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श्रीमद् राजचन्द्र
[सुखके विषयमै विचार इसलिये मैं यहाँ आया, और मैंने संतोष भी पाया। आपके समान ऋद्धि, सत्पुत्र, कमाई, स्त्री, कुटुम्ब, घर आदि मेरे देखनेमें कहीं भी नहीं आये । आप स्वयं भी धर्मशील, सद्गुणी और जिनेश्वरके उत्तम उपासक हैं । इससे मैं यह मानता हूँ कि आपके समान सुख और कहीं भी नहीं है । भारतमें आप विशेष सुखी हैं । उपासना करके कभी देवसे याचना करूँगा तो आपके समान ही सुख-स्थितिकी याचना करूँगा।
धनाढ्य -पंडितजी ! आप एक बहुत मर्मपूर्ण विचारसे निकले हैं, अतएव आपको अवश्य यथार्थ स्वानुभवकी बात कहता हूँ। फिर जैसी आपकी इच्छा हो वैसे करें । मेरे घर आपने जो सुख देखा वह सब सुख भारतमें कहीं भी नहीं, ऐसा आप कहते हैं तो ऐसा ही होगा । परन्तु वास्तवमें यह मुझे संभव नहीं मालूम होता । मेरा सिद्धांत ऐसा है कि जगत्में किसी स्थलमें भी वास्तविक सुख नहीं है । जगत् दुःखसे जल रहा है । आप मुझे सुखी देखते हैं परन्तु वास्तविक रीतिसे मैं सुखी नहीं।
. विप्र-आपका यह कहना कुछ अनुभवसिद्ध और मार्मिक होगा। मैंने अनेक शास्त्र देखे हैं, परन्तु इस प्रकारके मर्मपूर्वक विचार ध्यानमें लेनेका परिश्रम ही नहीं उठाया । तथा मुझे ऐसा अनुभव सबके लिये नहीं हुआ । अब आपको क्या दुःख है, वह मुझसे कहिये।
धनान्य-पंडितजी ! आपकी इच्छा है तो मैं कहता हूँ। वह ध्यानपूर्वक मनन करने योग्य है और इसपरसे कोई रास्ता ढूँदा जा सकता है ।
६३ सुखके विषयमें विचार
___ जैसे स्थिति आप मेरी इस समय देख रहे हैं वैसी स्थिति लक्ष्मी, कुटुम्ब और स्त्रीके संबंधमें मेरी पहले भी थी। जिस समयकी मैं बात कहता हूँ, उस समयको लगभग बीस बरस हो गये। व्यापार और वैभवकी बहुलता, यह सब कारबार उलटा होनेसे घटने लगा। करोड़पति कहानेवाला मैं एकके बाद एक हानियोंके भार वहन करनेसे केवल तीन वर्षमें धनहीन हो गया। जहाँ निश्चयसे सीधा दाव समझकर लगाया था वहाँ उलटा दाव पडा । इतनेमें मेरी स्त्री भी गुजर गई । उस समय मेरे कोई संतान न थी। जबर्दस्त नुकसानोंके मारे मुझे यहाँसे निकल जाना पड़ा । मेरे कुटुम्बियोंने यथाशक्ति रक्षा करी, परन्तु वह आकाश फटनेपर थेगरा लगाने जैसा था । अन्न और दाँतोंके वैर होनेकी स्थितिमें मैं बहुत आगे निकल पड़ा। जब मैं यहाँसे निकला तो मेरे कुटुम्बी लोग मुझे रोककर रखने लगे, और कहने लगे कि तूने गाँवका दरवाजा भी नहीं देखा, इसलिये हम तुझे नहीं जाने देंगे। तेरा कोमल शरीर कुछ भी नहीं कर सकता; और यदि तू वहाँ जाकर सुखी होगा तो फिर आवेगा भी नहीं, इसलिये इस विचारको तुझे छोड़ देना चाहिये । मैने उन्हें बहुत तरहसे समझाया कि यदि मैं अच्छी स्थितिको प्राप्त करूँगा तो मैं अवश्य यहीं आऊँगा-ऐसा वचन देकर मै जावाबंदरकी यात्रा करने निकल पड़ा।
प्रारब्धके पीछे लौटनेकी तैय्यारी हुई । दैवयोगसे मेरे पास एक दमड़ी भी नहीं रह गई थी। एक दो महीने उदर-पोषण चलानेका साधन भी नहीं रहा था। फिर भी मैं जावामें गया । वहाँ मेरी बुद्धिने प्रारब्धको खिलां दिया । जिस जहाजमें मैं बैठा था उस जहाजके नाविकने मेरी चंचलता और