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सुखके विषयमें विचार]
मोक्षमाला
नम्रता देखकर अपने शेठसे मेरे दुःखकी बात कही। उस शेठने मुझे बुलाकर एक काममें लगा दिया, जिससे मैं अपने पोषणसे चौगुना पैदा करता था। इस व्यापारमें मेरा चित्त जिस समय स्थिर हो गया उस समय भारतके साथ इस व्यापारके बढ़ानेका मैंने प्रयत्न किया, और उसमें सफलता मिली। दो वर्षोंमें पाँच लाखकी कमाई हुई । बादमें शेठसे राजी खुशीसे आज्ञा लेकर मैं कुछ माल खरीदकर द्वारिकाकी ओर चल दिया। थोड़े समय बाद मैं यहाँ आ पहुँचा । उस समय बहुत लोग मेरा सन्मान करनेके लिये आये । मैं अपने कुटुम्बियोंसे आनंदसे आ मिला । वे मेरे भाग्यकी प्रशंसा करने लगे। जावासे लिये हुए मालने मुझे एकके पाँच कराये । पंडितजी ! वहाँ अनेक प्रकारसे मुझे पाप करने पड़ते थे। पूरा खाना भी मुझे नहीं मिलता था । परन्तु एकबार लक्ष्मी प्राप्त करनेकी जो प्रतिज्ञा की थी वह प्रारब्धसे पूर्ण हुई । जिस दुःखदायक स्थितिमें मैं था उस दुखमें क्या कमी थी ! स्त्री पुत्र तो थे ही नहीं; माँ बाप पहलेसे परलोक सिधार गये थे । कुटुम्बियोंके वियोगसे और विना दमडीके जिस समय मैं जावा गया, उस समयकी स्थिति अज्ञान-दृष्टि से देखनेपर आँखमें आँसू ला देती है । इस समय भी मैंने धर्ममें ध्यान रखा था । दिनका कुछ हिस्सा उसमें लगाता था । वह लक्ष्मी अथवा लालचसे नहीं, परन्तु संसारके दुःखसे पार उतारनेवाला यह साधन है, तथा यह मानकर कि मौतका भय क्षण भी दूर नहीं है। इसलिये इस कर्तव्यको जैसे बने शीघ्रतासे कर लेना चाहिये, यह मेरी मुख्य नीति थी। दुराचारसे कोई सुख नहीं; मनकी तृप्ति नहीं; और आत्माकी मलिनता है-इस तत्त्वकी ओर मैंने अपना ध्यान लगाया था ।
६४ सुखके विषयमें विचार
यहाँ आनेके बाद मैंने अच्छे घरकी कन्या प्राप्त की। वह भी सुलक्षणी और मर्यादाशील निकली। इससे मुझे तीन पुत्र हुए । कारबारके प्रबल होनेसे और पैसा पैसेको बढ़ाता है, इस नियमसे मैं दस वर्षमें महा करोड़पति हो गया। पुत्रोंकी नीति, विचार, और बुद्धिक उत्तम रहनेके लिये मैंने बहुत सुंदर साधन जुटाये, जिससे उन्होंने यह स्थिति प्राप्त की है। अपने कुटुम्बियोंको योग्य स्थानोंमें लगाकर उनकी स्थितिमें सुधार किया। दुकानके मैंने अमुक नियम बाँध, तथा उत्तम मकान बनवानेका आरंभ भी कर दिया। यह केवल एक ममत्वके वास्ते किया। गया हुआ पीछे फिरसे प्राप्त किया, तथा कुल-परंपराकी प्रसिद्धि जाते हुए रोकी, यह कहलानेके लिये मैंने यह सब किया। इसे मैं सुख नहीं मानता । यद्यपि मैं दूसरों की अपेक्षा सुखी हूँ। फिर भी यह सातावेदनीय है, सत्सुख नहीं। जगत्में बहुत करके असातावेदनीय ही है । मैंने धर्ममें अपना समय यापन करनेका नियम रक्खा है। सत्शास्त्रोंका वाचन मनन, सत्पुरुषोंका समागम, यम-नियम, एक महीनेमें बारह दिन ब्रह्मचर्य, यथाशक्ति गुप्तदान, इत्यादि धर्मस मैं अपना काल बिताता हूँ। सब व्यवहारकी उपाधियोंमेंसे बहुतसा भाग बहुत अंशमें मैंने छोड़ दिया है । पुत्रोंको व्यवहारमें यथायोग्य बनाकर मैं निर्मथ होनेकी इच्छा रखता हूँ। अभी निम्रय नहीं हो सकता, इसमें संसार-मोहिनी अथवा ऐसा ही दूसरा कुछ कारण नहीं है, परन्तु वह भी धर्मसंबंधी ही कारण है । गृहस्थ-धर्मके आचरण बहुत कनिष्ठ हो गये हैं, और मुनि लोग उन्हें नहीं सुधार सकते । गृहस्थ गृहस्थोंको विशेष उपदेश कर सकते हैं, आचरणसे भी असर पैदा कर