________________
श्रीमद् राजचन्द्र
त्रिभोजन -------------- जा सकता है । पाँच समितिरूप यतना तो बहुत श्रेष्ठ है, परन्तु गृहस्थाश्रमीसे वह सर्वथारूपसे नहीं पल सकती। तो भी जितने अंशोंमें वह पाली जा सकती है, उतने अंशोंमें भी वे उसे सावधानीसे नहीं पाल सकते । जिनेश्वर भगवान्की उपदेश की दुई स्थूल और सूक्ष्म दयाके प्रति जहाँ बेदरकारी है, वहाँ वह बहुत दोषसे पाली जा सकती है। यह यतनाके रखनेकी न्यूनताके कारण है। जल्दी और वेगभरी चाल, पानी छानकर उसके विनछन रखनेकी अपूर्ण विधि, काष्ठ आदि इंधनका विना झाड़े, विना देखे उपयोग, अनाजमें रहनेवाले जंतुओंकी अपूर्ण शोध, विना झाड़े बुहारे रखे हुए पात्र, अस्वच्छ रक्खे हुए कमरे, आँगनमें पानीका उड़ेलना, जूठनका रख छोड़ना, पटड़ेके विना धधकती थालीका नीचे रखना; इनसे हमें इस लोकमें अस्वच्छता, प्रतिकूलता, असुविधा, अस्वस्थता इत्यादि फल मिलते हैं, और ये परलोकमें भी दुःखदायी महापापका कारण हो जाते हैं । इसलिये कहनेका तात्पर्य यह है, कि चलनेमें, बैठनेमें, उठनेमें, भोजन करने और दूसरी- हरेक क्रियामें यतनाका उपयोग करना चाहिये । इससे द्रव्य और भाव दोनों प्रकारके लाभ हैं । चालको धीमी और गंभीर रखना, घरका स्वच्छ रखना, पानीका विधि सहित छानना, काष्ठ आदि ईंधनका झाड़कर उपयोग करना, ये कुछ हमें असुविधा देनेवाले काम नहीं, और इनमें विशेष समय भी नहीं जाता । ऐसे नियमोंका दाखिल करनेके पश्चात् पालना भी मुश्किल नहीं है । इससे बिचारे असंख्यात निरपराधी जंतुओंकी रक्षा हो जाती है। प्रत्येक कामको यतनापूर्वक ही करना यह विवेकी श्रावकका कर्तव्य है ।
२८ रात्रिभोजन अहिंसा आदि पाँच महाव्रतोंकी तरह भगवान्ने रात्रिभोजनत्याग व्रत भी कहा है । रात्रिमें चार प्रकारका आहार अभक्ष्य है । जिस जातिके आहारका रंग होता है उस जातिके तमस्काय नामके जीव उस आहारमें उत्पन्न होते हैं । इसके सिवाय रात्रिभोजनमें और भी अनेक दोष हैं । रात्रिमें भोजन करनेवालेको रसोईके लिये अग्नि जलानी पड़ती है । उस समय समीपकी दिवालपर रहते हुए निरपराधी सूक्ष्म जंतु नाश पाते है । ईंधनके वास्ते लाये हुए काष्ठ आदिमें रहते हुए जंतु रात्रिमें न दीखनेसे नाश हो जाते हैं । रात्रिभोजनमें सर्पके जहरका, मकड़ीकी लारका और मच्छर आदि सूक्ष्म जंतुओंका भी भय रहता है । कभी कभी यह कुटुंब आदिके भयंकर रोगका भी कारण हो जाता है।
रात्रिभोजनका पुराण आदि मतोंमें भी सामान्य आचारके लिये त्याग किया है, फिर भी उनमें परंपराकी रूढिको लेकर रात्रिभोजन घुस गया है । परन्तु यह निषिद्ध तो है ही।
शरीरके अंदर दो प्रकारके कमल होते हैं । वे सूर्यके अस्तसे संकुचित हो जाते हैं । इसकारण रात्रिभोजनमें सूक्ष्म जीवोंका भक्षण होनेसे अहित होता है, यह महारोगका कारण है । ऐसा बहुतसे स्थलोंमें आयुर्वेदका भी मत है।
सत्पुरुष दो घड़ी दिनसे व्यालू करते हैं, और दो.घड़ी दिन चढ़नेसे पहले किसी भी प्रकारका आहार नहीं करते । रात्रिभोजनके लिये विशेष विचारोंका मुनियोंके समागमसे अथवा शास्त्रोंसे जानना चाहिये । इस संबंधमें बहुत सूक्ष्म भेदका जानना आवश्यक है।
चार प्रकारके आहार रात्रिमें त्यागनेसे महान् फल है, यह जिनवचन है।