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भीमद् राजचन्द्र
[वास्तविक महत्ता १६ वास्तविक महत्ता बहुतसे लोग लक्ष्मीसे महत्ता मानते हैं, बहुतसे महान् कुटुम्बसे महत्ता मानते हैं, बहुतसे पुत्रसे महत्ता मानते हैं, तथा बहुतसे अधिकारसे महत्ता मानते हैं । परन्तु यह उनका मानना विवेकसे विचार करनेपर मिथ्या सिद्ध होता है । ये लोग जिसमें महत्ता ठहराते हैं उसमें महत्ता नहीं, परन्तु लघुता है। लक्ष्मांसे संसारमें खान, पान, मान, अनुचरोंपर आज्ञा और वैभव ये सब मिलते हैं, और यह महत्ता है, ऐसा तुम मानते होगे । परन्तु इतनेसे इसकी महत्ता नहीं माननी चाहिये । लक्ष्मी अनेक पापोंसे पैदा होती है । यह आनेपर पीछे अभिमान, बेहोशी, और मूढ़ता पैदा करती है । कुटुम्ब-समुदायकी महत्ता पानेके लिये उसका पालन-पोषण करना पड़ता है । उससे पाप और दुःख सहन करना पड़ता है । हमें उपाधिसे पाप करके इसका उदर भरना पड़ता है । पुत्रसे कोई शाश्वत नाम नहीं रहता। इसके लिये भी अनेक प्रकारके पाप और उपाधि सहनी पड़ती हैं । तो भी इससे अपना क्या मंगल होता है ? अधिकारसे परतंत्रता और अमलमद आता है, और इससे जुल्म, अनीति, रिश्वत
और अन्याय करने पड़ते है, अथवा होते हैं । फिर कहो इसमें क्या महत्ता है ! केवल पापजन्य कर्मकी। पापी कर्मसे आत्माकी नीच गति होती है । जहाँ नीच गति है वहाँ महत्ता नहीं, परन्तु लघुता है ।
आत्माकी महत्ता तो सत्य वचन, दया, क्षमा, परोपकार, और समतामें है । लक्ष्मी इत्यादि तो कर्म-महत्ता है। ऐसा होनेपर भी चतुर पुरुष लक्ष्मीका दान देते हैं, उत्तम विद्याशालायें स्थापित करके परदुःख-भंजन करते हैं । एक विवाहित स्त्रीमें ही सम्पूर्ण वृत्तिको रोककर परस्त्रीकी तरफ पुत्रीभावसे देखते हैं । कुटुम्बके द्वारा किसी समुदायका हित करते हैं । पुत्र होनेसे उसको संसारका भार देकर स्वयं धर्म प्रवेश -मार्गमें करते हैं । अधिकारके द्वारा विचक्षणतासे आचरण कर राजा और प्रजा दोनोंका हित करके धर्मनीतिका प्रकाश करते हैं । ऐसा करनेसे बहुतसी महत्तायें प्राप्त होती हैं सही, तो भी ये महत्तायें निश्चित नहीं हैं। मरणका भय सिरपर खड़ा है, और धारणायें धरी रह जाती हैं। संसारका कुछ मोह ही ऐसा है कि जिससे किये हुए संकल्प अथवा विवेक हृदयमेंसे निकल जाते हैं। इससे हमें यह निःसंशय समझना चाहिये, कि सत्यवचन, दया, क्षमा, ब्रह्मचर्य और समता जैसी आत्ममहत्ता
और कहींपर भी नहीं है । शुद्ध पाँच महाव्रतधारी भिक्षुकने जो ऋद्धि और महत्ता प्राप्त की है, वह ब्रह्मदत्त जैसे चक्रवर्तीने भी लक्ष्मी, कुटुम्ब, पुत्र अथवा अधिकारसे नहीं प्राप्त की, ऐसी मेरी मान्यता है।
१७ बाहुबल बाहुबल अर्थात् " अपनी भुजाका बल"—यह अर्थ यहाँ नहीं करना चाहिये । क्योंकि बाहुबल नामके महापुरुषका यह एक छोटासा अद्भुत चरित्र है।
सर्वसंगका परित्याग करके भगवान् ऋषभदेवजी भरत और बाहुबल नामके अपने दो पुत्रोंको राज्य सौंपकर विहार करते थे। उस समय भरतेश्वर चक्रवर्ती हुए। आयुधशालामें चक्रकी उत्पत्ति होनेके पश्चात् प्रत्येक राज्यपर उन्होंने अपनी आम्नाय स्थापित की, और छह खंडकी प्रभुता प्राप्त की। अकेले बाहुबलने ही इस प्रभुताको स्वीकार नहीं की। इससे परिणाममें भरतेश्वर और बाहुबलमें युद्ध हुआ । बहुत समयतक भरतेश्वर और बाहुबल इन दोनोंमेंसे एक भी नहीं हटा । तब क्रोधावेशमें आकर भरतेश्वरने बाहुबलपर चक्र छोड़ा । एक वीर्यसे उत्पन्न हुए भाईपर चक्र प्रभाव नहीं कर सकता।