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धर्मके मतमेद] मोसमाला
५७ प्रकार खूनसे खून नहीं धोया जाता, उसी तरह श्रृंगारसे विषयजन्य आत्म-मलिनता दूर नहीं हो सकती । यह मानों निश्चयरूप है । इस जगत्में अनेक धर्ममत प्रचलित हैं। उनके संबंधमें निष्पक्षपात होकर विचार करनेपर पहलेसे इतना विचारना आवश्यक है कि जहाँ स्त्रियोंको भोग करनेका उपदेश किया हो, लक्ष्मी-लीलाकी शिक्षा दी हो, रंग, राग, गुलतान और एशो आराम करनेके तत्त्वका प्रतिपादन किया हो, वहाँ अपनी आत्माको सत् शांति नहीं। कारण कि इसे धर्ममत गिना जाय तो समस्त संसार धर्मयुक्त ही है। प्रत्येक गृहस्थका घर इसी योजनासे भरपूर है । बाल-बच्चे, स्त्री, रंग, राग, तानका वहाँ जमघट रहता है, और यदि उस घरको धर्म-मंदिर कहा जाय तो फिर अधर्म-स्थान किसे कहेंगे ! और फिर जैसे हम बर्ताव करते हैं, उस तरहके बर्ताव करनेसे बुरा भी क्या है ! यदि कोई यह कहे कि उस धर्म-मंदिरमें तो प्रभुकी भक्ति हो सकती है, तो उनके लिये खेदपूर्वक इतना ही उत्तर देना है कि वह परमात्म-तत्त्व और उसकी वैराग्यमय भक्तिको नहीं जानता । चाहे कुछ भी हो, परन्तु हमें अपने मूल विचारपर आना चाहिये । तत्त्वज्ञानीकी दृष्टिसे आत्मा संसारमें विषय आदिकी मलिनतासे पर्यटन करती है । इस मलिनताका क्षय विशुद्ध भावरूप जलसे होना चाहिये। अहंतके तत्त्वरूप साबुन और वैराग्यरूपी जलसे उत्तम आचाररूप पत्थरपर आत्म-वस्त्रको धोनेवाले निग्रंथ गुरु ही हैं।
इसमें यदि वैराग्य-जल न हो, तो दूसरी समस्त सामग्री कुछ भी नहीं कर सकती । अतएव वैराग्यको धर्मका स्वरूप कहा जा सकता है । अहंत-प्रणीत तत्त्व वैराग्यका ही उपदेश करता है, तो यही धर्मका स्वरूप है, ऐसा जानना चाहिये ।
५८ धर्मके मतभेद
(१) इस जगत्में अनेक प्रकारके धर्मके मत प्रचलित हैं। ऐसे मतभेद अनादिकालसे हैं, यह न्यायसिद्ध है । परन्तु ये मतभेद कुछ कुछ रूपांतर पाते जाते हैं । इस संबंधमें यहाँ कुछ विचार करते हैं। ___ . बहुतसे मतभेद परस्पर मिलते हुए और बहुतसे मतभेद परस्पर विरुद्ध हैं । कितने ही मतभेद केवल नास्तिकोंके द्वारा फैलाये हुए हैं। बहुतसे मत सामान्य नीतिको धर्म कहते हैं, बहुतसे ज्ञानको ही धर्म बताते हैं, कितने ही अज्ञानको ही धर्ममत मानते हैं । कितने ही भक्तिको धर्म कहते हैं, कितने ही क्रियाको धर्म मानते हैं, कितने ही विनयको धर्म कहते हैं, और कितने ही शरीरके सँभालनेको ही. धर्ममत मानते हैं।
इन धर्ममतोंके स्थापकोंने यह मानकर ऐसा उपदेश किया मालूम होता है कि हम जो कहते हैं, वह सर्वज्ञकी वाणीरूप है, अथवा सत्य है । बाकीके समस्त मत असत्य और कुतर्कवादी हैं; तथा उन मतवादियोंने एक दूसरेका योग्य अथवा अयोग्य खंडन भी किया है। वेदांतके उपदेशक यही उपदेश करते हैं। सांख्यका भी यही उपदेश है; बौद्धका भी यही उपदेश है। न्यायमतवालोंका भी यही उपदेश है; वैशेषिक लोगोंका भी यही उपदेश है; शक्ति-पंथके माननेवाले भी यही उपदेश करते