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सुलके विषय में विचार]
मोक्षमाला
अपने नीच कुलका दुःख, किसीको प्रीतिका दुःख, किसीको ईर्ष्याका दुःख, किसीको हानिका दुःख, इस प्रकार एक दो अधिक अथवा सभी दुःख जगह जगह उस विप्रके देखनेमें आये । इस कारण इसका मन किसी भी स्थानमें नहीं माना । जहाँ देखे वहाँ दुःख तो था ही। किसी जगह भी सम्पूर्ण सुख उसके देखने में नहीं आया। तो फिर क्या माँगना चाहिये ? ऐसा विचारते विचारते वह एक महाधनाढ्यकी प्रशंसा सुनकर द्वारिका आया। उसे द्वारिका महा ऋद्धिवान, वैभवयुक्त, बाग-बगीचोंसे सुशोभित और वस्तीसे भरपूर शहर लगा । सुंदर और भव्य महलोंको देखते हुए और पूछते पंछते वह उस महाधनाढ्यके घर गया । श्रीमन्त बैठकखानेमें बैठा था। उसने अतिथि जानकर ब्राह्मणका सन्मान किया, कुशलता पूँछी, और उसके लिये भोजनकी व्यवस्था कराई । थोड़ी देरके बाद धीरजसे शेठने ब्राह्मणसे पूँछा, आपके आगमनका कारण यदि मुझे कहने योग्य हो तो कहिये । ब्राह्मणने कहा, अभी आप क्षमा करें । पहले आपको अपने सब तरहके वैभव, धाम, बाग-बगीचे इत्यादि मुझे दिखाने पड़ेंगे । इनको देखनेके बाद मैं अपने आगमनका कारण कहूँगा । शेठने इसका कुछ मर्मरूप कारण जानकर कहा, आप आनन्दपूर्वक अपनी इच्छानुसार करें । भोजनके बाद ब्राह्मणने शेठको स्वयं साथमें चलकर धाम आदि बतानेकी प्रार्थना की। धनाढयने उसे स्वीकार की और स्वयं साथ जाकर बाग-बगीचा, धाम, वैभव सब दिखाये । वहाँ शेठकी स्त्री और पुत्रोंको भी ब्राह्मणने देखा। उन्होंने योग्यतापूर्वक उस ब्राह्मणका सत्कार किया। इनके रूप, विनय और स्वच्छता देखकर और उनकी मधुरवाणी सुनकर ब्राह्मण प्रसन्न हुआ । तत्पश्चात् उसने उसकी दुकानका कारबार देखा । वहाँ सौएक कारबारियोंको बैठे हुए देखा । उस ब्राह्मणने उन्हें भी सहृदय, विनयी और नम्र पाया। इससे वह बहुत संतुष्ट हुआ। इसके मनको यहाँ कुछ संतोष मिला । सुखी तो जगत्में यही मालूम होता है, ऐसा उसे मालूम हुआ।
६२ सुखके विषयमें विचार
कैसा सुन्दर इसका घर है ! कैसी सुन्दर इसकी स्वच्छता और व्यवस्था है ! कैसी चतुर और मनोज्ञा उसकी सुशील स्त्री है ! कैसे कांतिमान और आज्ञाकारी उसके पुत्र हैं! कैसा प्रेमसे रहनेवाला उसका कुटुम्ब है। लक्ष्मीकी कृपा भी इसके घर कैसी है ! समस्त भारतमें इसके समान दूसरा कोई सुखी नहीं । अब तप करके यदि मैं कुछ माँगू तो इस महाधनाढय जितना ही सब कुछ माँगूगा, दूसरी इच्छा नहीं करूँगा।
दिन बीत गया और रात्रि हुई । सोनेका समय हुआ। धनाढय और ब्राह्मण एकांतमें बैठे थे। धनाढयने विप्रसे अपने आगमनका कारण कहनेकी प्रार्थना की।
विप्र-मैं घरसे यह विचार करके निकला था कि जो सबसे अधिक सुखी हो उसे देखू, और तप करके फिर उसके समान सुख सम्पादन करूँ । मैंने समस्त भारत और उसके समस्त रमणीय स्थलोंको देखा, परन्तु किसी राजाधिराजके घर भी मुझे सम्पूर्ण सुख देखनेमें नहीं आया। जहाँ देखा वहाँ आधि, व्याधि, और उपाधि ही देखनेमें आई । आपकी ओर आते हुए मैंने आपकी प्रशंसा सुनी,