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जितेन्द्रियता]
मोक्षमाला
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निर्दोष सुख और निर्दोष आनन्दको, जहाँ कहींसे भी वह मिल सके वहाँसे प्राप्त करो जिससे कि यह दिव्यशक्तिमान आत्मा जंजीरोंसे निकल सके । इस बातकी सदा मुझे दया है कि परवस्तुमें मोह नहीं करना । जिसके अन्तमें दुःख है उसे सुख कहना, यह त्यागने योग्य सिद्धांत है ॥ ३॥
मैं कौन हूँ, कहाँसे आया हूँ, मेरा सच्चा स्वरूप क्या है, यह संबंध किस कारणसे हुआ है, उसे रक्खू या छोड़ दूँ ? यदि इन बातोंका विवेकपूर्वक शांत भावसे विचार किया तो आत्मज्ञानके सब सिद्धांत-तत्त्व अनुभवमें आ गये ॥४॥
यह सब प्राप्त करने के लिये किसके वचनको सम्पूर्ण सत्य मानना चाहिये ! यह जिसने अनुभव किया है ऐसे निर्दोष पुरुषका कथन मानना चाहिये । अरे, आत्माका उद्धार करो, आत्माका उद्धार करो, इसे शीघ्र पहचानो, और सब आत्माओंमें समदृष्टि रक्खो, इस वचनको हृदयमें धारण करो ॥५॥
६८ जितेन्द्रियता जबतक जीभ स्वादिष्ट भोजन चाहती है, जबतक नासिकाको सुगंध अच्छी लगती है, जबतक कान वारांगना आदिके गायन और वादिन चाहता है, जबतक आँख वनोपवन देखनेका लक्ष रखती है, जबतक त्वचाको सुगंधि-लेपन अच्छा लगता है, तबतक मनुष्य निरागी, निग्रंथ, निष्परिग्रही, निरारंभी, और ब्रह्मचारी नहीं हो सकता । मनको वशमें करना यह सर्वोत्तम है । इसके द्वारा सब इन्द्रियाँ वशमें की जा सकती हैं । मनको जीतना बहुत दुर्घट है । मन एक समयमें असंख्यातों योजन चलनेवाले अश्वके समान है। इसको थकाना बहुत कठिन है । इसकी गति चपल और पकड़में न आनेवाली है । महा ज्ञानियोंने ज्ञानरूपी लगामसे इसको वशमें रखकर सबको जीत लिया है।
उत्तराध्ययनसूत्रमें नमिराज महर्षिने शकेन्द्रसे ऐसा कहा है कि दसलाख सुभटोंको जीतनेवाले बहुतसे पड़े हैं, परंतु अपनी आत्माको जीतनवाले बहुत ही दुर्लभ हैं, और वे दसलाख सुभटोंको जीतनेवालोंकी अपेक्षा अत्युत्तम हैं।
मन ही सर्वोपाधिकी जन्मदाता भूमिका है। मन ही बंध और मोक्षका कारण है । मन ही सब संसारका मोहिनीरूप है । इसको वश कर लेनेपर आत्म-स्वरूपको पा जाना लेशमात्र भी काठिन नहीं है।
निर्दोष सुख निर्दोष आनंद, ल्यो गमे त्यांथी मले, ए दिव्यशक्तिमान जेथी जंजिरेथी नीकळे; परवस्तुमां नहिं मुंशवो, एनी दया मुजने रही, ए त्यागवा सिद्धांत के पश्चातदुख ते सुख नहीं ॥ ३ ॥ हुं कोण छु ? क्याथी थयो ? शुं स्वरूप छे मालं खरं ! कोना संबंधे वळगणा छ ? राखं के ए परिह? एना विचार विवेकपूर्वक शांत भावे जो कर्या, तो सर्व आत्मिकशननां सिद्धांततत्त्व अनुभव्यां ॥४॥ ते प्राप्त करवा वचन कोर्नु सत्य केवळ मानवू ? निर्दोष नरनु कथन मानो तेह जेणे अनुभव्युं । रे! आत्म तारो ! आत्म तारो! शीघ्र एने ओळखो; सर्वात्ममा समदृष्टि यो आ वचनने हृदये लखो॥५॥