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कामदेव भावक]
मोक्षमाला
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२२ कामदेव श्रावक महावीर भगवान्के समयमें बारह व्रतोंको विमल भावसे धारण करनेवाला, विवेकी और निग्रंथवचना. नुरक्त कामदेव नामका एक श्रावक, उनका शिष्य था। एक बार सुधर्माकी सभामें इंद्रने कामदेवकी धर्ममें अचलताकी प्रशंसा की । इतनेमें वहाँ जो एक तुच्छ बुद्धिवाला देव बैठा हुआ था, उसने कामदेवकी इस सुदृढ़ताके प्रति अविश्वास प्रगट किया, और कहा कि जबतक परीषह नहीं पड़ती, तभी तक सभी सहनशील और धर्ममें दृढ़ दीखते हैं । मैं अपनी इस बातको कामदेवको. चलायमान करके सत्य करके दिखा सकता हूँ । धर्मदृढ़ कामदेव उस समय कायोत्सर्गमें लीन था । प्रथम ही देवताने विक्रियासे हाधीका रूप धारण किया, और कामदेवको खूब ही चूदा, परन्तु कामदेव अचल रहा । अब देवताने मूसल जैसा अंग बना करके काले वर्णका सर्प होकर भयंकर पुकार मारी, तो भी कामदेव कायोत्सर्गसे लेशमात्र भी चलायमान नहीं हुआ। तत्पश्चात् देवताने अट्टहास्य करते हुए राक्षसका शरीर धारण करके अनेक प्रकारके उपसर्ग किये, तो भी कामदेव कायोत्सर्गसे न डिगा। उसने सिंह वगैरहके अनेक भयंकर रूप बनाये, तो भी कामदेवके कायोत्सर्गमें लेशभर भी हीनता नहीं आयी। इस प्रकार वह देवता रातके चारों पहर उपद्रव करता रहा, परन्तु वह अपनी धारणामें सफल नहीं हुआ। इसके बाद उस देवने अवधिज्ञानके उपयोगसे देखा, तो कामदेवको मेरुके शिखरकी तरह अडोल पाया । वह देवता कामदेवकी अद्भुत निश्चलता जानकर उसको विनय भावसे प्रणाम करके अपने दोषोंकी क्षमा माँगकर अपने स्थानको चला गया।
. कामदेव श्रावककी धर्म-दृढ़ता यह शिक्षा देती है, कि सत्य धर्म और सत्य प्रतिज्ञामें परम दृढ़ रहना चाहिये, और कायोत्सर्ग आदिको जैसे बने तैसे एकाग्र चित्तसे और सुदृढ़तासे निर्दोष करना चाहिये । चल-विचल भावसे किया हुआ कायोत्सर्ग आदि बहुत दोष युक्त होता है । पाई जितने द्रव्यके लाभके लिये धर्मकी सौगंध खानेवालोंकी धर्ममें दृढ़ता कहाँसे रह सकती है ? और रह सकती हो, तो कैसी रहेगी, यह विचारते हुए खेद होता है।
. २३ सत्य सामान्य रूपसे यह कहा भी जाता है, कि सत्य इस जगत्का आधार है, अथवा यह जगत् सत्यके आधारपर ठहरा हुआ है । इस कथनसे यह शिक्षा मिलती है, कि धर्म, नीति, राज और व्यवहार ये सब सत्यके द्वारा चल रहे हैं, और यदि ये चारों न हों तो जगत्का रूप कितना भयंकर हो जाय ! इसलिये सत्य जगतका आधार है, यह कहना कोई अतिशयोक्ति जैसा अथवा न मानने योग्य नहीं।
वसुराजाका एक शब्दका असत्य बोलना कितना दुःखदायक हुआ था, इस प्रसंगपर विचार करनेके लिये हम यहाँ कुछ कहेंगे।
- राजा वसु, नारद और पर्वत इन तीनोंने एक गुरुके पास विधा पढ़ी थी। पर्वत अध्यापकका पुत्र था। अध्यापकका मरण हुआ। इसलिये पर्वत अपनी माँ सहित वसु राजाके दरबारमें आकर रहने लगा । एक रातको पर्वतकी माँ पासमें बैठी थी, तथा पर्वत और नारद शास्त्राभ्यास कर रहे थे। उस समय पर्वतने "अजैर्यष्टव्य" ऐसा एक वाक्य बोला । नारदने पर्वतसे पूछा, "अज किसे कहते हैं !"