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तत्संग
माक्षमाला.. है। जैसे दुर्गधसे घबड़ाकर हम नाकमें वस्त्र लगा लेते हैं, वैसे ही कुसंगका सहवास बंद करना आवश्यक है । संसार भी एक प्रकारका संग है, और वह अनंत कुसंगरूप तथा दुःखदायक होनेसे त्यागने योग्य है। चाहे जिस तरहका सहवास हो परन्तु जिससे आत्म-सिद्धि न हो, वह सत्संग नहीं। जो आत्मापर सत्यका रंग चढ़ावे, वह संत्सग है, और जो मोक्षका मार्ग बतावे वह मैत्री है। उत्तम शास्त्रमें निरंतर एकान रहना भी सत्संग है । सत्पुरुषोंका समागम भी सत्संग है । जैसे मलिन वस्त्र साबुन तथा जलसे साफ़ हो जाता है, वैसे ही शास्त्र-बोध और सत्पुरुषोंका समागम आत्माकी मलिनताको हटाकर शुद्धता प्रदान करते हैं । जिसके साथ हमेशा परिचय रहकर राग, रंग, गान, तान और स्वादिष्ट भोजन सेवन किये जाते हों, वह तुम्हें चाहे कितना भी प्रिय हो, तो भी निश्चय मानो कि वह सत्संग नहीं, परन्तु कुसंग है। सत्संगसे प्राप्त हुआ एक वचन भी अमूल्य लाभ देता है । तत्वज्ञानियोंका यह मुख्य उपदेश है, कि सर्व संगका परित्याग करके अंतरगमें रहनेवाले सब विकारोंसे विरक्त रहकर एकांतका सेवन करो। उसमें सत्संगका माहात्म्य आ जाता है। सम्पूर्ण एकांत तो ध्यानमें रहना अथवा योगाभ्यासमें रहना है। परन्तु जिसमेंसे एक ही प्रकारकी वृत्तिका प्रवाह निकलता हो, ऐसा समस्वभावीका समागम, भावसे एक ही रूप होनेसे बहुत मनुष्योंके होने पर भी, और परस्परका सहवास होनेपर भी, एकान्तरूप ही है; और ऐसा एकान्त तो. मात्र संत-समागममें ही है । कदाचित् कोई ऐसा सोचेगा, कि जहाँ विषयीमंडल एकत्रित होता है, वहाँ समभाव और एक सरखी वृत्ति होनेसे उसे भी एकांत क्यों नहीं कहना चाहिये ! इसका समाधान तत्काल हो जाता है, कि ये लोग एक स्वभावके नहीं होते । उनमें परस्पर स्वार्थबुद्धि और मायाका अनुसंधान होता है; और जहाँ इन दो कारणोंसे समागम होता है, वहाँ एक-स्वभाव अथवा निर्दोषता नहीं होती। निदोष और समस्वभावीका समागम तो परस्पर शान्त मुनीश्वरोंका है, तथा वह धर्मध्यानसे प्रशस्त अल्पारंभी पुरुषोंका भी कुछ अंशमें है । जहाँ केवल स्वार्थ
और माया-कपट ही रहता है, वहां समस्वभावता नहीं, और वह सत्संग भी नहीं। मत्संगसे जो सुख और आनन्द मिलता है, वह अत्यन्त स्तुतिपात्र है । जहाँ शास्त्रोंके सुंदर प्रश्नोत्तर हों, जहाँ उत्तम ज्ञान और ध्यानकी सुकथा हो, जहाँ सत्पुरुषोंके चरित्रोंपर विचार बनते हों, जहाँ तत्त्वज्ञानके तरंगकी लहरें छूटती हों, जहाँ सरल स्वभावसे सिद्धांत-विचारकी चर्चा होती हो, जहाँ मोक्ष विषयक कथनपर खूब विवेचन होता हो, ऐसा सत्संग मिलना महा दुर्लभ है। यदि कोई यह कहे, कि क्या सत्संग मंडलमें कोई मायावी नहीं होता! तो इसका समाधान यह है, कि जहाँ माया और स्वार्थ होता है, वहाँ सत्संग ही नहीं होता। राजहंसकी सभाका कौआ यदि ऊपरसे देखनेमें कदाचित् न पहचाना जाय, तो स्वरसे अवश्य पहचाना जायगा । यदि वह मौन रहे, तो मुखकी मुद्रासे पहचाना जायगा । परन्तु वह कभी छिपा न रहेगा। इसीप्रकार मायावी लोग सत्संगमें स्वार्थके लिये जाकर क्या करेंगे? वहाँ पेट भरनेकी बात तो होती नहीं। यदि वे दो घड़ी वहाँ जाकर विश्रांति लेते हों, तो खुशीसे लें जिससे रंग लगे, नहीं तो दूसरी बार उनका आगमन नहीं होता । जिस प्रकार जमीनपर नहीं तैरा जाता, उसी तरह सत्संगसे डूबा नहीं जाता । ऐसी सत्संगमें चमत्कृति है । निरंतर ऐसे निर्दोष समागममें मायाको लेकर आवे भी कौन ! कोई ही दुर्भागी, और वह भी असंभव है।
: सत्संग यह आत्माकी परम हितकारी औषध है।