहुँचाता है । जो इस न्यूनताको भी न प्राप्त होकर अडग रहकर उस मनको जीतते हैं, वे सर्वथा सिद्धिको पाते हैं।
मनको कोई ही अकस्मात् जीत सकता है, नहीं तो यह गृहस्थाश्रममें अभ्यास करके जीता जाता है । यह अभ्यास निग्रंथतामें बहुत हो सकता है । फिर भी यदि कोई सामान्य परिचय करना चाहे तो उसका मुख्य मार्ग यही है कि मन जो दुरिच्छा करे, उसे भूल जाना, और वैसा नहीं करना । जब मन शब्द, स्पर्श आदि विलासकी इच्छा करे तब उसे नहीं देना । संक्षेपमें हमें इससे प्रेरित न होना चाहिये परन्तु इसे प्रेरित करना चाहिये । मनको मोक्ष-मार्गके चिन्तनमें लगाना चाहिये । जितेन्द्रियता विना सब प्रकारकी उपाधियाँ खड़ी ही रहती हैं, त्याग अत्यागके समान हो जाता है। लोकलज्जासे उसे निबाहना पड़ता है । अतएव अभ्यास करके भी मनको स्वाधीनतामें लाकर अवश्य आत्महित करना चाहिये ।
६९ ब्रह्मचर्यकी नौ बा. ज्ञानी लोगोंने थोड़े शब्दोंमें कैसे भेद और कैसा स्वरूप बताया है ? इससे कितनी अधिक आत्मोन्नति होती है ? ब्रह्मचर्य जैसे गंभीर विषयका स्वरूप संक्षेपमें अत्यन्त चमत्कारिक रीतिसे कह दिया है । ब्रह्मचर्यको एक सुंदर वृक्ष और उसकी रक्षा करनेवाली नव विधियोंको उसकी बाड़का रूप देकर जिससे आचार पालनेमें विशेष स्मृति रह सके ऐसी सरलता कर दी है । इन नौ बाड़ोंको यथार्थरूपसे यहाँ कहता हूँ।
१ वसति-ब्रह्मचारी साधुको स्त्री, पशु अथवा नपुंसकसे संयुक्त स्थानमें नहीं रहना चाहिये । स्त्रियाँ दो प्रकारकी हैं:-मनुष्यिणी और देवांगना । इनमें प्रत्येकके फिर दो दो भेद हैं । एक तो मूल,
और दूसरा स्त्रीकी मूर्ति अथवा चित्र । इनमेंसे जहाँ किसी भी प्रकारकी स्त्री हो, वहाँ ब्रह्मचारी साधुको न रहना चाहिये, क्योंकि ये विकारके हेतु हैं । पशुका अर्थ तिर्यचिणी होता है । जिस स्थानमें गाय, भैंस इत्यादि हों उस स्थानमें नहीं रहना चाहिये । तथा जहाँ पंडग अर्थात् नपुंसकका वास हो वहाँ भी नहीं रहना चाहिये । इस प्रकारका वास ब्रह्मचर्यकी हानि करता है । उनकी कामचेष्टा, हाव, भाव इत्यादि विकार मनको भ्रष्ट करते हैं।
२ कथा-केवल अकेली स्त्रियोंको ही अथवा एक ही स्त्रीको ब्रह्मचारीको धर्मोपदेश नहीं करना चाहिये । कथा मोहकी उत्पत्ति रूप है । ब्रह्मचारीको स्त्रीके रूप, कामविलाससंबंधी प्रन्योंको नहीं पढ़ना चाहिये, तथा जिससे चित्त चलायमान हो ऐसी किसी भी तरहकी शृंगारसंबंधी बातचीत ब्रह्मचारीको नहीं करनी चाहिये ।
३ आसन-स्त्रियोंके साथ एक आसनपर न बैठना चाहिये तथा जिस जगह स्त्री बैठ चुकी हो उस स्थानमें दो घड़ीतक ब्रह्मचारीको नहीं बैठना चाहिये । यह सियोंकी स्मृतिका कारण है। इससे विकारकी उत्पत्ति होती है, ऐसा भगवान्ने कहा है।