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श्रीमद् राजचन्द्र
[ समायिकाविचार पुत्र-पिताजी ! इन्हें अनुक्रमसे लेनेसे यह क्यों नहीं बन सकता !
पिता–यदि ये लोम-विलोम हों तो इन्हें जोड़ते जाना पड़े, और नाम याद करने पड़ें। पाँचका अंक रखने के बाद दोका अंक आवे तो ' णमो लोए सव्वसाहणं' के बादमें णमो अरिहंताणं' यह वाक्य छोड़कर णमो सिद्धाणं' वाक्य याद करना पड़े । इस प्रकार पुनः पुनः लक्षकी दृढ़ता रखनेसे मन एकाग्रता पर पहुँचता है । ये अंक अनुक्रम-बद्ध हों तो ऐसा नहीं हो सकता, कारण कि उस दशा में विचार नहीं करना पड़ता । इस सूक्ष्म समयमें मन परमेष्ठीमंत्रमेंसे निकलकर संसार-तंत्रकी खटपटमें जा पड़ता है, और कभी धर्मकी जगह मारधाड़ भी कर बैठता है । इससे सत्पुरुषोंने अनुपूर्वीकी योजना की है । यह बहुत सुंदर है और आत्म-शांतिको देनेवाली है।
३७ सामायिकविचार
आत्म-शक्तिका प्रकाश करनेवाला, सम्यग्दर्शनका उदय करनेवाला, शुद्ध समाधिभावमें प्रवेश करानेवाला, निर्जराका अमूल्य लाभ देनेवाला, राग-द्वेषसे मध्यस्थ बुद्धि करनेवाला सामायिक नामका शिक्षावत है। सामायिक शब्दकी व्युत्पत्ति सम + आय + इक इन शब्दोंसे होती है। 'सम' का अर्थ राग-देष रहित मध्यस्थ परिणाम, 'आय' का अर्थ उस समभावनासे उत्पन्न हुआ ज्ञान दर्शन चारित्ररूप मोक्ष-मार्गका लाभ, और 'इक' का अर्थ भाव होता है । अर्थात् जिसके द्वारा मोक्षके मार्गका लाभदायक भाव उत्पन्न हो, वह सामायिक है । आर्त और रौद्र इन दो प्रकारके ध्यानका त्याग करके मन, पचन और कायके पाप-भावोंको रोककर विवेकी मनुष्य सामायिक करते हैं।
मनके पुद्गल तरंगी हैं। सामायिकमें जब विशुद्ध परिणामसे रहना बताया गया है, उस समय भी यह मन आकाश पातालके घाट घड़ा करता है । इसी तरह भूल, विस्मृति, उन्माद इत्यादिसे वचन और कायमें भी दूषण आनेसे सामायिकमें दोष लगता है । मन, वचन और कायके मिलकर बत्तीस दोष उत्पन्न होते हैं। दस मनके, दस वचनके, और बारह कायके इस प्रकार बत्तीस दोषोंको जानना आवश्यक है, इनके जाननेसे मन सावधान रहता है।
मनके दस दोष कहता हूँ:
१ अविवेकदोष-सामायिकका स्वरूप नहीं जाननेसे मनमें ऐसा विचार करना कि इससे क्या फल होना था। इससे तो किसने पार पाया होगा, ऐसे विकल्पोंका नाम अविवेकदोष है।
२ यशोवांछादोष-हम स्वयं सामायिक करते हैं, ऐसा दूसरे मनुष्य जानें तो प्रशंसा करें, ऐसी इच्छासे सामायिक करना वह यशोवांछादोष है।
३ धनवांछादोष-धनकी इच्छासे सामायिक करना धनवांछादोष है।
" गर्वदोष-मुझे लोग धर्मात्मा कहते हैं और मैं सामायिक भी वैसे ही करता हूँ ऐसा अध्यवसाय होना गर्वदोष है।
५ भयदोष-मैं श्रावक कुलमें जन्मा हूँ, मुझे लोग बड़ा मानकर मान देते हैं यदि मैं सामायिक न करूं तो लोग कहेंगे कि इतनी क्रिया भी नहीं करता, ऐसी निंदाके भयसे सामायिक करना भयदोष है।