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कपिलमुनि]
'मोक्षमाला
उन त्रिशलातनयको मनसे चितवन करके, ज्ञान, विवेक और विचारको बढ़ाऊँ नित्य नौ तत्त्वोंका विशोधन करके अनेक प्रकारके उत्तम उपदेशोंका मुखसे कथन करूँ; जिससे संशयरूपी बीजका मनके भीतर उदय न हो ऐसे जिन भगवान्के कथनका सदा अवधारण करूँ। हे रायचन्द्र, सदा मेरा यही मनोरथ है, इसे धारणकर, मोक्ष मिलेगा ॥२॥
४६ कपिलमुनि
(१) कौसांबी नामकी एक नगरी थी । वहाँके राजदरबारमें राज्यका आभूषणरूप काश्यप नामका एक शास्त्री रहता था । इसकी स्त्रीका नाम नाम श्रीदेवी था। उसके उदरसे कपिल नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कपिल जब पन्द्रह वर्षका हुआ उस समय उसका पिता परलोक सिधारा । कपिल लाड़ प्यारमें पाले जानेके कारण कोई विशेष विद्वत्ता प्राप्त न कर सका, इसलिये इसके पिताकी जगह किसी दूसरे विद्वान्को मिली । काश्यप शास्त्री जो पूँजी कमाकर रख गया था, उसे कमानेमें अशक्त कपिलने खाकर पूरी कर डाली । श्रीदेवी एक दिन घरके द्वारपर खड़ी थी कि इतनेमें उसने दो चार नौकरों सहित अपने पतिकी शास्त्रीय पदवीपर नियुक्त विद्वान्को उधरसे जाता हुआ 'देखा । बड़े मानसे जाते हुए इस शास्त्रीको देखकर श्रीदेवीको अपनी पूर्वस्थितिका स्मरण हो आया । जिस समय मेरा पति इस पदवीपर था, उस समय मैं कैसा सुख भोगती थी! यह मेरा सुख गया सो गया, परन्तु मेरा पुत्र भी पूरा नहीं पढ़ा। ऐसे विचारमें घूमते घूमते उसकी आँखोंमेंसे पट पट आँसू गिरने लगे । इतनेमें फिरते फिरते वहाँ कपिल आ पहुँचा। श्रीदेवीको रोती हुई देखकर कपिलने रोनेका कारण पूछा । कपिलके बहुत आग्रहसे श्रीदेवीने जो बात थी वह कह दी । फिर कपिलने कहा, " देख माँ ! मैं बुद्धिशाली हूँ, परन्तु मेरी बुद्धिका उपयोग जैसा चाहिये वैसा नहीं हो सका। इसलिये विद्याके बिना मैंने यह पदवी नहीं प्राप्त की । अब तू जहाँ कहे मैं वहाँ जाकर अपनेसे बनती विद्याको सिद्ध करूँ।" श्रीदेवीने खेदसे कहा, "यह तुझसे नहीं हो सकता, अन्यथा आर्यावर्तकी सीमापर स्थित श्रावस्ति नगरीमें इन्द्रदत्त नामका तेरे पिताका मित्र रहता है, वह अनेक विद्यार्थियोंको विद्यादान देता है । यदि तू वहाँ जा सके तो इष्टकी सिद्धि अवश्य हो ।" एक दो दिन रुककर सब तैयारी कर 'अस्तु' कहकर कपिलजीने रास्ता पकड़ा।
अवधि बीतनेपर कपिल श्रावस्तीमें शास्त्रीजीके घर आ पहुँचे । उन्होंने प्रणाम करके शास्त्रीजीको अपना इतिहास कह सुनाया । शास्त्रीजीने अपने मित्रके पुत्रको विद्यादान देनेके लिये बहुत आनंद दिखाया परन्तु कपिलके पास कोई पूँजी न थी, जिससे वह उसमेंसे खाता और अभ्यास कर सकता। इस कारण उसे नगरमें माँगनेके लिये जाना पड़ता था। माँगते माँगते उसे दुपहर हो जाता था, बादमें वह रसोई करता, और भोजन करनेतक साँझ होनेमें कुछ ही देर बाकी रह जाती थी। इस कारण वह
ते त्रिशलातनये मन चिंतवि, शान, विवेक, विचार वधार; नित्य विशोष करी नव तत्त्वनो, उत्तम बोध अनेक उच्चाई; संशयबीज उगे नहीं अंदर; जे जिननां कथनो अवधार राज्य, सदा मुज एज मनोरथ, धार यशे अपवर्ग, उता ॥२॥