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श्रीमद् राजचन्द्र
[सद्धर्मतत्व चक्रवर्ती राजाधिराज अथवा राजपुत्र होनेपर भी जो संसारको एकांत अनंत शोकका कारण मानकर उसका त्याग करते हैं; जो पूर्ण दया, शांति, क्षमा, वीतरागता और आत्म-समृद्धिसे त्रिविध तापका लय करते हैं; जो महा उग्र तप और ध्यानके द्वारा आत्म-विशोधन करके कमौके समूहको जला डालते हैं; जिन्हें चंद्र और शंखसे भी अत्यंत उज्ज्वल शुक्लध्यान प्राप्त होता हैजो सब प्रकारकी निद्राका क्षय करते हैं; जो संसारमें मुख्य गिने जानेवाले ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय इन चार कर्मीको भस्मीभूत करके केवलज्ञान और केवलदर्शन सहित अपने स्वरूपसे विहार करते हैं; जो चार अघाति कर्मोके रहने तक यथाख्यातचारित्ररूप उत्तम शीलका सेवन करते है; जो कर्म-प्रीष्मसे अकुलाये हुए पामर प्राणियोंको परमशांति प्राप्त करानेके लिये शुद्ध सारभूत तत्त्वका निष्कारण करुणासे मेघधारा-वाणीसे उपदेश करते हैं; जिनके किसी भी समय किंचित् मात्र भी संसारी वैभव विलासका स्वप्नांश भी बाकी नहीं रहा; जो घनघाति कर्म क्षय करनेके पहले अपनी छपस्थता जानकर श्रीमुखवाणीसे उपदेश नहीं करते; जो पाँच प्रकारका अंतराय, हास्य, रति, अरति, भय, जुगुप्सा, शोक, मिथ्यात्व, अज्ञान, अप्रत्याख्यान, राग, द्वेष, निद्रा, और काम इन अठारह दूषणोंसे रहित हैं; जो सच्चिदानन्द स्वरूपसे विराजमान हैं। जिनके महाउद्योतकर बारह गुण प्रगट होते हैं, जिनके जन्म, मरण और अनंत संसार नष्ट हो गया है। उनको निग्रंथ आगममें सदेव कहा है । इन दोषोंसे रहित शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त करनेके कारण वे पूजनीय परमेश्वर कहे जाने योग्य हैं । ऊपर कहे हुए अठारह दोषोंमेंसे यदि एक भी दोष हो तो सदेवका स्वरूप नहीं घटता । इस परमतत्त्वको महान् पुरुषोंसे विशेषरूपसे जानना आवश्यक है।
९ सद्धर्मतत्व अनादि कालसे कर्म-जालके बंधनसे यह आत्मा संसारमें भटका करता है। क्षण मात्र भी उसे सच्चा सुख नहीं मिलता । यह अधोगतिका सेवन किया करता है । अधोगतिमें पड़ती हुई आत्माको रोककर जो सद्गतिको देता है उसका नाम धर्म कहा जाता है, और यही सत्य सुखका उपाय है। इस धर्म तत्त्वके सर्वज्ञ भगवान्ने भिन्न भिन्न भेद कहे हैं। उनमें मुख्य भेद दो हैं:-व्यवहारधर्म और निश्चयधर्म ।
व्यवहारधर्ममें दया मुख्य है । सत्य आदि बाकीके चार महाव्रत भी दयाकी रक्षाके लिये हैं। दयाके आठ भेद हैं:-द्रव्यदया, भावदया, स्वदया, परदया, स्वरूपदया, अनुबंधदया, व्यवहारदया, निश्चयदया। ... प्रथम द्रव्यदया-प्रत्येक कामको यत्नपूर्वक जीवोंकी रक्षा करके करना 'द्रव्यदया है।
दूसरी भावदया-दूसरे जीवको दुर्गतिमें जाते देखकर अनुकंपा बुद्धिसे उपदेश देना 'भावदया' है।
तीसरी स्वदया—यह आत्मा अनादि कालसे मिथ्यात्वसे ग्रसित है, तत्त्वको नहीं पाता, जिनाज्ञाको नहीं पाल सकता, इस प्रकार चितवन कर धर्ममें प्रवेश करना ' स्वदया' है।
चौथी परदया-छह कायके जीवोंकी रक्षा करना 'परदया' है। पाँचवी स्वरूपदया--सूक्ष्म विवेकसे स्वरूप विचार करना ‘स्वरूपदया' है।
छही अनुबंधदया-सद्गुरु अथवा सुशिक्षकका शिष्यको कड़वे वचनोंसे उपदेश देना, यद्यपि यह देखने में अयोग्य लगता है, परन्तु परिणाममें करुणाका कारण है-इसका नाम ' अनुबंधदया है।