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[परिग्रहका मर्यादित करना २५ परिग्रहका मांवित करना जिस प्राणीको परिग्रहकी मर्यादा नहीं, वह प्राणी सुखी नहीं । उसे जितना भी मिल जाय वह थोड़ा ही है । क्योंकि जितना उसे मिलता जाता है उतनेसे विशेष प्राप्त करनेकी उसकी इच्छा होती जाती है । परिग्रहकी प्रबलतामें जो कुछ मिला हो, उसका भी सुख नहीं भोगा जाता, परन्तु जो हो वह भी कदाचित् चला जाता है । परिग्रहसे निरंतर चल-विचल परिणाम और पाप-भावना रहती हैं। अकस्मात् ऐसी पाप-भावनामें यदि आयु पूर्ण हो, तो वह बहुधा अधोगतिका कारण हो जाता है। सम्पूर्ण परिग्रह तो मुनीश्वर ही त्याग सकते हैं । परन्तु गृहस्थ भी इसकी कुछ मर्यादा कर सकते हैं । मर्यादा होनेके उपरांत परिग्रहकी उपपत्ति ही नहीं रहती । तथा इसके कारण विशेष भावना भी बहुधा नहीं होती, और जो मिला है, उसमें संतोष रखनेकी आदत पड़ जाती है। इससे काल सुखसे व्यतीत होता है । न जाने लक्ष्मी आदिमें कैसी विचित्रता है, कि जैसे जैसे उसका लाभ होता जाता है, वैसे वैसे लोभकी वृद्धि होती जाती है । धर्मसंबंधी कितना ही ज्ञान होनेपर और धर्मकी दृढ़ता होनेपर भी परिग्रहके पाशमें पड़े हुए पुरुष कोई विरले ही छूट सकते हैं । वृत्ति इसमें ही लटकी रहती है। परन्तु यह वृत्ति किसी कालमें सुखदायक अथवा आत्महितैषी नहीं हुई। जिसने इसकी मर्यादा थोषी नहीं की वह बहुत दुःखका भागी हुआ है।
छह खंडोंको जीतकर आज्ञा चलानेवाला राजाधिराज चक्रवर्ती कहलाता है । इन समर्थ चक्रवर्तियोंमें सुभूभ नामक एक चक्रवर्ती हो गया है। यह छह खंडोंके जीतनेके कारण चक्रवर्ती . माना गया । परन्तु इतनेसे उसकी मनोवांछा तृप्त न हुई, अब भी वह तरसता ही रहा । इसलिये इसने धातकी खंडके छह खंडोंको जीतनेका निश्चय किया। सव चक्रवर्ती छह खंडोंको जीतते हैं, और मैं भी इतने ही जीतूं, उसमें क्या महत्ता है ? बारह खंडोंके जीतनेसे मैं चिरकाल तक प्रसिद्ध रहूँगा, और समर्थ आज्ञा जीवनपर्यंत इन खंडोंपर चला सकूँगा । इस विचारसे उसने समुद्रमें चर्मरत्न छोड़ा । उसके ऊपर सब सैन्य आदिका आधार था। चर्मरत्नके एक हजार देवता सेवक होते हैं। उनमें प्रथम एकने विचारा, कि न जाने इसमेंसे कितने वर्षमें छुटकारा होगा, इसलिये अपनी देवांगनासे तो मिल आऊँ । ऐसा विचार कर वह चला गया। इसी विचारसे दूसरा देवता गया, फिर नीसरा गया। ऐसे करते करते हज़ारके हज़ार देवता चले गये । अब चर्मरत्न डूब गया । अश्व, गज और सब सेनाके साथ सुभूम चक्रवर्ती भी डूब गया। पाप और पाप भावनामें ही मरकर वह चक्रवर्ती अनंत दुखसे भरे हुए सातवें तमतमप्रभा नरकमें जाकर पड़ा। देखो ! छह खंडका आधिपत्य तो भोगना एक ओर रहा, परन्तु अकस्मात् और भयंकर रातिसे परिप्रहकी प्रीतिसे इस चक्रवर्तीकी मृत्यु हुई, तो फिर दूसरोंके लिये तो कहना ही क्या ! परिग्रह यह पापका मूल है, पापका पिता है, और अन्य एकादश व्रतोंमें महादोष देना इसका स्वभाव है । इसलिये आत्महितैषियोंको जैसे बने वैसे इसका त्याग कर मर्यादापूर्वक आचरण करना चाहिये ।
२६ तत्व समझना जिनको शास्त्रके शास्त्र कंठस्थ हों, ऐसे पुरुष बहुत मिल सकते हैं । परन्तु जिन्होंने थोचे वचनों