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प्रतिक्रमणविचार]
मोक्षमाला नहीं गँवाना चाहिये । धीरजसे, शान्तिसे और यतनासे सामायिक करना चाहिये । जैसे बने तैसे सामायिकमें शास्त्रका परिचय बढ़ाना चाहिये । साठ घड़ीके अहोरात्रमेंसे दो घड़ी अवश्य बचाकर समायक तो सद्भावसे करो!
४० प्रतिक्रमणविचार प्रतिक्रमणका अर्थ पीछे फिरना-फिरसे देख जाना होता है । भावकी अपेक्षा जिस दिन और जिस वक्त प्रतिक्रमण करना हो, उस वक्तसे पहले अथवा उसी दिन जो जो दोष हुए हों उन्हें एकके बाद एक अंतरात्मासे देख जाना और उनका पश्चात्ताप करके उन दोषोंसे पीछे फिरना इसको प्रतिक्रमण कहते हैं।
उत्तम मुनि और भाविक श्रावक दिनमें हुए दोषोंका संध्याकालमें और रात्रिमें हुए दोषोंका रात्रिके पिछले भागमें अनुक्रमसे पश्चात्ताप करते हैं अथवा उनकी क्षमा मांगते हैं, इसीका नाम यहाँ प्रतिक्रमण है । यह प्रतिक्रमण हमें भी अवश्य करना चाहिये, क्योंकि यह आत्मा मन, वचन और कायके योगसे अनेक प्रकारके कर्मीको बाँधती है । प्रतिक्रमण सूत्रमें इसका दोहन किया गया है। जिससे दिनरातमें हुए पापका पश्चात्ताप हो सकता है। शुद्ध भावसे पश्चात्ताप करनेसे इसके द्वारा लेशमात्र पाप भी होनेपर परलोक-भय और अनुकंपा प्रगट होती है, आत्मा कोमल होती है, और त्यागने योग्य वस्तुका विवेक आता जाता है । भगवान्की साक्षीसे अज्ञान आदि जिन जिन दोषोंका विस्मरण हुआ हो उनका भी पश्चात्ताप हो सकता है । इस प्रकार यह निर्जरा करनेका उत्तम साधन है।
प्रतिक्रमणका नाम आवश्यक भी है । अवश्य ही करने योग्यको आवश्यक कहते हैं; यह सत्य है। उसके द्वारा आत्माकी मलिनता दूर होती है, इसलिये इसे अवश्य करना चाहिये ।
सायंकालमें जो प्रतिक्रमण किया जाता है, उसका नाम 'देवसीयपडिक्कमण' अर्थात् दिवस संबंधी पापोंका पश्चात्ताप है, और रात्रिके पिछले भागमें जो प्रतिक्रमण किया जाता है, उसे 'राइयपडिक्कमण' कहते हैं । 'देवसीय' और 'राइय ' ये प्राकृत भाषाके शब्द हैं । पक्षमें किये जानेवाले प्रतिक्रमणको पाक्षिक, और संवत्सरमें किये जानेवालेको सांवत्सरिक (छमछरी) प्रतिक्रमण कहते हैं । सत्पुरुषोंकी योजना द्वारा बाँधा हुआ यह सुंदर नियम है।
बहुतसे सामान्य बुद्धिके लोग ऐसा कहते हैं, कि दिन और रात्रिका इकट्ठा प्रायश्चित्तरूप प्रतिक्रमण सबेरे किया जाय तो कोई बुराई नहीं । परन्तु ऐसा कहना प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि यदि रात्रिमें अकस्मात् कोई कारण आ जाय, अथवा मृत्यु हो जाय, तो दिनका प्रतिक्रमण भी रह जाय ।
प्रतिक्रमण-सूत्रकी योजना बहुत सुंदर है। इसका मूल तत्त्व बहुत उत्तम है। जेसे बने तैसे प्रतिक्रमण धीरजसे, समझमें आ सकनेवाली भाषासे, शांतिसे, मनकी एकाग्रतासे और यतनापूर्वक करना चाहिये।
४१ भिखारीका खेद
एक पामर भिखारी जंगलमें भटकता फिरता था। वहाँ उसे भूख लगी । वह बिचारा लड़खलाता हुआ एक नगरमें एक सामान्य मनुष्यके घर पहुँचा । वहाँ जाकर उसने अनेक प्रकारसे प्रार्थना