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श्रीमद् राजचन्द्र
[सुदर्शन सेठ
लिये निरंतर वह चंडाल विद्याके बलसे वहाँसे आम लाने लगा । एक दिन फिरते फिरते मालीकी दृष्टि आमोंपर गई। आमोंकी चोरी हुई जानकर उसने श्रेणिक राजाके आगे जाकर नम्रतापूर्वक सब हाल कहा । श्रेणिककी आज्ञासे अभयकुमार नामके बुद्धिशाली प्रधानने युक्तिके द्वारा उस चंडालको ढूंढ़ निकाला । चंडालको अपने आगे बुलाकर अभयकुमारने पूछा, इतने मनुष्य बागमें रहते हैं, फिर भी तू किस रीतिसे ऊपर चढ़कर आम तोड़कर ले जाता है, कि यह बात किसीके जाननेमें नहीं आती ! चंडालने कहा, आप मेरा अपराध क्षमा करें । मैं सच सच कह देता हूँ कि मेरे पास एक विद्या है । उसके प्रभावसे मैं इन आमोंको तोड़ सका हूँ। अभयकुमारने कहा, मैं स्वयं तो क्षमा नहीं कर सकता । परन्तु महाराज श्रेणिकको यदि तू इस विद्याको देना स्वीकार करे, तो उन्हें इस विद्याके लेनेकी अभिलाषा होनेके कारण तेरे उपकारके बदलेमें मैं तेरा अपराध क्षमा करा सकता हूँ। चंडालने इस बातको स्वीकार कर लिया । तत्पश्चात् अभयकुमारने चंडालको जहाँ श्रेणिक राजा सिंहासनपर बैठे थे, वहाँ लाकर श्रेणिकके सामने खड़ा किया और राजाको सब बात कह सुनाई । इस बातको राजाने स्वीकार किया। बादमें चंडाल सामने खड़े रहकर थरथराते पगसे श्रेणिकको उस विद्याका बोध देने लगा, परन्तु वह बोध नहीं लगा । झटसे खड़े होकर अभयकुमार बोले, महाराज! आपको यदि यह विद्या अवश्य सांखनी है तो आप सामने आकर खड़े रहें, और इसे सिंहासन दें । राजाने विद्या लेनेके वास्ते ऐसा किया, तो तत्काल ही विद्या सिद्ध हो गई।
यह बात केवल शिक्षा ग्रहण करनेके वास्ते है । एक चंडालकी भी विनय किये विना श्रेणिक जैसे राजाको विद्या सिद्ध न हुई, इसमेंसे यही सार ग्रहण करना चाहिये कि सद्विद्याको सिद्ध करनेके लिये विनय करना आवश्यक है। आत्म-विद्या पानेके लिये यदि हम निग्रंथ गुरुका विनय करें, तो कितना मंगलदायक हो।
विनय यह उत्तम वशीकरण है। उत्तराध्ययनमें भगवान्ने विनयको धर्मका मूल कहकर वर्णन किया है। गुरुका, मुनिका, विद्वान्का, माता-पिताका और अपनेसे बड़ोंका विनय करना, ये अपनी उत्तमताके कारण है।
३३ सुदर्शन सेठ प्राचीन कालमें शुद्ध एकपत्नीव्रतके पालनेवाले असंख्य पुरुष हो गये है, इनमें संकट सहकर प्रसिद्ध होनेवाले सुदर्शन नामका एक सत्पुरुष भी हो गया है। यह धनाढ्य, सुंदर मुखाकृतिवाला, कांतिमान और मध्यवयमें था । जिस नगरमें वह रहता था, एक बार किसी कामके प्रसंगमें उस नगरके राज-दरबारके सामनेसे उसे निकलना पड़ा । उस समय राजाकी अभया नामकी रानी अपने महलके झरोखेमें बैठी थी । वहाँसे उसकी दृष्टि सुदर्शनकी तरफ गई । सुदर्शनका उत्तम रूप और शरीर देखकर अभयाका मन ललच गया। अभयाने एक दासीको भेजकर कपट-भावसे निर्मल कारण बताकर सुदर्शनको ऊपर बुलाया। अनेक तरहकी बातचीत करनेके पश्चात् अभयाने सुदर्शनको भोगोंके भोगनेका आमंत्रण दिया । सुदर्शनने बहुत उपदेश दिया तो भी अभयाका मन शांत नहीं हुआ। अन्तमें थककर सुदर्शनने युक्तिपूर्वक कहा, बहिन, मैं पुरुषत्त्व हीन हूँ। तो भी रानीने अनेक प्रकारके हाव-भाव बताये । इन सब काम-चेष्टाओंसे सुदर्शन चलायमान नहीं हुआ । इससे हारकर रानीने उसको बिदा किया।