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।। कोबातीर्थमंडन श्री महावीरस्वामिने नमः ।।
।। अनंतलब्धिनिधान श्री गौतमस्वामिने नमः ।। ।। योगनिष्ठ आचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
।। गणधर भगवंत श्री सुधर्मास्वामिने नमः ।। ॥चारित्रचूडामणि आचार्य श्रीमद् कैलाससागरसूरीश्वरेभ्यो नमः ।।
आचार्य श्री कैलाससागरसूरिज्ञानमंदिर
पुनितप्रेरणा व आशीर्वाद राष्ट्रसंत श्रुतोद्धारक आचार्यदेव श्रीमत् पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा.
जैन मुद्रित ग्रंथ स्केनिंग प्रकल्प
ग्रंथांक:१
आराधना
वीर जैन
श्री महावी
कोबा.
अमृतं
अमृत
तु विद्या
तु
श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र
शहर शाखा
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा, गांधीनगर-३८२००७ (गुजरात) (079) 23276252, 23276204 फेक्स : 23276249 Websiet : www.kobatirth.org Email : Kendra@kobatirth.org
आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर शहर शाखा आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर त्रण बंगला, टोलकनगर परिवार डाइनिंग हॉल की गली में पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७ (079)26582355
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॥ श्रीजिनायनमः॥ ॥श्रीशीलतरंगिणी॥
॥शीलोपदेशमालारत्तिः ॥ (मूलक -जयकीर्तिमूरिः टीकाकार-सीमतिलकमूरिः)
उपावी प्रसिह करनार. पंमित श्रावक हीरालाल हंसराज. ( जामनगरवाला) संवत्-१९६६. सन १एए
किं-रु.-0-0-0
PANA
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INGENABLE जामनगर जैनभास्करोदय बापखानामां बाप्युं.
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शीलोप
॥ १ ॥
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॥ श्रीजिनाय नमः ॥
॥ श्रीशी लोपदेशमालावृत्तिः प्रारम्यते ॥
(मूलकर्त्ता - श्रीजयकीर्त्तिसूरिः )
( टीकाकार - श्री सिंह तिलकसूरिः )
पावी प्रसिद्ध करनार पंडित श्रावक दीरालाल इंसराज ( जामनगरवाळा )
यस्योपदेशसमये दशनांशु मिश्राः । स्कंधोपरि प्रसृमराश्चिकुरप्ररोहाः || कल्याणपात्रदधिसंकलित रुडुर्वा - लीलां दधुः स कुशलाय युगादिदेवः ॥ १ ॥ श्रिये स शांतिर्मृगलांबनः सन् । युक्तं दधानः कुमुदां विकाशं ॥ योऽनूनवानी हितनावमाप्य । शिवोत्तमांग स्थिरजासुरश्रीः || २ || शिवश्रियो रूपमनन्यरूपं । ज्ञानात्मदर्शे परिभाव्य जज्ञे ॥ श्रशैशवात्तन्ममानसो यः । स नेमिनाथः शिवतातिरस्तु ॥ ३ ॥ जावा अनेके प्रतिबिंव्य यस्य । ज्ञाने विवा दधिरे निवासं ॥ फलामिषात्सप्तनयाश्च तस्थु - स्त्यक्त्वा रिपुत्वं स शिवाय पार्श्वः ॥
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वृत्ति
॥ १ ॥
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शीलोप
॥ २ ॥
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॥ ४ ॥ यस्मिञ् जिने गर्भगतेऽपि पित्रोः । श्रीः सर्वतोऽजायत वईमानाः || सिद्धार्थसूनुश्चरमप्रभुमं । सिद्धार्थसार्थप्रवरं विदध्यात् ॥ ५ ॥ जयंतु ते श्रीगुरवः कलावतां । जमोऽपि येषां करसंगमान्नरः ॥ रत्नेषु चंशेपलव ुरिस्थितिं । समश्नुते नाशितदोषडुर्दशः ॥ ६ ॥ चक्रे पुरा यज्जयसिंहसूर - शिष्येण शास्त्रं जयकीर्त्तिनाम्ना || तस्याहमासूत्र यितास्मि वृत्तिं । सुखावबोधां स्वपरोपकृत्यै ॥ ७ ॥ इह हि प्रकरएाकारः प्रगुणिततत्वोपदेश सुधासारः पुण्यवल्लपल्लवोल्लास वर्षारंजे श्रीशी लोपदेशमालाख्यप्रकरणप्रारंने सारेतर विचारणप्रवणचतुरचेतश्वमत्कृतये प्रेक्षावतां प्रवृत्तये विघ्नविनायकोपशमनाय च समुचितेष्टदेवतानमस्कारपूर्वकमनिधेयप्रयोजनसंबंधबंधुरां प्रथमगाथामाद
॥ मूलम् ॥ - बालबंनयारिं । नैमिकुमारं नमित्तु जयसारं सीलोवएस मालं । af विवेक रिसालं ॥ १ ॥ व्याख्या - बालब्रह्मचारिणं जगत्सारं नेमिकुमारं दाविंशं तीर्थंकरं नत्वा प्रणम्य विवेककरिशालां शीलोपदेशमालामहं वक्ष्यामीति समुदायार्थः । अवयवार्थस्त्वयं-नावप्रधानत्वान्निर्देशानां बालं बालजावं, या अभिव्याप्य, ब्रह्मचारी च
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वृत्ति
॥ २ ॥
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शीलोप
॥ ३ ॥
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तुर्थव्रतधारी तं तत्ताद्दगनुरूपरूपसंप निर्जितनिर्जरराजनारीं राजीमतीं परित्यज्योज्जयंत शि रिशिखरे मंक्षु दीक्षाकक्षीकारात् तत्परित्यागस्वरूपं तु विस्तरतः पुरतो वक्ष्यमाणश्रीनेमिजिनचरिते स्पष्टयिष्यते जगत्सारं जगति त्रिभुवने सारं प्रधानं, अनन्यसाधारणडुरशीलधुरो धौरेयत्वात्. या जगतिं सारं रहस्यनूतं परमरूपतया ध्येयमित्यर्थः, अथवा जसारं जयो बाह्यांतरारीणां निर्जयस्तेन सारमुत्कृष्टमिति एवंविधं नेमिकुमारमिति वर्षशत
यावत्संसारवासेऽपि स्वयमनिरंती राज्यलक्ष्मीं तृणवदजी गएादिति तस्य कुमारत्वं ज्ञेयं. शीलोपदेशमालां शीलस्य मैथुन परिहाररूपचतुर्थव्रतरूपस्योपदेशा अन्वयव्यतिरेकाभ्यां कथानकानि तेषां माला श्रेणिः, यहा मालेव माला, शीलोपदेशपुष्पाणां बाहुल्येन हृदि कंउपीठे च धारणसाधर्म्यान्मालात्वं एतावता केषांचिच्चनानां विशेषोपदेष्टव्यत्वेन पुनर्जलनेऽपि न दोष:, यदुक्तं – सनाय प्राणतवोसदेसु । नवएसथुइपयासु ॥ संतगुण कित्तसु य । न हुंति पुरुदोसान ॥ १ ॥ इति, शीलोपदेशमालामेव विशिनष्टि - विवेकक रिशालां, वि वे को देयोपादेयविचारः, स एव करी हस्ती, तस्य शालेव शाला विवेकगजेंदस्य निवासनू
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वृत्ति
॥ ३ ॥
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वनि
शीलोपामित्वात्. एवं विधां शिलोपदेशमालां नणिष्यामीति संक्षेपार्थः । अत्र संबंधो वाच्यकरूपो, वा-
च्यः प्रकरणार्थः, वाचकं प्रकरणं, अन्निधेयः शीलोपदेशाः, विवेककरिशालामिति च प्रयोज॥ नं, तच्च विधा, कर्तुः श्रोतुश्च, परापरनेदादेकैकमपि विविधं, तत्र कर्नुः परं मोक्ष प्राप्तिः, अप
रं नव्यसत्वानुग्रहः, श्रोतुरपि परं शिवगतिरपरं तु प्रकरणावबोधः, इतरतीर्थकरनमस्कारनिरपेदं श्रीनेमेरेव नमस्कारकरणं ग्रंथस्य शीलप्राधान्यमेव व्यनक्ति. अतिशयास्तु जयसारमिति अपायाऽपगमातिशयः, जगत्सारमिति पूजातिशयः, तस्य चाऽन्यथाऽनुपपत्तित्वादशा
नातिशयः, ततोऽवश्यन्नावित्वाऽपदेशस्य च वचनातिशयः, इति चत्वारोऽतिशयाः, इति प्रर श्रमगाथार्थः ॥ अथ फलोपदर्शनपूर्वं शीलमेवोपदिशन्नाह
॥ मूलम् ॥—निम्महियसयलहीलं । उहवल्लीमूलनस्कणणकीलं ॥ कयसिवसुहसंमीलं। पालह निचं विमलसीलं ॥२॥ व्याख्या-नित्यं विमलशीलं पालयतेति संबंधः, तहिशे- *षणान्याह-निर्मश्रितसकलहीलं, निर्मथिता मंथन दधिनांममिव चूर्णिता सकला समग्रा ही
ला परित्नवो येनेति, शोलनाजां मृगपतिगजेंभुजंगसंग्रामादिपरानवा हि न बाधते, तथा
॥४॥
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वृत्ति
शीलोप ख वल्लीमूलोत्खननकोलं, सुखमेव च वल्ली कर्मजलधरान्निवर्षणेन प्रापुर्जावुकत्वात्, त-
Ka स्या दुःखवल्या मूलमुत्पतिनूमिः, तदुत्खननाय की कीलकमिव. शीलेन चिराचीर्ण:॥॥॥ खलढाणि निःकृत्येते. कृतशिवसुखसमील मिति, कृतो विहितः शिवसौख्यानां मोहसौख्या
नां सन्मीलः प्राप्तिर्येनेति, नित्यमिति निरंतरं, दानतपोनावनादीनि हि यावत्पालितफलावहानि नवंति, न तथा शीलं, तहि चिरमनुपाल्यैककृत्वस्तभंजने संपूर्णवतन्नंगात्, अतस्तन्निरंतर सेव्यं. यउक्तं-बुप्रंतिनामन्नारा । तच्चिय बुनंति वीसमंतेहिं ।। सीलन्नरो वोढवो । जा. वजीवं अवीसामो ॥१॥ इति नावः ॥ इहपरनवप्राप्यं तन्माहात्म्यमेव गाथायुगलेनाद
॥मूलम् ।।-सबी जसं पयावो । माहप्पमरोगया गुणसमिही ॥ सयलसमीहियसिही। सीलान इह नवेवि नवे ॥ ३ ॥ परलोएवि हु नरसुर-समिहिमुव जिकण सोलजरा |॥ तिहुयणपणमियचरणा । अरिणा पावंति सिदिसुहं ॥ ४ ॥ व्याख्या-इह नवे तावत् शीलादजिह्मब्रह्मसेवनालक्ष्मीश्चक्रवर्त्तिवासुदेवबलदेवमांमलिकादिश्रीः, यशःसर्वदिग्गामी सा. धुवादः, प्रतापोऽखंमिताझैश्वर्य, माहात्म्यं सर्पादेः पुष्पमालादिदर्शनं, अरोगता ज्वरातिसा.
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शीलोप
॥ ६ ॥
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रजगंदरराजयक्ष्माद्यबाध्यता, गुणसमृद्धिः गुणानां महाव्रताणुव्रतानां परिपोषः; सर्वसंग्राहकविशेषणमेवाद — सकलसमीहितसिद्धिः निखिलवांबितप्राप्तिः शीलादिद नवेऽपि जायत इति परलोके पुनर्निश्चितं शीलनरात्सु सेवितादित्यध्याहारः, नरसुरसमृद्धिं मनुष्यदेवलक्ष्मीमुपभुज्य जोग्यतामापय त्रिभुवनप्रणतचरणास्त्रिजगधंद्याः सिद्धिसुखं प्राप्नुवंति, अत एव किंभूताः ? रिया शां प्राक्तनं शुभाशुभं कर्म अवश्यनेद्यत्वात्, तदेव शणमिव रुणं देव्यरूपं, तन्न विद्यते येषामिति अरुणाः की समस्तकर्माणो मुक्तिरूपं परमपदमनुवते. ॥ इति गाथाइयार्थः, जावार्थस्तु कथानकगम्यः । तत्र च गुणसुंदरी पुण्यपालदृष्टांतौ दर्शेते तथाहि
जंबूद्दीपनिधो द्वीप - श्वक्रवर्तीश्वरो ह्यसौ । चंडसूर्यमिषाञ्चक्र - चतुष्टयनृदस्ति यः ॥ १ ॥ तत्रैव जारते क्षेत्रे | दक्षिणे श्रीविभूषितं ॥ श्रीमद्दिलपुरं नाम । पुरमस्ति मनोहरं ॥ २ ॥ यत्राऽलिद सौधा | स्वर्णकुंजायते रविः ॥ स्वर्गगंगा पताकेव । तारकाः किंकिली निजाः ॥ ३ ॥ तत्रारिकेसरी राजा । विक्रमोरेककेसरी | संभावयामि रत्नानि । यत्प्रतापकणानिव
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वृत्ति
॥ ६ ॥
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झीलोप
॥ ७ ॥
॥४॥ देवी कमलमालास्ति । तस्याईर्मशालिनी ॥ अनंगनोगसौनाग्या । लालितस्मर- वृत्ति - कुंजरा ॥ ५ ॥ तस्यां दैवतसंघाना-मुपयाचितकवजैः ॥ नदपादि चिरादेका । सुता सुतशताधिका ॥ ६ ॥ धन्यमन्यो नृपोऽतुळ । जन्मोत्सवमचीकरत् ॥ अथाह्वयच्च सान्वर्थे । नाम्ना तां गुणसुंदरीं ॥ ७॥ कामद्रुमलतेवेयं । वईमाना दिने दिने ॥ मैंदवीव कला जज्ञे । सर्वेषां प्रियदर्शना ॥ ७॥ माद्यउन्मादकुख्यानिः । सिक्तस्तत्तनुकानने ॥ हावन्नावलसतायो । ववृ
यौवनद्रुमः ॥ए ॥ साऽन्यदाऽधीत्य शास्त्राणि | सर्वांगीण विनूषणा ॥ मात्रादेशात्सनामागा-पितुः पदनिनंसया ॥१०॥ चतुःषष्टिकलापूर्णी । साक्षादिव सरस्वती ।। तनयां वि.* नयानम्रा-मंकमारोपयन्नृपः ॥११॥ सत्नां पश्यन्नयोन्मत्त-शृंगारैकतरंगिणीं ॥ जगंति तृणवन्मने । सोतर्मद श्व हिपः॥१२॥ दिव्या सन्ना सुराश्वामी। सेवकाः कामितश्रियः।।अदं विंशः किमन्या । स्वर्गे किंचिहिशिष्यते ॥ १३ ॥ | इत्यादिगर्वहृत्पूरा-ऽजीणोंकवशादिव ॥ स दंमाक्रांतनोगीवो-जगार गरलं वचः ॥ ॥१४॥ कस्य प्रसादप्रासाद-देवतायितमाप्य नोः॥ भुंजध्वं भुवि साम्राज्यं । नवंतो ना
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शीलोप
॥ ० ॥
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किकेलिनिः ॥ १५ ॥ छं वचनमाकर्ण्य । समकालं समाकुलाः ॥ गोमायव इवाहुस्ते । सेवका भूमिकामुकं ॥ १६ ॥ शश्वत्प्रसादकल्पद्रु-बायां तव वयं श्रिताः ॥ मनीषितफलास्वादं । स्वामिन् भृंगा इवाप्नुमः ॥ १७ ॥ श्रुत्वेदं कर्ममर्मज्ञा | जैनधर्माधिवासिता ॥ तदुक्तं दूरयंतीव । कुमारी धुवे शिरः || १८ || सविस्मितेन भूपेन । पृष्टा स्पष्टमुवाच सा ॥ शुजाशुभफलप्राप्तौ । तात कमैव कारणं ॥ १९ ॥ किमन्येन चिरं जीया - लक्ष्मीरेकैव केवलं ॥ यस्याः प्रसादाच्चाटूनि । कुर्वते धनिनां जनाः ॥ २० ॥ तन्निशम्य महाकोपो । ध्रुवौ नंगुरयन्नृपः || ग्रह कस्य प्रसादेन । त्वयैवं भुज्यते सदा ॥ २१ ॥ तयोचे सर्व एवायं । जनः स्वकृतकर्मणां ॥ प्रभुते फलमन्यो हि । निमित्तं केवलं भवेत् ॥ २२ ॥ कादुत्सार्य राजेज्ञे । गृहीत्वानरणादिकं ॥ जीर्णप्रायां विवर्णी च । शाटिकां परिधाप्य च ॥ २३ ॥ जीर्णवस्त्रावृतं शेरं । कुशांगं काष्टहारिणं ॥ निजपुंसा समानाय्य । तस्याः पाणिमयोजयत् ||२४|| युग्मं ॥ ग व निजं कर्म । स्वजिह्वाफलमाप्नुहि ॥ सेवकांश्च दिदेशैनां । योऽनुगंता सरिपुः || २५ || शिशौ न युज्यते कोपो ऽनौचित्यमाचरत्यपि ॥ बाल्ये पत्न्याः स्तनौ क
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वृत्ति
|| G ||
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वृत्ति
शीलोपर्षन् । वध्यो नवति किं सुतः॥ २६ ॥
इत्यादिबहुविज्ञप्तो । नृपः शुक्षांतमंत्रिनिः॥ न कस्यापि वचो मेने । नोगीव प्रत्युता. ॥ ए ॥ कुपत्.॥ २७॥ विशिष्यविकसक्त्र-पंकजा गुणसुंदरी ॥ नोदये स्वपुण्यकर्माणि । ध
न्याहमिति मानिनी ॥२॥ राजहंसीव काकस्य । मकस्यानुयायिनी ॥ तज्जीर्णमंदिरं प्राप्य । ददौ पत्यरथासनं ॥ २०॥ युग्मं ॥ गब राजसते स्वैरं । किमत्रास्ति तवोचितं ।। सु
वर्ण यत्र यत्रैति । तत्र तत्रार्थमावहेत् ॥ ३० ॥ रोरेणोदीरिता प्राह । मावादीरीदृशं पुनः॥ * स्वामिंश्चिंतामणिप्राय-स्त्वमेव शरणं मम ॥ ३१ ॥ युग्मं ॥ सा नंगुरनखाप्यस्य । जटा.
धारान् शिरःकचान्॥ यावत्प्रारत्नते मोक्तुं । विनयावनतानना ॥ ३२ ॥ तावन्मलयजस्यापत्र । सौरन्यमुपलभ्य सा ।। साश्चर्यं चिंतयित्वाथ । ज्ञाततत्वाऽवदत्पति ॥ ३३ ॥ स्वामिन
द्य त्वया काष्ट-नारः क विनिवेशितः ॥ तेनोचे नोजनप्राप्त्या। मुक्तः कांदविकापणे ॥३॥ ततस्तेन समं गत्वा । नारमानाययगृहे ॥ अनबन्नो हि किं नानु-स्तेजोमालिन्यमभुते ॥ ॥ ३५ ॥ श्रीखंडखंडमादाय । गत्वा सौगंधिकापणं ॥ विक्रीय तेन वित्तेन । वस्त्रानरणमग्र
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शीलोप
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दीत् || ३६ || केशान् क्लेशानिवोन्माच्य । तैलेनाभ्यज्य तस्य सा ॥ करांहिनखसंस्कार -पूवैं स्नानमकारयत् ॥ ३७ ॥ रंको राजसुतालाना - पुण्येनैवैष पालितः ॥ पुण्यपाल इति स्पष्टं । सान्वयं नाम निर्ममे ॥ ३८ ॥
यस्मात्तेन तदानिन् । बेदयित्वा पादपं । नृत्यैरानाययहं । चांदनं नृपनंदिनी ||३|| नित्यशी भुज्यमानानि । व्यवहारबहिष्कृतैः ॥ त्रुट्यंति मेरुशृंगाणि । ज्ञात्वेति गुणसुंदरी ॥ ॥ ४० ॥ निःशेषमपि विक्रीय । कृत्वा हेमसहस्रकं ॥ क्रयविक्रयसंक्रांत्या । व्यवहारमसूत्रयत् ॥ ४१ ॥ देयोपादेय विज्ञान-वंध्यं पशुमिवाधिपं ॥ विज्ञा विज्ञाय शिक्षार्थं । बहिर्ग्राममुपानयत् ॥ ४२ ॥ मातृकां पाठयित्वाथ । ज्ञापयित्वाकरावलिं ॥ गणितव्यवहारेऽपि । प्रावयमनयत्पतिं || ४३ ॥ वस्त्रक्रयाणकादीनां । शिक्षयित्वा परीक्षणं ॥ तमन्वशिक्षकां ते । ||देयोपादेयकर्मसु ॥ ४४ ॥ सर्वविद्यासु निष्णात - धिषणा गुणसुंदरी ॥ तमल्प दिवसैश्वक्रे । ध ककमा ॥ ४५ ॥
ततः सार्थेन संगत्य । गत्वा पोतनपत्तनं ॥ आपणादिव्यवहृतौ । तमनिज्ञतमं व्यधात्
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वृत्ति
॥ १० ॥
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वृत्ति
शीलोप ॥ ६ ॥ चक्रे मुग्धापि वैदग्ध्यं । पत्युः प्रत्युत सा तथा ॥ यथा चित्तेषु ददाणा-मपि चि-
त्रमजीजनत् ॥ ४ ॥ क्रमेण सर्वकृत्येषु । प्रवृत्ते नर्तरि स्वयं ॥ निश्चिंता वहिकावर्णा॥ ११॥ वलीमालमलोकयत् ॥ ४ ॥ तत्र सप्तौषधीयोगं । ज्ञात्वा कल्याणसिध्दिं ॥ योजयित्वेष्टि
काचक्रे । चकार कनकोच्चयं ॥ ४ ॥ विशेषचिंतानिर्मुक्ता । निर्मग्नेव सुधांबुधौ ॥ धर्माया रामेऽधिकं रेमे । मुंगीव सरसीरुहे ॥ ५० ॥ पुण्यपालोऽपि नूपाल । श्व लक्ष्मीविलासक
त् ॥ प्रसिदिं परमां प्राप । दानवैदग्ध्यकेलिन्तिः ॥ ५१ ॥ यथा लक्ष्मीस्तथा धर्म-स्तेन दानं ततो यशः ॥ तथा च तस्य वैदग्ध्य-मवर्किटोत्तरोत्तरं ॥ ५ ॥ नक्तंच-श्रीपरिचयाजडा अपि ॥ नवंत्यनिझा विदग्धचरितानां ।। नपदिशति कामिनीनां । यौवनमद एव ललितानि ॥ ५३ ॥ तत्रत्यराजादेशेन । भुवमादाय धर्मधीः॥ नत्तुंगतोरणं तत्र । जिनचैत्यमची. करत् ॥ ५४॥ नित्यमेकत्रवालेन । जडात्मा जायते नरः ॥ इति राजांगजाकार्षी-देशांत- रमति पतिं ॥ ५५ ।। वाहनानि प्रन्नूतानि । क्रयाणकशतानि च ॥ आदाय महतीं सार्थरचनामुत्सुकश्च सः ॥ ५६ ॥ पायमपाश्रेयानां । वाहनं वाहनार्थिनां ॥ यवामि यः सहा
॥ ११ ॥
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शीलोप
॥ १२ ॥
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ज्येति । पटहेनेत्यघोषयत् ॥ ५७ ॥ युग्मं ॥ तत्रत्यनृपमापृग्य । मागधैः कृतमंगलः ॥ दानं ददानो दंतीव । सिंहलंप्रति सोऽचलत् || ५८ || गवन् मार्गे सर्वर्ज्या । कल्पदुरिव जंगमः ॥ नायकः पुण्यपालाख्यः । सर्वत्रेति प्रथामगात् ॥ एए ॥ जीर्णान्यन्यु इरंस्तीर्थ - प्रज्ञावनपुरस्सरं ॥ पुण्यपुंजानिव स्वस्य । नव्यचैत्यान्यचीकरत् ॥ ६० ॥ देशाननेकानुल्लंघ्य ।
विस्तारयन् भुवि ॥ क्रमेण सिंहलद्वीपं । प्रापदानंदबंधुरः ॥ ६१ ॥ स तत्राद्भुतमालि - क्य-निर्मितैर्भूरिभूषणैः ॥ विभुष्य सेवकांश्चक्रे । कल्पवृक्कानिवांगिनः ॥ ६२ ॥ वाजिनस्तेजनालेज- देशजांलक संख्यया ॥ जनैरानाययामास । स्पर्द्धिष्णुरिव वासवं ॥ ६३ ॥ विंध्याचलादश्रानाय्य । दानस्पर्धापराधिनां ॥ सहस्रं नजातीय - दंतिनामप्यमग्रहीत् ॥ ६४ ॥ विभूतिमनुजाव्याथ | प्रभूतां गुणसुंदरी ॥ नवाचावसरं प्राप्य । पतिं मधुरया गिरा ॥ ६५ ॥ स्वामिन् घर्मी संतप्त - विहंगगलचंचलं ॥ वित्तं विवेकिना प्राप्य । तूर्ण कार्य फलेग्रहि ॥ ६६ ॥
किं तेन नाथ वित्तेन | यत्पुण्यांगं न पोषति ॥ या स्वजनसंबंधि - कौतुकाय न जायते ॥ ६७ ॥ ततुमुचितं तत्र । यत्र राजारिकेसरी | उन्मील्य नयने सोऽपि । प्रेतां क
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वृत्ति
॥ १२ ॥
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जीलोप
वृत्ति
। १३ ॥
मजं फलं ॥ ६ ॥ श्रुत्वा तत्राषितं पुण्य-पालस्तनावपंमितः ॥ सद्यः प्रास्थानिकी ढक्कां । प्रौढप्रौढिरदापयत् ॥ ६ए ॥ पुण्यपालो महीपालैः। संमुखागमनादिना ॥ मार्गे सक्रियमाजोऽगा-सम्राडिव पदे पदे ॥ ७० ॥ तीर्थ प्राप्य महादान-प्रवृत्त्या संघपूजया ॥ प्रस्तावनादिकृत्यैश्च । चक्रेऽहद्दर्शनोन्नतिं ॥ १ ॥ चक्रवर्ती ह्ययं किं वा । वासवो वा धरागतः॥ वासुदेवो महासैन्यः। किं वा साधयते महीं ॥ ७ ॥ इत्यादि लोकैराशंक्य । युक्तयुक्त्या विनाव्य च ॥ महानायक इत्येष । प्रसिद्धिं प्रापितः परां ॥ ७३ ।। क्रमेणाक्रम्य सीमांतं । श्रीनदिलपुरस्य सः ॥ अनेकान पूर्वसंकेतान् । जन्मनूमेय॑लोकयत् ॥ ७ ॥स्मारं स्मारं काटहारि-प्रस्ताव सुहृदां पुरः॥ वेधसापि हि दुर्लध्यं । वैचित्र्यं कर्मणोऽवदत् ॥ ५ ॥ स्थापयित्वा पुरासन्ने । साथै स्वार्थपरार्थवित् ॥ विमानप्रतिनं तत्र । नव्यसौधं व्यधापयत् ॥६॥ स्थाले निधाय रत्नानि । पुंजीकृत्य गुणानिव ॥ अरिकेसरिनूपाय । प्रानृतं सार्थपो ददौ ॥
॥ तत्तद्देशांतरोदंतैः । पुण्यपालोऽनुशीलितैः॥ आश्चर्यकारिनिश्चक्रे । राजानं विस्मिताशयं ॥ ७ ॥ जन्मन्यपि न दृश्यते । ये जावा नूधवैरपि ॥ हेलया तेऽनुनूयते । देशांतरवि
॥१३॥
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शीलोप
वत्ति
॥ १४ ॥ीध्वं । नया
हारिनिः॥ ए ॥ हस्तिनः कतिचिशजा । जिघृक्षति धनैरिति ॥ मंत्रिणोदीरितोऽवादी- दारः श्रेष्टिपुंगवः ॥ ॥ किं धनैः सर्वमेवेदं । विन्यस्तै स्वामिपादयोः ॥ तत्प्रसद्यानुगृ.. हीध्वं । तत्रैवागमनेन मां ॥१॥ कौतुकेन महीशोऽपि । दिदृक्षुस्तस्य वैनवं ॥ परिमेयपरीवारः । सार्थमध्यमश्रासदत् ॥ २ ॥ विचित्रन्नाषानेपथ्यैः। प्रविशनिःसरजनैः ॥ साथै स वीक्ष्य स्वर्लोक-मिव चित्ते चमत्कृतः ॥ ३ ॥ तावता पुण्यपालोऽथ । विनयामिनायकं ॥ स्नानमंडपमासाद्य । स्नानपीठमवीविशत् ॥ ४ ॥ देवा स्नानमाधाय । चीनांशुकसमावृतः ॥ जिनार्चनचिकी राजा । मध्ये देवगृहं ययौ ॥ ५ ॥ कर्पूरपूरकस्तूरी-चंदनाऽगुरुकुंकुमैः ॥ स्तवनैरुत्तमैस्तत्र । प्रपूज्य जिनपुंगवं ॥ ६ ॥ ततो नोजनशालाया-मुफविष्टे महीपतौ ॥ स्वर्णासनोपरि न्यस्ता। रत्नस्थालावली शुन्ना ॥ ७ ॥ पूर्व दिग्धारतः श्वेत -वस्त्राजरणधारिणी ॥ देवीव काचिनार्येत्य । न्यधात्तत्र फलावलीं ॥ ७ ॥ निर्गत्य दक्षिण- धारा । नीलनपथ्यनूषणा | नूयो रसवती रम्यां । पर्यवेषयदंगना ॥ नए ॥ प्रतीच्याः पीतवस्त्रादि-हृद्या पक्वान्नमाविपत् ॥ नदिच्या रक्तनेपथ्या । घृतादि मानिनी न्यधात् ।ए।
॥१४॥
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लोप
वृत्ति
दृष्ट्वा चतस्रो नूपालो-ऽनन्यरूपा मृगेकणाः ॥ सविस्मयतयाऽप्रादी-त्कियदंतःपुरं तव १ ॥ सस्मितं पुण्यपालोऽपि । नूपालमलपत्तरां ॥ यथावधारितं स्वामिन् । नवता तत्तत्रैव हि ॥ ए॥ नोजनादूर्ध्वमेकांते । पुण्यपालनरेंड्योः ॥ आसीनयोर्नवस्नेह-गोष्टीसु हृतचेतसोः ॥ ए३ ॥ समयज्ञा तदा हर्षा-इंगतो गुणसुंदरी ॥ वहिकां पितृदत्तां तां । परिधाय समागमत् ॥ ए४ || दृष्ट्वोपलक्ष्य वैलक्ष्य-मंदाकोऽपरुषं जगौ ॥ वत्से नेपथ्यमादाय। ममोत्संगमलंकुरु ॥ ॥ तथाकृते नृपोऽवादी-न्मन्वानः कर्मजं फलं ॥ उन्मार्गतस्त्वयैवादं । सन्मार्गमवतारितः ॥ ए६ ॥ अपरापरशृंगारा । नोजनावसरे तदा ॥ एकैवाहं समा| यांती । त्वया वै नोपल दिता ॥ ए७ ॥ वत्से कोऽयं पुण्यपालो । मंदं पृष्टा सती सती ॥ के त्रिणा झापयामास । सास्वं वृत्तांतमादितः ॥ ए॥ मंत्रिसामंतशांत-प्रमुखा नगरीजनाः ॥ तमुदंतमथाकर्ण्य । तत्र सोत्कंठमेयरुः ॥एणा आलिलिंगुर्जनन्यस्तां । बाष्पाविलवि- लोचनाः॥ वत्से त्वत्संगमादद्य । मुदाऽस्मासु पदं ददे ॥ १० ॥ धान्यः सख्यस्तथा प्रीत्या शैशवस्नेहसोत्सुकाः ॥ गाढहुंकारहुंकारा । दगदुपपुढौकिरे !!१॥ समाकर्य समाकर्ण्य ।
॥ १५ ॥
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शीलोप
॥ १६ ॥
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तस्य वैज्ञवसंज्ञवं || जल्पत्यो विस्मयाञ्चक्रुः । कोलाहलमलं स्त्रियः ॥ २ ॥ पितृसेवकलोकानां । प्रमोदाङ्गुणसुंदरी ॥ वस्त्राभरणतांबूलै - रुचितां सत्क्रियां व्यधात् ॥ ३ ॥ पुण्यपालोऽपि बातें - रिव सत्कंठमीक्षितः || विनयावनतग्रीवो | नतः श्वसुरमादरात् ॥ ॥ मदur गजारूढौ । जामातृश्वसुरौ ततः ॥ सांतःपुरपरीवारौ । नगरंप्रति चेतुः ॥ ५ ॥ श्रीवईमानसूरीला - मंतरा धर्मदेशनां ॥ मिष्टपथ्यां नृपः श्रुत्वा । जामातरमवोचत ॥ ६ ॥ वैराग्यं जातमस्माकं । वैजवश्रवणात्तव ॥ तथापि श्रोतुमिच्छामि । जिनधर्म सविस्तरं ॥७॥ संभूय सर्वे सानंदं । नत्वा सुरींश्पादयोः ॥ शश्रुवुर्धर्ममाहात्म्यं । संवेगावेगकारणं ॥ ८ ॥ यथा - लक्ष्मीर्यशः कुले जन्म । प्रतापः प्रियसंगमः ॥ श्रीधर्मकल्पवृक्षस्य । फलमेत जिनोदितं ॥ ए ॥ यत्पुनर्गुणसुंदर्या । शीलं पालितमुज्ज्वलं ॥ तस्येदं फलमत्रातं । प्रांते मोकोऽपि लप्स्यते ॥ १० ॥ नवजोधिरपारोऽयं । दुःख कल्लोल संकुलः ॥ दीक्षापोतमनादृत्य | तरीतुं न हि शक्यते ॥ ११ ॥ श्रुत्वाऽन्यधत्त भूपालः । श्रयामि चरणौ तव । महात्मनाऽयथादिष्टं । न च जाव्यं निरुद्यमैः ॥ १२ ॥ गत्वा मंत्रिभिरामंत्र्य । मुक्त्वा कारां कृपापरः
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॥ १६ ॥
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शीलोप
॥ १८ ॥
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यानां रक्षणं, अवनीनाथो नरेंशः, अपि शब्दाद् इमकोऽपि पुरुषः पुमान् धर्माधारः, नारी स्त्री मोक्षसाधक रत्नत्रयधारिणी, जात्यपेक्षया सर्वेषामेकवचनं, सदा निरंतरं सर्वाण्येतानि पवित्रायेव प्रति गौरवं लनंते; शीलवंत एव पूज्याः सुगतिगमनयोग्याश्च भवतीति शेषः ॥ ५ ॥ इतरनरप्रवृत्तये दुःकरकारकत्वेन शीलकलितानेव गाथायेनोपश्लोकयन्नाह—
॥ मूलम् ॥ - दायार सिरोमलिलो । के के न हुया जयंमि सप्पुरिसा | के के न संति किं पुरा । श्रवच्चियधरियसीलनरा ॥ ६ ॥ बठ्ठठ्ठमदसमाइ - तवमाणावि हु व नग्गतवं ॥ अकलियतील विमला । जयंमि विरला महामुलिलो ॥ ७ ॥ व्याख्या - जगति नू
दातृशिरोमणोऽदान्याः के के सत्पुरुषा न जूता न जाताः ? यदाहुः - कर्णश्वर्म शि बिसं । जीवं जीमूतवाहनः । ददौ दधीचिरस्थीनि । नास्त्यदेयं महात्मनां ॥ १ ॥ के के वन संति न विद्यते सत्पुरुषा दातारः ? कृपाईतया ये स्वजीवमपि तुलया तोलयंति, पुनः स्तोका एव घृतशीलनराः सत्पुरुषा अपीतिशेषः || ६ || द्वितीयगाथार्थमाह-पष्टाष्टमद - शमादि श्रतीव तपस्तप्यमाना अपि खु निश्चयेन जगति अस्खलितशील विमलाः श्रखंमित
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वृत्ति
॥ १८ ॥
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वृत्ति
शीलोप० ॥ पुत्राऽनावान्नमोऽदत्त । जामात्रे राज्यसंपदं ॥१३ ॥ स्वयं महाविनूत्या तु । दत्वा वांनि-
Jan तमर्थिनां ॥ चारित्रमुररीकृत्य । निष्कलंकमपालयत् ॥ १४ ॥ पुण्यपालमहीपालो । जिनध॥ १७॥ मैं प्रत्नावयन् ॥ साम्राज्यं पालयामास । चिरं सन्नोतिपेशलः ॥ १५ ॥ यौवनं निधनारूढं ।
श्रीनराः कणनंगुराः ॥ कायोऽपायशतोपेत-स्तस्माइमें मतिं कुरु ॥ १६ ॥ इत्युक्तो गुणसुंदर्या । पुत्र राज्ये सुलोचनं ॥ निवेश्य दंपती दीक्षां । जगृहाते महोत्सवात् ।। १७ ॥ निरतीचारचारित्र-मनुपाल्य चिराय तौ ॥ प्रापतुर्मोदमहीण-सुखमक्षयमव्ययं ॥ १७ ॥ ये शीलमाणिक्यमखममेत-यत्नेन धीरा हृदि धारयति ॥ ते स्युः परत्रेह च वांरितार्थ-प्राप्तिप्रहृष्टा गुणसुंदरीव ॥ १५ ॥ इति श्रीगुणसुंदरी कथा ॥
सिः साधकेषु धर्मोपायांतरेषु सत्स्वपि शीलमेव परमार्थतस्तत्कारणमित्याह
॥ मूलम् ।।—देवो गुरू य धम्मो । वयं तवं गुत्तिमवणिनाहोवि । पुरिसो नारीविस- या। सीलपविताई अग्छति ॥ ५॥ व्याख्या-देवः शासनादिकरः, गुरुर्धर्माचार्यः, धर्मो हेयोपायोपदेशो, व्रतं दीदांगीकारः, तपो बाह्याभ्यंतरत्नेदाद् हादशनेदं, गुप्तिर्मनोवचनका.
१७॥
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शीलोप
11.2 11
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ब्रह्मचर्या विरला एव महामुनयः, दुःपरिपाल्यत्वाद्ब्रह्मव्रतस्य यदागमः - अस्काण रसणी क म्माण | मोहली तद वयाण बंजवयं ॥ गुत्तील य मागुत्ती । चनरो दुस्केहिं जिप्पंति ॥ ॥ १ ॥ श्रतस्तपस्वित्वेऽपि विरला एव निर्मलशीला इति भावः ॥ तदेव लौकिकदृष्टांतेन दर्शयन्नाह -
॥ मूलम् ॥ - जं लोए वि सुज्जिइ । नियतवमाहप्परंजियजयावि || दीवायण विस्सामित्त - मुहमुशिणोवि पट्ठा ॥ ८ ॥ व्याख्या - यल्लोकेऽपि श्रूयते यन्निजतपोमाहात्म्यरंजितजगतोऽपि द्वीपायन विश्वामित्रप्रमुखमुनयोऽपि प्रभ्रष्टाः, शुष्कपलाशशेवाल जलाहारा प्र पिस्त्रीविभ्रमांता ष्टशीला जाताः, इति गाथार्थः ॥ ८ ॥ जावार्थः पुनः कथानकगम्यः, स चेन्नं
-
पूर्वजः पांवेयानां । हस्तिनापुरनायकः ॥ मृगव्यव्यसनी राजा । शांतनुः काननं ययौ ॥ १ ॥ सारंगः स्वप्रियां प्रेम्णा । पुरस्कृत्य पलायितः ॥ तत्पृष्टे स व्रजन् वेगा - द्विवेश वरकाननं ॥ २ ॥ आरुरोह महासौधं । दृष्ट्वा सप्तभूमिकं ॥ तत्र बालाऽर्घपाद्यादि - युक्तया
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वृत्ति
॥ १५ ॥
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शीलोप
॥२०॥
चोपवचार तं ॥ ३ ॥ सुमुखीमुल्लसत्प्रेम-रोमांचामथ सोऽन्यधात् ॥ कासि त्वं कस्य वा * वृत्ति - पुत्री। कथमेकाकिनी वने ॥४॥ जहोर्विद्याधरेशस्य । गंगा नानी सुतास्म्यहं ॥ आपतिप्राप्ति तिष्टामि । ज्योतिर्विधाक्ययंत्रिता ॥५॥
तनाथ फलितं युष्म-संगमेनाधुना मम॥ ततश्च परिणीयागा-न्नृपो गंगां स्वपत्तनं ॥ १॥६॥ क्रमेणाऽसूत सा सूनुं । गांगेयानिधमुर्जितं ॥ धनुर्वेदादिविद्याश्च । मातुलस्तमपीप
उत् ॥ ७॥ अन्यदा शांतनु व-मारूढां यमुनातटे ॥ कन्यां सत्यवतीं वीक्ष्य । तत्पितुस्तामयाचत || G॥ नौसैन्याधिपतिः प्राह । वरस्त्वाक्क्व लन्यते ॥ गांगेयोऽस्ति परं सनस्तव तदातुं नोत्सहे ॥ ए॥ सति राज्यधरे तस्मिन् । सुतोऽस्याः क्वोपभुज्यते ॥ श्रुत्वेति वि
गतानंदो। राजा स्वीयां पुरं ययौ ।। १० । गागेयोऽथ पितु व-वेदी नाविकमाह तं ॥त्व. र दौहित्राय दास्येऽहं । राज्यं ब्रह्मधरः स्वयं ॥ ११ ॥ तत्साहसेन संतुष्टाः । पुष्पवृष्टिपुरस्सरं ॥ ॥२०॥
एनं जयजयारावा । नीष्ममित्यूचिरे सुराः ॥१शा नाविकस्तनयां तूर्णं । दत्वा नीष्ममन्नापत ॥ कालिंदीकूलमाप्पैना-मशकमहमेकदा ॥ १३ ॥ रत्नांगदसुता सत्य-वती प्रोक्ता सुरैर
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शीलोप
॥ २१ ॥
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सौ || वात्सल्यात्पालिता त्वेषा । प्रियया मेऽनपत्यया ॥ १४ ॥ श्रनंदादश तां जीष्म-श्चक्रे पितुरुपायनं ॥ उपयम्य नेरशस्तां । सुखाऽद्वैतमविंदत ||१५|| क्रमेणासूत सा सूनु - ६यम हैतसाहसं || चित्रांगदचित्रवीर्या -ह्वयमन्योऽन्यवत्सलं ॥ १६ ॥ शांतनौ युगते भीष्मो । राज्ये चित्रांगद न्यधात् ॥ सोऽन्यदा समरे नीलां - गदेन रिपुणा इतः ॥ १७ ॥
सोऽश्रो विचित्रवीर्याय । दत्वा साम्राज्यमग्रतः ॥ अंबिकांबालिकांबाख्याः । कन्यकाः पर्याययत् || १८ || राजयक्ष्माणमापन्नं । धर्मकर्मार्थवियुतं ॥ तं विनाव्य कुलछेद-शकी जीष्मो व्यचिंतयत् ॥ १७ ॥ यथा तथा कुलं वृद्धि - मापाद्यमिति साग्रहं । शषिं ६ीपायनं सत्यवती व मजूदवत् ॥ २० ॥ कीयमाणं कुलं बंधो । समयज्ञ समुदर ॥ इत्यर्थितो वधूस्तिस्रः । स तनूजामजीजनत् ॥ २१ ॥ नेत्रयोः पट्टबंधेन । संगता धृतराष्ट्रसूः ॥ पांचंदनालिता । निःशंका विदुरप्रसूः ॥ २२ ॥ ईदृशोऽपि मुनिः कामं । चक्राणो दुस्तर्प तपः || हेलया शमापन्नो । विषयाः खलु दुर्जयाः ॥ २३ ॥ यदाहुः कानीनस्य मुनेः स्वबांधव वधूवैधव्य विध्वंसिनो । नप्तारः किल तेऽपि गोलकसुताः कुंडाः स्वयं परुवाः ॥ पं
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॥ २१ ॥
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वृत्ति
शीलोप० चैतेऽपि समानजायत इति प्रातः समुत्कीर्तनं । तेषां पावनमाः कथं नु विषमा धर्मस्य शू-
1. न्या गतिः ॥ २५ ॥ इति संदेपतः प्रोक्तं । दीपायनकथानकं ॥ यथाज्ञातमयोदंतो । विश्वा।१२॥ मित्रस्य के
मित्रस्य कथ्यते ॥ २५ ॥ विश्वामित्रः किल कत्र-मंझनं गाधिनंदनः ॥ वशिष्टस्पईया दीक्षां
तापसीमयमग्रहीत् ॥ २६ ॥ पक्कशुष्कपलाशांबु-शेवालाहारलीलया ॥ सूर्यदृष्टिस्तपो बार ढं । तपतेस्म स पुस्तपं ॥ १७ ॥ अथास्य विश्वविश्वस्य । सृष्टौ शक्तिरजायत । वस्तूनां
प्रतिवस्तूनि । सृजंतं तं दिवेश्वरः ॥ ॥ ज्ञानेन विज्ञो विज्ञाय । तपसो बंशनाय सः ॥
मेनकां प्रेषयामास । नूतले देवकामिनीं ॥ १ ॥ युग्मं ॥ सा वसंतादिसामग्या। नूतलं - देवलोकवत् ॥ कृत्वा विवशयामास । पंचाहीं तस्य सत्वरं ॥ ३० ॥ ध्यानत्रंशमथाऽवाप्य । विस्मृत्य स्वतपःक्रियां ॥ जग्राह मेनकां कंठे । कामविह्वलिताशयः ॥ ३१ ॥ तथा च तबा.
स्त्रे-सुगुप्तानामपि प्राय । इंश्याणां न विश्वसेत् ॥ विश्वामित्रोऽपि सोत्कटं । कंठे जग्राह * मेनकां ॥ ३२ ॥ अनुरागनरां भुक्त्वा । चिराचैतन्यमीयुषा ॥ ध्यानचंशे कियान कालो-s.
तीतः पृष्टेति साऽवदत् ॥ ३३ ॥ सप्तोत्तराएयतीतानि । नववर्षशतानि च ॥ मासाः षड् व्य
॥२॥
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शीलोप
॥ २३ ॥
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तीताश्चान्यत् । समतीतं दिनत्रयं ॥ ३४ ॥ तादृक् क्षत्रियवंश्योऽपि । विश्वामित्रो महातपाः ॥ तपसो शितस्तस्माद् । दुःपाल्यं शीलमुज्ज्वलं || ३५ || स्वरूपमात्रमत्रोक्तं । ग्रंथविस्तरनीतितः ॥ भारतादवगंतव्य । उज्नयोर्विस्तरः पुनः || ३६ || अत्र प्रमुखशब्देन रेणुकादिकामुकतया प्रथिता जमदग्निप्रनृतयो ज्ञेयाः, इति गाथार्थः ॥ आस्तां मिथ्यात्वमुनयः, ज्ञाततत्वानामपि शीलडुः पाल्यत्वमाद
॥ मूलम् ॥ - जाति धम्मतत्तं । कदंति जावंति भावणानु य ॥ जवकायरावि सीलं । धरिनं पालंति नो पवरा || ए || व्याख्या -जानंति श्रवबुध्यते यथोक्तमार्गमित्यर्थः, । च कारस्य सिंहावलोकितन्यायेन न केवलं जानंति धर्मतत्वं कथयति च एतावता तत्वज्ञानदृढता निवेदिता. जावना अनित्यतादिद्वादशविधा जावयंति अनुशीलयंति, जकातरा पि संसारजीरवोऽपि, प्रवरा उत्तमकुलजातयः शीलं धृत्वा न पालयंति, सिंहवदाहत्यापि गोमा - युवत् सत्तत्वतश्चलंति, न च तद्ववदेव पालयितुं कमाः, यदागमः - ' चत्तारि पुरिसजाया पन्नत्ता, तं जहा — सीहत्ताए नामं एगे निरकंते सीहत्ताए विहरइ; सीहत्ताए नामं एगे निरकं -
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॥ २३ ॥
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शीलोपते सियालत्ताए विहर; सीयालनाए नाम एगे निकंते सीहत्ताए विहर३; सियालत्ताए ना- वृत्ति
- मं एगे निस्कंते सियालत्ताए विदर' इति. तत्र प्रश्रमतृतीयनंगौ सुन्नगौ, न वितरौ. ॥ स-4 ॥२४॥ र्वधर्मेन्योऽपि तद्दुःकरतामाह
___॥ मूलम् ||-दाणतवन्नावणार-धम्माहितो सुउक्कर सील ॥ श्य जाणिय नोनवा । अश्यजनं कुणह तन्नेव ॥ १० ॥ व्याख्या-दानतपोनावनादिधर्मेन्यः शीलं सुदुष्कर, सुतरां दुःखेन क्रियत इति. यदुक्तं-कणिके नावनादाने । तपोऽपि नियतस्थिति ॥ यावजीवं तु शीलस्य । दुष्करं परिशीलनं ॥१॥ इति ज्ञात्वा नो नव्याः तत्रैव शीलेऽतियत्न परमादरं कुरुत ? मा दुष्करत्वात्तउपेक्षध्वमिति गाथार्थः ॥ १० ॥ तत्प्रामाण्यमेवाह
॥ मूलम् ॥-तं दाणं सो य तवो । सो नावो तं वयं खलु पमाणं ॥ जब धरिजर सीलं । अंतररिहिययनवकीलं ॥ ११ ॥ व्याख्या-तहानं, तदेव दानं दानतया गएयते इति. ॥२५॥ तच तपः, स नावः, खलु ध्रुवं व्रतमपि तदेव प्रमाणं, यत्र दाने तपसि नावे व्रते च पाचमाणे, अंतररिपुहृदयनवकोलं अंतरंगशत्रुनाशनं शीलं ध्रीयते धार्यत इति ॥ ११ ॥ शेषन
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तातिचारेऽपि निरतिचारशीलाऽनुशीलितस्य माहात्म्यमाह -
॥ मूलम् ॥ कलिकारनवि जलमा - रवि सावज्जजोग निरनुवि ॥ जं नारनवि सिनइ । तं खलु सीलस्स माहप्पं ॥ १२ ॥ व्याख्या कलिकारकोऽपि संग्रामकामोऽपि, अत एव जनमारकोऽपि जनसंहारहेतुरपि, सावद्ययोग निरतोऽपि परकलत्रापहारसपत्नी संयोगादिपापव्यापारासक्तोऽपि, एवंविधोऽपि नारदो यत्सिध्यति, तत्खलु शीलस्य माहात्म्यं, शेषव्रतानि शिथिलीकृत्यापि देवर्षिर्यन्मोक्षं प्राप्नोति, स निर्मलशीलस्य प्रभावः, इति गाथार्थः ॥ ॥ १२ ॥ व्यासार्थः पुनः कथानकगम्यः ॥ तत्र च रुक्मिणीदृष्टांतः, स चायं
४
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द्वारवत्यां महापुर्वी | कृष्णनामाऽचत्रयनूत् ॥ बलदेवान्वितो राज्य - मूर्जस्वलमपालयत् ॥ १ ॥ अन्यदा नारदो चाम्यन् । कलिकेलिकुतूहली ॥ हरिमंदिरमन्यागात् । प्रज्ञावैजवनास्करः ॥ २ ॥ संमुखं कतिचित्पादा-नर्घपाद्यपुरस्सरं ॥ प्रत्युक्रम्य स रामेण । मुकुंदेन नमस्कृतः ॥ ३ ॥ तत्र स्थित्वा कणं क्रीडा -लोलः शुद्धतमीयिवान || नार्चितो नामया वक्त्रं । दर्पणे वीक्षमाणया ॥ ४ ॥ देवाधीश्वरपत्न्योऽपि । मदवां न हि व्यधुः ॥ एषा
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वृनि
॥ २६॥
पुनरहंयुक्त्वा-दौचित्यमपि नाडाचरत् ॥५॥ क्रुः सोत्फालमुत्प्लुत्य । स गत्वा कुंमिनं पुरं ॥ रुक्मिण्या सत्कृतस्तस्याः । पुरो हरिगुणान् जगौ ॥ ६॥ कृत्वाऽनुरागिणी रूपं । लिखित्वा च पदे द्रुतं ॥ कृष्णस्य दर्शयामास । सत्यनामाऽन्यसूयया ॥७॥ केयं देवीति कृष्णस्य । पृचतो मुनिरन्यधात् ॥ रुक्मिणीनामकन्येयं । रुक्मिराजलघुस्वसा ॥॥ चित्रं कृष्णो गुणांस्तस्याः । शृपवन कुंदेऽबंधुरान् ॥ अनुरागनरं बभ्रे । नारदंप्रत्युवाच च ॥ ए॥
तथा कुरुष्व देवर्षे । यथेयं स्यान्मम प्रिया ॥ कल्पशेः प्रार्थना या । किमु स्यानिफला क्वचित् ॥ १०॥ मा खिद्यथास्तथा कर्ता | यथा स्यात्तव गोचरा ॥ दूतं प्रेषय रुक्मिराट् । त्वयि कीदृक् विचेष्टते ॥ ११ ॥ हृष्टः कृष्णस्तमन्यर्थे । देवर्षिमिति नाषिणं ॥ रु. क्मिणी याचितुं दूतं । प्राहिणोद्रुक्मिणप्रति ॥ १२ ॥ रुक्मी प्राह न गोपाय । ददामो नगि
नी वयं ॥ पुरा प्राप्तो वरोऽमुष्याः । शिशुपालो महाभुजः ॥ १३ ॥ रत्नं हेमाश्रितं नाति । - नाऽरकूटास्पदीकृतं ॥ इति दूतमुखेनायं । नारायणमबीनणत् ॥ १४ ॥ अथो पितृस्वसाऽ- मुष्या। रुक्मिणीमवदनदा ॥ अतिमुक्तोऽवदछत्से । त्वामग्रमदितीं हरेः ॥ १५ ॥ याचमा
॥६॥
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वृत्ति
शीलोपनमपि प्रीत्या । निराकृत्याद्य तं रुपा ॥ रुक्मिणा शिशुपालाय । वत्से दत्तासि संप्रति ॥१६॥
शिशुपालस्य वैरूप्यं । पुरा विज्ञाय नारदात् ॥ तस्मै दत्तां तदाकर्ण्य । विषादाहुर्मनायिता ॥ ॥ ७॥ ॥ १७ ॥ ज्ञानिवाणी नवेन्मिथ्या । किं कदापीति नापिणी ॥ रुक्मिणी केशवे रक्तां । नि
श्चिकाय पितृस्वसा ॥१७॥ युग्मं ॥ ततः शीघ्रं सा दूतेन । कृष्णमेवं व्यजिज्ञपत् ॥ रुक्मिएयामनुरूपायां । सानुरागं मनोऽथ चेत् ।। १५ ॥ शीघ्रमेयास्तदा गुप्त-वृत्त्या माघाष्टमीदिने ॥ नागार्चनबलाच्चैना-मानयिष्याम्यहं वने ॥ २० ॥
इतश्च कुंडिने क्तृप्त-वैवाहिकमहोत्सवे ॥ शिशुपालः समन्यागात् । तत्पाणिग्रहणोत्सुकः ॥ १ ॥ विज्ञायागमनं तस्य । कलिप्रियमुनेर्मुखात् ॥ रथक्ष्यमथारुह्या-जग्मतुः सीरिशाह्मिणौ ॥ २२ ॥ पूर्वसंकेतिते स्थाने । पितृस्वस्रा पुरस्कृतां ॥ निरीक्ष्य रुक्मिणी पीन–वकोजन्नरमंथरां ॥ २३ ॥ यादृशी नारदेनोक्ता । ततोऽप्येषाऽतिरिच्यते ॥ इत्यनुध्या- य गोविंदः । सरागमिदमूचिवान् ॥ १४ ॥ युग्मं ॥ नई समागतो दूरा-दनुरागवशंवदः ॥ त्वामहं संस्मरन् शृंगः । कल्पशेरिव मंजरीं ॥ २५ ॥ तस्मादलं विलंबेन । समारोह द्रुतं
॥७॥
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वृत्ति
॥२॥
रथं ॥ पितृस्वसृसमादिष्टा । रुक्मिण्यपि तथाऽकरोत् ॥ २६ ॥ स्वदोषमय निहोतुं । पूञ्चकार पितृस्वसा ॥ हीयते हीयते हाहा । रुक्मिणी हरिणा दगत् ॥ २७ ॥ पूरयित्वा पांचजन्यमजन्यमिव विहिषां ॥ कार्यसंसिइिसोत्साह-श्वचाल सबलो हरिः॥ ॥ अथ सांग्रामि
कातोद्य-निर्घोषदोनितांबरौ ॥ जिह्वालामिव कुर्वाणौ । रोदसीमस्त्रसंचयैः ॥ श्ए ॥ प्रत्या- हत्तुं समायांतौ । दमघोषजरुक्मिणौ ॥ सबलौ रुक्मिणी ज्ञात्वा । नयकंप्राऽवदत्प्रियं ॥३॥
युग्मं ॥ युवामेकाकिनौ नाथ । तौ त्वसंख्यबलावृतौ ॥ मत्कृतेऽयमपायोऽन-धुवयोराकु. सास्मि तत् ॥ ३१ ॥ मा नैः प्रिये रिपूवेदि । शौर्य पश्येति स ब्रुवन् ॥ तन्नीनेदाय तालाली। चिल्दैकेन पाणिना ॥ ३२ ॥ प्रिये मदने कावेतौ । वराको काकचंचलौ ॥ इत्युक्त्वा मुश्किावजं । कर्पूरवदचूर्णयत् ॥ ३३ ॥ युसरंनिणं कोपा-दीक्ष्याऽनुजमथो बलः ॥ आ| गृह्य सप्रियं प्रैषीत् । स्वयं तत्रैव तस्थिवान् ॥ ३५ ॥ रुक्मिएयान्यर्थितः स्माह । रौहिणे- य नरायणः ॥ क्रूरोऽपि रुक्मिन्नूपालो। जीवन रक्ष्यो रणांगणे ॥ ३५ ॥ रथेन जविना गेहं । प्रस्थिते सप्रिये हरौ ॥ ममंथ मंथाचलव-शमो वैरिबलार्णवं ॥ ३६ ॥ हलेन कुलिशेनेव ।
॥२॥
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शीलोप
॥
॥
विक्षिा बलसूदनः ॥ मुरली पातयामास । दंतावलशिलोचयान ।। ३७ ॥ समरांगण विध्व- वृत्ति - स्त-तुरंगपुचचामरैः ॥ धरा चकार वीराणां । सकेशास्तरणं किल ॥ ३० ॥ रणोन्नटनटैः
साई। पतितैः स्यंदनवजैः ॥ वेतालैरिव कंकालै । रणनूर्नीषणाऽत्नवत् ॥ ३५ ॥ स्वसैन्येन समं नीतः । शिशुपालः शृगालवत् ॥ नंष्ट्वा क्वापि जगामासौ । बकमुक्तो यथा ऊषः ॥ ॥ ४० ॥ तदानीं नारदो व्योनि । रणकेलिकुतूहली ॥ ननन इस्ततालान्यां । शिशुपालं हसनलं ॥१॥
अथ वीर्यकृतोत्फालः । पंचास्य श्व रुक्मिराट् ॥ कुंझलीकृतकोदंगो । रामस्य पुरतोऽ.* नवत् ॥ ४२ ॥ सोऽपि तीक्ष्णक्षुरप्रेण । दिस्तस्य शरावली ॥ वेगान्मुमुंभ मुंमंच । सतुंड रामनापितः ॥ ३ ॥ बन्नाण जीवन्मुक्तोऽसि । वधूत्रातेति तजिरा ॥ तस्मानिारिवात्मानं। पोषय त्वं म्रियस्व मा ॥४४॥ अक्षमः कुंझिनं गतुं । रुक्मी बीमावशंवदः ॥ निवेश्य त- ॥२ स्थिवांस्तत्र । पुरं नोजकटान्निधं ॥ ५ ॥ कीर्तिस्तंन्ननिन्ने तस्मि-नायुगांतं निवेशिते ॥ कतकृत्यस्ततो रामः । पुरी धारवती ययौ ॥ ६ ॥ सन्निकर्षमासाद्य । क्षारिकाया जनार्दनः
॥
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झीलोप
॥३०॥
॥ त्याजयन् हियमित्यूचे । रुक्मिणी मधुराक्षरैः ॥ ४ ॥ सैषा सौधावलीरत्न-द्युतिविद्योति- वृत्ति , तांबरा ॥ दवैर्विनिर्मिता देव-पुरीव क्षारिकापुरी ॥ ४ ॥ अत्र क्रीमागृहाराम-धारामंदिरके-4 लिन्तिः ॥ आरामं सफलीकुर्या-देवनारीव नंदने ॥ ए ॥ तदाऽवसरमासाद्य । रुक्मिणी तमन्नापत ॥ नृत्येव धृत्वा नीताऽत्र । स्वामिन् का नवितास्म्यहं ॥ ५० ॥ सोढव्यं तु सपत्नीनां । हास्यमित्यूविर्षी च तां ॥ सर्वासु धुरि कर्तास्मी-त्युक्त्वा हरिरतोषयत् ॥ ५१ ॥गांधर्वण विवाहेन । वसंत श्व माधवीं ॥ अयैतां विभ्रमांनोधि-तरी हरिररीरमत् ॥ ५॥
नद्याने कमलागेहे । लदम्या मूर्ति पुरातनीं । नत्सार्यातिष्टपत्तत्र । रुक्मिणी कलेयेहरिः॥ ५३॥ श्रीरिवाऽनिमिषी नूयाः । सत्यनामासमागमे ॥ शिवयित्वेति तामागा-प्रजाते माधवो गृहान् ॥ ५५ ॥ क मुक्ता धूर्त नार्येति। नामयाऽधिकन्नामया ॥ पृष्टः स स्पटमाचष्ट । मुक्तास्ति श्रीगृहे बहिः ॥ ५५ ॥ जुतं नामापि संभ्रांता । सपत्नीनिः समन्विता ॥३०॥ ॥ तत्र गत्वा विलोक्यापि । साहालक्ष्मीममन्यत ॥ ५६ ॥ अहो चित्रकृतश्चित्र-कारि चित्रेषु कौशलं ॥ इत्युदीर्य पदोस्तस्या । न्यस्य मौलिं व्यजिज्ञपत् ॥१७॥ हरिणाऽनिनवानी
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वृत्ति
शालोपत-जायारूप विजित्वरीं ॥ मां कुर्याः कमले तेऽचों । करिष्ये पूर्णकामिता ॥ ७॥ इतस्त-
तो विलोक्याथ । नाषितं सत्यया पुनः॥ क्व नु धूर्त प्रियाऽस्तीति । दर्शयामि चलाग्रतः॥ ॥ ३१॥ ॥ ॥ अथोडाय हरेरग्रे। नूयोऽन्नाषत रुक्मिणी ॥ अमूषु का नमस्या मे । ततः स.
त्यामदर्शयत् ॥ ६॥ त्वयैव पाठितैषापि । कपटैः पाटवं परं ॥ निर्लज्जा यदसौ स्वस्य । पादयोर्मामपातयत् ॥ ६॥ कृष्णः सस्मितमाहस्म । को दोषो वंदने स्वसुः॥ एषैव तव संतुष्टा । पूरयिष्यति वांठितं ॥ ६॥ कोपकंप्रतनूर्नामा । वायुवामितपत्रवत् ॥ नत्प्लुत्य खेदपाश्रोधि-ममा स्वावासमासदत् ॥ ६३ ॥ चं सर्वसपत्नीन्यो-ऽधिकसत्कारपूर्वकं ॥ रुक्मिणी पट्टराझीत्वे । स्थापयामास केशवः ॥ ६ ॥ एवं जनक्षयं कुर्वन् । सापत्न्यं च म. हाकलिं ॥ नारदः सिइिमाप्नोति । यत्तवीलस्य नितं ॥ ६५ ॥ इति केवलशीलपालने कथा ॥ अथ तपस्विनोऽपि शीलरहितस्य तदैपरीत्यमाह
॥ मूलम् ॥–दायावि तवस्सीवि हु । विसुनावोवि सीलपरिनहो ॥ न बह सि. ॐ वसुहमसमं । ता पालह उक्करं सीलं ॥ १३ ॥ व्याख्या-दाता सदा दानोन्मुखः, तपस्वी
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वत्ति
शीलोपाषष्टाष्टमादिश्वरतपश्चरणशीलः, विशुनावोऽपि निर्मलमनःप्रचारः, अपिशब्दः सर्वत्र यो
TO ज्यः, एवंविधोऽपि शीलपरिभ्रष्टः प्राणी, असममसामान्यं केवलिनापि प्ररूपयितुमशक्यं, ॥३॥ सिदिसुखं न लन्नते, मोदं न प्राप्नोति, तस्माहुःकर शीलं पालयत ? चेन्मोक्षार्थनो नोन
व्याः, इति शेषः, प्राकृतत्वाउद्देशोपदेशयोः संख्यावैषम्येऽपि न दोषः ॥ १३ ॥ अथ गायायुगलेन पुनस्तस्यैव दुःपरिपाल्यतामाह
॥मूलम् ॥–दीसति अणेगेन । नग्गखग्गविसमंगणे महासमरे ॥ नग्गेवि सयलसिने । मन्त्रीसादायिणो धीरा ॥ १४ ॥ दासंति सीहपोरिस-निम्महणादलियमयगलगणाय॥ मयणसरपसरसमये । सपोरिसा केवि विरला य ॥ १५ ॥ व्याख्या-नाखाविषमांग
णे करालकरवाल विसंस्थुलप्रांगणे महासमरे महायुद्दे सकलसैन्ये सर्वकटके नग्नेऽपि मंनो. . सादायियो' मा नैषुः, मा नयं कुरुध्वमिति वादिनोऽनेके धीरा दृश्यते, शत्रुसुन्नटै निजक- 8 टके दिशो दिशं नाशितेऽपि ये साहसमवष्टन्य रणांगणे तिष्टंति, एवंविधा अपि पुरुषाः संसा
रे संतीत्यर्थः, यतस्तादृशा एव सुन्नटसीमानमवगाईते. यदुक्तं-ननेषु सैन्येषु महानटा
॥३२॥
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वृत्ति
गीलोपनां । ये वैरिवारोन्मुखपादपाताः ॥ तानुत्तमांगेन दधाति धात्री । तैरेव यस्माद्रियते धरित्री
॥१॥इति, 'मं नीसा' इति अपघंशनिपातः॥हितीयगाथार्थमाह-सिंहपौरुषनिर्मथनादलितमदकलगणाश्च दृश्यते, मदकला गजेंशः, ईदृशा अपि धीराः संतीत्यर्थः, किंतु मदनशरप्रसरसमये कंदर्पोन्मादे जागरुके सति केचिदेव सपौरुषाः, विरला एव कंदर्पशस्त्रपाते शीलरूपास्त्रधारिण इत्यर्थः, नक्तंच-दशावस्थो दशग्रीवो । देवदानवदुर्जयः॥ कंदर्पराकसेशेऽसौ । शीलास्त्रेणैव साध्यते ॥ १ ॥ सुन्नटानामपि स्त्रीजैत्रतामाह
॥ मूलम् ॥ जे नामंति न सीसं । कस्सवि भुवणेवि ते महासुहडा ॥ रागंधा गलियबला | रुलंति महिलाण चरणतले ॥ १६ ॥ व्याख्या-भुवनेऽपि जगत्यपि ये कस्यापि शीर्ष न नामयंति, तेऽपि महासुन्नटा रावणप्राया महावीरा रागांधा अनुरागवशंवदाः, गलितबलाः कंदर्पवशादीशप्राणा श्व महिलानां स्त्रीणां चरणतले रुलंति लुम्तीति नावः ॥१६॥ विशिष्य तदेवाह
॥ मूलम् ॥-सक्कोवि न य खंड । माहप्पमडप्फरं जए जेसि ॥ तेवि नरा नारी
॥ ३३ ॥
OF
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लोप
३४ ॥
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हिं । काराविया निययदासत्तं ॥ १७ ॥ व्याख्या - येषां पुरुषाणां माहात्म्यमरुप्फरं स्फूर्तिगर्व जगति संसारे शक्रोऽपि न खंडयति, प्रास्तां मनुष्यः, देवेंशेऽपि येषामहंकारं निराकर्त्तुं न कमः, तेऽपि नरा नारीनिर्निजदासत्वं कारिताः, ये स्ववीर्यादयुतया शक्रमपि न गणयति, तेऽपि स्त्रीजनांनानंग्या विमंबिता इति ॥ १७ ॥ अत्र च भुवनानंदाराशी रिपुमईननृपदृष्टांतः, तथाहि
अस्ती जरतक्षेत्रे । सुखावासानि पुरं ॥ यत्रालिहसौधेषु । तारकैरकृतायितं ॥ ॥ १ ॥ तत्र मानोन्नतस्तीव्र - प्रतापतपनान्वितः ॥ सुमेरुरिव रत्नाढ्यो । रिपुमर्द्दननूपतिः ॥ २ ॥ तस्यास्ति सचिवो बुद्धि-सागरो न्यायसागरः ॥ प्रेयसी प्रेमसर्वस्वं । तस्यास्ति रतिसुंदरी ॥ ३ ॥ तत्रास्ति पूर्वदिग्नागे । विमानोपममुन्नतं ॥ श्रीमद्युगादिदेवस्य । चैत्यमत्यंतसुंदरं ॥ ४ ॥ तत्पुरस्तादतिस्फार - सहकारो डुमोन्नतः ॥ तत्रास्ते कीरमिथुनं । नर
विशारद || ५ || अन्येद्युस्तनये जाते । हर्षितौ कीरदंपती || नरेंशदधिकं स्वस्य । साफल्यं दधतुर्भुवि ॥ ६ ॥ अन्यकीरीसमासक्तं । पतिं मत्वाऽन्यदा शुकी ॥ न प्रवेशमदानी मे
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वृत्ति
॥ ३४ ॥
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गीलोप
र वृत्ति
। ३५॥
गम्यतां यत्र ते प्रिया ॥ ७ ॥ अन्यासक्ते नरे प्रेम । परायत्ताश्च संपदः ॥ निर्विशेषज्ञसेवा च । नृणामेषा विषत्रयी॥॥ अपनःक्रियया न-उपराधः कम्यतां मम॥शकेनात्यर्थः मुक्तापि । नाऽमन्यत तदा शुकी॥ए॥ शुकोऽवादीत्तदा देहि । पुत्रं मे कुलकारणं ॥ य. श्रेष्टं येन गहामि । त्वमप्यास्त यथासुखं ॥ १० ॥ अपराधान स्वयं कृत्वा । दंत पुत्रं च या. चसे ॥ अतिदतोऽसि नोः कीर । किमु नीराजकं जगत् ॥ ११ ॥ एवं विवदमानौ तौ । पु| त्रार्थे जातसंशयौ । क्रमाशजकुलं प्राप्य । स्वरूपं निजमूचतुः ॥ १२ ॥ वप्त्वा केत्रे यथा बीजं । स्वामिनोत्पन्नमाप्यते ॥ तथैव पित्रा लन्येय-मवश्यं पुत्रसंततिः ॥ १३ ॥ छ वि. चार्य कीराय । नूभुजा दापितः सुतः ॥ तां स्थिति लेखयामास । वहिकायां च कीरिका ॥ ॥ १४ ॥ श्रुतज्ञानिनमासीनं । सहकारतरोस्तले ॥ वैराग्यनिता स्वायु-वदित्वा पृबतिस्म सा ।। १५ ॥ श्तो बक्ष्मनुष्यायु-स्तृतीयदिवसे शुकि ॥ मंत्रिपुत्रीत्वमासाद्य । राजन्नार्या नविष्यसि ॥ १६ ॥ कदाचिउपयोगेन । दृष्ट्वा जातिस्मृतिनवेत् ॥ सेति साधूक्तवृत्तांतं ! चैत्यन्नित्नावलेखयत् ॥ १७ ॥
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झीलोप
वृत्ति
॥३६॥
स्वयं गत्वा मुनेः पावें । युक्त्याऽनशनमग्रहीत् ॥ यथावत्पालयामास । वईमानशुन्ना- शया ॥ १७ ॥ मंत्रियो रतिसुंदर्या । नार्यायाः कुक्षिपंकजे ॥ सुस्वप्नसूचिता श्रीव-दधितस्थौ शुनोदया ॥ १५॥ नुत्पना समये देवीं । जयंती रूपसंपदा ॥ तनया भुवनानंदा । नानी प्रौढिमवाप सा ॥ २०॥ स्तोकैरेव दिनैः प्राच्य-पुण्यस्य परिपाकतः ॥ कलाकलापप्रावीण्यं । नारतीव बन्नार सा ॥ १॥ अन्यदोद्यानशंगारे । चैत्ये दृष्ट्वाऽकरावली ॥ जातजातिस्मृतिः कीर-नवस्य इतमस्मरत् ॥ २ ॥ एतस्यैव जिनेशस्य । प्रनावान्मंत्रिसद्मनि ॥ जाताहमिति तं नित्यं । पूजयमास नक्तितः ॥ १३ ॥ जातान्निजतुरंगीनि-मैत्रिजात्यतुरंगमात् ॥ किशोरकाननेकांस्ता-नन्यदानाययन्नृपः ॥ २४॥ न ददौ भुवनानंदा । दातुं यत्ना. तवाजिना ॥ जाता एते यतो बीजं । यस्य तस्यैव वस्तु तत् ॥ २५ ॥ न प्रत्येति नृपश्चेत्तदीक्ष्यतां वहिकां निजां ॥ यत्कीरइंचपुत्रस्य । विवादे लिखितं स्वयं ॥१६॥
तथैव तहिलोक्याथ । वहिकायां महीभुजा ॥ विस्मयापन्नचित्तेन । सा ज्ञाता बालपंमिता ॥ १७॥ दिनैः कैश्चिदतिक्रांते । रिपुमर्दननूपतिः ॥ सामों नुवनानंदां । परिणीयेद
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शीलोप
॥ ३७॥
मादिशत् ॥ ॥ पंडितासि प्रिये ताव-नागंतव्यं गृहे मम ॥ सर्वलक्षणयुग् याव-जातोवृत्ति नवति नो सुतः॥ ए॥ ईषस्मित्वा तयाप्युक्तं । पुत्रे जाते ध्रुवं ह्यहं॥ स्वामिंस्त्वहमेष्यामि । किंचेदमपरं शणु ॥ ३० ॥ तदाहं वापि चेत्त्वत्तो । धावयामि निजौ पदौ ॥ वाहयामि नवंतं च । स्वकीयोपानहावपि ॥ ३१ ॥ इति प्रतिज्ञामासूत्र्य । गता सा स्वपितुर्गृहे ॥ कथयामास चैकांते । वृत्तांतं मंत्रिणः पुरः॥ ३॥ वत्से कथमिदं याति । उर्घटं घटनापदं ॥ तात किं सुप्रयुक्ताया। असाध्यं विद्यते मतेः॥ ३३ ॥ यमुक्तं नीतौ–एकं हन्यान वा हन्या-दिषुर्मुक्तो धनुष्मता | बुर्बुिझिमतोत्सृष्टा । हंति राष्ट्रं सराजकं ॥ ३४॥ मंत्रिणाऽनाणि नो बुद्ध्या । न दानैर्न च पौरुषैः॥ विधातुं शक्यते कार्य । मुक्त्वा दैवबलं परं॥ ॥ ३५॥ भुवनानंदया प्रोक्त-मित्रमेव न संशयः॥ सापि कर्मवशाहुतिः। प्राणिनामिह जायते ॥ ३६ ॥ अथ तात नृपावास-प्रत्यासन्नमहीतले । श्रीमन्नान्नेयदेवस्य । नवनं लघुका- ॥३७॥ यतां ॥३७॥ सुन्नगा गीतवादित्र-गीतैस्तत्र ययांगनाः ॥ संगीतं कुर्वते रम्यं । त्रिकालं का. यतां तथा ॥ ३० ॥ अंतर्विलासिनीगेहं । कार्यतां मजदं पुनः । तदुक्तं कारयामास । मंत्री
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शीलोप
वृत्ति
मंत्रमहोदधिः ॥ ३ए । वाद्यमानैरथातोद्यैर्गीयमानैश्च गीतकैः ॥ नन स्फारशंगारा । त- व मंत्रिसुता स्वयं ॥ ४० ॥ कदाचिदनिधां श्रुत्वा । मा स्मरन्मां नरेश्वरः॥ लीलावतीत्यतो नाम । बन्नारापरमात्मनः ॥१॥ कलपंचमकाकल्या । गीतान्यायजिनेशितुः॥ सौधाननागमारूढी-ऽन्यदा शुश्राव पार्थिवः ॥ ४२ ॥ ___सामान्यराजपुत्रस्य । वेषमाधाय नूमिनृत् ॥ तत्रैत्य पश्चिमक्षरे । वीकृते प्रेक्षणीयकं ॥ ३ ॥ नृत्यंत्या नृपतिर्नेत्र-क्षुरप्रेण तथा हतः ॥ लीलावत्या यथा स्थाना-उचातुमपि
नाऽस्मरत् ॥ ४४ ॥ सुखासनेन संगीता-नंतरं गतया तया ॥ राजापि तगृहेऽनैपी-दणदां - कणदामिव !! ४५ ॥ एवं प्रतिदिनं तत्र । प्रेक्षते प्रेक्षणदणं ॥ रात्रिं नयति तत्रैव । सत्रागारे
जनाधिपः॥ ४६॥ यद्यहिचेष्टते राजा । तत्र सा तत्पितुः पुरः॥ ज्ञापयत्यखिलं सोऽपि । लिलेख वहिकापटे ॥ ७ ॥ अन्यदोपानही मुक्त्वा । साहारुरोह सुखासने ॥ नपानक्षाहिनी नास्ति । तदेते त्वं मुदानय ॥ ४ ॥ तेनापि शिरसादाय । समानीते तदंगणे ॥ तथैव च निशीबिन्यां । नर्नकी तमसूषुपत् ॥ ४ए ॥ अन्यदोक्तं तया स्वामिन् । मत्पादौ खतस्तमा
॥३॥
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शीलोप
वृत्ति
॥ ३॥
॥ नचापय सखीं येन । तलहस्तयति कणं ॥ ५० ॥ तृतीयजनसंचार-मसहिष्णुः स्वयं नृ- पः ॥ तथा व्यश्रामयत्पादौ । निदशै सा यथासुखं ॥ ५१ ।। स्वप्ने संपूर्णचं सा । प्रविशंतं निजानने ॥ दृष्ट्वा जागरिताऽपश्य-संवाहनपरं नृपं ॥ ५५ ॥ निवार्य सहसोबाय । तस्याग्रे स्वप्नमाख्यत ॥ तेनोक्तं तनयो नावी। नई सर्वोत्तमस्तव ॥ ५३ ।। रात्रेविरामसंसूची। शंखो दध्वान तावता ॥ ननाय सत्वरं राजा । जगाम निजमंदिरं ॥ ५५ ॥ धर्मध्यानं दधाना सा । रजनीमत्यवाहयत् ॥ नदिते नास्वति प्रातः । प्राप सा जनकालयं ॥ ५५ ॥ उक्त्वा पितुर्निशावृत्तं । गृहक्षारं पिधाय च ॥ सुखेन पालयामास । गर्नमेकांतमाश्रिता ॥ ५६ ॥
हितीयेऽहि नृपस्तस्याः । पप्रड प्रातिवेश्मिकीं ॥ लीलावती गता कुत्र । न जानामीति साऽवदत् ॥ ५७ ॥ राजापि विरहेणास्याः। सुतरां दुर्मनायितः ॥ निर्गमय्य निशां कष्टात् । प्रातः पाच मंत्रिणं ॥ ५० ॥ युष्मद्देवगृहे मंत्रिन । यासीन्मूल विलासिनी ॥ नाना लीलावती सास्ते । व गतेति निवेद्यतां ॥ ५ ॥ देव सा कुत्सिताचारा । चैत्यानिष्कासिता मया ॥ येन कस्यापि गेहे सा । गत्वा नयति शर्वरी ॥ ६ ॥ तस्मात्तदास्पदे कापि। गवे
॥३॥
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शीलोप
॥ ४० ॥
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1
sarsafer नर्तकी ॥ श्रुत्वेति मौनमालंच्य । तस्थौ गुप्ताकृतिर्नृपः ॥ ६१ ॥ प्रासूत समये सापि । सुतं सर्वागलक्षणं ॥ प्रछन्नं मंत्रिणानीतः । कलापारीणतां क्रमात् ॥ ६२ ॥ अन्यदा तनयां मंत्री । सपुत्रां नीतवान् सनां ॥ कृताऽवगुंठना केयं । पप्रच्छेति च नूपतिः ॥ ६३ ॥ सैवेयं भुवनानंदा | मत्पुत्री तव वल्लभा ॥ पुत्रस्ते मम दौहित्र - चैष नाथावधार्यतां ॥६४॥ | यावत जावते नृपः । किंचिद्विस्फुरिताधरः । श्रमात्यस्तावता तस्य । दस्ते स्वां वदिकामदात् ॥ ६५ ॥ यत्कृतं जल्पितं यच्च । तया सार्द्धं रहस्यपि । तत्सर्वं लिखितं दृष्ट्वा । नृपश्चित्रायितोऽभवत् ॥ ६६ ॥ त्रपास्नेहरसोन्मिश्रां । वििपन दृष्टिं प्रियांप्रति ॥ स्मारं स्मारं निर्ज वृत्तं । शिरश्विरमधूनयत् ॥ ६७ ॥ सुतं सर्वागमालिंग्य | स्वीयांकमधिरोप्य सः ॥ नवाच वत्स ते राज्य - मिं लक्ष्म्यस्तथाऽखिलाः ॥ ६८ ॥ रे जितो रंजितश्चाहं । जनन्या तव हेल
॥ पुत्रोत्पत्त्या महासत्या । प्रतिज्ञायाश्च पूरलात् ॥ ६५ ॥ धिग् धिग् धैर्येण वीर्येण । शौर्ये यशसापि च ॥ लीलया निर्जितो योऽहं । दंत प्रत्युत योषिता ॥ ७० ॥ खेदितव्यं न मंत्रयूचे | प्रतापोऽयं तवैव यत् ॥ माहात्म्यं तवेध्वतिं । यत्तिरस्कुरुतेऽरुणः ॥ ७१ ॥ अथ
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वृत्ति
॥ ४० ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥ १॥
वैराग्यमासाद्य । दत्वा राज्यं सुतस्य च ॥ दीक्षामादाय राजेंः परमार्थमसाधयत् ॥ ७॥३- दृशोऽपि प्रचंडात्मा। रिपुमर्दनन्नूपतिः ॥ दासत्वं कारितः पत्न्या । परेषां गणना तु का ॥ ॥ ७३ ॥ इति स्त्रीदासत्वे रिपुमर्दननृपकथा || विशिष्य स्त्रीवशंवदत्वमेवाह
॥ मूलम् ॥-मरणेवि दीपवयणं । माणधणा जे नरा न जंपंति ॥ तेवि हु कुणंति | लल्लिं । बालाण य नेहगहगहिला ॥ १७॥ व्याख्या-ये मानधना नत्तमा नरा मरणेऽपि प्राणावसानेऽपि दीनवचनं हीनवाक्यं न कथयंति, तेऽपि मानिनः हु निश्चयेन स्नेहग्रहग्रहिलाः प्रेमकदाग्रहग्रस्ताः संतो बालानां स्त्रीणां लल्लिं कुर्वति, रंकवत्प्रार्थनाचाटुवाक्यान्युदीरयंति; मानधनाः मानो गर्वः स एव धनं येषामिति त एवोत्तमाः, यदुक्तं-अधमा धनमिबंति । धनमानौ हि मध्यमाः । नत्तमा मानमिति | मानो हि महतां धनं ॥१॥ इति, अत्र च श्रीविजयपालनृपपद्मादृष्टांतः, तथाहि
पुरं पुरिमतालाख्यं । यत्र सौधाग्रनूमिषु ।। आरूढस्त्रीमुखैरासी-दकाले चंदविभ्रमः ।। ॥१॥ राजा विजयपालाख्य-स्तत्र मानिशिरोमणिः ॥ तस्योद्यहित्रमारंना । रंना नाम्न्य
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शीलोप
॥ ४२ ॥
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स्ति वा ॥ २ ॥ अन्यदा गजमारुह्य । स व्रजन राजपाटिकां ॥ लक्ष्मी श्रेष्टिसुतांनाम्ना-शकीलक्ष्मीमिवापरां ॥ ३ ॥ तन्त्रवागुराकृष्टो । व्यावृत्यागत्य सद्मनि ॥ तत्पितुर्मा र्गयित्वा तां । पर्यणैषीन्नराधिपः ॥ ४ ॥ अंतःपुरममुंचानो । रात्रिंदिवमनन्यधीः ॥ तामेव रमते राजा । त्यक्तराज्यव्यवस्थितिः ॥ ५ ॥ तनोगनटितः कीट | इव विस्मृतचेतनः ॥ विवेकविकलः कालं । कियंतमपि सोऽनयत् ॥ ६ ॥
अन्यदा मंत्रिणाऽनाणि । स्वामिन् रागवशंगतः ॥ सामान्योऽपि नरो याति । लघुत्वं किमु पार्थिवः ॥ ७ ॥ सेव्यमानाः क्रमेणैव । धर्मकामार्थविस्तराः ॥ फलंति वांडितान् जोगानू । अन्यथा निष्फला इमे ॥ ८ ॥ रागोरुगरलांधानां । नश्यंति गुणिनां गुणाः ॥ गुरूला - मुपदेशाश्च । प्रविशति न कर्णयोः ॥ ९ ॥ शत्रवस्तव राजें । जवंत्युद्यमशालिनः ॥ तदासक्तिं विमुच्यातो । राज्यचिंतां कुरु प्रो ॥ १० ॥ आकर्णयाऽननिज्ञोऽसि । मंत्रिंस्तेनेवमुच्यते || निशलुघूर्णमानः किं । पट्टतूलीं प्रतीक्षते ॥ ११ ॥ पिपासुर्जलमासाद्य । किं सुधाश्रमुदीक्षते ॥ एवं रामानुरक्तः कि- मन्यकार्येऽनुरज्यते ॥ १२ ॥ किंतु यावन्मृगाक्षीयं । व
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वृत्ति
॥ ४२ ॥
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शीलोप
वृत्ति
ते नेत्रगोचरे ॥ तावजानीहि मे जीवं । न कार्य राज्यचिंतया ॥ १३ ॥ चं नूमिपति म- - त्वा । राज्यचिंताबहिर्मुखं ॥ यावकिमपि संनूय । सूत्रयंति परस्परं ॥ १४ ॥ तावत्प्रान्ना| तिकी वांतिं । प्राप सा नृपवल्लन्ना ॥ आहूताश्च ततो राज्ञा । संरनेण चिकित्सकाः ॥१५॥ प्रतिक्रियान्निरत्यर्थ । यावतोपचरंति ते ॥ तावत्रानूदये जाते । सहसा मृत्युमाप सा ॥१६॥ राजा तत्कालमुन्मील-न्मूर्गविह्वल विग्रहः॥ पपात धरणीपीठे । काष्टवतचेतनः ॥१७॥ चांदनैः सलिलैः सिक्त-स्तालतैश्च वीजितः ॥ प्राप्य चैतन्यमुन्मत्त । श्व बालो रुरोद सः ॥ १७॥ क गतासि प्रिये देहि । प्रतिवाचं ममोचितां ॥ एवंविधमहं हास्यं । न चिरं सोदुमीश्वरः ॥ १५ ॥
इत्यादि लपतस्तस्य । तस्याः पार्श्वममुंचतः॥ कोऽप्युवाच मृतैवेयं । संस्कारः कार्यतामतः ॥ २०॥ नृपतिः कुपितोऽवादी-त्कोऽयं दौरात्म्यन्नाजनं ॥ तक्ष्णोति कटुकैर्वर्णैः। कर्णी टंकिकयेव मे ॥ १ ॥ रे रे संस्कार्यतां पाप । स्वपुत्रप्रमुखो जनः ॥ मम प्राणप्रिया त्वेषा । जीविष्यति शतं समाः ॥१२॥ तस्माशाक्यममांगल्यं । यो वक्ष्यति स मे रिपुः
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वृत्ति
शीलोप ॥ इत्यूचानमपि नूप-मुपेक्ष्य तक्रिया कृता ॥ २३ ॥ विशिष्य तामथाऽपश्यं-स्तद-
दैतनिमनधीः ॥ निश्यिसंचारो । योगात्मेवाऽनवन्नृपः ॥ २५ ॥ यावनोपलन्ने प्राण॥ प्रियायाः शुध्मुित्तरां ॥ तावन्न नोजनं कुर्वे । प्रत्यज्ञासीदिदं नृपः॥ २५॥ नौजनत्यागि
मनो राझो-ऽतिकांता दश वासराः ।। मंत्रितिः शिक्षायित्वेति । प्रैषि कोऽपि नृपांतिके ॥२६॥ ब देवाद्य वळसे दिष्टया । प्रियायाः शुलिब्धितः ॥ पृचति क्षतिपे मोदात् । स गीर्वाणगि
राऽगुणात् ॥ २७ ॥ देव शक्रसन्नामध्य-मध्यासीना तव प्रिया ॥ मनीषितसुखैस्तोपं । धते मत्तेनगामिनी ॥ २०॥
त्वदर्शनमृते किं तु । ताम्यंती त्वामयाख्यत । तवापि तत्रावस्थातुं । मर्त्यलोके न युज्यते ॥ श्ए ॥ येनाधिव्याधिदौगंध्य-बाधान्तिः पिछलो ह्ययं ॥ स्वर्गः सर्वैश्यिप्रीति-स्फीतिकुनोगन्नासुरः ॥ ३०॥ तन्नाथ चन्मया कार्य । शीघ्रमत्र समेहि तत् ॥ स्वाधीने नंदने वि- धान् । को नाम रमते मरौ ॥ ३१ ॥ नो नो मंत्रिजनाः शीघ्रं । दर्शयत स्वर्वम॑ मे ॥ येन गवामि पश्यामि । प्रियाया वदनांबुजं ॥३२॥ विधेहि नोजनं देव । स्नानपानादिकं कुरु
॥॥
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शोलोप
॥ ५॥
साम्राज्यराष्ट्रकोशादेः । स्मर पुण्यं च साधय ॥ ३३ ॥ यावदामि गत्वाइं । तत्र यौष्मा- वृत्ति कमागमं ॥ इति तच्चसा राजा । नोजनादिकमाचरत् ॥ ३५ ॥ युग्मं ॥ यतः-निर्बुदि-4
सुबुर्वाि । रंको वा यदि वा नृपः॥ अलीकमपि रागेण । वेत्ति सत्यतया पुमान् ॥ ॥ ३५ ॥ चिरेण पुनरागत्य । स पुमान्नृपतेः पुरः ॥ मनोहरफलान्युच्चै-रपूर्वाण्युपदां व्यधात् ॥ ३६ ॥ देवीप्रहितकल्पद्रु-फलानीमानि स ब्रुवन् ॥ ययाचे तजिरा नूपं । सर्वांगान
रणानि च ॥ ३७ ॥ दत्वास्मै तानि नूपस्य । पश्यतो मंच मंत्रिणः॥प्रचन्नं स्थापयामासुः। - कतिचिधासरानमुं ॥ ३० ॥ सोऽतीतैर्वासरैः कैश्वि-देत्यायाति मुहुर्मुहुः ॥ कश्चितनरोऽज्ञा
सी-दमुं वृत्तांतमन्यदा ॥ ३५ ॥ नूर्जपत्रमिव श्लक्ष्णं । हेमपत्रं विधाय सः ॥ मृगनान्निरर सैबने । तत्रोत्कीाकरावली ॥ ४० ॥ ततो लेखमिवावेष्टय । नृपहस्ते च सोऽर्पयत् ॥ दे.
व्या प्रस्थापितः स्वर्गा-देवादं लेखवाहकः ॥४१॥ श्रुत्वेत्युत्कृत्य रोमांच-प्रपंचोदंचिरोमन्न- ५॥ त् ॥ धन्येयं देवसामग्री-त्यनिनंदनवाचयत् ॥ ४२ ॥ _____ स्वस्ति श्रीपुरिमताले । पाकशासनतेजसः॥ श्रीमजियपालस्य । राज्ञः पादपयोरुहा
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झीलोपन ॥ ५३॥ श्रीस्वर्गादातुरा राझी। लक्ष्मीनत्वानुरागतः ॥ विज्ञापयति सोत्कंठं । यात्रवृत्ति
4. कुशलं मम ॥ ४ ॥ युग्मं ।। गुरुनारवतीवाहं । त्वया हृदयवासिना ॥ न शक्रोमि समा॥४६॥ गंतुं । तत्राप्युत्कंठयान्विता || ४५ ।। तस्मादातरणं स्वीयं । सर्वांगीणं प्रसद्य मे ॥ प्रेषितव्यं
यद्देवीषु । पतिमानन्नर बहे ॥ ४६॥ अन्यच्च पक्षमासांतः । सहस्त्रान्तरणादिकं ॥ प्रेष्यमया स्यैव वृक्षस्य । हस्ते स्वश्रेयसा सह ॥ ४ ॥ नणिता मंत्रियो राज्ञा । सारमान्तरणं मम
॥ वस्त्रांगरागसंयुक्त-मस्य हस्ते वितीर्यतां ॥ ४० ॥ यतः-वाचिको लनते लदं । कोटिं वैट लेखहारकः ॥ दृष्टेः कोटिशतं मौल्यं । निर्मूल्यः स्वेष्टसंगमः ॥ ॥ अविमृश्यतया राझो । ज्ञात्वा राज्यं विनश्वरं ॥ मंत्रिनिमंत्रयित्वाथ । विज्ञप्तः सादरं नृपः ॥ ७॥ एषः स्वर्ग कथं गंता । राज्ञोचे त्रागतो यथा ॥ देवीप्रसादतः स्वामि-त्रत्रागाद्याति तत्कथं ॥५१॥
श्रुत्वेति राजा पप्रच्छ । प्राक्तनः स कथं गतः ॥ वह्निदग्ध इति प्रोक्ते । तथैनमपि चा- ॥ | दिशत् ॥ ५ ॥ ततो जाज्वल्यमानानि-पातनाय स चालितः ॥ तद् दृष्ट्वा श्रेष्टिना पद्मनानावाचि नरेश्वरः ॥ ५३ ॥ एष देवातिवर्षीयान् । जराजर्जरितांगकः ॥ न तु गंतुं कमः को
४६॥
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वृत्ति
शीलोपापि । तत्प्रेष्यस्तरुणो नरः ॥ ५५ ॥ सचिवैराहतं स्वामि-वेष एव सदुत्तरः॥मुखरः शीघ्रगो
देव्याः । पार्थेऽतः प्रेष्यतामिति ॥ ५५ ॥ तथैव प्रतिपेदाने । राज्ञि मंत्रिजनस्तदा ।। नियं॥४॥ य नीयमानोऽसौ । शौनिकैश्च पशुर्यथा ॥ ५६ ॥ पृष्टं संबंधिनिर्दोषः । को नामानेन नि.
मितः ॥ तैरूचे मुखदोषादि । नापराधोऽस्य कः परः ।। ५७ ॥ सोऽत्र तत्स्वजनैमैत्रि-वर्गमामंत्र्य नक्तितः ॥ मोचितः प्रथमश्चापि । कृपया तैरमुच्यन ॥५७ ॥ अन्यदा पुनराहस्म । मंत्रिवृज्ञानराधिपः॥ स्वर्गादानाय्यतां देवी । कुखितोऽहं विना तया ॥ एए । विमृश्य सचिवैः काचि-नृपालंकारधारिणी ॥ नाना लक्ष्मीनवोजिन-यौवना नायिकोत्तमा ॥६॥ स्थापिता बहिरुद्याने । शिवयित्वा विचक्षणा ॥ नृपाग्रेऽवाचि देव्यय । स्वर्गे ऽस्ति प्रेषितो जनः ॥६१ ॥
हितीये दिवसे प्राप्तः । सोऽथ व्यापयन्नृपं ॥ नद्यानमागता देवी । देव दिष्टयाऽनिवwसे ॥६॥ दत्वा सर्वांगसंलग्नं । तस्मै स्वानरणादिकं ॥ सामग्या स महत्या । प्रापउद्यानमादरात् ॥ ६३ ॥ दृष्ट्वा देवीं नृपो हृष्ट । आचष्ट सविनमान ॥ स्वर्गवासो महादे
॥
७॥
*
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शीलोप
॥ ४ ॥
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व्या । ज्ञापिता रूपसंपदा ॥ ६४ ॥ पूर्वं श्यामा ह्रस्वकर्णा । लंबोष्ठी वक्रनासिका ॥ श्रासीदेपाऽधुना जाता । वरांगोपांगनासुरा ॥ ६५ ॥ का भ्रांतिरत्र तत्रत्य - नोजनं हि सुधारसः ॥ मंत्रिणोऽकश्रयञ् श्रेष्टाः । सर्वे जावा दिवौकसां ॥ ६६ ॥ किं च तुष्टेन शक्रेण । युष्मदीयोपरोधतः || सर्वागसुंदरीकृत्य । प्रहितेयं तवांतिके ॥ ६७ ॥ आनंदमेदुरिनाव - मापन्नेन म हीभुजा || निजे स्कंध मारोप्य । निन्ये सांतःपुरे रयात् ॥ ६८ ॥ प्रवर्द्धमानरागेण । भुंजानस्तां दिवानिशं ॥ पृच्छति स्वर्गवार्त्ताः स । वक्ति सापि सुशिक्षिता ॥ ६७ ॥ एवं महामानना न ये । तृणानुरूपां गणयेति पृथ्वीं ॥ तेऽपि स्मरावेशवशेन चाटु - शतानि कुर्वेति म नस्विनीनां ॥ ७० ॥ इति स्नेहग्रहिलत्वे विजयपालदृष्टांतः ॥ पंडितानामपि स्त्रीपारतंत्र्यमाद
1
॥ मूलम् ॥ - जे सयलसचजल निदि-मंदरसेला सुए गारविया || बालालल्लुरवयणेहिं । तेवि जायंति इयदियया || १७ || व्याख्या -- ये केचित्पमिताः सकलशास्त्रजलनिधिमंदरशैलाः, सकलशास्त्राण्येव जलनिधिः समुइस्तत्र मंदरशैलाः सुमेरुपर्वता इवाऽवगाहकत्वात् तथा श्रुतेन सिद्धांतेन गर्विताः, इतराऽसाधारणतम्मर्मज्ञानेन ये साइंकारास्तेऽपि ता -
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वृत्ति
॥ ४८ ॥
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शोलोप
॥४॥
दृशो विधांसोऽपि बालालल्लुरवचनैः स्त्रीविलासोन्मिश्रवाक्यैनिहतहृदया अपहतानिप्राया * वृत्ति जाताः, तत्रैव रागसागरे मना बनूवुरित्यर्थः, नक्तं च तावदेव कृतिनामपि स्फुर-त्येष निमलविवेकदीपकः ॥ यावदेव न कुरंगचक्षुषा । ताड्यते चपललोचनांचलैः॥१॥ इति. पुनरपि लौकिकदेवानामेव स्त्रीविझबितत्वमाह
॥ मूलम् ॥-हरिहरचनराणणचंद-सूरखंदाणोवि जे देवा ॥ नारीण किंकरतं । करंति धिही विसयतएहा ॥ २० ॥ व्याख्या-हरिहरचतुराननचंसूर्यस्कंदादयोऽपि ते देवा नारीणां किंकरत्वं दासत्वं कुर्वति, अतो धिक् धिक् विषयतृष्णां इंडियार्थलोलतां. लौकिकमते हमी देवाः स्त्रीनिनवनवप्रकारैर्विनटिताः, तत्र हरिनारायणस्तस्य तु स्त्रीपारवश्यं रुक्मिणीपाणिग्रहणप्रस्तावे स्पष्टीकृतमेव, अतो न पुनरुच्यते. क्रीमालौल्येन च गोपीषु तत्तगिोपकप्रकारा लौकिकप्रसिइन्वादनेकशो ज्ञेयाः, यथा-राधा पुनातु जगदच्युतदत्तदृष्टि-मैथानकं ए॥ विदधती दधिरिक्तनांमे ॥ तस्याः स्तनस्तबकलोलविलोचनालि-देवोऽपि दोहनधिया वृषनं न्यरुंधत् ॥ १॥ इत्यादि, दरो महेश्वरः, तस्य च पार्वतीविरहाऽसहिष्णुतयाऽर्धनारीनटेश्वर
FACAN
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शीलोप
॥५०॥
मूर्तिधारकत्वेन स्पष्टमेव नारी किंकरत्वं. ययुक्त-अंबेयं नेयमंबा न हिकिल कपिलः इमथुर- वृत्ति स्या मुखाने । तातोऽयं नैव तातः स्तनगुरु हृदयं नैव दृष्टं कदाचित् ॥ केयं कोऽयं किमत-4 कथमिति सन्नयं याति दूरं विशाखे । देव्या साई सहास्यं रहसि परिणतः पार्वतीशः पु. नातु ॥ १ ॥ इत्यादि कियउच्यते. चतुराननो ब्रह्मा, तवृत्तं चेदं-किल प्रजापतिः पूर्व । कदाचित्काननं श्रितः ॥ अध्युष्टाः शरदा कोटी-स्तपस्तेपे स उस्सहं ॥१॥ तद् ज्ञात्वा त्रिदशाधीश-चुकोन निजचेतसि ॥ यद्येष क्रोधमाधत्ते । मामपि बंशयेत्तदा ॥२॥ न मेरो रमते नैष । नंदनेऽप्यन्निनंदति ॥ नो नाटकमनिष्टौति । न प्रीणाति प्रिया अपि ॥ ३ ॥ छ विगतचेतस्क-मुपलक्ष्य विमौजसं ॥ कृतांजलिपुटाः प्राहु । रंनाद्यास्त्रिदशस्त्रियः॥४॥ स्वाधीने संपत्सर्वे । देवराज तवापि किं ॥ दुःसाध्यं विद्यते किंचि-विषमो येन लक्ष्यसे । ॥ ५ ॥ यद्यपि.स्त्री न मंत्रार्दा । स्वन्नावचपलाशया ॥ तथापि हि हिते सुखं । निवेद्य सु. ॥५०॥ खमाप्यते ॥ ६ ॥ नक्तं च–सुहृदि निरंतरचित्ते । गुणवति नृत्ये प्रियासु नारीषु ॥ स्वामिनि सौहार्दयुक्ते । निवेद्य सुखं सुखी नवति ॥ ७॥ चतुर्दशजगत्सृष्टा । प्रजापतिरपि स्वयं
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वृत्ति
शोलोप ॥ यत्तपस्तपते ती । तेन मे कंपते मनः ॥ ७॥ कियन्मात्रमिदं स्वामिन् । दोन्नयामः क- Kणेन तं ॥ इति ताः प्रतिजानाना । विसृष्टास्तेन नूतले ॥ ५॥ सुरांगनाः समागत्य । स्वर
ग्रामैकपेशलं ॥ संगीतं सूत्रयंतिस्म । पुरः संनूय वेधसः ॥ १० ॥ तजीतनृत्यवादित्र-व्याक्षिप्तसकलेंशियः॥ निश्चेष्टकायतां प्राप । ब्रह्मा दरिणवत्दणात् ॥११॥ अथोचुस्तास्तपस्त्यक्त्वा । वृणीध्वं वरमीप्सितं ।। तासु रंना सुसंरंन्न-वाचोवाच पितामहं ॥ १ ॥ ___एता वयमसौ गगः । सेयं कादंबरी प्रनो ॥ अमीष्वादीयतामेकं । यद्यस्मासु प्रसादनाक् ॥१३॥ स्रष्ट्रा विमृष्टं बंशाय । तपसः सेविता ह्यमूः ॥ गगस्य जीवघातोऽय-मुचितो न तपस्विनां ॥ १४ ॥ सुरा तु सलिलोजारा । न उष्टा शिष्टचेतसां ॥ अतस्तामुररीकत्य । पपौ निःशंकमात्मन्नूः ॥ १५ ॥ जातोन्मादः क्षुधाक्रांत-गगं हत्वा जघास सः॥ कामयामासिवांस्ताश्च । परीक्षामिति चक्रिरे ॥ १६ ॥ चीयमानादसौ ताव-तपसो शितो ध्रुवं ॥ विक्रीणीते कथं पूर्वा-चीर्ण ध्यात्वेति तास्तदा ॥ १७ ॥ नृत्यंत्यो दक्षिणाशायां । जग्मुर्देव्यस्ततो विधिः॥ मुखमेकं तपोवर्ष-कोट्या तत्संमुखं व्यधात् ॥१७॥ एवं वितीय
॥१॥
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शोलोपकोट्या तु । तृतीयं विदधे मुखं ॥ चतुर्थं चोत्तराशायां । चक्रे तद्दर्शनोत्सुकः ॥१ए ॥ अनुवृत्ति
रागपरीक्षार्थ । नृत्यंत्यो गगने गताः ॥ अईकोट्याश्र संजझे । शीर्ष खरमुखं पुनः ॥ २० ॥ ॥५२॥ नमस्कृत्योपहस्याथ । गताः स्वर्ग सुरांगनाः ॥ श्वं चतुर्मुखो जातः । स्त्रीदासत्वमि
याय च ॥ १ ॥ चंश्च किल ज्योतिष्कंपदवीप्राप्तिप्रस्तावे सुरासुरैः सपरिवारै मस्करणाश्रमागतै रूपाहृतचित्तः सुरगुरुनामिनिगम्य बुधमजीजनत् ।। सूर्यश्च तेजसोऽसहमानां पश्चिमाशामाश्रित्य वमवारूपधारिणी रत्नादेवीनानी नार्यामजस्रमन्निगंतुकामस्त्वष्टा निजश. रीरमतत् ॥ स्कंदश्च कार्तिकेयः, स यद्यपि लौकिकानां ब्रह्मचारितयाऽनिमतस्तथापि देवश्वेदऽविरतत्वाद्दुःशीलतानाजनमेवेति. आदिशब्दादहल्याजारतया प्रसिधा ज्ञदयोऽपि जैयार, यदुक्तं-किमु कुवलयनेत्राः संति नो नाकनार्य-स्त्रिदशपतिरहल्यां तापसी यत्सिषेवे ॥ हृद
यतणकुटीरे दीप्यमाने स्मराना-वुचितमनुचितं वा वेति कः पंमितोऽपि ॥१॥इति गाया- ॥५॥ म करायः, एतानेवंविधानेव पूजयतामुपहसनीयतामाह
॥ मूलम् ॥-पूज्जति सिवई । केहिंवि जर कामगढहा देवा ॥ गनासूयरपमुहा । किं
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शोलोप
॥ ५३ ॥
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नहु पूयंति ते मूढा ॥ २१ ॥ व्याख्या - यदि कैश्विन्मिथ्यात्वमदिराविलुप्तचैतन्यैः शिवार्थ मोक्षाऽवाप्तये कामगर्द्दना देवाः पूर्वोक्तस्वरूपा हरिहरब्रह्मादयः पूज्यंते श्राराध्यतया सेव्यंते, ते कामगर्छना इति कामेन कंदर्पेण गर्छना इव युक्तविचारमूढत्वेन खरप्रायाः, यथा प्रजापतिः स्वां दुहितरमकामयदित्यादि. या कामानुरक्ततया स्त्रीनिर्गर्द्दनवद्दाांत इति कामगई - जाः, यदुक्तं - शंभुस्वयंभुहरयो दरिलेक्षणानां । येनाऽक्रियेत सततं गृहकर्मदासाः ॥ वाचामगोचरचरित्रपवित्रिताय । तस्मै नमो भगवते कुसुमायुधाय ॥ १ ॥ इति एवंविधानपि ये निर्विवेकिनस्तत्वतयाऽर्चयंति ते मूढा प्रज्ञा गर्त्ताशूकरमुखान् खु निश्चितं किं न पूजयंति ? ननित्यं कामातुरा जवंति तेऽपि दि तेषां कथं पूज्यतां न प्राप्नुयुः ? निर्विशेपाचारत्वादित्यर्थः । अथ कामातुरान् ब्राह्मणादीन गुरुतया प्रतिपद्यमानान् मिथ्याविन एवोपदसन्नाद
॥ मूलम् ॥ - विसयासत्तोवि नरो । नारीवा जइ जश्न गुरुजावं ॥ ता पारदारिएहिं । साहिं वा किमवराई || २२ || व्याख्या - विषयासक्तोऽपि नरो व्यास विश्वामित्रवशिष्टब्रा
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वृत्ति
॥ ५३ ॥
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शोलोप ह्मणादिः, नारी वा विषयासक्ता पार्वत्यरुंधत्यादिर्वा यदि गुरुन्नावं नजेत, गुरुतयाश्येित, वृत्ति
M तर्हि पारदारिकैश्यानिर्वा किमपराई? किं विनाशितं ? निर्विशेषगुणत्वात्, इत्युपहासः, न-१ ॥ ५५॥ तंच-सरागोऽपि हि देवश्चे-शुरुरब्रह्मचार्यपि ॥ कृपाहीनोऽपि धर्मः स्या-त्कष्टं नष्टं दहा ज
गत् ॥ १॥ इति लौकिकदेवगुरूणां शील विकलत्वं ज्ञेयं. तच्च शास्त्रोक्तयुक्त्यैव निवेदितं. स्वमतेऽपि सर्वेऽपि दिवौकसस्तापसाश्च अविरतत्वादेव उःशीलतानाजनमिति नागमविरोधः॥ अथ चतुर्थवतन्नंगे शेषव्रतचतुष्टयस्यापि नंगमाह- ..
॥ मूलम् ॥-मेहुणसनारूढो । नवलकं हणेश सुहुमजीवाणं ॥श्य आगमवयणान। हिंसा जीवाणमिह पढमा ॥ २३ ।। व्याख्या-मैथुनसंज्ञारूढो ब्रह्मसेवापरः पुमान् सूक्ष्मजीवानां केवलिझेयप्राणिनां नवलदान हंति नत्कृष्टत इत्यर्थः, यदागमः-चीजोणीए संनवंति बेइंदियाइ जे जीवा ॥ इक्को व दोव तिन्निव । लस्कपहुनं च नकोसं ॥१॥ पुरिसेण ॥५॥ सह गयाए । तेसिं जीवाण होश उद्दवणं ॥ वेणुगदिठतेणं । तत्तायससलागनाएणं ॥२॥ पंचिंदिया मणुस्सा । एगनरभुत्ननारिगप्रंमि ॥ नक्कोसं नवलस्का । जायंति एगहेलाए ॥३॥
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शोलोपा
वृत्ति
॥॥
नवलकाणं मख्ने । जीय इक्विव दोण्हव सम्मत्ती ॥ सेसा पुण एमेवय । विलयं वचंति त- बेव ॥४॥ किंच-मेहुणं सेवमाणस्त केरिसए असंजमे कज? गोयमा से जहा नाम एगेवि पुरिसे पूरनलियं वा रूबनलियं वा तेणं अनकणगेणं समन्निघसिज्जा मेहुणं सेवमाणस्स एरिसए असंजमे कजर, इत्यागमवचनादिह शीलनंगे जीवानां हिंसा प्रथमा, एवं प्रा. पातिपातव्रतं प्रथममेव विराधितमित्यर्थः, हितीयव्रतं तु
॥मूलम् ॥-नो कामीणं सच्चं । पसिाइमेयं जस्स सयजस्स ॥ तिबयरसामिपमुहा-दत्तपि हु तह खलु हुन्ज ॥॥ अबंनं पयडं विय । अपरिग्गहियस्स कामिणी नेय ॥ श्य सीखवजियाणं । कब वयं पंचवयमूलं ॥ २५ ।। व्याख्या-न च कामिनां सत्यं, विषयातनां संत्यवादित्वं न संन्नवतिः प्रसिइमेतजनस्य सकलस्य. यदुक्तं-वणिकपणांगनादस्यु-द्यूतकृत्पारदारिकः ॥ झारपालश्च कौलश्च । सप्ताऽसत्यस्य मंदिरं ॥ १ ॥ ननु पित्राद्यनुज्ञया परिणी- तेषु स्वदारेषु मैथुनसेवाहेवाकिनोऽपि कथं तृतीयव्रतत्नंग इत्याद-तिचयरेति-तत्राऽब्रह्मसेवायां तीर्थकरस्वामिप्रमुखाऽदत्तमपि नवेत्, तत्र तीर्थकराऽदनं मोक्षफलवृत्तानां सर्वथा मैथुन
॥ ५५ ॥
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शीलोप
11 48 11
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निषेधात्. स्वामी मंगलाधिपतिस्तेनाऽप्यदत्तमननुज्ञातं, प्रमुखशब्देन जीवादत्तं गुर्वदत्तं प्रा ह्यं यदागमः - सामीजीवादत्तं । तियरेहिं तदेव य गुरूहिं ॥ एवमदत्तादारी । चनविहं बिंति गीया ॥ १ ॥ इति शीलभंगे तृतीयत्रतजंगो ज्ञेयः । प्रबंनंति, श्रब्रह्म चतुर्थव्रतजंगः प्रकट एव. पंचमं तु अपरिग्गहिय - अपरिग्रहिकस्य कामिनी नैव, आस्तां सेवा, परिग्रहगं विना कामिन्यपि न संभवतीत्यर्थः इति शीलविवर्जितानां पंचव्रतमूलं कुत्र व्रतं ? शीले विलीने पंचापि व्रतानि नान्येवेत्यर्थः । नृपदेशमाद
॥ मूलम् ॥ ताकद विसयपसत्ता । दर्वति गुरुणो नहा पुणो तेहिं ॥ जग्गा जिलाआणा । जलियं एयं जनुं सुते || १६ || व्याख्या -- तत्कथं विषयासक्ता गुरवो जवंति, एकशीलतजंगे सर्वव्रतानां अंगाडीलवंत एव गुरवः सेव्याः, विशेषमाह - तथा पुनस्तैर्दुःशीलैजिनानां तीर्थकराणामाज्ञा नग्ना, यतः सूत्रे सिद्धांते नणितं कश्रितमेतदयमाणं, तदेवाह|| मूलम् ||हु किंचि प्रणुन्नायं । परिसिद्धं वावि जिवरिं देहिं ॥ मुत्तुं मेहुल - जावं । न तं विणा रागदोसेदिं ॥ २१ ॥ व्याख्या - जिनवरैस्ती करैर्न दु निश्वयेन किम.
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वृत्ति
॥ ५६ ॥
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शोलोप
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प्यनुज्ञातं सावद्यरूपं, न च तदेव प्रतिषिद्धं, असंस्तरणात् सावद्यस्याप्यंगीकरणात् नत्सर्गापवादभेदाभ्यामुत्जयमपि सर्वव्रतेषु संमतं निवारितं चेत्यर्थः यदुक्तं पूज्यश्रीजिनवल्ल जसूरिपादैः- संग्ररणंमि असुं । दुएइविगिएदंति दितया दियं ॥ श्रानरदिहंतेां । तं चैव दियं प्रसंथरणे ॥ १ ॥ परं मैथुननावं मुक्त्वा चतुर्थव्रतजंगं परित्यज्य, यतस्तत्रौत्सर्गापवादौ न स्तः, रागद्वेषायां विना न संभवति तावेव च संसारमूलारंजस्तंनौ यदुक्तं को पुरकं पा विज्ञा । कस्सवि सुखेदिं विन्दन दुजा || कोविन लहिज्ज मुरकं । रागद्दोसा जइ न दुजा ॥ १ ॥ उपसंहरन्नाद—
॥ मूलम् ॥-ता सयल इयरकठ्ठा - गुठ्ठालसमुज्जमं परिहरेनं ॥ इक्कं चिय सीलवयं । धरेह साही सयलसुहं ॥ २८ ॥ व्याख्या - ततः सकलेतरकष्टानुष्ठानसमुद्यमं तपश्चरणादितीव्रतर विधेयेोत्साहं परिहृत्य परित्यज्य, स्वाधीनसकलसुखं स्वायत्तस्वर्गापवर्गसौख्यमेकमेव ilai धारयत ? इतरव्रताऽनपेक्ष्यं ब्रह्मव्रतमेव पालयतेत्यर्थः ॥ धीराने वोपष्टंजयन्नाह॥ मूलम् ॥ - सावज्जजोगवज्जरा-सज्जा निरवजनज्जुप्रावि जए || नारीसंग संगा |
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वृत्ति
।। ५७ ॥
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शीलोप
11:40 ||
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जग्गा धीराण सिवमग्गा ॥ २९ ॥ व्याख्या - जगति संसारे धीराणां धैर्यशालिनां शिवमार्गा मोहपंश्रानो नारीसंगप्रसंगाननाः, नार्याः संगः संबंधस्तस्य प्रसंगस्तस्मात् किं जूतास्ते ? सावद्ययोगवर्जन सज्जाः, सावद्ययोगा ब्रह्मसेवादयस्तेषां च वर्जने परिहारे सज्जाः सुलजाः, तथा निरवद्ये सुशीले रुजवः सरला इति, नारीसंगस्यैव तत्प्राप्तावंतरायी भूतत्वात्. यदाहुः - संसार तव पर्यंत पदवी न दवीयसी ॥ अंतरा दुस्तरा न स्यु-यदि रे मदिरेकलाः ॥ १ ॥ इति नारीसंगमेव दृष्टांतेन दृढयन्नाह -
॥ मूलम् ॥ - संवेगगदिय दिरको । तनवसिद्धीवि श्रद्दयकुमारो ॥ वयमुत्रिय चनवी सं । वासे सेविमु गिवासं ॥ ३० ॥ व्याख्या - संवेगगृहीतदीको वैराग्यादात्तवृतस्तन्नवसिद्धिस्तनवमोगाम्यपि श्रईकुमारो वृतं चारित्रमुषित्वा त्यक्त्वा चतुर्विंशतिवर्षान् गृहवासं गाईस्थ्यं सेवितवान् अंगीकृतवानिति गाथार्थः, जावार्थस्तु कथानकगम्यः, स -
अत्रैव मारते वर्षे । कोणौ वेणीमणीयितं ॥ पुरं राजगृहं भूत्या | जत्सितस्वर्गपत्तनं ॥ ॥ १ ॥ तत्र श्रीणिको राजा । राजशब्दभ्रमादिव || यं वईमानप्रेमाणः । सेवते सकलाः
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वृत्ति
॥ ए८ ॥
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शोलोप
॥
॥
कलाः ॥२॥ तस्यास्ति तनयो जैन-धर्मझो निर्जयोऽनयः॥ यन्मतितारका राज-मंडले वित्ति दीप्यतेऽधिकं ॥ ३ ॥ चिरत्नप्रीतिवृद्ध्यर्थ-मन्यदाईकनृपतेः॥ दीपांतरे नृपः प्रैषी-मंत्रिणं प्रानृतान्वितं ॥ ४ ॥ तत्तद्देशोचितं सोऽय । प्रानृतं कंबलादिकं ॥ नृपस्य पुरतोऽमुंच-प्रीतिपुंजमिव प्रत्नोः ॥ ५॥ आदाय परमप्रोत्या । तदाईकमहीपतिः ॥ अप्रादीत्कुशलं राज्ये। सादरं मगधेशितुः ॥ ६॥ सोऽपि श्रीश्रेणिकोदंत-प्रेखोलन्मलयानिलैः ॥ सुतरां नर्नयामास । तन्मनोवृत्तिवल्लरीं ॥ ७ ॥
अथ पप्रन नूनर्तुः । सूनुराईकनामकः ॥ मंत्रिस्त्वत्स्वामिनो योग्यः । कुमारोऽप्यस्ति कश्चन ॥ ॥ यतश्चिरंतनप्रीते-रविछेदाय सादरं ॥ तेन साईमदं प्रीतिं । चिकीर्षामि कुलो. चितां ॥ ए॥ यतः-धन्यास्त एव यत्प्रीति-वईमाना दिने दिने ॥ क्रमात्पुत्रप्रपौत्रेषु । संकामति झणं यथा ॥ १० ॥ मंत्रिणाऽनाणि धर्मझो । बुझ्मिान कुरुणानिधिः ॥ पंचमंत्रि- एए ॥ शतस्वामी । कृतज्ञो ददशेखरः ॥ ११ ॥ विद्याविनयसंपन्नः। श्रीश्रेणिकनृपांगजः॥ अन्नयोऽन्निधया ख्यातः। किमु नाकर्णितस्त्वया !! १२ ।। युग्मं ॥ श्रेणिकांगभुवा साई। मैच्या
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गोलोप
वृत्ति
॥३०॥
मिळतमात्मजं ॥ साधु वत्स सुपुत्रोऽसी-त्यन्यनंदत्तमाईकः ॥ १३ ॥ कुमारोऽपि गुणांस्त- स्य । नाम चाकण्यं विस्मितः ॥ परमानंदसंपूर्ण । इति मंत्रिणमनीत् ॥ १४ ॥
न गंतव्यमनापृच्च । श्रोतव्यं वाचिकं मम ॥ अन्नयंप्रति मञ्चेतो । यतो धावति सा. ग्रहं ॥ १५ ॥ निजपुंसा सहामात्यो । विसृष्टोऽथ नृपेण सः ॥ अन्याय कुमारोऽपि । प्राहिणोन्मौक्तिकादिकं ॥ १६ ॥ मंत्री राजगृहेऽन्येत्य । श्रेणिकाय तदार्पयत् ॥ अन्नयाय च तछस्तु । वाचिकेन समं ददौ ॥ १७ ॥ आसन्नन्नव्यः कोऽप्येष । जिनशासनलालसी ॥ पुरा विराध्य चारित्र-मनार्येषूदपद्यत ॥ १७ ॥ अन्नव्यो दूरनव्यो वा । न मया सख्यमिडति ॥ यतः समानधर्माणां । जायते प्रीतिरंगिनां ॥१५॥ ततस्तस्मै ध्रुवं प्रेष्या । प्रतिमा तीर्थशासितुः॥ जातिस्मरणमासाद्य । स तया बोधिमाप्स्यति ॥ २० ॥ इत्यनुध्याय मतिमा-नन्नयो धर्मवत्सलः ॥ प्रतिमामादिदेवस्य । सौवर्णी सुप्रतिष्ठितां ॥ १ ॥ निधाय सोपकरणां । पेटामध्ये समुजके ॥ नरेंझानृतैः साई । तस्य पुंसः करे ददौ ॥ २५ ॥ आईकोऽपि समुद्राव्य । मंजूषां वर्षपूरितः ॥ दृष्ट्वादिदेवप्रतिमां । स दध्याविति चेतसि ॥ २३ ॥ इदमानरणं
॥६॥
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शोलोप
॥
AL
कंठे । शीर्षे वा हृदि धार्यते ॥ दृष्टपूर्वमिति ध्यायन् । जातिस्मरणमाप्तवान् ॥ २५॥
इतो नवे तृतीयेऽहं । वसंतपुरपत्तेन ॥ कुटुंबी मगधे देशे-भुवं सामायिकानिधः ॥ ॥ २५॥ नार्या बंधुमती चासीत् । तया साईमथान्यदा ॥ धर्म श्रुत्वा सवैराग्यो । दीदामहमुपाददे ॥ २६ ॥ संयतीजनमध्यस्था-मन्येयुर्वीक्ष्य वल्लनां ॥ प्राक्तनेनानुरागेण । कामयामासिवांश्च तां ॥ १७॥ तद् ज्ञात्वा सापि मा नांदी-देष मे स्वस्य च व्रतं ।प्रपाख्यानशनं प्राणां-स्त्यक्त्वा देवभुवं ययौ ॥ २ ॥ तत् श्रुत्वाऽनशनेनादं । व्रतन्नंगनयात्खलु ॥ विपद्य त्रिदशो नूत्वा-ऽनार्येषूत्पत्तिमाप्नुवं ॥ श्ए ॥ स गुरुः स च बंधुर्मे । येनादं प्रतिबो. धितः ॥ इत्यनयदिदृक्षायै । स चकार मनोरथं ॥ ३० ॥ अन्नयं दृष्टुमिछामि । तेनेत्युक्ते पिताऽवदत् । स्वस्थाने तस्थुषामेव । प्रीतिः श्रीश्रेणिकेन नः ॥ ३१ ॥
पित्रा निवारितश्चैषः । स्वयं गंतुं च सोत्सुकः ॥ अनुरक्तः कुलस्त्रीव-जंतुं स्थातुं च ॥ ६ ॥ नाऽशकत् ॥ ३२ ॥ दृष्टानिव दृढं ध्याय-बदृष्टानपि तद्गुणान् ॥ सदने कानने चापि । न कापि घृतिमाप सः ॥ ३३ ॥ तदेकाग्रतया तिष्टन् । योगीवाऽनन्यकार्यकृत् ॥ प्रोषितेवर
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वृत्ति
शोलोप पतिप्राप्त्यै । दिनं कष्टादवाहयत् ॥ ३४ ॥ तत्संबहाः कथाः कुर्व-त्राईकः प्रेकते कणं । न-
3. बीय गलतः स्वेष्टं । पक्षिणो बह्वमन्यत ॥ ३५ ॥ अथाईकनृपो ज्ञात्वा । यियासु निजमात्म॥३॥ ॥ आदिशत्तस्य रक्षायै । सामंतशतपंचकं ॥ ३६ ॥ निजपार्श्वममुंचान-गययेव दिवामनिशं ॥ कारागतमिवात्मानं । कुमारस्तरमन्यत ॥ ३७ ॥ अथ प्रतीतये तेषां । बहिर्वाहान
स वाहयन् ॥ गत्वा दूरमपि स्वेवं । स्वयं व्यावर्ततेस्म च ॥ ३ ॥ अथाईत्प्रतिमामग्रे-ऽधिरोप्य मणिनितृतं ॥ प्रगुणं कारयामास । यानपात्रं स वारिधौ ॥ ३५॥ अथ तेषु त्वदृष्टेषु
पोतमारुह्य तत्दणात् ॥ आर्यदेशं स चासाद्य । सप्तदेव्यां धनान्यदात् ॥ ४०॥ प्रत्येकबुझः ६ प्रतिमा-मन्नयाय विसृज्य सः ॥ यतिलिंगमुपादाय । यावत्सामायिकं जगौ ॥४१॥ व्योपनि देवतया ताव-दूचे त्वं मा ग्रहीव्रतं ।। यतो नोगफलं कर्म । नोज्यं तीर्थकरैरपि ।
तस्मादभुक्त्वा तत्कर्म । व्रतं नादातुमर्हसि ॥ ननु किं तेन धर्मेण । नरके येन गम्यते ॥ ॥५३ ॥ दैवीं वाचमनादृत्य । सहसा व्रतमग्रहीत् ॥ अत्युग्रं पालयंस्तत्स । वसंतपुरमासदत् ॥ ४५ ॥ स च बंधुमतीजीव-स्तत्पुरश्रेष्टिनो गृहे ॥ धनवत्याख्यजायायां । श्रीमत्या.
॥६॥
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शोलोप ह्वा सुताऽनवत् ॥ ४५ ॥ बहिर्देवकुलेऽन्येयुः । प्रतिमां तस्थुषो मुनेः ॥ वयस्यानिर्युता त- वृत्ति
पत्र । श्रीमती रंतुमाययौ ॥ ४६ ।। वृणीत सख्यो नारं । तत्रोचुरिति बालिकाः ॥ श्रीम॥ तिर्मुनिमाश्लिष्य । वृतोऽयमिति चान्यधात् ॥ ४ ॥ त्वया साधु वृतं साधु । कथयंतीति दे
वता ॥ ववर्ष तत्र रत्नानि । तन्वाना गर्जितारवं ॥ ४० ॥ गर्जनीताथ सा तस्य । पादयोरलगन्मुनेः ॥ अनुकूलोपसर्गोऽयं । मत्वेत्यन्यत्र सोऽगमत् ॥ ५ ॥ अस्वामिकं नवेद् झ्यं । राजसादिति निश्चयात् ॥ यावद्गृह्णति रत्नानि । तानि ते नृपपूरुषाः॥ ॥ मया वरणके दना-न्येतानीति सुरीवचः॥ तावत् श्रुत्वाथ पश्यंत-स्तत्राहीस्ते पलायिताः ॥ युग्मं ।। तहनं देवदत्ताख्य । आददे श्रीमतीपिता || निर्विघ्नं शेषलोकाश्च । केवलं कौतुकेक्षिणः ॥ ५ ॥ पित्रोक्तापि न सा वने । वरं यौवनवत्यपि ॥ स एव मे वरो व्यं । ददौ यगृहदेवता ॥५३॥ संगृह्णता च तद् व्यं । त्वयाप्यनुमतं पितः ॥ नाऽत्यस्मै तदहं देया । यदुक्तं लौकिकैरपि ॥ ॥ ३ ॥ ॥ ५५ ॥ सकृजल्पंति राजानः । सकृजल्पंति साधवः॥ सकृत्कन्याः प्रदीयते त्रीण्येतानि सकृत्सकृत् ॥ ५५ ॥ वत्से ग श्व भ्राम्यन् । स कथं लप्स्यते त्वया । लब्धोऽपि हि कधी
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शीलोप
॥ ६४ ॥
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ज्ञेयो । निक्षवो हि परःशताः ॥ ५६ ॥ श्रीमत्यूचे तदा तात । तदंहौ लग्नया मया ॥ लमास्ति दृष्टं चेीये | हेलया लक्ष्यामि तं ॥ ए७ ॥ तदा प्रभृति ये तत्र । समागति साधवः ॥ जिदादानं वंदनं च । सर्वेषां सा समाचरत् ||१८|| द्वादशेऽब्दे तमायात-मज्ञासीलक्ष्मदर्शनात् ॥ श्रीमत्याह जवान स्वामिन् । वरो मे यत्तदा वृतः ॥ एए ॥ तदा निष्ठयुतवन्मुक्त्वा । मां निरस्य गतोऽसि हा ॥ प्रसीद सांप्रतं नाथ । नोपेक्षस्व जजस्व मां ॥ ६० ॥ अतः परमपि त्वं चे-न्मां स्वामिन्नवमन्यसे || स्त्रीहत्यापातकेन त्वां । लिप्त्वादं भविताग्निसात् ॥ ६१ ॥ दिव्यां गिरमनुध्याय । राज्ञा लोकैश्च सोऽर्थितः । श्रीमतीमुपयेमे तां । जावि किं जायते ऽन्यथा ॥ ६२ ॥
क्रमेण तनये जाते । श्रीमती माईकोऽवदत् ॥ सहायस्ते बनूवात - स्तनयः प्रव्रजाम्यई || ६३ || श्रीमती धीमती तर्कु-मादायोपाविशत्तदा ॥ नवाच बालको मातः । प्रारब्धं किमिदं त्वया || ६४ || वत्स तातस्तपस्यायै । गंता ते त्वं पुनर्लघुः ॥ शरणं तर्कुरेवेति । श्रुत्वा कीरवदाद सः ॥ ६५ ॥ मातः क्व तातो मे गंता । बध्ध्वा तं स्थापयाम्यहं ॥ तर्कसूत्रे -
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वृत्ति
॥ ६४ ॥
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शोलोपण तत्पादौ । वेष्टयनित्यमाद च ॥ ६६ ॥ मा नैषी एवांब । तंतुनेव हिपो मया ॥ आ- वत्ति
- कश्चाईचित्तोऽनू-तद् दृष्ट्वा बालचेष्टितं ॥ ६७ ॥ मत्पादयोर्विधातासौ । यावंतः सूत्रवेष्टका॥६५॥ ॥ स्थास्यामि गृहवासेऽहं । तावत्यब्दानि नाधिकं ॥ ६॥ गणितास्तंतुबंधाश्च । जाता घा
दश संख्यया ॥ सोऽतोऽतिक्रमयामास । हादशाब्दी गृहस्थितः ॥ ६॥ ॥ मनसापि व्रते न. ने । पुराऽनार्यत्वमाप्नुवं । सांप्रतं सर्वश्रा मुक्ते। का गति नविष्यति ॥ ७० ॥ विपश्येत्यवधौ पूर्णे । श्रीमतीमनुमान्य सः ॥ मुनिवेषमुपादाय । विजदार समीरवत् ॥ १॥ चौरवृत्तिपरं स्वीयं । सामंतशतपंचकं ॥ दृष्ट्वोपलक्षयामास । मुनी राजगृहाध्वनि || ७२ ॥ जठरापूरणोपायै-विद्यमानैरपोतरैः ॥ केयमाजीविकारब्धा । पृष्टास्तेऽपीति तं जगुः ॥ ३ ॥ यदादि नवता मुक्ता । वयं तत्र वनांतरे ॥ तदादि दर्शयामो न । स्वं मुखं स्वामिनो ह्रिया। ॥ ४ ॥ गवेषयंतस्त्वामेव । भुवमेतावतीमिताः ॥ अनन्यजीवनोपाया । जीवामश्चौर्यकर्म- ॥६५॥ णा ॥ ५ ॥ ज्ञः शृणुत नव्याः स्थ । तेनाहं संगतोऽस्मि तत् ॥ आलोच्य पापं स्वाचीणे । पुण्यमाश्यितां पुनः ।। ७६ ॥ श्रुत्वा तद्देशनां धर्म-मयीं ते राजसूनवः ॥ प्रव्रज्यां ज.
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शीलोपप
।। ६६ ।।
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गृहुर्धन्याः । संसारांनो धितारिणी ॥ ७७ ॥ तैर्युक्तो वंदितुं वीर-मजिराजगृहं ययौ । विवाद कर्त्तुमारेजे । गोशालो मिलितोंतरा ॥ ७८ ॥ अहो नु कष्टैकफलं । वृथेदं तप्यते तपः || सुखदुःखादिनोक्तृत्वे । प्रमाणं नियतिः खलु ॥ ७९ ॥ नपक्रमशतैः प्राणी । यन्न साधयितुं कमः ॥ दृश्यते जायमानं त लीलया नियतेर्बलात् ॥ ८० ॥ श्राईकर्षिरुवाचेदं । मा य६दतया वद || नियत्या पौरुषेणापि । कार्यसिद्धियात्मिका ॥ ८१ ॥ यथा स्थाले स्थितं नोज्यं । कर्मणा प्राप्तमस्ति तत् ॥ तावन्न प्रविशेषक्ते । यावत्प्रेषति नो करः ॥ ८२ ॥ या नियतिजं किंचि-त्किंचित्पौरुषसंज्ञवं । कायै व्यात्मकं चैव । नैव ह्येकात्मकं कचित् ॥ ॥ ८३ ॥ यदाहुः -
दैवमर्चित्यं बलव—इलवान्नियतिश्व पुरुषाकारोऽपि ॥ पतति कदाचिन्ननसः । खाते पातालतोऽपि जलं ॥ ८४ ॥ इवं निर्वचनीचक्रे | कुमारर्षिर्दुरात्मकं || देवखेचरगंधर्वैस्तुवे च सकौतुकैः ॥ ८५ ॥ श्रथ जीवदयामास धर्म भ्रांत तपस्विनं ॥ हस्तिमांसाकुलं हस्ति -तापसाश्रममासदत् ॥ ८६ ॥ तत्राहुस्तापसा धान्यैः । किं जीवैर्वहु निर्दतैः ॥ वरमेको द
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॥ ६६ ॥
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शोलोप
॥ ६७ ॥
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तो दस्ती | चिरं येनातिगम्यते ॥ ८७ ॥ इत्ययो निगमैर्व हो । दिशि यत्रास्ति वारणः । तत्संमुखं गतः साधु-र्मुनिपंचशतीवृतः ॥ ८८ ॥ जक्तिनम्रैर्जनैवैद्य-मानं दृष्ट्वा मुनिं गजः ॥ लघुकर्मतया नंतुं । जावनामकरोदयं ॥ ८ ॥ श्रयस्कांत मणेरेव । महर्षेर्दर्शनादिव || त्रुटित्वा परतः पेतुर्दुरितानीव शृखलाः || ५० ॥ विलोक्य गजमायांतं । पलायंचक्रिरे जनाः ॥ तथैवाऽकंपितस्तस्थौ । मुनिर्मेरुरिवाऽनिलैः ॥ ५१ ॥ गजोऽप्यागत्य विनम - कुंनः प्रणमतिस्म तं ॥ स्पर्श स्पर्श मुनेः पादौ । परमं सुखमाप च ॥ ९२ ॥ प्रजावाऽतिशयं दृष्ट्वा । कुपिता अपि तापसाः ॥ प्रत्यबोध्यंत ते सर्वे । श्रीश्राईकमहर्षिणा ॥ ९३ ॥ ततः संवेग निर्वेद - युक्ता मुक्तिसमीदया || जक्त्या नत्वा जिनं वीरं । व्रतमाददिरेऽथ ते ॥ ए४ ॥ तत्राऽनय| श्रीकिमहीभुजा || वंद्यमानः कुमारर्षि - धर्म जानाशिषं ददौ ॥ ९५ ॥ नाबाधं परिपृचय | मुनिमाद महीपतिः || महर्षे श्रोतुमिष्ठामि । साच दस्तिमोचनं ॥ ९६ || मुनिनोचे महाराज । न चित्रं करिमोचनं ॥ सुदुष्करं तंतुपाश - मोचनं प्रतिज्ञाति मे ॥ ७ ॥ तत्पृष्टः प्रथयामास । तर्कुतंतुकथां मुनिः ॥ धर्मातावुपकारित्वा-द
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वृत्ति
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शोलोपन्य नंदत्तथाऽनयं ॥ ए ॥ निःकारणवत्सलेन । त्वयाई प्रतिबोधितः । इत्युदंतं निवेद्यासौ।। वृत्ति
। तस्मै धर्माशिषं ददौ ॥ एए ॥ इत्याश्चर्यकरं तस्य । निशम्य चरितं जनाः ॥ श्रेणिकान्नयसंयुक्ताः । प्रहृष्टाः स्वगृहं ययुः ॥ १० ॥ नत्वा पुरे राजगृहे जिनइं। श्रीवीरनाथं मुनिराईकाख्यः ॥ कृत्वा कृतार्थ स्वमनुष्यजन्म । कर्माणि नित्वा च शिवं प्रपेदे ॥१॥ विशु. इसंवेगगृहीतदीको । मोकानिगामी स च तनवेऽपि ॥ असेवत हादशकच्याब्दी । गार्हस्थ्यधर्म विषया हिनीमाः॥॥
॥ इति श्रीरुपल्लीयगछे नहारकश्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां श्रीशीलोपदेशमालावृत्तौ शीलतरंगिण्यां श्रीआईकशषिकथा ॥
प्रास्ता सामान्यमात्रस्य, तीर्थकरदीक्षितस्यापि नारीसंगाहोषमाह
॥ मूलम् ॥-पादिवसं दहदह-बोहगोवि सिरिवीरनाहतीसोवि ॥ सिणियसुनावि स- ॥६॥ तो । वेसाए नंदिसेणमुणी ॥ ३१ ॥ व्याख्या-प्रतिदिवसं नित्यं दशदशबोधकोऽपि, दशजनान् प्रतिबोध्य चारित्राय प्रेषयन्त्रपि, एवं विधः श्रीवीरनाथशिष्योऽपि तत्करप्राप्तदीदोऽपि श्रे
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वृति
शोलोपणिकसुतो नंदिषेणमुनिर्वेश्यागृहे हादशवर्षानवासीदिति पूर्वगायासंबंधः ' दशपाषाणे ह' -
ति सूत्रेण दहः, गाथार्थोऽयं, नावार्थस्तु कथानकगम्यस्तथाहि॥ ॥ कापि देशे हिजः कोऽपि । यज्ञं कर्तुं प्रचक्रमे ॥ यझपाटकरक्षायै । तत्रैकं दासमादिश.
त् ॥१॥स नृत्यो जिनधर्मज्ञोऽन्यदा विप्रमुवाच तं ॥ अहमप्याचरिष्यामि । यज्ञशेषामनीषितं ॥॥ तथेति प्रतिपन्ने च । रक्षकस्तत्र सोऽनवत् ॥ प्रादूयंत तथा विप्रा । वि. पुरा यज्ञकर्मसु ॥३॥ दूयंते मधुपर्काद्या । घृतकुंलशतानि च ॥ नोज्यंतेऽतिश्रयः शालिमोदकादिनिरन्वहं ॥ ४ ॥ अवशेष प्रासुकानं । मुनिन्यः स सदाप्यदात् ॥ नक्तितश्च सदाचारः । सुशुई तंडुलोदकं ॥ ५ ॥ वस्त्रादिकमपि प्राप्य । स यथावसरं ददौ ॥ दानप्रां ते त
थात्मान-मपुनाइंदनादिना ॥६॥ मृत्वोत्पन्नः स देवेषु । नोगांश्च बुभुजे चिरं ॥ अल्पा हि | का क्रिया नाव-सहिता स्यात्फलेग्रहि ॥ ७॥
ततः श्रेणिकराजस्य । सुतत्वेनोदपद्यत ॥ नंदिषेण इति ख्यातः । स प्राप्तो यौवनश्रियं ॥ ॥ क्रमेणाऽतुल्यलावएय-रूपन्नाग्यवपुःश्रियः ॥ राजकन्यापंचशती । स पित्रा पर्य
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शीलोप
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लायितः ॥ ए ॥ इतश्च - हस्तियूथपतिः कश्चि- सल्लकीवनमध्यगः ॥ वशासु क्रोडति स्वैरं । सुरीष्विव सुरेश्वरः ॥ १० ॥ मामुछेद्य गजो मानू-त्करिणी यूथनायकः ॥ इति ध्यात्वा जातजातं । निजघान स दस्तिनं ॥ ११ ॥ विप्रजीवस्तु तयूथे । वशाकुकाववातरत् ॥ गमेनं कथंकारं । रक्षिष्यामीति दस्तिनी ॥ १२ ॥ विमृश्य खंजतां प्राप्ता । मायया मंदचारिणी ॥ प्रेम्णा प्रतीक्ष्यमाणं तं । गत्वा यामैकतोऽमिलत् ॥ १३ ॥
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एवं मिलती धूर्त्तत्वा-देकादेन छ्यदेन वा ॥ गजं विश्वासयामास । स्त्रीनिः कः को न वंच्यते || १४ || दूरस्थे नायकेऽन्येद्युः । प्रसवासन्नवासरे || जगामाश्रममाधाय । स्वशीर्षे तृणपूलकं ॥ १५ ॥ पतंतीं पादयोरेनां । विज्ञाय शरणार्थिनीं ॥ श्रवोचंस्तापसा वत्से । तिटात्र जयवर्जिता ॥ १६ ॥ जातमात्रं सुतं तत्र । मुक्त्वा यूयं स्वयं ययौ ॥ स्तन्यं बालाय दत्तेस्म । प्रछन्नं त्वंतरांतरा ॥ १७ ॥ तापसैः सहजप्रेम्या । नीवारैः सल्लकीदलैः ॥ पोष्यमाणो गतो वृद्धिं । क्रमादाश्रमवृकवत् || १८ || पोतोऽसौ पोतवत्क्रीडन् । नीवारादिकमादरनू ॥ जटाजूटकबंधं च । स चक्रे शिरसि स्वयं ॥ १९ ॥ तपस्विलीलया कामं । सिंचन्ना
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वृत्ति
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शोलोप
वृत्ति
॥ १॥
श्रमपादपान् ॥ स सेचनक इत्यासी-प्रतिक्षेऽन्निधया भुवि ॥ २० ॥ तुंगः सप्तकरान् दी- ? । नवहस्तांस्त्रीन् विस्तृतः ॥ लघुग्रोवो मधुपिंग-नेत्रः सप्तांगसुंदरः ॥ १।। चत्वारिंशदधिकया । चतुःशत्या सुलक्षणैः ॥ स युक्तो नजातीयो । मदोन्मनः क्रमादनूत् ॥ २२ ॥ पयः पातुं समायातं । पितरं तटिनीतटे ॥ विनाश्य सवलत्वेन । जझे यूथपतिः स्वयं ॥२॥
अवबुध्य निजोदंत-मसौ दध्याविदं हृदि ॥ यथाऽहं रक्षितश्वद्म । कृत्वा मात्रा तपोवने ॥ २५ ॥ मया च यागाचीर्ण । स्वपितुः क्रूरकर्मणा ॥ तथा परोऽपि मा कार्षी-न्मयी|ति परिन्नाव्य सः ॥ २५ ॥ बनंज कपिवनीडं । स तदा तापसाश्रमं ॥ तापसाः श्रेणिकायाख्यन् | गजं तं च सुलक्षणं ॥ २६ ॥ राजापि कानने गत्वा । बध्ध्वा तं पुरमानयत् ॥
अदृष्टपूर्वबंधेन । स जज्वाल भुजंगवत् ॥ २७ ॥ महास्थाने महालान-बशे नमोद्यमस्तदा का निमीलितेकणस्तस्थौ । मानीव उन्नमत्सरः ॥ २७॥ नस्त्वया त्वाश्रममं । साध्वकारं।
ति तापसाः ॥ पालानस्तंन्नबई त-मागत्यैवमतर्जयन् ॥ २५ ॥ रे पुरात्मंस्त्वमस्मानिरालितः पालितश्चिरं ॥ यदाचरश्च कर्म । तस्येदं भुज्यते फलं !! ३० ।। अमीषां वचना
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वृत्ति
होलोपन्नून-मेनां प्राप्तोऽस्म्यहं दशां ।। ध्यात्वेति स्तंनमुन्मूल्य । त्रोटयित्वा च बंधनं ॥ ३१ ॥
KA क्रुधारुणेक्षणः क्षिप्रं । गत्वा वनमथाश्रमं ॥ संमर्थ तिलवत्पर्ण-शालां चिकेप तूलवत् ॥३॥ ॥७२॥ रिरहया तापसानां । गजस्य च जिघृकया ॥ हयारूढैः सुतैः साई । वने श्रीश्रेणिको ययौ
॥ ३३ ॥ मंत्रैर्दुष्टं नूतमिव । सादिनो मंत्रवादिनः ॥ न दमास्तं वशे नेतुं । बनूवुः श्रेणिकांगजाः ॥ ३५ ॥ श्रुत्वा तु नंदिषेणस्य । वचोऽहिरिव जांगुलेः । स स्मृत्वा प्राक्तनं जन्म
चित्रार्पित श्वाऽनवत् ॥ ३५ ॥ बालश्गगमिवारुह्य । नंदिषेणोऽत्र हस्तिनं ॥ हेलयाऽनयदालान-स्तंनगोचरचारितां ॥ २६ ॥ ज्ञात्वा सञ्जकणैः पूर्ण । युवराजमिवापरं ॥ चक्रे सेचनकं पट्ट-हस्तिनं श्रेणिको नृपः ॥ ३७॥ ____ अन्यदा श्रीमहावीरं । चैत्ये गुणशिलाह्रये ॥ वंदितुं श्रेणिकोऽगन-सांतःपुरसुतवजः॥ ॥ ३० ॥ श्रुत्वा चतुर्विधां तस्य । देशनां श्रवणामृतां ॥ गार्हस्थ्यधर्मसर्वस्व-मनयाद्याः प्र- पेदिरे ॥ ३५ ॥ श्रीश्रेणिकमश्रापृत्य । कथंचिद्वतलीप्सया ॥ नपवीरमपासर्प-दिषेणो वरेएयधीः ॥ ४० ॥ अंतरिकस्थया ताव-दूचे देवतया स्फुटं ॥ अभुक्तं कीयते कर्म । वत्स नो
॥७॥
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शोलोप
॥ ७३ ॥
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गफलं किमु ॥ ४१ ॥ तस्मात्कालं प्रतीक्षस्व । मास्म मिथ्योत्सुकीजव ॥ चारित्रावरकं क र्म । कपय गृह एव तत् ॥ ४२ ॥ किं करिष्यति मे कर्म । साधुवर्त्मनि तस्थुषः ॥ इत्यव - टय धीरत्वं । सोऽगाधीरपदांतिके ॥ ४३ ॥ प्रभुणापि निषिद्धोऽयं । विरराम न चाग्रहात् ॥ ॥ हस्तिनः संमुखावेव । दंतौ स्यातां न पृष्टतः ॥ ४४ ॥ सोंगीकृत्य मुदा दीक्षां । व्यहाप्रभु सह ॥ स्वात्मानं कुशयामास । तपोभिरतिदुस्सहैः ॥ ४५ ॥ नृत्पद्यमानां जोगेAai || विशिष्यातापनां चक्रे | घोरां पितृत्रनादिषु ॥ ४६ ॥
विकाराऽरण्यसांमुख्यं । नृशमिंश्यितस्करैः ॥ नजमानैरसौ मानी । स्वात्मघातमचिंतयत् ॥ ४७ ॥ शस्त्रेण निघ्नतस्तस्य । शस्त्रं कुठं चकार सा ॥ वह्नौ निपततो देवी । वह्निं चक्रे च शीतलं ॥ ४८ ॥ नक्षयतो वत्सनागं । निर्वीर्यत्वमजीजनत् || नबंधनं दधानस्य । पत्रवत्पाशमविदत् ॥ ४९ ॥ पतंतं शैलतो धृत्वा । सुरी सादरमब्रवीत् || अलं नवति वै देप्तुं । कोऽप्यभुक्त्वा कर्म किं ॥ ५० ॥ श्रवश्यमेव जोक्तव्यं । वेद्यं कर्म जिनैरपि ॥ मुधैवोतिष्टसे तत्त्वं । किं न स्मरति मदचः ।। ५१ ।। नृशायिततपः कर्मा । सोऽन्यदा षष्टपारणे ॥
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वृत्ति
॥ ७३ ॥
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शीलोप
॥ ७४ ॥
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नानोगतयैकाकी । विवेश गणिकागृहं ॥ ५२ ॥ धर्मलाज इति प्रोच्य । यावद्दयावर्त्तते मुनिः ॥ तावता गणिका हास्य - सगर्भमिदमूचुषी ॥ ५३ ॥ धर्मला जैर्न नः कार्य । इव्यलानोSस्तु केवलं || एषापि मामुपहस - त्येवं गर्वनरान्मुनिः ॥ ५४ ॥ निवृतस्तृणमाकृष्य । लध्या व्यमपातयत् ॥ अथाऽनुधाव्य वेश्यापि । लग्ना जुंगीव तत्पदोः ॥ ५५ ॥ श्रब्रवीच्च समागत्य | कल्पवृक्ष इवांगणे || अनाथामनुरक्तां मां । नाथ न त्यक्तुमर्हसि ॥ ५६ ॥ महात्मापि तदुल्लापै-रक्तः सानेव सिंधुरः || जानन्नपि विषं जोगान् । प्रेम्णात्मानमबंधयत् ॥ ॥ ५७ ॥ स्मृत्वा देवीगिरं राग - मूढो वीरवचश्च तत् ॥ तत्रोवास व्यक्तलिंगो । वेद्यं कर्म किमन्या ॥ ५८ ॥ श्रधिकान् दश वा यत्र । दिने बोधयितास्मि न ॥ प्रत्यासीत्तदा नंदिषेणो दीक्षामश्रात्मनः || ५ || बुभुजे विपुलान् जोगान् । प्रबोध्य च जनान् दश ॥ प्रहित्योपजिनं धन्यो । ज्ञोजनादिकमाचरत् ॥ ६० ॥ अथ जोग्यायुषि की । सबले कर्मबंधने ॥ प्रबुद्धा नव नो टक्क-जातीयो दशमोऽन्यदा ॥ ६१ ॥ समयज्ञा तदा वेश्या । प्रोचे रसवतीं कृतां ॥ अपूर्णानिग्रहः सोऽपि । नोतस्थौ न च सोऽबुधत् ॥ ६२ ॥ सिद्धान्ने विरसीभूते
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वृत्ति
॥ ७४ ॥
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वृत्ति
शीलोप । मुहुर्वेश्या तमाह्वयत् ॥ निष्पन्नमन्यदस्त्यत्रं । तत्किं स्वामिन् विलंबसे ।। ६३ ।। तेनोक्तं ।
I दशमो नाद्य । प्रबुद्धः साह सस्मितं ॥ लव त्वमेव दशमः । स्वामित्रोमित्युवाच सः॥६॥ ॥ ५॥ मत्वा नोगफलं कर्म । वीणं श्रेणिकसंनवः॥ गत्वा श्रीवीरपादांते । तपस्यां पुनराददे ॥
॥ ६५ ॥ स्वकुश्चरितमालोच्य । सहमानः परीषहान् ॥ नंदिषेणो विशुझमा । जगाम त्रि. दिवालयं ॥ ६६ ॥ किं चित्रं यदसौ तादृक् । विषयैर्विवशीकृतः ॥ स्मृतिमात्रेण निनंतो । विषया हि विषोपमाः ॥ ६॥ .
॥इति श्रीरुपक्षीयगने श्रीसिंहतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां श्री. शीलोपदेशमालावृत्तौ श्रीशीलतरंगिण्यां श्रीनंदिषेणमहर्षेः कथा ॥ ___ तनवसिहिगामिनामपि विषयदुर्जेयतामाह
॥ मूलम् ॥-जननंदणो महप्पा । जिगन्नाया वयधरो चरमदेहो ॥ रहनेमी रायमई । राइमई कासि ही विसया ॥ ३१ ॥ व्याख्या-यदुनंदनः श्रीसमुविजयनरेंऽसूनुर्महात्मो. पशांतचिनो जिनत्राता श्रीमन्नेमिजिनलघुवांधवो व्रतधरो गृहीतदीक्षश्चरमदेहस्तनवमोगा
॥ ५ ॥
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शोलोप
वति
॥
मी, एवं विधोऽपि रथनेमी राजीमतीप्रति रागमतिं चकार, ही इति खेदे विषयाः खेदावहा - उबघ्याः, को नावः ? यैर्विषयैरेवंविधोऽपि रथनेमिर्विकारकातरतां प्रापितः, ते विषयाः केन
जेतुं शक्यते इति. राजीमत्यां श्रीमदुग्रसेनात्मजायां रागोऽनुरागश्चेत कोजस्तस्मिन्मतिं बुद्धि स चकार; इति गाथार्थः, नावार्थस्तु कथानकगम्यः, स चेचं
राज्यं राजिमतीं चापि । परित्यज्य विरक्तधीः॥ वाविंशः श्रीजिनो नेमिः। प्रपन्नो रैवते व्रतं ॥१॥ रथनेमिलघुभ्राता । पाणिग्रहणलीप्सया ॥ राजीमतींप्रति प्रेष-त्प्रानृतानि प्रसत्तये ॥ २ ॥ प्रानृतं प्रेषयत्येव । स्वत्रातुः प्रेमतो मयि ॥ इति तत्स्नेहतः सापि । निर्विकस्पतयाऽग्रहीत् ॥ ३ ॥ विवाहाकांकयाऽन्येयुः। प्रार्थयंतं नृपांगजा ॥ मदनफलमाघ्राय । वमित्वेति तमब्रवीत् ॥ ४ ॥ भुंदवेदं किमहं श्वास्मि । मुंजे यहांतमार्नवत् ॥ भ्रात्रा त्यक्तां कथं तर्हि । मामुपनोक्तुमर्हसि ॥ ५ ॥ अन्यच्च-को नाम गजमुनित्वा । रासनं बहुमन्यते ॥ को वा रत्नमनादृत्य । काचेऽपि कुरुते मतिं ॥६॥ ब्रातृस्नेहानुगाम्येष । इति प्रानृतमादेदे ॥ जन्मांतरेऽपि नो नूया-धो नेमिजिनात्परः ॥ ७॥ नत्पन्ने केवलज्ञाने । स्वामि
॥६॥
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शीलोप
॥ 99 ॥
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नो पतिव्रता ॥ उपादाय व्रतं राजी-मती जज्ञे महत्तरा || ८ || विहरन्नन्यदा स्वामी । रैवते समवासरत् ॥ ययुः सांतःपुरास्तत्र । कृष्णाद्या वंदितुं प्रभुं ॥ ९ ॥ श्रुत्वा संसारवैराग्य - जननीं धर्मदेशनां ॥ रथनेमिरुपादत्त | चारित्रं श्रीजिनांतिके ॥ १० ॥ राजीमत्यंतिके स्त्रैणं । स्वस्वदीकामपालयत् ॥ उत्तमार्थविधेयेषु । शिथिलाः कृतिनः किमु ॥ ११ ॥
अन्यदा नेमिनं नत्वा । रथनेमिः पथि व्रजन् || बाधितो वृष्टिकायेन । प्राविशत्कंदरां गिरेः || १२ || राजीमत्यपि मेघांबु - बाधिता तहांतरे ॥ रथनेमिमजानाना । तत्रस्थं प्राविशत्तदा ॥ १३ ॥ तमदृष्ट्वा तमिस्रेण । श्रोलीनिहितचक्षुषं ॥ वस्त्राणि परितोऽक्रेप्सी-कुछनाय महासती ॥ १४ ॥ स्वर्गलोकजयायेव । साधयंतीं तपःक्रियां ॥ दृष्ट्वा विवसनां तन्वीं | सोऽनूत्कामातुरो नृशं ॥ १५ ॥ पिंमितं सृष्टि सर्वस्व - मिवाऽसौ हा मृगेणा || नैकशोऽपि या भुक्ता । धिग्मे जन्म निरर्थकं ॥ १६ ॥ चातुर्वैरादिवाजने । तथा कामेन मर्मसु ॥ यथा विवशितः सतः । स्वात्मानमपि नाऽस्मरत् ॥ १७ ॥ ईषत्कंप्रवपुर्नृत्य । इवोलाय विसं स्थूलः ॥ रथनेमिः पुरस्तस्या- स्तस्थावुत्तानितेक्षणः ॥ १८ ॥ आग स्वेच्छया नरे । कुर्वदे
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वृत्ति
॥ ७७ ॥
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शीलोप
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सफल जनुं ॥ नजावपि वयःप्रांते । चरिष्यावस्तपोविधिं ॥ १९ ॥ श्रुत्वेत्यश्रव्यमव्याज - चित्ता संवीय वाससी || सती स्पष्टमनापिष्ट । धारयित्वाथ धीरतां || २० || महानुभाव संरंजः । कोऽयं ते जवकारणं ॥ संस्मरस्व प्रतिज्ञां तां । प्रव्रज्यां मास्म विस्मर ॥ २१ ॥ सं1 यतीप्रतिसेवादि । यडुक्कं बोधिघातकं । श्रीमता नेमिनाथेन । किं तच्चाद्यैव विस्मृतं ॥ २२॥ यदुक्तं - संयतीप्रतिसेवायां । धर्मोसादर्षिघातयोः ॥ देवव्यविनाशे च । बोधिघातो निवेदि - तः || २३ || पूर्व गृहस्थया यस्त्वं । मया वाचापि नेदितः ॥ सादं व्रतप्रतिज्ञायां । त्वामद्य कथमाइिये || २४ || अहं श्रीनोजवंशीया । त्वमंधककुलोद्भवः ॥ इवं चाऽनुचितं कर्म । ६योमा विवर्धकं ॥ २५ ॥
अगंधनकुले जाता - स्तिर्यंचो ये भुजंगमाः । तेऽपि वांतं न चाति । तदिच्छ्रुस्त्वं त तोऽधिकः || २६ ॥ इदं हि सफलं जन्म । निष्कलंकस्य देहिनः ॥ खंतिब्रह्मचर्यस्य । धिगिदं जीवितं पुनः ॥ २७ ॥ श्रहो स्त्रीसंकुले लोके । चपलं हृदयं तव । न क्वापि स्थितिमाप्नोति । वातोन्मूलितवृवत् || १८ || वराटिकाकृते तस्मान्मास्म कोटिं विनाशय ॥
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वृत्ति
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शीलोप
॥ ७९ ॥
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तस्मादीरत्वमाधाय । शुद्धं धर्मं समाचर ॥२॥ इत्यादिमदनोन्माद - दर्प सर्वैकजांगुलीं ॥ - युक्तिमाकर्ण्य | चिंतयामासिवानिदं ॥ ३० ॥ स्त्रीजातावपि धन्यासौ । निघानं गुणसंपदां ॥ कुकर्मजलधौ मनो । धिगदं पुरुषोऽपि हि ॥ ३१ ॥
अहो धीरत्वमेतस्याः । स्त्रीजातेरपि निर्मलं ॥ धिग्मेऽधैर्यं पुरुषस्या - ऽपि पंचत्रतधारियः || ३२ || मया पूर्वमिदानीं च । धिगाचीर्णमनीदृशं ॥ यथाऽवस्थावशात्पुंसां । लघुता गुरुतापि च ॥ ३३ ॥ तस्मादेषैव बंधुमें । गुरुर्वापि न संशयः ॥ नद्धृतोऽहं महासत्या । यया नरककूपतः ॥ ३४ ॥ नावयित्वेति धन्यात्मा । श्रीमन्नेमिपदांतिके || गत्वा दुवीर्णमालोच्य । तपस्यां गाढमग्रहीत् ॥ ३५ ॥ चतुर्वर्षशतप्रांते । बाद्मस्थ्यं वर्षमेककं ॥ प्रपाब्य केवली जातः । पंचवर्षशतानि सः || ३६ || वर्षाधिकां नवशतीं । शरदामखिलायुषः ॥ प्रपूर्य सर्वशुद्धात्मा । रथनेमिः शिवं ययौ ॥ ३७ ॥ अहो दौरात्म्यमेतेषां । विषयाणामनुत्तरं ॥ यैरसौ विरतात्मापि । चक्रे निजवशंवदः ॥ ३८ ॥ इति श्रीरथनेमिकथा ॥
अथ पूर्वोक्तदृष्टांतत्र योपसंहारमाद
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वृत्ति
॥ ७९ ॥
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शीलोप
॥ ८० ॥
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॥ मूलम् ॥ - मापवणेण जइ । तारिसावि सुरसेलनिञ्चला चलिया ॥ ता पक्कपत्तसरिसा । इयरसत्ताण का वत्ता ॥ ३३ ॥ व्याख्या - मदनपवनेन कंदर्पवातेन यदि सुरशैलनिश्चला मेरुधीरास्तादृशा अपि श्री आईकनं दिषेणरथनेमिप्रनृतयोऽपि महामुनयश्चलिताचंचलचित्ता जातास्तदा पक्कपत्रसदृशानामपि हीनतरसत्वानां सामान्यप्राणिनां का वार्त्ता ? न कापीत्यर्थः, इति गाथार्थः || ३३ || कंदर्पस्यैव दुर्जयत्वमाह -
॥ मूलम् || जिप्पंति सुहेां चिय । हरिकरिसप्पाइलो महाकूरा || इक्कुञ्चिय 5जियो । कामो कयसिवसुदविरामो || ३४ ॥ व्याख्या - महाक्रूरा दुष्टाध्यवसाया हरिकरिसपदयः सिंहहस्तिभुजंगमप्रनृतयो जीवाः सुखेनैव जीयंते, तत्तदुपायैः पुरुषैर्वशीकृत्य दम्यंते परं कृत शिव सुखविरामो दलितमोक्षः, एवंविध एकः कामो मन्मथ एवं दुर्जेयो जेतुमशक्यः, नक्तं च – मत्तेनकुंजदलने भुवि संति शूराः । केचित्प्रचंमृगराजवघेऽपि दक्षाः ॥ किंतु ब्रवीमि कृतिनां पुरतः प्रसह्य । कंदर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ॥ १ ॥ कामजेतृनेव श्ला
घयन्नाद-
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वृत्ति
॥ ८० ॥
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शीलोप
॥ ८१ ॥
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॥ मूलम् ॥ - तिहुया विमयलन प्रड - पयावपयडोवि विसमसरवीरो || जेहिं जिन लीare | नमो नमो ताण धोरणं ॥ ३५ ॥ व्याख्या - यैर्महात्मनिस्त्रिभुवन विमर्दनानटप्रतापप्रकटोऽपि स्वर्गमर्त्यपातालवा सिवशीकरण समर्थमाहात्म्यक लितोऽपि विषमशरवीरः कंदर्पभुटो लीलया जितः, तेभ्यो धीरेभ्यो नमोनमः, त एव नमस्कारार्दा यैरात्मा वशीकृतः, त एव धोरा वंद्याः, वीरो दि विद्याबली जवति, स च बलेनापि जयति, तःधर्मत्वात्, एवं कंदर्पोऽपि पिशाचवलयति यदुक्तं - मध्य त्रिवलीत्रिपथे। पीवरकुचचत्वरे च तरलदृशां ॥ बलयति मदन पिशाचः । पुरुषं हि मनागपि स्खलितं ॥ १ ॥ इति गाथार्थः, यशोऽपि शीलप्राप्यमेवेत्युपदिशन्नाह
॥ मूलम् ॥ - नयसीलवदणघनसार - परिमलेलं असेसभुवायलं | सुरहिज्जइ जेहिं इमं । नमो नमो ताल पुरिसाएं || ३८ || व्याख्या - निजशीलवहनघनसारपरिमलेन यैरिदमशेषभुवनतलं सुरजी क्रियते तेन्यः पुरुषेभ्यो नमोनमः, निजेन आत्मना शीलस्य वहनं arti अंगीकरणमित्यर्थः, तदेव घनसारः कर्पूरस्तस्य परिमलः सौरभ्यं तेन त्रिभुवनमपि
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वृत्ति
॥ ८१ ॥
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शीलोपप
॥ ८२ ॥
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सुरजीकृतं, शीलेन जगदपि यैर्वासितं त एव वंद्या इत्यर्थः ॥ विशिष्य वैषम्यज्ञापनार्थ त दुर्जेयतामाद
॥ मूलम् ॥ - रमणीकमरक विश्व - तिरकवालेहिं सीलसन्नाहो || जेसिं गन न ज्ञेयं । नमो नमो ताण सुदमा || ३ || व्याख्या - येषां शीलसन्नाहो ब्रह्मचर्यकवचो रमणीकदाविपतीक्ष्णबाणैर्भेदं न गतः, स्त्रीनेत्रापांगशरैर्न निन्नः, तेभ्यः सुनटेभ्यो नमोनमः, तेय एव नमस्कारः कर्तुमर्हः को वा स्त्रीभिर्न खंमितः प्राणी ? यदुक्तं कोऽर्थान प्राप्य न गर्वितो विषयः कस्यापदोऽस्तं गताः । स्त्रीभिः कस्य न खंडितं भुवि मनः को नाम राझां प्रियः || कः कालस्य न गोचरांतरगतः कोऽर्थी गतो गौरवं । को वा दुर्जनवागुरासु पंतितः केमेण जातः पुमान् ॥ १ ॥ इति गाथार्थः, श्रयैनमेवार्थ दृष्टांतेन दृढयन्नाह -
॥ मूलम् ॥ - निवधूया नियरुवा - वह बियासेस सुंदरीवग्गा !! घणसोहग्गनिरुवम-पम्मा लायसरुइरम्मा ॥ ४० ॥ जरजज़रथेरी इव । परिहरिया जेल नेमिनादे ॥ नवयघारीं । पदमोदाहरणमेस जए ॥ ४१ ॥ युग्मं ॥ व्याख्या -- निजरूपापहसिताऽशेष सुंदरी
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वृत्ति
॥ ८२ ॥
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शीलोप
॥ ८३ ॥
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वर्गा रूप निर्जितदेवांगना घनसौभाग्यस्पृहणीयतमा निरुपमप्रेमा नवजवब इस्नेहा लावण्यरुचिरम्या सौंदर्य कांतिहृद्या नृपडुहिता, प्रस्तावाजिमती, येन नेमिना येन द्वाविंशतितमती - करेण जराजर्जरितस्थविरेव परिहृता, जरा सर्वेजियनैर्वल्यरूपा वयः परिलतिस्तया जर्जर -
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श्रीभूतांगा वृद्धेत्यर्थः, वृद्धा दि नीरसत्वादिनिर्यूनां परिहार्या भवति, तो नीरागहृदयत्वेन येन वृद्धावत्यक्ता, एष जिनो जगति भुवने ब्रह्मव्रतधारिणां मध्ये प्रथमोदाहरणं मूलदृष्टांतरूपः, दृष्टांतो ह्यर्थस्थापको भवति यदुक्तं – तावदेव चलत्यर्थो । मंतुर्विषयमागतः ॥ यावन्नोत्तंज्ञनेनेव । दृष्टां तेनावलंव्यते ॥ १ ॥ इति गाथार्थः, जावार्थस्तु श्रीनेमिचरित्रगम्यः, स नं
यस्य चरित्र नवजव - रूपं नवनवरसामृतं पुष्णन् || निधिनवकमिव नतानां । प्रकटयति स शांतये नेमिः ॥ १ ॥ अस्यैव त्रिजगत्यस्ति । शीलरेखेति लांबने || कंबुरेखा इति चाहु-स्तचरित्रमिहोच्यते ॥ २ ॥ अस्य छोपस्य दीपस्ये- वाऽसंख्यछी पराजिषु ॥ समस्ति भारतं क्षेत्रं । क्षेत्रं सकलसंपदां ॥ ३ ॥ चपलापि कमला यस्मिनचलीनूय तस्थुषी ॥ इ
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वृत्ति
॥ ८३ ॥
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वृत्ति
शोलोपतीव तत्र विख्यात-मास्तेऽचलपुरं वरं ॥ ४ ॥ विक्रमाक्रांतनूचक्र-रतत्र श्रीविक्रमो नृपः॥
यं प्राप्य समरे लक्ष्मी-हरिसौनाग्यमभुते ॥ ५॥ विशुपदा हंसीव । धारिणी तस्य व.. ॥ लना ॥ स्वप्ने निशांते सान्येद्यु-र्माकंदाममैदत ॥ ६ ॥ एतमारोपयिष्यामि । नववाराव
धि द्रुमं ॥ ततोऽस्य फलमुत्कृष्टं । नविष्यत्युत्तरोत्तरं ॥ ७॥ आरोपयाम्यहमेनं । प्रथम तु तवांगणे ॥ इति दिव्यपुमान कश्चि-निशांते तामन्नापत ॥ ७ ॥ प्रातर्जागरिता देवी । स्वनं राज्ञे न्यवेदयत् ॥ तत्पृष्टाः पंडिताः प्रोचुः । पुत्रप्राप्तिमहाफलं ॥ ॥ नवकृत्वो रोपणेस्य । सहकारस्य यत्फलं ॥ शास्त्रेण तन जानीमो । ज्ञानी वेद परं यदि ॥ १० ॥ समं प्रमोदनारेण । गर्न बनेऽश्र धारिणी ॥ असूत समये सूनुं । सत्काव्यं कविगीरिव ॥११॥ निमुक्तबंधनं दीय-मानदानं महीपतिः॥ दशाहं कारयामास । सुतजन्ममहोत्सवं ॥१॥ छादशाह्नि स्ववंश्येषु । वस्त्राद्यैः पूजितेषु च ॥ नृपतिः सुन्नगां तस्य । धन इत्यनियां व्यधा- त् ॥ १३ ॥ वईमानः क्रमेणासौ । कलानिर्वयसावि च ॥ कामिनीमोदनं प्राप । यौवनं र. तिकाननं ॥१४॥
॥४॥
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॥ ८५ ॥
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इतश्च कुंकुमपुरे । राजा सिंहानिधोऽनवत् ॥ तस्यास्ति वल्लना नाम्ना । विमला वि मलाशया || १५ || स्वर्गावतीर्णा गंगेव । जनतापापहारिणी || पुत्री धनवतीत्यस्ति । स्वस्तिमांकिता ॥ १६ ॥ रतिप्रीत्योर्विजयाय । कपोलौ फलकाविव ॥ दधाना संदितापांग- क्षुरप्रा धनवत्यनूत् ॥ १७ ॥ प्रसन्नचंश्वदना । भ्राजिष्णूत्पललोचना || यौवनाब्धिविगादात कुचकुंनेव सा बनौ ॥१॥ अथ गत्वान्यदोद्यानं । जातिसौरभ्यपेशलं ॥ रेमे घनवती स्वरं । श्रीरिवांनोजकानने ॥ १९ ॥ भ्रमरीव भ्रमंती सा । वनेऽशोकतरोस्तले ॥ सचित्रपदृकं कंचि-नरमासीनमैक्षत ||२०|| बुवाला किमिहाऽस्तीति । तस्याः कमलिनी सखी ॥ कौतुकादाचिन इस्ता- सचित्रां चित्रपट्टिकां ॥ २१ ॥ सुरासुरनरेंषु । रूपमीदृगसंजवि ॥ तनूनं स्वेच्छया लेखि । स्वकौशल दिदृक्षया ॥ २२ ॥ श्रहो रूपमहो रूप-मणोरमृतपारणं ॥ न रेखामात्रमप्यत्र । जाने सामान्यवेधसः ॥ २३ ॥ सस्मितं चित्रकृत्माह । श्रुत्वा कमलिनीवचः ॥ न देवो दानवो वायं । किंत्वसौ मानवो धनः || २४ ॥ तस्यापि सहजं रूपं । न शेके लेखितुं मया || अलेख्येतद्यथा दृष्टं । यथा शक्त्या च किंचन ॥ २५ ॥
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॥ ८५ ॥
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॥ ८६ ॥
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पृष्टः कोऽयं धन इति । प्रोचेऽचलपुरेशितुः ॥ श्रीविक्रमाख्यनून - स्तनयोऽयं धनानिधः || २६ || ददर्श रूपसौंदर्ये । तत् श्रुत्वा धनवत्यपि ॥ जाता च तत्कलोदंच-शेमांचां - कुरदंतुरा || २७ ॥ मूतीमित्र तडूपं । दशै दशैं मुहुर्मुहुः ॥ दृष्ट्वा धनवती किंचित्कुद्मलीकृतलोचनां ॥ २८ ॥ साधु चित्रनिधे साधु । सुचित्रं चित्रितं त्वया ॥ इत्युक्त्वा स्पष्टवक्रोक्तिं । कमलिन्यन्यतोऽगमत् ॥ २७ ॥ तलावण्यं धनवती । करोहत्य निपीय सा ॥ वनं विपमिव त्यक्त्वा । सतृष्णा गृहमन्यगात् ॥ ३० ॥ श्रासने शयने याने । जोजने वा दिवानिशि ॥ धनैकमानसा क्वापि । न लेजे निःस्ववहृतिं ॥ ३१ ॥ सान्यदा जाषिता सख्या सखेदं रहसि स्थिता || कृष्णपकेंदुलेखेव । सखि किं कीयसेऽन्वदं ॥ ३२ ॥ सरोषेवाऽवकू सातवी । सखि किं प्राकृतोचितं ॥ मामालपसि यस्मात्त्व - तमप्यस्ति किंचन ।। ३३ ।। सा प्राह सत्यं जानामि । मानिनि त्वां धनायितीं । न हि तद्दिस्मृतं चित्र - दर्शनं मे निधानवत् || ३४ ॥ जानत्या यन्मया प्रोचे । सनम वचनं त्वयि ॥ दंतव्यं यन्न रोपाय । जायते हास्यजपितं ॥ ३५ ॥ तदा प्रनृति किंचाई । त्वां तस्मिन्ननुरागिणीं ॥ ज्ञात्वा दैवज्ञ
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॥ ८६ ॥
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॥ ८१ ॥
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प्राक - मेनम परेद्यवि || ३६ || किमस्या मे वयस्याया । नविताऽनीप्सितः पतिः ॥ तेनाप्येवमिति प्रोवे | सप्रत्ययवचस्विना || ३७ ॥ तस्मात्कातर्यमुत्सृज्य । जज धैर्यमनाविले ॥ तयेत्युदीरिता सौख्यं । किंचिनवती ययौ ||३८|| सान्यदा कृतशृंगारा | जनकं वंदितुं ॥ वरचितांबुध राजा । ममज्जाथ तदीक्षणात् ॥ ३५ ॥ फलितान्येव दृश्यंते । चिंतितानि महात्मनां ॥ तदैवेतीव वै दूतः । समेतो विक्रमांतिकात् ॥ ४० ॥
राजकार्यमग्राख्याय । तस्मिंस्तूष्णीमुपेयुषि ॥ तत्र दूत किमाश्वर्य - मेवं पृष्टोऽभ्यधादिति ॥ ४१ ॥ देव श्रीविक्रमधन - नूनृनाधिकौस्तुभं ॥ रत्नं त्रिभुवनाऽनर्घ्यं । धनं जानीहि केवलं || ४२ ॥ सृजतो वेधसश्वापि । धनं धनवतीं तथा ॥ तथा कार्यं यथा नाथ | प्रयासः स्यात्फलेग्रदिः ॥ ४३ ॥ साधु दूत त्वया प्रोक्तं । नूनमालोच्य मे मनः ॥ पुनस्तम्यतां तत्र | चरितार्थमिदं कुरु || ४४ ॥ अथाद दूतवृत्तांतं । धनवत्याः पुरः सखी || अश्रद्दधाना सा सख्या । वराप्तेः सूचकं वचः ॥ ४५ ॥ श्रनाययदश्रो दूतं । सखीं प्रेष्य निजांतिके ॥ विशिशंकिते कार्ये । सौद्यमा दि विवेकिनः ॥ ४६ ॥ युग्मं ॥ श्रुत्वा दूतमुखात्सर्वं । सुमुखी
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वृत्ति
॥ ८७ ॥
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शोलोप
वृत्ति
॥
मुमुदेतमां ॥ कौंकुमेन रसनाथ । लिखित्वा लेखमार्पयत् ॥ ७ ॥प्रापयेथा धनस्यामु-मि- त्युक्त्वा विससर्ज तं । गतोऽचलपुरे शीघ्रं । दूतः सानंदमानसः ॥ ७ ॥ राजानमुपतस्थेऽथ । सन्नास्थं धाःस्थसूचितः ।। सिंहः सविस्मयोऽप्राहीत् । कुशलं विक्रमस्य च ॥ ४ ॥ देवास्ति कुशलं तत्र । प्रेषितः किंतु सोत्सुकः ॥ दातुं युष्मत्कुमाराय । सुतां धनवतीमहे ।। ॥ ५० ॥ वरो धनवतीरूपा-नुरूपो धन एव तत् ॥ युवयोर्वईतां स्नेहो-ऽपत्यसंयोजनादपि
। तथेति प्रतिपद्याऽसौ । विसृष्टो धनमभ्यगात् ॥ तस्मै धनवतीलेखं । मूर्ने स्नेहमिवाऽयत् ॥५१॥ कुमारः स्वयमुन्मुद्य । वाचयांचक्रवानश्र ॥ तदैवाऽवसरं प्राप्य । निजघ्ने स्म- रसायकैः ॥ ५३ ॥ नवता निर्जितोऽनंगः । स्पाईयेव निहंति मां ॥ तस्मान्मा मामुपेदेथा।
नाथ नाथे न चापरं ॥ ५४॥ तस्या वैदग्ध्यतस्तुष्टः । सह हारेण हारिणा ॥ कुमारोऽपि सशृंगारं । प्रतिलेखं तदा ददौ ॥ ५५ ॥ वस्त्राद्यावर्जितो दूतः । प्रेषितस्तत्पुरं ययौ ॥ निवेद्य सिहं कार्य च । नृपं सिंहमतोषयत् ॥ ५६ ॥ अथ तस्याः कुमारस्य । सहारं लेखमार्पयत् ॥ रहस्युहृत्य रोमांचो-कुंचितांगमवाचयत् ॥ ५७ ॥ हृद्यादधानं त्वामेष । बाधते मामपि
॥
॥
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शीलोप
वृत्ति
॥ ए
स्फुटं ॥ तस्मात्करगृहं कृत्वा । साधनीयो ह्यसौ रिपुः ॥ ५० ॥ मत्वा तमिति कंदर्प-राजा- ज्ञाऽनुविवर्तिनं ॥ गुणावलीमिवैतस्य । हारं कंठेऽध्यरोपयत् ॥ ५॥ ॥ अथ सिंहनृपः प्रैषीत्पु ण्यादे तां स्वयंवरां ॥ परिणीय धनस्तां चा-ऽनैषीजन्म कृतार्थतां ॥ ६० ॥ अन्यदोद्यानमासीनं । शानिनं श्रीवसुंधरं ॥ विज्ञाय सपरिवारो । विक्रमो वंदितुं ययौ ॥ ३१ ॥ पृष्टश्च सहकारस्य । नवकृत्वोऽधिरोपणं ॥ शशंस चरितं साधु-नेमेनवनवात्मकं ॥ ६ ॥ स्थैर्य जिनमते प्राप्य । सर्वेऽपि स्वगृहं ययुः॥ जग्मतुः क्रीमयाऽन्येद्यु-वनं धनवतीधनौ ॥६३ ॥ त. त्र दृष्ट्वा मुनि कंचि-न्मूठया उनचेतनं ॥ सपर्ययाऽकेरात्सुस्त्रं । धन्यंमन्यस्ततो धनः ॥६॥ शुश्राव देशनां तस्य । परं वैराग्यमासदत् ।। प्रत्यलानयतां साधुं । गृहे नीत्वा च पायसं ॥ ॥ ६५ ॥ मासकल्पं स्थापयित्वा । जातौ धर्मदृढाशयौ ॥ पित्राऽवस्थापितो राज्ये । धनः पृथ्वीमपालयत् ॥ ६६ ॥ धनदत्तधनदेव-त्रातृन्यामन्वितो धनः॥ जग्राह सुगुरोः पार्थे । धनवत्या सह व्रतं ॥ ६७ ॥ कमात्सूरिपदं प्राप्य । नव्यलोकानबूबुधत् ॥ ब्रातृन्यां धनवत्या स। सदाऽनशनमग्रहीत् ॥ ६ ॥ मासांते परिपूर्यायुः । सौधर्मे स्नेहबंधुरौ ॥ धनो धनवती चा
॥ नए
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वृत्ति
शोलोप स्तां । शकसामानिको सुरौ ॥ ६ ॥
इतश्च वैताब्यगिरे-रुत्तरश्रेणिमंझनं ॥ सूरतेजःपुंजमिव । सूरतेजान्निधं पुरं ॥ ७० ॥ ॥ए ॥ यथार्थनामा तत्रास्ति । सूरः खचरकुंजरः ॥ तस्य विद्युन्मतीत्यस्ति । नार्या लक्ष्मीई रेरिव
॥ १ ॥ धनजीवस्ततश्युत्वा । तस्याः कुकाववातरत् ॥ कलाकलापपारीणो । नाम्ना चित्रगतिबन्नौ ॥ ७२ ॥ अत्रैव दक्षिणश्रेणि-मंडने शिवमंदिरे ॥ अनंगसिंहो राजास्ति । राजोज्ज्वलयशोव्रजः ॥ ३ ॥ शशिप्रन्नायां तत्पत्न्यां । व्युतः सौधर्मनाकतः ॥ जझे धनवतीजीवो । नाना रत्नवती सुता ॥ ७ ॥ संजाता नूरिरत्नोज़ । लक्ष्मीरिव महोदधेः॥ पित्रोरतिप्रिया सासी-जाता बहुसुतोपरि ॥ ५ ॥ लक्ष्म्या इव हरिः कोऽस्या । नविष्यति वरो वरः ॥ विमृश्येति नृपोऽप्रादी-दैवझं सोऽप्यदोऽवदत् ॥ ७६ ॥ युधि यः करवालं ते । ह.
स्तादुद्दालयिष्यति ॥ नंदीश्वरे च यवीः । पुष्पवृष्टिः पतिष्यति ॥ ७७ ॥ विशुशेन्नयपदस्य मा। त्वत्सुता तस्य मानसे । खेलिष्यति मरालीव । सलील सुविविक्तधीः ॥ ७० ॥ इति रत्नव.
तीपुत्री-वरज्ञानोपयोगधीः ॥ श्रुत्वा विद्याधरो ज्योतिर्विदं दानैरतोषयत् ॥ ७ए ॥ इतश्च
॥७॥
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वृत्ति
झीलोपनरतक्षेत्रे । पुरे चक्रपुरानिधे ॥ राजा सुग्रीवनामाऽनू-ग्रैवेयकमिव श्रियः ॥ ७० ॥ प.
ल्यौ यशस्वतीनथे । इत्यास्तां क्रमेण ते ॥ सुमित्रपद्मनामानौ । तयोरास्तां सुतोत्तमौ ॥ ॥॥ ॥१॥ तयोर्मध्ये गुणश्रेष्टो । ज्येष्टः श्रीजिनधर्मवित् ॥हितीयो विपरीतात्मा । पापी क्रू
मरश्च सर्पवत् ॥ २॥ अस्मिन् सति कयं नावी। मम राज्यधरः सुतः॥ इति ध्यात्वा सु. मित्राय । न तस्मै विषं ददौ ॥ ३ ॥
सुमित्रे व्यसनं प्राप्ते । कथं पद्मो विकस्वरः ॥ इति नाडालोचयत्क्रूरा । कुतः स्त्रीणां वि. चारधीः ॥ ४ ॥ मूतं तं विषार्मितिः । श्रुत्वा मर्मणि चाहतः ॥ संत्रांतो मंत्रितिः साई राजा तत्र गतो रयात् ॥ ५ ॥ प्रयुक्तैमंत्रतंत्राद्यै-रनेकैरपि मंत्रिन्तिः॥ न शांतो गरलावे. गो । दुर्जनस्येव उष्टधीः ॥ ६ ॥ एषा ददौ विषमिति । लोकोक्तिं च निशम्य सा | पला. ल ग्य प्रगता कापि । नश उष्टेव सर्पिणी ॥ ७ ॥ तस्याऽमुष्मिकपायेयं । राजा धर्ममचीक- भरत् ॥ स्मारं स्मारं गुणान् सूनो-मुक्तकंठं रुरोद च ॥णानदानी कौतुकाकांक्षी । ब्रमंश्चित्रग
तिवि ॥ सुमित्रग्लानितश्चक्र-पुरं खितमैक्षत ॥ ए ॥ विमानादवतीर्याय । तं ज्ञात्वा
॥१॥
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शोलोप विषमूतिं ॥ मंत्रपूतांबुनाछोट्य । सचैतन्यममुं व्यधात् ॥ ॥ स्वस्थचेताः समुत्राय । सु- वृत्ति
मित्रो मतिमहरः ॥ किमेतदिति पप्रछ | मंत्रस्याहो महाबलं ॥ १ ॥ नक्तेऽथ सकलोदंते ॥ए । सुमित्र नदयोन्मुखः ॥ सर्वाशा दीपयश्चित्रं । पद्मं मुकुलित व्यधात् ॥ ए३ ॥
म तत नबाय सोत्कंठं । प्राणदानोपकारिणं ॥ नत्वा चित्रगति तस्य । पप्रच च कुलादि. और कं ॥ ए३ ॥ वयस्यः खेचरस्याथ । मंत्रिपुत्रसमीपगः ॥ नवाच वंशनामादि । सर्वं हर्षप्र.
कर्षकृत् ॥ ए॥ विषदाऽप्युपकर्ती मे । विमाता संगमात्तव ॥ मृत्तिकां खनतः कुन-कारस्येव निधीक्षणं ।। ए५ ॥ स्तुत्वा सुमित्रो बंदीव । पितृभ्यां सह साग्रहं ॥ स्वसमृद्ध्यनुसारेण । खेचरेशमुपाचरत् ॥ ए६ ॥ आपृब्यमानं तमथ । स्वगृहे गमनोत्सुकं॥ सुमित्रोऽन्यश्रयामास । केवख्यागमनावधि ॥ ए ॥ कियनिळसरैरागा-त्पूर्वज्ञातश्च केवली ॥ ययौ चिगति तुं । सुमित्रादिसमन्वितः ॥ ए७ ॥ ततश्च सुग्रीवादीनां । पुरो गत्वा निषेदुषां ॥
दिए देश देशनां क्लेश-नाशिनी ज्ञानिनायकः ॥ एए ॥ मोक्षानिलाषिजीवानां । धर्मोऽयं प्रतिनूयते ॥ निग्रहिततमाः कार्य-स्ततश्चैष मनीषिन्तिः ॥ १०० ॥ एता नूपत्वचक्रित्व-देवत्वा.
॥
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दिसमृयः ॥ स्वाराधितस्याऽमुष्यैव । धर्मस्य परमाणवः ॥ १ ॥ धर्मश्व द्विविधः सिद्ध्यै । यतिश्रावकदतः ॥ तत्रैकः सरलः पंथा । किंचिह्नको द्वितीयकः ॥ २ ॥ ततश्चित्रगतिः प्राद | संसारे वंचितोऽस्मि दा ॥ नैकधापि मयाऽाचीर्णो । यधर्मः स्ववशोऽप्ययं ॥ ३ ॥ इति सम्यक्त्वकल्पद्धुं । व्रतशाखाऽनिवेष्टितं ॥ निरतीचारता पुष्पै - रलंकृतमशिश्रयत् ॥ ४ ॥ सुग्रीवोऽय नमद्ग्रीवो । मुनिं विज्ञप्तवानिति ॥ सुमित्राय विषं दत्वा । जज्ञ कुत्र गता तु सा ॥ ५ ॥ स चाऽवोचदितो नष्टा । गच्छंती तस्करैः पथि || आविद्य वस्त्रालंकारा - नीता पवीपतेः पुरः || ६ || तेनापि वणिजां दस्ते । विक्रीताथ पलायिता ॥ तेभ्योऽपि दग्धा दावाग्नौ । प्रथमं नरकं ययौ ॥ ७ ॥
तत नृत्य तिर्यक्त्वे | जवानंतं भ्रमिष्यति ॥ राजाद यत्कृते पापं । चीर्णं पद्मः स विद्यते ॥ ८ ॥ स्वयं तु नरकं प्राप । विचित्रा कर्मणां गतिः ॥ अहो असारसंसारे । मुधा मुह्येति जंतवः ॥ ए ॥ युग्मं ॥ संवेगविहितोत्सादः । सुमित्रोऽप्यवदत्तदा || तात मामनुमन्यस्व । येन चारित्रमाझिये ॥ १० ॥ नद्विमोऽदं नवादस्मात् । स्मशानादिव दारुणात् ॥ शा
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॥ ए३॥
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किन्य इव निघ्नंति । यत्र पुत्रानपि स्त्रियः ॥ ११ ॥ सुग्रीवः संयमारामे । सुग्रीवोऽपि निषिध्य तं ॥ निवेश्य च निजे राज्ये । स्वयं चारित्रमग्रहीत् ॥ १२ ॥ सुमित्रमंतर्नगरं । पावेश्यानिवं नृपं ॥ मित्रमापृष्ठ्य तं चित्र - गतिर्निजपुरं ययौ ।। १३ ।। सुमित्रो नूपतिर्ग्रामान्नू । पद्मस्य कतिचिद्ददौ ॥ स पुनस्तैरसंतुष्टः । स्वैरं बभ्राम नूतले ॥ १४ ॥
इतश्वानंगसिंहस्य | सुतः कमलखेचरः ॥ सुमित्रनगिनीं जहे । कलिंग नृपवल्लनां ॥ ॥ १५ ॥ सुमित्रमैत्र्यमादृत्य । तत्र चित्रगतिः स्वयं ॥ गत्वा संग्राममारेने । कमलेन समं बी || १६ || गादनंगसिंहश्च । सुतसाहाय्यकाम्यया । तं च चित्रगतिश्चक्रे । रणे निःशेषतायुधः ॥ १७ ॥ अथ सस्मार मारक-सारं रत्नवतीपिता ॥ करवाल महारतं । चिरत्नं देवतार्पितं ॥ १८ ॥ शशंसाशु शिशो रेरे । नश्यतां निशितासिना । एष तेऽदं लविष्यामि | मौलिं कमलनालवत् ॥ १७ ॥ सोऽपि सस्मितमादस्म । वृद्ध किं न श्रुतं त्वया ॥ कातरस्य करे शस्त्रं | वीराणामेव मंमनं || २० || चित्रकायवत्प्लुत्य । ततश्चित्रगतितं ॥ निस्त्रिंशमादित्या - मित्रस्य च सदोदरीं ॥ २१ ॥ गत्वा चक्रपुरे तस्या - ऽर्पयत्सोऽपि विरक्त
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॥ ए४ ॥
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॥ए
धीः ॥ राज्ये न्यस्य सुतं दीक्षा-मादत्त मतिमहरः ॥ २२ ॥ अथो सुमित्रराजर्षि-स्तप्यमा- वृत्ति * नो महातपः ।। मगधेषु गतः कायोत्सर्गे बहिरवस्थितः ॥ २३॥
वैमात्रेयः स पद्मोऽप । दृष्ट्वा तं प्रतिमास्थितं ॥रोषावेशात्मजज्वाल । घृताहुत्येव पा. वकः ॥ २५ ॥ क्रूरात्मा शत्रुमानी स । यियासुर्जननीगति ॥ तूणीराहाणमाकृष्य । विव्याध व्याधवन्मुनि ॥ २५ ॥ महात्मापि शुन्नध्याना-राधनादिसमाधिना ॥ आयुः समाप्य दे. वोऽनू-ब्रह्मलोके महाईिकः ।। २६ ।। ततश्चित्रगतिर्मित्रं । सुमित्रस्य परासुतां । ज्ञात्वाऽशोचीदो नंदी-श्वरे यात्रामसूत्रयत् ॥ २७ ॥ रत्नवत्या समं पुत्र्या-ऽनंगसिंहस्तथा परे । खेचरास्तीर्थयात्रायै । मिमिलुस्तत्र दर्षतः ॥ ॥ तत्र चित्रगतिव्य-पूजां श्रीशाश्वताईतां
॥ विधाय विविधैः स्तोत्रै-स्तुष्टुवे तुष्टमानसः ॥ २॥ स्वामिन्ननंतसंसार-जमश्रांतस्य दे- हिनः ॥ आनंदाय त्वमेवैको । मराविव महासरः ॥ ३० ॥ मूढः संसारमनोऽपि । यदापं द- ॥५॥
र्शनं तव ॥ प्राप्स्यामि तेन निःशंकं । समृहीरुत्तरोत्तराः ॥ ३१ ॥ अत्र चित्रगतिं स्मृत्वा । दिव्याईर्मूलमादरात् ॥ श्रीसुमित्रसुरः पुष्प-वृष्टिं तन्मस्तकेऽकरोत् ॥ ३ ॥ खेचरोऽनंगसिं-*
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शोलोप
वृत्ति
॥
होऽय । पुष्पवृष्टिविलोकनात् ॥ ज्ञात्वा खजहरं चामुं । निश्चिकायात्मजावरं ॥ ३३ ॥ पर- स्परं प्रशंसंतौ । सुरचित्रगती तदा ॥ विलोक्य खेचरैर्नेमे-विगर्वैः सूरसंन्नवः ।। ३ ।। तदा रत्नवतीदृष्टिावण्यामृतसागरे ।। तथा चित्रगतौ मना । यथा स्थानान्न चाऽचलत् ॥ ३५॥ तथा सरागां तां वीक्ष्य । स्मृत्वा च गणकोदितं ।। तमर्थ ज्ञापयामास । सूरं रत्नवतीपिता ॥ ॥३६॥ कारयामासतुर्मोदा-हिवाहं तौ तयोरथ ॥ ननु को वाऽननिज्ञोऽपि । रत्नं स्वर्णे न योजयेत् ॥ ३७॥ धर्मकामावसावर्ष-पुष्टौ सह तयााचरत् ॥ चतुर्थ पुरुषार्थ च । साधयि. व्यति स क्रमात् ॥३०॥ धनदत्तधनदेव-सुरौ तु स्वर्गतश्च्युतौ ॥ मनोगतिचपलग-त्याख्यौ जातावधानुजौ ॥ ३५ ॥ स तान्यां रत्नवत्या च । युतश्चित्रगतिर्नृपः ॥ सुतं पुरंदरं राज्ये । | निवेश्य व्रतमाददे ॥ ४० ॥ तप्यमानस्तपो बाढं । नव्यान धर्म प्रवर्त्य च ॥ पादपोपगमे. नायु-भुक्त्वा चित्रगतिर्मुनिः ॥४१॥ सुरोत्तमोऽलवत्तुर्ये । कल्पे माहेश्नामनि ॥ तत्रैव दे वतां प्रापु-ौधवौ रत्नवत्यपि ॥४॥ युग्मं ॥ हर्षवर्षसुखितायुषि कल्पे-ऽनल्पसंपदि नि. नाय स तुर्ये ॥ सप्तसागरमितं निजमायुः । सातिरेकमतिशायिसुखश्रीः॥४३॥
॥ए।
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॥ इति श्रीशीलोपदेशमालावृत्तौ श्रीनेमिचरित्रे जवचतुष्टयवर्णनो नाम प्रथमः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥
इतश्व - विदेहे पश्चिमे भूमी - नामिनीनालपुंडूके || विजयः पद्मनामास्ति । तत्र सिंहपुरं पुरं ॥ ४३ ॥ हरिनंदी नृपस्तत्र । शात्रवाऽनलवारिदः ॥ यत्कीर्तेः शकलाकार - श्रंशे ज्ञाति ननोंगणे || ४५ || तत्प्रिया व्यूढकंदर्प - शासना प्रियदर्शना ॥ यङ्गुणैश्वं शिकागौर-राश्व रंजितं जगत् ॥ ४६ ॥ ततश्चित्रगतेर्जीव - च्युत्वा माइकल्पतः || अपराजितनामाऽनूतयोः पुत्रः पवित्रधीः ॥ ४७ ॥ सुहृद्दि मलबोधाख्या - स्तस्य मंत्रिसुतोऽभवत् ॥ नेत्रयोरिव तुल्यासी - सुखदुःखदशा तयोः ॥ ४८ ॥ अन्यदा विधानौ तौ । विपिने वाहखेलनं ॥ नौ दूरमयानीं । दुष्टाश्वाच्यां कलैकतः ॥ ४९ ॥ श्रवतीर्य च कुर्वाते । यावत्तौ लवधनौ || तावन्निपेतस्तूर्ण । कृतघ्नाविव वाजिनौ ॥ ५० ॥ मार्गश्रांतौ तृषाक्रांतौ । राजा मंत्रिनवौ || न्यायधर्माविव कलौ । दणं जातौ गतश्रियौ ॥ ५१ ॥ सरो मित्र मित्र प्राप्य । पीत्वाऽमृतमिवाऽमृतं ॥ स्वस्थ चित्तावभूतां तावब्धिपारगताविव ॥ ५२ ॥
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राजसूनुरुवाचेयं । मित्र देशांतरस्पृहा ॥ आवयोः फलिता किं तु । पित्रोरननुमोदनात् ॥ ५३ ॥ ताभ्यामपि सोढव्यो । विप्रयोगो यथा तथा । तस्मादाश्चर्यसंपूर्ण । चमावो वसुधातलं ॥ ५४ ॥ इत्यनेकचमत्कार - निरीक्षणपरायणौ । विजहाते भुवं स्वैरं । सोन्मादौ दंतिनाविव ॥ ५५ ॥ एकत्र त्रासितं राज - पुत्रैः शरणमागतं || रक्षित्वा तस्करं राज्ञ-श्वमूचक्रं विजित्य च ॥ ५६ ॥ श्रीकोशलनरेंऽस्य । रूपेण सुरसुंदरीं ॥ सुतां कमलमालाख्यां । पनरेशः ॥ ५७ ॥ युग्मं ॥ अन्यदा रत्नमालाह्वां । खेचरेश्वरनंदिनीं ॥ खेचरेणानुरागेल । हृतां ज्ञात्वा प्रलापतः ॥ ५८ ॥ रुदतीं तमनिवंतीं । तां कन्यामुदमोचयत् ॥ श्रसौ नानायुधैर्युध्ध्वा । खेचरात्सूर्यकांततः ॥ एए ॥ श्रनिते कुमाराय । सोऽपि तद्वैतोषवान् ॥ प्रदत्त व्रणरोहिणीं । महय मणिमूलिकां ॥ ६० ॥ ददौ च तद्वयस्यस्य | रूपांतर विधायिनीं ॥ गुटिकां गौरवं कर्त्तुं । यतो जानंति तादृशाः ॥ ६१ ॥ रत्नमालानिधा सा च । तस्याः पितोरनुज्ञया ॥ ज्ञात्वाऽनुरागिणीं राज- सूनुना पर्यणीयत ॥ ६२ ॥ पुनरन्यत्र भुवन - जानु विद्याधरेश्वरः ॥ दैवज्ञवाक्यतोऽनेन । स्वकन्ये पर्यणाययत् ॥ ६३ ॥ घातकेनाऽाहतस्याथ ।
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वृत्ति
॥ ए८ ॥
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शीलोप
॥ ए॥
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सुप्रनाख्यस्य नूपतेः ॥ व्रणसंरोहणं कृत्वा । मूलिकायाः प्रज्ञावतः ॥ ६४ ॥ अनन्यरूपरूपश्री - त्रासित त्रिदशांगनां ॥ दरिनंदसुतः कन्या - मुपायंस्त प्रशस्तधीः ॥ ६५ ॥ युग्मं ॥ तत्रैव विचरंतौ तौ । प्राप्तौ कुंरुपुरेऽन्यदा || नेमतुः पंकजासीनं । केवलज्ञानिनं मुनिं ॥ ६६ ॥ श्रुत्वा तद्देशनां श्रोत्र - पात्राऽमृततरंगिणीं ॥ श्रावां जव्यावुताऽनव्या - विति पप्रतुश्व तं ॥ ६७ ॥ व्यौ युवामथान्यत्त्वं । शृण्वितः पंचमे नवे ॥ द्वाविंशस्तीर्थ पो नेमिनामा जावी जवानिह ॥ ६८ ॥ गणनृत्प्रथमो जावी । मंत्रिसूनुरयं पुनः ॥ श्रुत्वेतिहृष्ट तीर्थानि । वंदमानौ विचेरतुः || ६५ ॥ इतो जनानंदिपुरे । जितशत्रुर्मदीपतिः ॥ धारिणीति प्रिया तस्य । शीलालंकारधारिणी ॥ ७० ॥ च्युत्वा रत्नवतीजीवः । श्रीमन्माइकल्पतः ॥ तस्याः कुक्किावथोत्पेदे । जात्यं रत्नमिवाकरे || ७१ ॥ युग्मं ॥ समयेऽसूत सा पुत्रीं । सुधामिव शशिप्रा ॥ नाना प्रीतिमती कन्या । प्रावर्द्धत गुणैः सह ॥ ७२ ॥ सरस्वत्यां चिरावास-क्लेशो हिना इवाऽखिलाः ॥ तामेवाऽशिश्रियुर्विद्या । द्वितीयाधारलिप्सया ॥ ७३ ॥ क्रमेयौवनं प्राप्ता । प्रतिज्ञामकरोदियं ॥ जीयेऽहं विद्यया येन । वरिष्यामि तमेव हि ||१४||
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वृत्ति
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शीलोप
वृत्ति
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पिता प्रतिज्ञां विज्ञाया । विज्ञायाथातिस्तरां ॥ चक्रे स्वयंवरारंन्नं । दुहितुर्वरहेतवे ॥ ५ यासु यासु कलासूर-दवा प्रीतिमती श्रुता ॥ तासामन्यसने प्रीति-मती जाता नृपावलिः ॥७६ ॥ जितशत्रुनृपाइता-स्तत्र नूचरखेचराः ॥ सर्वेऽप्येयुः सुताा तु । हरिनंदिनृपं विना ॥ ७ ॥ कैश्चित्कौतुकतः कैश्चि-जाग्यसौन्नाग्यगर्वितैः ॥ तत्राणायातैनरैः शेषा । शून्येव वसुधाऽजनि ॥ ७ ॥ । अागान्मित्रयुक् तत् । कुमारोऽप्यपराजितः ॥ कलाकौशलमीमांसा-सुधापानपिपासया ॥ ए || मा कश्चिद् दृष्टपूर्वी नौ । ज्ञासीदित्यन्यरूपिणी ॥ गुटिकां वदने दिप्त्वा । सद्यो नूतावुनावपि ॥ 60 पुरस्सरप्रतीहारी-गीयमानगुणालिषु ॥ तत्रोच्चमंचासीनेषु । खच. रेषु नरेषु च ॥ १ ॥ वरमालायुता सख्या-न्विता चामरहारिणी ॥ स्वर्गावतीर्णा देवीवा -याता प्रीतिमती तदा ॥ २ ॥ वीक्षमाणाः कुमारी तां । तथा कामेन मोहिताः ॥
जन्नाजो यथा सर्वे । कीलितादा श्वाऽनवन ३ ॥ अमी शतश आसीना । विद्याधरनरेश्वराः ॥ नारतीव परीक्ष्यैषु । वृणीष्व प्रवरं वरं ॥ ४ ॥ इति वेत्रवतीप्रोक्ता । कन्या प्रो.
॥१०॥
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शीलोपतिमती तदा ॥ पाच वादिनीनूय । तेषु प्रश्रोतरावली ॥ ५ ॥ स्त्रीजातिपक्षपातेन । सर-
स्वत्येव कीलिताः ॥ न शेकुरुत्तरं दातुं । सापराधा श्वाय ते ॥ ६ ॥ अनुरूपो वरोऽमुष्या ॥११॥ । नूनं विस्मृत्य वेधसा॥ वर्षीयत्वान्न सृष्टोऽस्ती-त्यनुदध्यौ कनीपिता ॥ ७ ॥ अत्र धात्रीधर
वाः सर्वे । मेलिताः परितो मया ॥ सुताया नोचितः कोऽपि । हा नावि किमतःपरं ॥ र मा विषीद महाराज । बहुरत्ना वसुंधरा ॥ अधिकोऽपि गुणै वी । प्रतीकस्व ततोऽधुना ।।
ए । इत्युक्ते मंत्रिणा राजा । यः कोऽप्यत्र जयेदिमां ॥ स एवास्या वरो नावी । पट. महेनेत्यघोषयत् ॥ ए ॥ तत् श्रुत्वा चिंतयामास । हरिनंदितनूनवः । न युज्यते स्त्रिया सा
। वादं कर्तुं महीयतां ॥ ए ॥ नक्तं च
बालसखित्वमकारणहास्यं । गहनयानमसंस्कृतवाणी ॥ स्त्रीषु वाद श्मा खलसेवा । षट्सु नरो लघुतामुपयाति ॥ १ ॥ जितायामपि नोत्कर्षः। स्त्रियामित्यपराजितः ॥पस्प- र्श मणिना शाल-नंजिकां दिव्यशक्तिना ॥ ए ॥ ततः पांचालिकाऽवादी-मानं प्रीतिमति त्यज ॥ गृहाण प्रति वादं मे । नृपा नृपशवो हमी ॥ ए३ ॥ वादारूढा न जीयेऽहं । सू र
॥१०॥
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शोलोपरिणापि दिवौकसां ॥ गुरो राजसुतस्यास्य । हस्तन्यासप्रसादतः ॥ ए४ ॥ ब्राह्मीपुत्र्येव पां-
- चाल्या । प्रोक्ता प्रोणितमानसा ॥ वादं कर्तुं समागत्य । तामपृचन्नृपांगजा ।। ए॥ को गु॥१०॥ रुयों हि तत्वज्ञः । को धर्मः प्राणिनां दया ॥ किं विधेयं नवोदः । किं सत्यं प्राणिनां हि.
तं ॥ १६ ॥ अथ पप्रन पांचाली । प्रिया का ब्रह्मचारिणां ॥ मैत्रीति मणिमाहात्म्या-दुत्तरं नाऽबुधत्कनी ॥ ए७ ।। विनिर्जिता प्रीति-मती पुत्नलिकां जगौ ॥ त्वत्कंठे किं क्षिपाम्येनां । मालामेषा ततोऽवदत् ॥ ७॥ निधेहि मरोरस्य । कंपीठे वरजं ॥ प्रतिज्ञा येम 5:पूरा । पर्यपूरि तव कणात् ॥ एए ॥ सापि पूर्वनवप्रेम-रोमांचो छूतकंचुका ॥ कंपीठे कुमारस्या-ऽम्लानां मालामरोपयत् ॥ २० ॥ अथ चुक्षुनिरे । नूपा निस्त्रपा मालपन् ॥ कोऽयं कापटिकोऽस्मासु । सस्विमा परिणेष्यति ॥१॥
इति प्रचंपारंन्नाः । कोपकंपितनूतलाः ॥ सर्पा श्व गरुत्मतं । तं योऽमुपतस्थिरे ॥ ॥॥ एकेनापि कुमारणा-ऽनेकतामिव जग्मुषा ॥ निरस्ताः परितः सर्वे । समीरेण तुषा श्व ॥ ३ ॥ स्त्रिया जिताः पुरा शास्त्रैः । शस्त्रैरेकेन चाधुना ॥ ध्यात्वा पुनरयुद्ध्यंत । संन्नू
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वृत्ति
झीलोप येति महीधवाः ॥ ४ ॥ कुमारः पातयामास । निःपकीकृत्य वेगतः ॥ नत्प्लुत्योत्प्लुत्य व
3 जीव । नूनृतोऽपि गरीयसः॥५॥ सोमप्रनानिधानोऽथ । मातुलस्तुमुलेऽपि तं ॥ अनन॥१०३॥ मिवादित्यमुपलक्ष्यतिस्म सः॥६॥ वारितास्तेन नूपाला । विरेम रणतः कणात् ॥ स्वयं
त्वालिंग्य सर्वांगं । कुमारमिदमूचिवान् ॥ ७ ॥ चिरदृष्टोऽसि जामेय । कथं ब्रमसि मुंगव. रत् ॥ त्वत्स्वरूपोपलंन्नाय । पितरौ ताम्यतस्तव ॥ ॥ते जन्ययात्रिकीनूय । जितशतुतनू
जया || विवाहं कारयामासुः । कुमारस्य महोत्सवात् ॥ए । जितशतुरथ स्वीय-मंत्रि. णः सुमतेः सुतां ॥ प्रीत्या विमलबोधाख्य-तन्मित्रेणोदवाहयत् ॥ १० ॥जतुः सहज रूपं । तौ जातोहाहमंगलौ ॥ स्वं स्वं स्थानमलंचक्रुः । सत्कृता नूनृतोऽथ ते ॥११॥ त.
तोऽवगत्य तत्रस्थ-माह्वातुमपराजितं । कीर्तिराजो महामंत्री । प्रेषितो हरिनंदिना ॥१॥ । अथाानाय्य प्रियाः सर्वाः । खेचरीनूचरीश्च ताः॥ आपृच्च श्वसुरं प्रीति-मतीयुक्त- स्ततोऽचलत् ॥ १३ ॥ दानेन प्रीणयन् पृथ्वीं । स समृद्ध्या महेंश्वत् ।। अल्पैरेव दिनैः प्राप पुरं सिंहपुरानिधं ॥१४॥ कुमारोऽलुग्दुत्कंग-निरं पादयोः पितुः ॥ जनन्यै ताश्च व
॥१०॥
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शीलोप
॥ १०४ ॥
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ध्ध्वश्व | नर्मतिस्म प्रमोदतः ॥ १५ ॥ तौ मनोगतिचपल - गतिजीवौ दिवश्च्युतौ ॥ जज्ञाते सूरसोमाख्या-वनुजौ तं प्रणेमतुः ॥ १६ ॥ दरिनंदी नृपोऽन्येद्युः । पुत्रं राज्ये न्यवीविशत् ॥ स्वयं तु व्रतमादाय । जगाम पदमव्ययं ॥ १७ ॥ मंत्री विमलबोधाख्यो । देवी प्रीतिमती च सा ॥ बांधवौ मंडलाधीशा - वपराजित नूनृतः ॥ १८ ॥ राजाऽपराजितः पुत्रं । पद्मं राज्ये न्यवेशयत् ॥ बंधुत्र्यां मंत्रिणा वध्वा । सार्द्धं च व्रतमग्रहीत् ॥ १५ ॥ प्रपाब्याऽनशनं प्रांते । परिपूर्णायुषश्च ते । संजाता प्रारणे कल्पे । शक्रसामानिकाः सुराः ॥ २० ॥ इतश्च प्रथमे पे-नूपे सौख्यलताश्रियां ॥ श्रीहास्तिनं पुरं पारा- वारो रत्नमदर्दिनिः ॥ २१ ॥ तत्र श्रीषेणराजास्ति । हास्तिकस्पर्द्धितोमरः ॥ महिषी श्रीमतीनाम्नी । तस्य दंतगामिनी ॥ २२ ॥ पराजितजीवोऽथ । शंखस्वप्नेन सूचितः ॥ तस्याः कुक्षिमवातारी - पांचजन्य इवांबुधौ || २३ || प्रसूतः समये पित्रा । भाषितः शंख इत्यसौ ॥ कलाकलाप संपूर्णः । संजयौवनोन्मुखः ॥ २४ ॥
जीवो विमलबोधस्य । सुबुद्धेमैत्रिणः सुतः ॥ मतिप्रन इति ख्यातो । मैत्र्यं चाऽनेन
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वृत्ति
(१०४)
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शीलोप
॥२०५॥
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पूर्ववत् ॥ २५ ॥ सीमादेशजनोऽन्येद्युः । श्रीश्रीषेणं व्यजिज्ञपत् || गिरौ विशाल शृंगेऽस्ति । श्री शिशिरा नदी ॥ २६ ॥ पलीशः समरकेतु-स्तत्र दुर्गबली बली ॥ युष्मद्देशस्य लक्ष्मींस । विलुंटति सुदुर्ग्रहः ॥ २७ ॥ श्रुत्वेत्यश्रव्यमव्याज - प्रतापतपनोपमः ॥ तत्रिग्रहचिकी राजा | यात्राढक्कामवीवदत् ॥ २८ ॥ कुमारो विक्रमल्लास - केसरी नृपमब्रवीत् ॥ लीशमात्रे कस्तात । संरंजः क्रियते स्वयं ॥ २७ ॥ तुष्टेन राज्ञादिष्टोऽथ । सैन्याच्छादितन्नू - तलः ॥ कुमारः शंख इत्याख्यः । पल्लीसीमानमासदत् ॥ ३० ॥ अथो पलाय्य पल्लीशे । 5
मुक्त्वाऽन्यतो गते || युवराजोऽपि नीतिज्ञः । स्वयं कुंजे न्यलीयत ॥ ३१ ॥ सारसैन्यजुषा स्वीय सामंतेन स मंत्रवित् ॥ गाढं पल्लीपतेर्दुर्गं । सुगृहीतमकारयत् ॥ ३२ ॥ रे रे गृह्णीत गृह्णीत | शंखं जीवंतमेव हि ॥ इत्यादिशन जटान पल्ली - पतिर्गाढमढौकत ।। ३३ ।। कुमारोऽपि महासारो | दुर्गस्थैः स्वबलैः समं ॥ कर्मनिः स्वमिव प्राणी । परितस्तमवेष्टयत् ॥ ॥ ३४ ॥ तथाऽजितो गृहीतः क्का - प्यवकाशमनाप्नुवन् ॥ न्यस्य कंठे कुठारं स । कुमारं शरणं ययौ || ३५ || योपलक्षितं लोप्तं । दत्वा सीमांतवासिनां ॥ दुर्गे मुक्त्वा स्वसामंतं ।
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॥ १०५ ॥
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॥१०६ ॥
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तं सदादाय चाऽचलत् ॥ ३६ ॥ पधि व्रजन्नधान्येयुः । शिबिरे सुखनितिः ।। निशीथे करुएणं शब्दं । श्रुत्वा तदनुगाम्यनूत् ॥ ३७ ॥ विलोक्य वनितामेकां । रुदंती मिदमूचिवान ॥ किं तें दुःखकरं भीरु । विश्वस्ता साऽप्यभाषत ॥ ३८ ॥
अंगदेशेऽस्ति नगरी । चंपा चंपकसौरना ॥ जितारिस्तत्र राजास्ति । तस्य कीर्त्तिमती प्रिया || ३ || तत्कुक्षिशुक्तिमुक्ताना । सुता नाम्ना यशोमती ॥ गुणपूर्णा पुराऽन्यासादिवसा प्राप यौवनं || ४० || कलाकलापरुचिरा | पक्ष्ययुतापि च ॥ पद्मिन्या इव नैवा
। राजानो रुचिमादधुः ॥ ४१ ॥ किंतु यूनां गुणग्राम-वर्णनाऽवसरेऽन्यदा ॥ श्रुत्वा श्रीबेणजं शंखं । गाढं तत्राऽन्वरज्यत ॥ ४२ ॥ पिता तामन्वमोदिष्ट । ज्ञात्वा शंखानुरागिणीं ॥ दातुं चैनां नरान् प्रैषी-स यावइस्तिनापुरे ॥ ४३ ॥ तावता तामयाचिष्ट । मणिशेखर खेचरः || निराकृतश्च दत्तेति । एषा श्रीषेणसूनवे ॥ ४४ ॥ तामदार्षीदमर्षेण । श्येनको वर्त्तिकामि || अहं तु लग्ना तद्वाहा - वियतीं भुवमागता || ४५ ॥ ननांचक्रे करात्तस्या - स्तेनापापिना बलात् ॥ सा मां धात्रीं विना कष्टं । स्थास्यतीति दुनोति मां ॥ ४६ ॥ मा रो
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॥१०६ ॥
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॥ १०७ ॥
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दीर्नज धीरत्वं । मातरेष व्रजाम्यहं । दत्वा तं खेचरं कन्या - माहर्त्तास्मि तवाधुना ||8 |
इत्युक्त्वा तामथान्वेष्टुं । प्रवृत्ते वीरकुंजरे || नदयाशै ध्रुवं प्राची । सूर्य दीपमिवाऽमुचतू ॥ ४७ ॥ विशालशृंगशैलस्य । गुहाद्वारमधिष्टितं ॥ तामन्यर्थयमानं त-मशक्कत्खेचराधर्म || ४ || मम प्राणप्रियो जर्ता । शंख एव न चापरः ।। घोषयंतीं प्रतिज्ञां स्वा-मिति शुश्राव नूपः || ५० ॥ करवालं हित्काल - माकृष्यायांतमुत्सुकं ॥ वितर्य शंखमेवामुं i खेचरस्तामथाऽब्रवीत् ॥ ५१ ॥ मम नाग्यैरिवाकृष्टः । शंखोऽयं तव वल्लनः || प्राप्तस्तर्हि करोम्येनं । पश्य देवांगनातिथिं ॥ ५२ ॥ शंखः साक्षेपमादस्म । रेरे विद्याधराधम ॥ परस्त्रीचौर्य पापशे - ईर्शयामि फलं तव ॥ ५३ ॥ खेचरस्तद्वचः श्रुत्वा । रेकारमिव केसरी || कंपयन पादघातेन । भुवं संमुखमीयिवान् ॥ ५४ ॥ श्रगण्यपुण्यमाहात्म्या-कुमारः खेचरेशितुः ॥ श्रवध्यान्यपि शस्त्राणि । निजशस्त्रैरपाकरोत् ॥ ५५ ॥ लाघवेन कुमारोऽश्र | धनुरानिय दस्ततः ॥ तद्वाणेन तमाजने । योगीवात्मानमात्मना || ६ || पतितस्तत्प्रहारेण । छिन्नमूल इव डुमः ॥ तमाश्वास्य च वाताद्यैः । पुनर्युः झार्थमाह्वयत् ॥ ५७॥ सोऽवक्कुमार से
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वृत्ति
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शोलोप यं ते। गुणरक्ता यथा प्रिया ॥ तथा मामपि जानीहि । नृत्यमादेशकारिणं ॥ ५ ॥ किं भवति
More चातः पुण्यवृद्ध्यर्थ । सिहायतनयात्रया । अस्माननुगृहीतुं च । वैताढ्यमनुगम्यतां ॥ एए॥ ॥१०॥ तथेति प्रतिपद्याथ । शंखः श्रीहस्तिनापुरे ॥ निवेद्य निजवृत्तांतं । प्रजिघाय चमू रयात् ॥
॥ ६० ॥ स्वामिनः समरस्रंसि-प्राणदानोपकारिणं ॥ पत्नयो मणिचूडस्य । कुमार नेमुरादरात् ॥ ६१ ॥ तत्राानायितया धान्या । कन्यया च तया युतः॥ क्रमेण प्राप्य वैताढ्यं शं. खः खेचरन्नूषितः ॥ ६॥ यशोमत्या समं शंख-स्तत्र श्रीशाश्वताईतां ॥ चकार सिश्चैत्येषु । पूजामव्याजचेतसा ।। ६३ ।।
अनैपीत्कनकपुरे । कुमारं मणिशेखरः ॥ आनर्च दिव्यवस्त्राद्यै-स्तत्र सत्रैरिव श्रियां ॥६५॥ तत्रासौ शत्रुसंहार-राज्यविश्राणनादिन्तिः ॥ चके खेचरवीराणा-मुपकाराननेकशः ॥ ६५ ॥ तुष्टया विद्याधरैर्दना-स्तत्र विद्या असाधयत् ॥ न चोपायंस्त तत्कन्या । यशो- ॥१७॥ मत्या बिना ह्यसौ ॥ ६६ ॥ खेचरैः स्वसुतायुक्तै-यशोमत्या च नूषितः ॥ श्रीजितारिकतोत्साहां । प्राप चंपापुरीमश्र ॥६५॥ तत्र शंखो महानूत्या-ऽन्निनूतस्वर्गवैनवे ॥ साई खच
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शीलोपरकन्यानि-रुपयेमे यशोमती ॥ ६ ॥ यात्रां श्रीवासुपूज्यस्य । कृत्वा कृत्यविदां वरः॥ वृत्ति
आपृत्य श्वसुरान् सर्वान् । हस्तिनापुरमीयिवान् ॥ ६ ॥ तौ सूरसोमयोर्जीवौ । श्रीशंख-4 ॥१०॥ स्यारणाच्युतौ ॥ अनूतामनुजौ प्राग्व-यशोगुणधरान्निधौ ॥ ७० ॥
अथ राज्यधुरं न्यस्य । शंखे श्रीषेणनूपतिः ॥ व्रतमादाय सद्ध्याना-त्केवलज्ञानमासबस दत् ॥ १ ॥ हस्तिनापुरमायातो-न्यदा श्रीषेणकेवली ॥ सुवर्णाजोजमासीनो | विदधे ध
र्मदेशनां ॥७२॥ तत्र सांतःपुरो नंतु-मागतः शंखन्नूपतिः ॥ धर्ममाकर्ण्य वैराग्या-पन्नों विज्ञप्तवानिति ॥ ३३ ॥ असार एव संसारः । स्वामिन सत्यविचारतः ॥ प्रेमबंधः किमर्थोऽयं । यशोमत्यां तथापि मे ॥ ४ ॥ केवली केवलालोक-विलोकितचराचरः ॥ तत्याच्यन्नवसंबधं । साऽनुबंधमयान्वशात् ॥ ५ ॥ प्रिया धनवतीत्यासी-जन धनन्नवे तव ॥ आये कपे ततो रत्न-वती चित्रगतिनवान् ॥ ६ ॥ माऽथ प्रीतिमती । त्वं कुमारोऽपराजितः ॥१०॥ ॥ प्रारणेऽयो यशोमत्या-ख्या प्रिया सप्तमे नवे ॥ ७७ ॥ श्तोऽपराजिते देवौ । ततश्च्युत्वानारते ॥ क्षाविंशस्तीकन्नेमि-स्त्वं नाची यादवान्वयी ॥ ७० ॥ एषा राजीमती कन्या।
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॥ ११० ॥
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त्वय्यैकायतता गता || अनूढा व्रतमादाय । ततो मुक्तिं गमिष्यति ॥ ७९ ॥ चतुर्ध्निः कलापकं ॥ श्रतोऽयं प्रेमसंरंजो । जागरूको प्रयोरपि ॥ नवमे तु जवे मुक्ति - फलेन परिणस्यति ॥ ८० ॥ प्राग्भवेऽष्वनुजौ यौ ते । तावप्येतौ सहोदरौ ॥ मंत्री मतिप्रज्ञश्चैते । गणेशास्ते च जाविनः ॥ ८१ ॥ पुंरुरीकं ततः पुत्रं । न्यस्य राज्येऽगृहीतं ॥ सप्रियः साऽनुजो मंत्रि-युतः श्रीशंखनूपतिः ॥ ८२ ॥
पूर्वः कोऽपि शंखोऽयं । तपस्तापमवाप्य यः ॥ न गतो रागसाहाय्यं । विश्व निर्वाप क्षमः || ३ || ईनक्त्त्यादिनाडाराध्य | विंशतिस्थानकान्यसौ ॥ चकार तीर्थकृन्नाम-कशुनिचितं ॥ ८४ ॥ वैराग्यमुद्दद्दन् लेप-रहितः शुक्लतां दधत् ॥ शंखः खख इवाजाति । किं त्वंतर्वक्रतोषितः ॥ ८५ ॥ जावना कामणा कर्म-गर्दणाऽनशनं तथा !! चतुःशरणता पंच-परमेष्टिनमस्क्रिया ॥ ८६ ॥ षोढेत्याराधनापूर्व - मंतरंगरिपुक्षयं ॥ कृत्वा निर्मताजागी । पादपोपगमं गतः ॥ ८७ ॥ तथा संलेखनां कृत्वा । यशोमत्यादिनिर्युतः ॥ मृत्वाऽपराजिते शंखो । विमानेऽनुत्तरे ययौ ॥ ८८ ॥ तत्रापराजितविमान वरेंतरंग-रंगानुषंगि
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॥११०॥
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हृदयो हृदयंगमश्रीः ।। स त्रिंशतं त्रिकयुतामथ सागराणा-मायुनिनाय जिननायकगीतसौ- वृत्ति ख्यं ॥ नए इति श्रीरुपक्षीयगडे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां शीलतरंगिण्यां श्रीनेमिचरित्रे नवचतुष्टयवर्णनो नाम हितीयः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीः॥
इतश्च जंबूहीपस्य । जरतार्धेऽस्ति दक्षिणे ॥ श्रीकुशार्न इति ख्यातो । देशः कोश इ. व श्रियां ॥१॥सर्वशस्यश्रियोपेते । लंबशालिनि राजिते ॥ तत्र देशे परे क्षेत्रे । दोष एको | निरीतिता ॥ २॥ तत्रावितशौंमीर्य-नरं शौर्यपुरं पुरं ॥ यच्छ्रीकौतुहली शक्रः । सहस्रन-* - यनोऽनवत् ॥ ३॥ तत्राद्यः श्रीदशार्देषु । पूज्याईबासनांचितः । समुविजयो राजा । रा
जेव ज्योतिषां गणे ॥ ४॥ तस्य नाना शिवादेवी । शिवदेवीव धूर्जटेः ॥ सप्तांगादानतः प. त्यु-र्या ततोऽप्यतिरिच्यते ॥ ५ ॥ इतश्च कार्तिक कृष्ण-हादश्यां रजनीनरे ॥ चित्रानक्षत्रगे कन्या-राशौ शीतकरे स्थिते ॥६॥ व्युत्वा स शंखजीवोऽश्र । विमानादपराजितात् ॥ अवातरविवाकुदौ । ज्ञानत्रयविनूषितः ॥ ७ ॥ सुखासिकाक्षणो जज्ञे । नारकाणामपि कयं ॥ अजूंनत जगत्रय्या-मुद्योत श्व सर्वतः ॥ ७॥ गजो ध्वजो हरिः श्रीः सकारत्नराशिः
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शोलोप
॥११॥
शिखी ज्वलन् ॥ शशिसूयौँ विमानश्च । सरो वार्धिवृषो घटः॥॥ एतांश्चतुर्दश स्वप्नान् । वृत्ति दृष्ट्वा प्रविशतो मुखे ॥ व्यबुध्यत शिवादेवी । रोमांचोत्कलिकाकुला ॥ १०॥ समुविजया-५ याडाख्य-दाकनिंदितश्च सः ॥ क्रोष्टुकिं स्वनिमित्त । पान स्वेछया गिरा ॥११॥ तकालमागतः पुण्या-बारणश्रमणोऽपि च ॥ तदाकर्ण्य महास्वप्नां-स्ताविहं फलमूचतुः॥ ॥१२॥ माता तीर्थकृतां देव । चक्रिणो वा निरीक्षते ॥ स्वप्नानेतान्महापुण्य-प्राग्नारप्राप्यसंपदः ॥ १३ ।। तस्माजगत्रयवाण-दीक्षितोऽनयदर्शनः ॥ सर्वाधारः कुलोत्सो । जावी लोकोत्तरः सुतः ॥१४॥
श्रुत्वेति राजा राज्ञी चा-ऽनंदतां प्रश्रितोदयौ ॥ सत्कृत्य बहुमानेन । विसृष्टौ ज्ञानिनौं च तौ ॥ १५ ॥ गर्नावतरित ज्ञात्वा । शक्राश्चासनकंपतः । तुष्टुवुर्जिनमानम्य । धाविशं ती. नायकं ॥ १६ ।। पुपोष लक्ष्मी राजानं । देशस्याऽन्युदयोऽनवत् ।। नरेंइस्य च कोशेषु। र ॥११॥ नवृष्टिरजायत ॥ १७ ॥ लक्ष्मीवत्तेव वैदग्ध्यं । सदर्थ कविगीरिव ॥ रत्नं खानिरिवाऽनये । देवी गर्ने बतार सा ॥ १७ ॥ प्रभुप्रजाताविर्भूत-शुक्लध्यानामृतैरिव ॥ छुरितं वपुराधत्त । शि
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वृत्ति
शीलोप वा वै पांडुतांजितं ॥ १५ ॥ शुनगर्नानुन्नावेन । गुप्तिनिर्मोचनादिकां ॥ नरेंदः पूरयामास । Ka शिवाया दोहदावली ॥ २० ॥ यदैछन्नृपतिः कर्तुं । कर्म पुंसवनादिकं ॥ तपेत्याशु शक्रेण
। कृतमेव व्यलोकयत् ॥ १॥ ववृधे नोदरं मातु-श्चित्रं वृद्धिमति प्रत्नौ ॥ संपत्तौ वा विपतौ वा । महतां विकृतिः कुतः ॥ २२ ॥ श्रावणश्वेतपंचम्यां । चं चित्रागते निशि ॥ लग्ने सौम्यग्रहैर्युक्ते । शिवया सुषुवे सुतः ॥ २३ ॥ षट्पंचाशदिक्कुमार्य । आसनस्य प्रकंपतः ।। तत्रागत्य जिनं नेमु-झापयंत्यः स्वमागमं ॥श्व ॥ एकाः संवर्तवातेना-योजनं सूतिकागृहं ॥ संशोध्य नाऽतिदूरस्था । गुणान् जैनानगासिषुः ।। २५ ॥ अन्या गंधांबुना सिक्त्वा । नूमि दूरमनतिषुः ॥ शृंगारपाणयः काश्चि-रकाश्चिदर्पणपाणयः ॥ २६ ॥ सचामराः सव्यजना । अन्याश्चपि सदीपिकाः ॥ समातरं जिनं नत्वा । नातिदूर स्थिता जगुः ॥ २७॥ धरियां निदधु नं । नालं ठित्वा च काश्चन ॥ विवरं पूरयामासुः । कर्पूराद्यैः सुगंधिनिः॥
॥ २० ॥ चक्रुः प्राच्यामुत्तरस्यां । दक्षिणस्यां च सूतितः ॥ सिंहासनचतुःशालान् । रम्या. मला स्त्रीन कदलीगृहान् ॥ २५ ॥ चक्रुरुननस्नाने । तास्तत्र च जिनांबयोः। विलिप्य चंदनैर्व
११३॥
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वृत्ति
शोलोपर स्वा-लंकाराद्यैरन्नूषयत् ॥ ३० ॥ विधाय चंदननस्म । रक्षाग्रंथिं निबध्य च ॥ पर्वतायुर्नवे
Ma त्युक्त्वा-स्फालितौ गोलको तदा ॥ ३१ ॥ रघE अग्रासनप्रकंपेना-गत्य सौधर्मनायकः ॥ त्रिःपरीत्य सूतिगृहं । नत्वा च जिनमातरौ॥
॥३२ ॥ दत्वाऽवस्वापिनी मातु-निर्ममे पंचरूपतां ॥ यियाचिषुरिव स्पष्टं । प्रनोः पंचमहा. व्रती ॥ ३३ ॥ जिनमेकेन रूपेण । विधृत्य करसंपुटे ॥ अधार्षीवत्रमेकेन । मूर्तिय्या च चा. मरौ ॥ ३५ ॥ मुहुर्मुहुर्वलद्ग्रीवं । दनदृष्टिर्जिनानने ॥ पुरः पंचमरूपेण । वजमुलालयन य. यौ ॥ ३५॥ अतिपांडुकंबलायां । प्राग्मुखेऽस्थापयतिनं ॥ त्रिषष्टिरपरे शक्रा-स्तथैव मिमिलुस्तदा ॥३६ ॥ आयोजनमुखै रूप्य-हेममृन्मणिनिर्मितैः ॥ सर्वे तीर्थोदकतै-रानियोगिकढौकितैः ॥ ३४ ॥ केवलैमिश्रितैरष्ट-सहस्रप्रमितैः पृथक् ॥ शृंगारैः कलशैः स्नात्रं । च.
कुर्वादित्रपूर्वकं ॥ ३८॥ युग्मं ॥ जिने स्नपयित्वज्ञ । अच्युताद्या यथाक्रमं ॥ अन्यर्च्य दि- * व्यपुष्पाद्यै-स्तुष्टुवुस्तुष्टमानसाः ॥ ३५ ॥ इशाने पंचमूर्नी-विकृत्य प्रभुमाददे । स्वोत्सं
गेऽष सुधर्मेशो । विधातुं स्नात्रमुद्यतः ॥ ४० ॥ विधाय चतुराशासु । स्फाटिकान चतुरो वृ.
॥११॥
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वृत्ति
शीलोप पान् ॥ तच्छंगोलितदीर-धारान्निः स्नपितः प्रभुः ॥ ४१ ॥ तुंवर्गायति स्वामि-गुणान्
स्तौतिस्म वासवः ॥ वादित्रध्वनिन्निः स्पष्टं । नृत्यंतिस्म सुरांगनाः ॥४२॥ नन्मृज्य ग॥११॥ धकाषाय्या-ऽन्यर्च्य कल्पतरोः सुमैः ॥ वासवः स्वामिनं दिव्य-वाससी पर्यदीधपत् ॥४॥
तत्पुरस्तंडुलैर्दिव्यै-लिखित्वा सोऽटमंगलीं ॥ नीराजनाविधिं चक्रे । गीयमानैश्च मंग१ लैः॥ ४ ॥ पुलोमतनयारंना-प्रनृत्यप्सरसां गणैः॥ नृत्यनिः सूत्रयामास । वासवः प्रेक
णीयकं ॥ ४५ ॥ नृत्यंत्योऽप्सरसो नेत्र-कटाकैः कुसुमैरिव ॥ अपूपुजन् जिनाधीशं । रणकंकणनूपुराः ॥ ६ ॥ प्रनोर्मुखें उकांत्येव । निमीलत्करपंकजः ॥ कंठे पुष्पस्रजं न्यस्य ।
काव्यपुष्पैरथार्चयत् ॥ ४ ॥ युष्मनरीरकांती-नीलश्रेणिविलोकिनी ॥ सहस्रनयनी नाथ काममाद्यैव प्रसीदति ॥ ४ ॥ कालिंदीश्यामला काय-कांतिस्ते यदुनायक ॥ चित्रं गंगांबु. र गौराणां । प्रसूतियशसां भुवि ॥ भए ॥ संपूर्णापि महारत्न-रियं मेरुतटीधरा ॥ त्वयैवाऽन-
र्घ्यरत्नेन । जाता रत्नवती ध्रुवं ॥ ५० ॥ दक्षिणावर्तशंखोऽयं । यदके धारितस्त्वया ।। नूनं तेनाऽर्चकस्यासौ । वांबितानि तनोत्यलं ॥ ५१ ॥ स्तुत्वेतीशानदेवेंश-दादाय करसंपुटे । त
॥११५॥
र
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शीलोप
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थैव स्वं विकृत्यासौ । जिनं मात्रंतिकेऽमुचत् ॥ ५२ ॥ मार्तम इव पद्मिन्याः । शिवादेव्याः सुरेश्वरः ॥ जहेऽवस्वापिनीं जैनीं । प्रतिमूर्त्ति च तां स्वयं ॥ ५२ ॥ युग्मं ॥
अथ शक्राज्ञया श्रीदः । समुइविजयौकसि ॥ ववर्ष हर्षकारीलि | स्वर्णरत्नान्यनेकशः ॥ ५३ ॥ जिनांगुष्टे सुरें । पीयूषमवतारितं ॥ अपिबत्क्षुधितो नाथो-स्तन्यपाना जिना यतः || ४ || पंच चाऽप्सरसः स्वामि-धात्रीत्वे स्थापितास्तदा || गत्वा नंदीश्वरद्वीपे । चसोsटाकोत्सवं ॥ ५५ ॥ जग्मुः सर्वे यथास्थानं । विदधुश्च महोत्सवान् ॥ विज्ञाता रजनी ताव -- जिनतेजोऽपहृतेव सा || ५७ || ववुः प्रदक्षिणावर्त्ता । वायवो जनप्रीतिदाः । प्रसेदुः ककुनो जातं । सर्वं हर्षमयं जगत् ॥ ए८ ॥ प्रविश्वक्रे रविं प्राची । प्रनोः फलमिवोपढ़ां || पद्मिनीव जजागार | देवी पद्मविलोचना ॥ ५० ॥ ददर्श च सुतं राज्ञी | कल्पद्रुमित्र जंगमं || चेटी निर्वर्द्धितस्ताव - नरें: पुत्रजन्मना ॥ ६० ॥ सद्यः प्रमुदितो राजा । वसंत इव कोकिलः ॥ चकार चारकं मुक्त - बंधनं यदुपुंगवः ॥ ६१ ॥ जातं हस्त्यश्वरत्नादिप्रानृतै राजकाहृतैः ॥ विस्तीर्णमपि संकी। समुविजयांगणं ॥ ६२ ॥ न्यत्यद्वारांगनाना
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शीलोप
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दं । पूजितज्ञातिनागरं ॥ चक्रे जन्मोत्सवं सूनो नृपो भुवनचित्रकृत् ॥ ६३ ॥ षष्टिजागरलार्के - दर्शनादिपुरस्सरं ॥ द्वादशाहे नृपो नाम-विधानोत्सवमातनोत् ॥ ६४ ॥ गर्भगेऽके लोकारिष्टानि प्रलयं ययुः ॥ अरिष्टनेमिरित्यस्य । विदधे नाम सान्वयं ॥ ६५ ॥ बहुशः क्रीतापत्या । श्रप्यदृष्टाका इव ॥ रमयांचक्रिरे बंधु - वध्ध्वस्तं स्पईयो हुराः ॥६६॥ स्वामी ने मिर्नराधी शैर्नीयमानः करात्करं ॥ पद्मात्पद्मांतरं गछन् | राजहंस इवाबभौ ॥ ॥ ६७ ॥ स्वामिकंठे बनौ मुक्ताऽन्विता हैमी लवंतिका ॥ मुखचंस्य सेवायै । तारालिरिवोजता || ६ || स्वामी सहजसौभाग्या - नैरादितमंगलः ॥ कुमारो ववृधे पित्रोमनोरथशतैः समं ॥ ६५ ॥
इतश्च निहते कंसे । जरासंधाऽईचक्रिणः ॥ दूतेऽपमानिते पृष्टः । क्रोष्टुकिर्यादवेश्वरैः ॥ ॥ ७० ॥ स प्राह भरतादेशौ । कृष्णरामौ भविष्यतः । अचिरेण नवनिस्तन्न घार्यात्र विता ॥ ७१ ॥ परं पश्चिमदिग्नागे ! श्रीविंध्यगिरिसंमुखं ॥ गत्वा जलनिधेस्तीरे । स्थातव्यमविशंकितं ॥ ७२ ॥ कृष्णप्रिया सत्यनामा ! यत्र पुत्रइयप्रसूः || नगर्याः स्थापनां कृ
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त्वा । स्थेयं तत्र सुनिश्चितं ॥ ७३ ॥ सप्तकोटिकुलैर्युक्ताः । प्रस्थिताः सूर्यपत्तनात् ॥ उग्रसेनस्त्वगादेका-दशको टिकुलान्वितः ॥ ७४ ॥ क्रमाद्विंध्याचलं प्राप्ता । यादवाः कालसंकथाः ॥ श्राकर्ण्य पूजयामासुः । क्रोष्टुकिं सत्यवादिनं ॥ ७५ ॥ अन्यदा गवतां तेषां । समस्तातिमुक्तकः ॥ नत्वा पृष्टः समुज्ञयै- नवि नः किमतःपरं ॥ ७६ ॥ मुनिर्जगाद द्वाविंशो । जिनस्तेजविता सुतः !! बलकृष्णौ भारतेशौ । द्वारिकायां भविष्यतः ॥ ७७ ॥
इत्युक्त्वा विहृतेऽन्यत्र | मुनौ प्रमुदिताशयाः ॥ सुराष्ट्रामंरुले प्राप्य । यादवाः शिबिरं न्यधुः || ८ || सत्यनामा तदाऽसूत । तनयौ जानुनामरौ ॥ अथ सुस्थितमुद्दिश्य । चक्रे विष्णुस्तपोऽष्टमं || || प्रत्यक्षीभूय संतुष्टः । सोऽपि श्रीरामकृष्णयोः ॥ सुघोषपांचजन्याख्यौ | शंखौ दत्वेवमाह च ॥ ८० ॥ वद कार्य कुतोऽस्मार्षी स्तेनोचे द्वारिकापुरी ॥ विष्णुना यांना लुप्ता । तामथो दातुमर्हसि ॥ ८१ ॥ विज्ञप्तस्तेन देवेंः । सोऽपि श्रीदादायत् ॥ पुरीं विस्तरदैर्ध्याभ्यां । नवद्वादशयोजनां ॥ ८२ ॥ तत्राऽष्टादशदस्तोच्चो । हस्तानू द्वादश विस्तृतः ॥ नवदस्तान घरामनो । वप्रश्चक्रे सखातिकः ॥ ८३ ॥ एकइित्रिकनूमा
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शीलोप
॥ ११॥
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या वृत्तादिविविधश्रियः ॥ प्रासादाश्चक्रिरे देवै विमाना इव कोटिशः ॥ ८४ ॥ एते सौधा दशार्दाणा - मुग्रसेनस्य चेतरे ॥ इत्यादिव्यक्तिनिर्देवैः । प्रासादा हेलया कृताः ॥ ६५ ॥ मणिस्वर्णमयाः सर्वे । सप्राकाराश्च सुंदराः ॥ सर्वे कल्पडुसंवीताः । प्रासादास्तत्र रेजिरे || ६ || चक्रेऽप्रादशभूमिकः । सर्वतो आाख्यया ॥ प्रासादो वासुदेवस्य । बलस्य पृथिवीजयः ॥ ८७ ॥ तयोर सनां कृत्वा । चक्रे चैत्यावलीं ततः । एकाहोरात्रमात्रेण । धनदेन कृता पुरी ॥ ॥ ८८ ॥ पश्चिमांजोधिती रेथ । कृष्णो राज्येऽभ्यषिच्यत ॥ श्रीहारिकां प्रविष्टश्च । देवैः कृतमहोत्सवः ॥ ८० ॥
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श्रीने मिरारामे । रेमे रामादिभिः सह ॥ ज्ञानत्रययुतोऽप्यज्ञ । इव शैशव के लि॥ ० ॥ तेऽपि तं खेलयामासुः । प्रभुं प्रचुर केलिनिः ॥ वयोऽनुगामिनो जावा । बामहतामपि ॥ १ ॥ अथाऽतिक्रम्य बाल्यं स । यथा कामितवैज्ञवः ॥ डुरिव प्राप तारुएयं । पुष्पफलदशामिव || २ || चतुरस्राकृतिर्वज - जनाराचविग्रहः ॥ स्वामी दशधनुतुंग । गुणैर्निरुपमोऽभवत् ॥ ए३ ॥ श्रात्मोपाध्यायतां प्राप्य । स्वामी सर्व कलास्वपि ॥
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वृत्ति
॥ ११॥
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शीलोपा
वृत
॥१०॥
सनत्कौशल विज्ञाना-दाश्चर्य हृदि निर्ममे ॥ एच ॥ यौवनं तु विकारीति। प्रतिािस्ति शास्वती ॥ सफला सा कृता किं तु । कामिनीषु न चात्मनि ॥ एए ॥श्तश्च वणिजोऽन्येत्य। विक्रेतुं रत्नकंबलान् ॥ ततो विशेषलान्नाय । पुरे राजगृहे ययुः ॥ ए६ ॥ तैश्च ते जीवयशसे । दर्शिता नैगमोत्तमैः ।। लदाईमादिशंती सा । तन्मूख्यं जगदेऽथ तैः ॥ ए || धिगस्मानिरिकायां । न दत्ता लक्षलानतः॥ यतोऽतिलिप्सा जीवानां । मूलनाशाय केवलं ॥ ॥ ए॥ हारिका केति पृष्टास्ते । राजपुन्या सविस्तरं ॥ ऊचुस्ते वाहिना दत्ते । स्थाने देवैर्विनिर्मिता ।। एए ॥ पूरिता धनधान्याद्यै-धनदेन चिराय सा ॥ शास्ति तां केशवः सूनुदेवकीवसुदेवयोः ॥ १० ॥
श्रुत्वेति नूताविष्टेव । कीर्णकेशा शिरो नती ॥ जीवत्यद्यापि कंसारि-रित्यचे मगधेशितुः॥१॥ सोऽप्युदीर्णप्रकोपानिर्वात्ययेव धुवन् शिरः ॥ वत्से धीरा नवेत्युक्त्वा । या- बाढक्कामतामयत् ॥॥ सहदेवादयः पुत्राः । परितः परिवबिरे ॥ र्योधनशिशुपाला-दयो नूपाः सहस्रशः ॥ ३ ॥ वार्यमाणोऽपशकुनैः । प्रतापी प्रज्ज्वलन क्रुधा ॥ प्रतस्थेऽज
॥१०॥
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शीलोपरासंधः । पश्चिमांप्रति सूर्यवत् ॥ ४॥ अथ व्योमांगणे ब्राम्यन् । नारदो रणकौतुकी ॥
प्र वृत्ति र स्थानं मगधेशस्य । जगाद हारिकेशितुः ॥ ५॥ अथास्फालितबादूरु-हरिहुँकारमुच्चरन् ॥4 ॥११॥ पटहं वादयामास । प्रयाणप्रवणाशयः ॥६॥ दशार्दाः सपरीवारा । युधि सजा अमीमि
लन् । अर्धाष्टकोटयः पुत्राः । परितस्तमवेष्टयन् ॥ ७॥ नग्रसेनोऽप्यढौकिष्ट । धरादितनयान्वितः ॥ महसेनादयोऽप्येयुः। शांतनुक्षितिपोनवाः ॥ ७॥ पांझवाः पंच पंचांग-धरा श्व महाबलाः॥ पत्नीश्वश्वादिसंबंधे । ये च तेऽपि तदाऽमिलन् ॥ ए॥ सहर्ष गोत्रवृज्ञानिः । कतयात्रिकमंगलः ॥ सूच्यमानजयारंनो । मागधैः शकुनैरपि ॥ १० ॥ जगत्कुदिनरिप्रौढनांदीनिघोषमंगलः ॥ गरुमध्वजमारुह्य । रथं दारुकसारथिं ॥ ११ ॥ रम्ये क्रोष्टुकिना दत्ते । मुहूर्ने विजयाह्वये ॥ पूर्वोत्तरस्यामाशायां । प्रतस्थे सबलो हरिः ॥ १२ ॥ युग्मं ॥ संजग्माते धीरनादौ । सेनांनोधी रयादश्र ।। प्रलयानिलसंक्षुब्धौ । सह्यविंध्य गिरी इव ॥ १३ ॥ स्व- ॥११॥ गणरूप्यमयस्फार-मुकुटद्युतिमंडलैः ॥ चंडसूर्यसहस्राढ्या । तदानी द्यौरजायत ॥ १५ ॥
गजगर्जारवैरश्व-देषित रश्रचीत्कृतैः ॥ पदातिसिंहनादैश्च । जगदमयं बन्नौ ॥ १५ ॥
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शीलोप
॥ १२२ ॥
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तुरंगमखुरोत्खात - धूली धूसरितेंबरे || दर्शरात्राविव स्वैरं । संचेरुर्भूतराक्षसाः ॥ १६ ॥ इंसडिंजकमंत्रियां | मंत्रयित्वा ईचक्रनृत् ॥ परप्रत्यूहनाशाय । चक्रव्यूहमथाऽकृत ॥ १७ ॥ सहस्त्रारतया राज - सहस्रं तुबके स्थितं ॥ रथानां द्विसहस्री च । पृथग्दस्तिशतं तथा ॥ १८ ॥ पंचसहस्त्राण्यश्वानां । पदातीनां तु षोमश || सहस्राः षटू सपादाश्च । चक्रांते स्थापिता नृपाः || १७ || नृपपंचसहस्रीयुग् - मुखेऽस्थान्मगधेश्वरः । बलं कौरवगांधार - क्ष्माभृतां पृष्टतोऽनवत् ॥ २० ॥ चक्रव्यूहाइहिर्व्यूहै - र्विविधैर्धरणीधवाः ॥ रणाय यादवाधीशान् । वृ ना अवतस्थिरे || २१ || तत् श्रुत्वा युधपायोधि - यादसो यादवा अपि ॥ विदधुर्गरुमव्यूहं । चक्रव्यूह जिगीषया ॥ २२ ॥ श्रईकोटिः कुमाराणां । व्यूहस्य स्थापिता मुखे ॥ गोविंदबलन च । स्वयं मूईनि तस्थतुः || २३ || तस्थुस्तत्परितः सर्वे । तथा श्री कोणिनायकाः || दृष्ट्वा शत्रू | दर्पोको विलीयते ॥ २४ || विज्ञायाऽवधिना शक्रो । दिव्यशस्त्रैरलंकृतं ॥ प्राहिणोनेमये स्वीयं । रथं मातलिसारथिं ॥ २५ ॥
अथ योद्धुं ढौकाते । सेनान्यावुनयोरपि ॥ जगत्रयचमत्कारी । प्रवृत्तस्तुमुलो रणे ॥
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वृत्ति
(१२२॥
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शीलोप
॥ १२३ ॥
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|| २६ ॥ खघातेन वीराणा-मुत्पेदेऽग्निः परस्परं । स एव शमितो वीर - शरीररुधिरप्लवैः ॥ २७ ॥ पादातिपादपातोय - धूलिनिर्विस्तृतं तमः ॥ त्रुटत्केयूररत्नौघैः । प्रकाशश्चाऽजनि - लात् ॥ २८ ॥ चतुरंगचमूघात - विसर्पिरुधिरप्लवैः ॥ रक्तीकृत इवादित्यो । जेजेऽस्ताचलचूलिकां ॥ २५ ॥ रक्तप्रीणितवेताला । इव तत्र रणांगणे || विन्नशिर्षा महारौशः । कबंधाः प
षुः ॥ ३० ॥ सुटानां सिंहनादैः । पूरितेऽथ समंततः ॥ ननर्त्त नारदस्तत्र । लब्धतालोंबरे तदा ॥ ३१ ॥ निवृत्ताः सजयारावा । यादवा जितकासिनः ॥ कटकं दतसेनानि । निर्वृतं मगधेशितुः ॥ ३२ ॥ द्वितीयेऽह्नि च सेनानी | स्थापितो दमघोषजः ॥ स्मित्वाऽजापत गोविंदं । रक्ष जोः कष्ण गोकुलं ॥ ३३ ॥ इत्यादि लपतस्तस्य । शिरो नारायणोऽलुनात् ॥ चकस्थं तंतुना कुंजं । कुंभकार इवाऽसिना ॥ ३४ ॥ रामस्य निहते पुत्र - दशके मगधेशिना ॥ धावित्वा सोऽपि तस्याऽहं- स्तदाऽष्टाविंशतिसुतान् ॥ ३५ ॥ कृष्णेन पुनरेकोन-सप्ततिस्तत्सुता हताः ॥ तनूजवधशेषांधो । जरासिंधोऽप्यधावत ।। ३६ ।। निहतो गदया रामः । पपात रुधिरं वमन ॥ केशवो घननाराच - दुर्दिनैश्व तिरोहितः ॥ ३७ ॥
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वृत्ति
॥ १२३ ॥
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शीलोप
K ॥१२॥
छ विरलीकृतामई-चक्रिणा यजुवाहिनीं ॥ परिम्लानमुखीं वीक्ष्य । मातलिनेमिमा- वृत्ति लपत् ॥ ३० ॥ स्वामिनखंडब्रह्मांड-रक्षणकमदोर्युग ।। यदूनां निर्दयं निघ्नन् । नोपेक्ष्यो म.." गधाधिपः॥३॥ यद्यपि त्वं समाचार-स्तृणे स्त्रैरो परे निजे॥ तथापि नाथ निर्ना-मधुना कुलमुहर ॥ ४० ॥ पश्य विश्वोपकर्नापि । सूर्यः संकोच्य कैरवान् ॥ विकाशयति किं नाब्ज-काननं निजबांधवं ॥४१॥ किंचामी माऽवजानंतु । पश्यंतु तव दोर्बलं ॥ शत्रवः स्तगृहाणास्त्रं । कुलमुज्ज्वाल्यतां यदोः ॥ ४२ ॥ श्रुत्वेति सान्वयं नाम । विधातुं निजमुद्यतः॥ अरिष्टनेमिरास्फाल्य । पाणिना धनुराददे ॥४३॥ तमालश्यामलः कुर्वन् । राजहंसानितस्ततः ॥ववर्षे नेमिपर्जन्यो । धारासारैः शरोत्करैः ॥४४॥ खंमयित्वा किरीटानि । | मुंमयित्वा शिरांसि च ॥लदं विलक्षतां निन्ये । राझा स्वामी किरीटिनां ॥ ५ ॥
मगधेशबलांनोधि-र्यन्मनो यगोष्पदे ॥ नेमिनो योगिनाथस्य । तन्माहात्म्य विज़ुनि- ॥१२॥ तं ॥ ४६ ॥ श्रीनेमेरुपचारेण | पुनर्नवबलो बलः ॥ षितो दलयामास । मतदंतीव पादपान ॥ ४ ॥ हतप्रतिहतं ज्ञात्वा । स्वसैन्यं मगधाधिपः ॥ क्रुः काल श्वोत्तालो। जगादेतिर
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वृत्ति
झीलोपजनाईनं ॥ ४ए । रेरे गोपालबाल त्वं । हत्वा जामातरं बलात् ॥ पश्चिमाब्धि गतो नंष्ट्वा ।
वेताल व मंत्रिणः॥ ५० ॥ कालेन ढौकितोऽसि त्वं । नश्यन्नपि शृगालवत् ॥ प्रतिझां पृ. ॥१५॥ रये पुत्र्या । नीत्वा कंसपथेऽधुना ॥५१॥ अरिष्टारिरत्नाशिष्ट । मा विलंबस्व ढौक्यतां ॥ पि
तुः पुच्या जामातुश्च । सार्थमेकं करोमि यत् ॥ ५५ ॥ इति कालकरालौ तौ। तर्जयंती प. र रस्परं ।। वारिधी श्व गर्जतौ । युयुधाते बलोत्कटौ ॥५३ ।। न तवस्त्रं न सा विद्या । न सा
चारी न स ब्रमः॥ येन युईन चक्राते । तदानीं तौ रणोनटौ ॥ ५५ ॥ चेलुः कुलाचला बेमु-बिग्गजाश्च चमाकुलाः॥ क्षुब्धा वारिधयो जातं । ब्रह्मां स्फुटितं यथा ॥ ५५ ॥ अथ श्रीमगधाधीशो । निर्जितास्त्रगणस्तदा ॥ कंसारिप्रति चिकेप । चक्रं सूर्यमिवाऽपरं ॥ ५६ ॥ केलिकंदुकवत्तञ्च । स्पृष्ट्वा वक्षःस्थलं हरेः ॥ आरुरोह करांनोज । राजहंस इव स्फुटं ॥५॥ कृष्णोऽनूनवमो वासु-देवोऽयमिति घोषिणः ॥ सिक्त्वा गंधांबुना पृथ्वीं । पुष्पवर्ष दधुः सु- राः॥ ५७ ॥ अतोऽपि विब्रुवाणस्य । चक्रेण मगधेशितुः ॥ स्कंधबंध धिाचक्रे । त्रिदशैश्च जयध्वनिः ।। एए ।
॥१५॥
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अथ जीवयशाः सर्व-संदारप्रतिभूरिव ॥ अजुहोन्मातृभिः सार्धं । प्राणान् वैश्वानरे रयात् ॥ ६० ॥ मातलिः प्रेषितो नेमिनाथेन स्वास्पदं ययौ ॥ जरताई हरिर्जित्वा । जगाम द्वारिकां पुनः ॥ ६१ ॥ अथाभिषेके संजाते । दे कन्ये पृथक पृथक् ॥ राज्ञां षोडशनित्या | सहस्रैौकिते हरेः ॥ ६२ ॥ शंखः खनो धनुश्चक्रं । वनमाला मणिगंदा || तस्यार्द्धचक्रिणः सप्त । रत्नान्येतानि जरेि ॥ ६३ ॥ तदर्द्धचक्रवर्त्तित्व- समृद्ध्या समलंकृतः ॥ बुभुजे जरता - ईस्य । साम्राज्यं सबलो हरिः ||६४ || प्रयुतदशके राज्ञां स्तंनीकृते र मंरुपे । प्रतिहरिरमा पायातं विधाय सुरक्षिषः ॥ सद परिजनैलीला केली कलाः कलयन्नलं ॥ विषय विमुखः श्रीमान्नेमिनिनाय स यौवनं ॥ ६५ ॥
॥ इति श्रीरुपल्लीगछे श्रीसंघ तिलक सूरिपट्टावतंस श्री सोम तिलकसूरिविरचितायां श्रीशीलोपदेशमालावृत्तौ श्रीशीलतरंगिण्यां श्रीनेमिचरित्रे गर्भावतारजन्मस्त्रात्रोत्सवबाल्यसंग्रा मवर्णनो नाम तृतीयः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥
अथ प्रद्युम्नशांबाद्यान् । कुमारान् कामचारिणः || खेचरीनूचरीभार्या -सहस्रैः परितो
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वृत्ति
॥ १२६ ॥
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शीलोप वृतान् ॥ १ ॥ निरीक्ष्य क्रीमतोऽन्येद्यु-रिकोपवनादिषु ॥ श्रीसमुशिवादेव्या-विति श्री. वृत्ति
नेमिमूचतुः ॥२॥ लोकोनरैश्चरित्रैस्ते । वत्स विश्वैकवत्सल ॥ आवामेव परां रेखां । वहा॥१७॥ वः पुत्रियां धुरि ॥ ३ ॥ यत्पुनयौवनस्श्रोऽपि । न धत्से दारसंग्रहं ॥ तेन दूयावहेऽत्यर्थे ।
वीक्ष्य पुत्र परस्नुषाः ॥ ४॥ य्यैव सर्व संबई। विधिना निर्मितं जगत् ॥ माणिक्यमपि
नान्नाति । पश्य हेमाश्रयं विना ॥५॥ विशिष्याहं शिवादेवी । वधूसंदर्शनोत्सुका ॥ ता ए. * व धन्या मन्येऽहं । वनिता नूमिमंडले ॥ ६॥ स्फुरति पुरतो यासां । यथादिष्ट विधायिकाः॥
वध्वः प्रवरनेपथ्या। नयनाऽमृतपारणाः ॥७॥ युग्मं ॥ नवाच पितरौ नेमि-नमन् मधुर
या गिरा ॥ कन्यां कुःखपरीणामां । नाहं स्वीकर्तुमुत्सहे ॥ ७ ॥ दक्षां हितावहां कांतां । य पदा क्ष्याम्यहं पुनः॥ तदैव स्वीकरिष्यामि । खेदः कार्यों न तन्मनाक् ॥ ए ॥ याकूता-)
ग्विधा पुःख-वल्लरीरिव दारुणाः ॥ संगृह्य जायते कष्ट-नाजनं को विदांवरः॥ १० ॥ - ॥१२॥ त्युक्त्वा बोधितौ तेन । पितरौ सरलाशयौ ॥ स्वपराभ्यां न गृह्यते । यदि वा तत्वदृष्टयः ।। ॥११॥ इतो यशोमतीजीवो-ऽपराजितविमानतः ॥ व्युत्वोग्रसेनजायाया । धारिण्यास्तन
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शोलोप
वृत्ति
॥१२॥
याऽजनि ॥ १२ ॥ राजीमतीकुमारीति । पितृभ्यां विदधेऽनिधा ॥ ववृधे कल्पवल्लीव । सा शाश्वतरसाश्रया ॥१३॥ दधाना कुमुदोल्लासं । चंश्लेखेव लीलया ॥ संगृह्णाना कलाः सर्वाः । सा जज्ञे यौवनोन्मुखी ॥ १५ ॥ राजीमत्या मुखेनेंदु-वराकः स्पर्धतां कथं ॥ पयोधरोन्नतौ यस्या। विशेषश्रीन दीप्यते ॥१५॥ यौवनं कलयाम्यस्याः । स्रष्टारं येन हेलया ॥ त्रयाणामपि चातुर्य । कायवाङ्मनसां दधे ॥ १६ ॥
अन्यदा क्रीम्या नेमिः । कुमारैः परिवारितः ॥ विवेशायुधशालायां । हरेहरिरिवापरः ॥१७॥ दृशं व्यापारयन् शाङ्गे। नंदकेऽथ सुदर्शन ॥ शंखं स्वलक्ष्मप्रेम्णेव । स ददर्श मुहुर्मुहुः ॥ १७ ॥ जिघृक्षु पाणिना शंखं । नेमि मत्वाथ यामिकः ॥ नत्वा विझपयामास । सस्मितं श्रूयतां प्रनो ॥१५॥ पांचजन्यममुं नाऽन्यो । विष्णोरादातुमीश्वरः ॥ दूरे पूरयितुं तस्मा-प्रयास मा वृथा कृथाः ॥ २० ॥ वार्यमाणोऽपि तेनछ । स्वामी स्वस्थाममांसलः॥ केलिकंदुकवहालः । शंखं जग्राह पाणिना ॥ १ ॥ देलया पांचजन्योऽय | धारितः स्वामिना मुखे ॥ हृदयानिर्गतशुक्ल-ध्यानपिंड श्वावन्नौ ॥ १२ ॥ पूरितेऽयो जजागार । जगत्कुकिं
॥१२॥
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शीलोप
॥ १२ ॥
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रिर्ध्वनिः ॥ मूर्तिताः पतिता भूमौ । यामिकाः सामया इव | २३ | चुक्षुभुर्लोलकल्लोलाः । सागराः प्रलये यथा ॥ नृत्कंपितं धरापीठं । ब्रह्मांमं स्फुटितं किल ||२४|| चिरमेकत्र संवास - प्रेम्णेवाऽजनि तणात् ॥ कंमं द्वारवतीवप्रं । संगंतुमिव वारिधिं ॥ २५ ॥ तदानीं राजकाकीर्ला - मास्थानी मास्थितो हरिः || ध्वनिं श्रुत्वाथ संत्रांतो । दृशं किक्षेप सर्वतः ॥ २६ ॥
यह रामं किमन्यस्माद् । छीपतो विष्णुरागमत् ॥ किं वाऽन्यो विष्णुरुत्पेदे | पांचजन्यो जगर्ज यत् ॥ २७ ॥ यामिकैरेत्य विज्ञप्त-स्तावतेति विकल्पयन् ॥ त्वदीयः शंख एवायं । दध्वने नाथ नेमिना ॥ २८ ॥ श्रुत्वेति संमावेगा-दमांतमिव विस्मयं ॥ मापयन केशवस्तस्थौ । मौलिकंपनदंजतः || २ || नूनमस्मत्कुले चक्रवर्ती नेमिरजायत ॥ यखेऽस्मिन्मयाऽाध्माते । नेदृग्नादः कदाप्यभूत् ॥ ३० ॥ इति चिंतयतस्तस्य । नेमिर्लोकं पृणाशयः ॥ स्वयं तत्राऽगमत्प्रीत्या । विनित्सुरिव संशयं ॥ ३१ ॥ निजार्धासनमासीनः । कुमारो दरिलोच्यत ॥ रोदःकुकिंनरिध्वानः । शंखः किं पूरितस्त्वया ॥ ३२ ॥ नमित्युदीरिते 'तेन । रोमांचांकुरदंतुरः || हरिः पुनरुवाचेदं । नेमिनं मधुराकरैः ॥ ३३ ॥ पांचजन्ये त्वया
१७
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वृत्ति
॥ १२॥
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वृत्ति
शोलोप भ्रात-धर्माते नूरप्यकंपत ॥ जज्ञे च दोनरन-श्चिरं राममनस्यपि ॥ ३४ ॥ तत्ते भुजब-
Jलं बंधो । दृष्टुमस्मि कुतूहली ॥ नियुइं कुर्वहे तस्मा-त्कणं गत्वा खलूरिकां ॥ ३५ ॥ प्रति॥१३॥ श्रुतवति स्वामि-न्यपि कौतुकिनि स्वयं ॥ प्रहृष्टौ समनह्येतां । मल्लयुक्षय बांधवौ ॥ ३ ॥
स्वामी निजबलानंत्यं । विमृश्य पुनरन्यधात् ॥ नियुझ्मावयो तः । केलिनापि न युज्यते ॥ ३७ ॥ तदन्योऽन्यं भुजस्तंन-वालनेनैव कौतुकं ॥ पूर्यतामावयोरत्र । रामः सादीव जा.
यतां ॥ ३० ॥ इत्युक्ते धारयमास । भुजं तिर्यग्जनार्दनः ॥ तं नेमिर्नामयामास । बालकस्त्रJo पुसीमिव ॥ ३५ ॥ स्वाम्यथ नोगिनोगानं । भुजदंडमधारयत् ।। वालनायाऽस्य कंसारि
लंनूष्णुर्मनागपि ॥ ४० ॥
लग्नो नेमिभुजस्तंन्ने । हरिः सर्वान्निसारतः ॥ लंवमानो बन्नौ स्वैरं । वनौका श्व शा. खिनि ॥ १॥ न च नेमिभुजोऽचाली-इजस्तंन्न इव क्वचित् ॥ आकारमवगुह्याथा-डालिलिंग भ्रातरं हरिः ॥ ४२ ॥ अवांदोत्स्वकुलं श्लाघ्य-मावयोरेव बांधव ॥ यत्राऽनन्यसमस्थामा । वीरो युष्मादृशोऽन्नवत् ॥ ४॥ इत्यादि श्लाघ्यमानः सन् । विससर्ज जिनं हरिः॥
॥३०॥
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शीलोप
॥ १३१ ॥
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अश्रोपराममादस्म । विस्मयस्मेरमानसः || ४४ ॥ ददृशे भुजशौंकीर्य | नेमेरार्यानुजन्मनः ॥ ईदृग्भुजबलं विश्वे । न शक्रस्य न चक्रिणः || ४५ ॥ प्रातर्जगज्जयाऽजय्य-शौर्यशाली समुजः ॥ पखंडमेदिनी राज्यं । किं न भुंक्ते सुडुर्लनं ॥ ४६ ॥ शार्ङ्गिशंकापनोदाय | सीरी सस्मितमाख्यत ॥ एतद्वलेन साम्राज्य - मावाभ्यामपि भुज्यते ॥ ४७ ॥ चातर्लकं नरेंझणां । न त्येस गत् ॥ कथं तदाऽवधिष्यस्त्वं । जरासंधं रणांगणे ॥ ४८ ॥
हात्रिंशत्तीकृनावी । नेमिर्नैमित्तिकोदितः || राज्याय स्पृहयत्येष । कथं नरककारिले ॥ ४९ ॥ तथापि शंकामुहर्तु - मस्य देवतयौच्यत ॥ एष मोहंगमी नाथः । कौमारेऽपि दृढतः || ५० ॥ श्रुत्वेति तुष्टो गोविंदो । बलमापृष्ठ्य भक्तितः । जगामांतःपुरं नेमि चरित्रं च तदन्यधात् ॥ ५१ ॥ तत्र नेमिनमाह्वाय्य । सवात्सल्य मधोक्षजः ॥ विशिष्यबहुमानेन । प्रीयामा सिवानसौ ॥ ५२ ॥ रत्नसिंहासनासीनौ । स्नातौ चंदनचर्चितौ || दिव्यां रसवतीं भुक्त्वा वन्योऽयं प्रेमपेशलौ ॥ ५३ ॥ इति प्रत्यहमाराम - वापीषु सरसीषु च ॥ हरिः सांतःपुरः प्रीत्या | रेमे श्रीने मिना समं ॥ ५४ ॥ सौविदानादिशद् द्वार - पालांश्च हरिरेका || न
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वृत्ति
॥ १३१ ॥
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शीलोप
॥ १३२ ॥
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कापि स्खलनीयोऽयं । बंधु: प्राणप्रियो मम ॥ ५५ ॥ ऊचे स रुक्मिणीनामा - रेवतीप्रमुखाः प्रियाः || देवरो ने मिरावज्यों । युष्माभिश्चतुरोक्तिनिः ॥ ५६ ॥ एकाक्यपि ययौ नेमि - वि रंतःपुरं ततः ॥ समचित्ता हि निःशंकं । संचरंति समंततः ॥ ५७ ॥ निर्विकारतया स्वामी । वर्दश्वारुवचोजरं ॥ तोषयामास सोत्प्रास-केली लोलाः प्रजावतीः ॥ ५८ ॥ अथाख्यत शिवा विष्णुं । तथा नेमिं प्रबोधय ॥ स्नुषामुखदिदृक्षां मे । यथा पूरयति क्षणात् ॥ ५५ ॥
नारायणोऽपि नामाद्यै - स्तमर्थ तमबीनणत् ॥ सोऽपि बेकोक्तिनिश्वके । ताः सहेलं निरुत्तराः ॥ ६० ॥ चिकीर्षुरिव साहाय्य - मुपयामाय नेमिनः ॥ वसंतर्त्तुरवातारी - दक्षिणानि - लमांसलः ॥ ६१ ॥ पौरैरंतः पुरेणापि । परितः समलंकृतः ॥ अच्युतो रैवते रंतुं । जगाम सह ने मिना ॥ ६२ ॥ कोकिलानिरिवादूताः । पीतासवसमंथराः ॥ रामाभिः साईमारामं । यादवाः क्रीडितुं ययुः ॥ ६३ ॥ स्फुरत्केसरतूणीरं । कामदेवमिवार्चितुं ॥ ते पुष्पावचयं चक्रुः । सजाया वनवीथिषु ॥ ६४ ॥ हरेरादेशतः सत्य - नामाया नेमिना सद || पुष्पोच्चिचीया जग्मुर्वनमध्यं मृगेणाः ॥ ६५ ॥ कामनल्ली मित्र स्फार - माकंदतरुमंजरीं ॥ सोरःप्र
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वृत्ति
॥ १३२ ॥
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शीलोप
।। १३३ ।।
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काशनं काचि - छ्यतरन्नेमिनः करे ॥ ६६ ॥ नज्जागरूककंदर्प-रहापोहलिकामिव ॥ घम्म मल्लिकापुष्पैः । श्रीनेमेः कापि निर्ममे ॥ ६७ ॥ रजोऽपनयनव्याजा - च्छ्रीनेमेर्नयनांतरात् ॥ मधुपीव पपौ काचिदनांनोज सौरनं ॥ ६८ ॥ दर्शयंती भुजामूलं । चक्रे काचिद्विशेषकं ॥ विगलना कापि । चक्रे पत्रं कपोलयोः ॥ ६५ ॥ विकर्त्तुमनलंनूष्णुः । श्रीनेमिमिति लज्जया ॥ प्रतिक्रांते वसंतर्त्ता - वथ ग्रीष्मर्तुरागमत् ॥ ७० ॥ वापीष्वथ हरेर्जार्याः । प्रविष्टा जलकेलये || प्रजावतीनिराकृष्य । सह नीतः प्रभुः पुनः ॥ ७१ ॥ वीतव्रीमा जलक्रीडाताः सार्धं विष्णुना व्यधुः ॥ श्रीने मिस्तत्र साक्षीव । जातस्तेन धृतः करे || ७२ ॥ अथ संकेतिताः शार्ङ्ग - पाणिना रुक्मिणीमुखाः ॥ श्रीनेमिनं सशृंगारं । जलशृंगैरलेखयन् ||१३|| चिक्री नेमिनाथोऽपि । ताभिः सार्द्धमशंकितः ॥ विमुखां न हि कस्यापि । वांबां कुर्वति तादृशाः ॥ ७४ ॥ ताडिता शृंगिकांनोभिः । काचिद्दोजकुंनयोः ॥ हारलीलायितं प्राप । विकी जलबिंदुनिः ॥ ७५ ॥ विगलच्छ्री वत्सिकाः काश्चित्काचित्रुटितकंचुकाः ॥ चक्रिरे काश्वनाऽवस्त्रा । जलसेकेन नेमिना ॥ ७६ ॥ स्वयं न लिप्तो रागेण । स्वामी पुष्करपत्रवत् ॥
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वृत्ि
॥१३३॥
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शोलोप
वृत्त
॥१३॥
सरागास्ताः पुनश्चक्रे । तांबूलं चूर्णवर्णवत् ॥ ७ ॥
श्रीनेमिरथ रुक्मिण्या । दत्तहस्तावलंबनः ॥ पुष्करिण्या अवातारीत् । तीरे राजमरालवत् ॥ ७० ॥ कुकूलान्युपनिन्येऽय । प्रनोर्जीबवती मुदा ॥ गांधारी कबरीबंध । व्यधन विविधक्रम ॥ ७ ॥ कुमारं वीजयामास । रेवती सिचयांचलैः ॥ हारमारोपयामास । कंठे पद्मावती प्रनोः ॥ ॥ संवाहयंती चरणौ । सिंचंती चंदनवैः ॥ सत्यनामा सन्नामेव । कुमारमिदमाख्यत ॥ १ ॥ अज्ञानस्येव कोऽयं ते । श्रीकुमार कदाग्रहः ॥ यत्पूर्वपुरुषाची
ः । पंथा लोलुप्यते हगत् ॥ २॥ आये वयसि राजन्याः । सफलीकृतयौवनाः ॥ दारसंग्रहतः सर्वे । प्रांते व्रतमशिश्रयन् ॥ ३ ॥ तन्त्रवान नूरिसौन्नाग्यं । नियमैः पूरयन् वयः ॥ नपहास्यस्तालफला-ऽनिलाषीव न कस्य तत् ॥ ॥ इत्यादियुक्तिन्निस्तासु । ब्रुवाणासु हरि गौ ॥ त्वं बंधो माऽवमन्यस्व । कुरु प्रीताः प्रजावतीः ॥ ५ ॥ पूर्व जिनेश्वराः प्रायः
। सकलत्रा इहाऽनवन ॥ तीर्थस्य स्थापनां कृत्वा । प्रांते मुक्तिं च ते ययुः ॥ ६ ॥ सुव्र* तोऽस्मत्कुले पूर्व । नोगान् भुक्त्वाऽाददे व्रतं ॥ तत्त्वयापि कुलाचारो । न लोप्यः कुलमंडन
॥१३
॥
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हसीलोप
वृत्ति
॥१३५॥
॥ ७ ॥ इत्युक्त्वा पादयोलम्रो । नेमेः सांतःपुरो हरिः ॥ बंधोर्दाक्षिण्यतो नाथ-स्तथेति प्र त्यपद्यत ॥ ॥ श्रीसमुशिवादेव्यौ । श्रुत्वाऽन्युपगमं प्रत्नोः ॥ संदेशहारिणं दानैः । संतोष्य मुदितौ स्थितौ ॥ नए || ततोऽतिमुदितः कृष्णः । सप्रियः प्रावृमागमे ॥ विधाय न्युबनान्यस्य । समेतो ारिकां पुरीं ॥ ए॥ ___अथ योग्यां प्रन्नोः कन्या-मन्विष्यन् हरिरौच्यत ॥ सहर्षे नामया मेऽस्ति । स्वसा रा. जीमती लघुः ॥ १ ॥ तदानीं सूर्यवत्सोऽपि । ज्योतिर्बुधबलान्वितः ॥ नग्रसेनान्निधानस्य । राज्ञः सदनमागमत् ॥ ए ॥ तेनापि कुद्मलीकृत्य । करौ तस्मै सुता ददे ॥ समुविजयायाख्यत् । तदागत्य जनाईनः ॥ ए३ आहूय क्रोष्टुकिं लग्न-मपृबन्नथ सोत्सुकाः ॥ तेनोक्तं कर्म वैवाह्यं । न युक्तं शयने हरेः ॥ ए ॥ विहस्य हरिराहस्म । धिापि सबले मयि ॥ जागरूके हरौ सादा-दियं शंका कुतस्तनी ॥ एए ॥ अन्यच्च न विलंबाई । नेमेरुझा हमंगलं ॥ नालानस्तंन्नितस्यापि । विश्वस्तिमत्तदंतिनः ॥ ए६ ॥ तेनोचे श्रावणश्वेत-पष्टी शुज्ञस्ति तर्हि नोः ॥ सज्जौ जातावुग्रसेन-समुशवपि सत्वरं ॥ ए७ ॥ उन्नयोरुच्चचाराथ।
॥१३॥
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शीलोप
।। १३६ ।।
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रोहयो मंगलध्वनिः ॥ सुवासिन्यस्तदाऽानंद - मेदस्विन्योऽजितोऽमन् ॥ ए८ ॥ सरत्न तोरणा सर्व-सामग्री मंरूपादिका || मनीषितानुसारेण । देवैरेव विनिर्ममे ॥ एए ॥ लग्नासन्ने दिने कुंती - शिवाया यदुयोषितः ॥ न्यस्य सिंहासने नेमिं । प्राच्यां सोलूलगीतिकं ॥ १०० ॥ न पयामासुराश्वेव । बद्धप्रतिसरं वरं ॥ पारिणेत्राणि सिचया - न्यथ ताः पर्यधापयन् ॥ १ ॥
श्रथोग्रसेनसदने । गत्वा कन्यामसिस्रपन् ॥ मंमनाय चतुष्के च । सैरंध्यूस्तां न्यवेशयन् ॥ २ ॥ तदा राजीमती रूप-निरीक्षण पिपासिताः ॥ तस्थुर्मृगेणाः कामं । कणमुत्तानितेक्षणाः || ३ || उग्रसेनतनूजापि । तं प्राच्यज्ववल्लभं || प्राप्योत्कंगकुला कष्टं । रात्रिं तामत्यवादयत् || ४ || अधोदिते सहस्रांशौ । कृतस्नान विलेपनः । मंमितो मुक्तान्नरणैः । शुक्लध्यावैरिव ॥ ५ ॥ अवदाताडातपत्रेण । चंदेलेव निषेवितः ॥ श्रोतोज्यामिव गंगायाश्चामरात्र्यामलंकृतः || ६ || लवणोत्तारणाऽरील-नगिनीकृत मंगलः ॥ पृष्टेऽनुगम्यमानाध्वा । गोविंदाद्यैर्यदूत्तमैः ॥ ७ ॥ श्रारूढः स्यंदनं श्वेत - वाजिनं यडुरंगकृत् ॥ वरः श्रीनग्रसेनस्य | प्राप्तस्तोरामिकां ॥ ८ ॥ चतुर्भिः कलापकं ॥ सीमंते बिभ्रतीं मुक्ता स्तोमं तारावली
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वृत्ति
॥ १३६ ॥
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शीलोप०
॥ १३७ ॥
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१८
मिव ॥ निन्युर्वातायनं राजी - मतीं सख्यो विचक्षणाः ॥ ९ ॥ तस्याः स्वर्णतुलाको टि- इय संसेवितौ पदौ । नूनं पत्कजविज्ञानि - राजहंसाश्रिताविव ॥ १० ॥ सुदर्शने अपि स्वछे । एते श्रुतिनिरोधके ॥ इतीवास्या दृशौ धात्र्यां-किते कज्जलरेखया ॥ ११ ॥ एषैव जंबूद्दी पेऽस्ति । प्रधानमिति तं श्रितौ ॥ कुंमलव्याजतः सूर्यै । कपोलहलतो विधू ॥ १२ ॥ विमानमिव साSraढr | गवाक्षं जालकांतरैः || पपौ लावण्यपीयूषं । नेमेरनिमिषेणा ॥ १३ ॥ तदानीं दकिणे बाहौ । स्पंदमाने च लोचने ॥ दुर्लभं तं वरं मत्वा । विषमाऽनून्नृपांगजा ॥ १४ ॥ तां तु म्लानामिवालोक्य । वयस्याः प्राहुराकुलाः ।। को विषाद निषादस्य । प्रवेशोऽस्त्यधुना सखि ॥ १५ ॥ सापि सत्यमन्नाषिष्ट । निर्माग्या किं करोम्यहं ॥ यदानंदपदे सख्यो । दुर्नि मिमुपस्थितं ॥ १६ ॥ सखि शांतममांगल्यं । धिगिदं वचनं तव ॥ गोत्रदेव्यः करिष्यंति । सर्वतः कुशलं हि नः || १७ || जलस्थलचरा जीवा । मेलिता जोजनूभुजा ॥ कुर्वतः करुलाकंद | दृष्टा: श्रीनेमिना तदा ॥ १७ ॥
साश्चर्यमश्र पृष्टश्च । सारथिस्तथ्यमब्रवीत् ॥ देव यौष्माकमातिथ्यं । विधातुं संत्यमी
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वृत्ति
॥१३७॥
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शीलोप
॥ १३८ ॥
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घृताः ॥ १७ ॥ धिक् धिक् नीराजकं विश्वं । घिगमून निःकृपान् जनान् ॥ यदेवमशरण्या| पशूनां कुर्वते वधं ॥ २० ॥ इत्युक्त्वा करुगांकूरै - र्वपुः कोर कितं वहन् ॥ रथं संचारयामास । पशुवाटकसंमुखं ॥ २१ ॥ अपश्यन् प्राणिनोऽप्येनं । दीनवक्त्रविलोचनाः ॥ पा हि पाहीति पूच्चकुः । स्वामिनं स्वस्वभाषया || २२ || आदिश्य सारथिं जीवान | विमोच्य च नियंत्रणात् । स्पंदनं वालयामास । स्वार्थसिद्धिप्रति प्रभुः ॥ २३ ॥ अथाऽतिसंभ्रमभ्रांताः | समु विजयादयः ॥ शिवादयश्व संत्यज्य । रथान्नेमिमुपाययुः ॥ २४ ॥ श्रथैवमूचतुः पुत्रं । पितरौ सानुलोचनौ ॥ कोऽयं महोत्सवारंजे । वत्स ते विरसक्रमः ॥ २५ ॥ नंदन कश्रमस्माक - मकस्मात्क्रंदनोऽनवः ॥ तस्मात्त्वं च निवर्तेथा । मास्म कारं कृते दिप ॥ २६ ॥ सामुविदद्दीरं । तात दृष्ट्वा पशूनदं ॥ इवमात्मानमस्मा । कर्मसंचयवेष्टितं ॥ २७ ॥ तस्मातन्मोचनायादं । यतिष्ये संयमाध्वनि ॥ युष्माकं तोषकाः संति । महानेम्यादयः सुताः ॥२
श्रुत्वेति मूर्गमापन्नौ । पितरौ विधुरो हरिः ॥ स्वयमाश्वासयन् धैर्या - दवोचडुचितं वचः ॥ २७ ॥ यथा करुणया प्रातः । पशूनेतानमोचयः || पितरौ नानुगृह्णाति । तथा किम
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वृत्ति
॥ १३८ ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥१३॥
तिःखितौ ॥ ३० ॥ न काम एवास्मि । पितरौ दुःखवारिधेः । तत्कृष्ण मा मुधा मुह्य । निस्तारार्थोऽयमुद्यमः ॥ ३१ ॥ नक्त्वेति पित्रो त्रोश्च । स्वस्य व्रतमनोरयं ॥ नपेक्ष्य रुदतः सर्वान् । यदून स्वामी गतो गृहं ॥ ३२ ॥ अथ विझपयामासुः । प्रभुं लोकांतिकाः सुराः ॥ जगज्जीवहिताधार | स्वामिंस्ती प्रवर्तय ॥ ३३ ॥ देवाधीशगिरा स्वर्ग-ौंकितैर्जुनकामरैः ॥ वार्षिकं दातुमारेने । दानं नेमिर्मनीषितं ॥ ३४ ॥ ततो राजीमती मत्वा । यथेचं प्र. स्थितं वरं ॥ त्रुटिता हारवल्लीवा-ऽपतनुवि विसंस्थुला ॥ ३५ ॥ प्रापिता चेतनां शीतो-प. चारेण सखीजनैः ॥ सर्वस्वं लुटितेवासौ । विललाप मुहुर्मुहुः ॥ १६ ॥
किमर्थं ससृजे धात्रा । गर्जतो वा न किं हृता ॥ किमर्थं यौवनं प्राप्ता । दहा बाल्येsपि नो मृता ॥ ३७ ।। मदर्थ चेन्न सृष्टोऽयं । नेमिस्तद्दर्शितः कुतः॥ निधेरदर्शनं श्रेयो । न चापहृतदुःखता ॥ ३० ॥ निंदती स्वमिति प्रेम्णा । स्मरंती च प्रभुं मुहुः ।। मुमूर्ष च तथा- क्रंद-भूमीपीठे लुलोठ च ॥ ३५॥ अश्रोचुर्दुःखिताः सख्यो। व्यर्थस्तत्र तवाग्रहः ॥ यस्त्वां तत्याज निर्व्याजं । ध्रुवं सखि स नीरसः ॥ ४० ॥ रूपविक्रमसंपन्नाः । संति कत्राः सहस्र
॥१३॥
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वत्ति
शोलोपशः ॥ तरेणाऽनुरूपेण । कुर्वीथाः सफलं जर्नु ॥४१॥ अथ नृकुटीनीम-नंगिनोंजा-
र त्मजाऽवदत् ॥ श्राः पापा दूरतो यात । धिग्युष्माकमिदं वचः ॥ ४२ ॥ मनोवाल्लन्यतः स्वै॥१४ार-मकार्ष नेमिनं वरं ।। तत्कभं गजमुत्सृज्या-धारोहामि खलु रासनं ॥ ३ ॥ नेमिना पा
गिना ताव-दहं यद्यपि नादृता । तथापि जायतां सैष । धर्माचार्योऽप्यतः परं ॥४४॥ वि वाहायाऽनुरुंधाना-नुपेक्ष्य स्वजनानसौ ॥ नेमेः प्रतीक्षयामास । दीक्षाकालं पतिव्रता ॥ र नेमेर्वार्षिकदानस्या-ऽनंतरं नाववेदिनः ॥ समेत्य विदधुः शकाः । स्नानं तीर्थोदकैः प्रनोः॥
॥४६॥ नानोत्तरकुरां देवै-निर्मितां शिबिकां ततः॥ वाह्यां नृपसहस्रेण । प्रन्नुरारूढवानिमा ॥७॥ दधतुश्चामरे शक्रे-शाने परितः प्रत्नोः ॥ उत्रं सनत्कुमारोऽपि । शेषैः क्लृप्ताष्टमंगलः॥ ४ ॥ पितृमातृस्वसृञातृ-सुराऽसुरनरेश्वरैः ॥ अन्वीयमानः प्रासादा-दचालीदचलाशयः ॥ ४५ ॥ जगुमंगलगीतानि । शिवाद्या गजदादरं ॥ नातिकामंति मोहाझा । महीयां- सोऽपि कुत्रचित् ॥ ५० ॥ चारित्रलक्ष्मीमुझोढुं । यांतं तं वीक्ष्य नोजजा ॥ व्रणावलीव पौरस्त्य-वायुनाऽजनि खिनी ॥ ५१ ॥ अथ चारुमुखी तस्याः । सखी स्थित्वा प्रनोः पुरः॥
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वत्ति
शीलोप स्मारं स्मारं सखीदुःखं । सोपालंजमन्नापत ॥ ५५ ॥ लोके हि श्रूयते स्त्रीषु । चलप्रकृति
ताऽधिकं ॥ प्रतिज्ञाताऽर्थवैमुख्या-त्त्वय्येवाडाकलयामि तां ॥ ५३ ।। मुधा राजीमती मुग्धा। ॥११॥ त्वयि धूर्नेऽनुरज्यते । गृह्णासि संयमं यत्त्वं । रक्तो मुक्तिस्त्रियामथ ॥ ५५ ॥ निगृह्य नूभुजां ब लदं। जरासंधवधे तदा ॥ अहो राजसुतोछाहे । जातः सावद्यत्तीरुकः ॥ ५५ || स्वकर्मढौलकितं धन । मोचयित्वा पशवज॥ अहो कारुणिको दुःख-पायोधौ तामपातयः ॥ ५६ ॥
कनकैवत्सरं याव-विश्वं विश्वमतोषयः॥ दीनां त्वेनां न दृष्टयापि । साधु ते दानवीरता ॥ ॥ ५७ ॥ अखमेन्निरुपालन-नित्रितयवानसि ॥ जाने लग्नं च कौटिल्य-मंकशंखप्रसंगतः
इत्यादिनिंदोपालंज्नैः । स्तुतिनिर्नाषितस्तया ॥ अनाकर्णितकेनेव । नेमिरस्खलितो य. यौ ॥ एए ॥ शिबिकायाः समुत्तीर्य । सहस्राम्रवने प्रभुः॥विमुच्यानरणादीनि । कृतषष्टतपो
विधिः ॥ ६ ॥ त्रिशतीप्रमिताब्दायु-श्चित्रानहत्रगे विधौ ॥ शुक्लायां नन्नसः षष्टयां । पूर्वाह्ने *व्रतमग्रहीत् ॥ ६१ ॥ युग्मं ॥ तदा प्राउरनूद् ज्ञानं । मनःपर्ययसंझकं ॥ सुखासिका समु
त्पेदे । नारकाणामपि कणं ॥ ६ ॥ प्राब्राजिषुः सहस्रं च । नरेंज्ञः प्रभुणा सह ॥ कृष्ण
॥१४॥
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शोलोप
॥१५॥
पांमवरामाद्या । वंदित्वा स्वगृहं ययुः ॥६३ ॥हितीये दिवसे नेमे-वरदत्तहिजोकसि ॥ प- वृत्ति रमानेन संजझे । गोकुले षष्टपारणं ॥ ६ ॥ वसुधारा पुष्पवृष्टि-श्चलोत्देपो जयारवः॥-४ दुन्निध्वनिरेतानि । सदने तस्य जझिरे ॥ ६५ ॥ विहृत्य नगवान् नूमौ । चतुःपंचाशतं दिनान् । आगाश्वतकोपांत्य-सहस्राम्रवने पुनः ।। ६६ ॥ तत्राष्टमतपाः स्वामी। वेतसऽतले स्थितः । आश्विने दर्शपूर्वाह्न । प्राप्तश्चित्रासु केवलं ॥ ६७ ॥ तत्रासनप्रकंपेन । समेत्य त्रिदशेश्वराः॥ वप्रत्रयेण समव-सरणाऽरचनां व्यधुः ॥ ६ ॥ प्रतिशालं धूपघटी-तोरणध्वज. दीर्घिकाः ॥ देवचंदं मध्यशाले । साऽशोकं च सुरा व्यधुः ॥ ६॥ ॥ पूर्वक्षारात्सुवर्णाज-दत्तांहिः प्राङ्मुखः प्रभुः ॥ सिंहासनमलंचक्रे । तीर्थाय नम नच्चरन् ॥ ७० ॥ सिंहासनत्रयेऽन्यस्मिन् । कृते दिक्षु तिसृष्वपि ॥ मूर्तित्रयश्च श्रीनेमे-स्तस्थुस्तत्र सत्ता क्रमात् ॥ १ ॥
नद्यानपालकास्तत्र । गत्वा विष्णोर्व्यजिज्ञपन ॥ कोटीदिश रूप्यस्य । सास्तेिन्यो ॥१२॥ ददावसौ ॥ ७२ ॥ सर्वद्ध्या वंदितुं तीर्थ-करं हरिरुपागमत् ॥ मुंगीव मालती राजी-मत्यपि प्रहमानसा ॥ ३३ ॥ नवांधकूपतो रज्जु-देशीयां देशनां प्रत्नोः ॥ निशम्य प्रार्थयांचक्रे । व.
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शीलोप
वृत्ति
॥१४३॥
रदत्तनगो व्रतं ॥७॥ तं प्रभुर्दीक्षयामास। हिसहस्रीनृपान्वितं ॥ बहुकन्यान्वितां राजी-म- ती च समहोत्सवं ॥ ५ ॥ आजन्मस्वामिपादाज-सेवाबमनोरयां ॥ वीक्ष्य राजीमती विष्णुः । पृष्ट्वा ज्ञःस्नेहकारणं ॥६॥ धनदत्तधनदेवौ। यो पूर्वनवबांधवौ॥ मंत्री विमलबोधश्च । व्युत्वा तेऽप्यपराजितात् ॥ ७७ ॥ जाता नृपास्त्रयोऽप्यत्र । नवान् श्रुत्वा प्रसंगतः ॥ प्र. पन्ना जातवैराग्या । दीक्षां प्रभुपदांतिके ॥ ७ ॥ तैः साई वरदत्ताद्या । एकादश गणाधिपाः ॥ स्थापितास्त्रिपदी प्राप्य । हादशांगान्यसूत्रयन् ॥ ए ॥ दशा रुग्रसेनेन । प्रद्युम्नाद्यैः सुतैः समं ॥नेजे श्रावकतां रामः । सम्यक्त्वं पुनरच्युतः ॥ ७० ॥ शिवारोहिणीदेवक्यो । रुक्मिण्यादिस्नुषान्विताः ॥ प्रनोः पार्थे विवेकिन्यः। श्राधम प्रपेदिरे ॥१॥ एवं चतुर्विधे संघे । जातेऽनूदाद्यपौरुषी॥हितीयस्यां पौरुष्यां च । गणनर्ममब्रवीत् ॥ २ ॥ कृष्णाहतबलेरई। तत्राडादायि सुरैर्दिवि ॥ अई विन्नज्य लोकेन । राझ्या च जगृहे भुवि ॥ ३ ॥
यको गोमेधनामासी-त्रिमुखो नरवाहनः॥ सिंहयाना तु कुष्मांडा । देवी शासनरक्षिका ॥ ॥ प्रातीहार्यैः कृताश्चर्यै-हृद्यैरतिशयैः सह ॥ विजदार हरन्पापं । नगवानव
॥१३॥
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शीलोप
॥ १४४ ॥
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नीतले ॥ ८५ ॥ श्रनार्येष्वपि देशेषु । लोकाऽलोकप्रकाशकः ॥ जगदुज्जीवयन् स्वामी । नः व्यलोकानबोधयत् ॥ ८६ ॥ अष्टादश सहस्राणि । बभूवुर्व्रतिनां प्रज्ञेोः ॥ चत्वारिंशत्सहस्त्राणि । यहियादितपोधनाः ॥ ८७ ॥ श्रावकाणामनूल्लक्षं । नवषष्टिसहस्रयुक् ॥ श्रादीनां त्रिलक्ष्ये कोन - चत्वारिंशत्सहस्त्र्यपि ॥ ८८ ॥ साईं सहस्रमवधि - मतां केवलिनामपि ॥ - पि वैक्रियलब्धीनां । संख्यैकैव पृथक् पृथक् ॥ ८५ ॥ चतुःशती चतुर्दश- पूर्विणां वादिनां पुनः ॥ अष्टशती सदस्रं तु । मनःपर्ययिणामनूत् ॥ ए ॥ पृथ्वीं विहरतो नेमे - राकेवलदिनावधि ॥ एतावानेव संपन्नः । श्रीमान् संघश्चतुर्विधः || १ || विद्यमाने अप्युपेक्ष्य । व्रतज्ञानश्रियौ जिनः ॥ श्रीनेमी रैवतेऽन्यागा- हुवुर्षुर्मुक्तिवल्लनां ॥ ९२ ॥
तत्रत्यदेशनां श्रुत्वा । केचित्सम्यक्त्वमैयरुः ॥ प्रव्रज्यां केऽपि केचिच्च । श्रादधर्मं प्रपे दिरे ॥ ए३ !! सार्द्धं तत्र मुमुक्षुणां । षटूत्रिंशैः पंचभिः शतैः ॥ पादपोपगमं प्राप । मासं संन्यासमास्थितः || ४ || आषाढधवलाष्टम्यां । स्वामी चित्रागते विधौ ॥ सिद्धिसीमंतिनीवक्षः-स्थलाऽलंकारतामगात् ॥ ९५ ॥ जाताः प्रद्युम्नशांबाद्याः । कुमारा मुक्तिनाजनं ॥ श्री
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वृत्ति
॥ १४४ ॥
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शीलोप
॥१४५॥
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नेमेर्भ्रातरः कृष्ण - महिष्योऽन्ये च साधवः ॥ ए६ ॥ राजीमत्यपि मुक्तात्मा । साध्वी गणमहत्तरा ॥ श्रदं नेमिना प्राप । न वंध्यप्रार्थना जिना || एउ || बाद्मस्थ्ये वत्सरं तस्थौ । गेहे वर्षचतुःशतीं ॥ पंचवर्षशतीं राजी -मती केवलशालिनी ॥ ए८ ॥ चतुर्थं प्रापतुः कल्पं । पितरौ जिननेमिनः । प्रापुर्वैमानिकी लक्ष्मीं । दशार्दा अपरेऽपि च ॥ एए ॥ श्रब्दानां त्रिशती बाब्ये | बाद्मस्थ्ये केवले पुनः ॥ शतानि सप्त सर्वायुः । सहस्रमिति नेमिनः ॥ १०० ॥ अतीतैः पंचनिर्वर्ष-लदैः श्रीनेमिमुक्तितः ॥ जाता श्रीनेमिनः सिद्धि-विंशस्य जिनेशितुः ॥ १ ॥ निर्माय शिबिकां नेमे-र्धनदेन सुरेश्वरः ॥ तत्रान्यर्च्य जिनस्यांगं । निदधौ विधिवत्स्वयं || २ || गोशीर्षचंदनैः कृत्वा । चितां नैशत्यमंडले || विमुक्ता शिबिका तत्र । वह्निं वह्रिसुरा व्यधुः || ३ || अज्वालयन् वायुसुराः । शमयामासुरव्दपाः ॥ वासवा जगृहुर्दंष्ट्राः । शेषास्थानि सुरव्रजाः ॥ ४ ॥
वस्त्राणि भूमिपैर्भस्म । सुजनैराददे मनोः ॥ अंतकृत्यं तु साधूनां । शेषाणां निर्मितं सुरैः ॥ ५ ॥ निर्वाणभूमौ श्रीनेमे-चक्रे शक्रेण मंरुपः || वज्रेण लिलिखे नाम । शिलायां
૧૯
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वृत्ति
॥१४५॥
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वत्ति
होलोपरैवताचले ॥६॥ नारकिणामपि कपमहानंदोमि निर्मापकं । कृत्वा नेमिविनोर्यथोक्तवि-
धिना निर्वाणकल्याणकं ॥ सनत्याऽष्टदिनानि शाश्वतजिनानन्यर्च्य नंदीश्वरे । जग्मुः स्वा॥१५॥ स्पडमादृतप्रभुगुणाः सर्वेऽपि देवेश्वराः ॥ ७ ॥ छं यथा नेमिजिनेन राजी-मती विमुच्याऽ.
नवाऽनुरक्तां ॥ अनुत्तरां कोटिमवापि शीलं । तथा विधेयं नविनाऽनुवेलं ॥७॥
इति श्रीरुपल्लीयगचे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां श्रीझीलोपदेशमालावृत्तौ शीलतरंगिण्यां श्रीनेमिचरित्रे राजीमतीपरिहारप्रभुनिर्वाणगमनो नाम चतुर्थः सर्गः समाप्तः ॥ श्रीरस्तु ॥
शीलपालनमेव दृढयवाह
॥ मूलम् ॥-सिरिमल्लिनेमिपमुहा । साहीसिवावि बनवयलीणा ॥ ज ता कि ममजीवा । सिढिला संसारवसगावि ॥ ४० ॥ व्याख्या-यदि तावत्स्वाधीनशिवा अवश्य तनवमोक्षगामिनोऽपि श्रीमल्लिनेमिप्रमुखा व्रतलीनाः पाणिग्रहणं परित्यज्य ब्रह्मचर्यमेव निषेवितवंतः, तदा संसारवशगा नवव्यापारपरायत्ता अन्यजीवा अपरे सामान्यप्राणिनः किं
॥१६॥
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शीलोप
॥ २४७ ॥
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शिथिलाः ? शीलपालने किमर्थं दृढादरा न जवंति ? तद्भवसिद्दिगामिनोऽपि यदि शीलमनुशीजयंति तदा संसारमग्नः सामान्यजीवैः सिद्धिफलार्थ विशेषेण शीलं पालनीयमित्यर्थः । ४ मल्लिकोनविंशस्तीर्थकरः, नेमिस्तु द्वाविंशः, तच्चरित्रं प्रागुक्तमेव. श्रीमल्लेस्तूच्यते, तथाहि
यदककलशो दत्ते | कल्याणं दर्शनादपि ॥ नेमुषां जव्यजीवानां । स श्रीमल्लिजिनः ये || १ || प्रत्यग्विदेहे श्रीजंबू - द्वीपस्य महिमानिधेः ॥ विख्यातो जगदूर्जस्वी । विजयः सलिलावती ॥ २ ॥ तत्रास्ति नगरी वीत-शोका कलिमलोप्रिता || यद्देश्ममणिनिः शक्रकार्मुकश्रीर्धृता दिवि ॥ ३ ॥ तत्र शास्ति बलो राजा । राज्यं प्राज्यपराक्रमः ॥ यद्यशःपुरुपं स्रष्टुं । दलिकानीव तारकाः || ४ || तस्यास्ति बल्ला नाम्ना । धारिणी शीलधारिणी ॥ घरिणीतो गुणैः कैश्वि-युक्तं मात्राधिकास्ति या ॥ ५ ॥ तयोः शौंकीर्यशार्दूलः । सूनुर्नाना महाबलः ।। क्रमेण यौवनं प्राप । विश्वस्त्रैणवशौषधं ॥ ६ ॥ अथ पंचशतीः कन्याः । चतुःषष्टिकलान्विताः ॥ महोत्सवैर्महानंदा - स पित्रा पर्याय्यत || ॥ वैश्रमणानिचंशख्यौ । धरणः पूरणो वसुः ॥ अचलश्चेति मित्राणि । षडमून्यस्य जज्ञिरे ॥ ८ ॥ तैः साईम वियुक्तो -
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वृत्ति
॥ १४७ ॥
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शोलोप
ऽसौ । षट्कायैर्जीवलोकवत् ॥ चिक्रीम नानाक्रीमानिः । स्वोचितान्निरशंकितः ॥ ए॥ वि. वनि नीतविनयः काले । कलाचार्यस्य सन्निधौ ॥ मित्रावल्या षमंग्येव । युक्त एवाददे कलाः ॥ ॥१०॥ धर्माचार्यस्य सामग्री-मव्यग्रं प्राप्य कर्हि चित् ॥ तपोन्निरिव तैरेवा-ऽन्वितः फलवती व्यधात् ॥ ११ ॥ क्रीडालोलतया मित्रैः । साई दुर्ललितस्थितिः ॥ विजहार पुरारामवापीषु सरसीषु च ॥१२॥ प्रापउद्यानमन्येद्युः । ससैन्यो बसनूपतिः ॥ शानिनं प्रवराचार्य । तत्र दृष्ट्वाऽन्यवंदत ॥ १३॥ ___ महात्मापि च योग्यं तं । ज्ञात्वा सहजवत्सलः ॥ मेघगंजीरया वाचा । विदधे धर्मदेशनां ॥१४! अज्ञानमृगतृष्णांधाः । प्राणिनो नवकानने ॥ भ्रमंति मृगवत्कामं । सुखत्रांतिपि
पासिताः ॥ १५ ॥ धन्यास्तृणवत्सृज्य । नवं दुःखसहस्रदं ॥ स्वर्गापवर्गदां जैनी । दीक्षा-2 * माददति मुदा ॥ १६ ॥ श्रुत्वेत्यचिंतयज्ञजा । दीक्षां कहीकरोम्यहं ॥ किं तु राज्यधुरं धर्नु। ॥॥ *न कमोऽद्यापि मे सुतः ॥ १७ ॥ इत्यादि चिंतयंत तं । पुनर्मुनिरुपादिशत् ॥ जैत्रे कर्मबले
केयं। चिंता जागर्ति ते हृदि ॥ १० ॥ शैशवं यौवनं वापि । वृहत्वं वा न कारणं ॥ किंतु पू.
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शीलोप
॥ १४५॥
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वर्जितं कर्म । सुखदुःखफलप्रदं ॥ १२७ ॥ तिरश्वामशरण्यानां । रागादिव्याकुलात्मनां ॥ मुक्त्वैकं प्राक्तनं कर्म । कोऽपि नो शरणं वने ॥ २० ॥ तत्तवापि वृथा चिंता । सूनो राज्य
1
घृतौ ॥ सर्वेऽपि प्राणिनोऽवश्यं । स्वकृतं कर्म भुंजते ॥ २१ ॥ किंचायुर्वायुसंग्राम्य-दश्ववदलचंचलं ॥ यौवनं विद्युदुर्जस्वि । शरीरं कणनश्वरं ॥ २२ ॥ प्रेम दर्जोदकस्म । विजवा अपि न ध्रुवाः || तस्मादात्महितं कार्यं । कोऽपि न क्वाऽपि कस्यचित् ॥ २३ ॥ ततो वीतविकल्पात्मा । वैराग्यैकतरंगितः ॥ श्रामण्यमुररीचक्रे । द्विधा शिक्षा विचक्षणः ॥ २४ ॥ तपसाऽष्टापि कर्माणि । पयित्वा क्षमापतिः ॥ प्रांते केवल मुत्पाद्य । मुक्तेः शृंगारतामगात् ॥ २५ ॥ सुमुहूर्ते ततोऽमात्य - सामंताद्यैर्महाबलः ॥ स्थापितः पैतृके राज्ये । यथावच्च तदन्वशात् || १६ || महाबलमहीपालः । षनिर्मित्रैर्बलैरिव ॥ अवियुक्तः प्रजां शास्ति । प्रतापत्रासिताऽहितः || २७ || देवी कमलवत्याख्या । तस्य सर्वागसुंदरं ॥ असूत समये पुत्रं । प्राचीव रविमंडलं ॥ २८ ॥ महद्धर्ज्या कारयित्वा च । सूनोर्जन्ममहोत्सवं ॥ द्वादशाऽध तस्य । बलन इति व्यधात् ॥ २७ ॥ स प्राप परमां प्रौढिं । सर्वांगीणश्रिया सह ॥ पांच
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॥ १४९॥
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शीलोप०
॥ १५०॥
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जन्य इवांनधौ । पुरुषोत्तमसंश्रयः ॥ ३० ॥ ततः शस्त्रेषु शास्त्रेषु । पारीणः श्रीमहाबलः ॥ यौवराज्ये पदे सूनु-मनिषिक्त महौजसं । ३१ ॥ तस्मिंश्च राज्यकार्येषु । यतमाने नयात्मनि || कृतकृत्यः स्वयं राजा | जिनधर्मोद्यतोऽनवत् ॥ ३२ ॥ दानशीलतपो जाव- शास. नोत्सर्पणादिनिः ॥ विदधे सफलं जन्म । धर्मकत्यैरनारतं ॥ ३३ ॥ श्रन्येद्युर्विज्रमांतैः । सेव्यमानं जडैर्जनैः ॥ दृष्ट्वा पाखंमिनं कंचिद्दध्याविति महाबलः ॥ ३४ ॥ धन्याः कर्मैव जा नानाः । शुभाशुभफलायति ॥ मुनयस्तारयंतीह । स्वं परं च जवांबुधेः ॥ ३५ ॥ धिक् धिकू पाखंमिनो व्याधा | मंत्रतंत्रादिगीतिनिः ॥ जवपाशे मूढजीवान्र । पातयंति मृगानिव ॥ || ३६ || निर्विवेकोपकारादि-धर्मानासप्ररूपकाः ॥ मूढाः स्वं वचयंतीदा-डावर्जतो मूढधार्मिकान् ॥ ३७ ॥
इत्यादिजववैराग्यैः । शुद्धधर्मैक बधीः ॥ सोऽन्यपिंचत्सुतं राज्ये । स्वयं संयमकाम्यया ॥ ३८ ॥ पार्श्वे श्रीवीरधर्माख्य-गुरोर्मित्रसमन्वितः । जग्राह दीक्षामहीण-भावतः श्रीमदाबलः || ३९ || सप्ताऽपि मुनयस्तेऽथ । जयप्रतिज्ञटा इव ॥ चारित्रं पालयामासुः । क
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॥ १५०॥
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वृत्ति
शीलोपाष्टकजिगीषया ॥ ४ ॥ तपोनिः सर्वतोल-सिंदनिकीमितादिन्तिः ॥ कर्माणि कृपयामा-
सुः। शिवश्रीस्पृहयालवः ॥ १ ॥ सुविशिष्टफलाकांक्षी। तपस्वी स महाबलः ॥ तपःप्रां॥११॥ तेऽपि नाकार्षी-पारणं रोगदंनतः ॥ ४२ ॥ महाबलर्षिः कुर्वाणो । विशिष्टां स तपःक्रियां
बबंध मायया स्त्रीत्व-महो मोहविनितं ॥ ३ ॥ विंशत्या स्थानकैरई-प्रत्यायैर्विधिवयस कृतैः ॥ तीर्घकृनामकर्मत्वं । स नजस्वितयाऽर्जयत् ॥ ४ ॥ चतुर्जिरधिकाशीति-पूर्वलक्ष
मितायुषः ।। विधायाऽनशनं प्रांते । सप्तापि मुनिसत्तमाः ॥४॥ जातास्ते वैजयंताख्ये । विमानेऽनुत्तरे सुराः॥ सागराणां त्रयस्त्रिंश-दायुर्लवमिवाऽनयन् ॥ ४६ ॥ युग्मं ॥
इतश्च जंबूदीपस्य । केलीगेहे किल श्रियः ॥ दक्षिणे जरते देशो । विदेह इति विश्रुतः ॥४७॥ तत्र पूरस्ति मिथिला । वीक्ष्य यस्याः समृद्धितां ॥ नवंति शिथिलाः स्वर्ग-वासाय त्रिदशांगनाः॥ ४० ॥ नूपः श्रीकुंलनामास्ति । तत्रेक्ष्वाकुकुलोनवः ॥ यशःकुंन श्वा
नाति । यस्य व्योनि सुधारुचिः॥४ए । प्रनावतीति तस्याऽनू-शझी शीलविनूषिता॥ अ यस्या गुणौघसंख्याने | तारा रेखा श्वाहावभुः ॥ ५० ॥ महाबलस्य जीवोऽय । वैजयंतवि
॥१५॥
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वृत्ति
E
शोलोप मानतः ॥ ज्ञानत्रययुतो यवन् । सुखं नारकिणामपि ॥ ५१ ॥ अश्विन्यां फाल्गुनश्वेत-चतु-
Jथ्यो रजनीनरे ।। राजहंस श्वांनोजे । देव्याः कुकाववातरत् ॥ ५५ ॥ युग्मं ॥ महाबलन॥१५ वे माया । यक्ष्यधायि तपस्यपि ॥ तेन तीर्थकरत्वेऽपि । स्त्रीत्वेनासावजायत ॥ ५३ ॥ नि.
शांते महिषी वीक्ष्य । महास्वप्नांश्चतुर्दश ॥ उल्लसत्पुलंकाकूरा । निशमुज्ञममुंचत ॥५॥ गत्वाख्यत नरेंस्य । देव स्वप्नाश्चतुर्दश ॥ गजादयो मया वक्ते । प्रविशंतो निरीक्षिताः ॥ ॥ ५५ ॥ फलं कीहक् तदेतेषां । स्वामिन् नावीति कथ्यतां ॥ राजापि मुदितः स्वांते । राझीमिछमन्नाषत ।। ५६ ॥ एतैर्देव महास्वप्नै-महालानो नविष्यति ॥ प्रवर्दियामहे कोश-कोष्ठागारैः समंततः ॥ ५७ ॥ सुखेन साधयिष्यते । उस्साध्या अपि शत्रवः ॥ संन्नाव्यंते च नाविन्य । उत्तरोत्तरसंपदः ॥५॥
किं च त्वं समये पूर्णे । शुन्नलकणलक्षितं ॥ कुलप्रदीपकं धीर-मपत्यं प्रसविष्यसि ॥ पए ॥ पत्युर्वचनमाकर्य । कर्णपीयूषपारणं ॥ सा निनाय निशाशेषं । धर्मजागरणोद्यता ॥६॥ त्रिदशैः सततोपास्या । सह नर्तृमनोरथैः ॥ बन्नार महिषी गर्ने । निधानमिव मे
॥१५॥
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वृत्ति
शीलोपदिनी ॥ ३१॥ यदियेष महीपालः । कर्म पुंसवनादिकं ॥ तदा कारयितुं तच्च । चक्रे शक्रा-
K दिग्निः स्वयं ॥ ६॥ गर्नपोषकरैस्तैस्तै-विहाराहारकर्मतिः ॥ देशकालोचितैर्गर्ने । सा पु॥१५३॥ पोष यथासुखं ॥६३ ॥ तृतीये मासि संजातः । शुनगर्लानुन्नावतः ॥ दोहदो माल्यशय्या
या-स्तस्या देवैरपूर्यत ॥ ६ ॥ अथ मार्गस्य शुभैका-दश्यामश्विनिगे विधौ ॥ तेजोऽपास्तप्रदीपानां । सर्वांगीणसुलक्षणां ॥ ६५ ॥ तानीलनीलांगीं । कुंनलांउनलक्षितां ॥ सुषुवे तनयां राझी । प्राच्यर्कप्रतिमामिव ॥ ६६ ॥ युग्मं ॥ कणं नारकिजीवाना-मपि जाता सुखासिका ॥ तेजःपुंजैरिवालीढ-मजनिष्ट तदा जगत् ॥ ६७ ॥ प्रकाशतां दिशः प्राप्ता । वदुर्वाताः सुखावहाः ॥ आनंदमेधुरं चाऽन-द्योगिचित्तमिवाऽखिलं ॥ ६॥
इतश्चाधोनिवासिन्यः । सद्यः प्रचलितासनाः ॥ कुमार्योऽष्टाववधिना । ज्ञात्वा जन्म जिनेशितुः ॥ ६ए । सयानाः सपरीवारा । निजकृत्यचिकीर्षया ॥ तत्रागत्य नमश्चक्रु-जिनं च जिनमातरं ॥ ७० ॥ युग्मं ॥ जगन्मातर्न नेतव्य-मित्युदीर्य सन्नक्तिकं ॥ स्वात्मानं ज्ञापयंत्यस्ताः । स्थाने पूर्वोत्तरे स्थिताः ॥ १ ॥ विधाय स्तंनसंयुक्तं । प्राङ्मुखं सूतिकागृहं ॥ च
॥१५॥
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शीलोप
॥ १५४॥
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क्रुः संवर्त्तवातेन । शुद्धमायोजनावधि ॥ ७२ ॥ ऊर्ध्वलोकनिवासिन्यो ऽप्यष्टावाशाकुमारिकाः ॥ समेत्यासनकंपेन | कनकाचलशृंगतः || ३ || अभिषिच्य सुगंधांबु - वर्षेला डायोज नावनिं ॥ विधाय पुष्पवृष्टिं च । गुणान् जैनानगासिषुः ॥ ७४ ॥ पौरस्त्यरुचकाशिस्था । अप्यष्टौ दिक्कुमारिकाः || प्राच्यां समंगलारावा-स्तस्थुरादर्शपाणयः ॥ ७५ ॥ श्रष्टावपाच्यरुचका-दागता दिक्कुमारिकाः ॥ गायंत्यो दक्षिणाशायां । तस्थुर्मृगारपाणयः ॥ ७६ ॥ प्रत्यग्रुचकतोऽप्यष्टौ । एत्य व्यजनपाणयः ।। पश्चिमे च स्थिता मातु-र्जिनस्य च गुणान् जगुः || ७७ !! नदीच्यरुचकादिस्था । अष्टावेत्य कुमारिकाः ॥ उत्तरेल स्थिता गेयं । चक्रुश्चामरपाणयः ॥ ७८ ॥ विदिग्रुचकशैलस्था-श्चतस्रश्च कुमारिकाः ॥ गायंत्योऽस्थुदपदस्ता । ईशानादिविदि स्थिताः ॥ ७९ ॥ चतस्रो रुचकछीपा - दन्येत्याशाकुमारिकाः ॥ धरियां विवरं कृत्वा | नाजिनालं निचिदिपुः ॥ ८० ॥ प्राग्दक्षिणोत्तराशासु । जिनजन्मगृहादथ || रंजागृहत्रयं चक्रु- श्वतुःशाल विराजितं ॥ ८१ ॥ सिंहासनत्रयं तत्र । प्रत्येकं च विचक्रिरे || अ क्रमेण तान्यस्य । जिनं तत्र सदांबया ॥ ८२ ॥ लक्षपाकेन तैलेना-ऽन्यंनंजुस्तौ सुगंधिना ॥
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वृत्ति
॥१५४॥
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वृत्ति
शीलोप० नर्त्य स्पयित्वा चा-ऽमृजनंगानि वाससा ॥ ३॥ दृष्ये आमोचयामासु-स्तयोरानरणा-
पनि च ॥ गोशीर्षचंदनैरेता । अश्रो होमं वितेनिरे ॥ ४ ॥ नस्मना तेन ते चक्रू-रक्षापोट्ट॥१५५॥ लिकां प्रनोः॥ कर्णी ते वादयामासु-राश्मनौ गोलको मिश्रः ॥ ५ ॥
इति नक्तिक्रमं कृत्वा । ववल्गुननृतुश्च ताः॥ जगुमैगलगीतानि । गुणांश्च परमेशितुः ॥ ६ ॥ तदानी शाश्वतीर्धेटाः । स्वर्गेषु निनः समं ॥ हृदयैः सममिंशणा-मासनानि च. कंपिरे ॥ ७॥ अयो मनः समाधाय । सौधर्माधिपतिः कणं । विज्ञायाऽवधिना जन्म । जै. नं घंटामवादयत् ॥ ॥ तन्नादतः सावधानी-नूतास्त्रिदशकोटयः ॥ सेनानीवचसा शकपार्श्वे सर्वेऽप्यमीमिलन् ॥ नए || तत्कालं पालकेनापि । क्लृप्तमिछानुगामुकं ॥ लकयोजन
विस्तार-मंताणिक्यपीटिकं ॥ ए॥ पंचयोजनशत्युच्चं । विमानं पालकान्निधं ॥ आरुरोद २. हर। रूपं विधायोत्तरवैक्रियं ॥ १ ॥ युग्मं ॥ अदभ्रदंऽन्निध्वान-बधिरीकृतदिङ्मुखः । स
मं समग्रसामग्र्या । प्रतस्थे मिथिलांप्रति ॥ ए ॥ गत्वा दीपेऽष्टमे नंदी-श्वरे रतिकराचले ॥ नपक्रमैरिवायुष्कं । विमानं स समक्षिपत् ॥ ए३॥ एकोनविंशती|श-जन्मगेहमश्रागतः
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वनि
शोलोप० ॥ परीत्य सूतिकागेई । त्रिननाम जिनं च सः ॥ एच ॥ पुनर्नत्वा सुराधीशो। जिनं च जि-
नमातरं । देवीं प्रनावती मूर्ध्नि । बशंजलिरत्नापत ॥ ए ॥ रत्नकुके जगन्मात-नमस्तुभ्यं ॥१५६॥ कृपावति ॥ पुत्रिणीषु धुरीणासि । त्वमेव भुवनत्रये ॥ ए॥
म जिनस्यैकोनविंशस्य । जन्मोत्सवविधित्सया ॥ प्रागतोऽहं न नेतव्यं । नवत्येत्यवदत्तया दा || ए७॥ देव्याः सपरिवाराया । दत्वाऽवस्वापिनी हरिः॥ श्रीमन्मलेः प्रतिबंदं । मातुः पाचे निवेश्य च ॥ ए॥ स्वामिनं सममेवाहं । पंचकल्याणकाश्रयं ॥ सेवामीतीव शक्रेण
पंचधात्मा व्यधीयत ॥ ए॥ युग्मं ॥ गोशीर्षचंदनालिप्ते । जग्राह करसंपुटे ॥ प्रभुमेकेन रूपेण । निधानमिव ऽर्गतः ॥१०॥ पृष्टतश्चैकरूपेण । पिंकीकृत्येव तद्यशः॥ दधार स्वामि
नो मूर्ध्नि । श्वेतमातपवारणं ॥१॥ पार्श्वयोर्मूर्तियुग्मेन । भुवनेशे स्पृहावती ॥ श्रोतसी श्व * गंगाया-श्वामरौ दुधुवे हरिः ॥२॥ पुरतः पुनरेकेन । वजमुखालयन ययौ ॥ पितुरने वि.
शेषार्थी । कूर्दमान श्वार्नकः ॥ ३ ॥ अतिपांडुकंबलायां । शिलायां कनकाचले ॥ निषसाद निजोत्संग-शृंगारीकृततीर्घकृत् ॥ ४ ॥ तत्रैवासनकंपेन । त्रिषष्टिरपरेऽप्यत्र ॥ अच्युताद्याः
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शीलोप
॥ १५७ ॥
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सुराधीशाः । समीयुः स्वस्वनिः ॥ ५ ॥ श छात्रिंशदकें । विंशतिर्भुवनाधिपाः ॥ दश वैमानिकाः शक्राश्चतुःषष्टिरिहाऽमिलन् || ६ || विचित्रैः कलशैस्तीर्थो - दकपूर्वैर्महर्दिजः ॥ नांदीविद्यमानानि - जिननाश्रमतिस्त्रपन् ॥ ७ ॥
विकृत्य पंच रूपाणि | स्वांके जिनमधारयत् ॥ अथेशानस्ततः स्नात्रं । सौधर्माधितिर्व्यधात् ॥ ८ ॥ जिनस्नात्रोदकं देवैर्जगृहे सिद्धचूर्णवत् ॥ लगितं तत्तदंगेषु । महार्थानरादिवत् ॥ ९ ॥ उन्मृज्य गंधकाषाय्या | चंदनाद्यैर्विलिप्य च ॥ दिव्यवासोभिरन्यर्च्य | मुकुटं मूईनि व्यधात् ॥ १० ॥ न्यधत्त कर्णयोः स्वर्ण - कुंडले त्रिजगत्पतेः ॥ दिव्यमुक्तालतां कंठ - कंदलेऽय न्यवीविशत् ॥ ११ ॥ अंगदे भुजयोर्न्यस्ते । वलये मणिबंधयोः ॥ कटीदेशे कटीसूत्रं । न्यधात्किं किलिकाकुलं ॥ १२ ॥ माणिक्यकटके स्वामि- पादयोर्निहिते तदा ॥ परI स्परस्य शोनायै | मंडनान्यन्नवन् विनोः || १३ || अभ्यर्च्य दामभिः कृत्वा । कल्पमिव जंगमं ॥ रूप्यलाजैर्मणिपट्टे । लिलेखाग्रेऽष्टमंगलीं ॥ १४ ॥ आरात्रिकमश्रोत्तार्य । सौधर्मैः पुरः प्रज्ञोः ॥ नृत्यमानासु देवीषु । स्वयं संगीतकं व्यधात् ॥ १५ ॥ स्तुत्वा च शक्र ईशा
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॥ १५७ ॥
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शीलोप
॥ १५८॥
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नो-संगतो रंगमेडुरः || विकृत्य पंचधात्मानं । जिनं पूर्ववदाददे || १६ || त एव च सुराशाः । सर्वेऽपि सपरिचदाः ॥ गत्वा नंदीश्वरेऽष्टाह्नीं । विधाय स्वास्पदं ययुः ॥ १७ ॥ सौधशः पुनः सूति-गेहं गत्वा जिनाधिपं ॥ व्यमुंचज्जननी पार्श्वे-स्वापिनीं संजहार च ॥ १८ ॥ दुकूलयुगलं चैकं । मनोरुकेऽमुचत् ॥ न्यधत्त जक्त्या तत्रैव । रत्नकुंडलयामलं ॥ १५ ॥ विचित्र स्वर्णरत्नाढ्य - मेकं श्रीदामगंरुकं ॥ प्रनोत्रविनोदाय । विताने निदधौ दरिः ॥ २० ॥ अथो पुरंदरादेशा- धनदः कुंनवेश्मनि ॥ ववर्ष देमरत्नानां । कोटी त्रिंशतं पृथक् ॥ २१ ॥ यद्यत्सुडुर्लनं लोके । यच्च सौख्यविधायकं ॥ स्वामिक्त्या नृपागारे । तत्तत्सर्वमपूपुरत् ॥ ॥ २२ ॥ जिनस्य जिनमातुश्च । यो दुष्टं चिंतयिष्यति ॥ तस्याऽर्जकमंजरीव - द्विदलिप्यामि मस्तकं || २३ ॥
माघोषयदेवै-र्वज्रपाणिर्जगत्रये ॥ जिननर्त्तुरथांगुष्टे । पीयूषं समचारयत् ॥ २४ ॥ क्षीरपानं वपुः स्नानं | मंरुनक्रीमने तथा ॥ अंकधात्री च पंचापि । धात्र्यस्तस्थुः सुरांगनाः ॥ ॥ २५ ॥ ततो नंदीश्वरे प्राच्य - दिशि श्री अंजनाचले || शाश्वताऽष्टाह्निकां कृत्वा । शक्रोऽग
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वृत्ति
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शीलोप
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वागतः ॥ २६ ॥ दृष्ट्वा विभूषितां कन्यां । महिषी हर्षनिर्जरा ॥ तं देवेंादिसंपातं । सविस्मयतयाऽस्मरत् ॥ २७ ॥ श्राकर्ण्य कुंननूपोऽपि । तत्सर्वं मुदिताशयः ॥ पुत्रेभ्योऽप्यधिकं तस्या । जन्मोत्सवमचीकरत् ॥ २८ ॥ सप्तांगेष्वपि राज्यस्य । दृष्ट्वा वृद्धिमनुत्तरां ॥ - जन्मनि प्रभूतानि । तुष्टिदानान्यदापयत् ॥ २५ ॥ नवगुप्तेरसावेव । ध्रुवं मुक्तिं करिष्यति ॥ इतीव सूनृतादिष्टः । कारामोक्षस्तदाऽखिलः ॥ ३० ॥ युक्तं कुंजनृपोऽकार्षी- निर्देशां पृraj तदा ॥ यन्मोक्षति वर्द्धमाना | दंड त्रयमसावपि ॥ ३१ ॥ वृद्धिहेतुरसावेव । कन्या सकलसंपदां ॥ इतीव सर्वमानानां । वृद्धिमाज्ञापयन्नृपः ॥ ३२ ॥ एषैव मोहनिशयाः । कर्त्री जागरण क्रियां ॥ इतीव कारयामास । षष्टीजागरणोत्सवं ॥ ३३ ॥ एकादशाहे सन्मान्य । ज्ञातिवर्ग महर्द्धितः ॥ माल्यदोहदतश्चक्रे । तस्या मल्लिरिति प्रथां || ३४ ॥ देवी जिलब्यमा| मनोवांछित लिभिः ॥ ववृधे कल्पवल्लीव | नंदनोद्यानमध्यगा || ३५ ॥ कर्मकयोपशमाच्या - मुपाध्यायाऽनपेक्षया ॥ आविरासन कलाः सर्वा - स्तस्या न्यासीकृता इव ॥ ३६ ॥ पंचविंशतिचापच्चा । पुण्यलावण्यनिर्जरा ॥ श्री मल्लिः प्राप तारुण्यं । ज्ञानत्रयपवित्रिता ॥ ३७ ॥
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वृत्ति
॥ १५॥
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शोलोप
वन
पण
इतश्च नरतेऽत्रैव । श्रीमत्साकेतपत्तने ॥ वैजयंतादवातारी-जीवः श्रीअचलस्य सः॥ ॥ ३० ॥ प्रतिबुधिरितिख्यात-स्तत्रैव स नृपोऽजनि ॥ प्रिया पद्मावतीत्यस्ति । तस्य प्रेमवर तीतरां ॥ ३५ ॥ अन्यदा नागयात्रायै । गतः क्वापि प्रियायुतः ॥ पुष्पमुजरमशकी-त्पुष्पमं. मपिकां च सः॥०॥ एतद् क्ष्यं प्रियां तां च । स निरीक्ष्य मुहुर्मुहुः ॥ रत्नत्रयमिदं लोके । प्रशंसां व्यतनोदिति ॥ १ ॥ श्रुत्वा सुबुझिनामा त-न्मंत्री नृपतिमब्रवीत् ॥ देव कोऽत्र मदोऽयं ते । बहुरत्ना वसुंधरा ॥ ४॥ यादृशी कुंजनूपस्य । मल्लिसंज्ञास्ति कन्यका ॥ न कापि दृश्यते तादृग् । रूपरेखा जगत्रये ॥३॥ जाने स्वसृष्टरुत्कर्ष-दिदृक्षायां कुतूहली ॥ वेधाः ससर्ज तामेव । मल्लिं माल्यमिव स्त्रियां ॥४॥ श्रुत्वेति प्राग्नवारूढ-जागरूकाऽनुरागतः ॥ प्रजिघाय वरीतुं तां । दूतं कुंलनृपांतिके ॥ ४५ ॥ व्युत्वा धरणजीवोऽपि । वैजयंतविमानतः ॥ बनूव पृष्टचंपायां । चंचायानिधो नृपः ॥ ४६॥ श्रेष्टी तत्र नयानिख्यो । जिनधर्मसुनिश्चलः ॥ वणिज्यायै यानपात्र-मारुरोह स चाऽन्यदा ॥ ७ ॥ जिनधर्मस्थिरत्वेऽस्य । प्रशंसाऽकारि वत्रिणा ॥ तत्रैकस्त्रिदशस्तस्य । न सेहे ताममर्षतः ॥४७॥ अवती.
॥१६॥
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शीलोप
॥ १६२ ॥
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र्य गतनोधौ । चक्रे तत्पोतमाकुलं || अब्रवीच्च सुरस्तस्य । धर्मस्थैर्य परीक्षितुं ॥ ४९ ॥ - परित्यज्य | यदि मां श्रयते भवान् ॥ तारयामि तदा पोतं । पश्यामुं मग्नमन्यथा ॥ ॥ ५० ॥ को नाम गत्वरप्राण - त्राणमात्रकृते सुधीः ॥ जहाति जैनं श्रीधर्मं । परत्रेद च शर्मदं ॥ ५१ ॥
इत्यादिनिः परीक्षानि - ईष्टसत्त्वस्य तस्य सः ॥ प्रत्यकीनूय देवेंद - श्लाघा संबंध माख्यत ॥ ५२ ॥ अमोघदर्शना देवा । जवंतीति मुदा वदन् ॥ दिवं गतो वितीर्यास्मै । स कुंमलचतुष्टयं ॥ ५३ ॥ केमेलोत्तीर्य पाथोधिं । नयोऽपि मिथिलां ययौ ॥ प्रानृते तत्र कुंजस्य । कुंद ददौ ॥ ५४ ॥ तदागतायै श्रीमलि - कन्यायै च नृपो ददौ ॥ क्रयाणकादि विक्रीय । - ष्टी चंपामधासदत् ॥ ५५ ॥ चंञ्चायनृपायादा-वेषं तत्कुंडलयं ॥ पप्रच सोऽपि तल्लाजवृत्तांतं विस्मिताशयः ॥ ५६ ॥ नयस्ततो यथावृत्त - कथारंभप्रसंगतः ॥ चक्रे कुंनतनूजायाः । श्रीमले रूपवर्णनं ॥ ५७ ॥ दर्श दर्श मया स्वामिंस्तस्या रूपमनन्यजं ॥ दृष्टव्यदर्शनात्तत्र । नयने सफलीकृते ॥ ५८ ॥ श्रकार्य प्राक्तन स्नेह - मोदतः सोऽपि सत्वरं ॥ स्वदूतं मेष
રા
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वृत्ति
।। १६१ ॥
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शोलोप यामास । वरीतुं कुंनकन्यकां ॥ ५ ॥ च्युतः पूरणजीवोऽपि । श्रावस्त्यां वैजयंततः॥ रु- वति
क्मिनामाऽनवजा । धारिणी तस्य वजन्ना ॥६० ॥ अन्यदा निजकन्याया। रूपमुहीक्ष्य ५ ॥१६॥ विस्मितः ॥ स कंचुकिनमप्रादी-दके देशांतराऽागतं ॥३१॥ मत्पुच्या यादृशं रूपं । विनू.
तिश्च विलोक्यते ॥ तादृशी कापि चेद् दृष्टा । तदा वद ममाग्रतः॥१२॥ देव स्वेबानुकूलत्वे । यथाबंदमुदीर्यते ॥ गुणाऽगुणविशेषस्त-न्मध्यस्थैरवबुध्यते ॥ ६३ ॥ मनोरागेण मन्यते । दोषा अपि गुणा इव ॥ पक्षपातमनादृत्य । चेहिशेषोऽवधार्यते ॥ ६ ॥ तदा शृणु म. हीनाथ । मिथिलायां महापुरि ॥ यादृक् कुंनसुतामल्लि-रूपं न क्वापि तादृशं ॥५॥ त्रिनिर्विशेषकं ॥
सौनाग्यादिविनूतिश्च । यादृक् तस्यां विलोक्यते ॥ देवीष्वपि न सा क्वापि । शेषयो. हषासु का कथा ॥ ६ ॥ श्रुत्वा तत्कालमुत्नाल-प्राक्प्रेमनरनिरा ॥ तदर्थं नृपकुंनांते । स्वं ॥१६॥ मदूतं विससर्ज सः ।। ६७ ॥ व्युत्वाऽथ वसुजीवोऽपि । वाराणस्यां महापुरि ॥ शंखनामाऽन
वद्भूपः । स्तूपः किल जयश्रियां ॥ ६॥ खलचित्नमिवाऽन्येद्यु-नने ते मलिकुंमले ॥ ददौ
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वृत्ति
शीलोपी सुवर्णकाराय । समारचयितुं नृपः॥६५॥ सोऽप्याह देव नो दिव्य-वस्तु संधातुमीश्वरः॥
J ततो निर्वासितो राज्ञा । गतो वाराणसीमसौ ॥ ७० ॥ राजानं दृष्टुमन्येद्यु-र्मध्ये राजसन्नां ॥१६३ ॥
ययौ ॥ देशाश्चर्यकथां पृष्टो । मल्लिरूपमवर्णयत् ॥७१ ॥ श्रुत्वा सोऽपि पुरान्यस्त-शस्तस्नेहवशंवदः ॥ दूतं संप्रेषयामास । तस्या वरणहेतवे ॥ ७२ ॥ जीवो वैश्रमणस्यापि । च्युत्वा श्रीवैजयंततः ॥ अदीनशत्रुनामासी-जा श्रीहस्तिनापुरे ॥ ३ ॥
एकदा मल्लिसोदर्यो । लघुर्मल इति श्रुतः ॥ वैदेशीयश्चित्रकृति-चित्रशालामचित्रयत् ॥ ७० ॥ एकश्चित्रकरस्तेषु । देवतावरलब्धिमान् ॥ दृष्ट्वैकदेशं सर्वांग-रूपचित्रक्रियादमः॥ ॥ ५ ॥ मल्लोऽपि कर्हि चित्तत्र । प्रविष्टश्चित्रशालिकां ॥ मल्लिं सादादिव ज्ञात्वा । व्यावृत्तः सहसा हिया ॥ ७६॥ श्रीमवेश्चरणांगुष्टं । कदाचिजालकांतरे ॥ स दृष्ट्वा चित्रयामास । त पं च यथास्थितं ॥ ७॥ धात्री सम्यनिरीक्ष्याथ । निजगाद कुमारकं ॥ चित्रप्रतिकृतौ वस । वृथा ब्रांतोऽसि ग तत् ॥ ७० ॥ कुपितः पाणिं संदेशं । बेदयित्वाथ तस्य सः॥ म. लश्चित्रकरं स्वीय-देशतो निरवासयत् ॥ ७॥ ॥ नमन् देशांतराण्येष । गतः श्रीहस्तिनापुरं
॥१३॥
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शीलोप
॥ १६४ ॥
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॥ समये मल्लिरूपं चा- दीनशत्रुपुरोऽवदत् ॥ ८० ॥ तदा पूर्वजवोदय - रागमन्नमना नृपः ॥ शिब्यमिव ध्यायन् । प्राहिणोद् दूतमात्मनः ॥ ८१ ॥ अचिंस्य जीवोऽपि । च्युतः श्री वैजयंततः ॥ जितशत्रुरिति क्ष्मापः । श्रीकांपील्यपुरेऽनवत् ॥ ८२ ॥ कापि पाखंडिनी क्ति । धर्म शुद्धांतयोषितां ॥ जिगाय मल्लिकन्या तां । विवादे धर्मगोचरे || ३ || निर्गता मितिः सा । कांपियनगरेऽगमत् ॥ श्रीमल्ले रूपमाचख्यौ । जितशत्रुनृपातः ॥ ८४ ॥
पुरातननवोन्मील- दनुरागतरंगितः ॥ सोऽपि तहरणाय स्वं । दूतं प्रैषीत्तदंतिके ॥८५॥ श्रीमन्मल्लिरपि प्राज्य-स्नेहतः प्रार्थनाश्चताः ॥ विज्ञायावधिना तेषां । मित्राणां प्रबुभुत्सुनां ॥ ८६ ॥ स्वसौधमध्यगाऽशोको - धानगर्भगृहेऽन्यदा || पीठं निर्मापयामास । रत्नौघरुचितां बरं ॥ ८७ ॥ तत्र हेममयीं स्वस्य । मूर्त्तिं रत्नविकस्वरां || स्वर्णज्ञोज पिधानां च । तालुतिइे न्यधापयत् ॥ ८८ ॥ तादृग्रत्ननिवेशेन । स्पष्टिताऽवयवावली ॥ विज्ञैरपि सजी वेव । ज्ञायते या विलोकनात् || ६ || सौधे च जालकाकीर्णे । कपाटावलिमालितं ॥ श्रीमल्लः कारयामास । हारषट्कमुदारधीः ॥ ५० ॥ प्रतिमापृष्टगे कुड्ये । बिदं निर्माप्य मेघया ॥ सर्वा
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॥ २६४॥
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शीलोपog
॥ १६५ ॥
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दारमयीं पिंडी । तेन द्वारेण नित्यशः ॥ १ ॥ प्रक्षिप्य प्रतिमातालु - देशस्थ विवरांतरे ॥ स्वबुज पिधानेन । सा रंध्रे पिदधौ पुनः ॥ ९२ ॥ ॥ युग्मं ॥ सामपि नरेंझणां । ते दूताः कुंजनूपतेः ॥ ययाचिरे विवाहाय । तेषां मल्लिं तनूनवां ॥ ९३ ॥ युष्मादृशानां सौजाग्यैर्न हार्य मत्सुतामनः ॥ इति तेनापि दूतास्ते । निरस्ताः स्वास्पदं ययुः ॥ ए४ ॥ तेऽपि दूतोदितं श्रुत्वा । क्रुद्धा मंत्रमिति व्यधुः ॥ प्राग्वाऽन्यासतो धावत्प्रीतिसौदाईमेराः ॥ ९५ ॥ श्रास्तां सौभाग्यलावण्य-नाग्योत्कर्षपरंपराः ॥ व्योम्नोऽपि पतिता तावत्कन्याऽवइयं पतिंवरा ॥ ए६ ॥ परमन्यत्र रक्तोऽसौ । नैवास्माकं प्रदित्स्यति ॥ प्रसह्य परिशेष्यामस्तस्मादेनामितीया ॥ ए७ ॥ सर्वानिसारैः संभूय । क्रोधजंगिनंगुराः ॥ मिश्रिलां रुरुधुः प्राच्य - कर्माली शरीरिणं ॥ ए८ ॥ किं कर्त्तव्यतया मूढ-मथ कुंजमहीपतिं !! प्रत्युत्पन्नमतिर्मलि - बाण ललितस्वरं ॥ एए ॥ तातामीषां नरेंझणां । तथाऽज्ञापय सांप्रतं ॥ त्रागति विश्वस्ताः । सायमेकाकिनो यथा ॥ २०० ॥ श्रागताश्च प्रवेश्यास्ते । सौवर्णप्रतिमागृहे ॥ युगपत् षट्सु द्वारेषु । षडपि व्याप्तमन्मथाः ॥ १ ॥ तथा कृते समेतास्ते । तत्पा
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॥ १६५ ॥
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॥ १६६ ॥
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ग्रहइया ॥ साक्षान्म लिमिवालोक्य । प्रतिमां तां हिरण्मयीं ॥ २ ॥ लोलनेला मुदापूर्णा । यावतिष्टंति विस्मिताः । तावता तालुदेशस्थं । तत्विधानं व्यपोहितं ॥ ३ ॥
ततो दौर्गध्यमत्युग्र - मकस्माज्जुंनितं तथा ॥ यथा स्फुटितनासाव - दजायंत पराङ्मुखाः || ४ || तदानीं मल्लिनाथेन । जाषितास्ते महीभुजः ॥ दुर्गंधो हेममय्या - प्येतस्या यदर्जुन ॥ ५ ॥ तन्मलाविलदेहायां । मयि वः काऽनुरागिता । किंपाकफलमादातुं विवेकी कोऽनुमन्यते ॥ ६ ॥ युग्मं ॥ विषया हि विषाकारा - स्ततो वाऽप्यधिका इमे ॥ विषमेकनवं दंति । विषया जवसंततिं || ७ || चलाक्षा स्त्री तु मंत्रीव । पातयेनवकानने ॥ शिवाध्वनीनः कस्तस्मात्तां बुधो बहुमन्यते ॥ ८ ॥ यौवने पवनोत्ताले । शरीरे व्याधिपंजरे ॥ का नाम विषयाकांक्षा | विज्ञातजवसंविदां ॥ ए ॥ इवं श्री मल्लिनाथेन । प्राग्जवप्रथनेन च ॥ बोधिताः षडपि प्रापुस्ते जातिस्मरणं कृणात् ॥ १० ॥ व्यजिज्ञपंश्च तामेव । त्वमग्रेगा पुरे च नः ॥ जव येन जवोवित्यै । प्रतिपद्यामहे व्रतं ॥ ११ ॥ श्रीमन्मतिरपि प्राह । संजाते केवले मम || अवश्यं चरणप्राप्ति-विता जवतामपि ॥ १२ ॥ श्रुत्वेति गाढं संविग्न-मन
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वृति
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॥ १६७॥
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स्कास्तु मनोहराः ॥ कमयित्वा तदा मनिं । जग्मुर्भूपा यथाऽागताः || १३ |
ततो वर्षशतेऽतीते | जन्मतो मल्लितीर्थः ॥ लोकांतिकसुरैरेत्य । विज्ञप्तः समयोचितं ॥ १४ ॥ जगज्जनैकजीवातुं । प्रजो तीर्थं प्रवर्त्तय ॥ इत्युक्त्वा पंचमं कल्पं । ययुर्लोकांतिका ऽमराः ॥ १५ ॥ सुरैरादौ कितं इव्यं । त्रिकराजपथादिगं ॥ तत्सांवत्सरिके दाने श्रीमन्मविरदापयत् ॥ १६ ॥ शुक्लायां मार्गशीर्षस्यै-कादश्यां दस्रगे विधौ || त्रिशत्या स्त्रीणां राज्ञां च । सहिता संयमार्थिनां ॥ १७ ॥ श्राताड्यमानैर्वादित्रै - गीयमानैश्च गीतकैः ॥ बंदिक्लृप्तजयावा | दिव्यालंकारनासुरा ॥ १८ ॥ नरा मरे संवाह्या - मारूढा शिबिकां ततः प्रियमासिता | वीज्यमानप्रकीर्णका ॥ १२५ ॥ सहस्राम्रवने गत्वा । श्रीकं केली तरोस्तले ॥ शिfare वा । विमुच्याानरणानि च ॥ २० ॥ पूर्वे वयसि पूर्वाह्ले | देवदूष्यपरिग्रहा ॥ कृताऽष्टमतपा मल्लिः । प्रात्राजित्सिइसादिकं ॥ २१ ॥ पंचभिः कुलकं ॥ सामायिकपदोच्चार-समनंतरमेव च ॥ मनःपर्ययमुत्पेदे । संकेतितमित्र कलात् ॥ २२ ॥ निदाघधर्मतप्तस्या –ऽध्वगस्येव पश्रद्रुमः || जिनदीका सुखायाऽनू-कणं नारकियामपि ॥ २३ ॥ तस्मिन्नेव
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वृत्ति
॥ १६७ ॥
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॥ २६० ॥
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दिने घाति-कर्मसमुद्रवं ॥ उत्पेदे केवलं ज्ञानं । मल्लेत्रैलोक्यबोधकं ॥ २४ ॥ श्रासनान्यकंपंत । वासवानां समंततः ॥ प्रणेदुः स्वर्गलोकेषु । घंटा दूता इव स्वयं ॥ २५ ॥ सौधमधिपतिर्लक- योजनां प्रथितां तनुं ॥ कृत्वैरावणमारुह्य । समेतस्तत्र वेगतः ॥ २६ ॥ श्र न्येऽपि सपरीवारा | देवेंश अच्युतादयः ॥ अहंपूर्विक योत्कंठा - निर्जराः समुपाययुः ॥ २७ ॥ भूमिमायोजनं वायु- कुमारा ममृजुस्तदा || गंधांबुवर्वैरासिंचन । जक्त्या मेघकुमारकाः ॥ ॥ २८ ॥ बबंधुर्वसुधां रत्नै-तराः सत्त्वराशयः ॥ विचक्रुर्मणिमाणिक्यैः । पांचालीस्तोरणानि च ॥ २९ ॥ ध्वजाः श्वेतातपत्राणि । तदवश्चाष्टमंगली ॥ विचित्तयः समग्राश्च । तत्र तैरेव चक्रिरे ॥ ३० ॥ श्रद्यं रत्नमयं वप्रं । तत्र वैमानिका व्यधुः ॥ निर्मितो मलिनितुंगः । कपिशीर्षसमुच्चयः || ३१ ॥ कनकैर्मध्यप्राकारं । ज्योतिष्केंश विनिर्ममुः ॥ रतैश्च कपिशीर्षा| मुकुटानीव श्रियः ॥ ३२ ॥ तृतीयो राजतो वप्रो । विदधे जवनाधिपैः ॥ अंबुजानीव हैमानि । कपिशीर्षाणि तत्र च ॥ ३३ ॥ गोपुराणि च चत्वारि । प्रतिवप्रं चकासिरे ॥ चतुःप्रकारधर्मश्री - विवाहायेव मंडपाः || ३४ ॥ प्रतिद्वारं धूपघट्यो । दीर्घिकाश्च सपंकजाः ॥
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वृत्ति
॥ १६८॥
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शीलोप
वृत्ति
॥१६॥
मध्ये समवसरणं। चैत्यऽयंतरैः कृतः ॥३५॥ तदधो विदधे पीठं । तदूर्ध्वं बंदकं पुनः॥ म. ध्ये सिंहासनं तस्य । प्राङ्मुखं स्थापितं प्रनोः ॥ ३६ ॥ रत्नत्रयमिव त्र-त्रयं तस्योपरि व्यधुः ।। दध्राते चामरौ तत्र । यक्षाच्या पार्श्वयोः पुनः ॥ ३७॥
समवसृतेरेऽश्र | धर्मचक्र वितेनिरे ॥ हितीयवप्रे विश्रांत्यै । देवबंद प्रत्नोः पुनः ॥ ॥ ३० ॥ पादौ न्यस्य पयोजेषु । देवकोटीनिरावृतः ॥ पूर्वधारेण समव-सरणं प्राविधिभुः ॥ ३५ ॥ कृत्वा प्रदक्षिणां चैत्य-तरोस्तीर्थ प्रणम्य च ॥ मलिः सिंहासन नेजे । मेरुशृंगमिवांबुदः ॥ ४॥ अन्यास्वपि त्रिसंख्यासु । दिक्षु सिंहासनस्थितं ॥ व्यंतरैः स्थापयांचक्रे । प्रतिबिंबत्रयं विनोः॥ १ ॥ नाममलं शिरः पृष्टे । प्रनोराविर्बनूव च ॥ संगताः प्रभुसेवायै । पुजला श्व तेजसः ॥ ४२ ॥ दध्वान दुंदुन्नियो नि । प्रतिशब्द श्व प्रनोः॥ एक एव वि. भुर्विश्व-इतीवो/कृतो ध्वजः ॥ ३ ॥ जानुनी पुष्पवृष्टि-विचित्रा शुशुनेतरां ॥ त्रस्यत्कदपहस्ताग्र-स्रस्तसायकांवेभ्रमा ॥ ४ ॥ आसीनासु यथास्थानं । सन्नासु त्रिदशाधिपः ॥ कृतांजलिपुटः श्रीम-मल्लिं स्तोतुं प्रचक्रमे ॥ ४५ ॥
॥१६॥
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शोलोप
॥१७॥
अशरणनरगणशरणदचरण । करणसदनसमयतसमकरण ॥ अमलकमलदलवरकरचर- वृत्ति । जननमरणनवनयचयहरण ॥ ४६॥ नवनयकवलनकलकलकदन । नयशततततम. शशधरवदन ॥ अमरखचरनतरसमयसमय । तर शमनवरतमनयद सदय ॥४७॥ अनवममतधर मददवदहन । कपटहननकर शमधनन्नवन | सकलजगदवन नवगदशमन । सजलजलदरवजयकरवचन ॥ ॥ अमरणपदरत सततममदन । गणधरनतपद गजवरगमन ॥ मदनरघनतमघनचयपवन । धवलरदन जय जय नयमथन ॥ ४५ ॥ श्चमेकस्वरस्तुत्या । स्तुत्वा मल्लिजिनेश्वरं ॥ निषसाद सुराधीशो । दत्तदृष्टिर्जिनानने ॥ ५० ॥ प्रतिबुद्ध्यादिन्नि
पैः। सहितः कुंनन्नूपतिः ॥ प्रदक्षिणय्य नत्वा च । मल्लि पुर नपाविशत् ॥५१॥ श्रीमलिरपि सर्वांगि-नाषाऽन्तिपरिणामिनीं ॥ देशनां प्रभुराचख्यौ । नववैराग्यकारणं ॥ ५५ ॥ प्र.) बुझः प्रतिबुद्ध्याद्या । नरेश अन्नजन् व्रतं ॥ श्रीमान् कुंननरेंशेऽपि । श्राइत्वं प्रत्यपद्यत १७011 ॥ ५३॥ त्रिपदीं प्राप्य येगानि । हादशापि कणाध्यधुः॥ जाता गणधरास्तेऽष्टा-विंशतिनिषगादयः॥ ५४॥
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शीलोप
वृत्ति
॥११॥
पादेन प्रहरे पूर्णे । श्रीमत्कुंनेन नूभुजा ॥ बलिः कलमशालीना-माढकोन्मित आह- - तः ॥ ५५ ॥ प्रवाद्यमानैर्वादित्रैः । पूर्वधारात्प्रवेशितः ॥ देवमस्त्रिरुक्षिप्तो । गगने च वि.
नोः पुरः ॥ ५६ ॥ तस्याई जगृहुर्देवा । अप्राप्तं धरणीतले ॥ अईस्याई नृपोऽगृह्णा-उषं सामान्यमानवाः ।। ५७ ॥ कणमात्रमपि प्राप्तं । बलेरामयनाशकृत् ।। षण्मासावधि सर्वे ते । तत्संग्रहपरायणाः ॥ ५७ ॥ तद् हितीये दिने जातं । परमानेन पारणं ॥ विश्वसेनगृहे तत्र । पंच दिव्यानि जझिरे ॥ ५५ ॥ श्रीमन्मल्लिविनोस्तो! । हस्तियानश्चतुर्मुखः ॥ यक्षः कुबे
रनामाहासी- जाष्टकविनूषितः ॥ ६ ॥ दक्षिणास्तत्र वरदा-ऽजयप त्रिशूलिनः॥ वामाश्च - मातुलिंगाऽक्ष-सूत्रमुजरशक्तिकाः ॥ ६१ ॥ तस्य शासनदेवी च । वैरोट्याख्या चतुर्भुजा ॥
वामे शक्तिमातुलिंगे । दक्षिणे वरमालिके ॥ ६॥ चत्वारिंशत्सहस्राणि । साधवो मल्लिदी. क्षिताः ॥ साध्वीनां पंचपंचाश-सहस्राणि च संख्यया ॥ ६४ ॥ साष्टषष्टिः सप्तशती। श्री. चतुर्दशपूर्विणां ॥ अवधिज्ञानिसाधूनां । धाविंशतिशतानि च ॥ ६५ ॥ शतान्यासन सप्तदश । सपंचाशन्मनोविदां ॥ शतन्यूना त्रिसहस्री । वैक्रियहिनृतामपि ॥ ६६ ॥
॥१७॥
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शीलोप
॥ १७२ ॥
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चतुर्दश शतानि स्यु- र्वादलब्धिनृतामपि । श्रशीतिश्च सहस्राणि । लक्षमेकमुपासकाः ॥ ६७ ॥ युक्तं सप्ततिसादस्या | लक्ष्त्रयमुपासिकाः ॥ सामस्त्येन परीवारो । ज्ञेयः श्रीमलिशासने || ६८ || संसेव्यौ देवकोटी जिः । श्रीचतुर्विधसंघयुक् ॥ श्रीमन्मलितीर्थेशः । पुनास्मि वसुंधरां ॥ ६५ ॥ कौमारं व्रतपर्याया-वधि कृत्यव्यवस्थितं । सर्वायुः पंचपंचाश - साहस्री शरदामपि ॥ ७० ॥ प्रत्येकं साधुसाध्वीनां । पंचशत्या समन्वितः ॥ मासं याव कृतप्रायो । गत्वा संमेतपर्वते ॥ ७१ ॥ भरण्यां फाल्गुनश्वत- द्वादश्यां शुक्ललेश्यया ॥ एकोनविंशस्तीर्थैशः । श्रीमलिममासदत् ॥ ७२ ॥ तत्रैवासनकंपेन | विज्ञायाऽवधिना पुनः ॥ समीयुर्वासवाः सर्वे । मोहोत्सव विधित्सया || १३ || कां नारकिजीवानामपि दत्तसुखासिकं || निर्माय मोक्षकल्याणं । ते निर्मायिशिरोमणे || ४ || दंष्ट्रा दंतास्तथाऽादायि । निरुपश्वताकृते ॥ गत्वा नंदीश्वरे दीपे । चक्रुरष्टाहिकोत्सवं ॥ ७५ ॥ युग्मं ॥
ततः स्वस्वविमानेषु । मालवस्तंनमूर्द्धनि ॥ न्यधुर्वज्रसमुद्रेषु । जर्त्तुर्दंष्ट्राः शिवार्थिनः ॥ ७६ ॥ सहस्रे वर्षकोटीना - मरतीर्थकृतो गते ॥ श्रीमन्मविजिनेशस्य । मोक्षप्रातिरजायत
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वृत्ति
॥ १७२ ॥
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वृत्ति
शीलोप ॥3॥ स्त्रीत्वेऽप्यहो शेषजिनातिशायि । तीकरश्रीसुलगन्नविष्णु ॥ शीलोज्ज्वलं मल्लिवि-
J नोश्चरित्रं । शृण्वंतु साश्चर्यहृदो मुनीशः ॥ ७० ॥ श्वं यथा शीलमवश्यमोदा-ऽनिगामु॥१३॥ कोऽपि प्रभुमल्लिनाथः ॥ प्रपालयामास तथाऽविरामं । नव्येन निर्व्याजतया निषेव्यं ॥ण
इति श्रीरुपल्लीयगछे नट्टारकश्रीसंघतिलकमूरिपट्टाऽवतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां शीलोपदेशमालावृत्तौ शीलतरंगिण्यां श्रीमल्लिजिनचरित्रं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ॥
प्रमुखशब्देन येऽन्ये महात्मानो गार्हस्थ्यमनादृत्य प्रश्रमवयस्येव दीक्षां जगृहुस्ते ग्राI ह्याः, गार्हस्थ्ये शीलदृढतादृष्टांतावन्निधाय गृहीतचारित्रस्य तदायमाह
॥ मूलम् ॥–सो जयन झूलनदो । अच्छेरयकारिचरियपरियरिन ॥ जस्सज्जवि बनवए जयंमि वजे जसढक्का |॥ १ ॥ व्याख्या-आश्चर्यकारि चरितपरिकरितः स स्थूलनशे जयतु, स श्रीआर्यसंनूतिविजयशिष्यः सर्वोत्कर्षेण वर्त्तता, पूर्वभुक्तकोशावेश्यागृहे षट्विकृत्या- दारनिरतस्यापि तादृक्शीलपालनरूपं यद् आश्चर्यकारि चरितं चारित्रं, तेन परिकरितः कृता शोना यस्य, तस्य श्रीशकडालसूनोरद्यापि बहुसमयाऽतिक्रमेऽपि जगति त्रैलोक्ये ब्रह्मव्रते
॥१३॥
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गोलोप
वृत्ति
॥१७॥
शीलपालने जयढक्का कंदर्पनूपकटकजयारंनसूचका नेरी वाद्यते शब्दायते कामजेतृत्वात् तत्तादृग्युवीरतया कविनिर्वर्ण्य ते. इति गाथासमुदायार्थः, नावार्थः संप्रदायगम्यः, स चाय
अस्तीह नारते वर्षे । पाटलीपुरपत्तनं ॥ यच्चैत्यकलशा नक्तं । बिभ्रते नानुवित्रमं ॥१॥ तत्र क्लुप्तप्रजानंदो । नंदनामा महीपतिः ॥ यत्कीर्त्तिनर्तकी तुंग-नववंशेषु नृत्यति ॥२॥ शकडालस्तस्य मंत्री । यन्मतिनामितो ध्रुवं । वाक्पतिर्भ्राम्यति व्योनि । वक्रातीचारविनमैः ॥ ३ ॥ लक्ष्मीवतीति तत्पत्नी । सपत्नीव श्रियो गुणैः ॥ यदार्जवकलाहीणा । श्व मृग्यो वनं श्रिताः ॥॥ तत्कुक्तिशुक्तिमुक्तानः । स्थूलन्नज्ञान्निधः सुतः॥हितीयः श्रीयकान्निख्यो । नंदचित्तानिनंदनः ॥ ५ ॥ तत्र कोशानिधानायां । वेश्यायां काममोहितः॥ निनाय क्षणवस्थूल-नशे हादशवत्सरी ॥ ६ ॥ श्रीयको नंदनून -रंगरक्षणदक्षिणः ॥ विश्वासन्नाजनं जझे । स्थाने सेवा हि कामदा ॥७॥ हिजो वररुचिस्तत्र । ददो वाग्मी महाकविः ॥ का. व्यैः स्तौति नृपं शश्व-दष्टोत्तरशतेन सः ॥ ॥ वैधर्मिकत्वात्त मंत्री । श्लाघते न कदाचन ॥ नृपोऽपि न ददौ किंचि-द्यतः परमुखा नृपा ॥ ५ ॥
॥१४॥
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शीलोप
वृत्ति
॥१७
॥
अथोपायंविदा तेना-वर्जिता मंत्रिवल्लना॥ वशाबलेन साध्यते । गजा अपि मदोत्क- टाः ॥ १० ॥ नार्योक्त्या शकडालोऽपि । तर्णनममन्यत ॥ को वा न भ्राम्यते स्त्रीनिः। कराग्रेग घरदृवत् ॥११॥ काव्यानि पठतोऽन्येद्यु- पाग्रे च हिजन्मनः ॥ अहो मधुरता मूतेः । प्रशशंसेति धीसखः ॥ १२॥ नृपस्ततोऽस्मै दीनारान् । ददावष्टोत्तरं शतं ॥ स्पष्टं परप्रयोज्या हि । तिर्यंच इव नभुजः ॥१३॥ नित्यं वितीर्यमाणेऽस्मै। दाने मंत्री निराकरोत् ॥ राजाह त्वत्प्रशंसैव । कारणं दानकर्मणि ॥१४॥ मंन्यूचे परकाव्येषु । कार्या श्लाघाSस्य कीदृशी ॥ तदा तु वर्णितः काव्य-गुण एव न चाऽपरः ॥ १५ ॥ राजोवाच पुरात्मायं। निर्माल्येन स्तवाति मां ॥ नज्यंते हि सुखेनैव । नृपा आमघटा इव ॥ १६ ॥ बालिका अप्यधीयाना-स्तदुक्तां काव्यसंतति ॥ श्रावयिष्यति ते प्रात-रित्युक्त्वा सचिवाग्रणीः ॥१७॥ एकहिच्यादिवेलायां । श्रुतं काव्यादिकं क्रमात् ॥ समीः पठितुं सप्त । स्वपुग्यो बालपंकि- ताः ॥ १७ ॥ विप्रं पातयितुं जीव-मिव संसारसागरे । स्थापिता नीतय इव । सर्वा यवनिकांतरे ॥१५॥ त्रिनिर्विशेषकं ।।
॥१५॥
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शीलोप
॥ १७६ ॥
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यक्षा च यदत्ता च । नूताश्रो नूतदनिका ॥ सेला वेला च रेला च । नामतोऽमूः प्रकीर्त्तिताः ॥ २० ॥ विप्रेण गणितां नव्यां । श्रुत्वा काव्यावलीं तदा ॥ यथाज्येष्टमभूः प्रोचुः | सरस्वत्य इत्र स्फुटं ॥ २१ ॥ नृपोऽपि रुष्टो नादत्त । तुष्टिदानं दिजन्मने ॥ न तथा सुकरं किंचिद् । घटनं जंजनं यथा ॥ २२ ॥ अथ गंगाजले न्यस्य । व्यग्रंथिं स वारुवः ॥ प्रातर्यत्रप्रयोगेण । जग्राह स्तुतिपूर्वकं ॥ २३ ॥ इवं च विदधानेन । तेन विस्मापितं जगत् ॥ के के न विप्रतायैते । धूर्तैर्बाह्यदृशो जनाः ॥ २४ ॥ मंत्री तत्कूटमज्ञासी - चरचारप्रयोगतः || न सुखं शेरते बुद्धिमतः संनिहिते रिपौ ॥ २५ ॥ धनमानाय्य तत्कूटा-दन्येद्युर्थी - सखः प्रगे ॥ कौतुकं दृष्टुमुत्सुक्तं । स निन्ये तत्र भूपतिं ॥ २६ ॥ सिद्धसिंधुमय स्तुत्वा । धीरं वररुचिः कविः ॥ श्राचकर्ष द्रुतं यंत्र । नोत्पपात धनं पुनः ॥ २७ ॥ तावता पश्यतां नृणां ॥ जातो वैलक्ष्यनाजनं । प्रवेष्टुमिव पातालं । हिया नम्रशिरा बनौ ॥ २८ ॥ वयं नाऽन्यस्य गृह्णीम – स्तनृहाण घनं निजं ॥ इत्युक्त्वा सचिवस्तस्मै । व्यग्रंथिं च दत्तवान् ||२|| दत्तेन ग्रंथिना सर्व-समक्षं मंत्रिणा तदा || गंगायां मंक्तुमप्यैव - दास्तां प्रत्युत्तरक्रमः ||३०||
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वृत्ति
॥ १७६ ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥१७॥
मंत्रिणाऽन्निहिते तस्य । स्वरूपे नूपतेः पुरः ॥ साधु साधु त्वया बुझ-मित्यमात्यं जगौ नृ- पः ॥ ३१ ।। अथ सर्प श्व विज्ञ-ऽन्वेषी वररुचिहिजः ॥ तच्चेट्यादिकमप्रादी-न्मंत्रिमंदिरचेष्टितं ॥ ३२ ॥ विवाहे प्रस्तुतेऽन्येयुः । श्रीयकस्य स मंत्रिराट् ॥ असज्जदस्त्रबत्रादि । नृपो. पायनहेतवे ॥ ३३ ॥ तत् श्रुत्वा मंत्रिदातीतः । शीतार्त श्व कंबलं ॥ सुखादिकान्निरावर्ण्य । बालकरित्यघोषयत् ॥ ३१ ॥ न वेत्ति मूढो लोको य-कडालः करिष्यति ।। हत्वा नंदनृपं राज्ये । श्रीयकं स्थापयिष्यति ॥ ३५ ॥ इति कंदुकवद्वालाः । कूईमानाः पदे पदे ॥ निःशं. कं जुघुषुः काले । शालिकेत्रे शुका इव ॥ ३६ ॥ यदाहुर्बालकाः स्वैरं । यदंति च योषितः
॥ आकस्मिकं च यशाक्यं । तत्प्रायो न मृषा नवेत् ॥ ३७॥ विमृश्यति नृपः प्रैषी-प्रती. । त्यै तगृहे चरान् ॥ तेऽप्यागत्य यथादृष्टं । नृपतेः पुरतोऽवदन ॥ ३० ॥ श्रुत्वा शस्त्राहातपया त्राश्व- सामग्री कोपपंकिलः ॥ गुणश्रेणेः प्रमादीव । विश्वस्तेरस्खलन्नृपः ॥ ३ ॥
ततः प्रातः प्रणामेऽपि । मंत्रिणोऽनूत्पराङ्मुखः ॥ ज्ञात्वा तच्चित्तमेषोऽपि । रहः श्री. यकमन्यधात् ॥ ४० ॥ वत्स केनापि उष्टेन । मयीशः कोपवान कृतः ॥ तदुत्पातः कुले -
॥१७॥
२३
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वृत्ति
शोलोप स्माक-मकस्मादयमुचितः ॥ १ ॥ तस्माजीवाम्यहं याव-त्तावन्नायं निवर्तते ॥ नृपं प्रण-
I मतस्तन्मे । प्रातवेद्यं शिरस्त्वया ॥ ४२ ॥ सोऽवोचदीदृशं कर्म । किं म्लेवोऽपि विधित्स॥१७ ति ॥ इत्युदश्रुदृशं सूनुं । कूच स्पृष्ट्वा पुनर्जगौ ॥ ४३ ॥ अधुना जरसालीढं । हत्वा मां कु
लमुहर ॥ वल्स नाशेन काकिण्याः । कोटि नेति कोऽपि किं ॥ ४० ॥ जग्ध्वा तालपुटं वीत-प्राणो नस्याम्यहं नृपं ॥ शिरश्वित्वा वदेः स्वामिन् । दुष्टस्तातोऽपि नेदयते ॥४॥ कथंचिद् बोधितः पित्रा । तत्तति चकार सः ॥ स्वामिशेहीति संभ्रांतान् । सन्यलोकानबोधयत् ॥४॥ तातः पूज्य इति प्रोक्ते । नूपेन पुनराह सः॥ सुवर्णेनापि किं तेन । कर्गत्रो
टाय यन्नवेत् ॥ ७ ॥ समस्तमुशव्यापार-मादिशतं नृपस्ततः ॥ ज्ञात्वोचिती मंत्रिसूनुIN रौवं स व्यजिज्ञपत् ॥ ॥ देव ज्येष्टोऽस्ति मे बंधुः । स्थूलनशनिधः सुधीः ॥ नदया. स्ते न जानाति । सुखो वेश्यागृहे स्थितः ॥ ए॥
सोऽप्यास्य तत्रैवोक्तो-ऽवददालोचयाम्यहं ॥ नमित्युक्ते स्थूलनशे । विवेशाऽशोककाननं ॥ ५० ॥ मुहिनेडियमेकानं । मन आधाय योगिवत् ॥ विचारयितुमारेने । किं नियो
॥१७॥
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शीलोप
॥ १७९ ॥
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गिता मम ॥ ५१ ॥ विद्यायामिव शाकिन्यां । यस्यां सत्यां धनाकुलः ॥ निरपेक्षो नवेत् प्राणी । स्वजनेऽन्यजनेऽपि च ॥ ५२ ॥ विहाय कुलकृत्यानि । त्यक्त्वा वै धर्ममप्यहो ॥ यत्र साध्यमनाबाध्यं । स्वामिकार्य यथा तथा || ३ || स्त्रियेव दैवदुर्योगात्कदाचिच्च विरक्तया || तद्दुःखं प्राप्यते जीवो । नरकादतिशायि यत् ॥ ५४ ॥ पलस्त्री ज्योऽपि तन्निद्य-तमां दंत नियोगितां ॥ को नामाशियते प्राज्ञः । कृत्याकृत्य विचारकः ॥ ५५ ॥ धन्याः किंतु म दात्मानो । व्रतसाम्राज्य सुस्थिताः ॥ सुरासुरनरैः पूज्याः । स्वं परं तारयंति ये ॥ ५६ ॥ सेवामि तदिमां जैन । दीक्षां सर्वार्थसाधनीं ॥ चिंतयित्वेति तत्कालं । चक्रे चिकुरलंचनं ॥ ॥ ५७ ॥ रत्नकंबलतः क्लृप्त- रजोहरणमंडितः ॥ धर्मलानोऽस्त्विति प्राह । सनामेत्य सनूपतिं ॥ ८ ॥ साधु स्वालोचितं धीर । साधु मंत्रिपतेः सुत || दुस्साध्यमिदमारेने । त्वयेत्यजननंद सः ॥ ५ ॥ ततो मोहबलं जेतुं । मुनिः सन्नद्धयोधवत् ॥ निस्ससार महाजार समुद्दरणदुःईरः ॥ ६० ॥ तत्कालं तं च भूपोऽपि । सर्वत्र समतानृतं ॥ सत्कांतयोगसर्वस्वfara arr विस्मि ॥ ६१ ॥ संभूतविजयाचार्य - चरणांनोजमाश्रितः ॥ तदानीं सर्वसा
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वृत्ति
॥ १७९॥
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शीलोप०
|| 200 ||
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वय - विरतो व्रतमग्रहीत् ॥ ६२ ॥
स्थूलनः सनन । इव ज्ञानांकुशाशी || विजहार जिनाक-सल्लकीवनमान - सः || ६३ ॥ द्वीपांतरे गते जानौ । लक्ष्मीरिव कुमुद्दतीं ॥ समग्रमुज्ञव्यापार - श्रीः श्रीयकमशिश्रयत् || ६४ || शिश्राय श्रीयकः कोशां । पितृवैरस्य संस्मरन् ॥ तादृश्यो हि प्रग
ते । बलसाध्येषु वस्तुषु ॥ ६५ ॥ स्थूलना दिसंबन्धाः । कथाः कुर्वन्ननेकशः ॥ टंकणारातून । शवयामास तन्मनः ॥ ६६ ॥ प्रवासं कारितः स्थूल - नस्तातस्तथा कृतः ॥ इ दं वररुचेर्देवि । सर्वं जानीहि चेष्टितं ॥ ६७ ॥ वैरमेतच्च युष्माकं । साहाय्यादेव साध्यते ॥ इत्युक्ते तेन सस्मेरं । कथमित्यन्वयुक्त सा ॥ ६८ ॥ त्वनगिन्या सह स्वैरं । रमते स द्विजः किल ॥ चेदसौ पाय्यते मद्यं । तद्वजावः कृतार्थतां || ६ || श्रुत्वेति प्रतिपेदे सा । तथैवाSकारयच्च तं !! क्षयकाले कुलाचारं | त्यजंति शुचयोऽपि हि ॥ ७० ॥ श्रीयकोऽपि तदाक - र्ण्य । वैरसाधनसोद्यमः ॥ मैत्र्यं चक्रे समं तेन । मार्जारीव सहाखुना ॥ ७१ ॥ नित्यं विप्रोऽपि भूपाल-सनामध्ये गतागतं ॥ करोति कृतकृत्यः सन् । भृंगवत्पद्मकानने ॥ ७२ ॥
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वृत्ति
॥ १८० ॥
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वृत्ति
शीलोप राजापि कविताप्रीत्या । तं मुहुः सममन्यत ॥ जातश्च पूज्यतां नित्यं । गतानुगतिके
Mo) जने ॥ ३॥ कदाचित्समयं ज्ञात्वा । श्रीयकं विजने नृपः ॥ हरेरिव गुरुमैत्री। शकमालो ॥११॥ बनूव नः ॥७॥ न मे नाति विना तेन । सन्ना रात्रिरिवेंदुना ॥ वायसोमायने रत्न-मिवा
यं नाशितो मुधा ॥ ५ ॥ नवाच श्रीयकः स्वामिन् । किं कुर्मः स हिजस्तदा ॥ मद्यपायी मुधा मिन-स्तमुत्पातमतानयत् ॥ ७६ ॥ विप्रोऽपि किमसौ मद्यं । पिबतीति नृपोदितः ॥ प्रातस्ते दर्शयिष्यामि । स्वामिनित्याह मंत्रिसूः ॥ ७॥ सर्वेषां पद्ममेकैकं । मालिकः पूर्वशिक्षितः॥ यवस्तु मदनफलो-न्मिश्रं विप्राय दत्तवान् ॥७॥ श्रीयकः पद्ममाघ्राय । व
यामास सौरनं ॥ जिघ्रतिस्म ततः सर्वे । यदात्मप्रत्ययं जगत् ॥ ७ ॥ छिजन्मापि त. दाघ्राय । सोत्सुकः कमलं निजं ॥ नासारंधेरा तच्चूर्ण-मादत्तोच्वासवायुना ॥ ७० ॥ नहांतमद्यस्तधा-न्यकृतो धिकृतो जनैः ॥ अनन्यस्तागम इव । सनातो निर्गतो जवात् ॥ ॥ ॥ सुतप्तत्रपुपानेन । प्रायश्चित्ते विनिर्मिते ॥ सह श्रीयकवैरेण । सोऽगमद्यममंदिरं ॥ ॥ २ ॥ स्वीकृत्य नंदराजस्य । सप्तांगानि तु मंत्रिसूः॥ पराश्रस्वार्थराज्या-निर्विरोधम.
॥११॥
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शोलोप
॥१७॥
साधयत् ॥ ३ ॥ स्थूलनः पुनः प्राज्ञो । हादशांगीमसाधयत् ॥ गुप्तं श्रीयकतः साधुः। वृत्ति - स ज्येष्टत्वमगाहत ॥ ५ ॥ वर्षाकालागमे साधु-त्रयमेत्य गुरोः पुरः॥ नवनिग्रहणे दक्षा-१ न्। जग्राहाऽनिग्रहानिति ॥ ५ ॥
एकः प्राह चतुर्मासीं। स्थास्याम्यहमुपोषितः॥ कायोत्सर्गेण सिंहस्य । गुहाधारमधिश्रितः ॥ ६ ॥हितीयो मुनिराचष्ट । चतुर्मासीमहं पुनः ॥ दृग्विषादिबिलारे । स्थास्यामि प्रतिमास्थितः ॥ ७ ॥ तृतीयस्तमथाऽनाणी-स्कृतोत्सर्ग नपोषितः । चतुर्मासीम ई स्थाता | कूपमंडूकिकोपरि ॥ ॥ श्रुतज्ञानात्तपःशक्तिं । संनूतविजयस्तदा ॥ ज्ञात्वाऽनुमन्यते याव-स्थूलनस्तदाऽवदत् ॥ नए । प्रनो कोशागृहेऽहं तु । प्रावृषं षसाशनः स्थास्यामि चित्रशालाया-मिति मेऽनिग्रहाग्रहः॥ ए ॥ ज्ञात्वा तमुपयोगेन । सर्वैश्यिवशवमं ॥ संनूतविजयाचार्य-स्तदानीमन्वमन्यत ॥ १ ॥ त्रयोऽपि गुर्वनुज्ञाता । यथोक्तं ॥१॥ स्थानमासदन ॥ स्थूल नः पुनः कोशा-सदनं मदनेjया ॥ ए३ ।। चतुष्कमिव कुर्वाणा । कटाक्षनिकराततैः ॥ साऽन्युनायाब्रवीनाथ । किमादिशसि मे वद ॥ ए३ ॥ धर्मलान्नाशिषं
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शीलोप
वृत्ति
॥१३॥
दत्वा । महात्मा समतानिधिः ॥ कोशाचित्रालये तस्थौ । विंध्या स्मरदंतिनः ॥ एव ॥ प्राक्नेहान्मे गृहेऽन्यागा-दसहिष्णुरसौ व्रतं ॥ इति सा षड्रसाऽाहारै-स्तं मुनि प्रत्यलानयत् ॥ ५ ॥ नूनं न किंचिदाचष्टे । लऊयेति विमृश्य सा ॥ शिष्येव दिनतारुण्ये । तदग्रत नपाविशत् ॥ ए६ ॥ ___अपांगान दोलयामास । न पुनस्तस्य मानसं ॥ वक्षसः श्लययामास । वस्त्रं न ध्यानतो मुनि ॥ए॥ हावनावविलासाद्यैः । केवलं स्वमखेदयत् ॥ रागो लिपिरिवाकाशे । नोन्मिमील मनागपि ॥७॥ सिक्ष्योगायते नूनं । दीक्षाऽसौ यत्प्रनावतः ॥ नवनीतसमोप्येषः । कणतो वजतामगात् ॥॥ विचिंत्येति दृगंनोजै-न्युटनानीव गृह्णती ॥ स्मारं स्मारं चिरस्नेहं । पूर्वभुक्तान्यसीस्मरत् ॥ १० ॥ मुनिस्तु पद्मिनीपत्र-निर्लेपहृदयोऽयतां ॥ आलोचनामिवच. बा-माददानाममन्यत ॥ १ ॥ प्रहारा इव पानीये । हारा श्व विरागिणि ॥ गणिकाया वि- कारास्ते । तत्र जाता निरर्थकाः ॥ २ ॥ नित्यप्रत्यग्रशृंगारा-स्तहिकारा महामुनौ ॥ तस्मिनिरर्थतां नेजुः । सिंहस्फाला गिराविव ॥ ३॥ मुनेस्तऽपसगैस्तै-ानतेजोऽन्यवाईत ॥ स
॥१३॥
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शीलोप
॥ २७४ ॥
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जायामिव विज्ञायां । वाग्मिता प्रतिज्ञावतः || ४ || ततः खिन्ना मुनेः पादौ । प्रणिपत्य ज गाद सा ॥ पूर्वस्नेहवशेनैवं । यत्कृतं तत्क्षमस्व मे ॥ ५ ॥ सा प्रत्युत मुनेरास्या - धर्मं श्रुत्वा सुनिश्चला || श्राइत्वमुररीकृत्य । जग्राहानिग्रहाग्रहं ॥ ६ ॥ अतः परं महीपाल - स्तुष्टो यस्मै प्रयति ॥ तं मुक्त्वा नियमो मेऽन्य- पुरुषे जीवितावधि ॥ ७ ॥
अन्योऽन्यरूपांगीकार - वादे नूनं जितस्मरः ॥ कोशानिग्रहदंजेन | कारितस्तत्प्रतिग्रहं ॥ ८ ॥ संपूर्णानिग्रहास्तेऽथ । पुरुषार्था इव त्रयः || साधवः सुगुरोः पाद-मूलं जग्मुरनिंदिताः ॥ ९ ॥ प्रत्युच्चाय गुरुः किंचि-त्स्वागतेनाऽजिनंद्य च ॥ तानवोचदिमां वाच- मदो दुःकरकारकाः || १० || संमुखीनं समुत्राय | स्थूलनश्माषत । साध्वाचारिन् महानाग | कृतं दुःकरडुःकरं || ११ || तथोक्ते साधवः साऽन्य-सूया दध्युरिदं त्रयः ॥ अहो मंत्रिसुतत्वेन । विशिष्येदं गुरुर्जगौ || १२ || षड्रसाहारकोऽप्येष । यदि दुःकरः करः ॥ वर्षासु वयमप्येतत् । करिष्यामस्तपः क्रमात् ॥ १३ ॥ इत्यमर्षजुषः कष्ट-मष्टमासीमवादयन् ॥ जग्राह तमश्र सिंह - गुहामुनिरनिग्रहं || १४ || सम्पई स्थूलनरेण । तं विज्ञायोपयोगतः ||
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वृत्ति
॥ १८४ ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥१५॥
अदमं च गुरुः प्राह । मुंचाग्रहममुं मुने ॥ १५ ॥ दमस्तस्माइते माऽन्य-ईदृक्क तपो मु- ने ॥ शेषनागविना कोवा । समु मलं भुवं ॥ १६ ॥ गुरुनिर्वार्यमाणोऽपि । तमलिग्रहमग्रहोत् ॥ प्राप्तः कोशागृहे हस्ति-शालायामिव रासन्नः ॥ १७॥ स्पहिष्णुं स्थूलनरेण । ज्ञात्वा सा तं परीक्षितुं ।। षड्रसैनोंजयामास । सरमाजं घृतैरिव ॥ १७ ॥ कृतशृंगारनेप. थ्या। विभ्रमैकतरंगिणी ॥ कामस्य कामं कोशेव । कोशाऽभ्यर्णमगान्मुनेः ॥ १५ ॥ त. स्या मुखेंदुमालोक्य । क्षुब्धे तञ्चित्तसागरे ॥ चित्रं तस्य च कंदर्पो । वामवाग्निरिवाऽज्वलत् ॥ २० ॥ ततोऽपहृतचैतन्य । श्व कामविषोमिनिः॥ न सस्मार यतित्वं स । न च स्पीतपःक्रियां ॥१॥ स्मराऽपस्मारवैधुर्या-किंतु कोशामयाचत || साऽप्याहोपाहर व्यं । | साधयस्व मनीषितं ॥ २२॥ कातराक्षः स्मराशावेशा-पुनराह मुनिब्रुवः॥ कुतोऽस्माकं ध नं न । त्वरस्वातः प्रसीद मे ॥ २३ ॥ श्रुतजैनोपदेशा सा । तं खेदयितुमाख्यत ।। यदि लोगविधित्सा त-द्रज नेपालमंडलं ॥२॥
तत्र नेपालन्नूपालो । देशांतरतपस्विनां ॥ रत्नकंबलमकैकं । प्रयचति कृपानिधिः ॥५॥
॥१५॥
૨૪
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शीलोप
॥ २८६ ॥
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ततस्तरलितः काम-वात्यया स तपाऽत्यये ॥ गंजीरवेदिदंतीव । नेपालाऽभिमुखोऽचलत् ॥ ॥ २६ ॥ ततः कंबलमासाद्य । वंशमध्य निधाय च ॥ प्रत्यावृत्तः स्मरन् कोशां । मधुपो मालतीमिव ॥ २७ ॥ लक्षमेतीति कोरोक्त्या । चौरास्तं रुरुधुः पथि ॥ दृष्ट्वा न किंचिदस्तीति । मुमुचुः प्रचचाल सः || २८ || लकं यातीति कीरण । पुनः प्रोक्ते समेत्य ते ॥ सत्यं ब्रूहीति पप्रच्छुः । सोऽपि तथ्यमभाषत ॥ २९ ॥ समस्ति वंशमध्येऽत्र । निहितो रत्नकंबलः ॥ कृपया सोऽपि तैर्मुक्तः । कोशायास्तमथाऽर्पयत् ॥ ३० ॥ न्यवत्त सोऽपि पंकांत-स्तं कांतमपि कंबलं ॥ नग्नं रत्नमयं बिंब-मिवाऽगाधजले हृदे ॥ ३१ ॥ विमुग्धेऽयं महामूल्यो । उर्लनो रत्नकंबलः || हेलया कर्द्दमे क्षिप्तः । किं पटच्चरचीरवत् ॥ ३२ ॥ साऽवोचत्किमयं मूढ । शोच्यते रत्नकंबलः ॥ दुर्लभं व्रतमाणिक्यं । मज्जयन् किं न लज्जते ॥ ३३ ॥ अल्पमात्रसुखानास- प्रत्याशाखांतचेतसः ॥ ते शिवसौख्ये ज्यो- ऽनंतेच्यो हा मुधा जमाः ॥ ३४ ॥ इत्यादिवोधितो जात-वैराग्यो मुनिराह तां । तारितः साध्वदं वह्नि - दीप्ते गृह इवाकः ॥ ३५॥ महानुभावोऽतीचार-दोषाऽालोचनकाम्यया ॥ गुरुपादौ श्रयिष्यामि । धर्मलानोऽस्तु ते शु
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वृत्ति
॥ २८६ ॥
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वत्ति
शीलोप ॥ ३६ ॥ कोशीकृतकरा कोशा । तदानीमृषिमब्रवीत् ॥ आसातना प्रबोधाय । कृता मे कम्य-
तां मुने ॥३॥ लज्जयाऽधोमुखः प्राप्य । गुरोः पार्श्व विरक्तधीः॥ तपांस्यतप्त नूयांसि । गृहीता॥१७॥ लोचनः पुनः ।। ३०॥
अकामाऽप्यन्यदा कोशा । रथिने नूभुजा ददे ॥ तदने स्थूलन्नश्स्य । प्रशशंस गुणानसौ ॥ ३५ ॥ सोऽन्यदा शयनीयस्थो । विध्ध्वा माकंदलुंबिकां ॥ बाणेन चक्रे सुप्रापां। पुं. खपुंखार्पितैः शरैः ॥ ४० ॥ ततमईचंञण । गित्वा चादाय पाणिना ॥ ददौ तदानीं कौ| शायै । रश्रिकः सुन्नटाग्रणीः ॥ १ ॥ युग्मं ॥ दर्शयित्वा स्वकौशल्यं । स तस्या मुखमैद.
त ॥ सापि पुष्पावृतां सूची । राशौ विन्यस्य सार्षपे ॥ ४२ ॥ ननन चारुचारीनि-दवा दे. To वीव निश्चला ॥ सूचीमुखेन नो विज्ञा। न च पुष्पाण्यचालयत् ॥ ३ ॥ युग्मं ॥ रथा तत्क
लया तुष्टो-ऽवदत्कि ते ददाम्यहं ॥ सा प्राह किं मया चके। चित्रं येनासि रंजितः ॥ ४ ॥ नक्तं दिव्यदृशो धूकाः। परिणो व्योमचारिणः ॥ जातिसिह श्वाऽन्यस्त-कर्मण्यत्र किमतं ॥ ४५ ॥ 5:करं तु तदत्यंतं । स्थूलनशे महामुनिः ॥ शीलयामास यचील-मनन्यस्त
॥१७॥
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शोलोप
वति
॥१॥
मजातिकं ॥ ४६ ॥ नवनीतमिवार्कस्य । स्त्रियाः संसर्गतो नरः ॥ श्वीनावं नजत्येव । व- हिना सीसकं यथा ॥ ४ ॥ इत्यादि तत्स्वरूपं सा । निगदंती दिवानिशं ॥ रधिकं बोधयामास । चंज्योत्स्नेव कैरवं ॥ ४० ॥ स गुणान् स्थूलनस्य । स्मरन नज्ञानिलाषुकः ॥ दी. का जग्राह कोशापि । स्थिता स्वाऽनिग्रहे पुनः ॥ ४ए ।
इतश्च हादशाब्दिक्यं । पुष्कालं जलधेस्तटे ॥ व्यतिचकाम कष्टेन । साधुसंघः सुदुस्तरं ॥ ५० ॥ गुणनादेरसामया। सिझते विस्मृति गते ॥ श्रीसंघः पाटलीपुत्रे । सर्वोऽप्येकत्र संगतः ॥ ५१ ॥ कुतः कुतोऽपि संगृह्य । सूत्रालापकदंबकं ॥ क्रमेणैकादशांगानि । परिपूर्णानि चक्रिरे ॥ ५५ ॥ ततः पूर्वविदो नद-बाहोराबाहनेछया ॥ प्रजिघाय मुनिइंछ । संघो विछेदनीरुकः ।। ५३ ॥ तेनाप्युक्तं महाप्राण-ध्यानमारब्धवानदं ॥ ततो नागमनं मेऽस्ति । मुनी व्यावृत्त्य चागतौ ॥ ५५॥ पूर्वाधारचिकीः संघ-स्तत्र प्रैषीन्मुनी पुनः ॥ श्रीनबाहुं सू- राई । वंदित्वा तावथोचतुः ॥ ५५ ॥ संघ न मन्यते योऽत्र । दंडः कस्तस्य जायते ॥ संघबाह्यो ध्रुवं स स्या-दिति तेनोनरं ददे ॥ ५६ ॥ त्वामेव नगवंस्तर्हि । तथा संघश्चिकीर्षति ॥
॥१७॥
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वृत्ति
शीलोप श्रुत्वेन्चमाह सोऽप्येष । यदिबति करोमि तत् ॥ ५७ ॥ परं प्रसत्ति चेत्संघः । कुरुते मयि त-
Sad न्मुनीन् ॥ प्राहिणोतु महाप्राज्ञान् । दास्येऽहं सप्त वाचनाः ॥ ॥ वाचनां तत्र दाताह॥१॥ मेकां निकात आगतः॥हितीयां कालवेलायां । तृतीयां च बहिर्भुवि ॥ एए ॥ वैकाल्याऽ
वसरे तुर्यो । तिस्रस्त्वावर्तनकणे ॥ निर्विघ्नमिचं संघस्य । मम कार्यं च सेत्स्यति ॥ ६ ॥ इत्यागत्योदिते तान्यां । संघस्तुष्टस्तदंतिके ॥ स्थूलनशदिसाधूनां । प्राहिणोचतपंचकं ॥६॥
ददाने वाचनां स्वल्पां । तस्मिन् ध्यानाऽवरोधतः॥ स्थूलनज्ञहते सर्वे। निर्विणाः स्वास्पदं ययुः ॥ ६ ॥ स्थूलनस्त्वनुझिनो । यथाविधिपरायणः ॥ गुरोरावर्जयामास । मानस विनयादितिः ॥ ६३ ॥ नश्वाहुरपि प्राप्त-ध्यानपारो निराकुलः ॥ प्रतीकस्य तृप्त्यंतां । वाचनां मुदितो ददौ ॥ ६ ॥ समाधानसुधापान-सुहितस्वांतवैनवः ॥ क्रमास्तुक्ष्योनानि
। दश पूर्वाणि सोऽपठत् ॥ ६५ ॥ अथ दीका समादाय । विहरत्यो महीतलं ॥ स्वसारः स्थूमेलनस्य । तत्र वंदितुमाययुः ॥ ६६ ॥ ताः पप्रच्छुर्गुरून् स्वामिन् । स्थूलतः क्व सांप्रतं
॥ अत्र देवकुले पूर्वान् । पठनस्तीति सोऽवदत् ॥ ६७ ॥ स्थूलनशेऽपि साहंयुः । समायां
Hat
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शोलोपतीविलोक्य ताः ॥ सैंही तनूमथाश्रित्य । तस्थौ कौतुककाम्यया ॥ १७ ॥ हरि वीक्ष्य पुर- । वृत्ति
- स्ताच्च । व्यावृत्य गुरुमन्यधुः ॥ स्थूलन्नई विदार्यैव । प्रन्नो तत्र स्थितो हरिः॥ ६॥ ॥
सोपयोगं जगौ सोऽपि । ज्ञात्वा तं जातवैकृतं ॥ ब्राता सोऽस्त्येव वस्तत्र । वंदध्वं प्रगतो हरिः ॥ ७० ॥ गताश्चमत्कृता वीक्ष्य । स्थूलनामवंदिषुः ॥ पृष्टा धर्मकयां ज्येष्टा । तेन सानंदमब्रवीत् ।। ७१ ॥ नगवन साईमस्मानिः। श्रीयकोऽप्यगृहीद् व्रतं ॥ क्षुधा किंतु विधातुं स । नैकाशनमपि कमः ॥ ७२ ॥ वर्षपर्वणि मधाचा । प्रत्याचष्ट त पौरुषीं ॥ त. त्पूनौं पारणाकामी । मया पुनरनाष्यत ॥ ७३ ॥ क्रियते किं न पूर्वाह्न । पर्वेद उर्लनं यतः ॥ लजया सरलात्मासौ । तदपि प्रत्यपद्यत ॥ ४ ॥ संप्राप्ते पूर्णतां तस्मि-त्रपि नोक्तुमना मुनिः ॥ कारितः पुनरुत्साह्या-ऽपराह्राईतपःक्रियां ॥५॥ ततोऽपि निश्या रात्रिः । सु
खं यातेति बोधितः ॥ कर्मक्षयकृते नक्त-प्रत्याख्यानमकार्यत ।। ७६ ॥ ततोऽईरात्रौ वाई- ॥१०॥ *ष्णु-क्षुधाऽाकुलितविग्रहः ॥ महात्माऽाराधनापूर्वं । मृत्वा दिवमुपेयिवान् ॥ ७ ॥ रुषि
घातोनवाहातंक-प्रायश्चित्तविधित्सया ॥ पुरः श्रमणसंघस्य । तत्स्वरूपं न्यवेदयं ॥ ७ ॥ सं.
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शीलोप
॥ १०१ ॥
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घोsप्युवाच ते प्रायश्चित्तं नैवापतत्यपि ॥ यतस्तत्तारणायैव । त्वयाऽकार्यत तत्तपः ॥ ७ ॥ निंदतो स्वमदं नूयः । संघमित्रमयाचिषं ॥ चेजिनः स्वयमाख्याति । ततः स्यान्मे समाहितिः || ८ || कायोत्सर्गे स्थितः संघ - स्ततः कारुणिकाग्रणीः ॥ तदा शासनदेवी च । संघमिमा || १ || इमां सीमंधरोपांते । नीत्वा यावदिहाऽनये || तावदुत्सर्गग्यैव । स्थातव्यं श्रेयसे मम ॥ ८२ ॥ महाविदेदे नीताहं । तदानीं कणतस्तया ॥ अवदिषं च हर्षेए । सीमंधर जिनेश्वरं ॥ ८३ ॥ जिनोऽनावत निर्दोषा । निर्व्याजेयं प्रवर्त्तिनी ॥ चूलिकायुगलं स्वामी । व्याचक्रे च ममाग्रतः ॥ ८४ ॥ देव्या करतले धृत्वा । नीताऽहं जारते पुनः ॥ प्रायं चूलिकायुग्मं । संघायाथ समागता ॥ ८५ ॥ इत्युक्त्वा सपरीवारा । ययौ यक्षा स्वमाश्रयं || स्थूलनशेऽप्यथाचार्यं । वचनार्थमुपागमत् || ६ || गुरुरुचे न योग्यस्त्वं । वाचनायास्ततो मुनिः ॥ दीक्षादिनादि दीनास्यः । स्वाऽपराधानचिंतयत् ॥ ८७ ॥ स्मृतिमायातिमेतावत्र काचिदपराधिता || श्रुत्वेति गुरुरप्याख्य-दाः कृत्वापि न मन्यसे ॥ ८८ ॥ स्मृत्वा ततः पपाता । गुरुपादसरोजयोः ॥ कम्यतामेकमागो मे । नेदृग् नूयो विधास्यते ॥
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वृत्ति
॥ १५१ ॥
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शीलोप
॥ १५२॥
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॥ ८ ॥ नूयः कुर्या न कुर्या वा । सांप्रतं कृतवान् पुनः || वाचना तु न ते देया । ज्वरार्त्तस्येव चिटी || ५० ॥
सोऽन्यर्थयामास । संघं शेषशातये ॥ विना चिंतामणि को वा । कमो दातुं म नीतिं ॥ १ ॥ सूरिः संघमथाऽवोच - द्यथाऽसौ विकृतोऽधुना ॥ विशिष्य विकरिष्यति । तथाऽन्येऽतःपरं शठाः ॥ ए२ ॥ ततः पूर्वाणि मय्येवा - ऽवशिष्टानीति वेद्म्यदं ॥ शेषपागे न देयोऽस्मै । दंडोऽस्य पुनरस्त्विति || ३ || संघगाढाऽाग्रहाद्भूयः । पूर्वछेदोऽस्तु मा मयि ॥ सूत्र तो वाचनां सूरि-श्वकार मुनिपुंगवं ॥ ९४ ॥ वाचना शेषपूर्वाणां । न देया जवता पुनः ॥ इत्यादिश्य ददौ तस्मै । वाचनां स यथाविधि ॥ ए५ ॥ सर्वपूर्वधरो जानु-रिव पूर्वधरोदयी ॥ प्राप्ताऽाचार्यपदो व्य-चक्रं युक्तमबूबुधत् ॥ ए६ ॥ तप्त्वा तपस्तीव्रतरं तरंगे - रिवामृतैस्तत्वपदोपदेशैः || प्रबोध्य जव्यालिमनल्पकालं । श्रीस्थूलजइस्त्रिदिवं जगाम ॥ ७ ॥
इति श्रीरुपल्लीयगछे नहारक श्री संघ तिलकसूरिपट्टावतंसश्री सोमलिलकसूरिविरचितायां श्री शीलोपदेश मालावृत्तौ श्रीशीलतरंगिएयां श्रीस्थूलनश्चरित्रं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ॥
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वृत्ति
॥ १०२ ॥
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शीलोप
॥ १०३ ॥
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शीलपालनबधकस्य लोनेनाऽप्यवाचतामाह
॥ मूलम् ॥ तं नमह वैयरसामिं । सयंवरा रयाको मिसुसमिक्षा || अवगलिया जेएतिव । सिट्टिघूया पवररूवा ॥ ४२ ॥ व्याख्या - तं नमत वज्रस्वामिनं, येन महात्मना स्वयंवरा स्वयं गुणान् श्रुत्वा जातगाढाऽनुरागा रत्नकोटिसुसमृक्ष अनेकधनकोटिशतकलिता प्रवररूपा मनोहराकृतिः श्रेष्टिदुहिता रुक्मिणीनाम्नी तृणमिवाऽवगलिता, जीर्यतृणमिव रत्नकोटिभिः सह तत्यजे, तमेव प्रणमत ? इहक्समनावा एव च महात्मानो नमस्काराऽर्हाः, समता चेयं - यदुक्तं न यत्र दुःखं न सुखं न रागो । न द्वेषमोहौ न च काचिदि॥ रसः सशांत विहितो मुनीनां । सर्वेषु जावेषु समः प्रदिष्टः ॥ १ ॥ इति गाथार्थः, जावार्थश्वायं
दैव जरताईस्य । ललाटतिलकोपमः ॥ अवंतिरिति देशोऽस्ति । सौवस्तिक इव श्रियां ॥ १ ॥ आस्थानीव श्रियां स्थानं । तत्र तुंबवनानि ॥ मंडितं वांबित प्रीतैर्जनैः स्वर्गादिव च्युतैः || २ || तत्रेभ्यपुत्रः पूतात्मा । नाम्ना धन गिरिः श्रुतः ॥ बइसख्य श्वानाति
૨૫
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वृत्ति
॥ १९३॥
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वति
शोलोप समृद्ध्या धनदेन यः॥३॥ कायेन मनसा वाचा। धर्मकमैककर्मठः ॥ क्रमेण यौवनं प्रा-
। योगीव शमनिरं ॥४॥ तक्षाहकते कन्यां । गृह्णीतः पितरौ यकां ॥ स तां न्यषेधद्दी॥रए कार्थी । तृप्तो नोज्यमिव द्रुतं ॥ ५ ॥ अहं कलत्रमित्रादि । मुक्त्वाऽादास्ये ध्रुवं व्रतं ॥ के
नाऽपि नानुशेतव्यं । मह्यं दत्वा निजां कीं ॥६॥ इति तत्पितरौ धर्मी । तत्वाऽतत्वविम4 धीः ॥ हानिषेधयामास । मराल श्व नड्वलं ॥ ७॥
अथ नाम्ना सुनंदेति। धनपालस्य नंदिनी ॥ विना धनगिरि नाऽन्यं । पतीयामीति निश्चयात् ॥ ॥ अनिच्छुनापि तेनाऽसौ । पितृभ्यां पर्यणाय्यत ॥ शतुस्नाता च नेजे सा। नोग्यकर्मानुन्नावतः ॥ ए॥ तदा त्रिविष्टपाच्च्युत्वा । श्रीदसामानिकः सुरः॥ मराल श्व
पायोजे । तस्याः कुकाववातरत् ॥ १०॥ धिा संपन्नसत्त्वां तां । पत्नी धनगिरिः सुधीः॥ - आपूज्य जगृहे दीक्षां । पार्चे सिंहगिरेर्गुरोः ॥ ११ ॥ पत्नीध्रात्रार्यसमित-सहाध्यायी नव-
नयं ॥ जग्राह श्रुतसर्वस्वं । नुंगः पुष्परसानिव ॥ १२ ॥ पालयंती सुखं गर्ने । सुनंदा च शुने दिने ॥ नंदनोर्वीच कल्पहुं। प्रासूत सुतमुत्तमं ॥ १३ ॥ जन्ममंगलगीतानि । गायत्यो
॥१४॥
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शीलोप०
EN
॥१५॥
Ghaz
योषितस्तदा ॥ स्पर्श स्पर्श कुमारांगं । श्चमालपनं व्यधुः ॥ १४ ॥ नाऽग्रहीष्यत्पुरा तात । वृत्ति प्रव्रज्यां तव चेत्पिता ॥ अन्नविष्यत्तदा नून-मनूनस्ते जनूत्सवः ॥ १५ ॥ विना पुमांसं किं कुर्यु-र्वनिताः सुधना अपि ॥ तैलकयेण प्रौढापि । दीपिका दीप्यते कियत् ॥ १६ ॥ श्रुत्वेति वालकोऽप्येष । कदापोहपरायणः ॥ जातजातिस्मृतिर्दथ्यौ । चारित्रपथपांश्रतां ॥ १७ ॥ मकुणानंदिता माता । न मां त्यक्ष्यति जातुचित् ।। अतस्तत्खेदवृद्ध्यर्थे । स रुरोद निरंतरं ।। ॥ १७ ॥ न दोलांदोलनैव । मृदुलापैन गीतकैः ॥ रोदनाधिरामासौ । रेवतीदृष्टिदुष्टवत् ॥ १५ ॥ षण्मासीमतिचक्राम । तस्येति रुदतः सतः ॥ सुनंदा प्रियपुत्रापि । निर्वेदमगमतरां ॥ २०॥
इतश्च धनगिर्यार्य-समितान्यां पुरस्कृतः ॥ तनिवेशमनावेशः। श्रीसिंदगिरिरागमत् । ॥ १ ॥ नत्वा धनगिरिस्त्वार्य-समितेन समन्वितः॥ सांसारिकान वंदापयितु-मापृचत गुरुं ॥१ तदा ॥ २२ ॥ तत्कालं शकुनं किंचि-हिचार्य विकचाननः ॥ आचार्यः सचमत्कारं । व्याजहार सरस्वतीं ॥ २३ ॥ युवयोरद्य लानोऽस्ति । महीयानिह गम्यतां ॥ किंत्वचिनं सचिन
॥
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गोलोप वा । निषेध्यं नाद्य नैदकं ॥ २५ ॥ ततो गृहे सुनंदाया-जग्मतुस्तौ महामुनी ॥ दृष्ट्वा शरे वृत्ति
वयस्यान्तिः । सस्मेरं साऽप्यन्नाष्यत ॥२५॥ हले धनगिरिः सैषः। समेतः सूनुरर्यतां ॥ दृ. ॥१॥ श्यते हि कथंकारं । सूनुं स्थापयति स्वकं ॥ २६ ॥ सुनंदापि सुनिर्विमा । तदीयपरिदेवनैः
॥ सुतमादाय पागिन्यां । पुरो धनगिरेरन्नूत् ॥ २७ ॥ श्यत्कालमयं बालः। सुदुष्पाल्योऽपि पालितः ॥ सुतरां क्लेशिताऽनेन । निर्विमा सांप्रतं त्वदं ॥ ॥ निःस्पृहोऽपि गृहाण त्वं । पितासि ननु वत्सलः ॥ नोपेकस्व रुदंतं त-पुत्रं निःकृप मामिव ॥ श्ए ॥ स्मित्वा धनगिरिः प्राह । स्मृत्वा च गुरुनाषितं ॥ साधु कल्याणि कर्त्तव्य-मवश्यं वचनं तव ॥ ३० ॥ - रत्नसेन पुनर्दत्वा । मा नूरनुशयान्विता ॥स्वहस्तेन विताण य-तक्ष्यावृत्त्य न लभ्यते ॥३१॥
तस्माधिचारये को वा । परप्रश्नः स्ववस्तुनि ॥ तथापि खलरोधार्थ । क्रियत्तामत्र साक्षिणः ॥ ३२ ॥ मुग्धयाऽपि तथा कृत्वा । खिन्नयाथ सुनंदया ॥ ददे तनूजस्तेनापि । विद ॥१६॥ * ग्धेन समाददे ॥ ३३ ॥ पात्रबंधे धृतस्तेन । बालस्तत्वोपदेशवत् ॥ निवृत्तो रोदनात्सोऽपि ।
सद्यः सिइमनोरथः ॥ ३५ ॥ तौ गुर्वादेशक रौ । सुनंदामंदिरादथ ॥ नैषेधिकी विधाय ज्ञ
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वृत्ति
शीलोप०क् । प्रविष्टौ पौषधालयं ॥ ३५ ॥ गुरुर्धनगिरिं दृष्ट्वा । नारनंगुरदोलतं ॥ नवाच पात्रबंधं मे
। दत्वा विश्राम्यतां कणं ।। ३६ ॥ तावता सोऽपि तिग्मांशु-मांसलबवित्नासुरं ॥ अर्पयामा॥१॥ स सानंदं । सुतरत्नं गुरोः करे ॥ ३७ ॥ नूरिणा तस्य नारेण । गुरोरप्यनमत्करः ॥ स्वत
स्तमधिकं तेन । लक्षणेन विवेद च ॥ ३७॥ निःशेषलक्षणोपेतं । मूल् पीयूषसत्रिणं ॥ वी. क्ष्य तं शिष्यचिंतायां । क्रतार्थो गुरुरब्रवीत् ॥ ३५ ॥ नूनमेतेन सारेण । कांत्या च जगतीतले ॥ युगप्रधानो नाव्येष । जिनशासनमंडनं ॥ ४० ॥ कर्मवारणघातित्वा-इत्नधारणतस्तथा ॥ कर्ता सत्यामसौ सिंह-गिरिरित्यनिधां मम ॥ १ ॥ रक्ष्योऽसावतियत्नेन । संघाधार इति ध्रुवं ॥ कल्याणन्नक्तयो नव्या । नियोज्याः पालनेऽस्य तत् ॥ ४॥ वज्जवत्सार इत्य. स्य । वजाख्यां विदधे गुरुः ॥ पालनायाऽर्पितश्चैष । साध्वीनां सूरिलिः शिशुः ॥४३॥ तानिःशय्यातरस्त्रीणां । ददाणां वत्सलात्मनां ॥ क्रोडाकौतुकिनीनां स । पालनार्थमयाऽlत ॥ ॥ स्पईयासौ पुरंध्रीनिः । पाल्यमानो निरंतरं ॥ तारिकास्वित्र शीतांशु-रंकादंकमचीचरत् ॥ ॥ सौनाग्यैकसुधाकुं। या या क्रीमयतिस्म तं ॥ जनन्यामिव मय्येव ।
॥१
॥
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शीलोप
॥ १०॥
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स्त्रीति सकाऽबुधत् ॥ ४६ ॥ क्रीडा निस्तदनीष्टानि - बीलकास्तमखेलयन ॥ क्रीमा विशेपानन्याऽन्यान् । सोऽपि तेषामदर्शयत् ॥ ४७ ॥ मंगनक्रीडनस्तन्य-पानस्नान विलेपनैः ॥ तं योषाः पोषयामासु - वर्षा इव महीरुहं ॥ ४८ ॥ कंठिका स्वर्णरत्नाढ्या । वज्रकंठे बनौतरां ॥ हृदयांनोज निर्गच्च-किंजल्ककणिकोपमा ॥ ४९ ॥ धर्म्यानिरिव क्रीमानिः । क्रीमन्ननुदिनं सुधीः ॥ भुंजानः प्रातुकं चैष । साध्वीचेतांस्यमोदयत् ॥ ५० ॥
ददर्श सुनंदाय । श्रीविशेषविशोभितं ॥ श्रयं मदंगजन्मेति । श्राविकास्तमयाचत । ॥ ५१ ॥ तान्निरुक्तं न जानीमो । युवयोर्घटनामिमां । अस्मासु न्यास एवायं । गुरुला मिति पाल्यते ॥ ५२ ॥ सेति ताजिरथ प्रोक्ता । शाखाचष्टेव मर्कटी || दूरस्था तमवैद्दिष्ट । वजं वज्रसुर्वनं ||३|| महोल्लासा पराधीना । सा तेषामेव मंदिरे ॥ कदाचिदेत्य धात्रीव । स्तन्यपानमकारयत् || ५४ ॥ इतोऽचलपुरोपांते । नदीयुग्मांतरावनौ ॥ कन्यापूर्णानिधं ती। तापसैरस्ति सेवितं ॥ ५५ ॥ तेष्वेको लेपकर्मज्ञः । पाडुके न्यस्य पादयोः ॥ तापसः सलिलेऽचाली - दगावे हंसलीलया || ५६ || तटिनीमुत्तरन्निनं । प्रत्यक्षं लेपयोगतः ॥ जनान् वि
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वृति
॥ १५८ ॥
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शीलोप
वृत्ति
रएका
स्मापयामास । कौतुकालोकनोद्यतान् ॥ ५७ ॥ दृक्पन्नावः कोऽप्यस्ति । नवतामपि शा- सने ॥ सस्मितं श्रावकानेवं । स प्राहाऽहंयुताश्रितः ॥ ७ ॥ विहरन्नन्यदा तत्र । स्वेच्या वजमातुलः ॥ श्रीपार्यसमिताचार्य । आगाद्योगतपोनिधिः ।। ५५ ॥ श्राशास्तत्तापसोपज्ञां। तस्मै निंदां व्यजिझपन् ॥ ज्ञात्वा ज्ञानेन तद्युक्तिं । सोऽपि तानिमादिशत् ।। ६० ॥ ____ तापसे का तपःशक्ति-रज्ञानध्वांतमंदिरे॥ परं केनापि लेपेन । मूढान् विस्मापयत्यसो ॥६१ ॥ तस्माजिनमताऽनिशा । विज्ञानेऽस्मिन्न विस्मयः ॥ धार्यों लवजिरादेश-मात्रसाध्यो ह्ययं विधिः ॥ ६॥ तत्पाखंडपरीक्षार्थे । निमंत्रयत तापसं ॥ सपाको चास्य पादौ । प्रकाल्यौ नक्तिदन्नतः ॥ ६३ ॥ जैनोपहासनाशाय । मायापि स्यात्सुखावहा ॥ ततो निमंत्रयामासुः । श्रा दंनेन तापसं ॥६४ ॥ सोऽपि तन्नक्तिसोक । नन्प्लुत्योत्प्लुत्य नेकवत् ॥ नोजनार्थ समन्यागा-च्वाइस्यैकस्य मंदिरे ॥ ६५ ॥ धारागतस्य तस्याथ । श्राइः श्रज्ञा- नरादिव ॥ केममस्महे नावि । त्वत्पाददालनांबुना ॥ ६६ ॥ इत्युक्त्वाऽकालयत्पादौ । स तोष्णेन वारिणा ॥ यथा न लेपलेशोऽपि । तस्थौ षुष्करपत्रवत् ॥ ६ ॥ गोशीर्षचंदनेना
॥रपणा
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शीलोप
॥ १०० ॥
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थे । लिप्तपादस्य तस्य तु ॥ चित्रं हृदयसंतापः । प्रोल्लासा ग्रिपाकवत् ॥ ६० ॥ श्राद्धोऽपि षड्रसैरेनं । जोजयामास सादरं । यदि वा स्वार्थसिद्ध्यर्थं । क्रियते मूईनीधनं ॥ ६५ ॥ पादप्रलेपलोपेन | नद्यां ब्रुडनशंकया ॥ श्राकुलो जोजनास्वादं । न विवेद ज्वरार्त्तवत् ॥ ७० ॥
अद्यापि कोऽपि लेपांशो । जवितेति स साहसात् ॥ जोजनांते नदीतीरं । जगाम जनायुतः ॥ ७१ ॥ लोहनौरिख सोऽमऊ - तदानीं यशसा समं ॥ सहस्ततालमुत्तालं । जहास च जनस्ततः ॥ ७२ ॥ कुतोऽपि दंतः सिंधु । तरता देजिनाऽमुना || व्यर्थ जग्धा वयं द- रिति मिथ्यादृशोऽपि हि || ७३ || तदा जोजनृपाहूत - स्तत्र सूरिरुपागमत् ॥ विधातुं जनताऽध्यकं । जिनमार्गप्रजावनं ॥ ७४ ॥ नवाच निम्नगां योग- माहात्म्य वशवर्त्तिनीं ॥ वत्से प्रयन पंथानं । परं पारं व्रजामि ते ॥ ७५ ॥ मित्रयोरिव तत्कालं । तटयोरैक्यमीयुषोः ॥ संघभूपजनैर्युक्तः । सूरिः प्राप परं तटं || ६ || निरीक्ष्याऽतिशयं तस्य । विगर्वास्तापसास्तदा ॥ दीक्षां जगृहुराचार्य - पदमूले विरागतः ॥ ७७ ॥ ब्रह्मद्दीपयुषां तेषा-मन्वये श्र मणाश्च ये । ब्रह्मद्वैपिकनामान - स्ते ख्यातिं ययुरागमे ॥ ७८ ॥ वज्रे त्रिवार्षिके जाते । वि
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वृत्ति
॥ २०० ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥१॥
हरंतोऽय साधवः ॥ समीयुर्धनगिर्याद्या-स्तत्र तुंबवनास्पदे ॥ ७ ॥ चिरमिष्टाऽागते तस्मि- न । मुनौ धनगिरौ तदा ॥ सुनंदा तमयाचिष्ट । न्यासीकृतमिवात्मजं ॥ ७० ॥ मास्म वा. दीर्मुधा मुग्धे । न विमृष्टं तदा तु किं ॥ यतः ससादिकं दत्वा । याचमाना न लजसे ॥१॥ श्रुत्वेत्याह सुनंदापि । मया नाऽमंत्रि गोत्रजैः ॥ अतस्तैरननुज्ञातं । बालकं को जिघृक्षति ॥ ॥ नन्नावपि तथा पदौ । तौ विवादविधीत्सया ॥ बालं वजं सहादाय । जग्मतुप. पर्षदि ॥ ३ ॥ राझो वामेन पक्षण | सुनंदा सपरिबदा ॥ निषसाद समग्रोऽपि । श्रीसंघो दक्षिणेन तु ॥ ४ ॥ योर्वाक्योत्तरं श्रुत्वा । नोजनूपोऽप्यथाऽादिशत् ॥ तस्यासौ शिशुराहूतो | यस्य पार्श्व समेष्यति ॥ ५ ॥ नन्नान्यामपि पदान्यां । न्यायश्चायममन्यत ॥ स्त्रीपतीया अथाचख्यु-देवायं बालकश्चिरं ॥ ६ ॥ नवास यतिनीमध्ये । नावी तदनुगस्ततः॥ तस्मादादौ जनन्येव । वज्रमाह्वातुमर्हति ॥ ७ ॥ ____तश्रेत्युक्ते नरेंद्रेण | सुनंदा पुलकांकिता ॥ सुखादिकाक्रीडनानि । न्यस्य चित्राणि तत्पुरः ॥ ७ ॥ शर्करामधुमृधिका- माधुर्यैककिरा गिरा ॥ रयादाकारयत्पुत्रं । वत्सकं स्वगिरे.
॥२१॥
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शोलोप
वृत्ति
॥शा
व गौः ॥ ए ॥ एहि वत्स मुदं देहि । ममोत्संगमलंकुरु ॥ गृहाण मोदकशक्षा-मत्स्य- मीशर्करादिकं ॥ ए ॥ अयं वाजी गजश्वैष । इदं कंकमनुतं ॥ इदं शकटमादत्स्व । वत्स यह मुदं मम ॥ ए१ ॥ बलिनवामि ते तात । नेत्रयोन्युजनं तव ॥ आगल वत्स स्व त्वं । म्रियेऽहं वदनाय ते ॥ ए ॥ वत्स मा मुंच दीनां मां । मा हीनां कुरु सर्वथा ॥ अधमोंऽसि गर्नादि-पोषातदनृणीनव ॥३॥ ज्ञातं वत्स विरक्तोऽसि । परं तेजोऽनिवृश्ये॥ एकदा. लिंगनं देहि । त्वं समेहि ममालयं ॥ ए४ ॥ प्रलोचनमयैश्चाटु-पटुन्निस्तचश्चयैः ॥ चचा. ल न मनस्तस्य । सुमेरुरिव वात्यया ॥ एy ॥ माता हि गौरवाधाने । जनकादतिरिच्यते ॥ जाननपि तदानी स । वजश्वेतस्यचिंतयत् ॥ ए६ ॥ मातुश्चेश्चनं कुर्वे । तदा स्यात्संघसंघनं ॥ ततश्च नवपायोधि-संघनं उर्घटं नवेत् ॥ ७ ॥ श्वं त्वाराधयिष्यामि । समकं संघमातरौ ॥ यतोऽल्पकर्मा मातापि । मां विनाशादास्यति व्रतं ॥ ए॥
इत्यादिदीर्घदर्शी स । बालोऽपि प्रबलाशयः॥ जनन्यां न ददे दृष्टिं । नवार्थे वीतरागवत् ॥ एए ॥ ततो धनगिरिजूंप-प्रेरितो विकसन्मनाः ॥ हस्ते तत्वमिव क्षिप्रं । रजोहरण
॥३०
॥
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शीलोप
वृत्ति
॥२३॥
28
माददे ॥ १० ॥ वत्स यद्यस्ति ते दीदा-कदीकारे दृढं मनः॥ तदा शिवश्रियो दूत-ममुं धर्मध्वजं नृज ॥१॥ चिंतारत्नमिव प्राज्ञो । हस्तिपोत श्वांबुजं ॥ नुत्प्लुत्य वजो जग्राह । रजोहरणमादरात् ॥ २॥ सनालमिव नालीकं । निर्जित्याऽधोमुखीकृतं ॥ शुशुन्ने करपझेऽस्य । तजोहरणं गुरोः ॥ ३ ॥ हस्तं कपोले विन्यस्य । सुनंदा विधुराशया ॥ कणं कत्वा मनो धीरं । चेतस्येवमचिंतयत् ॥ ४॥ भ्राता प्रव्रजितः पूर्व । वजन्नश्च ततः परं ॥ पु
त्रोऽप्यतःपरं तस्मा-दीदैव झुचिता मम ॥ ५ ॥ युग्मं ॥ ध्यात्वेति तत नहाय । सुनंदा गृ. से हमाययौ ॥ वजमादाय च स्वीयो-पाश्रयं साधवोऽगमन् ॥६॥ स संयममतिर्बालः । स्तन्यपानं ततः परं ॥ न चक्रे यच्च नो चित्रं । चेतना न लघुर्यतः ॥ ७॥ व्रतस्याऽनिमुखीनावात् । प्रव्राज्य व्यतोऽपि तं ॥ साध्वीनामर्पयामासु-गुरवः पुनरप्यमुं॥ ७॥ सुनंदापि सवैराग्य-मानंदोकमंथरा ॥ दीक्षां सिंहगिरेरेव । पादमूले समाददे ॥ ए॥ पदानुसारिप्राझो ऽ । वजः साध्वीमुखश्रुतां ॥ एकादशांगी जग्राह । नदीरिव पयोनिधिः ॥१०॥
अन्यदा तं सहादाय । गुरूणामष्टवार्षिकं ॥ अवंती जग्मुषां तेषां । ववर्ष जलदोतरा ॥
॥०॥
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॥ २०४ ॥
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॥ ११ ॥ ते चाऽप्कायनिषेधार्थं । तस्थुर्यकालये क्वचित् ॥ तदा प्राग्जन्ममित्राणि । वज्रस्य त्रिदिवौकसः ॥ १२ ॥ सत्त्वं परीक्षितुं तस्य । वृष्टिं मंदां विधाय ते ॥ आवासितवलिग्रूपं । कृत्वा सूरिं व्यजिज्ञपन् ॥ १३ ॥ तुषारान् पततो वीक्ष्य । ववले भुजगादिव ॥ निरुद्ध्य वृष्टिं भूयोऽपि । विज्ञप्तः सह तैर्गतः ॥ १४ ॥ युग्मं ॥ गुरोरादेशमासाद्य । वज्रः स्वात्महितवान् ॥ विधायावश्यकी निक्षा-निमित्तं प्रयतोऽचलत् ॥ १५ ॥ तत्र तार्णकुटी रेषु । मनोज्याद्यनेकशः ॥ मनोज्ञव्यंजन श्रेणी - संकुलं वीक्ष्य विस्मितः || १६ || व्यक्षेत्रादिसामग्रीं । ध्यात्वा तन्मुखमैक्षत || निर्निमेषादि लदैश्च । तान् देवानित्यबोधि सः ॥ १७ ॥ प्रकल्प्यो देवपिंोऽय - मित्युक्त्वा स न्यवर्त्तत ॥ तेऽपि स्वं रूपमास्थाय । स्वरूपं प्रि च ॥ १८ ॥ तस्मै वैक्रियकीं लब्धि । दत्वा सद्यस्तिरोदधुः ॥ तत् श्रुत्वा गुरवस्तस्य । कर्मणा चमत्कृताः ॥ १९ ॥ ज्येष्टमासेऽन्यदा दातुं । घृतपुरानसौ मुनिः ॥ तैरेव निकैर्देवै-लिग्नूय निमंत्रितः ॥ २० ॥ देवपिंग मिति ज्ञात्वा । तथैव वलिते पुनः ॥ श्राकाशगामिनीं विद्यां । तस्मै दत्वा तिरोऽभवन् ॥ २१ ॥ पठनयो मुनिवृंदेभ्यः । श्रावं श्रावं स्थिराशयः ॥ व्यधादे
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॥ २०४ ॥
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॥ २०५ ॥
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कादशांगानि । वज्जो वज्रदृढानि सः ॥ २२ ॥
गुरुनिः प्रेरितोऽध्येतुं । प्रतिज्ञामप्रकाशयन् ॥ तदुक्तमेवाऽन्ववद-दव्यक्तध्वनिगर्जितं ॥ ॥ २३ ॥ श्रधीयमानानपरान् । साधून पूर्वगतं श्रुतं ॥ जलौका इव संगृह्णन् । सोऽगृणोन्मसृगाशयः ॥ २४ ॥ निक्षार्थं साधुनिः प्राप्तै- गुरुनिश्व बहिर्भुवं ॥ एकदा वज्र एकाकी स्थितः पौषधमंदिरे ॥ २५ ॥ संमील्य वेष्टिकाः सर्वाः । साधूनां न्यस्य च क्रमात् ॥ वाचनां दातुमारेने । स्वयं गुरुरिव स्थितः ॥ २६ ॥ ध्वनिकोलाहलं तस्य । प्रत्यावृत्ता बहिर्भुवः ॥ श्रादूरतो - गुरवो निजचेतसि ॥ २७ ॥ किमद्य साधवस्तू । निक्षातः समुपागताः ॥ स्वाध्यायं विदधाना नः । प्रतीक्षंते कमाजुषः || २० || द्वारदेशमायाता । जज्ञिरे वज्ज्रमेव तं ॥ एकादशांग्याः पूर्वाणां । श्रुत्वाऽालापांश्च विस्मिताः || २ || धन्योऽस्माकमयं गहो । यत्रेदृक्पात्रसंनवः ॥ मुनिपाठश्रवणेन । निश्चितं पेठिवानसौ ॥ ३० ॥
I
माऽसौ त्रपां प्रयात्वेवं । ते विचिंत्याऽतिवत्सलाः ॥ गुरवो दीर्घनादेन | तदा नैषेधिकीं व्यधुः ॥ ३१ ॥ संहृत्य सोऽपि वेगाच्च । गुरोः पादानमार्जयत् ॥ आकारमवगुह्याथ | चिंताम
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॥ २०५ ॥
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॥ २०६ ॥
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लिव स्थितः || ३२ || मैनं कोऽप्यवजानातु । बालमप्यमलश्रियं ॥ मृदं न वाह्यते लोकैगुढस्थामा गजोऽपि किं ॥ ३३ ॥ विचार्येति तदाचार्या । निकटावसथे स्वयं ॥ दाता वो वाचनां वज्र । इत्यादिश्य प्रतस्थिरे ॥ ३४ ॥ समये शमिनस्तस्य । गुर्वादेशवशंवदाः ॥ वज्रस्याग्रे गुरोर्बुद्ध्या । वाचनार्थमुपाविशन् ॥ ३५ ॥ गुर्वाज्ञां सोऽपि तां ज्ञात्वा । वज्जो वज्रहares || तेषां विस्मितचित्तानां । विधिवद्दाचनां ददौ || ३६ || अभ्युद्यत्प्रतिज्ञाजारा-देककृत्वो जणन्नयं || लब्ध्याऽवबोधयामास । मुनीन् मंदमतोनपि ||३७|| बहिर्ग्रामादयााचार्या । श्रतीतैः पंचषैर्दिनैः ॥ समीयिवांसो गीतार्थान् । पप्रच्छुर्वाचनासुखं ॥ ३८ ॥ जक्त्या प्रणम्य ते प्रोचुः । साधवो बोधिलब्धिमान् । अस्माकं वाचनाचार्य । एष एवाऽस्तु तत्प्रो ॥ ॥ ३ए ॥ जंगमः श्रुतकोशोऽय - मवज्ञातोऽस्ति यत्पुरा । मूढत्वेन तदालोच्य - मस्मानि वतां पुरः ॥ ४० ॥
अज्ञातावशिष्टं य-दंगोपांगादिकं श्रुतं ॥ तत्तस्मै पाठयामासु-गुरवो गौरवादृताः ॥ ॥ ४१ ॥ ततो वज्रस्य सिद्धांत-स्थितेरुतिदेतवे ॥ नृत्सारकल्पमाचख्यौ । धर्माचार्यो यथा
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॥ २०६ ॥
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शीलोप
॥ २०७ ॥
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विधि ॥ ४२ ॥ यावांश्च दृष्टिवादादि - स्तत्र सूत्रार्थसंग्रहः ॥ सागरांन इवागस्ति - स्तत्सर्वं स समग्रहीत् ॥ ४३ ॥ सूरयोऽपि तदा कष्टं । विहरंतस्ततः परं । पुरं दशपुरं प्राप्य । वज्रं सानंदमादिशन || ४४ ॥ दशपूर्वनृतो वत्स । जश्गुप्ताख्यसूरयः ॥ श्रवत्यां सांप्रतं संति । विहरंतः समागताः ॥ ४५ ॥ न तस्य कोऽपि शिष्योऽस्ति । न जवंतं विना मम ॥ दश पूर्वाणि पूर्णानि । स्वात्मसादिधाति यः || ४६ || तस्माडुयिनीं गत्वाऽध्येतुं तानि त्वमर्हसि ॥ गजवाह्यं महानारं । न वोढुं रासनाः क्षमाः || ४७ || अधीयानस्य ते वत्स । दशपूर्वं समाaar || तिः संनिधास्यति । ध्रुवं शासनदेवताः ॥ ४८ ॥ नुमिति प्रतिपद्याथ । वज्जो ययुगान्वितः ॥ वि झौंडीर्य - नयशाली ततोऽचलत् ॥ ४७ ॥ सायमुयिनीं प्राप्तो । रजनीमवसद्दहिः ॥ तदा श्रीनगुप्तोऽपि । लेने स्वप्नममूदृशं ॥ ५० ॥ श्रद्य प्रतीच्छुकः कोऽपि । पयः पूर्ण पतद्गृहं ॥ श्रस्मत्कराडुपादाय । तृप्तिपर्यंतमापपौ ॥ ५१ ॥ अद्य कोऽप्यतिथिः प्रज्ञा - पात्रं साधुः समेष्यति ।। यो मत्तो दश पूर्वाणि । सूत्रार्थाभ्यां गृहीष्यति ॥५२॥ तःइन्योऽहं न मत्तो दि । व्युवित्तिं दशपूर्व्यसौ ॥ यास्यतीति ततः पात्र - योगो विद्याफलं परं ॥
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॥ २०७ ॥
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शोलोप
॥श्न
॥
॥ ५३॥ पुरस्ताद्वतिनामिछं । गुरुः सुप्तोछितो जगौ ॥ प्रात. षेधिकी कुर्वन् । शीघ्रं वजूश्च * वृत्ति - संगतः ॥ ५५ ॥ वजूमाकृतितेजोभ्यां । तमेव परित्नावयन् ॥ जानंश्च योग्यमाचार्य-श्चेतसा मुमुदेतरां ॥ ५५ ॥ पाणिन्यां यावदादाय । परिरब्धं समीदते ॥ तावन्ननाम वजोऽपि । शी. धं तत्पदपंकजे ॥ ५६ ॥ आलिंग्य सोऽपि तक्त्र-ज्योत्स्नातेजो दृशौ दधत् ॥ पप्रच संयमार्थेषु । कुशलं कुशल क्रियः ॥ ५७ ॥ किंच ते वत्स निस्तंइ-सुखं गुरुपदांबुजं ॥ त्यक्त्वा विहारकरणे । कारणं किमवंतीषु ॥ ५ ॥
नत्या नम्रीनवन वजो । गौरवाजुरुमब्रवीत् ।। दशपूर्वीमिहाऽध्येतु-मागतोऽहं गुरोगिरा ॥ एए ॥ तच्च त्वय्येव नाऽन्यत्र । नानाविव परं महः॥ तक्षदिंदोः कलावृौ । तहानेन प्रसीद मे ॥६॥ वजोऽपि गुरुमाहात्म्या-सिञ्चूर्णोऽनुलावयन ॥ चकार दश पूर्वाणि । सं.
पूर्णानि ततोऽनुतं ॥ ३१॥ यत्रोद्देशोऽस्ति तत्रैवा-ऽनुज्ञा नूनं प्रवर्तते ॥ दृष्टिवादादिसूत्राणा ॥२०॥ भ-मेष एव क्रमो ह्यतः ॥ ६ ॥ नगुप्ताशया वजूो । दशपूर्वाण्यधीत्य सः ॥ प्राप्तो दशपुरं
धर्मा-आचार्यपादनिनंसया ॥ ६३ ॥ अथ सिंहगिरिः प्रीतो । वजूस्य दशपूर्विणः ॥ विततार
न
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शीलोप गुणाऽनुज्ञा । पूर्वानुज्ञापुरस्सरं ॥ ६ ॥ तस्मिन्महोत्सवे वज-सुहृनिर्जुनकामरैः ॥ लाजा | वृत्ति
- इव दिवो लक्ष्म्या। विसृष्टाः पुष्पवृष्टयः ॥ ६५ ॥ विहितानशनः सिंह-गिरिसूरिस्ततः परं ॥ ॥ ॥ समाधानाऽधिरोहिण्या-जरुरोह स्वर्गवीथिकां ॥६॥ ततो नवनवाश्चर्य-सजाः श्रीवजसूमरयः ॥ यतिपंचशतीयुक्ता । विजहुमिमंमलं ॥ ६ ॥ यत्र यत्र जगाम श्री-वजूमूरिः कलानिधिः॥ तत्र तत्र जनाः पूर्णा-श्चर्यममा श्वाऽनवन् ॥ ६॥
इतश्च साध्व्यः श्रीवज-स्वामिनः पाटलीपुरे ॥ धनाख्यवणिजो यान-शालायां स्थितिमासदन ।। ६५ ॥ तस्येन्यस्य गुणाऽरीणा । सुता नानास्ति रुक्मिणी ॥ कन्यका बतिनीसंगा-हिवेककलिकामधुः ॥ ७० ॥ सा साध्वीमुखतः शील-सौनाग्यादिगुणोच्चयं ॥ श्री. वजूस्वामिनो नित्यं । विदधे श्रवणाऽतिप्रिं ॥ १ ॥ तत्सौंदर्यसौरभ्यं । निपीय मधुपीव सा ॥ विरागिण्यपि तत्रैव । वजे जाताऽनुरागिणी ॥ ७२ ॥ निश्चित्य चेतसा चैवं । प्रतिज्ञाम- श्णा करोदियं ॥ रोहिण्या श्व चंः श्री-वजू एव वरो मम ॥ ३ ॥ मुग्धे विरक्ते श्रीवजे । मु. धा तव मनोरथः ॥ कल्पधुमंजरीनोगो। मधुकर्या मरोरिव ॥ ४ ॥ इति साध्वीजिरा
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वृत्ति
शोलोपाख्याता । पुनः प्रत्याह रुक्मिणी ॥ ममापि तप्रियस्ता । शरणं चरणक्रमः ॥ ५ ॥ त-
चित्तवृनिः श्रीवजे । वजूलेपे तथाऽलगत् ॥ वर्तिकेव यथा तस्मा-स्वानिलाषान्न साऽचल॥१॥ त् ॥ ७६ ॥ अतुल्यवर्यसौंदर्य-मप्येषा धननंदिनी ॥ वजूार्थिनी काचमिव । न्यञ्चकार न
कं वरं ॥ ७॥ ___ अन्यदा पाटलीपुत्रे । श्रुत्वाऽाचार्यान समीयुषः॥ पौरलोकैर्वृतो राजा । सहर्षे संमुख ययौ ॥ ७० ॥ तेजसा सूर्यसंकाशान् । लावण्यजलधीनिव ॥ पाउके पादुके सर्वान् । मुनी. नालोक्य नृपतिः ॥ ए ॥ चिरं विमृश्य संशति-दोलांदोलितमानसः ॥ को युष्मासु गुरुर्वजू । इत्यपृवत्तपोधनान् ॥ ७० ॥ युग्मं ॥ तेऽप्यूचिरे कुतोऽस्मासु । टिहिमप्रकरेष्विव ॥ रा.
जहंसस्य वजूस्य । राजहंस तव ब्रमः ॥ १॥ हारावल्यामिवामुण्यां । साधुश्रेणौ महाकी युतिः ॥ यो नायक श्वाऽनाति । जानीया वजूमेव तं ।। २ ॥ अथाऽसमानलावण्य-मामैं गतं स दूरतः ॥ शीतांशुमिव तारानि-युतं यतिन्निरैवत ॥ ३ ॥ अनिष्टालोकिनी दृष्टिं
पीयूषैः पारयन्निव ॥ प्रशनाम महीपालः । श्रीवजं नक्तिपूर्वकं ॥ ४ ॥ तत्पादयुगलोर
॥१०॥
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वृनि
शीलोपन्मील-नखन्नाचंदनवैः ॥ सिञ्चू रिवाकार्षी-खलाटे तिलकक्रियां ॥ ५ ॥ समग्रपरिवा-
राख्यो । वजाचार्योऽपि तत्कणं ॥ पुरीपार्श्वमलंकृत्य । विदधे धर्मदेशनां ॥ ६ ॥ तदंतनाप॥११॥ योधारा-प्रक्षालितमनोमलाः ॥ आश्चर्यनाजो राजाद्याः । स्थानं निजनिजं ययुः ॥ ७ ॥
ततोतःपुरनार्योऽपि । श्रुत्वा तपवैनवं ॥ नरेंणाऽन्यनुज्ञाताः । सूरि नंतुं समाययुः । रुक्मिण्यपि तदा वजू-प्रभुं दृष्टुं समुत्सुका ॥ नवाच पितरं तात । समेतोऽस्ति स मे वरः ॥ नए ॥ असौ भ्रमरवृत्तिश्चे-मामनुशाह्य यास्यति ।। कृशानुः शरणीकार्यो । निश्चयेन मया तदा ॥ ए०॥ ____रुक्मिणीमथ पुत्री स । धनकोटियुतां धनः॥ दिव्यानरणवस्त्राब्या-मुपवजं निनाय तां ॥ ३१ ॥ नगवानपि पौरस्त्री-चित्तविदोनन्नीरुकः ॥ सुधीग्रंथमिव स्वीयं । रूपं संक्षिप्य तस्थिवान् ॥ ए ॥ अहो विश्वगुरोरस्य । सातिशायिकलाजुषः॥ गुणानुरूपा रूपश्री-न सृष्टा उष्टवेधसा ॥ १३ ॥ इति नक्तनृणां चित्तं । विज्ञाय ज्ञानचक्षुषा ।। श्रीवजूः सहज रू। जे भुवनचित्रकृत् ॥ एव ॥ अध्यास्य कांचनांनोज । विद्युत्पुंज श्वोज्ज्वलः ॥ श्री
॥११॥
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शीलोप
॥१॥
धर्मदेशनां चक्रे । संसारक्लेशनाशिनी ॥ ५ ॥ पुनरूचुर्जना अस्य । रूपमेतनिसर्गजं ॥ सं- वृत्ति क्षिप्य कृपयाऽस्माकं । प्रकटीकृतवान् पुनः॥ ए६ ॥ इति प्रनावनाश्चर्य । पश्यन् संघो मुदं । दधौ ॥ मेघगर्जनतः किं वा । न नृत्यंति शिखंझिनः ॥ ए७ ॥ धन्यमन्यो धनो दध्यौ । धन्येयं कन्यका मम ॥ यया स्वचित्तदीनारे। वज्ज एव निवेशितः ॥ ए॥ कन्यादानवरध्यान-जातोऽनन्यमना धनः ॥ नाऽशृणोद्देशनां तस्य । कामी शीलकथामिव ॥ एए ॥ देशनांते स चोहाय । प्रभुमेवं व्यजिज्ञपत् ॥ चिराच रक्ता कन्येयं । माधवीव मधौ त्वयि ॥२०॥ तदस्तु योग्यसंबंधा-सृष्टुः सृष्टिः फलेपहिः ॥ रूक्मिएयां खलु जातायां । वजूस्य घटनोचि. ता॥ १॥ पतिर्मम विभुर्वजः । शरणं वह्निरन्यथा ॥ इतिप्रतिज्ञानिष्णाता-मिमां वृणु दयानिधे ॥२॥ मधुकर्येव कल्पद्रु-मरंदाऽास्वादलुब्धया ॥ वराः कत्यनया युष्म-कांदया न निराकृताः ॥ ३ ॥ सर्वातिशायिरूपस्त्व-मेषापि रतिजित्वरी ॥ संयोज्य कांचने रत्नं । ॥१२॥ स्वामिन् प्रीणय मन्मनः ॥ ४॥ असंख्यातगुणाधार-हेमकोटीरनेकशः ॥ अहं ते वितरिप्यामि । पुत्र्याः पाणिविमोचने ॥ ५ ॥ वज्रप्रभुरजाषिष्ट । किमझान्यऽपि कश्चन ॥ विहाय.
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वनि
शीलोप व्रतसाम्राज्यं । नवाधीनत्वमिचति ॥ ६ ॥ लोगा भुजंगनोगाना । विषं सांसारिक सुखं ॥
श्रियः स्त्रियश्च तन्मूलं । कश्रमाश्यिते बुधः॥ ७ ॥ चातुर्गतिकसंसार-परिभ्रमणहेतुषु ॥ किंपाकफलतुल्येषु । रज्यते विषयेषु कः ॥ ७॥ यदीयं धन ते कन्या । मयि गाढाऽनुरागिणी॥
मत्प्रियं संयम तर्हि । समाश्रयतु संप्रति ॥ ए॥ किमेनिर्गत्वरैः स्वल्पैः । संयोगैनवसंज१ वैः॥ शिवार्थ यतनीयं तु । यत्राऽनंतसुखागमः ॥१०॥ इत्यादिन्निः सा सूरीणां । देशना* मृतसिंचनैः ।। शांतमोहार्तिरादत्त । रुक्मिणी तत्कणं व्रतं ॥ ११ ॥ युक्तं गृहीतुमाकांकK करे वजं धनात्मजा ॥ अकरिष्यदसौ वेदं । मोहाः कथमन्यथा ॥१॥ तदा तद्देशना
सारैः। संवेगांकुरलासुराः॥जव्यकल्पमाः के के। प्रापुर्दीक्षाफलानि न ॥ १३॥ इतश्च वजः संघार्थ । विद्यामाकाशगामिनी ॥ महापरिज्ञाऽध्ययना-उदधे लब्धिसागरः ॥१४॥ वि.
येयं मानुषकेत्रा-ऽवधिसंचरणोर्जिता ॥ कस्मैचन न देयेति । श्रीवतः संघमन्ययात् ॥१५॥ भो तथा च जूनिकैर्देवै-दत्तया विद्ययोद्यतः ॥ वजाचार्यों महानाग्यो । जातः संघे प्रनानिधिः
॥१६॥ विहृत्य पूर्वदेशेषु । विद्याब्धिरिव जंगमः ॥ श्रीवजूः कमतः प्राप । उदीचिं दिश
॥१३॥
P3
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शोलोप
वृत्ति
॥१५॥
मन्यदा ॥ १७ ॥ दुर्निके दारुणे तत्र । जाते संतापितप्रजे ॥ युगप्रधान श्रीवजूं । ततः सं घो व्यजिझपत् ॥ १० ॥
अत्र दुर्लिदकांतारे । रंकफेरुशताकुले । बुभुक्षाराक्षसीमंत्रो । जागरूकोऽस्ति केवलं ॥१ए । तन्मंत्रबाधिताः सर्वे । धनिनश्च महाबुधाः ।। नत्रांचक्रुर्धर्मकर्म-कुलाचारव्यवस्थितीः ॥ २० ॥ योगीव परमात्मीयं । ध्यानं ध्यायंति ही जनाः ॥ परमात्मनि च दृष्टेऽस्मिन् लनंते न परं मुदं ॥ १॥ निशाचराणां निदासु । दमैरुत्पाटितैरपि ॥ दधिन्नामेष मार्जारा । श्व पेतूरलबजाः ॥ १२॥ यतिष्वपि समेतेषु । निझार्थ नविकव्रजाः ॥ दापयति कपाटानि। हारेषु स्वर्गरपि ॥२३॥ तदीहक्संकटासंघ-मुहू नाथ चाईसि ॥ निधानमसि लब्धीनां । मणीनामिन रोहणः ॥ ॥ विज्ञप्तिमिति संघस्य । तामाकर्ण्य स सूरिराट् ॥ वि. योद्योगो न दोषाय | संघार्थमिति चिंतयन् ॥ २५ ॥ श्रीमान् वजूस्ततः सूरि-सार्वनौमस्त- पोनिधिः ॥ चर्मरत्नमिव प्रोच्चै-विचक्रे विकटं पटं ॥६॥ संघेन साई तत्रैव । स्वयमंतर्निविश्य सः ॥ प्रायुक्त विद्यां व्योमाध्व-गामिनी गणधरः ॥ १७ ॥ मूर्तो योग श्वाऽचाली
॥१४॥
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झीलोप०
॥ ११५ ॥
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पटः पवनवर्त्मनि ॥ दर्शयन्निव जव्यानां । मोक्षाध्वन्यध्वनीनतां ॥ २८ ॥
दत्तनामा तदा विप्रः | सूरेः शय्यातराग्रणीः ॥ गतो गौचारिकार्येश । तत्कालं गृहमागतः ॥ २९ ॥ श्रीवजस्वामिनं वीक्ष्य | ससंघं व्योमचारिणं ॥ केशानुत्पाट्य धर्मज्ञ । ऊर्ध्वदृष्टिरदोऽवदत् ॥ ३० ॥ शय्यातरोऽहं युष्माकं । जातः साधर्मिकोऽधुना ॥ मामनाश्रमिति त्यत्वा । तत्किं यासि यतीश्वर ॥ ३१ ॥ तदालापमथाकर्य । दृष्ट्वा चोत्खातमूईजं ॥ इदं सस्मार घीरात्मा । सूत्रार्थं दशपूर्वनृत् ॥ ३२ ॥ ये साधर्मिक वात्सल्य - नृतः स्वाध्यायतत्वराः ॥ प्रभावका व्रतोद्युक्तास्ते तार्याः सर्वशक्तिभिः || ३३ || सूरिथिापि समारोपि । पट्टे शय्यातरस्ततः ॥ चचाल च तथैवासौ । वायुनेव पयोधरः || ३४ ॥ वंद्यमानः सुरैव्यनि । प्रीणयन संघमानसं ॥ पुरं महापुरं प्राप । श्रीवजूः पट्टवाहनः ॥ ३५ ॥ सुनिमंडले तत्र । संघो निर्विघ्नमीयिवान || वजूसूरिप्रसादेन । धर्मकर्माण्यसाधयत् ॥ ३६ ॥ तत्र जैन श्व । श्रावका धर्मकर्मसु !! अन्योऽन्यस्पईया तस्थु-वैधर्म्यं वैरकारणं ॥ ३१ ॥ मिलितैः प्रचुरैर्नैनो-पालकैस्तत्र सौगताः ॥ विजिग्यिरे महापूजा - युत्सवैरंजितप्रजैः ॥ ३० ॥ नृ
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वृति
॥ ११५ ॥
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शोलोप
वृत्ति
॥१६॥
पेण बौनतेन । जैनेन्यः कुसुमार्पणात् ॥ पारामिका न्यवार्यंत । खलेनेव परस्तुतिः ॥ ॥ ३ ॥ सुलन्नान्यपि पुष्पाणि । जैनश्राशास्ततः परं॥ कोटीनिरपि न प्रापुः। सामग्री न. व्यजीववत् ॥ ४० ॥ धनाढ्यास्ते ततो रत्नैः । कर्पूरादिसुगंधिनिः ॥ अचम् चक्रुः पंचवर्णैः। पुष्पैरिव समाधिना ॥ १ ॥ _ एवं जिताऽरयोऽप्येते । विशेषोत्कर्षलिप्सवः ॥ उपायं चिंतयामासुः । पुष्पाहरणहेतवे ॥४२॥ अथ श्रीशासनान्नीष्टे । सांवत्सरिकपर्वणि ॥ वजूं विज्ञापयामासुः। पुष्पपूजा विधित्सया ।। ४३ ॥ कृत्रिमैः कुसुमैः पूजा । कीदृक् सौन्नाग्यमभुते ॥ न हि रत्नमयोंज्यैः। - सौहित्यं जायते क्वचित् ॥ ४ ॥ चेक्ष्यं नोन्मुदः स्वामि-स्त्वयि लब्धिनिधौ गुरौ ॥ ध्रुवं गृ.
हमणौ दीप्ते । सोंधकारपरानवः ॥ ४५ ॥ तस्मात्पुष्पाणि संपाद्य । संघं हर्षमुखं कुरु ॥ चंशदन्योऽश्रवा कुर्या-न्मुश्ती कः कुमुवतीं ॥ ४६ ॥ प्रनावनांगमालोच्य । ततः सूरिः ख- मुद्ययौ ॥ पुरी माहेश्वरी प्राप । निमेषेण च पक्षिवत् ॥ ४ ॥ आरामे वह्निदेवस्य । गत स्तत्र च संगतः ॥ पितुर्धनगिरेमित्रं । मालिकस्तमितानिधः ॥४॥ प्राच्यां मित्रन्नवं मित्र
॥१६॥
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शीलोपन तेज श्वोदितं ॥ प्रनाते तं समालोक्य । नयाऽवंदिष्ट मालिकः ॥ भए॥
( ऊचे च हर्षवानस्मि । त्वन्मुखप्रेरणादहं ॥ परमादिश कृत्यं मे । ततो वजोऽप्यन्नाप॥१७॥ त ॥ ५० ॥ गरीयःसंघकार्येऽहं । पुष्पाण्याहर्तुमागतः ॥ तेषां दाने कमस्त्वं च । रत्नानामि.
व रोदणः ॥५१॥ पुष्पाणि विंशतिर्लदा। नवंत्यत्र निरंतरं ॥ अतः स्वैरं समादाय । मां कृता. र्थय संप्रति ॥५॥ पुष्पाणि सन्जय क्षिप्रं। तमित्यादिश्य सूरिराट्॥ जगाम क्षुहिमव-गिरि स्वयमनाकुलः ॥ ५३॥ तत्र शाश्वतचैत्यानि । नत्वा सिगुणैर्युतः॥ पद्मादेव्या हृदं पद्मखंगमंमितमन्यगात् ॥५४॥ राजहंसगणाकीर्णे। गुंजगालिगीतिके ॥ ददर्श तत्र पद्मायाः। सद्मपद्मं मणीमयं ॥ ५५ ॥ पद्म मेकमश्रादाय । पद्मदेवार्चनेछया ॥ प्रस्थिता वज्रमुवीक्ष्य । ननाम विनयान्विता ॥ ५६ ॥ आदिशेति तया प्रोक्ते । दत्ताशोः सूरिरप्पथ ॥ सहस्रपत्रं तत्पाणि-संगतं तामयाचत ॥ ५७ ॥ अर्थश्चेदन्यलक्षाणि । पद्मानामर्पयामि वः ॥ अस्मादि- वनादिन-मुक्त्वा कमलमार्पयत् ॥पणा आदाय कमलापमं । निवृत्य मुनिपुंगवः ॥ हुताशनवने तस्मिन् । पुनराजग्मिवानश्र ॥ एए॥ विकृत्य हेमरत्नाढ्यं । विमानं देववन्मुनिः॥ नृ
॥१७॥
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शीलोप
॥ ११८ ॥
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पुष्पैस्तदंतश्च । श्रियस्तामरसं न्यधात् ॥ ६० ॥
astra तले तस्य । स्वयं पद्मस्य तस्थिवान् ॥ नच्चै रराज राजेव । तारामंडलमंडितः ॥ ६१ ॥ तत्कालं स्मृतिसंप्राप्तैर्नासुरैर्जुनकामरैः || सेव्यः स्वस्वविमानस्थैः । सुरैरिव सुराधिपः ॥ ६२ ॥ वाद्यमानमहासूर्य - नादैर्वधिरितांबरं || गंधर्व किन्नराकी । किंकिणी जालसंकुलं ॥ ६३ ॥ विमानवरमारुह्य । सूरिर्लघु हिमाचलात् ॥ महापुरींप्रति क्षिप्रं । विजहे संघहर्षकृत् || ६४ || विशेषकं || विमानं सौगता रत्न - कांतिविच्छुरितांबरं ॥ वीक्ष्य दध्युर्ध्रुवं 'बौऽ-दर्शनानुवो ह्ययं ॥ ६५ ॥ संनूय सर्वसामग्र्या । स्वमहर्द्धिपुरस्सरं ॥ पश्यंत्यूर्ध्वमुखा याव - फलमुच्चतरोरिव ॥ ६६ ॥ तावत्तदर्दतां चैत्ये ष्वापतत्प्रविलोक्य ते ॥ शक्कलवालिप्ता - स्तस्थुरुत्ता नितेक्षणाः ॥ ६७ ॥ जैनास्तु प्रोद्यदानंद - मेडुरं समहोत्सवं ॥ चक्रुः पर्युषण पर्व । सुपर्वाश्वर्यदायकं ॥ ६८ ॥ श्रीवज्रसूरिसूरस्य । माहात्म्यं वीक्ष्य तादृशं ॥ घूका इव तदा जाता । बौद्धा वंध्यतमोद्यमाः ॥ ६५ ॥ जिनचैत्येषु पुष्पौध - सौरभ्यनरतोंवरे ॥ भ्रमंतो भ्रमरा बौद्ध - दुर्यशांसीव रेजिरे ॥ 30 ॥ श्रीवजप्रतिज्ञातेजो-ध्वस्ताऽज्ञानतमोनरः
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वृत्ति
॥ ११८ ॥
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शीलोप
॥२१॥
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॥ जैननक्तस्तदा जज्ञे । राजा सर्वप्रजापि च ॥ ७१ ॥ प्रतीकस्य तत्रैवा- डार्यरक्षितमदामुनेः ॥ साईनि नवपूर्वाणि । वज्रः क्षिप्रमपीपठत् ॥ ७२ ॥ इति प्रज्ञावनाचित्रं । विदधानः पदे पदे ॥ विजहार क्रमेणायं । श्रीवज्जो दक्षिणां दिशं ॥ ७३ ॥ अन्यदाकस्मिक श्लेष्म - बाघायां वज्रसूरयः ॥ जोजनोर्ध्वमियं ग्राह्या । कर्णे शुंठी मिति न्यधुः ॥ ७४ ॥ ततश्च विि ताऽाहाराः । स्वाध्यायध्यानतत्पराः ॥ तथैव श्रवणस्थाष्णुं । सूरयस्तां न सस्मरुः ॥ ७५ ॥
अावश्यकवेलायां । मुखवस्त्रिकयाादता ॥ पतिता सा खटत्कार - खेल निशि सस्मरे || ७६ ॥ दध्युश्वामी धिगस्माकं । प्रमादः खलु बाधते ॥ ततः शरीरत्यागेन | साधयामः परं नवं ॥ ७७ ॥ इतश्च द्वादशाब्दिक्ये | दुर्भिक्षे वज्रसूरयः ॥ वजूसेनानिधं शिष्यं । ततोऽन्यत्र व्यहारयन् ॥ ७८ ॥ निकामलनमानास्ते । यतयस्तदनंतरं ॥ भुंजते गुरुनििर्दत्तं । पिंडपं ताः || ९ || श्रीवज्रगुरुनिः प्रोक्ता । गीतार्थयतयोऽन्यदा । द्वादशाब्दानि दुर्जिकं । नूनमेतनविष्यति ॥ ८० ॥ दग्धदेहकृते तस्मा दलं संयमबाधया ॥ तीर्थमाश्रित्य तत्प्राणां - स्त्यजामोऽनशनादिना ॥ ८१ ॥ इवं विमृश्य तत्कालं । तत्कालकयकृजिरिं
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वृत्ति
| २१||
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शीजोप
॥ २२० ॥
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॥ कतिचिद्यतिनिर्युक्ता । जग्मुः श्रीवजसूरयः ॥ ८२ ॥ प्रतार्य क्षुल्लकं कंचित्समायतं बलादपि । विमुच्य कृपया ग्रामे । स्वयमारुरुहुर्गिरिं ॥ ८३ ॥ समाधिर्गुरोर्मा नू-गिरेरु गते मयि ॥ इत्यधः क्षुल्लकस्तस्थौ । गृहीताऽनशनः स्वयं ॥ ८४ ॥ तपनात पसंतप्तः । सोऽगलन्नवनीतवत् ॥ वशीकृतेंयिग्रामो । जगाम त्रिदशालयं ॥ ८५ ॥ सुरानागइतो वीक्ष्य | त६पुःसंस्क्रियाकृते ॥ पृष्टो मुनिभिराचष्ट । गुरुः शिष्यपरासुतां ॥ ८६ ॥
तमन्यनंदन्मुनयः । साधुरस्य शिशोर्मतिः । यदेष पश्चान्मुक्तोऽपि । जातोऽस्मासु पुस्तरः || || किमद्यापि प्रमादं तत्कुर्महे शर्मदेतुषु ॥ वयमित्यशनत्यागं । चक्रुस्ते गुरुणा सह ॥ ८८ ॥ श्राविकीनूय मिश्यात्वि - देवता व्रतिनां तदा ॥ मोदकान् दर्शयामास । क्रियतां पारणामिति ॥ ८ ॥ देव्यवग्रहसंबंधा - तं विहाय धराधरं । जगामान्य गिरेः शृंगे । ततो धनगिरेः सुतः ॥ ए ॥ तत्र सम्यग्दृशो देव्या । श्रवग्रहसमाधिना ॥ प्रपाब्याऽनशनं सर्वे । साधवः स्वर्गमैयरुः ॥ १ ॥ तैरेव ख्यापितोदंत-स्तत्रागत्य द्रुतं दरिः || शैलं प्रदक्षि चक्रे । रथारूढः समंततः ॥ ५२ ॥ तत्राद्यापि रथाघात-भुग्नाः संति महीरुहः || रथावर्त्त
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वृत्ति
॥ २२० ॥
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शीलोप
॥ १२१ ॥
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इति ख्यात - स्तदादि च स नूधरः ॥ ९३ ॥ तदेतकृत्यमाधाय । स्वयं च विबुधाधिपः ॥ चितासु स्थापयामास । स्तूपश्रेणीं हिरण्मयीं || ए४ || श्रीवजस्वामिनो मूर्त्तिं । पूजयित्वा सुमादिनिः ॥ स्तुत्वा च तकुलध्यान-निर्जरो दिवमासदत् ॥ ९५ ॥ इतश्व वज्रसेनोऽपि । श्रुतसागरपारगः ! सोपारपत्तनं प्राप । गुरुशिक्षावशंवदः ॥ ए६ ॥ तत्रास्ति जिनदत्ताख्यः | श्रेष्टी श्री शिरोमणिः || ईश्वरी वल्लना तस्य | जिनधर्मविशारदा ॥ ए ॥ तयोस्तनूजाश्वत्वार-श्चतुरा धर्मकर्मसु ॥ चंदेशिकनार्गेइ - विद्यानृत इति श्रुताः ॥ ए८ ॥ सर्वे विवेकिनः शस्या - ऽनावाद्दुर्मृत्युशंकया ॥ विषेणाराधनापूर्वी । प्राणत्यागं चिकीर्षवः ॥ ९९ ॥ लकमूल्येन संसाध्य । पायसस्थालिकाममी ॥ विषम किप्यडुर्जिक - कीला यावत्दिपंति न ॥ ॥३०॥तावनिक्षागतो वज्र - शिक्षापीयूष निर्जरः ॥ श्रीवज्रसेनस्तत्राऽागात् । तत्कर्मनिरिवाहृतः || १ || ईश्वरी तत्पुरोनूय । धन्यंमन्या मुनिं जगौ || साधु साधु महानाग्यैः । समये त्वमिहागतः ॥ २ ॥ यावदद्यापि नो लिप्तं । विषेण खलु पायसं । तावदेतत्प्रतिगृह्य । तारयाऽस्मान् जवांबुधेः || ३ || ततः स्मृत्वा महात्माऽपि । वज्रशिक्षामदोऽवदत् ॥ मा त्रिय
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वृत्ति
॥ १२१ ॥
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शोलोप ध्वं मुधा यस्मा-सुन्नित्यं नविता प्रगे ॥ ४ ॥ इदमेव सुनिक्षस्य । ध्रुवमादिश्य लक्षणं ॥ वृत्ति
प्रेषितोऽहं तदा वज-सूरिनिनिराशिन्निः ॥ ५॥ इति तच्चसा तस्मा-निवृत्ता अपमृत्युतः ५ ॥२॥ ॥ प्रातर्देशांतराचस्य-पोताः प्राप्ताश्च नूरिशः ॥ ६ ॥ जातं सुन्निदं श्रीश्रेष्टि-सूनवोऽय प्र.
बुद्ध्य ते ॥ चत्वारोऽपि चतुर्थार्थ-लिप्सया जगृहुव्रतं ॥ ७॥ चत्वारः स्थापिता गहा-स्तनाकल ना प्रथिताश्च ते॥ अतोऽसौ वजसेनाख्या । शाखाद्यापि प्रवर्तते ॥॥ ज्ञवं प्रनावकशिरोमु
कुटायमाने । वजे सुरास्पदमुपेयुषि लब्धिसिंधौ ॥ विश्वेदमापदिह संहननं चतुर्थे । क्षेत्रे तदादिदिवसादशमं च पूर्व ॥ ए॥ ___॥इति श्रीरुपल्लीयग श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंससोमतिलकसूरिविरचितायां श्रीशी. लोपदेशमालावृत्तौ शीलतरंगिण्यां श्रीवजसूरिचरितं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ॥ शीलपालनसामर्थ्यास्त्रियोपि पूज्यतामुपदिशन्नाह
॥२२॥ ॥ मूजम् ।।—पालंती नियसीलं । गवंती सुधम्ममग्गमि ॥ रहनेमि मुर्णिपि जए। पुजा राईमई अज्जा ॥ ३ ॥ व्याख्या-निजं शीलं पालयंती, श्रीनेमेर्दीकाकवीकारानंतर
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शीलोप
॥ १२३ ॥
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परररतिरहिता
ह्म सेवा चतुरचाटुशत मुखर मुखं श्रीने मिलघु बांधवं प्रबोध्य व्रतदा निजाना जगति संसारे प्राय तपोधना राजीमती श्रीनग्रसेनात्मजा शीलपालनमेव च स्त्रीयां प्राधान्यं कलयति यदुक्तं-शीले जीवति जीवंति । कुलं लोकक्ष्यं यशः ॥ शीलरक्षा ह्यतः स्त्रीणां । प्राणेभ्योऽप्यधिका मता ॥१॥ इति गाथार्थः, कथानकं प्रागेवोक्तमित्यत्र नोच्यते.
गृहस्थानामपि शीलैकशीलनात्परमोत्कर्षतामाद
॥ मूलम् ॥ - ते धन्ना गिहिलोवि हु | महरिसिमनंमि जे उदाहरणं ॥ निरुवमसीलवियारे । पार्वति सिधमादप्पा ॥ ४४ ॥ व्याख्या - खलु निश्वयेन ते गृहिणोऽपि धन्याः, गृहवासे वसंतोSपि कृतार्था एव निरुपमशीलविचारे निरतीचारब्रह्मव्रतपरीक्षायां प्रसिद्धमादात्म्याः ख्यातप्रज्ञावाः संतो महर्षिमध्ये नदाहरणं दृष्टांतं प्राप्नुवंति, महामुनित्रतदाप्रशं सावसरे श्लाघ्यंते, तदेव हि परमं विभूषणं प्राणिनां उक्तं च - ऐश्वर्यस्य विभूषणं मधुरता शौर्यस्य वाक्संयमो | रूपस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः ॥ श्रक्रोधस्तपसः कमा प्रजवतो धर्मस्य निर्वाच्यता । सर्वेषामपि सर्वकाल नियतं शीलं परं भूषणं ॥ इति गा
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वृत्ति
॥ २२३ ॥
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शोलोप
।
॥२४॥
थाऽवयवार्थः॥ तमेवार्थ दृष्टांतेन दृढयन्नाद
॥मूलम्॥-सीलपन्नावपनाविय-सुदंसणं तं सुदंसणं सर्व्ह ॥ कविलानिवदेवोहिं । अखोहियं नमह निचंपि ॥५॥ व्याख्या-शीलप्रनावितसुदर्शनं शीलमाहात्म्योद्योतितजिनशासनं तं सुदर्शनश्राई कपिलानृपदेवीच्यामकोनितं चालयितुमशक्यं नित्यं नमत ? गृहस्थस्यापि यतिवद् दृढव्रतत्वानिरंतरं नमस्कारयोग्यतेति गाथार्थः, नावार्थः कथानकगम्यः, स चाय तश्राहि-अस्त्यंगविषयकोणी-वेणीचूडामणीयिता ॥ पुरी चंपेति विख्याता । शंपेव व्योमनीरदे ॥ १॥ तां शास्ति स्वर्गशास्तेव । राजा श्रीदधिवाहनः ॥ मथनाऽगोचरं यस्य । यशो पुग्धाब्धिमुग्धवत् ॥२॥ अन्नया वल्लन्ना तस्य । यस्या लावण्यनीरधिः॥चित्रं रक्तांतरं चके । राजानं यशसोज्ज्वलं ॥ ३ ॥ अन्नू वृषन्नदासाख्य-स्तस्यां पुर्यामुपासकः ॥ अईहासी प्रिया तस्य । जिनधर्मंकवत्सला ॥ ४ ॥ तस्यास्ति महिषीपालः । सुन्नगाख्यः शुन्नाय- तिः ॥ श्रेष्टिनो महिषीर्वन्य-नूमौ चारयतिस्म सः ॥ ५॥ माघमासेऽन्यदा सायं । निवृत्नः स गृहंप्रति ॥ प्रतिमास्थितमज्ञदी-न्मुनिमप्रावृतं पथि ॥ ६ ॥ गृहप्राप्तोऽपि तं साधु । हि
॥
॥
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वृत्ति
शीलोप मानीवर्षःस्थितं ॥ ध्यायन्सकरुणः कष्टं । रजनी तामवादयत् ॥ ७॥ ततः सवेलमुबाय ।
& पुरस्कृत्य स सैरिनीः ॥ गस्तथैव प्रैक्षिष्ट । कायोत्सर्गस्थितं मुनि ॥७॥ आसांचक्रे - ॥५॥ नत्वा । तत्रैव मुनिसन्निधौ ॥ नदियाय सहस्रांशु-स्तावनत्पुण्यबीजवत् ॥ ए ॥ चारण
र्षिस्ततस्तीव्र-तेजा रविरिवाऽपरः ॥ नमो अरिहंताण-मित्युक्त्वा दिवमुद्ययौ ॥ १०॥ त. या मंत्रमिव विद्याया । व्योमगाया विदन्नयं ॥ निदधौ हृदये हार-मिव निर्मलमौक्तिकं ।।११॥
दिवारात्रौ चलंस्तिष्टन् । स्वपन जागृगृहे बहिः ॥ तदेव दध्यौ कामीव । सुन्नगः सुनगानि
धां ।। १२ ।। अपृचदन्यदा श्रेष्टी । पदमेतत्त्वया कुतः ॥ प्रासादितं दरिक्षेण । निधानमिव दु. मर्सनं ॥ १३ ॥ विद्याया व्योमगामिन्या । एव मंत्रो मयाप्यत ॥ इत्युक्ते तेन तल्लानो-दंते
श्रेष्टी जगाद तं ॥ १४ ॥
___ न केवल मियं विद्या । नन्नसो गमने पटुः ॥ कारणं किंतु जानीया । अपि स्वर्गापवर्ग- * योः ॥ १५ ॥ यदि वा उर्लन्नं किंचि-द्यदस्ति भुवनत्रये ॥ तदस्मात्सुलग्नं नावि । कामधेनो
रिवाऽखिलं ।। १६ ॥ यथार्थ सुन्नगं तत्त्वां । वयं संप्रति मन्महे ।। परं न जप्या विद्येय-मु.
॥२५॥
२४
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शीलोप
॥ २२६ ॥
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त्सृष्टेन सता त्वया ॥ १७ ॥ इत्याश्वास्य नमस्कारं । सकलं तमपाठयत् ॥ निःस्वो निधिमिव प्राप्य । सुगृहीतं च तं व्यधात् ॥ १८ ॥ तस्याऽजस्रं नमस्कार - परावर्त्तनशीलिनः ॥ कालः प्रवासिनां वर्षा - कालः क्रमत आपतत् ॥ १७ ॥ धरामेकार्णवां धारा- घरे कुर्वति सर्वतः ॥ गृहीत्वा महिषीः क्षिप्रं । सुनगोऽपि ययौ वनं ॥ २० ॥ तीर्त्वा तूरी नदीं ताश्च । परक्षेत्रे तदाविशन् || मत्स्वामिन उपालंनो । मायासीरिति चिंतयन् ॥ २१ ॥ व्योमविद्याधिया ध्याय - नमस्कारं तदंतरे || पपात दत्तऊंपोऽयं । कीलविहो ममार च ॥ १२ ॥ युग्मं ॥ नमस्कारप्रावेण । मानसे राजहंसवत् ॥ सुस्वप्नसूचितः श्रेष्टि - नार्याकुकाववातरत् ॥ ॥ २३ ॥ अर्द्धके गर्नमापन्ने । तस्मिन्मासि तृतीयके || पत्न्या धर्ममयान् श्रेष्टी । दोहदान पर्यपूरयत् ॥ २४ ॥
समयेऽसूत सा पुत्रं । सर्वागशुनलक्षणं ॥ नाम चोत्सवतः श्रेष्टी । सुदर्शन इति व्यधातू || २५ || ववृधे पुण्यजा श६िः । सह पित्रोर्मनोरथैः ॥ पूर्वाञ्यस्ता इवाग्राहीत् । किमं स सकलाः कलाः ||२६|| क्रमेण यौवनं प्राप्तवता तेन विवेकिना । कन्यां मनोरमां ना
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वृत्ति
॥ २२६ ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥२॥
नी । जनकः पर्यणाययत् ॥७॥ सर्वानंदो दिनीयस्याः । शशीव स सुदर्शनः॥ जने च रा. - जवर्गे च । मान्यतामगमत्तरां ॥ २८ ॥ इतश्च कपिलाख्येन । समं राजपुरोधसा ॥ स्मरे
व वसंतस्य । तस्य प्रीतिरजायत । श्ए ॥ नित्यगोष्टीसुधावृष्टि-प्रीणितांतरयोस्तयोः ।। सु. खेन दिवसा यांति । रामलक्ष्मणयोरिव ॥ ३३ ॥ अन्येद्युः कपिला नानी । नार्याऽपृचत्पुरो. घसं ॥ किमद्यकट्ये ते स्वामिन् । शैथिल्य सर्वकर्मसु ॥ ३१ ॥ ऊचे सुदर्शनाख्योऽस्ति । मित्रं प्राणप्रियं मम ॥ तमोष्टीसुखनिर्मग्नो । न स्मरामि किमप्यहं ॥ ३२ ॥ कोऽसौ कीहगिति प्रोक्ते । तयाऽसौ पुनराह च ॥ पुत्रो झपन्नदासस्य । श्रेष्टिनोऽसौ महामतिः ॥ ३३ ॥ रूपलावण्यसौजन्य-दाक्षिण्यप्रमुखा गुणाः ॥ कियंतस्तस्य वएयते । गगने तारका श्व ।। ॥ ३५ ॥ व्यर्थजन्मासि न त्वं । ययाऽसौ गुणसेवधिः ।। न दृष्टो न श्रुतो वापि । पद्मिन्ये
व सुधारुचिः ।। ३५ ॥ ॐ शुभैरपि गुणैस्तस्य । श्रुतै रक्तांतरा हुतं ॥ नपायांश्चिंतयामास । कपिला तदिदृकया
॥ ३६ ।। गूढं राजाज्ञयाऽन्येद्यु-गते ग्राम पुरोहिते ।। सुदर्शनगृहेऽन्यागा-स्कपिला कामवि
॥॥
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शीलोप
॥ १२८ ॥
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हला ॥ ३७ ॥ ऊंचे च सुहृदस्तेऽद्य । न वपुःपाटवं तथा ॥ सुदर्शन सुधादृष्ट्या । तत्तमागत्यतोषय ॥ ३८ ॥ मित्रप्रीत्या डुतं सोऽपि । गतस्तन्मंदिरे तदा ॥ क्व मे मित्रमिति प्रोक्ते । निर्वातेऽस्तीति साऽवदत् || ३ || निगोदेषु प्रमादीव । तयानीतो गृहांतरे || कामुकी कामयामास । विभ्रमैस्तमश्रो रहः ॥ ४० ॥ द्वारं दत्वा श्लथश्रोणि-बंधा निस्त्रपमालपत् ॥ प्रत्युत्पन्नमतिः सोऽपि । तामिवं प्राह सस्मितं ॥ ४१ ॥ इदमेव फलं यूनां । संसारे सारतोप्रिते । किं त्वदं षंढनावेन । नये धात्रा विडंबितः ॥ ४२ ॥ तन्नामिनि वृथा जांता । मयि रूपधारिणि ॥ क्षुधाक्रांतस्तालफला - ऽभिलाषी पथिको यथा ॥ ४३ ॥ वोकापन्ना ततो ग- युक्त्वा दिजांगना || द्वारमुन्मुइयामास । सद श्रेष्टिमनोरथैः || ४४ ॥ ततो जीव इवो निन्न-ग्रंथिर्निर्गत्य स द्रुतं ॥ जवं तृणमिव ध्यायन् । ययौ सरलवर्त्मना ॥ ४५ ॥ राक्षसीन्य इव स्त्रीय-स्ततो जीरुः सुदर्शनः ॥ परगेहे न गंतव्यं । निश्विकायेत्यतः परं ॥ ४६ ॥ मूर्तो योग इवाऽजस्रं । धर्मध्यानपरस्ततः ॥ सर्वकर्माणि वश्यात्मा । निरवद्यतयाऽाचरत् ॥ || ४७ ॥ अथान्यदा सदादाय । सुदर्शनं पुरोधसा ॥ ययौ क्रीडितुमुद्यानं । राजा श्रीदधि
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वृत्ति
॥ २२८ ॥
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वृत्ति
झीलोप वाहनः ॥ ४ ॥ ततः कपिलया साई। शचीव सुरनायकं ॥ यानारूढाऽनया राशी । दधि-
1 वाहनमन्वगात् ॥ धए । इतः सुदर्शनस्यापि । जाया षन्निः सुतैर्युता ॥ गुणैः साम्राज्यल॥श्मीव-त्संचचार तदा पश्रि ॥ ५० ॥ दृष्ट्वा तां कपिलाऽपृचत् । पट्टराझी सविस्मयं ॥ केयं
षन्निः सुतैर्युक्ता । रसैरिव पुरांगना ॥ ५१.॥ अनयााह न जानासि । कथमेनामपि विजे ॥ सुदर्शनस्य नार्येयं । गेहलक्ष्मीरिवांगिनी ॥ ५५ ॥ पुनः सस्मितमप्रावी-द्यदीयं तस्य व. बन्ना ॥ क्षोरिव फलप्राप्तिः । कुतोऽस्यास्तनयास्ततः ॥ ५३॥ तयोचे किमसंबई । जल्पाके ननु जल्पसि ॥ साधारणं हि पुत्राप्ति-लक्षणं राजरंकयोः ॥ ५५ ॥ न तस्य पुंस्त्वमस्तीति । तयोक्तेऽनययोच्यत ॥ नूनं कुत्रापि दृष्टोऽस्ति । चपले सत्यमुच्यतां ॥ ५५ ॥ पृष्टेति तस्य षंढत्व-वृत्तांतं मूलतोऽवदत् ॥ ततोऽनयाऽप्यन्नाषिष्ट । त्वं मूढे वंचिता ध्रुवं ॥५६॥ धर्मी सोऽयं परस्त्रीषु । पंढो न निजयोषिति ॥ संकोचयन पद्मिनी किं । दुष्यः कुमुदिनीप- तिः॥५॥ कपिला कपिपत्नीव । तयोपहसिता ततः ॥ सवैलक्ष्या समंदादं । मंदादरमनापत ॥ ए॥ मूढाऽहं वंचिता ताव-तेन षंढत्वदंनतः॥ तवापि वेनि वैदग्यं । रमसे चे
॥२॥
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शोलोपसुदर्शनं ॥ ५ ॥
सगर्वमुररीकृत्य । सच्चो महिषी जगौ ॥ हले सहेलं तर्दैनं । जानीहि क्रीडितं मया। ॥३० ॥६॥ यतोऽनेकनराधीश-कन्यादुर्ललितोऽप्यसौ ॥ नरेंशे चूलताकपा-नाम्यते कपिबालव
त् ॥ ३१ ॥ रमणीनिररम्यंत । नीरसा अपि तापसाः ॥ किं वाच्यमस्य तु स्वैरं । सदा कांतानुषंगिणः ॥ १२ ॥ एकाक्षा अपि पुष्पंति । स्त्रीकटाक्षादिनिर्द्वमाः ॥ पंचेंशियस्य दकस्य । दोनणेऽस्य कियान श्रमः ॥ ३३ ॥ यद्यहं न रमे चैनं । तदिशामि हुताशनं ।। प्रतिझामि. ति कुर्वाणा । संप्राप्तोद्याननूमिकां ॥ ६ ॥ चिरमारामसंपत्तिं। सफलीकृत्य ते ततः ॥अन्नयाकपिले सायं । स्वस्वं गृहमुपेयतुः ॥ ६५ ॥ अथ प्रतिज्ञामात्मीयां । राझी त्वनन्यमानसा ॥ तदैव पंडितानाम्न्या । निजधान्याः पुरोऽवदत् ॥ ६६ ॥ प्रोचे तयापि हा पुत्रि । न त्वया साधु मंत्रितं ॥ धैर्यशक्तिं न जानाति । यतोऽयापि महात्मनां ॥ ६७ ॥ सामान्योऽ- पि जिनश्राः । परस्त्रीषु सहोदरः ॥ सुदर्शनस्य तु व्यक्तं । सत्त्वसीमैव निःसमा ॥६॥ स हि नित्यं गुरूपास्ति-धर्मध्यानकतानधीः ॥ आनेतुमप्यशक्योऽत्र । दूराऽपास्तं च क्रीडनं
॥३०॥
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शीलोप
॥ १३१ ॥
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॥ ६ ॥ कः प्रतिशृणुते पातुं । मृगतृष्णाजलं सुधीः ॥ शशशृंग जिघृकायै । कः पर्यट काननं ॥ ७० ॥
तथा सुदर्शनस्यास्य । शीलोल्लंघनकर्मणि ॥ रूपसौभाग्यगर्वेण । कः प्रयत्नं चिकीर्षति ॥ ७१ ॥ पुनः साग्रहमादस्म | देवी मातः कथंचन । तमानयैकदा त्वं त्वां । नियोक्ष्ये
कर्म || २ || विचिंत्य पंरिताप्यूचे । यद्येष तव निश्वयः || उपायचिंतितो ह्यस्ति । तत्तदानयने मया ॥ ७३ ॥ पदे यदसौ कायो - सर्गे शून्यगृहादिषु ॥ धत्ते तदैव नेतव्यो । नान्यथा तस्य संगमः ॥ ७४ ॥ साधु साधु यथार्थासि । पंरिते मतिमंमिते ॥ कर्त्तव्योऽयमुपायस्त - त्वया सोमित्युवाच च ॥ ७५ ॥ सुदर्शनप्रमाणेन । कामस्य प्रतिमां ततः ॥ श्रानतनयं च । विश्वस्तान् यामिकान् व्यधात् ॥ ७६ ॥ इतश्च कौमुदी पर्व -क्रीडार्थ विपि ने प्रजाः । नूनृदाह्वाययामास । पटहोदोषपूर्वकं ॥ ७७ ॥ गृह एव तदा श्रेष्टी | चतुर्मासि कपर्वणि । विज्ञप्य भूभुजं तस्थौ । धर्मकृत्यचिकीर्षया ॥ ७८ ॥ पंमिताऽपि तदा राज्ञी -मुवाचाद्य त्वया वने ॥ न गंतव्यं यथा तेऽद्य । प्रतिज्ञा सफलीभवेत् ॥ ७९ ॥ श्रद्य मां बा
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वृत्ति
॥ १३१ ॥
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वत्ति
शोलोपाधते शीर्ष-वेदनेति मिषादसौ ॥ पृत्य नृपति तस्थौ । सद्योमतिबलाः स्त्रियः ॥०॥सुद-
नोऽपि निर्माय । देवार्चादिविधीन दिने ॥ संगृह्य पौषधं शून्य-गृहेऽस्थात्प्रतिमां निशि ॥ ॥१ ॥१॥ पंडितापि ततो न्यस्य । याने बन्नं सुदर्शनं ॥ अस्खल्यमाना हारस्थै-रत्रयायै स
मार्पयत् ॥ २ ॥ धृतशृंगारतूणीरा-कृष्टवल्लिकार्मुका ॥ सजिताऽपांगनाराचा । साल. क्यं श्रेष्टिनं व्यधात् ॥ ३॥ हुं नई फलितं तेऽद्य । तपस्तप्तं सुदुस्तपं ॥ मुंच कष्टमिदं धृ. ट। हृष्टश्चेष्टमथाचर ॥ ४॥
वं सनम जयंती । कल्पिताऽनल्पविक्रिया ॥ स्तनोपपी सर्वांग-मालिलिंग स्मरातुरा ॥ ५ ॥ विशिष्य ध्यानमध्यास्त । तदानीं श्रीसुदर्शनः ।। प्रलयोनालवातेन । सुमेरुः किम कंपते ॥ ६ ॥ पुनः साह कियान । पुरो मे नाटयिष्यति ॥ काममातंगन्नीताऽहं । त्वामस्मि शरणंगता ॥ ७॥ तस्मान्मा मामुपेक्षस्व । चिरं खिन्नां कृते तव ॥ मूढोऽपि को मुधा लब्धां । सुधां परिजिहीर्षति ॥ ७ ॥ सोऽपि दध्यौ धिया धीरो । मुच्ये चेत्संकदादतः ॥ पारयामि तदोत्सर्ग-मन्यथाऽनशनं पुनः ॥ नए ॥ सहेलं हीलिता तेन । तथा
॥३॥
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शीलोप
वृत्ति
॥३३॥
साऽन्यप्रंयंत्यपि ॥ जातकोपाय चमोव । तं नापयितुमुद्यता ॥ ए० ॥ धिक् ते ज्ञानं न जा- - नासि । मां सुधां माऽवमानय ॥ पीयूषं मानिनी तुष्टा । रुष्टा विषमवेहि च ॥ १ ॥ यम
दूती ध्रुवं तेऽहं । जाता तीव्रतयाऽनया । इत्यादि नकुटीनीमा । नामिनी तमन्नापयत् ।। ॥ २॥ स पनानसीमान-मारोह विशेषतः॥ शंभनेत्राग्निसंगेन । सधाधामैव चश्माः ॥ ३ ॥ विलक्षाथ विनातायां । विन्नावों नृपांगना ॥ पूच्चकार नखैः स्वांगं । विलिखंती रुषाकुला ॥ एच ॥ ततः प्राहरिकाः क्षिप्रं । समीयुस्तत्र संत्रमात् ॥ ददृशुः केवलं शांतं । प्रतिमास्थं सुदर्शनं ।। ए५ ॥ ____ अस्मिन्नसंजवत्येत-बशिनीव विषोर्मयः ॥ तं तैरिति विज्ञप्तो । नृपः स्वयमुपागमत् । ए६ ॥ सबाष्पमन्नया नूपं । स्खलदहरमाख्यत ॥ युष्मानापृच्छय देवाहं । यावदत्र समागता ॥ ए७ ॥ तावताऽकांडकुष्मांझ-मिवाऽदर्शममुं पुरः ॥ पटुचाटुन्निराचष्ट । उष्टो मां च रिरंसया ॥ एG || अनिचंती बलात्कारं । कुर्वन्मां व्यलिखन्नखैः ॥ पूच्चक्रे च मया किं वा । । बलं स्यादबलाजने ॥ एए ॥ पूतरा श्व उग्धेऽस्मि-त्रसंन्नाव्यमिदं खलु ॥ मत्वेति नूपः
॥३३॥
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शीलोप
॥ २३४॥
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। किमेतदिति तं मुहुः ॥ १०० ॥ श्रजयाकृपया किंचिन्न चोवाच सुदर्शनः || पीड्य - मानोऽक्षु । मधु प्रोभिरते यतः ॥ १ ॥ पारदारिकचौराणां । मौनमेव दि लक्षणं ॥ विमृश्येति महीनर्त्ता । तस्मिन् दोषमजावयत् || २ || प्रथादिदेश कोपेना- डारक्षका निति नूपतिः ॥ विडंव्य दोषं व्याख्याप्य । पुरे चैष निगृह्यतां ॥ ३ ॥ तैरथादाकृष्य केशेषु । नीतो बहिरुरज्रवत् ॥ यदुक्तं यौवनेऽवश्यं । जवत्येव विमंबनाः || ४ || मौलौ स्रक् कणवीराणां । कंठे किता च निंबजा || मप्याऽमंमि मुखं रक्त-चांदनैश्व रसैर्वपुः ॥ ५ ॥ सूर्पवत्रीकृतशिराः । खरपृष्टेऽधिरोपितः ॥ चक्रेऽस्य वध्यनेपथ्यं । डिंडिमध्वनिपूर्वकं ॥ ६ ॥ कृताऽपराधः शुद्धांते । वध्यतेऽसौ सुदर्शनः । इत्याघोषणयाहारेने । पुरे ग्रामयितुं नटैः ॥ ७ ॥ न साधु विदधे राज्ञा । न युक्तमिदमीदृशे ॥ न कुशीलोऽयमेतस्य । वदनं नाऽपराधिनः ॥ ८ ॥ किं वा शून्यगृहे शेते । दैवमत्रापराध्यति ।! जीवन किं मोक्ष्यते इव्यै- रपि सर्वैः कथंचन ॥ ९ ॥ वं ब्रुवाणे पुर्लोके | हाहाकारपरायणे । रुदनिः सुजनैश्चाय-मग्रेऽगान्निजवेश्मनः ॥ १० ॥ मनोरमा रामा - शिरोरत्नं महासती ॥ चेतस्यचिंतयन्नेद - मुचितं मत्प्रनोदा ॥
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वृत्ति
॥ २३४ ॥
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शीलोप०
वृत्ति
॥३५॥
॥ ११॥ यतः--
अंगारवृष्टिश्चचंश-जायते चांबु वह्नितः ॥ अपाच्यामुदयी जानु-स्तथाप्यस्य न इष्टता ॥१२॥ इति सा चिंतयाणाचांता । गत्वा गर्नगृहांतरे ॥ पूजयित्वा जिनं चक्रे । कायोत्सर्ग महासती ॥ १३ ॥ अचिंतयच्च शएवंतु । श्रीजिनशासनदेवताः ॥ नत्पातो निष्कलंकस्य । श्राइस्यायमुपस्थितः ॥ १४ ॥ चेत्करिष्यथ सांनिध्यं । तदा पारयितास्म्यहं ॥ कायोत्सर्गममुं नो वा-ऽनशनं मे कुल स्त्रियः ॥ १५ ॥ निर्वेदं मा कृथा वत्से । संनिधास्यामहे वयं ॥ - छ दिव्यामियं वाणी-मशृणोत्प्रतिमास्थिता ॥ १६ ॥ श्तश्च भ्रामयित्वा ते । शूलिकायां सुदर्शनं ॥ न्यधुरारक्षकाः स्वर्णी-नोजासनमनूच तत् ॥१७॥ वधाय पुनरेतैश्च । प्रयुक्ताः खजयष्टयः ॥ हारलीलायित नेजुः । कंठे मौलौ च मौलितां ॥१७ ॥ कर्णयोः कुंडलीनावं । बाह्वोः केयूरतामगुः ॥ पादयोईस्तयोश्चैव । प्रोद्यत्कटकतां च ते ॥ १५ ॥
तदाश्चर्य नरेंशय । झापयामासुराशु ते ॥ आगात्करेणुमारुह्य । सोऽप्युपश्रीसुदर्शनं ॥ ॥ ३० ॥ साऽनुतापं तमाश्लिष्या-जाषिष्ट पृथिवीपतिः॥ श्रेष्टिन दिष्ट्याद्य दृष्टोऽसि । जी
॥३५॥
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शोलोप
॥ ३॥
वन स्वस्य प्रनावतः॥१॥ जागरूकास्ति यस्यांग-रकणे धर्मवासना | दिव्यास्त्रमपि कुं- वत्ति
त । स नरः पुरुषोत्तमः ॥ ॥ स्त्रीणां वचसि विश्वासं । निर्विवेकी करोति यः ॥ संता-4 पन्नाजनं स स्या-दधिवाहनवद्भुवि ॥ २३ ॥ परवाचाऽपराई य-तन्मे कम्यमितीरिणा ॥राझा करिण्यामारोप्य । स्वसौधेऽनायि सोत्सवं ॥ ॥ हर्षोत्कर्षवशालोकै-स्तदेत्यूचे मनोरमा ॥ वद्ध्यसे मंगलैः कायो-सर्ग पारय पारय ॥ २५ ॥ सस्नेहमय सत्कृत्य । वस्त्रमाल्यानुलेपनैः ॥ पृष्टो राज्ञा यथावृत्तं । सोऽपि तथ्यमचीकथत् ॥ २६ ॥ त्वमेवाऽचीकरस्तर्हि । ममाऽकृत्यानिषेचनं ॥ नाऽवोचः किमपि श्रेष्टिं-स्तथा पृष्टोऽपि यत्तदा ॥ २७ ॥अन्नयानिग्रहे क्रुइ-मथ नूपं सुदर्शनः ॥ ययाचेऽनयमेतस्या। मौलिमालिंग्यः पादयोः ॥ २० ॥ सुदर्शनोपज्ञ-जिनधर्मप्रत्नावनां । ज्ञात्वा तदादि जैनें-मते राजा त्वरज्यत ॥ श्ए ॥ अथेनस्कंधमारोप्य । वृत्तं लोकैरनेकशः ॥ राजा सुदर्शनं प्रैषी-तस्य हर्षेण मंदिरं ॥ ३०॥ ॥३६॥
तं वृत्तमन्नया ज्ञात्वा । स्वमुबद्ध्य व्यपद्यत ॥ स्वयं कृतानि पापानि । स्वात्मन्येव पतंति यत् ॥ ३१ ॥ पंडिता पाटलीपुत्रे । देवदत्तांतिकेऽगमत् ॥ तादृशानां हि पात्राणां । यु.
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शीलोप
॥ २३७ ॥
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ज्येत स्थानमीदृशं ॥ ३२ ॥ सुदर्शनस्य शीलं सा । वर्णयामास तत्पुरः ॥ साऽप्याद जाने तलं । दृष्टो जवति चेद् दृशा ॥ ३३ ॥ सुदर्शनोऽपि संसार - विरक्तो व्रतमग्रहीत् ॥ विदरन् पाटलीपुत्रे । दृष्टः पंडितयाऽन्यदा ॥ ३४ ॥ श्राविकीभूय वंदित्वा । साग्रहं पारणामिषातू || गणिकाया गृहेऽनैषीत् । रुजवो यतयो यतः ॥ ३५ ॥ द्वारं नियंत्रय बध्ध्वा तं । मुनिमेषाऽकदर्थयत् ॥ ध्यानाञ्चचाल नैषस्तु । रत्नदीप इवाऽनिलैः ॥ ३६ ॥ सायं विमुक्तो निर्ग त्य | विरक्तात्मा वने गतः ॥ तस्थौ प्रतिमया मध्ये - स्मशानं प्रतिमां वहन् || ३७ ॥ तत्राऽपिव्यंतरीभूता - ऽनया दृष्ट्वाऽकुपत्पुनः ॥ स्वयमन्येन वा जातं । वैरं क्लेशस्य कारणं ॥३८॥ सोपाइवदमुं रोषा-दुपसगैर निर्गलैः ॥ महात्माऽपि शुनध्याना - केवलज्ञानमासदत् ||३५|| तत्कालं केवलज्ञान - महिनि त्रिदशैः कृते || सदस्रपत्रमध्यास्य । देशनां निर्ममे मुनिः ॥ ॥ ४० ॥ मोदैककारणे साधु- श्रधर्मे प्ररूपिते ॥ यतित्वं श्रावकत्वं च । बहवः प्रतिपेदिरे ॥ ४१ ॥ श्राइत्वमुररीचक्रे । व्यंतर्यप्यनया तदा || गणिका देवदत्ता च । पंमिता च तदाबुधत् ॥ ४२ ॥ श्वं सुदर्शनमु निर्विहरन् पृथिव्या - मुद्धृत्य जव्यनिवदान् जवनीरराशेः ॥ शी
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वृत्ति
॥ २३७ ॥
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त
शोलोपलप्रनावमतुलं भुवने निवेश्य । मोक्षश्रियः शिरसि शेखरता बन्नव ॥४३॥
॥ इति श्रीरुपल्लीयगळे श्रीसिंहतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां ॥३॥ श्रीशीलोपदेशमालायां शीलतरंगिण्यां श्रीसुदर्शनश्रेष्टिकथा संपूर्णा ॥ श्रीरस्तु ॥
चौरस्यापि शीलगुणप्रतिपालनेन सुगतिन्नाजनतामाह
॥ मूलम् ॥-जो अन्नायरनवि हु । निवन्तजापछिनवि न विखुशे ॥ सीलनियमाणुकूलो । स वंकचूलो गिही जयन ॥ ४६ ॥ व्याख्या~म वंकचूलो गृहस्थो जयतु, सुगतिफलेन सोत्कों वर्त्ततां. यः शीलनियमानुकूलः शीलानिग्रहप्रतिपालनबकक्षः सन खु निश्चितं अन्यायरतोऽपि चौरकर्मानुजीव्यपि नृपनार्याप्रार्थितोऽपि न क्षुब्धः, चौर्यार्थ प्रविष्टोsपि राज्ञा सह विप्रतिपत्रां कामयमानामपि पट्टराझी नियममनुसृत्य तृणवदुनांचकारेति संकेपार्थः, विस्तरार्थः पुनरयं
॥२३॥ * महानिर्जनैः सेव्यं । पुण्यबीजांकुरैरिव ॥ अत्रास्ति रथनूपुर-चक्रवालान्निधं पुरं ॥ॐ
॥१॥ राजास्ति विमलयशा-स्तत्र शात्रवतापनः ॥ सूर्यः कण श्वान्नाति । यत्प्रापविनाव
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वृत्ति
शीलोप सोः ॥ २॥ शक्रस्येव शची सर्व-मंगलेव च धूर्जटेः॥ देवी सुमंगला तस्य । मांगल्यैकक-
V लालया ॥२॥ तत्कुदिसंनवा पुत्री । वंकचूलान्निधाऽनवत् ॥ सुतस्तु वंकचूलाख्यो । वह्नः की॥३॥ लेव ऽनयः॥ ४ ॥ आरूढयौवनः पित्रा । शशांक श्च रोहिणीं ॥ नदवाह्यत राजेंइ-कन्यां
रूपगुणान्वितां ॥ ५ ॥ संतापकारी सुशीलो । न्यायमार्गाऽननिधीः ॥ अयं निर्वासितो गेहात् । पित्रा यश श्वाऽगुणैः ॥ ६॥ सुतापि बालवैधव्य-दग्धा बांधवमोहतः । निर्गता सद तेनैव । उनयेनेव पापधीः ॥ ७॥ अंगावलगकैः कैश्चि-जायया च समन्वितः ॥ राजेव नपतेः पुत्रो । वकचलश्चचाल सः ॥ ॥ गतः कांचिदरण्यानी-मानीव विडंबनां ।। यमदूतानिवाऽपश्य-चिल्लान नाविधनुष्मतः ॥ ए ॥ आकृत्या तं प्रभुं ज्ञात्वा । नमस्कृत्य च सादरं ॥ पप्रच्छुः कुमरं निल्ला-स्तत्रागमनकारणं ॥ १० ॥ तदुदंतं समाकर्ण्य । सहर्षे शबरा जगुः ॥ पल्लिस्वामी मृतोऽस्माकं । तत्त्वं पल्लीपतिनव ॥११॥ तचः प्रतिपद्याथ । ग- तः सोऽपि तदास्पदं ॥ जातः पल्लीपतिक-चूलो जिल्लचमूनतः ॥१२॥ पापकर्मोदयैः सा। निर्लंटन महीतलं ॥ प्रसिदिं परमां प्राप । वंकचूलः पराक्रमैः ॥ १३ ॥ कदाचिद
॥३॥
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शीलोप
॥ २४ण
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न्यदा चंद-यशःसूरिभ्रमन्महीं ॥ श्रात्मना सप्तमः सार्थ - ब्रष्टस्तं देशमागतः ॥ १४ ॥ इतः प्रवासिनां काले । वर्षाकाले समीयुषि || पयोधरनरकांता | यूनीव द्यौरशोजत ॥ १५ ॥
नज्जगार घरांकूरान् । अपराधान् खला इव ॥ कार्मुका इव पंथानः । सजीवाः परितोऽभवन् || १६ || विहाराऽयोग्यतां ज्ञात्वा । सूरयः पल्लिमागताः ॥ राजपुत्रोऽपि सानंद-मचंदिष्ट महात्मनः || १७ || धर्मलाभाशिषं दत्वा । वसतिं तं ययाचिरे ॥ तेनाऽप्याणि गृ
। स्थानं स्वैरं च तिष्टत ॥ १८ ॥ किं त्वेकं मद्दचः कार्ये । प्रसय परमाईताः || नैव धर्मका या । पुरोऽस्माकं कथंचन ||१|| हिंसया रहितो धर्मो । युष्मानिरूप दिश्यते ॥ सैव चाsजीविकाऽस्माक - मन्वहं पापचारिणां ॥ २० ॥ तथेति प्रतिपद्याथ । तद्दत्तवसतौ स्थिताः ॥ स्वाध्यायादिसमाधानैश्चतुर्मासीमपूरयन् ॥ २१ ॥ प्रस्थिताः सूरयो राज - पुत्रमापृय ततः ॥ यक्तकारिताहृष्टः । सोऽपि सीमांतमन्वगात् ॥ २२ ॥ श्रथ व्यावर्त्तमानं तं । सूरयोमधुराक्षरं ॥ जगुस्त्वदीयसाहाय्या - दियत्कालं सुखं स्थिताः ॥ २३ ॥ किंचिद्दयमपि प्रीत्या । तस्माडुपचिकीर्षवः ॥ इहामुत्र शुभोदर्कान् । दित्सामो नियमांस्तत ॥ २४ ॥
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वृत्ति
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शीलोप
वृत्ति
॥१॥
तेनोक्तं नगवन्मह्यं । निर्वदयंते कथं नु ते ॥ सूरिणोचे यथाशक्त्या। ग्राह्यास्तेऽपि न । न चाग्रहः ॥ २५ ॥ यदा जीववधं कर्तुं । त्वमुद्यतसि कर्हि चित् ॥ तदा सप्तपदी पश्चा-घ्यावृत्त्य स्वैरमाचरेः ॥ २६ ॥ यस्य नाम न जानासि । न तनयं फलं त्वया ॥ राज्ञः पट्टमहादेवी । गणनीया च मातृवत् ॥ २७॥ न लक्षणीय मांसं च । काकस्य कचिदप्यहो ॥ सु| पाल्या नियमा एते । पालनीयाः प्रयत्नतः ॥ ॥ महाप्रसाद इत्युक्त्वा । तेनापि प्रतिपेदिरे ॥ विहारं व्यधुरन्यत्र । सूरयो गुणनूरयः ॥ श्ए ॥ संप्राप्तेऽय निदाघ -वन्यदा पल्लिनायकः ॥ निल्लसेनावृतः कंचि-ग्रामं हेतुं ततोऽचलत् ॥ ३० ॥ पूर्वमेव गतः कापि । ग्रामश्च प्रपलाय्य सः॥ ते च तृष्णाक्षुधाक्रांता । निवृत्ता दिनयौवने ॥ ३१ ॥ ततो निषमा दी. नास्या । अधस्तात्कस्यचित्तरोः ॥ अटव्यां पर्यटतिस्म । केचित्तृष्णाक्षुधाकुलाः ॥३॥ ददृशुश्व फलैननं । किंपाकतरुमुच्चकैः ॥ अजानानाः परीणाम-मादंश्च तत्फलानि ते ॥ ३३ ॥ न. पनीतानि सैन्यैस्तै-बँकचूलाय तान्यथ ॥ स्मृत्वाऽनिग्रहमपाकी-त्किं नाम किमिदं फलं ॥ ॥ ३५ ॥ तैरूचे देव नो विद्मः। किं तु मिष्टत्वमद्भुतं ॥ नानामि फलमझात-मित्यवोचच्च
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शीलोप
॥ २४२ ॥
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I
राजसूः ॥ ३५ ॥ शबरा कुचिरे सौस्थ्ये । क्रियतेऽनिग्रहाग्रहः ॥ सांप्रतं प्राणसंदेहे | देव - तुमर्हसि || ३६ || जीवतां नियमा यस्मा - प्रविष्यति मुहुर्मुहुः || सधैर्यमुक्तं तेनापि । न वक्तव्यमिदं यतः ॥ ३७ ॥ प्रयातु प्रलयं लक्ष्मी- यतु प्राणा अपि कयं ॥ वचसा प्रतिपन्नं तु | स्थिरं भवतु केवलं ॥ ३८ ॥ सर्वेऽपि नक्षयित्वा ते । तानि स्वैरमशेरत ॥ दासस्त्वेकः कुमारस्य । दाक्षिण्येन न भुक्तवान् || ३ ||
शयित्वा जजागार | निशीथे कुमरस्ततः ॥ नवाप्य नृत्यमित्यूचे । सर्वान् जागरय डुतं ॥ ४० ॥ यावापिताः सर्वे । नोत्तिष्टंति कथंचन ॥ तावता मुखमुद्राट्य | सर्वे दृष्टाः परासवः ॥ ४१ ॥ निवेदितं कुमारस्य । सोऽपि श्रुत्वा सविस्मयं ॥ समं हर्षविषादाभ्यां । खऊहस्तस्ततोऽचलत् ॥ ४२ ॥ गतो गेहे कपाटस्य । बिदे दीपप्रज्ञानरैः ॥ सुप्तां सह नरेणेक्ष्य | निजजायां चुकोप च ||४३|| तत प्राकृष्य निस्त्रिंशं । प्रविष्टो मंदिरांतरे ॥ जिघांसुरुजयं यावत्प्रहर्त्तुमुपचक्रमे ॥ ४४ ॥ तावता नियमं स्मृत्वा । सप्तपादानि सत्वरं । पश्चाघ्यावृत्तमानस्य । द्वारे खशेोऽनिघट्टितः ॥ ४५ ॥ खटत्कारेण खस्य । वंकचूला विनिश्तिा
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वृत्ति
॥ २४२ ॥
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वत्ति
शीलोप ॥ नाय सहसाऽनाणी-त्कस्त्वं नोः कस्त्वमत्र नोः॥ ४६ ॥ स्वरं नगिन्या विज्ञाय । ख-
संहृत्य पृष्टवान् ॥ पुंवेषरचना केयं । साऽप्यन्नाषिष्ट शिष्टधीः ॥ ७ ॥ मंखाः सायमिवागवं-स्ते च तेऽवसरार्थिनः॥ अतः सन्नायां पंवेष-धारिण्यहमपाविहां ॥४॥ यतोऽमी
निर्गतैः कापि । शून्या पल्लिरितीरिते ॥ मा त्वद्विषोऽनिषज्येर-नितीयं रचना कृता ॥धणा विसृज्य प्रेक्षणीयं त-चिरं गृहमुपागता । तथैवाऽस्वपमालस्या-सहादं ब्रातृजायया ॥५॥ वंकचूलोऽप्यन्नाषिष्ट । धन्यास्ते गुरवः स्वसः ॥ यैरिमे नियमा दत्ता । मम निस्तारणेच्या ॥ ५१ ॥ अज्ञातफलसंत्यागा-जीवन्नुतवानहं ॥ अनुसप्ताहिघाताच । प्रियान्नगिन्यघातकत् ॥ ५५ ॥ अत एव महात्मानो । ह्यमी स्वपरतारकाः ॥ धिगस्मानिस्तदा तेषां । नित्यं वाचो न शीलिताः ॥ ५॥ ___अथाऽसहायमात्मानं । साऽपायं परिकल्प्य सः ॥ पुरीमुऊयिनी प्राप । मुक्त्वा पल्ली पलालवत् ॥ ५५ ॥ श्रेष्टिनः कस्यचिजेहे । स्वसृनार्ये विमुच्य सः ॥ स्वयं तु चौरवृत्त्यैव । विललास यथेप्सितं ॥ ५५ ॥ वंकचूलोऽतिददोऽयं । क्वापि केनाऽप्यलक्षितः ॥ गेहेषु धनि
॥३॥
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शीलोप
॥ २४४॥
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नां नित्यमेव खात्राएयपातयत् ॥ ५६ ॥ अन्यदा चिंतयामास । धिग् धन्यं व्यवहारिणं ॥ पव्यय । विनिघ्नंति सुतानपि ॥ ५७ ॥ परव्यार्थिनो विप्रा । अप्युपेक्ष्या दि विः ॥ के च ते स्वर्णकारा ये । लवमाददते लवात् ॥ ५८ ॥ व्यं किं खलु वेश्यानां । या या शिष्टचारिणां ॥ धनदानिव पश्यंती । कुष्टिनोऽपि धनेहया || ५ || चौर्यमाचर्यंते चेत्त-लुक्ष्यते खलु भूपतिः ॥ फलते धनमील - मन्यथापि चिरं यशः ॥ ६० ॥
वर्षाकाले विचिंत्येति । गोधामादाय काननात् ॥ तत्पुचलनः सौधा - मारुरोह स भूभुजः ॥ ६१ ॥ विवेश वासनवने । भूपतेः पंचमे करो || कस्त्वं तमिति प । तत्र का - चिरांगना ॥ ६२ ॥ चौरोऽहमिति तेनोक्ते । साऽप्यूचे किं जिघृकसि ॥ स प्राह मणिरत्नादि । रूपक्षुब्धाऽथ साऽब्रवीत् ॥ ६३ ॥ अन्य एव हि ते चौरा । ये रत्नादीनि गृह्णते ॥ मच्चि - चौरकत्वेन । त्वं पुनः पश्यतोदरः ॥ ६४ ॥ मदुक्तं चेद्दिधत्से तत्पूरयामि मनोरथान् || का त्वमित्यनुयुक्ता सा । प्रादाहं राजवल्लना ॥ ६५ ॥ श्रथ सौभाग्यगर्वेण । रोषितोऽस्तिमया नृपः ॥ तत्त्वं सफलयात्मानं । निधिलब्ध्येव निर्धनः ॥ ६६ ॥ राजपत्नी न जोग्येति ।
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वृत्ति
॥ २४४ ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥श्वए
स्मृत्वाऽनिग्रहमब्रवीत् ॥ सर्वश्रा मम माता त्वं । स्मारपि यदूचिरे ॥ ६७ ॥ राजपत्नी गु- रोः पत्नी । मित्रपत्नी तथैव च ॥ पत्नीमाता स्वमाता च । पंचैते मातरः स्मृताः ॥ ६७ !! मोपेकस्व मुधा मूर्ख । मामायांती वशंवदां ॥ इत्यायुक्तोऽपि धीरात्मा । न चुदोन मनागपि ॥६ए ॥ पुनः स्मरात सक्रोध-माह मां यदि नेबसि ॥ तर्हि तेऽद्य यमो रुष्ट-श्चिंतय विप्रमुत्तरं ॥ ७० ॥ तत्सर्वं स्वयमश्रौषीत् । सुप्तोऽधोनूमिकां नृपः ॥ नखैर्विदार्य स्वं दे.
हं । अथ देव्यापि पूत्कृतं ॥ १ ॥ हो कोऽपि दुरात्मायं । चौरो जारोऽग्रवाऽविशत् ॥ श्रु. Ma त्वेत्यारक्षकाः प्रिं । खजहस्ताः समाययुः ॥ ७॥ रे रे गृह्णीत गृह्णीत । कुत्र कुत्रेति ना.
षिणः॥ कोलाहलपरान् राजा । नटानित्यादिशनदा ॥ ३ ॥ न मार्योऽसौ महासत्त्वो । गुप्तौ धार्यों नियंत्र्य च ॥ नृपोऽपि चिंतयन् देवी-वृत्तं रात्रिमवाहयत् ॥ ७४ ॥ आसीनः मातरास्थानी । चौरमानाय्य नूपतिः ॥ मोचितो बंधनात्सोऽपि । नत्वा पुर नपाविशत् ॥ ॥ ५ ॥ दृष्टः सौम्य हशा राझा । पृष्टश्च कथमत्र नोः॥ सौधे मम समारूढो । मानुषापामगोचरे ॥ ७६ ॥ चौरवीरोऽवदद्देव । निर्विमः खात्रपाततः ॥ गोधालांगूललग्नोऽह-मा
॥श्य।
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शोलोप:
॥ २४६ ॥
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रोदं व्यमोदतः ॥ ७७ ॥
दृष्टस्तत्र महादेव्या | मार्जार्येव पयः प्रनो || निग्रहः कार्यतां स्वैरं । स्वार्जिते को नु विग्रहः ॥ ७८ ॥ धरित्रीवल्लभः प्राह । तुष्टोऽहं साहसेन ते ॥ मया प्रसादिता तुम्य- मेषामहिषी ह्यतः ॥ ७० ॥ देव या पट्टराशी ते सा ध्रुवं जननी मम ॥ तेनेत्युक्ते नृपो रोपा-दिवाऽारककमादिशत् ॥ ८० ॥ एष प्रदाय शूलायां । उश्चौरो मार्यतामिति ॥ तथापि नाऽचलः धीरः । सम्यक्त्व दुर्नयैरिव ॥ ८१ ॥ रक्षणीयो ध्रुवं ह्येष | चौरः साहसिकाग्रणीः ॥ प्राचष्ट भूपतिर्गुप्त - मित्यारक्षकनायकं ॥ ८२ ॥ तेनापि दूषणोद्घोष - पूर्व बंञ्चम्य पत्तने ॥ नीवावयवं शूला । सज्जिता च तदग्रतः ॥ ७३ ॥ तथापि दृढसत्त्वात्मा । संस्मरन गुर्वनि
॥ नाडाकांक्षत्पराशीं तत्पुनर्नीतो नृपांतिकं ॥ ८४ ॥ पुत्रीकृत्य च तेनापि । यौवराज्ये न्यवेश्यत || नार्यानगिनीयुक् तत्र । तिष्टतिस्म यथासुखं ॥ ८५ ॥ अचिंतयच्च धन्योऽदं । सफलं नरजन्म मे ॥ पुनः पश्यामि चेत्सूरी - नाहिये धर्ममुत्तमं ॥ ८६ ॥ एवं विमृश्यतोऽन्येद्यु - राययुस्तत्र सूरयः || जावसारमवंद्यंत । तेन धर्मश्च शुश्रुवे ॥ ८७ ॥ ततः प्रपेदे -
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वृत्ति
॥ २४६ ॥
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वृत्ति
शीलोपन देवो । गुरवश्व सुसाधवः ॥ तत्त्वं जीवदया चेति । श्राधम स शुक्ष्वोः ॥ ॥ गी-
तार्थश्रावको जातो । वंकचूलस्ततः परं || साधु साधर्मिकादीनां । नक्तो देवार्चनापरः ॥ ॥३॥ इतश्चोजयिनीपार्श्वे । शालिग्रामे कृतस्थितिः ॥ श्रावको जिनदासाख्य-स्तस्याऽनूत्पर
मः सुहृत् ॥ ए० ॥ अन्यदा वंकचूलोऽपि । पल्लीशमतिदुरं ॥ रणे निहत्य शस्त्रौघ-जर्जरो गृहमागमत् ॥ ए१ ॥ गाढं तक्ष्यथयाडौऽनू-प्रतीकारैःकृतैरपि ॥ काकमांसमवादिदन् । निषजो रोगघातकं ॥ ए३ ॥ राझाडाझप्तं मारयित्वा । काकमानीयतां पलं ॥ तेनोक्तं सर्वश्रा मांस-लक्षणेऽहं निवृत्तिमान ॥ ए३ ॥ जीवतो नियमा वत्स । नविष्यति पुनः पुनः॥ मृतौ सत्यां पुनः सर्वे । यानि तनयतामिदं ॥ ए ॥ राज्ञोक्तमिदमाकर्य । कुमारः स्पष्टमूचिवान् ॥ याति चेन्जीवितं यातु । न चाऽकृत्यं करोम्यहं ॥ ए५ ॥ ततस्तन्मित्रमाह्वातुं । राजा प्रैषीनिज नरं ॥ शालिग्रामे ततः सोऽपि । प्रतस्थे मित्रवत्सलः ॥ ए६ ॥ रुदतीः सुदतीर्दिया । वीक्ष्य मार्गे तरोरधः ॥ पाच जिनदासोऽपि । हेतुः को रोदनेऽत्र वः॥ए ॥ देव्यो वयं हि सौधर्म-वासिन्यो नर्तृवर्जिताः ॥ अनन् काकमांसं नो । वंकचूलो नवेत्पतिः
॥श्वा
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शीलोप
॥ २४८ ॥
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॥ ए८ || स चेत्वचसा नइ । मांसमश्नाति संप्रति ॥ स्थास्यामस्तत्कथं नाथ- वर्जिता इति रुद्यते ॥ ७५ ॥ न चाहं काकमांसस्यो -पदेष्टेति विबोध्य ताः || जगामोज्जयिनीं वेक-चूलस्याऽमिलदादरात् ॥ १०० ॥
दृष्ट्वा शरीरं तेनापि । राजोचे सर्वसाक्षिकं ॥ धर्म एवौषधं युक्त-मस्येति न विलंयते ॥ १ ॥ तत श्राराधनां कृत्वा । झयं साधर्मिकादिषु ॥ व्यापार्य धर्मतत्वज्ञो । वकचूलः समाना ॥ २ ॥ पुण्यानुमोदनां कुर्वन् । निंदन दुःकृतमंजसा ॥ जीवेषु कामणापूर्व-मायु:पर्यंतमासदत् ॥ ३ ॥ प्रच्युते द्वादशे कल्पे । द्वाविंशत्यवायुषि ॥ जातः सुरोत्तमो वंकचूलो धर्मानुकूलधीः || ४ || तस्योध्ध्वेदेदिकं कृत्वा । जिनदासो गृहे व्रजन् ॥ तथैव रुदती - दिव्या । युवतीव पृष्टवान् ॥ ५ ॥ मया तावत्काकमांसं । न दत्तं राजसूनवे ॥ तदद्यापि किमर्थं वः । परिदेवनचेष्टितं ॥ ६ ॥ तानिरूचे तथा चक्रे । जवता तत्र जग्मुषा ॥ यथाऽस्मानूस व्यतीत्याऽगा-कल्पं द्वादशमुत्तमं ॥ ७ ॥ तदादि जिनदासोऽपि | जिनधर्मे दृढाशयः ॥ प्रज्ञः को वा सुदृष्टेऽर्थे । साक्षिणो मुखमीक्षते ॥ ८ ॥ नरेंइपत्न्यामविपन्नशील-प्रपालनप्रा
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वृत्ति
॥ २४८ ॥
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शीलोपतमहासमृद्धिः ॥ इहाऽपरत्रापि सुखैकन्नोगी। जातो गृहस्थोऽपि स वंकचूलः ॥५॥
इति श्रीरुपल्लीयगचे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां श्री. ॥श्वएशीलोपदेशमालावृत्तौ श्रीशीलतरंगिण्यां वंकचूलकथानकं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ॥
अथ गृहस्थन्नावे महासतीनां शीलप्रनावमन्निधित्सुस्तासामेव गुणश्लाघां गाथाचतुष्टयेनाह
॥ मूलम् ||-अरकलियसीलविमला । महिला धवलेश तिन्निवि कुलाई ॥ इह परलोएसु तहा। जसमसमसुहं च पावे ॥४७॥ व्याख्या-अस्खलितशील विमला निरतीचा. रचारुचतुर्थव्रतपालननिर्मला महिला त्रीण्यपि कुलानि धवलयति, पितृमातृश्वसुराणां गोत्राणि प्रकटयति, तथा न केवलं कुलान्येव श्लाघां नयति, इहपरलोकयोर्यशः कीर्ति च असमसुखमसामान्यं सौख्यं च प्राप्नोति, यहि लोके यशः शीलमाहात्म्यदर्शनेन जनश्लाघां, परलोके च । तत्पालनसामर्थ्यादेव स्वर्गमोकादिसौख्यप्राप्तिनवति, प्राकृतत्वाद् हिवचनस्य बहुवचनमिति गाथार्थः ॥ ७ ॥ तासामेव स्वरूपप्रतिपादनसहचरीं श्लाघामाह
॥ मूलम् ।।-जा नियकंतं मुत्तुं । सुवणेवि न ईहए नरं अन्नं ॥ आबालबनयारी य ।
॥णा
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शोलोप सा रिसीपि अवणिजा ॥ ४० ॥ व्याख्या~या स्त्री निजकांतं मुक्त्वा स्ववल्लनं परित्यज्य
Ka स्वप्नेऽप्यन्यं नरं नेहते नाडाकांक्षति, आजन्म मनोवचनकायशुद्ध्या निजन्न रमेव या ध्या॥५०॥ यति सा महासती आबालब्रह्मचारिणां महर्षीणामपि स्तवनीया, आजन्मब्रह्मचारिणो म.
हात्मानोऽपि तासां निरतिचारशीलगुणस्तवं कुर्वतीति हितीयगाथार्थः ॥ ४ ॥ तासामेव व्यतिरेकमाह
॥ मूलम् ॥-परपुरिससेवणीन । कुलरमणीन हवंति ज लोए । ता वेसादासीणं । पढमा रेदा कुलवदूसु ॥ ४ए || व्याख्या-यदि लोके जगति कुलरमण्यः कुलांगनाः परपुरुषसे विन्यो नवंति, इत्वों जायंते, तदा वेश्यादासीनां कुलवधूषु प्रथमा रेखा, गणिकाचे. व्योऽपि कुलवध्व एव, स्वैरचारितया अविशेषादिति तृतीयगाथार्थः ॥ ४ए । सहजनिंद्यानामपि स्त्रीणां प्रशंसाकारणमाह
॥मूलम् ||-तुबावि रमणीजा । पसंसणिज्जा सुरासुरनराणं ॥ विहिया महासई. हिं । काहिंवि अविमलसीलाहिं ॥ ५० ॥ व्याख्या-अतिविमलशीलानिः कानिरपि म
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शीलोप हासतीनिस्तुबाऽप्यगन्नीरापि रमणीजातिः स्त्रीजातिः सुराऽसुरनराणां देवदानवमानवानां
ME प्रशंसनीया वर्णनीया विहिता, महासत्यो हि शीलपरीक्षाक्षणजनितचमत्काराः स्त्रीजाति ॥५१॥ त्रिजगतोऽपि वर्णनीयां चक्रुः, तुबत्वं च तासां जगत्प्रसिई. यहागमः-तुबा गारवबहुला । च
लिंदिया तहय ऽब्बलधिया य ॥ अश्सेसप्रयगान । नूवान अनो श्रीणं ॥१॥ इति चतु. पथगाभार्थः ॥ ५० ॥ तासामेव कासांचिद् दृष्टांतमन्निधित्सुराह
॥मूलम् ।।—नियसीलमहामंतेण । पबलजलणं जलं कुणंतीए ॥ सोलग्घोसणपमहो । अजवि मणहण सीयाए ।। ५१ ॥ व्याख्या-निजशीलमहामंत्रेण प्रबलज्वलनं सुदूतहुताशनं जलं कुर्वत्या सीताया महासत्या जनकराजतनूजायाः शीलोद्घोषणपटहोऽद्यापिध्वनद्ध्वनति प्रतिशब्दैरिव शीलढक्का शब्दायते, यक्ष मणहणति' सानुकरणं वचनं. श्रीरामेण दशकंघरे पंचत्वमुपनीते जानकी शीलनंगाशंकाऽपनोदाय सुराऽसुरनरसम-
ज्वलत्खदिरांगारखातिकां प्रविश्य तत्कालं शीलप्रनावप्राउजूतजलपूरोपरिप्लवमानकनकनलिनकर्णिकासीना जयजयारावैर्जगत्कुदिन्नरियशाः समजनिष्टेति गायासमासार्थः, व्या
॥२५॥
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शोलोपसार्यस्तु पुरो वक्ष्यमाणश्रीरावणचरित्रे व्याकरिष्यते ॥५१॥ तन्माहात्म्यचमत्कारांतरमाह- वति
॥ मूवम् ॥-चालणिधारयजलाए । संघमुहुघाडणं कुणंतीए | चंपादारुग्घाडण-मि-४ ॥५२॥ सेण नंदन सुन्नदा सा ॥ ५५ ॥ व्याख्या-चालणीधृतजलया यया चंपाधारोद्घाटनमिषेण
संघमुखोद्घाटनं कृतं, सूत्रतंतुबञ्चालन्या कूपोदकमादाय या महासती जलेनाडोट्य चंपाप्रतोलीरुद्घाट्य श्रीजिनशासनप्रनावनां चकार, सा सुन्नज्ञ जिनदत्तपुत्री नंदतु, चिरायुनवतु ? तादृक् प्रत्नावनाविधानानंदतात्, कविर्जीवंतीमिव तामन्निनंदतीति संदेपार्थः, विस्तरार्थस्त्वयं, तथाहि
वसंतपुरमित्यस्ति । पत्तनं नूमिमंझनं ॥ यत्र पुण्यांकुरालीव । जिनचैत्यावली बन्नौ ॥ ॥१॥ जितशत्रुर्नपो रूप-दर्पकः शास्ति तां पुरं ॥ व्योम यत्खजलेखेव । तारास्तत्र सुमस्र-) जः ॥२॥ तत्रास्ति जिनदासाख्यः । श्रावकः ख्यातवैनवः ॥ न कस्य हृदये यस्य । गु. ॥५॥ णाः खेलंति दारवत् ॥ ३॥ तस्यास्ति वल्लन्ना जैन-धर्मवालन्यसेवधिः ॥ नाना जिनमतिस्तत्व-मालिनी शीलशालिनी ॥ ४॥ सुता तयोः सुनशख्या । शकामधुरगीध्रुवं ॥ लाव
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शीलोप
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एयस्पर्द्धयाऽमुष्या । अपेयोऽनूत्सरित्पतिः ॥ ५ ॥ श्रिता धर्मगुणैर्वाला | मरालैरिव पद्मिनी ॥ क्रमेण यौवनं प्राप । युवमानसमोदनं ॥ ६ ॥ नैकेषां याचमानाना-मपि यौवनशालिनां ॥ नादान्मिथ्यादृशां श्रेष्टी । काकानामिव पायसं ॥ ७ ॥ अन्यदा तत्र चंपाया | बुधदासाfat afia || आगतो व्यवसायार्थं । बुद्धधर्मविशारदः ॥ ८ ॥ सोऽपि श्रेष्टगृहेऽन्येद्यु --- गतः क्वापि कर्मणि ॥ सुनशं जश्नेपथ्यां । चकार नयनातिथिं ॥ एए ॥ सोऽपि तस्या विवादार्थी । ज्ञात्वोपायं जनादथ || भेजे जैनमुनीन् दंजा - इनार्थीवांबुधेस्तटं ॥ १० ॥ श्रद्धां विनापि साधूनां । तन्वानः पर्युपासनां ॥ संसर्गाद्बोधमापासौ । जातेगंधं तिला इव ॥ ११ ॥ ततः श्रीवीतरागाच-वंदनाऽावश्यकादिकं ॥ धर्मज्ञः सोऽनिशं चक्रे । रत्नाप्तौ कः प्रमाद्यति ॥ १२ ॥ तस्मै साधर्मिकायाश्र | जिनदासोऽपि रंगतः || ददौ पुत्रीं विनीताय । शिष्याव गुरुः श्रुतं ॥ १३ ॥ शुभे मुहूर्ते सर्वद्धर्ज्या | रोहिणीशशिनोरिव ॥ नंदितानिजनं जज्ञे । तयोर्विवादमंगलं ॥ १४ ॥ तत्रैव तिष्टतोः स्वैरं । मोदमेदुरयोस्तयोः ॥ कियानपि गतः कालः । सुखं युगलिनोरिव ॥ १५ ॥
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वृत्ति
॥२५३॥
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वृत्ति
शोलोप अन्यदोपार्जिते झ्ये । बुझ्दासो गृहोत्सुकः॥ आपृचत प्रयाणार्थी । श्वसुरं विनयान्वि-
तः॥ १६ ॥ जिनदासोऽपि तत्वज्ञ-स्तमाद मधुरादरं ॥ साधूक्तं वत्स ते पुत्राः । पित्रोन॥२५॥ तिपराश्च ये ॥१७॥ वत्स वैधर्मिकौ तौ तु | सुन्नशं जिनधर्मिणी ॥ सहिष्येते कभंकारं ।
वझवां महिषाविव ॥१॥ तेनाप्यूचे पृथग्गेहे । स्थापयिष्यामि तामहं ॥ तजात्यकनकस्येव। कं दोषं तौ तु दास्यतः ॥ १७ ॥ ततस्तस्य निदेशेन । सुत्नशसहितोऽचलत् ॥ क्रमेण प्राप चंपां स । त्रिदशावासजित्वरीं ॥ २० ॥ स्वयं जगाम गेहे तां । धृत्वा पृथगुपाश्रये ॥ नई ददृशतुस्तस्या-स्ततः श्वश्रूननांदरौ ॥ १॥ चक्रे सुन्नज्ञ निश्वद्म-वृत्त्या श्रीधर्ममाईतं ॥ तहे साधवोऽप्येयु-नक्तपानादिहेतवे ॥ २२ ॥ स्वछंदा यतिनिर्वत्स । रमते त्वधूरदः
॥ बुझ्दासमिति स्वसृ-प्रमुखाः प्रत्यहं जगुः ॥ २३ ॥ सोऽप्याह शीलवत्येषा । न चेदं व* क्तुमर्हसि ॥ किं जायेत मलं स्वर्णे । युगांतेऽपि कदाचन ॥ २२॥ ततो विशिष्य उष्टात्मा।
मिषांतरमलोकयत् ॥ अन्यदा कपकश्चास्या । गृहे निझार्थमागमत् ॥ २५ ॥ पपात नयने तस्य । पवनांदोलितं तृणं ॥ सोऽपि नाऽपनयामासा-प्रतिकर्मवपुःस्थितिः ॥ ६ ॥
॥२५॥
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शीलोप
॥५५॥
ततो निदां प्रयवती । व्यथामाशंक्य चक्षुषि ॥ तृणमुत्सारयामास । जिह्वालाघवतः सती ॥ १७॥ तदा सीमंततो लग्नं । कुंकुम कपकालके ॥ तक्तमपि चित्रं य-त्पश्चात्कर्ता विरक्ततां ॥ २० ॥ नाले कालेयलेशांकं । दर्शयंती मुनि तदा ॥ बुझ्दासं जनन्याह । पश्य
वत्स वधू सती ॥ श्ए ॥ अग्निज्ञानबलाढुइ-दासोऽपि प्रतिपद्य तत् ॥ जे विरागतां तर स्यां । स्त्रीनिर्वा को न खंमितः ॥ ३० ॥ यद्यपाऽपि महानागा। व्यवस्यति जुगुप्सितं ॥ नि
राधारा गुणास्तर्हि । यांतु पातालमाकुलाः ॥ ३१ ॥ पतिं विमृश्य निःस्नेहं । दध्याविति महासती ॥ गार्हस्थ्ये दोषमूलेऽस्मिन् । न चित्राय कलंकिता ॥ ३२ ।। किंतु सदा सुधाशुई। श्रीम. शासने ॥ आकस्मिकोऽपवादोऽयं । विषादाय हृदो मम ॥ ३३ ॥ यावचासनमालिन्य-मिदं नोत्सारयिष्यते ॥ तावन्न पारयाम्येनं । कायोत्सर्गमहं खलु ॥ ३५ ॥ संध्यायामित्यनुध्याय । पूजां कृत्वा जिनेशितुः ॥ कायोत्सर्गे स्थितकांते । ध्यात्वा सा शासनामरी ॥ ३५ ॥ युग्मं ॥
स्थितवत्यां तथा तस्या-मेकाग्रहदि तत्कणात् ॥ प्राउञ्ज्य बनाये तां । सुस्पष्टं शास
॥२५॥
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शोलोप
॥शय
नामरी ॥ ३६ ॥ त्वत्सत्त्वप्रेरिता वत्से । तपसेव सुरावली ॥ समेताहं द्रुतं ब्रूहि । यत्ने कुर्वे वृत्ति समीहितं ॥ ३७॥ कायोत्सर्ग पारयित्वा । सुत्नश मुदिता सती ॥ नत्वा प्राह कलंकोऽयं । शासनस्याऽपनीयतां ॥ ३० ॥ पुनराह सती देवी। वत्से मा खेदमुहह ॥ प्रातस्तव समं शुद्ध्या । कुवें धर्मप्रतावनां ॥ ३५ ॥ श्वमादिश्य तां देवी। शासनस्य तिरोऽनवत् ॥ कपामक्षिपदेषापि । शेषां धर्मैकमानसा ॥ ४० ॥ प्रातराकृष्यमाणानि । हारपालैर्बलादपि ॥ प्रतोलीक्षाःकपाटानि । नोटते कथंचन ॥४१॥ क्रंदच्चतुष्पदे व्यग्रे । निखिलेऽपि पुरीजने ॥ नृपोऽपि व्याकुलस्वांत-स्तन्मने कर्म दैवतं ॥ ४२ ॥ धौतपोतः शुचीनूतो । धूपोग्राहणपूर्वकं ॥ प्रांजलिः प्राह नूपालः । श्रूयतां देवदानवाः ॥ ४५ ॥ यः कोऽपि कुपितोऽत्रास्ति ।
स मे शीघ्रं प्रसीदतु ॥ इत्युक्ते नन्नसि प्रादुर्बनूव प्रकटं वचः ॥ ४५ ॥ जलमुद्धृत्य चालि* न्याः। कूपतस्तंतुबझ्या ॥ काचिन्महासती पुर्याः । कपाटांश्चुलुकैस्त्रिन्निः ॥ ४ ॥आहो- ॥५६॥
टयतु चेविघ्रं । चारैः कार्यमपावृतैः ॥ आकर्येत्यत्नवन सजा-स्तदा ताः पौरनायकाः ।। ब्राह्मणी क्षत्रिया वैश्या । शौड़ी चापि न साऽनवत् ॥ चालिन्या वारि गृह्णाना । या न प्रा
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शीलोप
॥ १५७ ॥
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तालितां ॥ ४८ ॥ काचिद्वंधेन सूत्रस्य । चालिन्याः कापि चालने || कूपे किती का चिच । विगुप्ता तत्र नायका ॥ ४९ ॥ श्वश्रूम विनीतात्मा । सुना मधुरं जगौ ॥ चेदादिशसि तन्मातः | स्वमप्यालोकयेऽधुना ॥ ५० ॥ श्वश्रूराख्यत्सोपहासं । सतीत्वं ज्ञातमेव ते || पुराऽस्मानिरिदानीं तु । मा विगुप्याः पुरीजने ॥ ५१ ॥ एताः सत्योऽपि पूरं । नैवातुं क्षमाः ॥ सत्यं त्वमीशिषे नित्यं । या जैनमुनिसेविका ॥ ५२ ॥ युक्तमुक्तमिदं मातः । सत्त्वं संप्रति दुर्घटं ॥ तथापि पंचाचारेण । करिष्ये स्वपरीक्षणं ॥ ५३ ॥ ब्रुवाति सुन तु । हास्यमाना ननांदृनिः ॥ शुचिधैतपरीधाना । स्मृतपंचनमस्कृतिः ॥ ५४ ॥ विधाय तंतुना बद्धां । चालनीं च गुणैरिव ॥ चिप कूपे साश्वर्यं । वीक्ष्यमाणा जनव्रजैः ॥ ॥ ५५ ॥ युग्मं ॥ नद्दधार ततः कूपा - चालनीं जलसंभृतां ॥ बिणि रुरुधुः सिद्धा । इव कौतुककांक्षिणः ॥ ५६ ॥ तावतो जारतोऽप्याशु | रक्षिताः सूत्रतंतत्रः ॥ तवील सिदचूर्णेन । वज्रदार्व्यमिता इव ॥ ५७ ॥
तत्रैत्य सपरीवारः । प्रांजलिः प्राद नूपतिः । साधु साधु सति क्षिप्रं । पुरीद्वाराण्यपा
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वृत्ति
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शोलोपवृणु ॥ ५० ॥ मंत्रिसामंतनूपाल-पौरलोकपुरस्कृता ॥ जगजैत्रं यंत्रमिव । सन्निस्तत्र च बि- व
व्रती ॥ एए । सुत्नश नहस्तीइ-गामिनी विकसन्मुखी ॥ बंदिक्तृप्तजयारावा । प्राप सा ॥श्य पूर्वगोपुरं ॥६० ॥ युग्मं ॥ परमेष्टिनमस्कार-मुच्चरंती महासती ॥ हारमाबोटयामास ।
तदनचुलुऊस्त्रिनिः॥१॥ नेत्रे श्व विषार्नस्य । जांगुलीमंत्रजापतः ॥ कपाटावुघटेतेस्मा या । कर्णावपि दुरात्मनां ॥ ६ ॥ नेदुनयो व्योनि । तुष्टुवुस्तां पुरीजनाः ॥ देवैश्च जिनध
मस्य । चक्रे जयजयारवः ॥ ६३ ।। नन्मुद्य दक्षिणप्रत्यक्-प्रतोळ्यावपि सा तथा ॥ श्वश्रूननांप्रमुख-दुर्जनास्यान्यमुश्यत् ॥ ६४ ॥ नदग्गोपुरमासाद्य । साह याऽप्यपरांगना ॥ सतीगर्वै वहेत्सैतद् । हारमुद्घाटयिष्यति ॥ ६५ ॥ सुत्नशया महसत्याः। शीलाऽतिशयसूच चकं ॥ नदग्गोपुरमद्यापि । चंपायामस्ति मुश्तिं ॥ ६६ ॥
अपूर्वः शीलदीपोऽयं । सुत्नशया भुवस्तले ॥ यो वाऽरिपूरसंसर्गा-ददीपिष्ट विशेषतः॥ ॥२५७ ॥६॥ स्वस्य त्रिवर्गसंसिहि । दर्शयंतीव हस्तगां ॥ श्रीसुन्नज्ञसती पुर्या । हारत्रयमपावृणोत् ॥६० ॥ गीयमानगुणवाता । सा सती तत्पुररोजनैः । चक्रे चैत्यपरीपाटीं । पौरलो.
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शीलोप
र
॥श्य
कनृपान्विता ॥६५॥ सोत्सवं प्रापयामास । सदनं नृपतिः सती ॥ जिनधर्ममयादिदत् । वृत्ति सुन्नश सर्वसाक्षिकं ॥ ७० ॥ तमादृत्य नरेंशेऽपि । सती स्तुत्वा गृहेऽगमत् ॥ साश्चर्याः स-4
लोकाश्च । जग्मुनिजनिजं गृहं ॥ १ ॥ पश्चात्तापपरेणाथ । कुटुंबेनापि मानिता ॥ अन्यनंद्यत चागत्य । पितृन्यां तत्र सा सती ॥७२॥ सा बुझ्दासेन निपत्य दासवत् । पदाजयुग्मे दमिता महासती ॥ गृहस्थधर्मं प्रतिपाल्य संयमं । प्रपद्य चांते सुगति समन्वनूत्र ॥७३॥ इति श्रीरुपल्लीयगळे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां श्रीशीलतरंगिण्यां सुन्नज्ञसतीकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ॥
शोलरक्षायै महासतीनां राज्यादिसुखेष्वलुब्धतामाह
॥ मूलम् ॥—नियसोलररकणलं । तणं व रजं च परिहरंतीए ॥ सयलसईणं मले। - हरेहा मयणरेहाए ॥ ५३ ॥ व्याख्या—निजशीलरक्षणार्थ तृणमिव राज्यमपि परिहरंत्या ॥५॥ इह जगति सकलसतीनां मध्ये मदनरेखाया युगबाहुयुवराजनार्याया रेखा मर्यादा, शीलपालने सतीषु तस्या एवोत्कर्षः, इति गाथार्थः, नावार्थ दृष्टांतेनाह
म
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शोलोप
॥ २६० ॥
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अस्त्यवतीषु देशेषु । नगरं श्री सुदर्शनं ॥ निर्माल्य कुसुमानीव । जोगिनां यत्र तारकाः ॥ १ ॥ राजा मणिरस्तत्र । धर्मसत्रं महारथी || यशःपिंग इवानाति । यस्य व्योनि सुधारुचिः ॥ २ ॥ युवराजो युगबाहु-नामा तस्याऽनुजोऽभवत् || प्रिया मदनरेखाख्या । तस्याप्रथिता सती || ३ || दृष्ट्वा तद्रूपसंपत्तिं । स्वात्मन्येव स्मरोऽज्वलत् ॥ वृथा पुनः प्रवादोऽयं । लोके दग्धो हरेण यत् ॥ ४ ॥ श्रो मणिरथः क्वापि । विलोक्यानुजवल्लनां ॥ कंदर्पेण हतः पंच- बाणैश्चतस्यचिंतयत् ॥ ए ॥ आवर्ज्या कथमप्येषा । मया मन्मश्रजीवितं ॥ इति तस्याः कृतेऽत्र । प्राहिणोत्प्रानृतं नृपः ॥ ६ ॥ यदुक्तं तं तोषयाऽामिषेण प्राकू । यं वशीकर्तुमिच्छसि ॥ तत्स्वादलुब्धो यत्प्राणी । कार्याकार्ये न विंदति ॥ ७ ॥ सापि तत्प्रेषितं पु
- तांबूलादि कृतादरं ॥ ज्येष्टप्रसाद इत्येत - संजग्राह महासती ॥ ८ ॥ अथ भूपतिना - न्येद्यु- ती मैत्रि तदंतिके ॥ साऽप्याह त्वकुलै रक्तो । जड़े राजा वदत्यदः ॥ ९ ॥ यदाप्रनृ
दृष्टवं । मया वातायनस्थिता || तदादि घटिका सुत्रु । मम वर्षमिताऽगमत् ॥ १० ॥ तस्मान्मां पतिमादृत्य | साम्राज्यस्वामिनी जव || श्रुत्वा मदनरेखेति । धर्मज्ञा तामज्ञापत
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वृत्ति
॥ २६ ॥
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वृति
शीलोप० ॥११॥ केषांचित्सत्पुरुषाणां । न मनोऽपि परस्त्रियां ॥ श्राः प्रवर्तितमीहंते । स्नुषायामपि के-
चन ।। १२ ॥ जगत्प्रसिझे नारीषु । शीलनामा महागुणः ॥ तस्मिन् लुप्ते वृथा सर्व । गते ॥१॥ जीव श्वांगिनः ॥ १३ ॥ यस्य त्वं बांधवो ज्येष्ट-स्तत्पत्नीत्वेन मेऽन्वहं ॥ राज्यस्वामित्वम
स्त्येव । माऽस्तु वा तेन किं मम ॥१५॥ किं च दूति त्वया वाच्यो । ज्येष्टो मध्चसा ह्यदः ॥ वदनिति निजादस्मा-बंधोरपि न लजसे ॥ १५ ॥ तयाऽप्येत्य तथैवोक्तो । राजा तज्ञग
लोलुपः ॥ न चाऽग्रहान्न्यवर्तिष्ट । सुराया श्व मद्यपः ॥ १६ ॥ बंधु वत्यसौ तस्मा-त्र ध्रु. ॐ वं मामपेक्षते ॥ इत्येष तधोपायं । दध्यौ चौर श्व कपां ॥ १७ ॥ अथ चूतांकुरोन्मत्त
कोकिलस्वरसूचितः ॥ ऋतुराजोऽवतीयों शक्। कंदर्पयुवराजयुक् ॥ १७ ॥ वृक्षवल्लीनिकुंजेषु । तनिर्दिष्टः पुमानिव ॥ सर्वत्र परिवभ्राम । चतुरो मलयाऽनिलः ॥ १५ ॥ गायतो गी. तमुन्मत्त-चमराडारवपूत्कृतैः ॥ नृत्यंतः पल्लवोल्लासै-हस्तकैरिव हर्षतः ॥ ३० ॥ नजियो- निद्म संपुष्प-त्फुल्लकोरकपुष्पकैः ॥ नपहारमिवाऽसज्जद् । शतुराजस्य शाखिनः ॥ १॥ ॥ युग्मं ॥ रक्तप्रसूनसंवीत-कौसुनवसनोत्तमा ॥ श्वेतपुष्पावलीहारा । वनलक्ष्मीरूपाययौ
॥१॥
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शोलोपO
वृत्ति
॥
२॥
NITV
॥ ॥शच्या शक्र श्वोद्यानं । युतो मदनरेखया ॥ गतः श्रीयुगबाहुस्त-साफल्याय म. धुश्रियः॥ २३ ॥ पुष्पोच्चयादिकां क्रीडां। विधाय सकलं दिनं ॥ निश्चिंतं कदलीगेहे। सु. ध्वाप निशि सप्रियः ॥ २५ ॥ राजाऽप्यवसरं ज्ञात्वा । उन्नं तुबपरिबदः ॥ सनिविंशः स निस्त्रिंशः । प्राविशत्कदलीगृहे ॥ २५ ॥ विहाय कुलमर्यादा-यशोधर्मत्रपादिकं ॥ खन बं. धुमाजघ्ने । ग्रीवायां हा स्मरोदयः॥ २६ ॥ ततो मदनरेखापि । पूच्चके करुणस्वरं ।। मिलि. ता यामिकाः शीधं । नृपोऽपि स्वगृहं गतः ॥१७॥
अथ प्रहारं विज्ञाय । सती प्राणापहारिणं ॥ कर्णमूलमुपेत्याशु । युगबाहुमन्नापत ॥ ॥ ७ ॥ त्वं वृथा मा कृथाः खेदं । महानाग मनागपि ।। सर्वत्र प्राक्कृतं कर्म । प्राणिनामपराध्यति ॥ ॥ ॥ अथ प्रषं मा धत्से । प्राणैः कंठगतैरपि ॥ असमर्थतया व्यर्थ । भ्रइयसे परलोकतः ॥ ३० ॥ तस्मान्मनः समाधेहि । विधेहि शरणं जिनं ॥ ममत्वं मुंच मै- त्री च । कुरु सर्वेषु जंतुषु ॥३१॥ अर्हन देवो गुरुः साधुः । प्रमाणं जिननाषितं । ममेह परलोकेऽपि । नूयादिति विचिंतय । ३२। निंद्यतां निजऽश्ची । सबै सिज्ञादिसाक्षिकं॥सर्वत्र मोह
द
॥२६॥
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वृत्ति
शीलोप मुय । स्मर पंचनमस्कृति ॥ ३३ ॥ प्राणा यस्य नमस्कारं । स्मरंतो यांति निर्मलाः ॥ न
याति यदि मोदं स । ध्रुवं वैमानिको नवेत् ॥ ३४ ॥ शिवाव्रतानि चत्वारि । पंचैवाऽणुव्रता॥१३॥ नि च ॥ गुणास्त्रयश्चेत्यादत्स्व । श्रावकछादशवतीं ॥ ३५ ॥ मित्रपुत्रकलत्रादिनैकोऽपि श
रणं भुवि ॥ धर्म एव परित्राणं । परत्रेह च देहिनां ॥३६॥ नूयोऽपि उर्लनां मत्वा । सामग्री नृलवादिकां ॥ गृहाण तत्फलं तस्मा-मा प्रमादीमहामते ॥३७॥ इति तचसा शांतकोपः सर्वं प्रपद्य तत् ॥ संवेगनिनरं मृत्वा । ब्रह्मलोकेऽनवत्सुरः ॥ ३ ॥
सती मदनरेखा च । पुत्रे चंश्यशोऽन्निधे ॥ परिछदे च सर्वस्मिन् । हाहाकारं रुदत्यSपि ॥ ३५ ॥ ध्यायतीचमहं किं न । गर्जतो विलयं गता ॥ विझबनैकसाफल्यं । रूपं यस्या
दहाऽनवत् ॥४०॥ यतोऽहमेव निश्छद्म-चित्तस्य प्रेयसोऽधुना ॥ विनाशकारणं जज्ञे । चंदनस्येव सौरनं ॥४१॥ मनिमित्तं च येनायं । हतो बंधुरात्मना ॥ शीलं मे स विलो- प्ताऽन-स्तक्ष्यं यत्नतो मया ॥ ४२ ॥ ध्यात्वेति सर्व पुत्रादि । विमुच्य तृणवत्तदा ॥ धारयं. त्युदरे गर्ने । सा निश्येव पलायिता ॥ ३ ॥ प्राच्यां व्रजंती पादाधः-कर्करादिकबाधया |
॥२३॥
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शोलोप
वृत्ति
॥६॥
Fise
करताऽटवीमेकां । प्राप्ता घोरां महासती ॥४॥ ततो रात्रिरतिक्रांता। मध्याह्नसमये पु. नः॥ फलाद्यभुंक्त उस्सह्याः । क्षुत्पिपासादयो यतः ॥ ४५ ॥ प्रत्याख्यानमयाख्याय । सागारं खेदशांतये ॥ सुप्ता लतागृहे कस्मिन् । स्मृतपंचनमस्कृतिः ॥ ४६॥ निशि शार्दूलसिंहादि-शब्दवस्ता महासती ॥ सुतं प्रासूत तत्रैव । सर्वांगवरलकणं ॥ ४७ ॥ बालं कंबलरनेन । वेष्टयित्वा करेऽस्य च ॥ चिकेप मुशरत्नं सा। नर्तृनामांकितं सती ॥ ४० ॥ वस्त्रादिवालनं कर्तुं । विशंती सरसि स्वयं ॥ आदाय गगने क्षिप्ता। करेण जलहस्तिना ॥धणा
अथ नंदीश्वरं दीपं । जग्मुषा गगने तदा ॥ जगृहे खेचरेश । सा श्येनेनेव वर्तिका ॥ ५० ॥ रुदंती तमिति प्राह । शृणु नो काननेऽत्र मे ।। जातमात्रोऽस्ति बालो हि । श्वापदैनदयिष्यते ॥ ५१ ॥ स्तन्यपानं विना या । स्वयमेव विपत्स्यते ॥ कृपया नय मां तत्र समानय तमत्र वा ॥५२॥ सोऽपि प्राह करोमीदं । यदि मां मन्यसे पति ॥ध्रुवं तवैव नाग्येन । प्राप्तोऽहं गगनेऽधुना ॥ ५३ ॥ यदहं मणिचूमस्य । विद्यानृचक्रवर्तिनः ॥ पुत्रो म. णिप्रनो नामा । विद्याधरचमूपतिः ॥ ५५ ॥ सोऽहमानचरित्रस्य । पितुः पादनिनंसया ॥
॥२६॥
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शीलोप
॥६५॥
प्रस्थितस्त्वामिहाऽशकं । शतामिव शुकः शुन्ने ॥ ५५ ॥ तन्मां प्रपद्य रम्यास्ये । खेचर- वृत्ति स्वामिनी नव ॥ कापि कल्पद्रुमासाद्य । किं मानिनि विमानयेत् ॥ ५६ ॥ शूकलाश्वहृतेन 4 श्री-मिश्रिलानगरेशिना ॥ श्रीपद्मरथनूपेन । जगृहे तनयस्तव ॥ ५७ ॥ पाल्यमानः सुतत्वेन । तत्पन्या पुष्पमालया ॥ सुखमस्तीति नमे । प्राप्त्येदमुदीरितं ॥ ५॥ युग्मं ॥ तस्माक्षिादं मुक्त्वा मां । नज तेनेत्युदाहृता ॥ दध्यौ मदनरेखापि । विखिन्नाऽतितरां हृदि
५ ॥ प्राप्ता शीलस्य रक्षायै । नूमिमेतावतीमहं ॥ तघ्नंगस्तदवस्थोऽय-महो पुनरुपस्थि. तः॥ ६ ॥ निश्चयेन तु शीलं मे। मया रक्ष्यं यथा तथा !! स्मरातश्चैष तत्काल-विकपः खलु युज्यते ॥ ३१॥ ततः साह महानाग । पूर्व नंदीश्वरे मम ॥ यात्रां कारय तत्तेऽहं । यतिष्ये कामपूरणे ॥ ६ ॥ ततस्तुष्टेन तेनासौ । नीता नंदीश्वरं द्रुतं ॥ तत्राऽवंदत चैत्येषु । हापंचाशतितीर्थपान् ॥ ६ ॥
॥६॥ ___ततो शवपि वैदेते । मणिचूडानिधं मुनि ॥ चतुर्सानी महात्मापि । ज्ञात्वा नावं तनूरुहः॥ ६ ॥ तथा देशनयाकार्षी-सवैराग्यं मणिप्रनं ॥ यथोडाय महासत्यै । सोऽनमन
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शोलोप
वृत्ति
॥श
गिनीधिया ॥ ५ ॥ युग्मं ॥ पृष्टश्च सुतवृत्तांतं | मुनिर्मदनरेखया ॥ कतिचित्प्राग्नवैर्युक्तं । तथैवाऽयमन्नाषत ।। ६६ ॥ श्तो व्योम्नोऽवतीर्णः श्री-तिग्मन्नानुरिवाऽपरः ॥ त्यक्त्वा विमानं देवीनि-र्गीयमानगुणोच्चयः ॥ ६७ ॥ सुरोत्तमो विनम्रांगो। विधाय त्रिप्रदक्षिणां ।। सत्या मदनरेखाया । निपपात पदांबुजे ॥ ६ ॥ युग्मं ॥ प्रणम्य च ततः साधून । यथास्थानमुपाविशत् ॥ तदयुक्तमिति ध्यात्वा । सुरं प्राह मणिप्रनः ॥ ६ए ॥ चतुर्सानिनमुलंध्य । प्रश्रमं नमसि स्त्रियं ॥ नवादृशोऽपि न्यायं चे-उल्लंघति किमुच्यते ॥ ७० ॥ श्रुत्वेति यावजी.
यो । गृणाति खेचरेश्वरं ॥ चारणश्रमणस्ताव-न्मणिप्रतमन्नापत ॥ १ ॥ नाऽहत्येष नपालनं । कृतज्ञस्त्रिदशोत्तमः ॥ यतः पूर्वनवेऽमुष्य । खजघातेन ताम्यतः ॥ ॥ नायैषा मदनरेखा । जिनधर्मसुधामयैः ॥ शुझोपदेशगंडूषैः । सांत्वयामास मानसं ॥ ३ ॥ युग्मं ॥ ___प्रवईमानसंवेगः । पर्याप्य स्वायुरेष च ॥ बनूव पंचमे कल्पे । ब्रह्मलोके सुरोत्तमः ॥ ॥४॥ धर्माचार्यमनुस्मृत्य । तूर्णमत्रेयिवानयं ॥ युक्तं मुनीन विदायादौ । ननामैनां मदासती ॥ ५ ॥ यतः-यतिना श्रावकेशाय । योऽहं में स्थिरीकृतः ॥ स एव तस्य जायेत
॥६६॥
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शीलोप
वृत्ति
॥२६॥
SEAR
धर्माचार्यों न संशयः ॥ ७६ ॥ सम्यक्त्वं नवने सारं । सम्यक्त्वं सर्वलनं ॥ सम्यक्त्वं दद- ता तस्मा-दत्तं किं नेह देहिनां ॥ ७७ ॥ श्रुत्वेति खेचरेशेऽपि । कमयामास तं सुरं ॥ किं तेनी करोमीति । देवोऽप्याह महासतीं ॥ ७० ॥ सा प्राह मिथिलापुर्या । नय मां यत्र सोंगजः ॥ ततः कणेन नीतासौ । सुरेण गगनाध्वना ॥ ए ॥ याऽस्ति जन्मव्रतज्ञान-नमिमल्लिजिनेशयोः ॥ पवित्रा तत्र चैत्यानि । नेमतुस्तावुनावपि ॥ ७० ॥ गत्वा प्रवर्तिनीपार्थे । धर्म शुश्रुवतुस्ततः ॥ सुरेणोचे समेहि त्वं । दापयामि यथा सुतं ॥ १ ॥ तयोचे. ऽनादिसंसारे । पुत्रः कस्यापि कोऽपि किं ॥ आर्यिकाचरणो मेऽतः। शरणं चरणेच्या ॥॥ ततः प्रवर्तिनी नत्वा । साध्वीं चापि महासतीं ॥ गतः सुरो यथास्थानं । सा च दीक्षामुपा| देदे ॥ ३ ॥ श्रीपद्मरथराजस्य । नताः सर्वे महीभुजः ॥ शिशोः प्रनावादित्याख्या । नमिरित्यस्य निर्ममे । ॥ क्रमेण यौवनं प्राप्तः। कलापौरुषजीवनं ॥ अष्टोत्तरं शतं कन्याः
स पित्रा पर्यणाय्यत ॥ ५ ॥ अश्रो निवेश्य राज्ये तं । स्वयं पद्मरथो नृपः॥ अनुपाल्य सुखं दीक्षा-पूर्वकं मोक्षमासदत् ॥ ६ ॥ श्तो मणिरश्रो यस्यां । रजन्यां बांधवो हतः ।।
॥६॥
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शीलोप
॥ २६८ ॥
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तस्यां कृष्णादिना दृष्टो । रौइध्यानपरो मृतः ॥ ८७ ॥ चतुर्थनरकावन्या-मुत्पन्नो मंत्रिस्ततः ॥ युगबाहुसुतश्चंद-यशा राज्येऽन्यषिच्यत ॥ ८८ ॥
1
अन्यदा नमिर्त्तुः । पट्टदस्ती सितछविः ॥ प्रालानस्तंनमुन्मूल्य । गतो विंध्याचलं स्मरन् || ८ || श्रीचंश्यशसा राज्ञा । मार्गेऽग्राहि स कुंजरः ॥ चरैर्ज्ञात्वाऽथ दूतेन । मायामास तं नमिः ॥ ए० || प्राह चंश्यशा दुतं । न नीतिज्ञो ध्रुवं नमिः ॥ परहस्तगतं वस्तु । मुधैव किमु लभ्यते || १ || इत्यादि दूतमाक्षिप्य । विससर्ज महीपतिः ॥ सबलोनमिराजापि । तंप्रति त्वन्यषेणयत् ॥ ९२ ॥ तदाऽनिमुखमागच्छत्रपि चंश्यशा नृपः ॥ वारि तः शकुनैस्तस्थौ । स्थान एव चमूवृतः ॥ ९३ ॥ नमिश्च तत्रोपागत्य | रुध्वा तस्य पुरी स्थितः ॥ श्रुतो नमिजनन्याथ | वृत्तांतश्चायमार्यया ॥ ए४ ॥ कृत्वा जनकयं मामू । नरके व्रजतामिति ॥ प्रवर्त्तिन्याज्ञया साध्वी । नमेः पार्श्वमियाय सा ॥ एए ॥ तेनापि कृत्वाऽन्युज्ञानं । स्थापिता साासने वरे ॥ चिरेणाभ्यंतरप्रीति-रथवा किमु लुप्यते ॥ ए६ ॥ साध्वी बाल राजें | लक्ष्मीः कल्लोलचंचला ॥ तत्कृते समरारंभः । केवलं नरकायतिः ॥ ए७ ॥
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वृत्ति
॥ २६० ॥
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शीलोप
॥ २६५ ॥
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तत्रापि ते विशेषेण । समं ज्येष्टेन बंधुना ॥ दयैककारणं कर्त्तुं । न युक्तो दारुलो रणः ॥ ॥ ए८ ॥ विस्मितो नमिरप्राही —कोऽत्र मे ज्येष्टबांधवः ॥ तयोचेऽसौ चंश्यशा-स्ततः क श्रमुदीरिते ॥ ९९ ॥ नवाच सर्व संबंधं । साध्वी श्रुत्वा भूपतिः || उज्जयाऽवस्थया तस्थौ । दृष्टांत इव साऽन्वयः ॥ १०० ॥
मुझ रत्नकंबले च । पृष्टया पुष्पमालया ॥ दर्शितेऽस्य विशेषेण । प्रतीतिरुदपद्यत ॥१॥ बंधौ स प्रेमबंधोऽयं । रणाल्लघु न्यवर्त्तत ॥ मन्यंते तृणवत्प्राणानपि या मनस्विनः ||२|| आर्थिकापि ततश्चं - यशः पार्श्वे समीयुषी ॥ सर्वैरन्युचितं तत्र । वेलयेव शशीक्षणात् ॥ ३ ॥ प्रणम्य जननीं जक्त्या । हर्षोदश्रुविलोचनः ॥ सर्व व्यतिकरं मातुर्मुखादाकर्णयन्नृपः ||४|| मत्वा मिनृपं बंधुं । श्रीमचंश्यशास्ततः ॥ कामं जहर्ष केकीव । श्रुत्वा जलदगर्जितं ॥५॥ तो महाविभूत्या च । सन्मुखं तस्य सादरं ॥ श्रुत्वाऽायांतं च तं सोऽपि । हर्षात्संमुखमायौ ॥ ६ ॥ मिलितौ द्वावपि प्रीत्या । सूर्यचंइमसाविव ॥ प्रविष्टौ च पुरे तत्र । नरनारायणाविव ॥ ७ ॥ श्रश्र चंश्यशाः प्राह । पितुर्मृत्योरनंतरं । दीक्षाजिघृक्षया वत्स । न राज्ये -
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वृत्ति
||२६||
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शीलोप
॥ २७० ॥
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प्यारो मम ॥ ८ ॥ तत्त्वं प्रपद्य साम्राज्यं । सांप्रतं मां कृतार्थय ॥ इत्यादि बोधयित्वा स | नमेिं राज्येऽभ्यषिंचत || || स्वयं चंश्यशा दीक्षां । प्रपद्य स्वमसाधयत् ॥ नमिश्च नामिताराती । राज्ययमखंमितं ॥ १० ॥
श्रन्यदा नमिदेदेऽनू-पूर्व कर्मोपढौ कितः ॥ षाएमासिको महातापः । सीमेवेोष्णस्य कर्मएणः ॥ ११ ॥ तस्योपशांतये दस्त - क्वणत्कंकणभूषणाः || गौशीर्षचंदनं सर्वा । घर्षेत्यंतःपुरांगनाः ॥ १२ ॥ अग्निनालिंगितस्येव । दाहोदयस्य तस्य तु ॥ सुखाचक्रे न वलय-ध्वनिर्वीशेव शोकिनः ॥ १३ ॥ ततस्तद्दचसैकैकं । मुंचंत्यो वलयं स्त्रियः ॥ एकैकं धारयामासुः । खटत्कारनिवृत्तये || १४ || इतश्च तस्य चारित्रा- वारके कर्मबंधने ॥ त्रुटितेऽध्यवसायोऽयमुदपादि शुजायतिः ॥ १५ ॥ वलयावलिदृष्टांता - जीवो बहुपरिग्रही ॥ दुःखं वेदयते नूनं । वरमेका किता ततः ||१६|| इत्येका किविहारं स । ध्यायन दादोपशांतये ॥ स्वप्ने मेरुपरि वेत-गंजारूढं स्वमीक्षते ॥ १७ ॥ प्रातर्विमुक्तो दाहेन । जातजातिस्मृतिर्नृपः स्थापयित्वा सुतं राज्ये । स्वयं दीक्षामुपाददे || १८ || नगरी देवतादत्त - लिंगो निर्गतवानयं ॥ ममत्ववर्जि
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॥ २७० ॥
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शीलोप
॥ २७२ ॥
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तो दृष्टः । शक्रेणावधिना तदा ॥ १९ ॥
प्रतिबोधेन । रंजितस्तस्य देवराट् || ब्राह्मणाकृतिमाधाय । परीक्षार्थमुपागतः ॥ ॥ २० ॥ ऊचे च तावत्प्रव्रज्या । दयामूला प्रकीर्त्यते ॥ त्वद्वतग्रहणेनैषा । दुःखादाक्रंदति प्रजा || २१ || पूर्वापरविरुद्धं ते । महानाग व्रतं ततः ॥ पूर्वं सौख्यं विधायैवं । व्रतं चरितुमईसि || १२ || नमिराह न मे कश्चिन्न चाहमपि कस्यचित् ॥ न दुःखाक्रियते कोऽपि । न मद च दुःख्यपि ॥ २३ ॥ स्वार्थाय यतते सर्व स्तं विना दुःखमश्रुते । मयापि साध्यते स्वार्थ - स्तस्मान्निर्ममचेतसा ॥ २४ ॥ इत्युक्तियुक्तिप्रत्युक्ती - वेदन्नथ महामुनिः ॥ विप्रं निरुत्तरीचक्रे | स्वनिर्ममतया तया ॥ २५ ॥ ततः स्वरूपमास्थाय । शक्रो जक्त्या प्रणम्य तं ॥ जगाम स्वास्पदं साधु-रपि मोक्षमसाधयत् ॥ २६ ॥ अथ विविधतपोनिः कालयित्वा स्वकर्म । प्रबलमलकलंकं साम्य संबधबुद्धिः || स्वपर हितविधात्रीं प्राप्य शीले च रेखा - मजनि मदनरेखा जाजनं मोकलक्ष्म्याः ॥ २७ ॥
॥ इति श्रीरुपल्लीयगळे श्रीसंघ तिलकसूरिपट्टावतंसश्री सोम तिलकसूरिविरचितायां
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वृत्ति
॥ १७१ ॥
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शोलोप। श्रीशीलतरंगिण्यां मदनरेखाचरित्रं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ॥
3 शीलस्य जीवातूनेतान्महासतीदृष्टांतानाह॥७॥ ॥ मूलम् ।।-नंदन सीलानंदिय-जणविंदा सुंदरी महानागा ॥ अंजससुंदरिनम्मया
सुंदरिरसुंदरीन य ॥ ५४ ॥ व्याख्या-शीलानंदितजनदा प्रमोदित विश्वा महानागा निष्कलंका सुंदरी नंदतु रुपनदेवसुता चिरं जयतात्, न केवलं सुंदरी, अंजनासुंदरी नर्मदासुं. दर रतिसुंदरी च, एता अपि तपचारित्वानंदत्वित्यर्थः, महानागालकणं चेदं-सा महानागा यस्या न उरपवादोपहतं जन्म, आजन्म मरणांतं हि । यस्या वाच्यं न जायते ॥ सुसू. दम सा महानागा । विज्ञेया वितिमंमले ॥ १ ॥ इति गाथार्थः, नावार्थस्तु कथानकेन्योऽवसेयः, तत्रादौ सुंदरीदृष्टांतस्तथाहि
अस्यामेवाऽवसर्पिण्या-मादौ श्रीशषन्नप्रभुः ॥ श्रीनानितनयो राज्यं । विनीतायाम- पालयत् ॥१॥ सुमंगलासुनंदाख्ये । नार्ये तस्य बनूवतुः ॥ चतुर्दशमहास्वप्ना-नादिमा वीतेऽन्यदा ॥२॥ सापि तान कश्रयामास । स्वामिने ज्ञानशालिने ॥ सोऽप्यन्नाषत ना.
॥७॥
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वृत्ति
झीलोपवी ते । चक्रवर्ती ध्रुवं सुतः ॥ ३ ॥ अतिक्रांतेषु षट्पूर्व-लकेषु जन्मतः प्रनोः ॥ सुषुवे जर-
तब्राह्मी-युग्ममादौ सुमंगला ॥ ४॥ सुनंदापि बाहुबलि-सुंदयौं सुंदराकृती ॥ अमृत स॥७३॥ गुरूपात-विझे विज्ञानवासने ॥ ५॥ पुनरेकोनपंचाश-पुत्रयुग्मान्यजीजनत् ॥ सुमंगला
मणिखानि-रिव रत्नपरंपरां ॥ ६ ॥ अवधूत च विंध्याशै । कलन्ना इव ते क्रमात् ॥ यूथनाअश्व स्वामी । वेष्टितस्तैरराजत ॥ ७ ॥ नक्त्वा शिल्पशतं लोक-व्यवहारप्रवृत्तये ॥जरतं पाठयामास । स्वामी हासप्ततिकलाः ॥॥ सोदराणामयाऽन्येषां । सोऽपि ता अध्यजी. गपत् ॥ निद्यते शतधा विद्या । सत्पात्रे शालिबीजवत् ॥ ए॥ ततः स पुंस्त्रीहस्त्यश्व-लकणान्यखिलान्यपि ॥ नेदैरनेकशो बाहु-बलिनोऽझापयत्प्रभुः ॥ १० ॥ अष्टादश लिपीाद्म्या । अपसव्येन पाणिना ॥ सुंदर्याः शिक्षयामास । वामेन गणितं पुनः ॥ ११ ॥ वीणे नोगफले कर्म-क्यथ नान्नितनूनवः ॥ दध्यौ संसारवैराग्यं । विगलन्मोहबंधनः ॥१२॥ तावल्लोकांतिका देवाः । प्रभुमेत्य व्यजिझपन् ॥ स्वामिन् लोकव्यवस्थाव-धर्मतीथै प्रवर्त्तय ॥ ॥ १३ ॥ वितीर्य नरतायाथ । प्रभुः साम्राज्यसंपदं ॥ ददौ विनज्य विषयां-स्तनयेन्यो य
1२७३॥
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शोलोप
॥ २७४ ॥
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थोचितं || १४ || आर्याऽनायेंषु देशेषु । विहरन्मौनवान् विभुः ॥ वर्षेणेक्षुरसैश्चक्रे । पारणं पाणिपात्रनृत् ॥ १५ ॥
श्रेयांसोपज्ञ एवाऽयं । दानधर्मस्तदाद्यनूत् ॥ प्रजानामृषनोपज्ञा । यथा सर्वनय स्थितिः ॥ १६ ॥ ब्रद्मस्थमुश्या सर्व देशेषु विहरन् प्रभुः ॥ सहस्रमेकं वर्षाणां । व्यतिचक्राम लीलया || १७ ॥ गत्वा पुरिमतालाख्य-मयोध्योपपुरं पुरं || प्रविष्टः शकटमुख - मुद्यानमृ
प्रभुः ॥ १८ ॥ कृताष्टमस्य न्यग्रोध-तलासीनस्य तावता || नृत्पन्नं केवलं ज्ञानं । तत्र श्री त्रिजगङ्गुरोः ॥ १७ ॥ चक्रे समवसरण - रचना वासवैस्ततः ॥ इतश्व शासतो राज्यं । नरतस्य नरेशितुः ॥ २० ॥ नाम्ना यमकशमकौ । समकं पुरुषावुनौ | सनामुपेयतुर्दृताविवेामुष्मिकयोः ॥ २१ ॥ केवलोत्पत्तिमाचख्यौ । तत्रैकः प्रथमेशितुः ॥ द्वितीयस्त्वायुधागारे । चक्ररत्नसमुद्भवं ॥ २२ ॥ उपेक्ष्य प्राणिघातक - हेतुं चक्रार्चनाविधिं ॥ त्रैलोक्यानयदं नाथं । नंतुं तूर्णं ततोऽचलत् ॥ २४ ॥ नदग्द्वारेण समव-सरणं सपरिवदः ॥ प्रविश्य नरतस्तीर्थ - नाथं सानंदमानमत् ॥ २५ ॥ ईशर्धासनमासीने । नरते योजितांजलौ ॥ सर्व
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वृत्ति
॥ २७४ ॥
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शीलोप
॥ २७५ ॥
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जापास्पृशा वाण्या | चक्रे स्वाम्यपि देशनां ॥ २६ ॥
जराधिव्याधिदौर्गत्य-नक्रचक्रकुलाकुले ॥ किं सुखं प्राणिनामत्र । संसारकारसागरे ॥ ॥ २७ ॥ दूरापास्तसुखे नित्यं । दुःखलकशताकुले || रतिं बध्नाति संसारे । मरुस्थल इवात्र कः || १८ || क्रूरावसाना नियतं । विषयाः खलवाक्यवत् ॥ पक्कं फलमिव प्रेम । पतनांतं शरीरिणां ॥ २७ ॥ चातुर्गतिकसंसारं । दुःखरूपं विचार्य तत् ॥ यतध्वं खलु मोक्षाय । सर्वथा जो मनीषिणः ॥ ३० ॥ स पुनर्लज्जः सर्व - सावद्यविरतिं विना ॥ दीयतां सर्वडुःखे
- स्तामादाय जलांजलिः ॥ ३१ ॥ श्राकर्ण्य देशनामिनं । पुत्राणां पंचभिः शतैः ॥ नरतस्याददे दीक्षा । पौत्रसप्तशतीयुतैः ॥ ३२ ॥ श्राज्ञप्ता भरतेशेन । ब्राद्यपि व्रतमाददे ॥ सुधाकुंरं समासाद्य ! को वा तृष्णन् विलंबते ॥ ३३ ॥ विसृष्टा बाहुबलिना । सुंदरी चरणार्थिनी || निविदा जरतेशेन । श्राविका प्रथमानवत् || ३४ || सुंदरीं सुंदरवायां । लावण्यैकतरंगिणीं ॥ जरतः स्थापयामास । तदा स्त्रीरत्नकाम्यया ॥ ३५ ॥ नरतोऽपि श्रावकत्व - मा. दाय स्वामिपादयोः ॥ तत्र पूजाचिकी : शीघ्र - मायुधागारमागमत् || ३६ || विष्वक् प्रदक्षि
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वृत्ति
॥ २७५ ॥
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शीलोप
॥ २७६ ॥
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णीकृत्य । चक्रं राजा नमोऽकरोत् ॥ कृत्वा चाष्टाह्निकी राजा । प्रतस्थे दिग्जयं प्रति ॥३७॥ सदा षोडश निर्य - सहस्त्रैः परिवेष्टितः ॥ षट्खमं जारतं क्षेत्रं | साधयामास चक्रनृत् ॥ ३८॥ चक्रं त्रम सिर्दडो | रत्नान्यायुधमंदिरे ॥ एकेंड्रियाणि चत्वारि । तस्य जातानि चक्रिणः | ३| का कर्ममय - स्तस्य लक्ष्मीगृहेऽनवन् ॥ ज्ञानदर्शनचारित्रा - शीव त्रीणि महात्मनि ॥ ४० ॥ सेनापतिर्गृहपतिः । पुरोधा वईकी तथा ॥ विनीतापुरि चत्वारि । नररत्नानि जज्ञिरे ॥ ४१ ॥ गजाश्वरत्ने वैताढ्य - शैलमूले बभूवतुः ॥ नदग्विद्याधरश्रेण्यां । स्त्रीरत्नं तूदपद्यत जंबूदीप व स्वर्ग - सिंधुप्रभृतिसिंधुनिः ॥ स चतुर्दशनिश्वक्री । महारत्नैरशोजत | ॥ ४३ ॥ षष्ट्या सहस्त्रैर्वर्षाणां । समत्रैश्वर्यसंयुतः || आजगाम विनीतायां । चक्री श्रीनरताधिपः ॥ ४४ ॥ ततो द्वादशवार्षिक्या -ऽनिषेकसमनंतरं ॥ दर्शनोत्कंठितश्चक्री । स्मर्त्तु प्रववृते स्वकान् ॥ ४५ ॥ ततो हिमानीसंपात - दीनां कमलिनीमिव ॥ कदलीमिव संशुष्कां । दिवा चंकलामिव ॥ ४६ ॥ प्रम्लानरूपलावण्या -मस्थिशेषतनूलतां ॥ नियुक्तैर्दर्श्यमानां स । तदा प्रैष्टि सुंदरीं ॥ ४७ ॥ युग्मं ॥ कृशां जवांतरायाता -मिवाऽन्यादृशविग्रहां || निरीक्ष्य
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वृत्ति
॥ २७६ ॥
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डीलोपा
वृत्ति
॥७॥
मा
सुंदरी राजा । नियुक्तानित्यनापत ॥ ७॥ किं रे मम गृहे शस्य-संपनिस्तादृशी न हि ॥ बीजसूरपि निर्बीजा । तर्दि संनवति ध्रुवं ॥ ४ ॥ न नोक्तुं सनते स्वैरं । कोऽपि कापण्यतोऽत्र वा ॥ शारे प्रक्षालवस्तर्हि । कारोदधिगृहा अपि ॥ ५ ॥
किममी सूपकारा वा। स्वकर्मसु न कर्मगः।। वृत्तिस्तेनतया तर्दि। दुरापास्या अम) अपि ॥५१॥ खजूरोनंतिकाशदा-नालिकेरफलादिका ॥ सुखादिका न किं संति । दरिश्स्येवर सद्मनि ॥५२॥ फलवंध्या बनूवुस्ते । किमुद्यानेषु पादपाः॥ प्रार्थनाविमुखाः कल्प-वृक्षास्तदिह जज्ञिरे ॥ ५३॥ यक्ष न प्रस्रवंतिस्म । कलशोघ्नोऽपि धेनवः ॥ सिंधुगंगादयस्तर्हि। नीष्मग्रीष्मोष्मणाऽशुषन् ॥ ५५ ॥ अथ नोज्यादिसामग्यां । सत्यामपि हि सुंदरी ॥ असो म किंचिदभाति । तशेगः कोऽपि बाधते ॥ ५५ ॥ तथा च तत्प्रतीकार-ददाः सर्वे निषग्वराः॥ किं बनूवुः कथाशेषाः । कुल्या श्व मरुस्थले ॥ ५६ ॥ अथास्मन्मंदिरे दिव्यौ-षधयो न हि लेनिरे ॥ ध्रुवं तदौषधीवंध्यो । जातः सोऽपि हिमाचलः ॥ ५७ ॥ अहो नु कयमाजन्म-:खदग्धेव दुर्बला ॥ सौनिकागारबव । गगीवाऽजनि सुंदरी ॥ ५० ॥ नियोगिनोऽ
॥७॥
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शोलोप पनरत-प्रभुं नत्वेन्चमूचिरे ॥ न उर्लनं किमप्यन्न । कल्पशविव ते गृहे ॥ ५ए ॥ परं यदा-
Kaatदि युष्मानिः । प्रतस्थे दिग्जयंप्रति ॥ तदादि कुरुते नित्य-माचाम्लानि च सुंदरी ॥६॥ ॥ ॥ प्रव्रजंती यदैवासौ । न्यषिध्यत सती त्वया ॥ तस्थौ प्रवर्तिनीवासौ । तदाप्रति नावतः ॥
॥१॥ कल्याणि तातपादांते । प्रव्रज्यां किं जिघृक्षसि ॥ पृष्टेति सुंदरी राज्ञा । तथेति प्र. त्यवोचत ॥ ६॥
नरतः पुनराचष्ट । प्रमादान्मौग्ध्यतोऽश्रवा ॥ इयत्कालं महासत्या । व्रतविघ्नमकारयं ॥६३ ॥ तदिदानीमपि स्वेष्टं । साधयंती महासती ॥ अवश्यं तातपादानां । सत्यमेषैव सुदरी ॥ ६ ॥ धिग्वयं विषयासक्ताः । प्रोन्मत्ता इव हेलया ॥ हिताऽहितमजानाना । मूर्गमो राज्यसंपदि ॥ ६५ ॥ गत्वरेणामुना मोक्षः । साध्यते वपुषैव हि ॥ नोगिनिर्नोगवांव
। पुष्पैश्वरसौरनैः ॥ १६ ॥ आधिव्याधिकशन्मूत्र-मलस्वेदात्मजं वपुः ॥न शक्यं सुरनी * कर्तुं । पलांडुशकलं यथा ॥६७ ॥ तत्साधु वपुषानेन । गृह्यते चरणं फलं ॥ निपुणा एव
गृह्णति । रेणोः स्वर्णलवानिव ॥ ६ ॥ मुदितेनाथ नूपेन । व्रतायाऽनुमता सती ॥ तपः
॥७॥
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वृत्ति
शीलोप शापि हर्षेण । बनौ मेदस्विनीव सा ॥ ६॥ ॥ इतश्च विदरन स्वामी। नान्नेयोऽष्टापदं गिरें ।
॥ समियाय निदाघोष्म-तप्तानामिव वारिदः ॥ ७० ॥ तत्र स्वामिनमायातं । कुर्वाणं धर्म॥७॥ देशनां ॥ चक्रिणे ज्ञापयामासु-द्रुतमुद्यानपालकाः ॥ ३१ ॥ तेषां कोटी: सुवर्णस्य । सार्श महादश नूपतिः ॥ ददौ दधानो नरतो । जयादप्यधिकां मुदं ॥ ७२ ॥ ऊचे च सुंदरीं स्वा
मी । त्वन्मनोरथमिध्ये ॥ स्वातिमेघ श्व केत्रे । नूनमागाजगगुरुः ॥ ७३ ॥ अथ श्रीनरता. देशा-दंतःपुरपुरंध्रयः ॥ सुंदर्याः कारयामासु-र्दीवादानानिषेचनं ॥ ४ ॥ अथो विलेपनं कृत्वा । सुंदरी शीलसुंदरी ॥ संदधावंशुके शुभ्रे । द्यौरिवानाणि शारदी ॥ ७॥ तदानीं तत्तनौ दिव्य-रत्नालंकारराशयः॥ अना निर्मलाः शीला-ऽलंकारा इव रेजिरे ॥ ७६ ॥ सुं. दर्या रूपसौंदर्य-पुरतः किंकरीव सा || स्त्रीरत्नं तु सुन्नशख्या । तदानीं प्रत्यन्नासत ॥७॥ ततो नाप्रदीनेव । मेघमाला यथेप्सितं ॥ दानं ददाना दीनेच्यः । शिबिकामारुरोह सा ॥७
अथ श्वेतातपत्रेण । शोजित घतचामरा॥ स्तूयमानगुणग्रामा। वाढं मंगलपाठकैः॥ ए || अंतःपुरपरीवार-सैन्यराजन्यराजिता ॥ अनुयाता नरेंद्रेण । मोदमेदस्विचेतसा ॥
॥षणा
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शोलोप ॥ ॥ युग्मं ॥ नजीतमंगला ब्रातृ-जायानिक्तिपूर्वकं ॥ नत्तार्यमाणलवणा । वरस्त्रीनिवृति
पदेपदे ॥ १ ॥ प्रवाद्यउद्यतातोद्य-नादैर्बधिरितांबरा ॥ प्रापदष्टापदं तात-पादपूतं महासती. श E ||शा कलापकं ॥ ततो नरतसुंदयौँ । वैराग्यालापपेशलौ ॥ प्राप्तौ समवसरणं । शरणं नव
नीजुषां ॥ ३ ॥ चक्रवर्त्यनमधर्म-चक्रवर्तिनमादरात् ।। नत्वा कृतांजलिः प्राह । सुंदर्यपि सगदं ॥ ४ ॥ चिरं प्रत्यक्ष एवाऽनू-मनसा त्रिजगत्पते ॥ दिष्ट्या दृष्ट्याद्य दृष्टोऽसि । बहुन्निः पुण्यसंचयैः ॥ ५॥
मयका यदियत्कालं । जरतेशोपरोधतः ॥ नाऽग्राहि चरणं तेन । स्वयमेवास्मि वंचिता ॥ ६ ॥ नगिनी स्वामिनी ब्राह्मी । भ्रातृव्यास्तत्सुताश्च ते ॥ धन्याः सर्वेऽपि ये नाथ । तव मार्ग पपेदिरे ॥ ७ ॥ विश्ववत्सल दीदां मे । दत्वा तारय तारय ॥ जगत्प्रकाशकः सू.
यः । किं गृहं न प्रकाशयेत् ॥ ॥ महानागे महासत्त्वे । साधु साध्वित्युदीरयन् ॥ द- श्या भदौ तस्यै विभुर्दीक्षां । नवांनोधितरीनिन्नां ॥ ए ॥ ततोऽनुशिष्टिसंबज्ञ । धर्मारामैकसार
विं ॥ तस्यै पीयूषदेशीयां । विदधे देशनां विभुः ॥ ए॥ कृतकृत्यमिवात्मानं । मन्यमानाथ
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शीलोप
वृत्ति
॥१॥
सुंदरी ॥ तपोधना गणमध्ये । निषसाद यथाक्रमं ॥ १ ॥ देशनांते प्रभुं साधून | साध्वी- श्वापि प्रणम्य सः॥ प्रमोदमेदुरोऽगठ-दयोध्यां नरतेश्वरः ॥ ए ॥ सुंदर्यपि धिा शिक्षामादाय मतिमछा ॥ चारित्रं निरतीचारं । विधिवत्पर्यपालयत् ॥ ए३ ॥ निहत्य घातिकर्माणि । निरवद्यतपःक्रमैः ॥ अवाप केवलज्ञानं । स्वातौ शुक्तिर्व मौक्तिकं ॥ ए४ ॥ अतुल्य शीलोज्ज्वलतासमुत्र-मापाख्य कैवल्यमनल्पकालं ॥ अष्टापदे शैलवरे प्रपेदे । श्रीसुंदरी मो. कमनंतसौख्यं ॥ ए५॥
॥ इति श्रीरुपल्लीयगो नट्टारकश्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरि
विरचितायां श्रीशीलोपदेशमालावृत्तौ शीलतरंगिण्यां सुंदरीकथा समाप्ता । अथांजनासुंदरीदृष्टांतमाह
अत्रैव जंबूहीपेऽस्ति । शाश्वतस्वस्तिमंदिरं ॥ वैताढ्यपर्वते विद्या-धरश्रेणियुगांकितं ॥ ॥१॥ पुरं प्रह्लादनं तत्र । प्रसिई सिजनूमिवत् ॥ जेतुं स्वर्गमिवोऊर्ध्व-चंशालासमा- कुलं ॥ २॥ प्रह्लादो नाम नूमीइ-स्तत्र शात्रवशातनः ॥ सहस्ररश्मिराकाशे । यत्प्रताप -
॥१॥
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झालोप
वृत्ति
॥श्न्शा
वांगवान् ॥ ३॥ राज्ञी पद्मावतीत्यस्ति । गुणमाणिक्यखानिका ॥ गुणैर्जयकुमारो वा । त- त्पुत्रः पवनंजयः ॥ ४ ॥ क्रीडाकाननवापीषु । विनोदखुरलीश्रमैः ॥ मित्रैषनदत्ताद्यैः । स-५ मं चिक्रीड कौतुकी ॥ ५ ॥ श्रेण्यामितश्च तत्रैव । पुरमंजनसंज्ञकं ॥ नूपालोजनकेतुस्तत्पालयामास वजिवत् ॥ ६॥ आसीदंजनवत्याख्या । राझी मान्या मनीषिणां ॥ अंजनासुंदरी कन्या । तयोर्नेवाऽमृतांजनं ॥ ७॥ रूपसौंदर्यसीमेव । साई पित्रोमनोरथैः ॥ सर्वांगीणगुणा साथ । प्राप कामसुखं वयः ॥ ॥ अहंपूर्वमनेकेषां । राज्ञां स्थानेषु तत्कथा ॥ प्रससार सरित्पूर । श्व वर्षासु सर्वतः ॥ो आत्मात्मीयकुमाराणां । माराणामिव नूधवाः ॥ लेख लेखं पदे रूपं । प्रैषुः सचिवपाणिना ॥ १० ॥
ततो रूपकुलैश्वर्य-विद्याशीलपराक्रमान् ॥ पर्यालोचयतोः पित्रो-गुणान् वजमणेरिव ॥११॥ नविष्यहत्तपवनं-जययोरन्यदा पटः ॥ अमात्यहस्ते युगप-त्कामादेश श्वाागमत् ॥१॥ युग्मं ॥ त्यक्त्वा सर्वकुमाराणां । तुषानिव पटानथ ॥ परीक्षाकुशलो राजा । पट. घ्यमधारयत् ॥ १३ ॥ तयोर्वरगुणान ज्ञात्वा । समानजनकेतनः ॥ पाच सचिवं नूयो।
॥२
॥
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झीलोप
वृत्ति
॥२३॥
विशेष रूपवेषयोः॥ १५ ॥ सचिवः प्राह देवायं । नविष्यदत्तनामकः ॥ जन्मतोऽष्टादशे व
। मुक्तिगामी जिनोदितः ॥ १५ ॥ कन्यां नविष्यद्दत्तस्य । गुणाधिकतया नृपः ॥ प्रदित्सुरपि चाल्पायु-रित्याशंक्य न दत्तवान् ॥ १६ ॥ यात्रायां शाश्वतत्रे । दीपे नंदीश्वरे तदा॥ विद्याधरसहस्राणि । महा सममीमिलन ॥ १७ ॥ तत्रांजनसुराधीशः। प्रल्हादननृपांगजं ॥ पवनंजयमालोक्य । योग्यं कन्यां ददौ मुदा ॥ १० ॥ दत्तं नैमित्तिकैर्लग्नं । सद्यः स्तो कदिनांतरे ॥ योग्यसंघटनाप्रीतौ । तौ स्वगेहमुपेयतुः ।। १५ । समृरनुसारेणां-जनकेतुर्महीपतिः ॥ चक्रे विवाहसामग्रीं । साटोपां महदुत्सवात् ॥ २० ॥ ससमनपरीवारः । संरंनेण महीयसा ॥ समेत्य वर्तुले तस्थौ । श्रीमानससरोवरे ॥२१॥
श्रीप्रह्लादनरेंशय । महाविवर्दकाम्यया ॥ विस्तरेण समागंतुं । प्राहिणोलनपत्रिकां ॥ ॥२॥ आह्वास्त स्वजनान् सोऽपि । जन्ययात्रार्थमादरात् ॥ सत्यां समृझे पुत्रादि-का- ये के के न सोद्यमाः ॥ २३ ॥ श्तश्चर्षन्नदत्तोऽपि । बन्नाण पवनंजय ॥ मित्र मैत्रीनवं प्रेम । पत्नीप्रेम्णा तिरोत्स्यते ॥ २४ ॥ कुमारः प्राह सस्मेरं । सखे कौतुकमस्ति मे ॥ गत्वा
श्शा
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वृत्ति
शोलोपविलोकयावस्तां । नक्तं केनाप्यलक्षिता!! २५ ॥ सद्यो व्योम्ना विमानेन । गत्वा मानससीम-
नि ॥ प्रविष्टौ श्वसुरागार-मुन्नौ नीलपटावृतौ ॥ २६ ॥ अंजनासुंदरी यत्र । सखीनिः परिवा॥शा रिता ॥ मिथःकथाऽनुरक्ताऽस्ति । तत्र तावपि जग्मतुः ॥ १७॥ तदा कापि सखी प्राह ।
यो नवत्याः कृते वरः ॥ पूर्वं सखि विमृष्टोऽनूत् । स आसन्न शिवाध्वगः ॥॥अतः किं प्र। वरेणापि । तेन गत्वरजन्मना ॥ तृप्तिं विनापि विजेद-पुःखं खलु सुदुस्सहं ॥ श्ए॥ अंजनासुं
दरी प्राह । सखि किं चर्चयाऽनया ॥ बटापि किल दुःप्रापा । सुधाया इति न श्रुतं ॥ ३० ॥
श्रुत्वेति तर्जतः सिंह।श्व कोपाऽरुणेक्षणः॥ दधावे खजमुद्यम्य । हंतुं तां पवनंजयः ॥३१॥ R नवाचर्षन्नदत्तोऽथ । खजमाविद्य पाणिना ॥ कोऽयमप्रस्तुतारंनो-ऽनुचितः शिष्टकर्मणां ॥
॥ ३२ ॥ एकं परगृहे रात्रा-वागमोऽन्यत्कनोवधः॥ अनूढां च परकीये-त्यपि हंतुं न चाऽअसा ईसि ॥ ३३ ॥ श्वं निवारितः कोशे । करवालं निधाय सः ॥ विरक्तचित्तः स्वं धाम जगा-
म विमनायितः ॥ ३४ ॥ मिलिताऽनेकहस्त्यश्व-रश्रपादातिसंकुलाः॥ प्रस्थिता जन्ययात्रार्थ निरूपितदिने अ ते ॥ ३५ ॥ मंगलध्वनिमिश्रेषु । मृदंगेष्वाहतेष्वथ ॥ मंमनाय कुमारस्य ।
ज्या
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शीतोप
॥ २८५ ॥
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सुवासिन्यः समाययुः ॥ ३६ ॥
कुमारस्ताः समालोक्य । ससंरंजमुपागताः ॥ स्वाऽनीष्टं ज्ञापयंस्तासां । मित्रमाचष्ट पार्श्वगं ॥ ३७ ॥ किमपेक्ष्याऽयमारंभो । न तावदहमीदृशं || विवादं कर्त्तुमिचामि । 5गोष्टी मित्र सज्जनः || ३८ || विलकास्ता इति श्रुत्वा । तन्मातुस्तन्न्यवेदयन् ॥ समेत्य सोत्सुकं सापि । साशीर्वादमदोऽवदत् ॥ ३७ ॥ वत्स सामान्यलोकाना-मप्याशाः पूरितास्त्वया ॥ किं मातरमपीदानीं । निराशीकर्तुमर्हसि ॥ ४० ॥ स्फुर्त्या विवाहसामग्री - मेल नव्याकुलाशयः ॥ तदाकर्ण्य नरेंशेऽपि । कुमारं त्वरमागमत् ॥ ४१ ॥ किमिदं श्रूयते लज्ज-नीयं नीचजनोचितं ॥ किमस्मदादतं कार्यं । क्वापि शैथिल्यानवेत् ॥ ४२ ॥ अस्मासु किजीवत्सु । तामन्यः परिशेष्यति ॥ खंडं चंडमिव स्थाणु-नहतं कोऽपि मुक्तवान् ॥ ४३ ॥ उक्त्वा सरोपाइंकार - मिति प्रह्लादनो नृपः ॥ कुमारं पालिनाकृष्या - डारोहयामास वाहनं ॥ ॥ ४४ ॥ लज्जयापि कुलीनाः किं । क्वापि पूज्यवचोऽन्यथा ॥ कुर्वतीति प्रतस्थे शक् । कुमारो गूढरोषवान् || ४५ ॥ सुवासिनीजिस्तत्कालं । विहितोत्तममंगलः || किरीटदार केयूर
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वृत्ति
॥ २८५॥
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शोलोप
॥ २८६ ॥
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महार्घाजरणावृतः ॥ ४६ ॥ चंदमंगलवत् श्वेत - विधूलातपवारणः । गंगात रंगवत्पार्श्व-लोलचामरचारिमः || ४७ ॥ जाग्रजयजयाकीर्ण - दानप्रीतिमार्गणः ॥ दृशा संभावयन् सर्वोस्तांबूलसुनगाननः ॥ ४८ ॥ श्रप्रगो जन्ययात्रायाः । कुमारः पवनंजयः ॥ षण्मुखो देवसेनाया । इवाऽद्योतिष्ट निर्जरं ॥ ४९ ॥ कलापकं ॥
कन्या संबंध निर्वाढं । प्रौढैः संमुखमागतैः ॥ महोत्सवमयी भूमि - बलिराज्य इवानवतू ॥ ५० ॥ दाननोजनसन्मान - परिधापनिकाक्रमैः ॥ राजहर्षप्रकर्षे च । वृत्तं विवादमंगलं ॥ ५१ ॥ अनुरूपवयोरूपौ । तौ तदानीं वधूवरौ ॥ श्लाघ्यतां प्रापतुर्लोके । रोहिलीशशिनाविव ॥ ५२ ॥ प्रह्लादननृपेणापि । स्वकीयगृहमीयुषा ॥ विसृष्टाः स्वजनास्तुष्टि-दानैर्जग्मुर्यथाऽागताः ॥ ५३ ॥ अंजनासुंदरी शुद्ध - कुलाचारपरायणा ॥ स्वगुणैः प्रीणयामास । कमलेव कुटुंबकं ॥ ५४ ॥ केवलं प्राच्यः कर्म-परतंत्रतया पतिः । श्वपची मित्र गेहेऽपि । न पस्पर्श शापितां ॥ ५५ ॥ पतिभक्तापि रक्तापि । महासत्यपि सांजना ॥ बभूव न मुदे पत्यु - घृतभुक्तिरिवामये ॥ ५६ ॥ अलंघयंती सा जक्तिं । जानाना कर्मवैकृतं ॥ नातिचक्राम
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वृत्ति
॥ २८६ ॥
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Sne
शीलोप मर्यादां । वेलामिव महोदधिः ॥ ५७ ॥ श्तश्च रावणेन श्री-लंकातः प्रतिविष्णुना ॥ अन्य- वृत्ति
मित्रीणतां कत्तुं-कामेन वरुणंप्रति ॥ ५ ॥ युझे साहाय्यदानाय । प्रह्लादननरेश्वरं ॥ आह्वा.. ॥२७॥ तुं प्रेषितो राजा-देशस्तत्र समाययौ ॥ एए॥ युग्मं ॥
अथ प्रह्लादनो नूप-स्तत्दणं रणकौतुकी ॥ सैन्यसंहननाकौ । जयढक्कामवीवदत् ॥ कई॥६० ॥ कुमारोऽपि तदाकर्ण्य । ज्ञात्वा रणमुपस्थितं ॥ पिता प्रस्थास्यते यो९ । तद्युक्तं न
मयि स्थिते ॥ ६१ ॥ नत्वा पितरमन्यर्थ्य । स्वयं जग्राह बीटकं ॥ यतो धुरंधरः पुत्रो । न* पित्राायाससासहिः॥६॥ अथ मातरमापृष्टुं । गंतुकामं पति सती ॥ अंजनासुंदरी ज्ञात्वा । श्वश्रसदनमासदत् ॥३३॥ तयाऽस्यऽविहितालापा। दर्मनायितमानसा ॥ तस्थौ स्तंनमवष्टन्य । पतिदृष्टिमपीप्सती ॥६५॥ कुमारोऽप्यथ सनह्य । प्रेष्य सैन्यं पुरोऽध्वनि ॥ स्वयमाशिषमादातुं । जगाम जननीगृहे ॥ ६५ ॥ पपात पादयोर्मातुः । साऽप्याशिषमुदाह- ॥श्ण्णा रत् ॥ दत्वा पुत्रोचितां शिक्षा । विससर्ज सुतं युधि ॥ ६६ ॥ स्तंन्नलग्ना निश्चलांगी। पतिदृष्टिमपीप्सती ॥ पांचालिकेव रूपान्या । सांजनासंदरी बनौ ॥ ६ ॥ निर्ययौ जननीगे
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शोलोपoहा -स्कुमारः सपरिबदः ॥ सतीमुदासीन इव । न पस्पर्श दृशापि तां ॥॥ सिंचंतीवर वृत्ति
भुवं नेत्रा-श्रुतिः सततवाहिन्निः ॥ शून्यचित्ता पुनः प्राप-दंजनासुंदरी गृहं ॥ १ ॥ प्र.4 ॥ ॥ स्थितः सन् कुमारोऽपि । श्रीमानससरस्तटे ॥ सैन्यमावासयामास । सुखमाद्यप्रयाणके ॥
॥ ॥ रजन्यां तत्र पर्यते । सरसः क्रंदनाकुलां ॥ निरीक्ष्य कोकी पप्रब । कुमारो मि. किं न्विदं ॥१॥
स प्राह देव देवस्य । वशात्कोकयुगं दिने ॥ संयुज्यते निशायां तु । नित्यमेव वियुज्यते ॥ २॥ तेनासौ विरहात्पत्युः । क्रंदत्यश्रूणि मुंचति ॥ वातर्जीवन्मृता प्रातः । पत्युः सं. योगमेत्स्यति ॥ ३ ॥ इतश्च कर्मणि कीणे । तस्या नोगांतरायके ॥ सोऽप्यूचे हादशाब्दानि । मत्त्यक्ता कथमस्ति सा ॥ ७ ॥ तत्सखे गंतुमिवामि । संगत्य पुनरेष्यते ॥ व्रजेत्युक्ते
च तेनापि । तत्क्षणं तहेऽन्यगात् ॥ ५ ॥ कणं हारि स्थितो दृष्ट्वा । ताम्यंती तां महा- ॥ 2 सती ॥ पुनरागतमात्मानं । वदन हारमपावृणोत् ॥ ६ ॥ जे तदिवसातां । सांतवत्री
बनूव च ॥ स्वांगुलियमनिज्ञानं । दत्वा सैन्यं पुनर्ययौ ॥ ७॥ पतिसंन्नावनाहृष्टा । वि.
॥
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वृत्ति
शीलोपा स्मृत्य प्राव्यपुर्दशां ॥ मेने सफलमात्मान-माशा हि परमं सुखं ॥ ७ ॥ अश्रो मासि तृ.
तीयेऽस्या । गर्नः प्रापुरनून्मनाक् ।। असतीमिति तां चित्ते । श्वसुरः समन्नावयत् ॥ ए॥ ॥॥ यथायथैधते गर्न-स्तस्या मोदोदयावहः ॥ चंबिंब वैतस्यां। कलंकोऽपि तथा तथा ॥
॥ ॥ प्रवईमानगर्नाथ । पृष्टा परिजनैस्तदा ॥ तदंगुलीयकं पत्युः । सती श्वश्रूमदर्शयत् ॥ १ ॥ साऽप्याह त्वां न दृष्ट्यापि । मत्पुत्रः समन्नावयत् ॥ पुनरागत्य नेजे त्वां । कथं मन्यामहे वचः ।। २ ।। समारोपिताऽलीक-कलंकाधिकृता तया ॥ निष्कासिता च दोषे हि । विरलः पदपातकृत् ॥ ३ ॥ बोम्णा बालसख्या । सममेकाकिनी सती ॥ निराधारा पितुर्गेह-वर्त्मनि खिताऽचलत् ॥ ४ ॥ गता पितृगृहं ज्ञातो-दंतैः पित्रादिन्तिः पु. नः॥ निराकृता च दोषे हि । न कोऽपि निजकः खलु ॥ ५॥
विशिष्य स्वजनोपज्ञा-ऽपमानत्रपया सती ॥ निरपेक्षा जीवितेऽपि । निस्ससाराऽश्रुव- र्षिणी ॥ ६ ॥ ग्रामादौ क्वाप्यगळती । सा सती निजलजया । काननेष्वेव बभ्राम । शुशीलेन रक्षिता ॥ ७ ॥ कंदमूलफलाहारा । निर्जरोदकपायिनी ॥ एकदासीसहायापि ।
न्या
३७
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वति
होलोपसा तस्थावकुतोन्नया ॥ ॥ पूर्णगर्नावधिः क्वापि । सुषुवे गहने सती ॥ नद्यदर्कसमं
पुत्रं । वजं वैमुर्यनूरिव ॥ ए ॥ सिंहव्याघ्रगजदीपि-चौरनीराऽनलादिन्तिः ॥ शीलास्त्रेणैव ॥शए निर्नीका । संचचार वनाध्नं ॥ ए॥ एकदा नीरमन्वेष्टुं । दासी प्रैषीहनांतरे ॥ एकस्मि
बपि चेतोऽनु-गामुके किमु पुष्करं ॥ १ ॥ कृतार्था सा समन्येत्य । महासत्यै व्यजिज्ञ. या पत् ॥ प्रतिमास्थो गिरेः शृंगे । मयैको मुनिरक्ष्यत ॥ ए ॥ सद्यः पिपासां विस्मृत्य । स
ती प्रमुदिताशया ॥ सार्नका गिरिमारुह्य । नत्या मुनिमवंदत ॥ ए३ ॥ पारयित्वा मुनिः कायोत्सर्ग धर्माशिषाऽधिनोत् ॥ प्रतिलेखितनूमावु-पविश्योपदिदेश च ॥ ए ॥ महानुनावे संसारे । बहुःखौघसंकुले ॥ न शरण्यं विना धर्म-माशाधीनस्य देहिनः॥ ५ ॥
संयोगा विप्रयोगाश्च । कर्मायनप्रवृत्तयः ॥ व्यथै मोहवशः प्राणी । परं दूषयते रुषा ॥ ॥ ए६ ॥ नोग्यं कर्म च केनापि । न शक्यं कर्तुमन्यथा ॥ स्वार्जितं वेदयित्वैव । जीवो दां- तिमश्रुते ॥ ए७ ॥ अन्यच्च अकृताऽखंड-धर्मणां पूर्वजन्मनि ॥ सापदः परिपच्यते। गरीयस्योऽपि संपदः ॥ ए॥ धर्मश्च विविधः श्राइ-यतिन्नेदेन संमतः ॥ स्वर्गापवर्गसंसर्ग-का
ए|
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शीलोप
॥ १५१ ॥
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र दुःखवारणः || || श्रुत्वेति जातवैराग्या । सती श्रीधर्ममाईतं || जग्राहाऽनिग्रहैः साई | सम्यक्त्वप्राप्तिज्ञाविनिः ॥ १०० ॥ उपदेशादथ ज्ञात्वा । मुनिं ज्ञानातिशायिनं । पप्रच जगवन् दुःखं । जातं मे केन कर्मणा ॥ १ ॥ मुनिराह पुरा नरे । त्वमासी रिज्यवल्लजा ॥ सपत्नी च त्वदीयाऽनू - जिनधर्मेण भाविता ॥ २ ॥ गृहीतानिग्रहा सा तु । प्रतिमां श्री जिने शितुः ॥ पुष्पधूपोपहाराद्यै - रर्चयामास नित्यशः ॥ ३ ॥ त्वं च मिथ्यानिनिवेशादसहिष्णुरसूयया ॥ प्रतिमां तामवकरे -ऽन्यदा न्यस्तवती रुषा ॥ ४ ॥
श्राविकायाः सपत्न्यास्तु | जिनबिंबार्चनं विना ॥ अननत्यास्त्वया दत्ता । प्रतिमा छादशक्षणैः ॥ ५ ॥ तत्कर्मणो विपाकोऽयं । जातस्ते द्वादशाब्दिकः ॥ परिणामविशेषस्तु । किंचिदेवावशिष्यते || ६ || पुनः पतिव्रता प्राह । जक्त्या विरचितांजलिः ॥ स्वामिन् मदनुगा दासी । कर्मणा केन पीड्यते ॥ ७ ॥ प्रतिमां गोपयत्यास्ते । धर्मशीले तदाऽनया । - श्यतेऽत्र प्रदेशेऽसा - वित्यूचे च मुहुर्मुहुः ॥ ८ ॥ तस्यास्तु वाचा प्रतिमा । विशिष्य स्थगि तावया ॥ पापकर्मणा तेन । वराकी क्लेशमन्वनूत् ॥ ए ॥ श्रुत्वेति विस्मयस्मेरा । सां
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वृत्ति
॥ २ए॥
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शोलोप
॥२२॥
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जनासुंदरी सती ॥ सर्वत्र कर्मप्रामाण्यं । मेने स्वसुखदुःखयोः ॥ १० ॥ पुनः पक्ष जगवन्। शुकर्मोदयो मम ॥ कदा भविष्यते संगो । जविताऽत्र जवेन वा ॥ ११ ॥ मुनिनोचे महासत्त्वे । कर्म जीर्णमिवास्ति ते ॥ अत्रैव खलु तिष्ठत्या । मिलिष्यति च मातुलः ॥ १२ ॥ स्वपितुर्गेहवत्तस्य । स्थितायाः सदने तव || मिलनोपक्रमः पत्युः । स्वयमेव नवियति ॥ १३ ॥ इत्याश्वासनया साधु - पर्युपास्तिपरायणा || तस्थौ महासती सत्त्व - मालव्य शिखरे गिरेः || १४ || इतस्तन्मातुलः सूर्य - केतुनामा ननश्वरः ॥ कृत्वा नंदीश्वरे यात्रां । प्रतस्थे स्वगृप्रति ॥ १५ ॥ चारणभ्रमणस्याथ | प्रभावेश पटीयसा । विमानं स्तंभितं तस्य । तीर्थ लंघ्यं न हि क्वचित् ॥ १६ ॥ खेचरोऽपि गिरेः शृंग - मवतीर्य मुनिं मुदा । ववंदे धन्यमात्मानं । मन्वानः पुण्यलानतः ॥ १७ ॥ साधर्मिकवंदनायां । स्वररूपानुसारतः ॥ जागिनेयीमुपालक्ष्य । मुमुदे खेचराधिपः ॥ १८ ॥
तद्वृत्तांतमथाकर्ण्य । दयापरिणताशयः ॥ अंजनासुंदरीं साई -मादाय प्राचलत्तदा ॥१॥ जागिनेयीसुतं बालं । लालयन्मन्मनोक्तिनिः ॥ ययौ विमानमारुह्य । सूर्यकेतुर्नजः पथः ॥
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वृत्ति
॥ २५॥
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शीलोप
॥ १०३ ॥
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॥ २० ॥ रकिंकिलिकाजाल - कलनादप्रहर्षुलः ॥ दत्तकर्णः शिशुस्तस्थौ । ध्यानस्थ इव योगवित् ॥ २१ ॥ एकदा बाल्यचापल्य- लीलया मातुलांकतः ॥ विमानकिंकिलीं कर्षन् । पालिना पतितो भुवि ॥ २२ ॥ हा दैव तादृशं दुःखं । दत्वा न खलु तृप्तवान् ॥ यत्पुत्रवदनप्रेका - सुखं न कमसे मम || २३ || हा दतास्मि दतं व्योम-यानं सह सुखाशया ॥ नूनं मे चूर्णितो बालः । शिलया दृषदाऽथवा ॥ २४ ॥ जागिनेय्यामिति प्रौच्चैः । क्रंदत्यां खेचराधिपः द्रुतं विमानादुत्प्लुत्य । तं प्रदेशमवातरत् ॥ २५ ॥ ददर्श च तदीयेन । वज्रसारेण वर्ष्मणा ॥ संचूरित शिलाचूर्ण-मध्यस्थायिनमर्द्धकं || २६ || शिरसाघ्राय सस्नेहं । यूत्कृत्य परितो भुवं ॥ कराभ्यामाददे बालं । माणिक्यमिव पंकतः ॥ २७ ॥ करपंकेरुहाभ्यां तं । मरालमिव लालयन् ॥ अर्पयामास जामेय्या । उपायनमिवार्जकं ||२८|| अक्षताऽवयवं सूनु-मालोक्य मुदिताशया !! सती प्राप्तनिधानेव । तं पस्पर्श मुहुर्मुहुः || २ ||
शिशुनाऽप्यमुना चित्रं । शिला संचूर्णिता यतः ॥ तं शिलाचूर इत्याद । तदाप्रभृति मातुलः ॥ ३० ॥ सोत्सवं खेचरो निन्ये । जागिनेयीं निजं गृहं ॥ स्वजने चिरदृष्टे हि । प्रा
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वृत्ति
॥ २०३॥
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वन
शोलोप यो हृष्टाः कुटुंबिनः ॥ ३१ ॥ असा तत्र सा दीना-ऽनाश्रेन्यो दानतत्परा ॥ दिनानि गम
यामास । सुख सर्मकर्मतिः॥३॥ कुमारः सुकुमारात्मा । मातामहगृहे वसन ॥ करा॥श्ए॥ त्करं संचचार । तारकास्विव चश्माः ॥ ३३॥ तयोरेव कथा तत्र । पुरे जनपदेऽपि च ॥ गंधो
मृगमदस्येव । प्रससार समंततः ॥ ३४॥
इतश्च वरुणं जित्वा । कुमारः पवनंजयः॥ जितकासी निजागारं। समहोत्सवमागमत् ॥ ३५ ॥ प्रणिपस्य पितुः पादौ । मातुरादाय चाशिष ॥ सुवासिन्याशिलो गृह्णन् । वाचा संलावयन् जनं ॥ ३६ । नत्सवेषूत्सवप्रायो । जायामुख दिदृकया ॥ स्ववासन्नवनं प्राप । वशास्थानमिव पिः॥णा देवालयं देवशून्य-मिव जायाविवर्जितं ॥ कुमारो गृहमालोक्य
बनूव विरहाकुलः । ज्वालामिव चित्रशाला-मलातमिव मंदिरं ॥ राज्यं पलालवत्प्राणान् । * स मन्वानस्तृणानिव ॥ ३५ ॥ हा कांते क्व गता शांते । निशांते संगता तदा ॥न न्यवे- *यत केनापि । मातुर्वत्सलतानिधेः ॥३॥ धाच्या ममाऽश्रवा गेहा-निर्गती न रक्षिता ॥ सु
विचारैरपि मंत्रि-प्रमुखैन निवारिता ॥ १ ॥ जातौ तदापदि क्षु । त्वन्मातापितरावपि ॥
एमा
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शीलोपदा मदागमनं याव-त्र तान्यामप्यमन्यत ॥ ४२ ॥ नूनं मृता श्वापदैर्वा । नदिता सा न- वृत्ति
विष्यति ॥ व रत्नं तादृशं नष्ट-मन्नाग्यैः पुनराप्यते ॥ ४३॥ हा नरूपनिस्तं३ । सर्वो॥शए गीणगुणोदधे ॥ न नवाम्यनृणो जीवन् । स्नेहतस्तव सुंदरि ॥ ४५ ॥ विलपनिति शोकाः
कुमारः पवनंजयः॥ चितामारचयामास । सद्यश्चांदनदारुन्निः ॥ ४५ ॥ कुलकं ॥ विविधैवचनैर्माता-पितृभ्यां बोधितोऽपि हि ॥ वियोगज्वरवेगानों । नाऽमुंचन्मरणाग्रहं ॥ ६ ॥
इतश्च पन्नदत्तो। मित्रमालिंग्य साग्रहं ॥ कालकेपचिकीस्तस्मा-हिनत्रयमयाचत ॥ ॥४७॥ नूनं शीलप्रनावेण । जीवंती सा नविष्यति ॥ तत्प्रतीक्षस्व येनाहं । तत्प्रवृत्तिमु
पानये ॥ ४ ॥ इति प्रतिज्ञामाधाय । विमानमधिरुह्य च ॥ चचालपन्नदत्तो शक् । व्योमH मार्गेण ताऱ्यावत् ॥ ४५ ॥ पत्ननोपवनग्राम-नगरादिषु बंत्रमन् ॥ स्त्रीबालकादिगोष्टीषु ।।
कथाः शृण्वन्ननेकशः ॥ ५० ॥ तृतीयदिवसे सूर्य-पुरस्योपवने गतः ॥ स्त्रीगोष्टयामिति शु- ए|
श्राव । सुन्नगत्वमहो शिशोः ॥ ५१ ।। शकुनानामानुकूल्य-प्रमाणेन वितर्कये ॥ अंजनाम सुंदरी बालं। सुषुवे तत्कथा श्माः ॥ ५२ ॥ चिंतयनिबमृषन-दत्तस्तनिकटस्थितः ॥ शुश्राव
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शोलोप
॥श्ए॥
तत्कथाः सर्वा । आमातुलगृहाममं ॥ ५३॥ मुदितः श्रीसूर्यकेतु-नूनः पर्षदं गतः ॥
त वति त्रासीनामंजनां च । ददर्शोत्संगितार्नकां ॥ ५५ ॥ दृष्टमात्रमुपालक्ष्य । सा नर्तुमित्रमाग-५ तं ॥ सलज्जासनमुत्सृज्य । समुत्तस्थौ ससंत्रमा ॥ ५५ ॥ ज्ञापयित्वा च वृत्तांतं । मातुलाय महासती ॥ तस्मै विस्मरचित्ताय । सा स्वागतमचीकरत् ॥ ५६ ॥
तदाहृतमनादृत्य । स्नानपानाऽशनादिकं ॥ अवादीहषन्नदत्तः । प्रमोदानोगमेधुरः । अंजनासुंदरीसत्याः । सपुत्राया विलोकनात् ॥ श्रमो मे सर्वथाऽतीतः । का क्लेशः सफलात्मनः ॥ ५ ॥ विजित्य किंतु वरुणं । कुमारः पवनंजयः ॥ सोत्सवं गृहमायातः । समय नेहमनोरथैः ॥ एए । सनाथमेतया गेह-मनालोक्य समाकुलः ॥ चितां प्रवेष्टुकामोऽपि । मयाऽधारि दिनत्रयं ।। ६० ॥ तद् डुतं प्रेष्यतामेषा । केममस्तूनयोहे ॥ चिरं तवोपकारोऽ. यं । शतशाखाः प्रवाईतां ॥ ३१ ॥ समयज्ञस्तदा सोऽपि । जामातुः सुहृदा समं ॥ जामेयीं ॥ ६॥ प्रेषयामास । सपुत्रां श्वसुरालये ॥ ६ ॥ विमाने तामधारोप्य । प्रमोदावेगसत्वरः ॥ प्र. हादनपुरोद्याने-ऽवस्थाप्य पुरतो ययौ ॥ ६३ ॥ अंजनायाः सपुत्रायाः । समागमनकौतुकैः
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वृत्त
झीलोपवईयामास भुमी । सपुत्रं समनोरथैः ॥ ६ ॥ सर्वे प्रमुदिता हर्षो-कर्षिसंवममानसाः॥
वाणीभूषनदत्तस्य । मेनिरे जीवनौषधं ॥ ६५ ॥ नवोदितं चंमिव । पवनंजयसंनवं ॥ प्र॥श्ए त्युजग्मुस्तदा दृष्टुं । नागराः सागरा श्व ॥६६॥ वाद्यमानेषु तूर्येषु । गीयमानोरुमंगलं
॥ चलचेलांचलं लोल-चेन्नइंदनमालिकं ॥ ६७ ॥ श्रीपादनन्नूमीशे । विछर्देन महीयसा ॥ aबूं प्रवेशयामास । सपुत्रां निजपत्तनं ॥ ६॥ युग्मं ॥ विशिष्य प्रीतितः श्वश्रू-रपि पर्याप्तचेतसा ॥ परीक्षितगुणोत्कर्षों । तां वधू बह्वमन्यत ॥ ६ ॥ प्रतिव्रतांजना श्लाध्य-नंदना कस्य नो मुदे ॥ सुनगा कल्पवल्लीव । संजाता फलशालिनी ॥ ॥ अंजनासुंदरी शुइ-वैराग्यैकतरंगिणी ॥ प्राचचाराईतं धर्म । स्मरती पूर्वजन्मनः ॥ १ ॥ पवनंजयसूनोश्व । शिलाचूरस्य संमदात् ॥ हनूमानिति नामास्य । चक्रे संबंधिसजनैः ॥ ७ ॥ प्रह्लादननृपः पुण्य-सामग्री प्राप्य निर्मला ॥ सौवराज्ये सुतं न्यस्य । स्वयं दीक्षामुपाददे ॥७॥प- वनंजयनूपालः । पृथिवीमेकलीलया ॥ पालयन परमां प्राप । प्रौढिं प्रौढपराक्रमः ॥ ४ ॥ जानकीव दाशस्थेः । शचीव त्रिदशेशितुः ॥ अंजनासुंदरी तस्य । पट्टराझीपदेऽनवत् ॥
ए॥
३८
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शोलोप
॥ए
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त्रिवर्गसारं साम्राज्य-सुखमक्षीणपुण्यतः ॥ अंजनासुंदरी सम्य-गन्वनूदद्भुतस्थितिः वृत्ति ॥ ६ ॥ हनुमानपि तारुण्य-पुण्यांगोपांगचारिमः ॥ औदार्यशौर्यगांनीर्य-गुणैः सममवईत ॥ ७ ॥ विंशस्य तीर्थाधिपते-मुनिसुव्रतसंझिनः ॥ तीर्थे केचिदथाचार्या । विजएस्तत्र पत्तने ॥ ७० ॥ श्रुत्वा तद्देशनां जाग-रूकसंवेगदीपिका ॥ पतिमन्यर्थयामास । दीकाहेतोः पतिव्रता ॥ ए ॥ सुबहुक्तापि सा याव-कश्रचिन्नावतिष्ठते ॥ पवनंजयनूपालः प्रेमस्थेमपरस्तदा ॥ ७० ॥ अन्नंगरणवीरस्य । राज्यं दत्वा हनूमतः ॥ स्वयं संयमसाम्राज्यं । स्वीचकार प्रियासखः॥१॥ अंजनोपपदसुंदरी सती-चित्रकृच्चरितचारुचंदनं ॥ संनिधाय हृ-: दि संतु नाविनः । शीलवाससुरजीकृताशयाः ॥ २ ॥
॥ इति श्रीरुपल्लीयगशृंगारहारश्रीसंघतिलकमूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां श्रीशीलतरंगिएयां अंजनासुंदरोमहासतीकथानकं संपूर्ण ॥ श्रीरस्तु॥ अथ श्रीनर्मदापतिव्रतोदाहरणमुदाहीयते ॥ तथाहिअस्तीह वईमानश्री-वईमानानिधं पुरं ॥ यचैत्यकेतुनिलदम्या । तय॑ते सुरपूरिव ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥ए
॥१॥ तत्र श्रीसंप्रतिपो । रूपकंदर्पदर्पहृत् ॥ यक्षिामपकीयैव। जज्ञे श्यामलितं ननः ॥२॥ अनूहषनसेनाह्वः । सार्थेशस्तस्य पत्तने ॥ नार्या वीरमती तस्य । धर्मस्यैव पराकतिः॥ ३ ॥ सहदेववीरदासौ । सनयावनयोः सुतौ ॥ कन्या च कृषिदत्ताख्या। लावण्यैक.
महोदधिः ॥ ४ ॥ नैकेषां याचमानाना-मपि मिथ्यादृशामसौ ॥ न ददौ तनयां को वा- मयस्योपनयेन्मधु ॥ ५ ॥ महर्डिकोऽन्यदा रुइ-दत्तनामा वणिकसुतः ॥ रूपचंपुरात्तत्र । । वाणिज्यार्थमुपागमत् ॥ ६ ॥ स्थितः कुबेरदत्तस्य । सुहृदो मंदिरे सकः ॥ कुर्वाणो व्यवसायं च । स्वैरमास्ते स्वगेहवत् ॥ ७॥ मत्तवारणमासीन । एष वीश्रीमुपस्थितां ॥ सख्यान्वितामकिष्ट । शषिदत्तां सुरीमिव ॥ ॥ पयोधरोन्नतिमती । राजहंसगतिप्रथां ॥ एनामेव चिरं पश्यं-स्तस्थौ द्यामिव चातकः ॥ ए॥ कुबेरदत्तान्मत्वाऽस्याः । स्वरूपमखिलं ततः॥ मिथ्यागपि तल्लोना-जिनधर्ममशिक्षत ॥ १० ॥ मायिनापि विवेकेना-ऽमुष्य श्रेष्टी हृताशयः॥ कन्यामदत्त दंनो हि । धूर्तानां कल्पपादपः ॥ ११ ॥ सविस्तरमुपायंस्त । - षिदत्तां शुन्नेऽहनि | मेने स्वं कृतकृत्यं च । कुख्येव केत्रसिंचनात् ॥१॥ अतीतैः कति
॥श्ण्णा
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शोलोप
॥ ३०० ॥
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निर्मासै-रापृय श्वसुरं ततः ॥ स्मरो रत्येव संयुक्तः । कांतया स्वपुरं गतः ॥ १३ ॥ तत्राभिनंदितः पित्रा । सदैव रुषिदत्तया ॥ रुश्दत्तोऽत्यजज्जैन-धर्म रत्नमिवार्जकः ॥ ॥ १४ ॥ षित्तापि मिथ्यात्वं । तस्य संसर्गतोऽनजत् ॥ शबेन मिलितो वायु-दौर्गध्यै किनाते || १५ || मत्वेति शुइजैनाच्यां । तत्पितृभ्यामसौ ततः ॥ पुत्रजन्म विवाहादौ । दूरापास्ता व्यधीयत ॥ १६ ॥ सा महेश्वरदत्ताख्यं । क्रमेण सुषुवे सुतं । समये यौवनं प्राप। सोऽपि सर्वकलायुतः ॥ १७ ॥ इतश्च सहदेवस्य । रुषित्ताग्रजन्मनः ॥ दयिता सुंदरी गसुस्वप्रसूचितं ॥ १८ ॥ तस्याश्च नर्मदानद्यां । संजाते स्नानदोहदे ॥ सहदेवः स्वसार्थे चा-नैषीत्तत्रैव तामतः ॥ १७ ॥ शुभेऽह्नि जायया साई - मर्चयित्या यथाविवि ॥ प्रविश्य नर्मदामध्यं । जलकेलिमसूत्रयत् ॥ २० ॥ तत्रैव सहदेवोऽपि । व्यवसायसुखे स्थितः ॥ नगरं स्थापयामास । नर्मदापुरसंज्ञकं ॥ २१ ॥ जिनमंदिरमातेने । तत्र तुंगं सुमेरुवत् ॥ सम्यक्त्वपिंपोषाय | पुण्यपिंरुमिवात्मनः ॥ २२ ॥
|
स्वस्वस्थानानि संत्यज्य । नूयांसो व्यवहारिणः ॥ तत्रागत्य स्थितिं चक्रुः । सरोजे -
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वृत्ति.
॥ ३०० ॥
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शीलोप
॥ ३०२ ॥
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मरा इव || २३ || वैडूर्यद्भूमिर्वै सूर्य-शलाकामिव सुंदरी ॥ प्रसूत समये साधु - लक्षणांत नयामय || २४ || पुत्रजन्मवदेतस्याः । कृत्वा जन्मोत्सवो पिता || नर्मदासुंदरी तस्या । नामधेयमश्रात्र्यधात् ॥ २५ ॥ पूर्वाच्यस्ता इवैषापि । प्रपद्य सकलाः कलाः ॥ चंज्ञेदयमिव प्रौढं । पूर्णिमा प्रापयौवनं ॥ २६ || नर्मदासुंदरी रूप - मथाकार्यातिशायि सा ॥ षिदत्ता स्वपुत्राय । चिंतयामास याचितुं ॥ २७ ॥ धिग्धि मां स्वजनैर्दूरी - कृतां शटितपत्रवत् ॥ जैनं धर्मं त्यजंत्या वा । बहु सोढव्यमस्ति मे ॥ २८ ॥ संभावयत्यपि च ये । न मां पर्वतिविपि ॥ कथं ते मम पुत्राय । दास्यंति तनयां निजां ॥ २७ ॥ रुदंतीति तदा पृष्टा । रुदत्तेन सावदत् ॥ स्वरूपमखिलं तच्च । पुत्रः श्रुत्वेत्यभाषत ॥ ३० ॥ प्रेष्यतां तत्र तातादमावर्ज्य स्वजनान् यथा ॥ नाह्य मातुलसुतां । मातुर्मुदमुपानये || ३१ ॥ तन्महेश्वरदत्तोSपि । प्रस्थितः पितुराज्ञया || प्रापदल्प दिनैरेव | नर्मदापुरपत्तनं ॥ ३२ ॥ मातामहादयोऽप्येनं । स्वजना जनलज्जया ॥ सच्चक्रुरुचिताचारो । वर्जितो न जिनैरपि ॥ ३३ ॥ सोऽपि तानू धैर्यगांनी य - दार्य वर्यैर्निजैर्गुणैः ॥ तोषयामासिवांश्चारु - गीतैर्व्याधो मृगानिव ॥ ३४ ॥
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वृत्ति
॥ ३०१ ॥
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शोलोप
॥ ३०२ ॥
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मातामहस्तमन्येद्यु-राख्यदुत्संगसंगिनं ॥ वत्साऽस्मञ्चित्तमावर्जि । जांगुल्याऽदिवि त्वया ॥ ३५ ॥ तत्ते मनीषितं दत्वा । किं वयं सुखमास्मदे ॥ इत्युक्तः सोऽप्ययाचिष्ट । नर्मदासुंदरीकनीं ॥ ३६ ॥ मातामहोऽप्यनाषिष्ट । वत्स युक्तमुदाहृतं ॥ कुलं कुदृष्टिसीमा ते । तेन मे शंकते मनः || ३७ || आर्षदनोऽभ्यधादास्तां । कुलं किं तस्य चर्चया ॥ किमुत्पत्तिं प यं तत् । कुर्वाणामूर्ध्नि पंकजं || ३८ || अहं तु जिनधर्म्येव । ज्ञेयः सर्वपरीक्षणैः ॥ इति प्रत्याययामास । शपथैरपि तादृशैः ॥ ३० ॥
प्रीत्या हृदाश्लिष्य | सहदेवं सगौरवं ॥ ददौ मातामहस्तस्मै । नर्मदासुंदरीं मुदा ॥ ॥ ४० ॥ सोऽप्यथैनां करे कृत्वा | चित्रवल्ली मिवांगिनीं । गतो मनोरथग्रंथि - घंटापथपथीनतां ॥ ४१ ॥ नर्मदासुंदरी तस्य । मनो मत्तमिव दिपं ॥ धर्मोपदेश सृणिनि - श्वक्रे सन्मार्ग
मुकं ॥ ४२ ॥ कियत्यपि गते काले । श्वसुरादेरनुज्ञया ॥ जार्यायुक्तो गतो गेहं । विंध्याचलमिव द्विपः || ४३ || नर्मदासुंदरी मंके । निवेश्य पदयोर्नतां ॥ रुषिदत्ता मुदं भेजे । वर्षास्विव वनस्थली || ४४ ॥ नर्मदा सुंदरी स्वर्ग - गंगेव सुकृतांजसा ॥ चक्रे विधूत मिथ्यात्व -
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वृत्ति
॥ ३०२ ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥३०३॥
जंबालं श्वसुरालयं ॥ ४५ ॥ नर्मदासुंदररी पत्यु-धर्मोत्सवतरंगिणी ॥ सर्वस्वजनसन्मान-सु- खं समयमत्यगात् ॥ ४६ ॥ गवाक्षमन्यदाहा-रुढा । पश्यंती दर्पणे मुखं ॥ आस्वादयंती तांबूल-मास्ते विभ्रमलीलया ॥ ४७ ।। तदानीं संचचारैक-स्तत्राधः साधुरध्वनि || तत्यक्तमथ तांबूलं । पपात मुनिमूनि ॥ ७ ॥ दृष्ट्वाद ज्ञानवानेष । सकोप श्व तां मुनिः ॥श्चमाशातयेद्यस्मा-त्साहि पत्या वियुज्यते ॥ ४ ॥ वातायनादयोत्तीर्य । सहसा खिनमानसा ॥ नर्मदासुंदरी साधोः । पपात चरणक्ष्ये ॥ ५० ॥ व्यजिज्ञपञ्च दग्धाहं । नि ग्यास्मि 5. रात्मिका ॥ श्रीजिनोपासिकाऽपीच-मकार्षमविनीततां ॥ ५१ ॥ ___तश्विवत्सलाः पुण्य-कारुण्यरससिंधवः ॥ महात्मानो नवंतीति । कम्यतां तन्ममापदः ॥ ७२ ॥ शत्रुभ्योऽपि न कुप्यति । न मुह्यंति स्वकेष्वपि ॥ न शपंति स्वनाशेऽपि । मुनयः समदृष्टयः ॥५३॥ तस्माददुष्टनावायां । मयि शापो निवर्त्यतां । सौरन्यमुनवेद्यस्मा- विद्यमानेऽपि चंदने ॥ ५५ ॥ मुनिराह शृणु आहे। वत्से मा खिद्यतां वृथा॥ न क्वापि मुनयो जैनाः। कुर्वते शापनिग्रहौ ॥५५॥ स्वरूपमात्रमेवेदं । मयाऽकस्मादुदीरितं ।। किं को
॥३०३ ।।
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वृत्ति
झालोपपि कष्टमाधने। निवः कटुरितीरिते॥५॥ वियोगा प्रेयसा साई ।नावी ते कर्मदोषतः॥ स्वा-
Kर्जितं कर्म भुंजानः। को विज्ञो दुर्मनायते ॥ ५७ ॥ प्रबोध्येति गतः साधुः । स्वमार्गे प्रण॥३०॥ तोऽनया ॥ रुदती स्थापिताशाश्वास्य । पत्या गृहमिमाय च ॥ ५० ॥ निराबाधं वितन्वाना।
जिनधर्ममनारतं ॥ सुखं निर्गमयामास । कालं किंचिन्महासती ॥ एए ॥ अन्येयुरार्षदनो. ऽपि । व्यवसायचिकीर्षया ॥ प्रतस्थे यवनदीपं । तद्देशोचितन्नांडयुक् ॥६॥ पत्या सा स्थाप्यमानापि । गृहे गाढ़े कदाग्रहात् ॥ चचाल सह पलाश-पत्रश्रेणीव वात्यया ॥३१॥ यावत्पोतमथारुह्य । याति मध्यं पयोनिधेः ॥ गीतं केनापि दूरेण । गीयमानं तदाऽाणोत् ॥२॥ नर्मदासुंदरी ताव-स्वरलकणदक्षिणा ॥ निशीथे तं निशम्याह । पतिमावर्जतः स. तः ॥ ६॥ स्वामिन् योऽस्त्येष गीतानि । गायन्मधुरया गिरा । श्यामांगः स्थूलपाण्यंहि-के. शो ज्ञेयः स सत्त्ववान् ॥ ६॥ गुह्येऽस्य मशकः श्रोणौ । दक्षिणे लांउनं तथा ।। ज्ञात्रिंशर्षद शीयः। पृथुवकाः स विद्यते ॥ ५ ॥
आर्षदत्तोऽप्यन दध्यौ । नूनमेषा मदंगना ॥ स्निग्धास्ति साईमेतेन । कौशिकेनेव मे
॥३०॥
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वनि
शीलोपनिका ॥ ६६ ॥ अन्यथा कथमेतस्य । वेत्त्यसौ देहलक्षणं ॥ पीयूषवर्षकं रूपं । शशांकस्येव
पद्मिनी ॥ ६७ ॥ आज्ञाशिषमियत्काल-महमेनां महासती ॥ सांप्रतं तु कुलदैत-कालके. ॥३॥ तुमवैम्यहो ॥६॥ को वा प्रत्येति योषासु । शाकिनीष्विव बुद्धिमान् ॥ पुत्रादिकमपि स्वा
थें । तृणवणयंति याः ॥ ६ए ॥ निष्टयूतमिव पाश्रोधौ । पातयाम्यधुनैव किं ॥इमां वा ख
मेना-शानिनि कदलीमिव ॥ ७० ॥ यावदिउमदुष्टायां । तस्यां किंचिहिचेष्टते ॥ तावनिर्यामकः कूप-स्थितः प्रोचैरवोचत ॥ १ ॥ पोतं स्थापयत क्षिप्रं । वस्त्रं पातयत त्वधः॥ नावर्गला आददीध्वं । रदोहीपोऽयमाययौ ॥ २ ॥ जलेंधनादिसामग्री । संगृह्णीध्वं जवादितः ॥ श्रुत्वेति तनथा सर्व । विदधुः पोतवाहकाः ॥ ७३ ।। हीपे तत्रार्षदत्तोऽपि । मायया गूढमत्सरः ॥ नर्मदासुंदरी रंतु-मनयत्कानने क्वचित् ॥ ४ ॥र्नेन सह सा मुग्धा । ब्रा
मं ब्रामं वनानं ॥ सरस्ती रेऽस्वपत्क्वापि । वानीरगहने श्रमात् ॥ ५ ॥ पूर्वोपार्जितदु:- भ कर्म-दृत्येव समुपेतया ।। मुश्तेि लोचने तस्या-स्तदानीं निश्या रयात् ॥ ७६ ॥ खजादि
निहता स्वीय-मपराधं न नोत्स्यते ॥ स्मारं स्मारं स्वापराध-मिचं तु म्रियतामिति ॥७॥
॥३५॥
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शोलोप
॥३६६
मुक्त्वा तां भुजगभ्रांत्या । पुष्पमालामिवांधलः ॥चंचया शालिकेदारा-नांतः शुक श्वाऽनशत्
रवृत्ति ॥७॥ स पलाय्यागतः पोतं । पृष्टः सांयात्रिकैर्जगौ ॥ नक्षिता दयिता हंत । रक्षसा कानने मम || ए ॥ प्रणष्टोऽहं तु तुं त-मायांतं वीक्ष्य सत्वरं ॥ तस्मात्पोतोऽतिवेगेन । नवनिरपि पूर्यतां ॥ ॥जीतास्तेऽपि तथा चक्रुः । कस्य चात्मा न वजन्नः॥ सोऽपि पोतमथाहारोह-दनिनिव मायया ॥१॥ दध्यौ च विदधे साधु । मयाद्य धिषणावता ॥ त. त्यजे स्वैरिणी लोका-ऽपवादोऽपि च रक्षितः ॥ २॥ न वेति किंतु मूढात्मा। यददं विधिना हतः ॥ सार्थिकास्तं वियोगार्ज-मिव पत्न्या व्यबोधयन् ॥७३॥ क्रमेण यवनदीपं । प्रा. तो लानयुतस्ततः ॥ प्राप्तः स्वनगरं पित्रो-स्तथैवाख्यत् प्रियां इतां ॥ ४ ॥ स्नुषायाः प्रेम
तकार्याणि । कृत्वा तावपि खितौ ॥ सुतेनान्यां पर्यणायि-पातां कन्यामिमौ ततः ॥५॥ न तश्च नर्मदा शर्म-दात्री पंचनमस्कृति ॥ स्मरंती यावत्तस्थौ। तावन्नो वीदते पतिं ॥ ॥३६॥ नर्मदा नर्म मन्वाना । पत्युः सस्मितमाख्यत ॥ एह्येहि नाथ नेदं । हास्यं सोढुमहं कमा ॥ ७॥शंकिता चेतसैवाय । स्वयमुबाय सत्वरं । गतं रत्नमिवैदिष्ट । तीरे तीरे त
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शीलोप
11309 11
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रौ तरौ ॥ ८८ ॥ दृष्ट्वा क्वापि बाष्पोष्म - शुष्ककंठा रुरोद सा ॥ स्थितैः कारुण्यतः पार्श्वे । वीक्ष्यमाणा मृगन्रजैः ॥ ८५ ॥
श्राकर्ण्य दूरतश्चासौ । स्वप्रलापप्रतिध्वनिं । अन्वधावत शोकार्त्ता । मृगीव मृगतृष्णिकां ॥ ७० ॥ न तघ्नं न ते वृक्षा । न तजुल्मं न सा गुदा ॥ यत्र सा न हि बज्राम । सतारं न रुरोद वा ॥ ९१ ॥ तोकादिव तिग्मांशौ । दीपांतरमुपेयुषि ॥ सुखीकर्तुमिव सतीं । प्रैषीत्सुधाकरं || २ || पतिदुःखेन तेनाऽप्य - ग्निकुंडेनेव तापिता ॥ निशाचरादिवैतस्मा-नीताऽविशलतागृहं ॥ ७३ ॥ संवत्सरशतमयी - मय रात्रिमतीत्य सा ॥ रुरोद रोदसीपूरं । पत्युः स्मृत्वा गुणान् प्रगे ॥ ए४ ॥ हा नाथ दीनामेकांत-प्रेमस्थेमसुधामयीं ॥ सुप्तां क्व नु गतो मुक्त्वा | चंदः कुमुदिनीमिव ॥ ५ ॥ इहं रुदती पथिकान् । रोदयंती च सा सती ॥ पत्युर्वा मार्गयंती | पंचाही मत्यवादयत् ॥ ए६ ॥ विलंबितमनूद्यत्र । यानं तीरे प॥ षष्टे दिने गतां तत्र । स्थानं शून्यमवैत || ७ || ततो निराशा संपन्न - विवेकातन्मुनेर्वचः ॥ अनुल्लंध्यमनुस्मृत्य । शोकं स्तोकं चकार सा ॥ ए८ ॥ पूर्वार्जितं निजं कर्म ।
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वृत्ति
॥ ३०७ ॥
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शोलोप भुज्यतां मा विषीद रे ॥ आत्मानमात्मनैवेवं । प्रतिबोध्य महासती ॥ एए॥ स्नात्वा सरोवृत्ति
वरे देवान् । वंदित्वा च वनांतरे ॥ फलाहारं विदधाना । तापसीव बनूव सा ॥ १० ॥ नि॥३॥ र्माय मृन्मयं क्वापि । गह्वरे बिंबमाईतं ॥ नैश्चन्याय दृशोरगे । स्थापयामास सा सती ॥
म॥१॥ अन्यर्च्य फलपुष्पायै-र्नीवारैश्च जिनं सती ॥ दीपानदीपयनैलै-रिंगुद्यास्तत्पुरः सु. या धीः॥२॥ तदने प्रातरुताय । स्वाध्यायस्तवनादिन्तिः॥एकाग्रचित्ता तत्रापि । कृतार्थानकरो.
दिनान् ॥ ३॥ अन्यदा व्रतमादातुं । सजतेः साधनेवया ॥ श्येष जरते गंतुं । राजहंसवीव मानसं ॥४॥
इतश्च वीरदासाख्यः । पितृव्योऽस्या विवेकधीः ॥ व्रजन बर्बरकूलं स । तं प्रदेशमुपा. गमत् ॥ ५ ॥ दशैं दर्श स्वपादातै-वृतस्तस्याः पदावलीं ॥ नपशैलं गतस्तत्र । शुश्राव श्री. जिनस्तुति ॥ ६ ॥ अथ ध्वनेरनिशाना-नर्मदामिति नावयन् ॥ गुहां प्रविष्टः साश्चर्य-म- ॥३॥ पश्यत्नां गुत्सवां ॥ ७॥ पितृव्यं साऽप्युपालय । कंठमासज्य चाऽरुदत् ॥ शोकानंदाश्रुसंबन्नः। सोऽपि स्नेहादजायत ॥ ॥ कमेकाकिनी वत्से । कुतश्चात्र तवागमः ॥ पृष्टा
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वृत्ति
शालोपतेन स्ववृत्तांत--मसौ सर्व न्यवेदयत् ॥ ए ॥ निंदन दैवमथादाय । नर्मदासुंदरीमसौ ॥ सं-
प्राप्य बबरं कुलं । बदिः सार्थमवासयत् ॥ १० ॥ महासती निवेश्याथ । प्रत्यग्रे वस्त्रमंझपे ॥३॥ उपायनमुपादाय । स्वयं राजसत्तां ययौ ॥ ११ ॥ अईशुक्लादिनिर्मुक्त्या । नरेणापि सत्कृतः
॥ चक्रे क्रयाणकादीनां । देयादेयव्यवस्थिति ॥ १२॥ इतोऽस्ति हरिणीनाम-गणिका तत्र विश्रुता ॥ प्रसादपात्रं नूपस्य । सत्रं सौन्नाग्यसंपदः ॥ १३ ॥ आदत्ते सापि दीनारा-नष्टोनरसहस्रकं ॥ सांयात्रिकेच्यस्तोति । व्यवस्था नूभुजा कृता ॥ १४ ॥ वीरदासमथाह्वातुमेषा प्रेषीत्स्वचेटिकां ॥ स्वदारतुष्टा वयमि-त्येषोऽप्येनां निराकरोत् ॥ १५ ॥ अथोक्तायां स्थिती सैप-धनं तस्यै तदार्पयत् ।। दरिण्यै सापि तत्सर्वं । गत्वा दत्तवती मुदा ॥ १६॥ ग
काह किमेनिमें । धनैस्तं त्वमिहानय ॥ इत्यमुं पुनराहूय । सा तत्पार्श्वमनीनयत् ॥१॥ चव्यथाह श्रुतौ वेश्यां । याऽस्य गेहेऽस्ति काचन ॥ नार्या स्वसा वा पुत्री वा । रूपाऽपा- स्तसुरांगना ॥ १७ ॥ यदि सा हरिणाक्षी स्या-तवादेशवशंवदा ॥ तदाऽवतीणों जानीहि । - स्वगृहे कल्पवल्लरीं ॥ १५ ॥ प्रत्युत्पन्नमतिः सापि । हरिणी कपटादश्र । प्रतिद्वंदाय जग्रा
॥३०॥
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शोलोप०
ति
॥१०
। वीरदासस्य मुश्किां ॥ २०॥
कणे किंचिदयादिश्य । तां दत्वा प्रेषिता ततः ॥ चेटी कूटपटुत्वा। नर्मदामिदमनवीत् ॥ १ ॥ गृहेऽस्माकं स्थितः श्रेष्टी । त्वामाह्वयति शोन्नने ॥ मुश्केियमनिशाने । द्रुतमागम्यतां ततः ॥ २२ ॥ नामांकामूमिकां वीर-दासस्यालोक्य नर्मदा ॥ साई तयैव नि. श्वना । गणिकाया गृहेऽगमत् ॥ २३ ॥ तां प्रवेश्येतरक्षारा । जुतं नूमिगृहेऽविपत् ॥ कृतकृत्योर्मिकां चैषा । श्रेष्टिनः पुनरार्पयत् ॥२५॥ अखंमितव्रतः सोऽपि । ततः स्वगृहमागमत् ॥अप्रेक्ष्य नर्मदां तत्र । क्षुब्धः पप्रच सेवकान् ॥ २५ ॥न लेने तत्प्रवृत्तिं स । क्वाप्युपायैः कृतैरपि ॥ सुगुप्तधूर्तकृत्यस्य । कोऽपि पारं किमु व्रजेत् ॥ २६ ॥ योऽपजहे सतीमेतां । निसयां मायया ध्रुवं ॥ स कथं विद्यमानेऽत्र । मयि प्रकटयिष्यति ॥१७॥ चिंतयित्वेति नांडानि | गृहीत्वा स्वपुरंप्रति ॥ प्रतस्थे नृपमापृव्य । पोतान संपूर्य वस्तुतिः ॥ ७॥ नृगुक- बमथागत्य । वीरदासो विशुधीः॥ जिनदासान्निधं मित्र-मुपायज्ञमुपासकं ॥ २५॥ न. क्वा स्वरूपं निम्शेषं । प्रेषयामास सत्वरं ॥ सोऽपि बर्बरकूलेऽगात् । सामग्या नर्मदाकृते ॥
॥३१
॥
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वात
शीलोप० ॥ ३० ॥ युग्मं ॥
इतश्च गणिका वीर-दासे प्रचलिते ततः ॥ नर्मदासुंदरीमाह । हिरण्याथै हताशया॥ ॥११॥ ॥ ३१ ॥ न वेश्यात्वमादृत्य । स्वजन्म सफलीकुरु ॥ नर्वशीव महेश्स्य । मान्या नव
महीभुजः ॥ ३५ ॥ दस्तौ तशाक्यदग्धेव । धुनाना नर्मदाऽवदत् ॥ जीवत्याः शीलमाणिक्यं । कोऽयं मे दर्जुमिच्छति ॥ ३३ ॥ वेश्याह सफलं जन्मा-ऽस्माकमेव महीतले ॥ इहस्था अपियाः स्वैरं । लोगान मुंजीमहे वयं ॥ ३४ ॥ नर्मदाह सुखैरेन्निः । कः स्वं वंचयते शिवा
तु ॥ कुर्वति बालका एव । माणिक्यैश्चरणकयं ॥३५॥ इति तच्चसा कोप-मापना हरिणी - रयात् ॥ तमाजघ्ने वांछिताप्त्यै । जडश्चिंतामणिमिव ॥ ३६ ॥ ताड्यमाना च साऽस्मार्षी
चिने पंचनमस्कृति॥ अकस्मात्तत्प्रनावाच्च । वेश्या प्राणैरमुच्यत ॥३॥ अथ मंत्री नृपादेशाया श्यामृत्योरनंतरं ॥ तत्पदे स्थापनायालं । प्रार्थयामास नर्मदां ॥ ३० ॥ प्रभुत्वे स्वेचया झा-
त्वा । निर्गमोपायमात्मनः॥ सती तवचनं मेने । स्त्रीत्वं हरिरिवात्मनः॥ ३॥ अथ मंत्रिमुखात् श्रुत्वा । तत्सौंदर्य नरेश्वरः॥ एनामानेतुमुत्सुक्तः । प्रजिघाय सुखासनं ॥ ४० ॥
३११ ॥
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शोलोप
॥३१॥
नृपनृत्या महानूत्या । समारोप्य सुखासने ॥ पुरमध्ये घृतबत्रां । यावत्तूर्ण नयंति तां ॥ वृत्ति ॥१॥ तावता शीलरदायै । ज्ञात्वा वैकल्यमौषधं ॥ विशाले नगरखाले । दृषत्पातमिवा-५
पतत् ॥ ४२ ॥ यदकईमलेपोऽय-मपूर्व इति वादिनी ॥ लौदेन कवचेनेव । पंकेनालिप्यः विग्रहं ॥४३॥ समदं सर्वलोकानां । विषयप्रतिवादिनी ॥ सा पत्राणीव वस्त्राणि । पाटयामास विग्रहात् ॥ ४ ॥ सा मंत्रवादिनीवाथ । शीलजीवविनाशिनां ॥ वित्रासाय भुजंगानां संमुखं रेणुमतिपत् ॥ ४५ ॥ दुर्वार्थमंत्रणेवैषा । गृहीता नीषणाकृतिः ॥ स्वशौर्यवर्णनापू-मातेने नृत्यमद्भुतं ॥ ६ ॥ तत्स्वरूपमथाकZ । नूभुजा प्रहितानिजान ॥ मांत्रिकांस्ताडयामास । साऽश्मनिनषणानिव ॥ ७ ॥ दूरे त्यक्ताथ सा वृष्टि-रिव तैः करकाश्मनां ॥ बत्राम पुरि वात्येव । बालैः पौरिवाऽावृता ॥ ७ ॥
अन्यदा जिनदासेन । गायंती जिनरासकान् ॥ ददृशे शिशुन्निर्युक्ता । सा पटचरचीव- ॥३१॥ रा॥ ए॥ सोऽपि तस्याः पुरोनूय । करुणाझेऽन्यधत्त तां ॥ का त्वं नो व्यंतराधीशे । जिननक्तोऽस्मि शंस मे ॥ ५० ॥ साऽप्यूचे यदि जैनोऽसि । पृष्टव्याहं तदा रहः ॥ सांप्रतं
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झीलोप
वृत्ति
I
तनवइंग-वैरस्यं मा कृथा वृथा ।। ५१ ॥ परेयुर्वैर मुत्रास्य । बालान वात्येव पल्लवान् ॥ दे- वानवंदत स्वैरं । वनमाश्रित्य किंचन ॥५॥ तत्पृष्टे जिनदासोऽपि । गतस्तत्रानिवंद्य तां ॥ योजितांजलिरप्रादी-त्का त्वं धर्मैकमानसा ।। ५३ ॥ सापि तं श्रावकं मत्वा । सर्व खोदंतमाख्यत । तत् श्रुत्वा सोऽप्यनाणीनां । साधु सावि त्वमीक्षिता ॥ ५४॥ यतस्त्वदर्थमेवाहं । वत्सेऽत्र समुपागमं ॥ प्रेषितो वीरदासेन | सुहृदा नृगुकलतः ॥ ५५ ॥ तस्मान्मा खिद्यथाः सर्वं । साधु संघटयिष्यते ॥ समये सुप्रयुक्तायाः । किमसाध्यं यतो मतेः ॥ ५६ ॥ परमद्य करिण्येव । त्वया सर्वान्निसारतः ॥ त्या घटनांडादि । प्रसर्तव्यं नृपाध्वनि ॥ ॥ ५७ ॥ संकेत्येति पुरस्तस्थौ । गता सापि तथाऽकरोत् ॥ नृपः सकृपमादस्म । जिनदासमिहांतरे ॥ ७ ॥ अहिलीनूतया नूत-रूपया हा स्त्रियाऽनया ॥ नद्यानमिव वानर्या । पुरमेतउपजुतं ॥ ५ ॥ तस्मादस्माकमेताव-उपरोधादनर्थदां ॥ विपैनां जलधेः पारे । चित्रि- गीमिव दूरतः ॥ ६ ॥
नृपादेशान्मुदापनो । जिनदासोऽश्र नर्मदा ॥ नियंत्र्य निगमैनिन्ये । साई दिव्यौषधी
॥३१॥
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वृत्ति
शालोप०मिव ॥ २१॥ प्राप्यैनामथ 5मापा । पंकाचिंतामणीमिव ॥ स्नापयित्वा दुकूलानि । सान
दं पर्यधापयत् ॥ १२ ॥ महार्थमिव लांडं तां । पोतमारोप्य सत्वरं ॥ नर्मदापुरमानिन्ये । ॥१४॥ जिनदासः सुहृत्प्रियः ॥ १३॥ तामायांतीमथ ज्ञात्वो-पाजग्मुर्जनकादयः॥ नत्वा कंठमथा
लंब्य । सापि तारं रुरोद च ॥ ६ ॥ हृष्टा रुपनसेनाद्या । जीवंतीमाप्य तां ततः ॥ पुनर्ज
न्मोत्सवं चक्रु-मंगलाचारपूर्वकं ॥ ६५ ॥ तथा जैनविदारेषु । महापूजापुरस्सरं ॥ साधर्मि| कादिवात्सल्य-धर्मकर्माणि तेनिरे ॥ ६६ ॥ सगौरवं जिनदासो-ऽप्युषित्वा कतिचिदिनान ॥
वीरदासमथापृल्य । जगाम नृगुपत्ननं ॥ ६ ॥ इतश्चार्यसुहस्त्याख्य-सूरयो दशपूर्विणः॥ विहरंतः समाजग्मु-रन्यदा नर्मदापुरं ॥ ६॥ नर्मदासुंदरीमातृ-पितृव्यपितृसंयुता ॥ ज. गाम वंदितुं सूरीन् । दूरीकृतनवानथ ॥ ६॥ ॥ धर्मलान्नाशिर्ष दत्वा । गुरुर्धर्ममुपादिशत् ॥ देशनांते वीरदासो । गुरुं नत्वा व्यजिज्ञपत् ॥ ७० ॥ नर्मदासुंदरी कर्म । किं चक्रे पूर्वजन्म- नि ॥ निर्दोषापि प्रनो येन | जातातौ दुःखन्नाजनं ॥ १ ॥ अथ श्रुतोपयोगेन । ज्ञात्वा गुगुरुरनाषत ॥ अस्ति नूमानदंग । इव विध्यशिलोच्चयः ॥ ७ ॥ तनिर्गता तटिन्येषा । न.
॥१०॥
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झीलोपर्मदा दोमवनुवः ॥ मिथ्याहग्नर्मदानामा-धिष्टाश्यस्याः सुरी पुनः ॥ ३ ॥ प्रतिमां तस्थु- वृत्ति
Yषोऽन्येद्यु-स्तीरे धर्मरुचेर्मुनेः ।। नपसर्गानसौ चक्रे । जातक्षा महात्मनः ॥ ४ ॥ एषा॥१५॥ पि मुनिनैश्चल्या-त्सम्यग्दृष्टिरजायत ॥ सेयं व्युत्वा नवत्पुत्री। नर्मदासुंदरीत्यनूत् ॥७॥
पूर्वान्यासादियं रेवा-स्नानदोहदाता | साधूपसर्गकर्मो-दयतोऽजनि पुखिनी ॥७॥ नर्मदोपाददे दीक्षां । जातजातिस्मृतिस्ततः ॥ तपस्यंती सती प्राप-दवधिज्ञानमुज्ज्वलं ॥ ॥ ७ ॥ प्रवर्तिनीपदं प्राप्य । रूपचंपुरं गता ॥ कालाऽत्ययात्तपःकष्ट-कार्याचाऽनुपलकिता॥ ७० ॥ नर्मदासुंदरी साध्वी । व्रतिनीवृंदमंडिता ॥ ऋषिदत्तावितीर्णस्वो-पाश्रये तस्थुषी चिरं ॥७ ॥
तत्रादिदेश सा धर्म । कर्ममर्माविधं सुधीः ॥ तं महेश्वरदत्तोऽपि । इषिदत्तायुतोऽगृ.) | णोत् ॥ ७० ॥ महेश्वरस्य संवेगा-वेगसंजननौषधं । अन्यदा नर्मदाऽपाठी-दखिलं स्वरल- ॥१५॥ क्षणं ॥ १॥ श्रुत्वा महेश्वरोऽप्येत-त्पश्चात्तापपरोऽवदत् ॥ स्वरलक्षणमन्यूनं । सापि नूनमतोऽबुधत् ॥ ७ ॥ धिग्मामधर्ममधन-मविवेककलंकितं ॥ कांता कांता सती येना-मुच्य
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शोलोप
।। ३२६ ॥
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तैकाकिनी वने ||३|| तस्माद्दैवहतो दंत । दुष्योऽहं सत्वशालिनां ॥ मत्तो हि नापरः कोऽपि | पापी तापीव विष्टपे ॥ ८४ ॥ इत्याद्यनुशयानं तं । कृपयाह प्रवर्तिनी ॥ सैवादं नर्मदा जइ । त्वत्पुरस्तद्विषीदमा ॥ ८५ ॥ सर्वोऽपि चेष्टते प्राणी । प्रेरितः पूर्वकर्मनिः ॥ न कोऽपिकस्यचिद्दोष-पोषो वा प्रेमनिर्मितिः ॥ ८६ ॥ सोऽपि तां कमयित्वाथ | स्फुरद्वैराग्यन्नासुरः ॥ गुरोरार्य सुदत्याख्या-दादत्त व्रतमुत्तमं ॥८७॥ रुषित्तापि संविग्ना । चारित्रं प्रत्यपद्यत ॥ - जावपि तपस्तप्त्वा 1 प्रापतुः स्वर्गसंपदं ॥ ८८ ॥ नर्मदाऽप्यवधिज्ञाना- दायुःपर्यंतमात्मनः ॥ ज्ञात्वा संलेखनापूर्वं । प्रपेदेऽनशनं सुधीः || ८ || नृत्पद्य देवेषु ततो विदेहे । भुक्त्वा नरें श्रियमाप्य दीक्षां ॥ जित्वाऽष्ट कर्माणि च नर्मदा सा । प्राप्ता शिवं निर्मलशीलयोगात् || ॥ इति श्रीरुपवीयगच्छे श्रीसंघ तिलकसूरिपट्टावतंसश्री सोम तिलकसूरिविरचितायां श्री शीलतरंगिण्यां नर्मदासुंदरीकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ॥
अथ रतिसुंदरीकथा प्रारभ्यते
पुरं साकेत मित्यस्ति । संकेतमिव संपदां ॥ यत्रेभ्यस्त्रीमुखेदूनां । निर्माल्यं मृगलांबनः
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वृत्ति
।। ३१६ ॥
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वृति
डीलोप १॥ केसरीवाऽरिनागानां । राजास्ति नरकेसरी ॥ यत्खनहतवैरोन-मौक्तिकानीव तार•
K काः ॥२॥ देवीव नूगता तस्य । देवी कमलसुंदरी ॥ कल्याणगोत्रराजश्री-विलासैकधृ- ॥१७॥ तादरा ॥ ३॥ तयोः पुत्री पवित्रात्मा । नाम्नास्ति रतिसुंदरी ॥ धात्रा स्वसृष्टिसौंदर्य-श्री
रिवैकत्र पिंमिता ॥ ४ ॥ तारान्निश्चंश्लेखेव । सखीनिः परिवारिता ॥ नाना गुणश्रीमन्येयुः या। सा ववंदे प्रवर्तिनीं ॥ ५ ॥ गणिन्यपि तदा तस्याः। सुधामधुरया गिरा ॥ धर्मोपदेशमा
चष्ट । दारयष्टिमिवोज्ज्वलं ॥ ६ ॥ मेरु रोर श्व प्राप्य । दुर्लन्नं मानुषं जनुः ॥ ग्राह्य धर्मफलं रत्न-मिव बुद्धिमता ततः ॥ ७॥ रत्नपूर्णे निधौ प्राप्त । श्व बालो वराटिकां ॥ मूढो मोक्षफले नोगा-नीहते मर्त्यजन्मनि ॥ ७॥ तस्मागृहाण सम्यक्त्वं । प्रतिपद्यस्व संयमं ॥ निर्मलं च तपस्तप्त्वा । नवपर्यंतमाप्नुहि ॥ ॥ तपःकशानुना तप्तः । शीलोज्ज्वलजलोतिः ॥ जीवः कर्ममलं मुंच-त्यनिशौचमिवांबरं ॥ १० ॥ शरीरं विशरारुश्रि फलं तस्य तपःक्रिया ॥ यावजीवं राजपुत्रि । जिनधर्मे यतस्व तत् ॥ ११॥ इति प्रवर्तिनीवक्त्र-मृ. गांकाचनामृतं ॥ निपीय सोल्लमद्ज्ञान-दृष्टिर्मधुरमाख्यत ॥ १२॥ साधु साध्वि त्वयादि
॥३१॥
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शोलोप
॥ ३२८ ॥
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ष्ट-मनवद्यमिदं मम ॥ परं नित्यप्रमत्तत्वान्नाहं व्रतविधौ कमा ॥ १३ ॥ तङ्गृहस्थोचितं धमैं | नवपाताऽवलंबनं || प्रसद्य देहि मे जार-मिव दम्यस्य युक्तितः ॥ १४ ॥ सम्यक्त्वरत्नतस्यास्ततो दष्वा प्रवर्त्तिनी ॥ नवाच वत्से शीलं हि । परो धर्मों मृगीदृशां ॥ १५ ॥ स्वयं निवृत्यते पापात्परश्चापि निवर्त्तते ॥ इति शीलवतं पाल्य - मन्यपुंवर्जनात्मकं ॥ १६ ॥
इत एवार्कचंतं । कीर्त्तिर्नृत्यति नूतले । इत एव च कल्याण-स्थानं मुक्तिरवाप्यते ॥ १७ ॥ कुलांगनानामत्रैव [ जवे सर्वमनोरथाः ॥ एतत्प्रजावाज्जायते । मेघादिव लतां कुराः ॥ १८ ॥ परलोके च संसारे । दुःख दौर्गत्यनूनृतां ॥ चिरं वज्रायुधीभूय । पारंपर्येण मुक्तिदं || १७ || श्रुत्वेत्य मंदानंदेन । प्रोल्लसत्पुलकोदया || नियमं प्रतिपेदे तं । सादरं रतिसुंदरी ॥ २० ॥ इतश्च नंदनानिख्ये । नगरे चंनूभुजा || स्वकार्ये प्रहितो दूतः श्रीसाकेतात्समागमत् ॥ २१ ॥ देशस्वरूपकथना -ऽवसरे दूततो नृपः ॥ शुश्राव रतिसुंदर्या । रूपातिशयसंपदं ।। २२ ।। ततोऽनुरागसंजार - निस्तं श्वंभूपतिः ॥ तदर्थं मंत्रिणं मैत्री - नरकेसरिभूपतेः || २३ || ततो योग्यानिसंबंधं । मत्वा साकेतनायकः ॥ रोहिणीमित्र चंशय । दक्ष
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वृत्ति
॥ ३१८ ॥
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हीलोपश्चंशय तां ददौ ॥ २४ ॥ शुन्नेऽह्नि प्रेषिता राज्ञा । महा नंदने पुरे । लक्ष्मीरिव मुकुंदा
य । तस्मै जाता स्वयंवरा ॥ २५ ॥ सुमुहूर्ने तयोर्वृत्ते । धन्ये वीवाहमंगले ॥ जातो वप॥ नोत्साहः। श्रीमनंदनपत्तने ॥ २६ ॥ देवी वा खेचरी वाथ । किंवा पातालकन्यका ॥ सौंदर
भय रतिसुंदर्या । दृष्ट्वेति जगउर्जनाः ॥ ७॥ ज्योत्स्नयेव तया चंः । प्रिययालंकृतो नृपः॥ या सर्वोपरिस्थितिं लेने । कत्रनक्षत्रनायकः ॥ २॥
महेंसिंहनूपालो-ऽन्यदा कुरुपतिर्बली !! चंई दूतमुखेनाह । मृगारिर्वा मृगाधिपं ॥ ॥ २९ ॥ देव त्वया सहास्माकं । पूर्वपूर्वक्रमागता ॥ पद्मानामिव सूर्येण । प्रीतिरासीदियचिरं ॥ ३० ॥ कुलोद्योतकराः पुत्रा-स्त एव महिमास्पदं ॥ संबंध पूर्वजाचीर्ण । ये न लुपति सात्त्विकाः ॥ ३१ ॥ सौजन्यपांचजन्यं त-दखंडं बिनता त्वया ॥ निजं प्रयोजनं मत्तः ।) सर्व साध्यमसंशयं ॥ ३ ॥ किंचान्यत्प्रीतिवृद्ध्याय । नवोढा रतिसुंदरी ॥ अस्मन्यं प्रानृते ॥१॥ प्रेष्या । सत्कुर्मों येन तां वयं ॥ ३३ ॥ प्रीतिर्येन समं तस्य । गौरवाय प्रियापि हि॥नमान्याऽरुंधती कस्य । वसिष्टेनाहता ततः ॥ ३४ ॥ श्रुत्वा दूतवचश्च । ईषत् स्मित्वा समाल
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शोलोप पत्॥ सुजनाः कस्य नानीटा । ज्योत्स्नेवामृतदीधितेः ॥३५॥ परोपकारो मैत्री च । दाक्षिण्यं ।। वृत्ति
Jaप्रियत्नाषणं । सौशील्यं विनयस्त्यागः । सज्जनानां गुणा अमी ॥ २६ ॥ तहत तव नूपेन। ॥३॥ साधूदितमिदं मम ॥ न हि लुपंति मर्यादां । कुख्याः कुख्यापतिर्यथा ॥३७॥अस्मानिरपि व
क्तव्य-मुचितं ज्ञापयिष्यते ।। जीवितस्येव देव्यास्तु । याञ्चा न प्रीतिलक्षणं ॥ ३० ॥ दूतः । प्राहाऽन्यथाकर्तुं । न युक्तं तच्चस्तव ॥ न हि माईवसाध्येऽर्थे । कगेरत्वं विवेकिता ॥३॥ मर्यादां लुपमानो हि । ध्रियते केन वारिधिः॥ विधातुं सेतुबंधं वा । क्षुब्धे तस्मिनलं हिकः ॥४०॥ तथा सोऽपि रणकोणी-नीषणः केन सह्यते ॥ अतः साम प्रयोक्तव्यं । तस्मिन् स्वहितहेतवे ॥४१॥ अथ रोषारुणश्चंदः प्राह रे दूत साध्वसौ ॥ कुलीनोऽन्यकलत्राणि । याचमानो नृपस्तव ॥ ॥ प्रहिणोति निजां नार्या । कोऽपि किं परमंदिरे । गृह्यते केन रत्नंग हि । जीवतः पन्नगेशितुः ॥ ४३ ।। दूतः पुनरत्नाषिष्ट । नूप तत्ववचः शृणु ॥ रक्ष्यो यथा- ॥३२॥ तथात्मैव । राजनीतिमिति स्मर ॥ ४ ॥ नृत्यैर्धनानि तान्यां तु । रक्षणीया हि वल्लन्ना ॥ दासयकलत्रैस्तु । रक्षणीयं स्वजीवितं ॥ ४५ ॥ इत्यादि निगदन दूतो । नृपनृत्येन पर्षदः
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शीलोप
॥ ३२२ ॥
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॥ दत्वाईचं विक्षिप्तः । कृपणेनेव निक्षुकः ॥ ४६ ॥ गत्वा तथैव दूतेन । प्रोक्ते मर्यादयोनितः ॥ महेंसिंहः प्राचाली - समुइ इव सैन्ययुक् ॥ ४७ ॥ श्रुत्वा चंदनरेंशेऽपि । तमायांत रुषाकुलः ॥ बभूव संमुखश्च । इव रात्रितमस्ततेः ॥ ४८ ॥ क्रमाक्रमतश्चैवं । सैन्येऽन्योऽन्यं पलायिते ॥ जातमायोधनं भीमं । तयोः केसरिणोरिव ॥ ४५ ॥
थो महेंइसिंहेन । राहुलेव विधेर्वशात् ॥ आक्रम्य चंशे जीवंश्च । बध्ध्वा मंत्रिकरेऽर्पितः ॥ ५० ॥ स्वयं च चंड्सैन्येषु । नश्यत्सु दरिलेष्विव ॥ नष्टां मृगीमिव व्याधो । जग्राह रतिसुंदरीं ॥ ५१ ॥ विमोच्य चंं तल्लान- तुष्टः स्वपुरमाप्य च ॥ दतः काम किरातेन । जगाद रतिसुंदरीं ॥ ५२ ॥ यदापनृति दूतास्या-त्वं मया सुत्रु शुश्रुवे ॥ मालत्यामिव भृंग
- कंठितं मे तदादि हृत् ॥ ५३ ॥ न त्वदर्थमेवाय-मारंजो मम सांप्रतं ॥ तत्कुरुस्वामिनू । प्रसय सफलीकुरु || ४ || अथ चं प्रिया दध्यौ । धिग्मे रूपमिदं परं ॥ जदुर्दशां प्राप्तः । फलाढ्य इव पादपः ॥ ५५ ॥ असौ कामी दुराचारो । द्यूतकार इवोत्सुकः ॥ पर्यालोच्य मच्चित्तं । धिगीदृशमचेष्टत || ५६ || तस्मान्मया कथंकारं । शीलं रक्ष्य
४१
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वृत्ति
॥ ३२१ ॥
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शोलोप
॥ ३२२ ॥
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मतःपरं ॥ शौनिकापण बहेन । बागेनेवात्मजीवितं ॥ ५७ ॥ या कालविलंबो हि । श्रेयसे प्राण संकटे || नीतिवाक्यमिति स्मृत्वा । सा सानैव तमालपत् ॥ ५८ ॥ गाढाऽनुरागिता ज्ञा. ता । तव श्रीनृपकुंजर || अतोऽर्थयामि किंचित्त्वां । निष्फलीकुरुषे न चेत् ॥ ५९ ॥ नृपोSaree रंजोरू । किमिदं प्रार्थनावचः ॥ त्वदर्थं व्यापृता ह्येते । प्राणा अपि तृणाय मे ॥६॥ यो ददाति शिरःसु । ततः किं चक्षुरर्थ्यते ॥ प्रतोऽतिदुर्लनमपि । प्रार्थ्यतां पूरयामि ते ॥ ६१ ॥ श्रवाचि रतिसुंदर्या । पर्याप्तमपरेण मे ॥ मा कुर्या ब्रह्मनंगं मे । यावन्मातचतुष्टयं ॥ ६२ ॥ नृपोऽवदद्दज्रपाता-दपीदं दारुणं वचः ॥ तथापि नान्यथा कार्या । तवाज्ञेति वरानने || ६३ || दुःखाब्धिमग्ना सा द्वीप - मिवैतत्प्राप्य तद्वचः ॥ तुष्टा धर्मांशुसंतप्त - श्वायां प्राप्य तरोरिव ॥ ६४ ॥ मदायत्चैव पश्चाद- प्यसाविति महीपतिः || भूमिन्यस्ते व्य इव । कश्चेतसि हृष्टवान् ||६५ ॥ श्राचामाम्लोपवासादि - तपःकृत्यैरनारतं ॥ स्वं शोषयंती स्नानांग-रागनूपणवर्जिता ॥ ६६ ॥ जातपर्यस्तवोजा । प्रम्लानमुखपंकजा ॥ शुष्कासृग्मांसनासाम - श्रोणिः परुषकुंतला || ६ || मलश्याम लिताऽशेष - कायााकृत्यैव भीषणा । हिम
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वृत्ति
॥ ३२२ ॥
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शीलोप
।। ३२३ ॥
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प्लुष्टा पद्मिनीव । सा दृष्टा नूनृतान्यदा ॥ ६८ ॥ विशेषकं ॥
जलता च कुरंगादि । किमवस्था तवेदृशी ॥ किं कोऽपि रोगो दुःखं वा । चित्ते जागर्त्ति तेऽन्वहं ॥ ६७ ॥ साऽप्याह देव वैराग्या-द्रतमेतन्मया घृतं ॥ विज्ञायं तेन मे कार्यं । | काननं यथा ॥ ७० ॥ परिपूर्ण मया कार्य । व्रतं चेदं यथा तथा ॥ व्रतजंगो महाराज । यतो नरककारणं ॥ ७१ ॥ पप्र भूपो वैराग्य-देतुः कस्ते यदीदृशं ॥ जोगयोग्यं वपुः । तपोऽग्नौ पुष्पदामवत् ॥ ७२ ॥ पतिव्रताद राजें । पश्य दोषशताकुलं ॥ शरीरमेव तत्रादौ । वैराग्यैकनिबंधनं ॥ ७३ ॥ वसासृग्मांसमेदोऽस्थि - पित्तविण्मूत्रश्लेष्मनिः ॥ स्रवत्येत६पुरै - नवनिः पूतिगंधतां ॥ ७४ ॥ मुहुर्विलेपनस्नान- धूपनादिनिरप्यदः ॥ सुसंस्कृतं स्वदौर्गंध्यं । न मुंचति कथंचन || १५ || अंतर्बहिश्व जोगांगं । यद्यदस्योपनीयते ॥ 3पकारः खलस्येव । तत्तद्वैरूप्यमश्रुते || १६ || अशुचीनां निधीभूतं । दृश्यमानं मनोहरं ॥ .वैराग्यं कस्य नो कुर्या - त्खरस्येव सकछपुः ॥ ७७ || अन्योऽप्यस्य महादोषो । हतदेहस्य - श्यते । किंपाकफलवद्यत्र । मुह्यंति गुणिनोऽपि हि ||१८|| छं वैराग्यवत्यापि । तस्या देश
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वृत्ति
॥ ३२३ ॥
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शोलोप
॥ ३२४ ॥
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नया नृपः ॥ न जावितो मुझशैल । इव वारिदवर्षणैः ॥ ७९ ॥ दध्यौ चैषा तपः क्लिष्टा । तपरिकर्मिता ॥ समाप्ते नियमे स्वस्था - ऽवस्थतां पुनरेष्यति ॥ ८० ॥ मा विद्यथा मुधमुग्धे । पूर्यतां नियमस्तव ॥ इत्युक्त्वा स्मितलिप्तास्यो । राजा प्रतिगतः पुनः ॥ ८१ ॥ पूर्णेऽवधौ पारणांते । पुनरूचे महीभुजा ॥ श्रद्य ते संगमे नरे । बाढमुत्कंठितोऽस्म्यदं ॥ ॥ ८२ ॥ सत्याद देव सर्वत्र | स्वार्थो हि बलवत्तरः ॥ श्रद्यैव सुबहोः काला-स्निग्धं भुक्तं मया खलु ॥ ८३ ॥ तेन मे सांप्रतं सर्वं । वर्त्तते वपुराकुलं ॥ शीर्ष स्फुटति शूलादि-हृदि त्रुट्यंति संघयः ॥ ८४ ॥
इत्युक्तवत्या मदन - फलं क्षिप्त्वा मुखे रहः ॥ भुक्तं वांतं तया सर्व । कृतघ्नेनेव मर्मधीः ॥ ८५ ॥ नचे च पश्य राजें । कृतघ्नत्वमदो तनोः || तादृग्मनोज्ञं जोज्यं य-त्कणा| देवाऽशुचीकृतं || ६ || वांतं च सुभगंमन्यः । क्षुधितोऽपि हि कोऽपि किं ॥ विमुच्य बालिशं युष्मा -दृशं जोक्तुं समीहते ॥ 09 ॥ कथमित्यनुयुक्तेऽथ । पुनराद महासती ॥ किमत्र प्रकटे जावे । लक्षणीयं विचक्षण ॥ ८८ ॥ पुरोपभुक्तदारेज्यः । किमन्यदपि गर्दितं ॥
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वृत्ति
॥ ३२४ ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥३३५॥
तत्त्वं वांबननूर्दको-पालनाईः कथं न हि ॥ ए ॥ नूपेनोक्तमिदं सत्यं । सर्वं जानामि सुं- दरि ॥ रागातिरेकतः किंतु । लुब्धोऽहं तव संगमे ॥ ए॥ महासत्याद दीनेऽस्मिन् । को रागोऽद्यापि मेंगके ॥ नीलीरागानुरागेण । नूयोऽवदन्महीपतिः ॥ ए१ ॥ तपःशुष्केऽपि देहेऽस्मि-त्रिदं ते नयनध्यं ॥ जीर्णनांडगतं रत्न-मिवाऽनध्य जगत्रये ॥ए । अनन्यं शीलरक्षार्थ-मुपायं जानती सती ॥ नुत्पाव्य लोचन । नभुजः सहसाऽर्पयत् ॥ ए३ ॥ दृ. ष्ट्वा चमत्कृतो मुक्त-रागोऽयायं महीपतिः ॥ प्रवृक्षाऽतुबसंवेगः । सतीमाह ससंघ्रमं ॥४॥ किमिदं दारुणं कर्म । कृशोदर कृतं त्वया ॥ ममात्मनश्च खैक-कारणं दुःकरं हहा ॥ ॥ ५ ॥ सादस्म देव सौख्यक-कारणं त्वावयोरिदं ॥ तिक्तौषधमिवात्युग्र-रोगिणोयितामिति ॥ ए६ ॥ अथ देशनया चक्रे । तया धर्मे स्थिरो नृपः ॥ सोऽपि वैराग्यमापनः । दमयामास तां सती । ए७ ॥ ततः शीलप्रनावेणा-ऽमुष्याः श्रीशासनामरी ॥ चकार नय ने शोना-ऽतिरेकेण मनोहरे ॥ ए ॥ राजापि मंत्रिनिः साई। प्रैषीनां नंदने पुरे ॥ चं स्याऽज्ञापयसैषा | स्वसेयं मे सहोदरी ॥ एए । श्रीचंनूमीपतिनाजिनंदिता । श्रीशीलध
॥३
॥
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शोलोप
वनि
॥९॥
में प्रतिपाल्य निर्मलं ॥ श्रीमोक्षसौख्याऽतिश्रितां क्रमादसौ । संप्राप्स्यति श्रीरतिसुंदरी स. ती ॥ १० ॥ इति श्रीरुपल्लीयगडे श्रीसंघतिलकसूस्पिट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां श्रीशीलतरंगिण्यां रतिसुंदरीकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ॥
पतिपरिहतानामपि महासतीनां शीलमाहात्म्यमाह
॥ मूलम् ॥-रिसिदत्ता दवदंती । कमला य कलावई विमलसीला ॥ नामग्गहणजलेण वि । कलिमलपकालणं कुणह ॥१॥ व्याख्या-झषिदत्ता तथा दवदंती तथा कमला तथा कलावती च, एताश्चतस्रोऽपि विमलशीला, प्रत्येकं परीक्षितनैर्मल्या नंदंत्विति संबंधः, माहात्म्यमाह-आस्तां स्तुत्यन्निवादनादिकं, तासां नामग्रहणजलेनापि कलिमलप्रक्षालनं कुरुत? हे नव्या इत्यध्याहार:, अयं गाथासमासार्थः, व्यासार्थस्तु कथानकेन्योऽवगंतव्यः, तत्रादौ शषिदत्ताकथा, तथाहि
अत्रैव मध्यदेशेऽस्ति । पुरं श्रीरश्रमईनं ॥ वणिकपुत्र श्वानाति । श्रीदो यत्रेन्यसद्मसु ॥१॥ तत्र हेमरथो राजा । यस्य निस्त्रिंशवचरी ॥ नष्णैरप्यरिनारीणां । ववृधे नेत्रवारि
॥३६॥
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वृनि
कीलोपानिः ॥२॥ वल्लना सुयशा नानी । तस्य यन्नेत्रनिर्जिता ॥ नूनं श्रिताऽप्यरल्यानीं । मार्ग-
मासेवते मृगी ॥३॥ नानास्ति कनकरथ-स्तयोः पुत्रो महारथः ॥ यत्कीर्निकांता बाला॥३३॥ पि। सहेलं क्रमते नन्नः ॥ ४ ॥ इतः पुर्यस्ति कौबेरी । कवरीवाऽवनिश्रियः ॥ नृपः सुंदर
पाणिस्तां । शास्ति शौंमीर्यवजनृत् ॥ ५ ॥ अपांसुलाललामेव । वासुला तस्य वल्लना ॥ मेरुनूरिव साऽसूत | रुक्मिणी कल्पवल्लरीं ॥६॥ अथ यौवनमारूढां । तां ज्ञात्वा योग्यसंगमात् ॥ अदत्त कनकरश्र-कुमाराय नरेश्वरः ॥ ७ ॥ तामुछोदुमथाऽचालीत् । कुमारः पि. तुराइया ॥ कुर्वाणः पथि सोमाल-नूपान स्वाझावशंवदान ॥ ॥ असूर्यपश्यां नूपालवक्षनामिव स क्रमात् ।। प्रापदेकामरण्यानीं । उन्नामुन्नतपादपैः ॥ ए॥
अथ पाश्रोदिहकायै । प्राक्प्रस्थापितसेवकाः ॥ कुमारमूचुरागत्य । समासीनं तरोस्तले ॥ १० ॥ देव युष्माकमादेशाद् । दूरनूमिं गता वयं ॥ कमामुखमिवाऽशक्ष्मः । सरः पं- कजसंकुलं ॥ ११ ॥ यावद्वजामस्तनीरं । तावत्तत्र वनाश्रमे ॥ अपश्यामः कनी कांचि-होलाखेलनलालसा ॥ १२ ॥ सहसाऽस्मानथालोक्य । सापि दूरं पलायिता ॥ अलक्षिता खेच
॥३॥
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शोलोपर रीव । तरूपाल्यामलीयत ॥ १३ ॥ गवेषितापि ह्यस्मानिः । कानने सा शुलानना ॥ नैवाऽवृत्ति
दर्शि पुनश्चित्र-वलरोव दरिदिन्तिः ॥ १४ ॥ तदाकर्य कुमारोऽपि । शिखीव घनगर्जितं ॥ ॥३०॥ प्रहृष्टः सह तैरेवा-चलत्तद्दर्शितावना ॥१५॥ प्राप्तश्चूतवनं लीन-स्तदंतश्च कुरंगवत् ॥ कु
मारो विस्मयस्मेर स्तरलाही ददर्श तां ॥ १६ ॥ मुनिशापपरिघ्रष्टा । नूनमेषा सुरांगना ॥ मरौ कल्पलतेवेदृक् । स्त्रीरत्नं नूतले कुतः ॥ १७ ॥
छ तद्रूपमूढात्मा । यावदास्ते नृपांगनूः ॥ तावदाकर्ण्य सा सैन्य-तुमुलं प्रपलायिता ॥ १७ ॥ सैन्यमावास्य तत्रैव । सरस्तीरे मालिषु ॥ कुमारोऽपि स्मरावेश-परो बभ्राम तनं ॥ १ए । तामपश्यन गतो दूरं । कुमारस्तरलाशयः॥ चैत्यमेकमथैदिष्ट । पुरस्तात्तुंगतोरणं ॥ २० ॥ नूनमस्मिन् कुरंगाक्षी । सापि रम्या नविष्यति ॥ ध्यात्वेति नृपतेः सूनुः ।
प्रविवेश तदंतरे ।२२।। नान्नेयप्रतिमा तत्र । धन्यमन्यो विलोक्य सः।। अचिंतितफलं वन्य- ॥३२॥ * पुष्पैर्यावदपूजयत् ॥ २२ ॥ ज्योत्स्नयेव शशी ताव-नया बालिकया युतः ॥ तत्र स्फारजटा
नारो। वृशे मुनिरुपागमत् ॥ २३ ॥ इंशेऽसौ किमु वा चंः । सादादथ मनोनवः ॥ निध्या
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शीलोप
वृत्ति
॥३२
यंती राजसूनु-मिति दध्यौ मुनेः सुता ॥ २५॥ कुमारोऽपि नमस्कृत्य । जिनं विस्मितमा- - नसः ॥ नमश्चक्रे मुनि सोऽपि । चिरं जीवेत्यथा शिषत् ॥ २५ ॥ पप्रच च कुलं किं ते ।
नाम चाख्याहि मत्पुरः॥ मागधोऽय कुमारस्य । सर्वमस्मै न्यवेदयत् ॥ २६ ॥ कुमारोऽ
पि दृशौ कन्या-मुखचं चकोरवत् ॥ मुनिमाह कनी केयं । किं चैत्यं को नवानिद ॥२॥ - मुनिरूचे ततो वत्स । महतीयं कथानिका ॥ पूजां कृत्वा यावदेमि । तावतिष्ट त्वमत्र नोः
॥ २० ॥ तथेत्युक्त्वा समासीने । कुमारे मंडपांतरे ॥ तया सह प्रविश्यांत-देवपूजां व्यधान्मुनिः ॥ २५ ॥ कुमारस्तां कुमार। तं । वलितग्रीवमुत्सुकं ॥ धवलैर्लोचनैर्लोले-रीक्षांचके मुहुर्मुहुः ॥ ३० ॥ विहारस्योत्तरेणा । मुनिर्नीत्वा निजोटजे ॥ कुमारमर्घपाद्याथै-रर्चित्वा चेमाख्यत ॥ ३१ ॥ वत्सास्ते नगरी रम्या । संझिता मंत्रितावती ॥ पालयामास तां श्रीमान् । हरिषेणो धराधवः ॥ ३२ ॥ तस्य चाऽनूद्यथाख्या । बल्खन्ना प्रियदर्शना || अनू- दजितसेनाख्यः। पुत्रस्तत्कुक्षिसंन्नवः ॥ ३३ ॥
वादालीतोऽन्यदा नूमि-जानिः शूकलवाजिना ॥ आनिन्ये काननावन्या-ममुष्यामप
॥श्णा
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वति
शोलोप हृत्य तः॥ ३४ ॥ अतिदक्षतया प्लक-प्रालंबं प्रावलंब्य सः ॥ गतोऽपि धुत वाहा-घनमे-
तदवातरत् ॥ ३५ ॥ पुरस्सरेऽत्र कासारे । प्रक्षालितमुखो नृपः ॥ ननाम तापसं विश्व-लू॥३३०॥ तिनामकमुच्चकैः ॥ ३६ ।। सोऽपि कचमहाकव-वंशकेतुर्महामुनिः ॥ श्रिये जिनस्ते नान्नेय
इत्याशिषमयोचत ॥ ३७ !! अन्योऽन्यं कुशलोदंतं । यावत्तावूचतुः सुखं ॥ तावदाविर्बनूवेपर ह । वने सांराविणं महत् ॥ ३० ॥ किमेतदिति साकूत-मूचुराश्रमवासिनः ॥ ममानुपद
मार्गेण । नूनं मत्सैन्यमागमत् ॥ ३५ ॥ ज्ञात्वेति नूनदुबाय । सांत्वयामास वाहिनीं ॥ त. स्यौ च मासमेकं स । तत्रैवाराधयन्मुनीन् ॥ ४० ॥ तेनेदं कारयांचक्रे । पुण्यपायोधिचंमाः ॥ श्रीनानेयजिनेश्स्य । चैत्यमुद्दामतोरणं ॥ १ ॥ अथो निजपुरी नूमि-भुजे स्वैरं थियासवे ॥ ददौ कुलपतिस्तस्मै । मंत्रमेकं विषापहं ॥ ४२ ॥ राज्यं पालयतस्तस्या-ऽन्यदासीनस्य पर्षदि ॥ राज्यदौवारिकः कश्चि-तमुपेत्य व्यजिज्ञपत् ॥ ३ ॥
देवास्ति नगरी स्वस्ति-मती श्रीमंगलावता ॥ तां शशास महौजस्कः । कोणीः प्रि. । यदर्शनः ॥ ४ ॥ तस्य विद्युत्पन्ना जाया । यथा विद्युत्नमित्वतः ॥ तत्कुतिजा प्रीतिमती।
॥३३०॥
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वृत्ति
शीलोप पुत्र गुणपवित्रिता ॥ ४५ ॥ दष्टा उष्टाऽहिना साद्य । तव ज्ञापयितुं ततः॥ प्रैषीदस्मान दु.
( तं श्रीमान् । प्रियदर्शननूवनः ॥ ४६॥ वेगिन्तिः करनैस्तत्र । ततो गत्वोपकारधीः ॥ च. ॥३३॥ कार निर्विषां राज-तनयां वैनतेयवत् ॥ ४ ॥ तामेव दत्तां तत्पित्रा । परिणीय धराधवः ॥
आगानिजपुरी पौर-बध्वंदनमालिकां ॥ ४ ॥ कियत्यपि गते काले । यौवनस्यं तदात्मजं ॥ निवेश्य राज्ये जाते । दंपती तापसव्रतं ॥ ४ ॥ विश्वनूत्यन्निधानस्य । पादोपांते तप. स्विनः ॥ तावारराधतू राधा-वेधसब्रह्मकं व्रतं ॥ ५॥ अथास्याः पंचमे मासे। प्रीतिमत्या- स्त्रपाकरः ॥ स्त्रीमंत्र इव तत्कालं । गर्नः प्रादुरन्नन्मनाक् ॥ ५१ ॥ अयो सहचरी राजा । पप्रचावनताननः ॥ किं ते विलोक्यते नरे-ऽनुचितं कुलशीलयोः ॥ ५५ ॥ तयोचे पूर्वमेवासी-तपस्यायाः परं मया ॥ नोपालकि कणं लेखा । चंस्येवानमध्यगा ॥ ५३ ।। आवामिहस्थौ धिक्कायौँ । नविष्यावस्तपस्विषु ॥ प्रातरन्यत्र गंतव्यं । चिंतयित्वेति दंपती ॥ ५ ॥ कपोलपालीनिशलु-वामहस्तौ विदस्तितौ ॥ चिंताचांततमस्वांतौ । निन्यतुस्तां निशामिमौ ॥५५॥ ऽष्टव्यंतरनिर्मूलो-न्मूलितागारिंगेहवत् ।। प्रातस्तपस्विन्तिः शून्यं । तमाश्रममपश्यतां
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शोलोप
॥ ३३२ ॥
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1
॥५६॥ ततो विलतां प्राप्तौ । तौ विक्रीताऽवशेषवत् ॥ इतस्ततश्चिक्षिपतु-पती चपले दृशौ ॥ ५७ ॥ शीर्णपद्रुमं त्यक्त्वा । विहंगममिवाश्रमं ॥ यांत मंदपदं वृद्धं । मुनिमेकमबैकत! | ८ || हरिषेण मुनिर्गत्वा । प्रांजलिस्तमवोचत || ममाख्याहि कुतो देतोः । शून्यमेततपोवनं ॥ एए || तेनोक्तं युवयोर्वत्स । दृष्ट्वेदं कर्म गर्हितं ॥ कुष्टिसंगमिव त्यक्त्वा । सर्वर्ज - मे वनांतरे ॥ ६० ॥ इत्याख्याय मुनिः शीघ्रं । स जगाम यथेप्सितं ॥ हरिषेणो विषमा
। पुनराप निजोटजं ॥ ६१ ॥ निंदतौ दंपती कर्म । निजं यतिरिव श्रियं ॥ प्रतीयतुश्चतुर्मासी । तौ वत्सरशतोपमां ॥ ६२ ॥ अ पूर्णेऽवधौ प्रीति-मती प्रसुषुवे सुतां ॥ कल्पव लिरिवाsनीष्ट फलदायकसंपदं ॥ ६३ ॥ षिप्रसादात्प्राप्तेय-मिति तपितरौ तदा ॥ चक्राते पित्तेति । नामधेयं सदन्वयं ॥ ६४ ॥ तन्मातरि यमातिथ्यं । प्राप्तायां सूतिरोगतः ॥ पालयित्वा पिताऽकार्षी-दष्टवर्षामिमां ततः ॥ ६५ ॥ इमां रूपवतीं मा स्मो- पश्वंतु वनेचराः ॥ पितेत्यदृश्यतादेतु । चकाराऽस्या हगंजनं ॥ ६६ ॥ सोऽहं कुमार दाक्षिण्य - सारः सेयं च कन्यका ॥ अलक्षिता वनेऽमुष्मि- स्तवैवाऽदत्त दर्शनं ॥ ६७ ॥ परस्परस्य पश्यंता - वृषदत्ता
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वृत्ति
॥ ३३२ ॥
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शीलोप
।।। ३३३ ।।
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नृपांगजी || अन्योऽन्यं दत्तवंतौ तौ । स्वात्मानं स्निग्वया दृशा ॥ ६० ॥
विज्ञाव्याऽथ तयोर्भावं । मुनिः कुमरमभ्यधात् ॥ आतिथेयमियं कन्या । तुभ्यं योग्याय जायतां ॥ ६९ ॥ प्रतिपद्य कुमारोऽपि । तथेति सुकुमारगीः || सोत्सवं तामुपायंस्त | दक्षजामिव शंकरः ॥ ७० ॥ दिनानि कतिचित्तत्र । तया साई नवोढया | मालत्यामिव रोलंबः । सुखं तस्थौ नृपात्मजः ॥ ७१ ॥ जाता कुमारसंसर्गात् । सा मुग्धापि विचक्षणा ॥ पाटलावासिता मृत्सा | सौरच्यं किमुनाश्नुते ॥ ७२ ॥ श्रापृत्रय स्वसुताजामा -तरौ वैराग्यतत्परः || विवेशाग्निं मुनिः पंच-परमेष्टिस्तुतिं स्मरन् ॥ ७३ ॥ ततो विलुश्य भूपीठे । रुदतीं पितृडुःखतः ॥ वल्वनां बोधयामास । कुमारोऽमृतमंजुगीः || १४ || प्रतस्थे नृपपुत्रो ऽसौ | यामुोढुं पुरा पुरात् ॥ तां विधूय तया साई । व्यावृत्तः स्वगृहंप्रति ॥ ७५ ॥ दरिखसमानीत- बीजेन मुनिकन्यका || नवाप पथि वृकालीं । सर्वर्तुफलशालिनीं ॥ ७६ ॥ दिनैः कतिपयैरेवं । पित्रा क्लृप्तागमोत्सवः ॥ प्रविवेश विशालाको । रथमईनपत्तनं ॥ 99 ॥ पतिमन्या सदाचारा | विनयप्रमुखैर्गुणैः ॥ चेतांस्यावर्जयामास । सर्वेषामृत्रिनंदिनी || १८ ||
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वृत्ति
॥ ३३३ ॥
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शोलोप
॥ ३३४ ॥
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यौवराज्यमथाऽवाप्य । दोगुंदक इवामरः ॥ अर्भुक्त विषयान् द्वैधं । कुमारो विदुराशयः ॥ || ७ || श्री कौबेर्यामथाऽश्रावि । राज्ञा सुंदरपाणिना । व्यावर्त्तत कुमारो य-परिणीय कृषेः सुतां ॥ ८० ॥ रुक्मिण्यपि तदाकर्ण्य । यौवनोन्माददुर्मदा || उपायांश्चिंतयामास । वृपस्ती नृपांगजे ॥ ८१ ॥ तयाश्र मंत्रतंत्रज्ञा । कूटकोटिपटीयसी ॥ पापिनी योगिनी का - चिदर्शिता सुलसानिधा ॥ ८२ ॥ कलंकमृषिदत्तायै । देहि मह्यं च तं पतिं ॥ साप्यंगीकृत्य ताक्यं । प्राप्ता श्रीरथमर्द्दनं ॥ ८३ ॥ सर्पिलीव दिजिह्वा सा । राक्षसीव दुराशया ॥ महधकारमासाद्य | सुलसाऽनलसाशया ॥ ८४ ॥ दत्वाऽवस्वापिनीं तत्र । निहत्यैकं चमानवं ॥ कुमारमंदिरेऽन्यागा- दुष्टवृत्तिरिवांगिनी ॥ ८५ ॥ वक्त्राजमृषिदत्तायाः । सुप्तायाः पत्युरंतिके ॥ शोणितेनाऽरुणं चक्रे । धिग् दुष्टाया दुरात्मतां || ६ || तस्याश्वोवीर्षके न्यस्य । मांसपिंडकरं मिकां ॥ संहृत्य स्वापिनीं राज - पुत्रसौधात्पलायिता ॥ ८७ ॥ प्रातर्विपन्नमालोक्य । नरं तस्य परिचदः ॥ चक्रे कोलाहलं तेन । कुमारोऽपि व्यबुध्यत ॥ ८८ ॥ ज्ञातोदंतस्तदा वीक्ष्य | प्रियां रक्तारुणाननां ॥ मांसपिकोपधानां च । चित्ते शंकामिति व्यवात् ॥
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वृत्ति
॥ ३३४ ॥
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हीलोप
वृत्ति
॥३५॥
परासुः श्रूयते कश्चि-दीहगेषापि दृश्यते ॥ दहा कि राक्षसी प्राण-बलना मम संन- वेत् ।। ए ॥ नेहक संन्नाव्यतेऽमुष्या-मिदं चात्र विलोक्यते ॥ विलोक्येति प्रियां सद्यो । जीजागरदनपधीः॥ १ ॥ सुप्तोहितामयोवाच । देवि पृबामि किंचन ॥ गोपायसि न चे. कांते । तयोक्तं जुतमुच्यतां ॥ ए२ ॥ प्रियेऽत्र पुरुषो रात्रौ । श्रूयते मारितोऽधुना ॥ नपधानं समांसं ते । मुखं चाऽसृग्विगर्हितं ॥ ए३ ॥ तत्त्वं किं राक्षसी न। नूत्वापि मुनिपुत्रि. का ॥ प्रत्यक्षमालोक्य । कोऽपि ज्ञानमुदीक्षते ॥ ए४ ॥ सापि पत्युर्वचः श्रुत्वा । स्वं च दृष्ट्वा तथाविधं ॥जीतन्नीता कातराक्षी । कुमारमिदमाख्यत ॥ए ॥ एतत्पुनरसंन्नाव्यं । वक्तुं वाचापि न कमा । केनचिरिणाऽचेष्टि । पूर्वकर्मानुन्नावतः ॥ ६ ॥ यदि वा स्वामिपादाना-मप्रतीतिः प्रगल्लते ॥ तदा निगृह्यतां शीघ्रं । सर्पदष्टप्रतीकवत् ॥ ए॥ कुमारो
ऽपि कृपांनोधि-विवेकी तामयाख्यत ॥ न जानामि निर्दोषां ।हितीयें उकलामिव ॥ ए॥ मैं वदनिति खलास्यानां । मुश्णाय नृपांगजः ॥ तन्मुखं कालयामास । स्वयं पीयूषवर्षि सः ॥
एए ॥ प्रत्यहं सेबमाधत्ते । कुमारश्च व्यपोहति ॥ सद्यः प्रान्नातिको वायु-रवश्यायकणा
॥३५॥
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डालोपनिव ॥१॥ अन्यदा तदुदंतज्ञः। सकोपः पाद नूधवः ॥रे रे ऽमैत्रिणश्चिंता । युष्मानिनवत्ति
विधीयते ॥२॥ नित्यं नरैकसंहारो । नवनयमुपेक्षितः ॥ वईमानो व्याधिरिव | शेयः सबै ॥३३॥ कषः खलु ॥ ३ ॥ तैरूचे विहिता एव । वयं वर्नामहे परं ॥ न मारिर्मानव देव । त्वत्पुरे
मांत्रिकी यदि ॥४॥ न साऽस्मजोचरे किं तु । पुरात्पाखंडिनोऽखिलाः । निर्वास्यतामितो नूनं । शांतिः संन्नाव्यते ततः ॥ ५ ॥
इति तैः प्रेरितो राजा । सर्वदर्शनिनः पुरात् ॥ मुक्त्वा जैनमुनीन् दूरं । निर्वासयितुTo मादिशत् ॥ ६ ॥ अत्रांतरे पुराचारा । सुलसा कलुशाशया ॥ नरेशमिदमाचष्ट । सा वि.
न्मानिनी रहः ॥ ७॥ देवाद्य कश्चिदस्वप्नः । स्वप्ने मामिदमाख्यत ॥ यदद्य नृपतिः पाखमिनो निर्वासयिष्यति ॥॥ तनेषां नवती गत्वा । निरागस्त्वं निवेदयेः ॥ पीते पयसि माऑर्या । किं ताड्या सैरिनानकः ॥ ए॥ वनाहृताया राक्षस्या । वध्ध्वा एव नरेशितुः॥ इदं ॥३३६॥ च चेष्टितं शेय-मित्यादिश्य तिरोऽनवत् ॥ १० ॥ यदि चास्मिनसंताव्ये । संशयेत्पृथिवीपतिः॥ तदद्य कौतुकमिदं । स्वयमेव विन्नाव्यतां ॥ ११ ॥ ततो विसृज्य तां राजा । तस्या
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शीलोप
वृत्ति
॥३७॥
निशि निजांतिके ॥ स्वीयमाशाययत्पुत्रं । चराश्चोपवधू न्यधात् ॥ १२ ॥ दध्यौ कुमारोऽनु- न्मील-निमुन्मुश्तिाऽरतिः ॥ अद्य मछल्लन्नादोषो । ध्रुवमावि-विष्यति ॥ १३ ।। एकतो जनकादेशो-ऽनुल्लंघ्योऽयं ममापतत् ॥ अन्यतश्च प्रियादुःखं । तदिदं संकटं महत् ॥ १४ ॥३तश्च सुलसा चित्त-कालुष्या तत्तथाऽकरोत् ॥ चरैः प्रातस्तथानूतां । वधूं राजा ददर्श च ॥ ॥ १५ ॥ अथ निर्नर्सयामास । सुतं कोपपरो नृपः ॥ जाननपि प्रियां जातु-धानी धाग्नि दधासि रे ॥ १६ ॥ रे रे क्रूर दुराचार । मुंचाग्रं राक्षसीपते ॥ त्वया कुंदेपुसंकाशं । कलं. कितमिदं कुलं ॥१७॥ नत्वा प्राह कुमारोऽपि । तस्यामिदमसंन्नवि ॥ मा कुपः किंतु दुष्टस्य । कृत्यं जानीहि कस्यचित् ॥१७॥ कोपाटोपस्फटानीमो । नूभुजंगोऽब्रवीत्पुनः ॥ यदि प्रत्येषि नो मूढ । तदा गत्वा विलोकय ॥ १७ ॥ कुमारोऽपि नृपादेशा-न्मंदीनूतमुखअविः॥ गत्वा म्लानमुखी नायाँ । दृष्ट्वा मधुरमब्रवीत् ॥ २० ॥ कर्मण्युपस्थिते प्राव्ये । सु- वाणि करवाणि किं ॥ त्वामाह राक्षसी काचि-द्योगिनी नृपतेः पुरः॥ १ ॥ स्वयं च ताहशी प्रात-रद्य त्वां दृष्टवांश्चरैः ॥ न जाने किमतः कर्म-वशतस्ते नविष्यति ॥ ॥
॥३३७॥
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हालोप
वृत्ति
॥३॥
अथो महीपतिदूरं । मत्सरछन्नमानसः ॥ नितुं वधकेन्यस्तां । केौराकृष्य दत्तवान् ॥ २३ ॥ आदिदेश च उष्टैषा । भ्रामं ब्रामं पुरेऽखिले ॥ नीत्वा पितृवने मार्या । नवन्निईष्टराक्षसी ॥ २४ ॥ नृपात्मजोऽपि तदुःखा-निर्मिमाणः स्वघातितां ॥ नियंच्य स्थापितः पि. त्रा । गलबाष्पविलोचनः ॥ २५ ॥ अथ दंमसमालंबि-सूर्पखंमातपत्रिणीं ॥ लुप्तकेशशिखोपांत-बहश्रीफलमालिकां ॥ २६ ॥ लंबमानाऽरिष्टपत्र-स्रगालिंगितकंधरां ॥ मषीलिप्तमुखां चूर्ण-चित्रांगी खरवाहिनीं ॥श्णा पुरस्ताहाद्यमानोरु-काहलाशृंगििममां ॥ तां सती ब्रामयामासुः । पुरांतर्दडपाशिकाः ॥ ॥ कुलकं । पौरैर्दाहारवैः कैश्चि-दन्यैर्दुबारवोरैः॥ विलोक्यमानां तां निन्यु-ईष्टाः पितृवनावलीं ॥ ३०॥ वारुणीसंगतः क्लीव । श्व मुक्तांबरे रवौ ॥ पतिते जलधौ ध्वांतः। खलैरिव वितस्तरे ॥ ३१ ॥ एकस्तेषु घृणामुक्तः । स्मर क्रूरे स्वदैवतं ॥ ब्रुवन्नित्यसिना याव-प्राहरत्तां सतीप्रति ॥ ३२ ॥ तावन्यन्नवाऽतुल-मूया पतितां वितौ ॥ मत्वा मृतामिति त्यक्त्वा । सत्वरं स्वगृहं ययुः ॥ ३३ ॥ बोधिता पवनैः शीतैः । दृष्ट्वा शून्यं तदास्पदं । साऽनेशहागुरामुक्त-मृगीनाशं चलेकणा ॥ ३४ ॥ बिन्यती.
॥३३॥
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शीलोप
॥ ३३॥
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तस्ततो वीक्ष्य | विजनं प्रातरंगभा ॥ रुरोद रोदसीकुकिं । पूरयंती प्रतिस्वनैः || ३४ | हा तात चेत्तदानीं त्वां । नाऽमुचं दंत दुर्मतिः ॥ अनविष्यं कथंकारं । तदेतद्दुःखभाजनं ॥ ३५॥ यत्कृतं दुःकृतं कर्म । जवता पूर्वजन्मनि ॥ रे जीव तद्विपाकेन । कलंकोऽयं तवाऽनवत् ॥ ||३६|| हा नर्त्तर्षुःखगततः - पतितां वृगामिव ॥ पाहि साहसवीर स्वां । वल्लनां प्रियवत्सल ॥३॥ विलप्येति तनूकृत्य । शोकं सा दक्षिणोन्मुखी ॥ चचाल मंदचारेण । पितुराश्रमसंमुखं ॥ ३८ ॥ स्वहस्तोप्ततरुश्रेणी- दर्शिताध्वा तपोवनं ॥ पितुर्जगाम दर्जा - पाट्यमानपदा सती || ३ || स्मशानं पितुरालोक्य | स्मृत्वा स्नेहं रुरोद च ।। हा तात क्वासि दुःखिन्या । देहि मे निदर्शनं ॥ ४० ॥ पुरा पुरमिवेदं मे । पितुरासीत्तपोवनं ॥ सांप्रतं दुःखदग्धाया । जातं तद्ददनोपमं ॥ ४१ ॥ अथ सा मानसे शोकं । स्तोकीकृत्य तदैव च ॥ तपस्विनीव तत्राऽस्था- कंदमूलफलाहृतिः ॥ ४२ ॥ पतिव्रताऽन्यदा दध्या - वहमेकाकिनी वने ॥ कथं स्थातासुखं मार्ग - कर्केधुरिव सर्वदा ॥ ४३ ॥ शीलं च योषितामत्र । परलोके च सिद्धिदं ॥ केनोपायेन तत्पाल्य-मम्लानं माख्यवन्मया ॥ ४४ ॥ श्रज्ञातं विद्यते तात - दर्शिता परमौष
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वृत्ति
॥ ३३५ ॥
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होलोपमधी ॥ यत्प्रनाववशानारी । नररूपत्वमश्रुते ॥ ४५ ॥ कणे पवित्रिकां क्षिप्त्वा । तया च पु- वृत्ति
स्त्वमाप्य सा ॥ पूजयंती जिनं तस्थौ । सुखेन मुनिवेषनाक् ॥ ४६॥ संयतात्मा कुमारोऽ-4 ॥३०॥ पि । वल्लनाविरहाकुलः ॥ अस्थान्मुषितसर्वस्व । श्व राज्येऽपि शून्यधीः ॥ ४ ॥ सुलसा
कृतकृत्या सा । हताशा जितकासिनी ॥ रुक्मिणी तोषयामास । गगहत्येव चंडिकां ॥४॥ या अथानिमानी कौबेरी-पतिर्वाचाटशेखरं ॥ दूतं संप्रेषयामास । तदा हेमरथंप्रति ॥
ए ॥ दूतोऽपि तत्र गत्वाह । रथमईननूनृतं ॥ किमत्र कारणं देव । यन्नागादत्र तेंगजः ॥५०॥ तद्देव त्वरयोछोढुं । रुक्मिणी प्रेषयात्मजं ॥ यतो विवेकिनः स्वामिन् । सज्जनं नावजानते ॥ ५१ ॥ तहतोदितमादृत्य । नृपः पुत्र रहोऽवदत् ॥ दृश्यसे वत्स विडायः। किं शश्वच्छून्यस्तब्धवत् ॥ ५५ ॥ यदिहापतितं कष्टं । पूर्व कर्मनिर्मितं ॥ तधूिय ध्रुवं धीरा । धुर्याः स्युः सर्वकर्मसु ।। ५३ ॥ तत्त्वं मदुपरोधेन । कौबेरीपतिनंदिनी ॥ परिणेतुं प्रयाणेन । ॥३०॥ वत्स प्रीणय मन्मनः ॥५४॥ पितुराज्ञामवज्ञातु-मनन्निज्ञतया च सः ॥ चचाल सैन्यन्नारेण । कंपयन् पृथिवीतलं ॥ ५५ ॥ तत्तपोवनमासाद्य । क्रमेण कुमराग्रणीः ॥ज्ञषिदनाम
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शीलोप
॥ ३४१ ॥
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नुस्मृत्य । विषादादित्यचिंतयत् ॥ ५६ ॥ तद्वनं तदिदं चैत्यं । तत्सरस्तेऽय पादपाः ॥ यत्राहं स्नेहपूर्णस्तां । पर्यणैषं सुलोचनां ॥ ५७ ॥ ममाद्य तदिदं सर्वं । तां विनाऽजनि दुःखदं ॥ अव्यवस्थस्वज्ञावेन । हा किं घातस्त्वया कृतं ॥ ५८ ॥ शोचन्निति जगामायं । श्रीमन्नानेमंदिरं ॥ पुस्फोर दक्षिणं चक्षु - स्तदाऽस्य प्रियसूचकं ॥ एए ॥ दध्यौ च निष्फलं नून - मि. दं मे क्वास्ति सा प्रिया ॥ अथवेदं वरं चैत्यं । पुरापि प्रियदर्शनं ॥ ६० ॥ इत्यादि ध्यायति स्मेर - विस्मयो यावदेषकः ॥ रुषित्तामुनिस्ताव - पुष्पाण्यस्मै समर्पयत् ॥ ६१ ॥ प्रिया
स्पृशा सोऽपि । दृशा पश्यन्नमुं मुदा || पुष्पमालां करात्तस्य । सत्यंकारमिवाऽग्रहीत् ॥ ॥ ६२ ॥ चेतसा चिंतयामास । मुनिर्गूढाकृतिस्तदा ॥ प्रतस्थे मत्प्रियो नून - मुद्दोदुमथ रुमि ॥ ६३ ॥ जिनं नत्वा कुमारोऽपि । समादाय सदैव तं ॥ निजां पटकुटीं नीत्वा-डान वस्त्राऽशनादिनिः || ६४ || पप्रच च कदाऽमुष्मि-स्त्वमायासीर्वने कुतः ॥ तदिदं निकोदतं । निवेदय मुने मम ॥ ६५ ॥ कुर्वाण इव दंतद्यु-ल्लाजैरस्यैव मंगलं ॥ मुनिरप्याख्यदत्रासी- इरिषेो मुनिः पुरा ॥ ६६ ॥ तस्याऽनूह विदत्ताख्या । कन्या प्राणैकवल्लना ॥
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वृत्ति
॥ ३४१ ॥
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वृति
शोलोप तामुक्षाह्य गतः कोऽपि । राजसूनुर्निजं पुरं ॥ ६७ ॥ प्रविश्य मुनिरप्यग्नौ । देवनूवमथाsI-
सदत् ॥ भ्रामं भ्रामं भुवमहं । तदैवात्र समागमम् ॥ ६ ॥ अतिक्रांतानि वर्षाणि । पंच ॥४२॥ मेऽत्रैव तिष्टतः ॥ सफलान्यद्य जातानि । कुमार तव दर्शनात् ॥ ६ए । कुमारोऽप्याह सा. भनंदं । मुने त्वां पश्यतो मम ॥ दृष्टिन तृप्यति स्थूल-स्थलोव जलवृष्टिन्तिः ॥ ७० ॥
तेनाप्यूचे नवेदेव । कोऽपि कस्यापि हर्षकृत् ॥ रवौ पद्मानि मोदंते । शशांके कैरवाणि च ॥ १ ॥ सोपरोधमथोवाच । मुनि हेमरथात्मजः ॥ त्वत्प्रेमशृंखलेनैव । बई मेऽस्ति ॐ मनोऽधुना ॥ ७॥ ममास्त्यग्रे तु गंतव्यं । तत्समेहि मया समं ॥ वलमानस्तु कुर्यास्त्वं ।
यथा स्वैरमिहाश्रमे ॥ ३ ॥ अथाह मुनिरत्रार्थे । कर्त्तव्यो देव नाग्रहः ॥ दूषितो राजसंसर्ग । रुषीणां सर्वथा यतः ॥ ७ ॥ तं तथाऽन्यर्थयामास । कुमारः सपरिबदः ॥ ऋषिदतामुनिमेंने । साईमागमनं यथा ॥ ५ ॥ अथाऽस्ताविशिलान्नन्न । श्व पक्कफले रवौ ॥ त- इसैरिव संध्यात्रै । रंजिताः सकला दिशः ॥ ७६ ॥ ततः सप्तर्षियुक्तोऽपि । कृषिदत्तामहामुनेः॥ न्यंचकरो नंतुमिव । समागाद्यामिनीपतिः ॥ ७ ॥ कृतसांध्यविधी प्रीति-गोष्टीसु
॥३४॥
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शीलोप
॥ ३४३॥
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खितमानसौ ॥ निन्यतुस्तौ निशामक - पल्यंकतलशायिनौ ॥ ७८ ॥ क्रमेण प्राप कौबेरीं । मुदितस्तत्पतिस्ततः ॥ प्रवेशोत्सवमातेने । पौरोत्तं निततोरणं ॥ ७९ ॥ ज्योतिरादिष्टलनेऽथ | समृदिजितवासवः ॥ रुषित्तापतिर्जज्ञे । तत्पाणिग्रहणोत्सवी ॥ ८० ॥ तत्रैवाऽस्थापयज्ञजा । कुमारं कतिचिद्दिनान् ॥ अन्यदा रुक्मिणी प्राह । पतिं विस्रंजसंनृता ॥ ८१ ॥ की - दृशी रुषित्ता सा । स्वामिन्नासीत्तपस्विनी || अहल्येव सुरेंऽस्य । या ते चित्तमरंजयत् ॥ ॥ ८२ ॥ साऽश्रुदृष्टिः कुमारोऽपि । तां जगाद सगङ्गदं ॥ विश्वत्रयस्त्रियो मन्ये । तस्याश्वररेणवः || ८३ || जवादृशोऽपि जायते । दहा तहिरहे प्रियाः ॥ कारकूप्यपि दर्षाय । नीरसे मरुमंडले ॥ ८४ ॥ लसत्कोपा ततो गोप- दुहिता निजपौरुषं ॥ सर्व सहर्षमाचख्यौ ।
प्रेरणादिकं ॥ ८५ ॥ रुषित्तामुनिश्वन्नं । तत् श्रुत्वा रुक्मिणीवचः ॥ स्वकलंकाऽपनोदेन । मुमुदे जानकी यथा ॥ ८६ ॥ इति तरिमाकर्ण्य । कुमारोऽप्यरुक्षणः ॥ दधितमुखीं । शुनी मित्र ततर्ज तां ॥ ८७ ॥ धिक् त्वां पापीयसीं क्रूरां । धिक् त्वां तत्प्राणघातिनीं ॥ ययाहं पातितो दुःख - जलधौ डुष्टचेतसा ॥ ८८ ॥ जवत्यात्महितं
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वृत्ति
॥ ३४३ ॥
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शलोप
॥ ३४४ ॥
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कामया दुष्टवामाया || लोकठ्याविरुद्धं दा । चेष्टितं नरकातिथि ॥ ८ ॥ निर्भत्स्येंति मदादुःख - नाराक्रांतो निरस्य तां || कारयित्वा चितां गेहे । यावदुइति नूपनूः ॥ एए ॥
तावदन्येत्य कौबेरी - पतिर्धृत्वाऽथ तं करे || जनाश्च वारयंतिस्म । परितः साऽश्रुलोचनाः || १ || कस्यापि वचसा यावत्कुमारो न निवर्त्तते ॥ रुषित्तामुनिस्तावद् । डुतमेत्यजगाद तं ॥ २ ॥ कुमार जगदाधार । विस्मृतं तव किं नु तत् ॥ तदानीं भवताऽवाचि । यत्समानयता वनात् ॥ ९३ ॥ स्त्रीमात्र देतवे किं वा । त्रियंते त्वादृशा अपि ॥ किं चलना सेय-मकता तेऽस्ति रत्ननूः ॥ ए४ ॥ मृतस्य बल्लनासंग -- वार्त्तापि खलु दुर्ल
॥ कुतोऽपि जीवतोऽवश्यं । मिलिष्यत्येव सा तव ॥ एए ॥ ऊचे कुमारः शिशुवत् । किं खेलयसि मां मुने || न कोऽपि दुःखी जायेत । मृता अपि मिलंति चेत् ॥ ६ ॥ किष्टा महासत्त्व | सत्त्वेनाऽनेन तेऽधुना ॥ जीविष्यति ध्रुवं सार्या । सत्त्वं चिंतामणिर्यतः ॥ ७ ॥ श्रुत्वेति पुनरादस्म । कुमारः स्फारलोचनः ॥ किं मुने क्वापि दृष्टा सा । श्रुता वाकयैकदा || || ज्ञानेन जाने जो येन । मुनयो ज्ञानदृष्टयः ॥ यमधाम स्थिता नः ।
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वृत्ति
॥ ३४४ ॥
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शीलोप
॥ ३४५॥
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सुखमस्ति ते ॥ एए ॥ कथमेतीति पृष्टेन । तेनोक्तं देव तत्पदे ॥ धृत्वाऽात्मानं प्रदिष्यामि । स्वमित्रार्थे वधूं सतीं ॥ २०० ॥
स प्रत्याशमथ प्राह । तत्किं मित्र विलंब से || कात्र मे दक्षिणा देव । दितमाचरतस्तव ॥ १ ॥ त्वयाऽावर्जितमेवास्ति । पुरापि मम मानसं ॥ अधुनात्मापि दत्तस्ते । मित्रार्थे किं नदी || २ || मुनिरूचे विहस्याथ । त्वदात्मास्तु त्वदंतिके । प्रस्तावे यदहं याचे । नतत्कार्यं त्वयाऽन्यथा || ३ || नमित्युक्ते प्रविष्टोऽथ । मुनिर्जवनिकांतरं ॥ ततः कुतूहलोत्ताला । मिमेल निखिलाप पुः || ४ || सतीसत्त्वतपोध्यान- माहात्म्यं जयति क्षितौ ॥ इत्यादिमागधौघेषु । स्तुवत्सु ललितध्वनिं ॥ ५ ॥ पुष्पमालाकरैर्देव-दानवैव्यमनि स्थितैः ॥ वि लोक्यमाना साकूतं । मेघांनः कर्षकैरिव ॥ ६ ॥ विस्मृताऽशेषकार्येण । विस्मयोल्लासचेतसा ॥ नत्तानचक्षुषा राज-कुमारेण निरीक्षिता ॥ ७ ॥ कर्णात्पवित्रिकां दूरी - कृत्य कृत्यविदग्रणोः || वह्नयुत्तीर्णा सुवर्णस्य । शलाकेवोद्यतद्युतिः ॥ ८ ॥ उपपातिकशय्यातो -ऽवतीर्णेव सुरांगना ॥ अनर्घ्यभूषणोद्दीप्रा | नीरंगी स्थगितानना ॥ ए ॥ प्रादुर्भूय प्रसन्नास्या । रुषिद
४४
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वृत्ति
॥ ३४५ ॥
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शोलोप
॥ ३४६ ॥
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ता महासती ॥ कुमारपादविन्यस्तदृष्टिः संसदमासदत् ॥ १० ॥ कलापकं ॥ पतिव्रते जयजये -त्याशीर्वादपुरस्सरं ॥ पुष्पवृष्टिं तदा चक्रु-स्तन्मूर्ध्नि त्रिदशाः ॥ ११ ॥ रूपेण रुfruit दासीं । कुर्वाणां वीक्ष्य तां तदा !! प्रशशंसुः कुमारस्य । तस्यां रागाग्रहं जनाः ॥ || १२ | कौबेरीपतिरप्येतां । जामातुर्जीवनौषधं ॥ विलोक्य सहसा हृष्टः । समुइ श्व कौमुदीं ॥ १३ ॥ कुमारसहितामेता-मश्रारोप्य करीश्वरे || नीत्वा स्वसौधे स्नानाद्यैः । सच्चकार सगौरवं ॥ १४ ॥ विलूननासिकां छिन्न- कर्णयुग्मां नृपस्तदा ॥ विमंव्य बहुधा देशा-सुलसां निश्वासयत् || १५ || स्वीयां च पुत्रिकां गाढं । रूक्षाक्षरमतर्जयत् ॥ तत्रैव स्थापितस्तेन । कुमारश्च कियच्चिरं ॥ १६ ॥
अन्यदा कुमरोऽवादी - सशोक इव वल्लनां ॥ त्वत्पदे प्रहितो दंत । दुःखमास्ते सुहृमम ॥ १७ ॥ स्मेरमृषिदत्ताद । मा विषीद दयानिधे ॥ मयैव विदितं सर्व-मिदमौषधियोगतः ॥ १८ ॥ किंतु मे तं वरं देहि । तदानीं यः प्रतिश्रुतः ॥ प्रसीद नाथ जामिं मे । पमामिव रुक्मिणीं ॥ १७ ॥ अहो विवेकिनी तस्या-मप्यसौ करुणावती ॥ एवमस्ति
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वृत्ति
॥ ३४६ ॥
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शीलोप
॥ ३४७ ॥
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तामाद | कुमारः सुकुमारगीः ॥ २० ॥ इति तद्दचसा हृष्टा । तामादूय पतिव्रता || नः समक्ष मंदाक्ष- मनमद्रुक्मिणीं च सा ॥ २१ ॥ सोऽश्र श्वसुरमापृष्ठ्य । दयिताभ्यां समन्वि तः ॥ जगाम स्वपुरं प्रीति - रतियामिव मन्मथः ॥ २२ ॥ पित्राऽप्यन्युतः प्रीत्या | कु. मारः प्राविशत्पुरी || नारीनेत्रोत्पलश्रेण्या । सपुष्पप्रकरामिव ॥ २३ ॥ ज्ञातोदतो नरेंशेऽय । स्वापराधेन लज्जितः ॥ सतीचूकामसिं काम-मृषिदत्ताममन्यत ॥ २४ ॥ निवेश्य कनकरश्रम राज्ये जितेंयिः ॥ व्रतं गृहीत्वा श्रीमज्ञ-चार्यपार्श्वे शिवं गतः ॥ २५ ॥ पालयन्नथ कनक-रथः पृथ्वीपतिः प्रजां ॥ क्रमेण शषिदत्तायां । लेजे सिंहरथं सुतं ॥ २६ ॥ वातायनस्थितोऽन्येद्यु-ईषिदत्तान्वितो नृपः ॥ प्राप वैराग्यमालोक्य | घनवृंदं विनश्वरं ॥ २७ ॥
यशः सूरि--मुधाने च समागतं ॥ श्राकर्ण्य सपरीवारो । नमस्कर्त्तुं गतो नृपः ॥ २८ ॥
श्रुत्वा तद्देशनां मोह-नाशिनीमृषिदत्तया । विज्ञप्तः श्रीगुरुर्ज्ञानी । कुद्मलीकृतहस्तया ॥ २७ ॥ किं मया जगवंश्चक्रे । पूर्वजन्मनि दुःकृतं ॥ राक्षसीति कलंको य-दसद्भूतोऽयमापतत् ॥ ३० ॥ अथ ज्ञानदृशोवाच । गुरुगंजीरया गिरा । नये गंगापुरं नाम । पुरमत्रै
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वृत्ति
॥ ३४७ ॥
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शोलोप व नारते ॥३१॥ गंगदत्तानिधस्तत्र । राजा गंगेति तत्प्रिया ॥ गंगसेनाख्यया पुत्री । त्वं वृत्ति
3. सुशीलाऽनवस्तयोः ॥ ३२ ॥ तत्र चंश्यशा साध्वी । तत्पाचे नवती पुनः ॥ ज्ञात्वा धर्म॥३॥ मवज्ञासी-तृणवहिषयान्खलान् ॥३॥ तदा तु व्रतिनी संगा-ऽनिधा काचित्तपस्यति ।। तां चर मस्तौति जनः सर्वः । सदा दुःकरकारिणी ॥ ३४ ॥ त्वं तु मत्सरतोऽतुबां । तस्याः श्लाघाम
सासहिः ॥ अन्याख्यानमिति प्रादा-न्मत्सरे का विवेकता ॥ ३५ ॥ निस्संगा यदिय संगा। दिवसे तप्यते तपः॥रात्रौ तु असते यातु-धानीव मृतकामिषं ॥ ३६॥ सापि प्रशमपीयूषयुता तपति सत्तपः॥ कर्मबंधस्ततो वत्से । त्वयाऽयं समुपायंत ॥ ३७॥ अनासोचिततकर्म-विपाकेन नवावली ॥ ब्रांत्वा गंगापुरे नूय-स्त्वं राजतनयाऽनवः ॥ ३० ॥ जिनदी. दामादाय । कृत्वा च कपटात्तपः॥ ईशानेश्कलत्रत्वं । प्राप्ताऽनशनमृत्युना ॥ ३५ ॥ ततव्युत्वा हरिषेण-नरेंऽस्य सुताऽनवः । प्राचीनकर्मलेशाच्च । कलंकोऽयमजायत ॥ ४०॥ ॥॥ व वचनमात्रेण । कर्म यदुपार्जितं ॥ तस्मान छुटति प्राणी । नवांतरशतैरपि ॥ १॥ श्रुत्वा वैराग्यकल्पद्रु-नंदनोर्वीमिमां गिरं ॥ जातजातिस्मृतिः सापि । तदशेषमबुध्यत ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥ण
॥ ४२ ॥ झषिदनापि तत्कर्म-नीता सूरीन व्यजिज्ञपत् ॥ दत्त मे नगवंतो शक् । दीक्षा सं- सारतारिणी ॥४३॥
तहिज्ञाय नरेंशेऽपि । विशेषेण विरागवान् ॥ गुरुमन्यर्थयामास । दीक्षार्थ रचितांजलिः ॥ ४ ॥ गुरुरप्याह पुण्यार्थे । युज्यते न विलंबितुं । अस्मिन्नसारे संसारे । फलं खलु तपःक्रिया ॥ ४५ ॥ अथ सिंहरथं पुत्र-मनिषिच्य निजे पदे ॥ सन्मती दंपती दीक्षामाददाते तदंतिके ॥ ४६ ।। खजधारावदत्युग्रं । चरणाचरणाहतौ ॥ मायया वर्जितं शुई। चेरतुस्तौ तपोविधिं ॥ ७॥ इतः शीतलतीर्थेश-जन्मना पावनीकृतं ॥ श्रीनहिलपुरं प्राप्तावन्यदा गुरुन्निः सह ॥ ४ ॥ समूलं तत्र निर्मूल्य । कर्मकुंजं करेणुवत् ॥ विशुध्यानसंतत्या । केवलज्ञानमापतुः ।। ४ए ॥ क्रमेण पर्यस्तसमस्तकर्म-कलंकलेशं शशिनः कलेव । तत्केवलिइंघमनिंद्यवृत्तं । शिवोतमांगस्थितिमाप युक्तं ॥ ५ ॥ ॥इति श्रीरुपल्लीयगजे श्रीसंघतिलकमूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां शषिदत्ताकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ।
॥३४णा
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शोलोप
11840 11
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अथ श्रीदवदंतकथा प्रारभ्यते
अस्ति स्वीकृतसः धर्म- कौशला कोशलापुरी ॥ प्रयत्नाऽादर्शतां याति । यद्दमः सुरयोषितां ॥ १ ॥ तत्राऽरिनारीश्रृंगार - निषेधी निषेधो नृपः ॥ यत्खयष्टिः श्यामापि । प्रसूते विमलं यशः ॥ २ ॥ लावण्यसुंदरी तस्य । प्रिया लावण्यसुंदरी ॥ काष्टतां कलयामास । वल्लकी यङ्गिरा जिता ॥ ३ ॥ तयोः सूनुरनूज्ज्येष्टो । वैरिदावानलो नलः ॥ लघुस्तु सुदुराचारः | कूबरो दुर्मदाशयः ॥ ४ ॥ इतो वैदर्भदेशश्री - मंडने कुंकिने पुरे ॥ निःसीमविक्रमो जीम - नूपतिः शास्ति मेदिनीं ॥ ५ ॥ तत्प्रिया पुष्पदताख्या । श्वेते स्वप्न सूचितां || प्रासूत - मये पुत्र | लक्ष्मीरिव विदग्धतां ॥ ६ ॥ पूर्वकर्मानुज्ञावेन । तन्नालस्थलमंरुनं ॥ नदयाविवादित्य - स्तिलकः सहनूरभूत् ॥ ७ ॥ षष्टीजागरसूर्यैदु - दर्शनादेरनंतरं ॥ दवदंतीति नामाऽनूत् । तस्याः स्वप्नानुसारतः ॥ ८ ॥ विमातरोऽपि तां चंच-चाटुचपुटिकादिनिः ॥ स्वजावसुगां बालां । हासयं तिस्म लीलया ॥ ए ॥ रिंखंती क्रमतः पाद - कवरान्मधुरनूपुरा ॥ चचाला स्खलितैर्धात्र्या । अवलंव्य प्रदेशिनीं ॥ १० ॥ श्रीमतां वनिता जानो -रुपरि न्य
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वृत्ति
॥ ३५० ॥
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शीलोप०
वृत्ति
॥५१॥
स्य दर्षतः ॥ कंपयंत्यः शनैरेनां । दोंदोमिछमनीनृतन् ॥ ११ ॥ जाग्रत्सौलाग्यसौरच्या- तिक्रांता शैशवी दशां ॥ सा जग्राह कलाः सर्वाः । सिंधुः शैवलिनीरिव ॥१॥
अन्यदा प्रतिमां हैमी । श्रीशांते विनोऽहंतः॥ वितीर्य निर्वृतिर्देवी । दवदंतीमदोऽवदत् ॥ १३ ॥ नवत्या पूजनीयेयं । नित्यं कल्याणकारिणी ॥ सापि तां गृहचैत्यांत-हृदीव निदधे मुदा ॥ १४ ॥ नीमजा कामनूमीश-पत्तनं प्राप यौवनं ॥ तत्र क्रमेणाऽवत । सवांगसुन्नगाः श्रियः ॥ १५ ॥ जितो मुखश्रिया तस्याः । शशी जातः पिशाचकी॥ तेनाद्या. पि ध्रुवं नूत-पतिमेष निषेवते ॥ १६ ॥ अनुरूपवराऽप्राप्त्योः । सा पित्रोश्चितया समं ॥ व. ईमानातिचक्राम । वर्षाण्यष्टादश क्रमात् ॥ १७ ॥ ततोऽमात्यैरनुज्ञातः। श्रीनीमरथनूपतिः ॥ स्वयंवरं समारने । सुताया वरलिप्सया ॥ १७ ॥ तत्र दूतैरथादूताः । पुरुहूतसमश्रियः ।। समीयुः पृथिवीपाला । मराला इव मानसे ॥ १९ ॥ तदा दूतेन विज्ञप्तो। निषधोऽपि धरा- धवः ॥ नलकूबरपुत्रान्यां । मंमितो तमागमत् ॥ २० ॥ नीमोऽप्यपारसत्कार-सारानावासमंझपान ॥ सर्वेषामर्पयामास । स वासवसमृझिनृत् ॥ २१ ॥ नलं विलोक्य कंदर्प--
॥३५१ ।।
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शोलोप
॥ ३५२ ॥
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सं कुंडिनवासिनः । नूपालान् कलयामासुः । शेषान् पोटगलानिव ॥ २२ ॥
अथ हेममयस्तंन-शतं सिंहासनान्वितं ॥ नीलाश्मकुट्टिमं वज्र - बसोपानपंक्तिकं ॥ ॥ २३ ॥ शिल्पिनः कल्पयामास । श्रीमान् जीममहीपतिः । सुधर्मायाः सघर्माणं । श्रीस्वयंवरमंरुपं ॥ २४ ॥ बभुः स्तंनेषु पांचालय - स्तत्र सर्वागभूषिताः ॥ सुरांगना इव प्राप्ता
कौतुक दिया ॥ २५ ॥ अथ रत्नान्युपादातुं । जीमजाऽलंक्रियेनुया ॥ अन्यर्थित इव मापैः । सूर्यो रत्नाकरेऽविशत् ॥ २६ ॥ न हि लप्स्यामदे दृष्टु-मपि जीमभुवं वयं ॥ इतीव श्यामतां ज्ञेजुः । स्थावरा नृतस्तदा ॥ २७ ॥ अथ राज्ञस्तदाकर्ण्य । मिलितांस्तत्र भूरिशः ॥ सुधावर्ण्यपि राजाऽागा - ताराहारैरलंकृतः ॥ २८ ॥ दिष्टया प्रज्ञाते दृष्टव्या । दृष्टया - स्माद्भिर्विदर्द्धजा ॥ ध्यायतामिति नूपानां । निश रुष्टेव नाडाययौ ॥ २७ ॥ श्रमुच्यमानाऽलंकार - तेजोनिवि हीलिता | सूर्पणखेव रामेण । डुतं रात्रिः पलायिता ॥ ३० ॥
दवदंत्या मुखस्याग्रे | मंडितस्य विभूषणैः ॥ लज्जिष्ये निर्वसुः प्रात- रितीवेंडुः पलायितः || ३१ || अभ्यर्थितेनेव मही-नृनिर्नामसनानिनिः ॥ स्वशीर्षे दर्शितं सूर्य-मंडलं पू
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शीलोप
॥ ३५३ ॥
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नृता ॥ ३२ ॥ नदिते च सहस्रांशौ । पद्मानीव जलाशये || राजन्यकमुखांनोज-श्रेणी स्मेरत्वमासदत् ॥ ३३ ॥ अनर्घ्यवस्त्रालंकारैः | सर्वागीण विभूषिताः ॥ घावंतिस्म महीपालाः । सत्वरं मंडपंप्रति ॥ ३४ ॥ रत्नसिंहासनासीना | मंचेषु व्यरुचन्नृपाः ॥ कौतुकादिव संप्राप्ता । निखिलद्दीपपूषणः ॥ ३५ ॥ श्रथैौचित्यतया क्लृप्ता - डाकल्पौ कल्पतरू इव ॥ स्वकुमारौ पुरस्कृत्य । कुमाराविव नाकिनां ॥ ३६ ॥ प्रातः कृत्यानि निर्माय । बंदिनिर्घुष्टमंगलैः ॥ गत्वा स्वयंवरे मंच - मारोदन्निषधाधिपः ॥ ३७ ॥ युग्मं || इइत्यपरलोकश्री- पुंजाविव तदंगजौ ॥ विलोक्य जैम्यां नूपानां । निराशमभवन्मनः ॥ ३८ ॥ विशेषेण कलापुंज - मिव वीक्ष्य नलं नृपाः || स्वस्यापि विस्मरंतिस्म । विवादाशास्तु दूरतः ॥ ३७ ॥ अथ प्रसाधयामासु - रनवद्याः पुरंध्रयः ॥ स्वयंवरं समानेतुं । दवदंतीमनेकधा ॥ ४० ॥ पादयोः शुशु
तस्याः । सरसो यावकश्वः ॥ अनुराग इव कोणी-भुंजां लग्नोऽयमंगवान् ॥ ४१ ॥ प्रशस्तिरिव कंदर्प - भूमिपालस्य जाग्रती ॥ कपोल योर्बजौ तस्याः । कस्तूरीपत्रवल्लरी ॥ ४२ ॥ रराज जूट तस्या । मल्लिकामाख्यमुज्ज्वलं ॥ नक्षत्राणीव संप्रापु-र्मुखचंदमिवासितुं ॥ ४३ ॥
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वृत्ति
॥ ३५३ ॥
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शोलोप
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कर्णयोः कुंरुले तस्या । रत्नोन्मिश्रे रराजतुः ॥ स्वर्णाणुजयसंभ्रांतौ । चंदसूर्याविवागतौ ॥ ॥ ४४ ॥ नेत्रयोरांजनी रेखा । रेजे भृंगीव पद्मयोः || कल्लोलाविव गंगाया । वस्त्रे च परिधापिते || ४५ || मंमिता दृष्टचेटीनि-मरीनिरिवाजिनी ॥ वज्रमौक्तिकवै सूर्य - प्रायभूषणभूषिता ॥ ४६ ॥
श्रथेोलूलुस गर्नानि-गयतीतिः पुरंध्रीनिः ॥ श्वेतातपत्र संबन्ना । परितो धूतचामरा ॥ || ४७ || नरयाना स्रज्ञा युक्ता । स्मरपाशायमानया ॥ स्वयंवरमवातारी -कुमारी श्रीरिवांगिनी ॥ ४८ ॥ चंश्लेखामिवोद्वीक्ष्य । जैमीं भूमीशसागराः ॥ संक्षुत्र्य विविधाश्चक्रु-वे
शृंगारदीपिकाः || ४ || वेत्रित्यथ पुरोद्भूता । जारतीय वपुष्मती | वंशशौर्यनयाचारान् । वर्णयामास सूनृतां ॥ ५० ॥ सोऽयमंगपतिश्चंग - कीर्त्तिपूरितनूतलः ॥ यदंग विजितः काम - मनंगोऽनंगतां गतः ॥ ५१ ॥ देव्ययं मगधाधीशो । धामधामप्रनानिधिः ॥ कलेिंगेशोऽयमुल्लास-दारतारयशोन्नरः ॥ ५२ ॥ श्रमी च लाटकर्णाट- मेदपाटनरेश्वराः ॥ उत्तरोनरतेजः श्री - शौर्यगांनीर्यभूषिताः || ५३ ॥ हंसीमिव स्थालाजेषु । दृष्ट्वा तां तेष्वनादृतां ॥
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वृत्ति
॥ ३५४ ॥
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शीलोप
॥ ३५५॥
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प्रतीहारी पुनः प्राह । सानंद जीमनंदिनीं ॥ ५४ ॥ पुरोऽयं निषधाधीशो | देवि दैवतवैजवः || दस्राविव सुतावेता - वमुष्य नलकूबरौ ॥ ५५ ॥ दृष्टिः पुष्पंधयीवास्या । भ्रमंती राजकानने ॥ पुन्नाग इव पुन्नागे । नले चिरमरज्यत || ६ || नचच्चरोमांचा | चेतस्येवमचिंतयत् ।। श्लाघ्यो नृपेष्वयं नूनं । कल्पदुरिव शाखिषु ॥ ५७ ॥ धात्रा स्वसृष्टिसर्वस्व - मयमेव कृतो ध्रुवं । अन्वसुं सर्वभूपाला । माणिक्यानीव कौस्तुभ्रं ॥ ५८ ॥ ततो नलगले दिप्ता । सवेपथुतया तया ॥ सुमेराविव ताराली । वरमाला व्यराजत ॥ ५५ ॥ वृतेऽथ तस्मिन् वैदर्ज्या । सस्पर्द्धान्नृपतीन्नलः । रुरोध शत्रून्नाराच - वृष्टयवग्रहमंडलः ॥ ६० ॥
ततो निषधीमायां । प्रीताभ्यां च परस्परं ॥ कारितो नलवैदयों वैवाहिकमहोत्सेवः ॥ ६१ ॥ अन्योऽन्यं हस्तसंयोगे । पाणिग्रहणपर्वणि । तदैक्यमिव तच्चिते । प्रापतुः स्वेदः || ६ || दक्षिणीकृते वह्नौ । पाणिमोचनपर्वणि ॥ नलाय रत्नाश्वेनादि । ददौ जीमरो नृपः ।। ६३ ।। अथ पुत्रवधूयुक्तं । प्रस्थितं कोशलान्प्रति ॥ अन्वगान्निषधं जीमो । मामिव मंगलः ॥ ६४ ॥ पतिते व्यसनेऽपि त्वं । नूयाः पत्यनुगामिनी ॥ अनुशास्य सु
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वृत्ति
॥ ३५५॥
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शोलोप:
॥ ३५६ ॥
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तामि । कुंडिनेशो न्यवर्त्तत ॥ ६५ ॥ शिक्षां शिखामिवाधाय । सती पितुरुदीरितां ॥ नसस्यंदनमारूढा । नवोढा त्रपया नता ॥ ६६ ॥ नवोढाविभ्रमप्रेक्षा - स्फुरत्कुतूहलो नलः ॥ कापथे चालयामास । रथं सारथिना तदा ॥ ६७ ॥ अथ प्रसिधवृक्षादि-प्रभकेतवतः पथि ॥ लज्जां शिथिलयामास । मुग्धाया धूर्त्तवल्लनः ॥ ६८ ॥ नलं सरागमाशंक्य । स्पईयेव रविस्तदा ॥ अनुरागवत संध्या -- मालिलिंगानुरागवान् ॥ ६९ ॥ सखीव घूर्चा वैदर्भ्याः । संध्या लज्जामपाकरोत् ॥ चित्रं विकाशमापञ्च । तदा नलमुखांबुजं ॥ ७० ॥ वात्सायनोक्तयुक्तिनि -स्तां नवोत्रियौवनां ॥ नैत्रवो रमयामास । माधवीमिव माधवः ॥ ७१ ॥ अथधकारप्राचुर्ये । दृष्ट्वा सैन्यं तत्पतत् ॥ प्रियां प्राह नलः सुप्तां । मा स्वाप्तीदेवि जागृहि ॥ ७२ ॥ प्रिये तमोऽपनोदाय । तिलकं प्रकटी कुरु ॥ तमथोत्तेजयामास । जालमुन्मृज्य जीमजा ॥ || १३ || आदित्यस्येव दीप्रेण । दंपती तस्य तेजसा । प्रतिमास्थितमग्रेऽथ । मुनिमेकमपश्यतां ॥ ७४ ॥ गंडकंडूत्यपाकृत्यै । घृष्टं काननकुंजिना || मनिमरैर्ज्ञात्वा । समदं चा
नमन्नलः ॥ ७५ ॥
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वृत्ति
॥ ३५६ ॥
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शीलोप
॥ ३५७ ॥
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तदा विज्ञातवृत्तांता-स्तं नंतुं निषधादयः ॥ सर्वे समेत्य तेनोक्तां । शुश्रुवुर्धर्मदेशनां ॥ ॥ ७६ ॥ प्रणम्य देशनांते च । जैमीतिलकदेतुतां ॥ नलः प्रांजलिरप्राही - तमाह ज्ञानवानपि ॥ ७७ ॥ असौ व्यधत्त तीर्थेशा-नुद्दिश्य प्राग्नवे तपः ॥ तदुद्यापनके रत्न - तिलकान् प्रददौ सती ॥ ७८ ॥ तेनास्यास्तिलको जाले । जातो मार्तंडखंमवत् ॥ क्रमेण सर्वकल्याणनाजनं च भविष्यति ॥ ७९ ॥ श्रुत्वेत्यमृतसघ्रीचीं । वाचमानंदमेडुराः ॥ प्रापुः स्वराजधा
शकू । पौरैः क्लृप्तोरुमंगलां ॥ ८० ॥ नलो नवाजिः क्रीडानिः । क्रीमन्नत्रीममानसः ॥ दीनव दिनांश्चक्रे । कणदाः कदा इव ॥ ८१ ॥ नले निवेश्य साम्राज्यं । यौवराज्यं च कूबरे || निषेधो व्रतमादाय । देवनूवमथाश्रयत् ॥ ८२ ॥ त्रिवर्गसाधनव्यग्रः । सती सहचरीयुतः ॥ श्रीनलः पालयामास । चिरं राज्यमनंगुरं ॥ ८३ ॥ क्रमेण साधयामास । जरता - ई बस नलः ॥ निषेकं पुनश्चक्रू - राजानोऽस्य दरेरिव ॥ ८४ ॥ ताज्यकामुकः क्रूरः । क्रूबरः कुटिलाशयः ॥ गोमायुरिव सिंहस्य । नित्यं रंध्राणि वीक्षते ॥ ८५ ॥ नवस्तु निर्मलस्वतः । सह तेनैव बंधुना ॥ चक्रे दुरोदरक्रीकां । सतां व्रीमाविधायिनीं ॥ ८६ ॥ अन्यदा बं
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वृत्ति
॥ ३५७ ॥
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शोलोप धमोक्षादि-विदोऽपि नलनूपतेः ॥ विरुपातिनो जाता । अक्षा विषयिणामिव ॥ ७॥ ग्रा- वृत्ति
3. माकरपुरादीनि । श्रीनलो दारयन्नपि ॥ विरराम न च द्यूतात् । पिपोलक वैदवात् ॥॥4 ॥३५॥ तादृक्कदाग्रहे लग्नं । पति मत्वा विषादिनी ॥ जीमजा स्वयमन्येत्य । समाधुर्यमदाऽवदत् ॥
॥ ए॥ किं द्यूतव्यसनं तेऽद्य । महेंइसमवैनव ॥ स्वाधीने पयसि स्वामिन् । कांजिके रमते नु कः॥ ए॥ मा कुर्याः कूबरायत्ता-मिमां भुवमनिंदित ॥ बकप्रवेशे जानीघे । याद. सां का गतिनवेत् ॥ १॥
इत्याप्तपुरुषै राजा । नीमेनापि निवारितः ॥ न न्यवर्नत किं रुष्टे । दैवे स्यात्प्राणिनां मतिः॥ ए ॥ क्रमेण हारयन दैवात् । स देहान्नरणान्यपि ॥ शनैः सहावरोधेन । नीमजामप्यहारयत् ।। ए३ । सानंदः कूबरः प्राह । भ्रातर्मुच महीं मम॥ ततो नलोऽपि वस्त्रैक-धारी निरगमत्पुरात् ॥ एच ॥ नवाच कूबरः स्वैरं । नैमी नत्रनुयायिनी ॥ जितासि नरे मायासी-मम शुतमाश्रय || ए५ ॥ पौराऽमात्यैरथाऽन्यर्थ्य । रथमारोप्य नीमजा ॥ प्रहिता श्रीनलेनापि । रथः पश्चान्यवर्त्यत ॥ ए६ ॥ पृछ्यमाना चेव्यादि-वर्ग श्रीनी
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शीलोप
वृत्ति
॥३५॥
मजा तदा ॥ वनावलीमिव प्रावृट् । कस्याई नाऽकरोन्मनः ॥ ए७ ॥ हा विधे चेत्पुरापीई। चिकीयं तवाऽन्नवत् ॥ तर्हि किं विदधे क्रूर । श्रीनलो नरताईनाक् ॥ एज् ॥ यां सती शापशकीव । पस्पर्श न करै रविः ॥ सा कथं पादचारेण । नैमी नूमिमन्निव्रजेत् ॥एए धिगमुं कूबरं क्रूरं । योऽनयोरिबमाचरत् ।। नन्नेरुमध्ये नगर-मिति पौरगिरस्तदा ॥ १० ॥ पौराऽमात्यादिन्निर्याना-न्युपानीतानि नूरिशः ॥ न जग्राह नलः स्वात्मा-धारा एव हि दोतृतः॥१॥ अनुव्रज्यापरान वृक्षा-मात्यपौरान कथंचन ॥ कष्ट निवर्तयामास । नैषधिः सैष धीनिधिः॥२॥ दवदंतीव पद्मापि । जाता नूनं नलानुगा॥ निःश्रीकं तत्पुरं जज्ञे। तदानीं कश्रमन्यथा ॥ ३ ॥ तत्तद्यानचारुत्वं । दर्शयन् गजदाकरं ॥ श्रांतामपि प्रियां नूपो। मंद मंदमचालयत् ॥ ४॥ न तथा मुमुदे नैमी । पूर्वमातपवारणैः॥ यथा पटांचले मूर्ध्नि । स्वयं पत्या धृते तदा ॥५॥ स्वेदिनी वीजयन् पत्रैः। श्रांतां संवाहयन पदोः॥ पि- पासुं पाययामास । तां पयः पद्मिनीपुटैः ॥ ६॥ अथ सत्त्वमवष्टन्य । श्रांतामपि कदाचन ॥ पादसंवाहिनी नैमी। वारयामास पार्थिवः ॥ ७॥ जायापती फलाहारै-मध्यं दिनमती
॥३५॥
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झालोप
॥ ३६० ॥
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त्यतौ ॥ सायं लतागृहे क्वापि । श्रितौ रात्रिमतीयतुः ॥ ८ ॥ तिग्मन्नानुकरत्रस्तै- रंधकारैरिवाश्रितां ॥ सांइडुमामरण्यानी-मन्यदा तावुपेयतुः ॥ ए ॥ ततः कांतारकासारे । नैमीं धौतपदो नलः ॥ दृष्ट्वा म्लानमुखीं कांता-मंतश्चित्तमचिंतयत् ॥ १० ॥ क्वेयं प्रवालसोमाar | क्व मार्गा दुःखवीचयः ॥ पुष्पैरुन्नतशोनैव । न तु स्यातामुपानदौ ॥ ११ ॥ विश्रा माय ततो भूमिपतिः कंकेलिपल्लवैः ॥ क्वचिचिलातले रम्ये ऽनल्पं तब्पमकल्पयत् ||१२|| मा दूयतां वपुया । वृतैरितिधियानलः ॥ तत्तल्पं स्वोत्तरीयेला - वादयामा सिवानसौ ॥१३॥ परमेष्टिनमस्कारं । समुच्चार्य च जंपती || स्वैरं सुषुपतुर्मार्ग-श्रांती श्लिष्टभुजालतौ ॥ १४ ॥ अथ तन्मार्गडुःखेन । नलोऽनल इव ज्वलन् ॥ तत्कालं हिंस्रसंसर्गादिव क्रूरमचिंतयत् || १५ || कथं देवीसखः पारं । गंता मार्गमहोदधेः ॥ स्त्रियो हि स्वैरचारस्य । शृंखला व सर्वदा ॥ १६ ॥ तदिमां शयितामेव । परित्यज्य व्रजाम्यहं ॥ प्रातर्यायादियं वेश्म । पितुर्वा देवरस्य वा ॥ १७ ॥ नाविजर्तृवियोगार्त्ति - दूत्येव छन्नमाप्तया ॥ वैदर्भ्यां लोचने तावनिया मुदिते रयात् ॥ १८ ॥ ततो मंदं परिरंभ - मुशमुन्मुश्यन्नयं ॥ जैमी भुजलता श्लिष्ट
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वृत्ति
॥ ३६० ॥
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शीलोप
।। ३६१ ।।
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माचकर्ष निजं भुजं ॥ १९ ॥ त्वं चिंतय नलं मुग्धे ऽमुं च चांडालचेष्टिनं ॥ यस्त्वामेकाकिन सुप्तां । विश्वस्तां त्यक्तुमिच्छति ॥ २० ॥ हा दैवाऽनुचितं कर्म । मम किं कारयस्यदः ॥ न लज्जितोऽसि कतक्याः । कुर्वाणोऽमेध्यदोहदं ॥ २१ ॥ अथ वस्त्रांचलं नैम्या- डाक्रांतं नेतुमना नलः ॥ श्रादाय च्छुरिकां हस्ते । दध्यावश्रुप्लुताननः ॥ २२ ॥ दहा भुज महानाग | व्यापृतोऽस्याः करग्रहे ॥ त्वमेव चास्याः सर्वाग - संजोगप्रमितातिथिः ॥ २३ ॥ तत्किं दfarmer जो । दाक्षिण्यमपि नास्ति ते ॥ या निस्त्रिंशजातीय-संगाच्च करुणा व ते |२४|
इति वा गलद्वाष्पः | स्वस्य चेलांचलं नलः ॥ निजासृजा पटप्रांते । वर्णानीति लि लेख च ॥ २५ || वामचु वामतः पंथा । वटैः कुंकिनगामुकः ॥ किंशुकैर्दचिणेनायं । कोशलामुपतिष्ठते ॥ २६ ॥ यत्र ते रोचते तत्र । गंतव्यं गजगामिनि ॥ अहं तु स्वमुखं कापि । नैव दर्शयितुं कमः || २७ || लिखित्वेति नलोऽचाली - मूढःखतया रुदन् ॥ मुहुर्मुहुर्वलित्वा- पश्यद्वैमीमुखांबुजं ॥ २८ ॥ हा विधे चेत्त्वया जैमी । सृष्टा सर्वातिशायिनी ॥ तत्किं दुःखीकृता स्वोप्ता । न बेद्या हि बदर्यपि ॥ २७ ॥ प्रसद्य मयि शृएवंतु । सर्वाः काननदेव
४६
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वृत्ति
।। ३६१ ॥
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वृत्ति
हालोपताः ॥ तथा कार्य यथा मार्ग । वेत्त्यसौ निरुपश्वा ॥ ३० ॥ इत्यावेद्य पुनर्जायां । पश्यन्
वलितकंधरः ॥ तावतो नलो यावद् । द्रुमैरागाददृश्यतां ॥ ३१ ॥ वन्यहिंस्रनवोऽमुष्या। ॥३६॥ मानूः कश्चिपश्वः ॥ व्यावृत्येति नलस्तस्था-वेनां पश्यन लतांतरे ॥३२॥ कथं न लस्म
तां यासि । हा पुरात्मनऽलं नल ॥ श्चमेकाकिनी यस्य । प्रिया शेते वनांतरे ॥ ३३ ॥ एवं विमृशतस्तस्य । विरराम विन्नावरी॥ विलीनमिव तत्सर्वं । तमो नलमनोंतरे ॥ ३४ ॥ जगन्मित्रमयोदीय-मानं विज्ञाय साश्रुदृक् ॥ नलो गचन् पुरो ज्वाला-जटिलं वह्निमैवत ॥ ॥३५॥ आक्रंदान दह्यमानानां । श्रृण्वन् वन्यांगिनां नलः॥मानुषीं गिरमश्रौषी-दिति तनिकटं गतः॥३६॥ इक्ष्वाकुकुलपायोधि-चं विश्चैकवत्सल ॥ रद मां नलराजें। दह्यमानं दवाग्निना ॥३॥ तवाक्यमनुदत्तादो। नलो वल्लीवनांतरे॥ भुजंगमेकमशही-त्स धीरमिदमाद च ॥३॥ महानाग कथं नाम | मन्नाम ज्ञायते त्वया। कथं वा मानुषी नाषां। ब्रूषे सर्पोऽपि तं जगौ ॥३॥ महानाग मनुष्योऽह-मनूवं पूर्वजन्मनि ॥ तत्संस्कारवशेनेह । नाषेऽयं मममानवी ॥४॥अवधिज्ञानमप्यस्ति । येनाई सकलं जगत् ॥ करस्थमिव पश्यामि। तदतो रद मां नृ
॥३६॥
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शीलोप प॥४१॥ अहमप्युपकर्तास्मि । तेनेत्युक्तो दयी नलः ॥ अंतर्खतावितानं स्वं । वस्त्रांचलम- वति
Yo लंबयत् ॥ ४२ ॥ तखमममुमाकर्ष-कूपादिव जलं नलः ॥ तमेव चाऽदशत्सर्पः । कृतघ्न इ. ॥३३॥ व सज्जनं ॥ ३ ॥ नलोऽपि पाणिनाबोव्य । नूतले तमपातयत् ॥ कचे च नो विजिह्वेन ।
साध्वेवोपकृतं त्वया ॥ ४५ ॥ तषिव्यापतो नूपो । दृष्ट्वा स्वांगस्य कुब्जतां ॥ सद्यो वैराग्यमापनो । व्रतमादातुमैहत || ५ | दिव्यमूर्तिमथाधाय । भुजंगोऽपि तमाख्यत ॥ तवैवाहं पिता वत्स । निषधस्तहिषीद मा ॥ ४६ ॥ ब्रह्मलोके सुरो जूत्वा । वत्स दीक्षाप्रत्नाव. तः॥ तद् ज्ञात्वा व्यसनं तेऽद्य । प्राप्तोऽत्र माययाऽमुया ॥७॥ त्वहितायैव जानीहि । वै. रूप्यमिदमात्मनः॥ यतस्तेऽनेन रूपेणें । नोपशेष्यंति शत्रवः ॥ ४॥ अद्यापि वत्स नोक्त
व्यं । जरताई त्वयाऽखिलं ॥ समये झापयिष्यामि । दीक्षावसरमप्यहं ॥ ४ ॥ इदं श्री.) र फलमादत्स्व । तमां च करंडिकां ॥ सुगृहीतमिदं कुर्या-इत्स जीवितवत्सदा ॥५०॥ स्व- ॥३६३ ॥
कीयरूपमास्थातुं । वत्साकांदा यदा नवेत् ॥ तदा श्रीफलमुन्मुद्य । दुकूलानि समाकृषः॥ ॥५१ ।। ग्राह्याः करंमिकायाश्च । हाराद्यान्नरणोच्चयाः॥ आमुक्ते च शरीरेऽस्मि-निजं रू
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शोलोप
॥ ३६४ ॥
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पमवाप्स्यसि ॥ ५२ ॥
आदिश्येति इयं तच । दत्वा देवस्तमब्रवीत् । किं ते यियासितं स्थानं । वद वत्स न यामि तत् ॥ ५३ ॥ सुमारपुरे तात । नय मामिति चाऽवदत् ॥ तत्क्षणं तत्पुरद्वारि । स्वधैष्ट नैषधिः || ४ || पुरस्याभिमुखं याव-याति स्मेरमुखो नलः ॥ अंतर्नगरम श्रौषी - तावत्कोलाहलं महत् ॥ ५५ ॥ किमेतदिति संभ्रांतो । यावत्तस्थौ दणं नलः ॥ तावन्मदातरुश्रेणीं । लेष्टुवत्परितः क्षिपन् ॥ ५६ ॥ प्रलयाऽनिलवत्सर्वं । विदधानो विसंस्थुलं ॥ पुरः प्रादुरभूत्तस्य । मत्तदंती कृतांतवत् ॥ ५७ ॥ युग्मं ॥ कस्मिन्नपि तमुन्मसं । स्ववशकर्त्तुमक्षमे ॥ प्रजासंहारमुत्पश्य-नूर्ध्वबाहुर्नृपोऽवदत् ॥ ५८ ॥ जोजोः शृएवंतु यः कश्चि-देनं वश्ययितुं कमः ॥ तस्य निःशेषसंपत्ति- पूरणे प्रज्जवाम्यहं ॥ ५९ ॥ श्रुत्वेति श्रीनलो जाग्रविक्रमोत्कलिकानलः ॥ दधावे गजमुद्दिश्य | पंचास्य इव वेगतः ॥ ६० ॥ मा मा म्रियस्व कुजेति । वार्यमाणोऽपि पुर्जनैः । नलोऽनिलगमाचष्ट । नागमाहत्य लेष्टुना ॥ ६१ ॥ रेरे दुरात्मन् मातंग | मावधीः स्त्रीशिशूनमून ॥ श्रयमप्रेसरस्तेऽहं । मदोन्मायैककैसरी ॥ ६१ ॥
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शीलोप०
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ततः क्रोधांवमुन्मत्तं । धावतं गजनायकं ॥ चिरं स खेलयामास । कुजः कुजगतिक्रमैः ॥ ॥ ६३ ॥ चिरं खिन्नस्य तस्याग्रे । स्वोत्तरीयं स चाऽक्षिपत् । तत्रापि दत्तदंतस्य । स्कंधमस्यारुरोद च ॥ ६४ ॥ सांत्वयित्वा चिरं कुंजे । स्वकरास्फालनादिनिः ॥ दंतावलं नलो निन्ये । तं तदालानमुल्बणं ॥ ६५ ॥ निमृश्य तमसामान्यं । दधिपर्णमहीपतिः ॥ रत्नमालां गलेऽमुष्य । देपयामास सादरं ॥ ६६ ॥ निबध्य गजमालाने । सह पौरजयारवैः || आगत्य द. धिपर्णस्य । समीपेऽसावुपाविशत् ॥ ६७ ॥
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तस्मै दत्वा डुकूलानि । सर्वागानरणानि च ॥ सगौरवमथाऽपृष्ठ - राजा वंशकुलादिकं ॥ ६८ ॥ कुजः प्राद जन्मभूमिः । कोशला मम नूपते ॥ सर्वः स्वजनवर्गोऽपि । तत्रैव देममश्नुते ॥ ६९ ॥ श्रहं च सूपकारोऽस्मि । हुंरुिको नलनूपतेः ॥ तत एव विदामासं । प्रीतितः सकलाः कलाः ॥ ७० ॥ किं चान्यद्रूपते सूर्य - पाकां रसवतीं भूवि ॥ स एव वेति किंचाई । तत्प्रसादान्न चाऽपरः ॥ ७१ ॥ दुर्दैवात्कूबरे बंधौ । सांप्रतं स दुरोदरे । दारथि - त्वा महीं जार्या युक्तः क्वापि गतो मृतः ॥ ७२ ॥ दधिपर्णस्तदाकर्य । स्मरस्तस्य गुणा
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वलीं ॥ नलस्य प्रेतकार्याणि । चक्रे शोकपरायणः ॥ ७३ ॥ सोऽन्यदाऽन्यर्थितो राज्ञा । विद्यां वैवस्वतीं स्मरन् ॥ सद्यो न्यस्यातपे स्थालं | संपूर्ण शालितंडुलैः ॥ ७४ ॥ कृत्वा रसवतीं सूर्य- पाकां मिकरूपकृत् ॥ सर्वेषां जोजयामास । निःशेषरसपेशलां ॥ ७५ ॥ युग्मं ॥ ग्रामपंचशती टंक - लक्षमेकं च नूपतिः । तदाऽदत्त विना ग्रामां- स्तेनापि जगृहेऽखिलं ॥ ॥ ७६ ॥ कुजः प्रोक्तो नरेंई । प्रीतेन पुनरन्यदा || यदन्यदपि ते नष्टं । तद्ग्राह्यं सोऽप्यदोऽवदत् ॥ ७७ ॥ देव यावति नूपीठे | जागर्त्ति तव शासनं ॥ द्यूतं मयं मृगव्यं च । ता
प्रतिषिध्यतां ॥ ७८ ॥ तथैव सर्व तञ्चक्रे । राजा तस्मिन् कृतादरः ॥ तत्रेचं वसतस्तस् । दिनानि सुखमत्यगुः ॥ ७९ ॥ श्रन्येद्युः सरसीतीर-तरुत्रायामुपेयुषः ॥ कश्विद्देशांतरी विप्रः । कुलस्यांते निषेदिवान् ॥ ८० ॥ कुजं सर्वागमालोक्य । सोऽपि कुद्मलितेक्षणः ॥ गीतगोष्टयंतरे स्पष्टं | श्लोकयमिदं जगौ ॥ ८१ ॥
अनार्याणामलज्जानां । दुर्बुद्दीनां दतात्मनां ॥ रेखां मन्ये नलस्यैव । यः सुप्तामत्यजप्रियां ॥ ८२ ॥ विस्रब्धां वनां स्निग्धां । सुप्तामेकाकिनीं वने ॥ त्यक्तुकामोऽपि जातः
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किं । तत्रैव स न जस्मसात् ॥ ८३ ॥ कुजस्ततः साधु गीत - मित्युपश्लोक्य वामवं ॥ कस्त्वं कुतो वा कुत्रायं । नलोदंतश्च शुश्रुवे ॥ ८४ ॥ इति पृष्टोऽवदत्सोऽपि । कुशलाख्योऽस्मि वावः || कुंडिनादागतस्तत्रा - ऽश्रौषं च नलसंकथां ॥ ८५ ॥ विकस्वरमुखांनोजः । पुनः प प्रकुब्जकः ॥ जैमीत्यागावधिर्वार्त्ता । श्रुतेयं शेषमुच्यतां ॥ ८६ ॥ द्विजो; जगाद वैदर्भी । सुप्तां त्यक्त्वा गते नले ॥ ततो विज्ञावरीशेषे । स्वप्नमेवं ददर्श सा ॥ ८७ ॥ यदहं चूतमारूढा । तत्फलान्यादमिया ॥ दंतिनोन्मूलिते तस्मिन् । पतितादं भुवस्तले ॥ ८८ ॥ प्रातः प्रबुद्धा जर्नार-मदृष्ट्वा जीतमानसा ॥ इतस्ततो दृशं क्षिप्त्वा । चेतस्येवमचिंतयत् ॥ ८ ॥ दैव दिवायां । किमद्यापि चिकीर्षसि । यदीदृशीं दशां प्राप्ता । न पश्यामि प्रियं दृशा ॥ ० ॥ मुखं कालयितुं यथा । गतो नूनं सरोवरे ॥ सौजाग्यैकनिधिं तं वा । जहार वनदेवता ॥ १ ॥ किमु वा केलिना क्वापि । लतागुल्मे न्यलीयत ॥ इत्युक्वाय पतिं जैमी । प्रतिवृक्षमलोकत ॥ २ ॥
क्वाऽप्यदृष्ट्वा ततः शोकाद् द्वैधीभूतमना इव || रोदयंती वनं सर्वं । सा रुरोद मुमूर्त
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वृत्ति
॥ ३६० ॥
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च || ३ || प्रथोऽचिरेण संस्मृत्य | स्वप्नस्यार्थमज्जावयत् ॥ सहकारतरुर्योऽयं । स मे समः प्रियः ॥ ७४ ॥ फलानि खलु राज्यश्री - वरणः कूबरः पुनः ॥ यः पातश्च ततः सोऽयं । पत्युर्मे विरो ध्रुवं ॥ एए ॥ इत्यालोच्याऽखिलं कर्म । मन्वाना प्राग्भवं सती ॥ क्वापि दृष्ट्वा पप्रांते । वर्णान् वाचयतिस्म सा ॥ ए६ ॥ दध्यौ चास्मि ध्रुवं तस्य । मानसेऽद्यापि सवत् || यत्स्वयं गमनादेशं । ददौ मे लिखितादरैः || १ || तददं जनकागारं । व्रजिष्यामि वटध्वना || योषितां पतिशून्यानां । पितैव शरणं यतः ॥ ए८ ॥ ततश्चचाल सा तात-गेहमुद्दिश्य जीमजा ॥ जयभ्रांता कुरंगीव | स्मरंती मंत्रवन्नलं ॥ एए || प्रदञ्चदर्जनियि - इक्तपिंजरिक्रमा || अंकितामिव कुर्वाणा । यावकस्तबकैर्भुवं ॥ १०० ॥ स्वेदाईतनुरुत्पाति - धूलिधूसरितोपरि ॥ इंसीव पब्वलस्नाता । जैमी वनमगाइत ॥ १ ॥ अंबिकामिवपारींश | भुजंगा जांगुलीमिव ॥ सिंहोमिव वनेजाश्च । मेनिरे नलगेदिनीं ॥ २ ॥ शीलप्रनावतस्तस्या | व्रजंत्या निर्जने वने || हिंस्रजीवा अपि स्वीय सहायिन इवाऽभवन् ॥ ३ ॥ ध्यायंत्यौपयिकं किंचि-इनोल्लंघनहेतवे ॥ संकटं शकटैर्नैमी । सार्थमेकमथैक्षत ॥ ४ ॥
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॥ ३६८ ॥
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यावदासीन्मनः सुस्थे । तस्याः सार्थस्य दर्शनात् ॥ तावतं रुरुधुचौरा । विषया इव कामकं ॥ ५ ॥ सा तानूईभुजाडाचष्ट । सती रे यात तस्कराः ॥ नालिकेरे शुकस्येव । प्रारंभो निष्फलोऽत्र वः ॥ ६ ॥ सावऊं चरटान साथै । प्रवृत्तानथ लुंटितुं || हुंकारैर्वारयामास । सती मंत्राकरैरिव ॥ ७ ॥ श्रागत्य सपरीवारः । सार्थेशोऽपि महासतीं ॥ कुलेश्वरीमिव प्रेक्षमाणः प्राणमडुच्चकैः ॥ ८ ॥ ऊचे च कासि कल्याणि । भ्रमंती निर्जने वने ॥ अस्माकं पुएययोगेन । कुतो वात्र समेत्री || || साऽप्याख्यदानलद्यूता - सर्वमस्मै स्ववृत्तकं ॥ ज्ञात्वा नलप्रियां सोऽपि । मेने तां जगिनीमिव ॥ १० ॥ पटकुट्यां स्थिता तस्य । मार्ग सुखमलंघयत् ॥ प्रावृट्कालः क्रमादागा- दाहकर्त्ता प्रवासिनां ॥ ११ ॥ शकटेषु निमज्जत्सु । पंके गलिवृषेष्विव ॥ आतपे ध्रियमाणेषु । वृष्टयनावेषु वस्तुषु ॥ १२ ॥ चिरं विलंबमाशंक्य | तत्र सार्थस्य सा सती || सार्थैशमप्यनापृष्ठ्य । निर्गतैकाकिनी ततः ॥ १३ ॥ पुरोऽय दृष्ट्वा दर्शानं । सती दंष्ट्राकरालितं ॥ राक्षसं डुतमायांत - माषिष्ट ससैौष्टवं ॥ १४ ॥ शृणु ज कुतो नीति-मृत्योर्धर्मधियो मम ॥ स्पृशन परकलत्रं मां । किं तु यास्यसि जस्मसात् ॥
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वृत्ति
॥ ३६५॥
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॥ ३७० ॥
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॥ १५ ॥ इति तत्सस्त्र संतुष्टो । राक्षसः प्राह जीमजां ॥ किं तेऽनीष्टं करोमीति । पृष्टा सापितमाख्यत ॥ १६ ॥ वद तर्हि कदा जावी । पत्युर्मम समागमः ॥ सोऽप्याह द्वादशादानां । प्रांते नूनं जविष्यति ॥ १७ ॥ सती प्राह ममानीष्ट-मिदमेव त्वया कृतं ॥ स्वस्ति तेऽस्तु ब्रज स्वैरं । धर्मगृह्यो जवेश्विरं ॥ १८ ॥
दिव्यं रूपमथाधाय | पलादः स तिरोऽभवत् !! जयादाऽनिग्रहान् सापि । तदादीति प्रिया ॥ ११५ ॥ तांबूलं रक्तवस्त्राणि । पुष्पाण्यानरणानि च ॥ विकृतीश्च गृहीष्यामि । नार्वाक् प्रियसमागमात् ॥ २० ॥ क्रमेण कंदरां प्राप्य । गिरेः शाम्बलपादपां || विधाय मृन्मयीं ज्ञाते-र्मूर्त्ति तत्कोणके न्यधात् ॥ २१ ॥ तामर्चयंती पुष्पौघैः । कुर्वाणा च तपःक्रियां ॥ स्वनावपतितैर्वृक्ष - फलैश्व कृतपारणा ॥ २२ ॥ परमेष्टिनमस्कारं । सा स्मरंत्यघमर्षi | एकाकिन्यपि निर्भीका । कियंत कालमत्यगात् ॥ २३ ॥ सार्थनाथोऽप्यनिष्टार्था-दाकया तत्पदानुगः || कंदरांतर्जिनस्यार्चा - पूजिनीं तामलोकयत् ॥ २४ ॥ श्रर्चेयं कस्य देवस्य | सार्थेनेत्युदीरिते ॥ सा प्राह शांतिनाथस्य । पोमशस्य जिनेशितुः ॥ २५ ॥ तयोरालाप
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॥ ३७० ॥
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माकर्य । समीयुस्तत्र तापसाः ॥ ततश्वाची कमी | जिनधर्म सविस्तरं ॥ २६ ॥ वसंतनामा सार्येशत्रुट्यत्कर्मततिस्ततः ॥ जिनधर्ममुरीकृत्य । तस्थौ तत्रैव सार्थयुक् ॥२७॥ निकटाश्रमवास्तव्या । अन्येद्युस्ते तपस्विनः ॥ बभूवुराकुलाः कामं । वृष्टिधारा निरादताः ॥ ॥ २८ ॥ ततस्तान्परितो जैमी । कुंमलं विस्तृतं व्यधात् ॥ ऊचे च यद्यहं जैनो-पासिकास्मि महासत] ||२८|| तन्मा वर्षेतु पाथोदा-स्तेऽपि शंकेतिता इव ॥ तथैव तस्थुर्जाताश्च । तापसास्ते निराकुलाः || ३० ॥ दध्युः सविस्मयास्तेऽथ । नूनं काचन देव्यसौ ॥ स्त्रीरूपेण ततो बु | जैनधर्मं प्रपेदिरे ॥ ३१ ॥
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तत्रैव सार्थपो रम्यं । स्थापयित्वा पुरं महत् ॥ विहारं कारयामास । श्रीशां तेस्तुंगतोरएंणं |! ३२ ॥ यत्र पंचशतीं जैमी । तापसानामबूबुधत् ॥ तत्र प्रसिद्धं तज्जातं । श्री तापसपु. राख्यया ॥ ३३ ॥ तत्राऽायातयशोज - सूरेः पार्श्वे विरागवान् || जग्राह दीक्षां विमल - म तिः कुलपतिस्तदा ॥ ३४ ॥ तस्मादेव गुरोर्ज्ञात्वा । स्वायुः पंचदिनी मितं ॥ नवोदूढः कूबरस्य । तनयः सिंहकेसरी || ३५ || दीक्षामादाय तत्कालं । गिरेः शृंगे स केवली ॥ जातस्त
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वृत्ति
।। ३७१ ।।
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वन
शोलोप महिमा कर्तु-मायातान् वीक्ष्य नाकिनः ॥ ३६ ॥ नैमी च सार्थपस्ते च । तापसास्तत्रिन-
सया ॥ गत्वा गिरिपतेः शृंगं । शश्रुवुस्तस्य देशनां ।। ३७ ॥ कुलकं ॥ महासती सत्यवतीं। ॥३ ॥ धमज्ञा पर
धर्मज्ञां परमाईतां ॥ वैदर्ती कथयामास । केवली तत्पुरस्तदा ॥ ३० ॥ शेषकर्मक्षयात्तत्र ।
केवली मोकमासदत् ॥ यशोनशेऽय वैदा । पृष्टः पूर्वं नवं जगौ ॥ ३५ ॥ प्राग्नवेऽनपत्रलो नई। मम्मणाख्यो महीपतिः ॥ त्वं तस्य वक्षना वीर-मतीनानी प्रियंकरा ॥ ४० ॥
नवद्यामन्यदा क्वापि । गन्यां संमुखो मुनिः ॥ दृष्टः सोऽकुशलं ज्ञात्वा । धृतो हादशनामिकाः॥१॥ कणेन कोपं विस्मृत्य । युवायां कमितो मुनिः ॥ युवयोविरहो जात -स्तेनायं वादशाब्दिकः ॥२॥ तत्र स्थिताया वैदाः । पूजयंत्या जिनेश्वरं ।। अतीयः सप्त वर्षाणि । कारयंत्याः प्रनावनां ॥४३॥ अन्येद्युः कश्चिदन्येत्य । गुदाक्षरे बन्नाण तां॥ वै. दनि त्वत्पतिर्दृष्टो । नातिदूरे मयाऽधुना ॥ ४ ॥ अहं तु शीघ्रं गामि । सार्थो मे न प्रती
ते ॥ श्रुत्वेति नैमी तत्पृष्ट-लमा निपतिता वने ॥१५॥ राक्षसीमन्यदा वीक्ष्य । समायांती महासती ॥ स्तंनयामास रदोवत् । सद्यः शीलप्रत्नावतः ॥ ६ ॥ तृषार्ता शीलमा
॥३७॥
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शीलोप
॥ ३३३ ॥
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दात्म्यात् । पाणिनाऽहत्य नूतलं ॥ श्रविःकृत्य नदीं स्नाता । पपौ च विमलं पयः ॥ ४७ ॥ अन्यदा धनदेवाख्य-सार्थेशेन समं सती ॥ गताऽचलपुरे व्योम - पतितेव स्थिता बहिः ॥४॥ तत्र श्रीतुपर्णाख्य- नूपतेर्जाययाऽथ सा ॥ मातृस्वस्रा चंद्रयशा - नाम्न्याऽनीयत मंदिरे ॥ ॥ ४५ ॥ न ज्ञातेयं सर्वथापि । नाऽङ्गासीत्रलनामिनी ॥ सापि तां बालदृष्टत्वा-नोपालकयदजसा ॥ ५० ॥ पृष्टापि स्वस्वरूपं सा । न च गूढतयाऽवदत् ॥ तथापि तां स्वपुत्रीव-नौरवेण ददर्श सा ॥ ५१ ॥ साथ सत्रे ददौ दानं । मातृस्वसुरनुज्ञया ॥ तत्र पिंगलनामानं । वध्यं चौरममोचयत् ॥ ५२ ॥ वसंत सार्थवाहस्य । सोऽपि नृत्यस्तदाऽवदत् ॥ श्रीतापसपुदेवि । निर्गता जवती यदा ॥ ५३ ॥ सार्थवादस्ततो दुःखी । श्रीयशोज सूरिला ॥ जनैश्व बोधितोऽभुंक्त | सप्ताहादश्रुपूर्णदृक् ॥ ५४ ॥ अन्यदोपायनै रत्न-स्वर्णाद्यैः कूबरं नृपं ॥ संतोष्य तत्पुरस्वामी । राजाऽनुत्सार्थनायकः ॥ ५५ ॥ विधायामुं वसंतं श्री - शेखराख्यं नृपं नृपः । प्राहिणोत्स्वपुरं सोऽपि । समेतस्त्वत्प्रसादतः ॥ ५६ ॥ जगाद जीमजा वत्स । दीक्षामादत्स्व मदिरा ॥ सोऽपि दर्षात्तथा चक्रे । लघुकर्मतया कृती ॥ ५७ ॥
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वृत्ति
॥ ३७३ ॥
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शोलोप
॥ ३७४ ॥
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विप्रोऽथ दरिमित्राख्यः । कुंमिनात्पूर्वसंस्तुतः ॥ समेतो जूपमालोक्य । ययौ चंयशांतिके ॥ ५० ॥ देमं पृष्टस्तया प्राह । सर्वत्र कुशलं स्वसः || नलस्य दवदत्याश्च । चिंतामां बाधते परं ॥ ५० ॥ नलोऽपि कूबरेणादै- दरितः सकलां महीं ॥ निर्गत्य कान क्वापि ! मुक्त्वा जैमीं गतः स्वयं ॥ ६० ॥ तत् श्रुत्वा जीमनूपालः । स्वामिनी पुष्पदंत्यपि ॥ तयोः शुद्ध्यर्थमभ्यर्च्य । प्राहिष्टां मां सुदुःखितौ ॥ ६१ ॥ प्रतिग्रामं प्रतिपुरं । प्रत्यरण्यं मन्नहं ॥ इदानीमत्र संप्राप्तः । शुद्धिर्लेभे न च क्वचित् ॥ ६२ ॥ श्रुत्वेति तस्यामाक्रंद-वत्यां राजकुलं समं ॥ जातं शोकाकुलं स्वामि-गामिनो ह्यनुजीविनः ॥ ६३ ॥ क्षुत्कामकुहिर्विमोऽपि । क्षिप्रं जोजनकांक्षया ॥ दानशालां गतो जैमीं । दृष्ट्वा तत्र सविस्मयः ॥ ६४ ॥ नवोचे नैमि दृष्टासि । चत्वाद्य भुवनं मया ॥ ददा गृहस्थिते रत्ने । मूढो भ्रमति नूतनं ॥ ॥ ६५ ॥ नृपं मातृस्वसारं च । गत्वा विप्रोऽप्यवईषत् ॥ शोकाऽश्रूणि तयोरासं-स्तदाऽानंदाऽश्रुतास्पदे ।। ६६ ।। द्रुतं चंश्या सत्रा-गारमागत्य जीमजां । गाढमालिंग्य तामाह । बलि से वाम्यहं ॥ ६७ ॥ धिग्मां न मूढयाऽज्ञायि । यया त्वं जागिनेय्यपि ॥ वत्से स्व
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॥ ३७४ ॥
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शीलोप
वृत्ति
॥३५॥
गोपनं कृत्वा । वंचिताहं कथं त्वया ॥ ६७ ॥ ततस्तां स्वगृहे नीत्वा-ऽस्नापयकंधवारिनिः॥ - ज्योत्स्नासब्रह्मणीवास्या । दुकूले पर्यदीधपत् ॥६॥ तामालंव्य करे राझी। नूपाऽन्यर्णमु.
पाविशत् || तत्पृष्टा नीमजा प्राह । राज्यभ्रंशादिकां कयां ॥७॥ राजापि मार्जयस्तस्या। बाष्पौघग्लपिताननं ॥ नवाच वत्से कः खेदः। कर्मणां गतिरीशी॥१॥
तस्मिन्नवसरे कश्चि-हिवोऽन्येत्य सुरोत्तमः ॥ सत्नामुद्योतयन् कांत्या । नत्वा नैमीमदोऽवदत् ॥ ३२॥ सोऽहं चौरस्त्वया पूर्व । यस्त्रातः पिंगलानिधः ॥ प्रबोध्य जैनधर्मे च । त्वयैव ग्राहितो व्रतं ॥ ३ ॥ स्मशाने प्रतिमास्थायी। चितान्नवदवाग्निना ॥ दग्धो जातस्त्वत्पन्नावा-सौधर्मेऽहं सुरोत्तमः ॥ ४ ॥ तच्चिराय महादेवि । विजयस्वेत्युदीरयन् ॥ स. तकोटीः सुवर्णस्य । स ववर्ष सन्नांतरे ॥ ३५ ॥ तमस्य फलं सादाद् । दृष्ट्वा नूपोऽपि ह. र्षितः ॥ जैन धर्म प्रपेदेऽथ । हरिमित्रोऽवदन्नृपं ॥ ७६ ॥ स्थिताऽत्र सुचिरं म । प्रेषया- तः पितुहं ।। सेनया सह संवाह्य । नरेंशेऽपि तथाऽकरोत् ॥ ७ ॥ श्रुत्वाऽायांती सुतांनी. म-भूपतिः सप्रियोऽन्यगात् ॥ ननाम पितरं नैमी । हर्षवाष्पजलाविला ॥ ७ ॥ लगित्वा
MECE
॥३७॥
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वृत्ति
झालोपच गले मातुः । साऽरोदीन्मोहमेपुरं ॥ नीमा प्रवेशयामास । ततस्तां समहोत्सव ॥
ए 3 सप्तरात्रोत्सवमांते । राज्ञा पृष्टा नलप्रिया ॥ श्यती स्वकयां कुज । शृण्वतो मम साऽब्रवी. ॥६॥ त् ॥ ७० ॥ सवात्सल्यं पितोवाच । गृहेऽस्माकं सुखं वस ॥ तथा यतिष्यते वत्से । पूर्णा
C नविता यथा ॥ १॥ ग्रामपंचशी राजा । हरिमित्राय दत्तवान् ॥ ऊचे तुष्टो राज्या। दास्ये तुज्यं नलागमे ॥२॥
इतश्च निजकार्येण । दधिपर्णस्य नूपतेः ॥ सुसुमारपुरात्तत्र । गतो दूतो विविक्तधीः ॥ J ॥३॥ अन्यदाऽवसरे क्वापि । सोऽवादीनीमनूभुजं ॥ देव श्रीदधिपीते । प्राप्तोऽस्ति न
लसूपकृत् ॥ सूर्यपाका रसवती । स वेत्ति रसपेशलां ॥ कलाश्चान्या अपि ददो। वि.
दमनादिकाः ॥ ५ ॥ श्रुत्वेति नीमजा कुज । सत्र नीममब्रवीत् ॥ न तां रसवती कपश्चि -नात वेत्तीह तं विना ॥ ६ ॥ गुटिकामंत्रदेवादि-माहात्म्याजोपिताकृतिः ॥ नूनं तवैव
जामाता । स तात निषधात्मजः ॥ ७ ॥ शिहां दत्वा ततो नीमो । मां मंक्षु प्राहिणोदि॥ पृवन पृवंस्ततो नए । तव पावमुपेयिवान् ॥ ७ ॥ प्रेक्ष्य त्वां च विषमात्मा। चिं.
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तयामासिवानहं ॥ केयं मुक्तालवज्रांति-जैम्या अस्थिलवे भवेत् ॥ ८९ ॥ क्व नलस्त्रिदशाकारः । श्रियां पुंज इवांगवान् ॥ क्व त्वं कुजो धनुर्वात-व्याधिमानिव कुत्सितः ॥ ए ॥ क्व कल्पवृक्षः क्वैरंरुः । क्व माणिक्यं क्व वा दृषत् ॥ दृष्ट्वा त्वामथ कुजाऽभूत् । कुजो जैमीमनोरथः ॥ ९१ ॥ हा सर्वा व्यर्थतां प्राप्ता । सा शुजा शकुनावली ॥ न कोऽपि दुःखी जायेत । फलेद्यदि मनीषितं ॥ ९२ ॥ हाहा परीक्षक कथं । दंपत्योरनयोरभूत् ॥ वियोग इति जायां स । स्मृत्वा कुजोऽरुदत्तदा ॥ ए३ ॥ ऊचे च विप्र पूज्योऽसि । वदन पुयामिमां कथां ॥ तदागच्छ मदावासं । सत्कारं विदधामि ते ॥ ए४ ॥ नोजयित्वा सूर्यपा क - रसवत्या निजे गृहे ॥ पूर्वलब्धं ददौ तस्मै । तहंकारणादिकं ॥ ९५ ॥ ततो गत्वा विदयां । जैमीनूमिभुजो पुरः ॥ विप्रो विषादवान् कुज-स्वरूपं तदचीकथत् ॥ ९६ ॥ रम्यां रसवतीं भुक्तां । रोदनं च कथांतरे ॥ टंकलकादिकं सर्वं । कुजदत्तमश्राऽवदत् || ७ || जैमी प्राह ततस्तात । नातः कार्या विकल्पधीः ॥ विज्ञेयः कुजरूपेण । स्वजामातैव स ध्रुवं ॥ ८ ॥ कथंचिदेकदा तात । वामनं तमिहानय ॥ इंगितैर्लक्षयिष्यामि । ध्रुवं नलम
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॥ ३७७ ॥
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॥ ३७८ ॥
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थाऽनलं ॥ एए ॥
अथ श्रीमनृपः प्राह । वत्से मिथ्या स्वयंवरं ॥ प्रारभ्य सुसुमारेश- माह्वातुं प्रेष्यते न - रः || ३०० || नलः स यदि तत्तेन । साई नूनं समेष्यति । जार्यापरानवो यस्मात्पशूनामपि सः || १ || किंच तस्याऽश्वहृछेदि - विद्यामपि परीक्षितुं ॥ स्वयंवरमुहूर्त्तं तु । प्र त्यासन्नं निगद्यते ॥ २ ॥ चैत्रस्य सितपंचम्यां । तदडलीकस्वयंवरे ॥ दधिप नृपं जीमः । स्वाप्तपुंनिरजूदवत् ॥ ३ ॥ प्रासन्न दिनाख्याना -दधिपरी विषादिनं ॥ कुजः पप्र किं देव | दौर्मनस्यं तवाप्यदः ॥ ४ ॥ राजा प्राह कथाशेषं । नलं श्रुत्वा विदर्भजा || प्रातः स्वयंवरं कर्त्ता । यामा एव चांतरा ॥ ५ ॥ ततस्तल्लोलुजत्वं मे । दुर्लनं कुज दृश्यते ॥ सोऽप्याह कुंमिनं प्रातर्देव नेष्यामि मा मुह ॥ ६ ॥ परं मदीप्सितं देहि । वररथ्ययुतं रथं || तथाकृते नरेंद्देण । कुजः सर्वमसज्जयत् ॥ ७ ॥ स्थगी प्रकीर्णकछत्र धरैः परिवृतो नृपः ॥ कुजश्च स्वकटीब६ - दिव्य बिल्वकरं मिकः ॥ ८ ॥ स्यंदनं ते पडारोहन् । कुजः खेटयतिस्म च ॥ श्रध्वांनोधौ रथोऽचाली - द्वातप्रेरितपोतवत् ॥ ए ॥ अथो रथाऽनिलो छूते । नूतलं पतिते
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वृत्ति
॥ ३३८ ॥
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लोप
वृत्ति
॥३७॥
पटे ॥ नृपः प्राह पटी कुज । गृह्यते स्थाप्यतां रथः ॥ १०॥
सोऽप्याह सस्मितं देव। यत्र ते पतिता पटी॥ योजनानां ततो नूमे-रतीता पंचविंशतिः॥ ११ ॥ अमी हि मध्यमा वाहा । यदि स्युः पुनरुत्तमाः॥ शताई योजनानां त-खंघे. रनियता ध्रुवं ॥ १२ ॥ अक्षवृतमयोहीक्ष्य । फलितं तत्र नूपतिः ॥ आविःकुर्वनिजोत्कर्ष । । सद्यः सारथिमन्यधात् ॥ १३ ॥ फलसंख्यां मस्यास्य । जानाम्यगणयन्नपि ॥ व्यावृत्तो दर्शयिष्यामि । कुतूहल मिदं तव ॥ १४ ॥ कुजः प्राहाऽधुनैवेदं । दर्शय कौतुकं मम ॥ सारश्रौ मयि मा नैषीः । कालदेपस्य सर्वथा ॥ १५ ॥ अष्टादश सहस्राणि । संख्यामस्य नृ. पोऽवदत् ॥ तत नत्प्लुत्य कुब्जोऽपि । मुष्टिनाऽतामयद् डुमं ॥ १६ ॥ फलानीतोऽनिलोत -द्रुमाजलकणा इव ॥ इडइडिति तत्कालं । निपेतुः पृथिवीतले ॥ १७ ॥ तावत्येवाऽन्नवत्संख्या । फलानां गणनात्नतः ॥ कुब्जो जग्राह तां विद्यां । वाजिहदिविद्यया ॥ १७ ॥ नद- याइिं रथोऽन्यागा-देकतोऽनूरुसारथेः ॥ विदर्जगोपुरधार-मन्यतः कुब्जसारथः ॥१५॥नैमी तस्यां निशि स्वप्नं । दृष्ट्वा पितुरषोऽब्रवीत् ॥ ताताद्य निर्वृतिदेवी । मां निन्ये कोशला
॥३७॥
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वत्ति
लोप ऽवनीं ॥ २०॥ तहाचा पुनरारोहं । रसालं फलशालिनं ॥ मत्करे च तयाऽदायि । विकचं
Ka सरसीरुहं ॥ १ ॥ तदानीं विहगः कोऽपि । तत्तरोतलेऽपतत् ॥ नीमोऽप्याह त्वया वत्से ॥३०॥ दृष्टः स्वप्नोऽयमुत्तमः ॥ २२ ॥ पूर्वैश्वर्यपदप्राप्तिः । पत्युश्चापि समागमः ॥ राज्यत्रंशः कू
बरस्य । स्वप्नेनाऽनेन सूच्यते ॥ २३ ॥ श्वं वार्तयतोरेव । तयोर्मंगलनामकः ॥ दधिपर्ण पुप रीक्षारि । समायातमन्नाषत ॥ २॥
नोमेनातिथ्यमाधाया-ऽन्यश्रितो दधिपर्णराट् ॥ रविपाका रसवतीं। कुजेनाऽकारयतदा ॥ २५ ॥ अन्नोजयत्स सपरि-बदं तं नीमन्नूपति ॥ तामानाय्य गृहे नैमी । भुक्त्वा जनकमब्रवीत् ॥ २६ ॥ कुजोऽस्तु यदिवा खंजी । नल एव स निश्चितं ॥ शानिनोचे नलादन्यो । नेहग्रसवतीपटुः ॥ ७ ॥ निषधात्मज एवायं । कुन्जरूपेण तात तत् ॥ श्वेतांबर मुनेर्वाचो । नवंत्यपि किमन्यथा ॥२॥ किंचैतदंगुल्यग्रेण । लग्नमात्रेण मे वपुः ॥ नविता चेत्सरोमांचं । शेयोऽसौ नल एव तत् ॥ श्ए ॥ अथैतदंगस्पर्शायो-परुः कुन्जकोऽवदत् ।। आजन्मब्रह्मचारित्वा-त्स्पृशामो न स्त्रियं वयं ॥ ३० ॥ कथंचिदश्र नीमेना-न्यर्षितः कु
॥३
॥
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वृत्ति
शीलोप०ी जकः स्वयं ॥ ष्यपिटकवत्तस्या । अंगुख्याऽस्पृशदंगकं ॥ ३१ ॥ नत्कंटकेऽन जातेंगे। नी-
- मजा स्पष्टमब्रवीत् ।। सुप्ता मुक्ता तदा नाथ । कथं मोक्षसि जागृती ॥ ३२ ॥ नक्त्वेति नी॥३॥ तो वेश्मांत-रान्नूितमनाः कणात् ॥ आविश्वकार स्वं रूपं । देवोक्तविधिना नलः॥ ३३ ॥
रूपस्थध्यानयुक्त्येव । योगिनी नीमनंदिनी ॥ यथारूपं प्रपश्यंती। पति सर्वांगमाविशत् ॥ ॥ ३४ ॥ नलं बहिराणायातं । गाढमाश्लिष्य नीमराट् ॥ निवेश्य स्वासने हर्ष-प्रांजलः प्रांजलिर्जगौ ॥ ३५॥ राज्यं प्राज्यमिदं चैताः। संपदो विगतापदः । वयमादेशक रो। यथारुचि नियुज्यतां ॥ ३६॥ दधिपर्णोऽपि संत्रांतः । प्राह वीक्ष्य नलं नमन् ॥ यदज्ञानान्मयाचीर्ण । तदेतत्दम्यतां त्वया ॥ ३७ ॥ धनदेवः स सार्थेशो। नीमं दृष्टुमुपागमत् ॥ बंधुवौरवं तस्य । नैमी नीमादकारयत् ॥ ३० ॥ तं तापसपुराधीश-मृतुपर्ण नृपं च तं ।। सुतयाऽन्यर्थितो नीम-रथो दूतैरजूहवत् ॥ ३५ ॥ नीमेन मान्यमानाना-मुपचारैर्नवैर्न वैः
॥ तत्रैव तस्थुषां तेषां । मासोऽतीतो मुर्तवत् ॥ ४० ॥ व अन्येयुः कश्चिदन्येत्य । सुरो नैमीमवोचत । देवि स्मरसि मां सोऽहं । यस्त्वया ताप
॥३१॥
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शोलोप सेश्वरः ॥ १ ॥ तदा प्रबोध्य सम्यक्त्व । ग्रादितो व्रतमाईतः ॥ क्रमेण जातः सौधौ । त्रि- वृत्ति
- दशः केसराह्वयः॥ ४२ ॥ तत्वोपकारिणी तत्त्व--मित्युक्त्वा नतिपूर्वकं ॥ सप्तकोटीः सुवर्ण॥३॥ स्य । वृष्ट्वा सोऽगाद्यथाऽागतः ॥ ३ ॥ विशेषकं ।। वसंतदधिपर्णर्नु-पर्णनीमादयो नृपाः ॥
राज्येऽनिषिषिचुः प्रौढ-प्रतापाऽनलसं नलं ॥ ४॥ विधाऽपि सबलैः सर्व-नूपालैः सहितो नलः ॥ काश्यपी कंपयन सैन्यैः । प्रतस्थे कोशलांप्रति ॥ ४५ ॥ रतिवल्लन्नसंझेऽथ । तमु
द्याने समागतं ॥ आकर्ण्य कूबरश्चक्रे । संबंध मृत्युना समं ॥ ६ ॥ नलोऽपि दूतेनाचष्ट । Ma कूबरं न्यायतत्परः ॥ अक्षराश्यितां केलिः । कलिर्वा निशितैः शरैः ॥ ७ ॥ कूबरोऽपि नि.
राकृत्य । धीरसाध्यां रणक्रियां ॥ मेने दूरोदरं नूयो । दृष्टेऽर्थे को न सस्पृहः। ॥ नलो. ऽप्युपचिताऽगण्य-पुण्यो जित्वा वसुंधरां ॥ यौवराज्यपदेऽयुक्त । सौदर्य तं च कूबरं ॥णा नरताईनृपाः सर्वे । नलं लेजुरुपायनैः ॥ मारैर्निवारणं सोऽपि । यावदाशमयाऽकरोत् ॥ ॥३० ॥५०॥ नलश्च दवदंती च । गतलब्धपुनःश्रियौ ॥ महोत्सवैर्ववंदाते । कोशलाचैत्यमंडलीं ॥ ॥ ५१ ॥ जैनप्रत्नावनाकर्तुः । पृथ्वीं पालयतः सतः ॥ परःसहस्रा नूपस्य । व्यतीयुः शरदः ।
॥
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कीलोपा
॥३३॥
सुखं ॥ ५२ ।। अथो निषधनाकेंः । समये सुतमब्रवीत् ॥ वत्स का नाम राज्याशा । सा वृत्ति रासार विवेकिनां ॥ ५३ ।। वात्याविवर्त्तनोत्ताल-तूलपूलचलाऽचलाः ॥ संपदस्तासु को नाम रज्यते विशदाशयः॥ ५ ॥
ततः पुष्कलनामानं । सुतं राज्ये निवेश्य तौ ॥ दीदां जगृहतुजैनी । दंपती श्रुतस- म्मती ॥ ५५ ॥ विविधानिस्तपस्यातिः । समयं प्रतिपालयन् ॥ व्यहानिलराजर्षि-मदि
नी गुरुनिः सह ॥ ५६ ॥ स्वन्नावसुकुमारत्वा-संयमे शिथिलाशयः॥ पुनर्दृढीकृतोऽन्ये. त्य । दिवो निषधनाकिना ॥ ५७ ॥ मनः कथंचिबुधानो । म्यां कामवशंवदं ॥ शिश्रायाऽनशनं दीक्षा-पालनाप्रत्यलो नलः ॥ ७ ॥ मृत्वा कुबेरनामाऽनू-दुत्तराशापतिः सुरः॥ नीमजाप्यन्नवत्तस्य । कांताऽनशनमृत्युना ॥ एए ॥ इति खलु दवदंती पापपंकं हरंती।) विधृतविमलशोला क्वाप्यसंजातहीला ॥ नरभुवि पुनरेषा दिप्तकर्मावशेषा । सुगतिसुखम- ॥३३॥ गाधं लप्स्यते वीतबाधं ॥६॥
॥ इति श्रीरुपल्लीयगचे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां श्री
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शालोपशीलोपदेशमालावृत्तौ शीलतरंगिण्यां दवदंतीकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ।
अथ श्रीकमलासतीकया कथ्यते, तथाहि॥इन्ध देशः श्रीलाटनामास्ति । नैकैरत्नाकरैर्युतः ॥ एकरत्नाकरं जंबू-ही हेपयतीव यः॥१॥
नगुकडं पुरं तत्र । पावितोपवनं जिनैः ॥ पूतीकर्तुमिवात्मानं । रेवा यत्परिवायते ॥२॥ तत्र मेघरथो राजा । यत्प्रतापनन्नोमणिः ॥ आशाः प्रकाशाः कुर्वाण-श्चित्रं पद्माविकाशकत् ॥ ३ ॥ गेहिनी विमला तस्य । धर्मार्थविमलाशया ॥ कमलेव मुदां पात्रं । कमलेति सु. ता तयोः॥ ४ ॥ कन्या सा सप्तबंधूनां । लघिष्टा यौवनोन्मुखी ॥ जाता यूनामनेकेषां । म. नःसंमोहनौषधी ॥ ५ ॥ पिका इव वसंतर्तुं । गजा विंध्यावनीमिव ॥ तामेव सस्मरुपपुत्राः स्मरवशंवदाः ॥ ६ ॥ इतश्च सोपारपुरे । राजा श्रीरतिवल्लन्नः ॥ कस्य नो योऽवसचित्ते । रतिवल्लनदेववत् ॥ ७॥ चिकीर्षुमित्रतां सोऽथ । सह मेघेन नूभुजा ॥ नपायनान्यनेकानि | प्राहिणोति निरंतरं ॥ ७ ॥ तयोः प्रीतिरवष्टि । लेखोपायनपाणिषु ॥ दूतेषु कार्यदकेषु । नित्यमायात्सु यात्सु च ॥ ए॥ दानैः प्रशंसावाक्यैश्च । सानुकूलैश्च चेष्टितैः ॥ मि.
॥३
॥
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शीलोप
॥ ३८५ ॥
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त्वं शत्रुरप्येति । किमुदासस्य तूच्यते ॥ १० ॥ चिंतयामास मेघोऽपि । विनयाद्यैर्गुणैरिमैः ॥ रतिवल्लनतुल्यः किं । राजपुत्रोऽस्ति कश्चन ॥ ११ ॥ यथा सर्वगुणः सैष । तथेयं कमला सुता ॥ तत्सर्व जनताश्लाघ्यः । संबंधो युज्यतेऽनयोः ॥ १२ ॥ श्रास्थानीमन्यदाडासीने । । श्रीमेघे सपरिच्छदे ॥ आगत्य कमला कन्या । पितुरुत्संगमाश्रयत् ॥ १३ ॥ विलोक्य सर्वालंकार - सुनगां कन्यकां नृपः ॥ तत्कालं कलितश्चित्ते । वराऽन्वेषणचिंतया ॥ १४ ॥ पप्रन्न च महामात्यान् | कमलायाः कृते नृपः । सुधांशुरिव रोहिण्या - चिंत्यतामुचितो वरः ॥ १५ ॥ ज्ञात्वा सर्वोपधाशुद्धं । तेऽप्यथो दूषयोप्रितं । शास्त्रज्ञा इव युक्तार्थं । रतिवल्लज्जमब्रुवन् ॥ ॥ १६ ॥ तत् श्रुत्वा भूपतिर्दध्यौ । मंत्रिभिस्तत्वदृष्टिभिः ॥ ममैव मनसा पर्यालोच्य प्रो. चेदितं वचः ॥ १७ ॥ आस्थान्या मंगनं प्रायो । जवेयुर्भुवि भूमिपाः । राज्यं च सचिवायत्तं । परमार्थेन मन्महे ॥ १८ ॥ श्रमात्या एव चक्षूंषि । नूभुजामित्युदीर्यते ॥ मंत्रिणां लोचनैरेव | सहस्रनयनो हरिः || १७ || संपूर्णेष्वय सर्वेषु | राज्यांगेषु महीभृतां ॥ श्रमात्यबलमेवैकं । जुंनते सकलोत्तरं ॥ २० ॥ ध्यात्वेति प्रकटं प्राह । साधु जो मंत्रिपुंगवाः ॥ हि
४५
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वृत्ति
॥ ३८५||
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शोलोप
र वृनि
॥३॥
'
तं पथ्यमिव प्रोक्तं । विमृश्य मनसा समं ॥१॥
वितरीतुं ततस्तस्मै । कन्यां सोपारपत्तने ॥ ददो दौवारिकः कोऽपि । निसृष्टार्थः प्रही-५ यते ॥ २२ ॥ प्रातृतेन सहाऽन्येद्यु-र्दूतः शालान्निधः सुधीः ॥ प्रेषितः कन्यकां दातुं । रतिवल्लनसन्निधौ ॥ २३ ।। रतिवद्धननूपोऽपि । कमलां कमलामिव ॥ नरीकृत्य ततो दूतं । सत्कृत्य प्राहिणोत्पुनः ।। शव ॥ सुमुहूर्ने महाथ । समेत्य रतिवल्लनः॥ कमला तामुपायस्त । कमलामिव केशवः ॥ २५॥ रत्नालंकारकल्याण-गजवाहादिकं बहु ॥ जामात्र प्रददौ पः। पाणिमोचनपर्वणि ॥ २६ ॥ प्रस्थितं स्वगृहेऽन्येयुः। सीमांतं यावदादरात् ।। जा. मातरमनुव्रज्य । न्यवर्त्तत सनूमिपः ॥ १७ ॥ स्थाने स्थाने पुरंध्रीनिः । कृतप्रावेशिकोसवः ॥ परितो मागधोजीत-प्रोद्यजयजयारवः ॥ २७ ॥ दीयमानमहादान-मिलितप्रकृतिव्रजः ॥ वाद्यमानघनातोद्य-बधिरीकृतदिङ्मुखः ॥ शए || जायया मूर्तिमत्येव । राज्यल- ॥३६॥ दम्या विनूषितः ॥ रतिवचननून" । प्रविवेश निजं पुरं ॥ ३० ॥ कुलकं ॥
नृपो गतिक्रमाऽपास्त-राजहंसीं गुणोज्ज्वलां ॥ सर्वांगसुन्नगां राज्यलक्ष्मी रेमे प्रि
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शीलोप
॥ ३८७ ॥
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यामिव ॥ ३१ ॥ इतश्व जलधेर्मध्ये | नगरे गिरिवईने | कीर्त्तिव ईननामास्ति | नरैः स्त्रीषु लोलुपः || ३२ ।। सोऽन्यदा कमलारूपं । धत्तूरमिव निर्जरं ॥ पीत्वा श्रोत्रपुटैः काम-मू| वैकल्यनागभूत् ॥ ३३ ॥ ततो युगंधरानिख्यं । मित्रं मांत्रिकसत्तमं । एकांते प्राह किं वश्य - कलाया मित्र ते फलं ॥ ३४ ॥ यदहं दुःखमेतावत्त्वदायत्तेऽपि कर्मणि ॥ सेदे निर्माग्यवमेह-स्थितेऽप्यनवधौ निधौ ॥ ३५ ॥ ज्ञात्वा सोऽपि तदिष्टार्थं । विवेकनिपुणो जगौ ॥ पतिव्रता असत्यश्व | नवेयुर्द्विविधाः स्त्रियः || ३६ || महासती चेत्तछ्यर्थ- स्तदानयनजभ्रमः ॥ इत्वरी चेत्तरी युष्म-न्मनोरथ महोदधौ ॥ ३७ ॥ सोऽप्याह मित्र किं काम-हतं हंतानवानपि ॥ त्वमानयैकदा शेषं । ममायत्तं फला फलं ॥ ३८ ॥ अथ भूमिगृहे मंत्र - जापहोमादिकर्मनिः ॥ वात्यानिरिव पत्राली । निझणा साहृता क्षणात् ॥ ३७ ॥ करोतु नस्मसामां मा | प्रबुदेयं महासती ॥ ध्यात्वेति पद्मनागिन्या । श्वासौ बहिरागमत् ॥ ४० ॥ स कीर्त्तितां तु | मंगलानरणामपि ।। विलोक्य दध्यावीहका - ऽप्यसौ विश्वस्य मोहिनी ॥ ॥ ४१ ॥ प्रातः प्रबुद्धा सौरम्य - शालिनी नलिनीव तु ॥ क्रीडां मे राजहंसस्य । पूरयिष्य
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वृत्ति
।। ३८७ ॥
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)
वृत्ति
N
शोलोप ति मानसीं ॥४२॥ अकुंगेत्कंठया प्राह । न जागृहि मा स्वपीः ॥ प्रबुज्ञा यूथभ्रष्टेव । मृ-
Kगी साऽप्यैकतानितः ॥ ४ ॥ क गेहं किमिदं स्थानं । क्वाहं निज्ञलुता क्व वा ।। इंश्जा-? ॥ ॥ लमथ स्वप्न-मिदं नर्ता च स क्व मे ॥ ४ ॥
ब्रुवाणामिति संभ्रांतां । नत्वा तां चरणाब्जयोः ॥ जगाद नई नर्तादं । पुरस्ते कीर्तिवईनः ॥ ४५ ॥ इदं गेहमिदं स्थानं । पुरश्चैताः समृाझ्यः ॥ सर्व स्वकीय जानीहि । मय्यादेशवशंवदे ॥ ४६॥ कमलापि सती कोप-मुखी तं दृष्टमाख्यत || अकीर्तिवईनः कस्त्वं । दुरात्मन पुरतो मम ॥ ७ ॥रतिवल्लन्ननून ः। प्रियां कस्त्वं पतिव्रतां ॥ मरालीमिव का. कोलो । बुझेनोक्तुमर्हसि ॥ ४॥ प्रिं प्रेषय मां गेहे । नो चेन्मत्प्रियसायकाः ॥ शिरस्ते कल्पयिष्यति । दिक्पालबलिकेतवे ॥ भए । सोऽप्याह तामयित्वाथ । वचोनियष्टिन्निश्च तां ॥ सतीत्वं तेऽधुना नंदये । वल्लीकुंजमिव हिपः॥५॥ सर्वांगे शृंखलैलौहैः। कर्म- जैरिव पुजलैः॥ नियंत्र्य धारयामास । गुप्तौ कामगवीमिव ॥ ५१ ॥ रतिवल्लननूपोऽपि । शय्यातः प्रातरुचितः ॥ नाऽपश्यघल्लनां चौरैः । सर्वत्र मुषितो यथा ॥ ५५ ॥ निरीक्ष्येत
॥३
॥
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झीलोपस्त तः शाखि। विभ्रष्ट इव मर्कटः॥ पप्रब यामिकांस्तेऽपि। विस्मिता श्व तं जगुः ॥ ५३॥ वृत्ति
न तावत्पादचारेण । देवी कुत्रापि निर्गता ॥ अस्माकं जागरूकाणां । यहिनाता विनावरी ॥श्न ए
४॥हीपांतरेष सर्वेष । राजस्थानेष च क्रमात ॥ चरदतादितिः कांतां। बहशोऽप्यगवेषयत् ॥ ५५ ॥ न च काचन तच्छुद्धि-लैने क्वापि महीभुजा ॥ कथं वा ज्ञानसाध्येऽर्थे । । गोचरा बाह्यचक्षुषां ॥ ५६ ॥ निश्चिकाय ततश्चित्ते । राजा धर्मविचक्षणः ॥ नूनं विद्यादिसिझेन । जहे केनापि मत्प्रिया ॥ ५७ ॥ निरर्थकमिदं राज्यं । घिगिमाः संपदो मम ॥ धिगिदं बाहुशौंमीय । यजाया यात्यलक्षिता ॥ ५ ॥ यः कश्चिच्छुक्ष्मिात्रं मे । वल्लन्नाया निवेदयेत् ॥ तस्मै यबामि राज्याई । पटहेनेत्यघोषयत् ॥ एए ॥ हहा जीवन्मृतं जन्म । म मेदं यस्य वल्वना । केनापि जहे सुप्तस्य । किरीटमिव माईतः ॥६० ॥श्व भुजबलं निंदा न् । गूढकोपो नराधिपः ॥ मंत्रस्तंन्नितवीर्योऽहि-रिवांतग़लतिस्म सः ॥३१॥ इतश्च पं
॥३न्या चमे मासे । शोकापन्नस्य नूपतेः ॥ केवली नगरोद्यानं । दिवामणिरिवागमत् ।। ६२ ॥ त. स्याऽागमनहष्टात्मा । जलदस्यैव कर्षकः ॥ गत्वा शुश्राव वैराग्य-कारिणी देशनागिरं ॥३॥
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कालोप
॥ ३०० ॥
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. देशनांते नृपोऽप्राकी- त्किं जीवति मृताऽथवा ॥ मम नार्या यथावृत्तं । ततोऽनाषिष्ट केवली ॥६४॥ पुनः पच भूपालः । कस्येदं कर्मणः फलं ॥ मिलिष्यति न वा नाथ । जीवंती सा पुनर्मम || ६५ || अश्राख्यत्केवली राजन् । विस्मयाख्ये महापुरे ॥ दुर्जयो नाम नूपालो । धन्या दिनी मता ॥ ६६ ॥ सा ते जार्याऽन्यदा क्रुछा । विनियंत्र्य स्वदासिकां ॥ नूमीगृचिप | निर्दया क्षुत्तृषाकुलां ॥ ६७ ॥ पुनः प्रसन्नया स्तोकै-दिवसैर्मुमुचे तया ॥ - धनार्जितं कर्म । बद्धं देव्या सुदारुणं ॥ ६८ ॥ ततो गतिष्वनेकासु । भुक्त्वा तत्कर्मणः फलं ॥ त्वन्नार्या सांप्रतं जाता | बंधनं चेदमंतिमं ॥ ६ए ॥ यत्पंचम्यास्तपस्तप्त - मितः पूर्वजवेनया ॥ मासमात्रेण तत्तस्या । बंधमोको भविष्यति ॥ ७० ॥ ततो निःसंशयं ते सा । मिलिष्यति महासती || वेदितान्येव कर्माणि । कीयंते प्राणिनां यतः ॥ ७१ ॥ इति तद्देशना - माप्य । कतककोदोदरां || पापपंकैरमुच्यंत । बहवो जव्यजंतवः ॥ ७२ ॥ रतिवल्लननूपश्व । दयिताहरणेच्छया । श्रभिषेणयितुं याव - दीदते कीर्त्तिवर्द्धनं ॥ ७३ ॥ स एव केवलज्ञानी | मुनिर्नानामहाबलः ॥ क्रमेण विहरन् प्राप्तो । नगरं गिरिवर्धनं ॥ ७४ ॥ तस्य प्रज्ञावतः
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वृत्ति
॥ ३०० ॥
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शीलोप
।। ३९१ ॥
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सद्यः । कमला लोहशृंखला || शेफाली कुसुमानीव । पेतुः प्रज्ञातवाततः ॥ ७५ ॥ कीर्त्तिवर्धन पोऽपि । तं नंतुं सपरिवदः || समियाय महात्मापि । दत्वा धर्माशिषं ततः ॥ ७६ ॥ विशिष्य प्रतिबोधार्थं । प्राच्यजन्मांतरान्वितं ॥ प्रत्यक्षं कमलोदंत - मेवाऽनाबत केवली ||१७ ॥ प्रेक्ष्यतामिहलोकेऽपि । शीलः परमं फलं ॥ शृंखलात्रुटनं पूर्वा-वस्था च कमलातनौ ॥ ॥ ७८ ॥ श्रुत्वेति विमानाः कीर्त्तिवर्धनश्चकितस्तरां ॥ लोकछ्यविरुद्धं हा । चेष्टितं किमिदं मया ॥ ७९ ॥ कमलाया महासत्याः । कामासक्तेन यन्मया ॥ विरुद्धं चिंतितं तत्त-छीलेन विफलीकृत || || इत्युवाय गतो गुप्तौ । तामाकृष्य त्रपापरः ॥ निपत्य पादयो राजा | कमयामास तां सतीं ॥ ८१ ॥ श्रदृष्टव्यमुखः पापो । घृष्टो भुवननिंदितः ॥ श्रहमेव स्वसयैन । तवेदं व्यसनं कृतं ॥ ८२ ॥ ततस्त्वमेव बंधुस्त्वं । धर्माचार्यश्च निश्चितं ॥ कार्ये वर्त्तमानोऽहं । यया प्राग्वरितस्त्वया || ८३ || रोषस्त्वयाऽपनेतव्यो । रतिवल्लननूभुजः ॥ त्वामदं खलु नेष्यामि । स्वयमेव भवत्पुरे ॥ ८४ ॥ ततो यानानि संपूर्य । महार्धे रत्नसंचयैः ॥ समं कमलया कीर्त्ति - वईनः प्रस्थितो रयात् ॥ ८५ ॥ सैन्यैः सहागतो यावत्सीमांतं रति
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वृत्ति
।। ३९५१ ॥
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वत्ति
गोलोप वल्लनः॥ तावदत्रांतरे प्राप्तः । कमलालेखवादकः॥ ६ ॥ रोषतोषदृशोन्मिश्र-स्तत्कालं र-
X तिवल्लनः ॥ कमलालिखितं लेखं । वाचयामासिवानसौ ॥ ७ ॥ तथाहि॥३५॥ स्वस्तिश्रीहृदयस्थं तं । नत्वा श्रीरतिवद्धनं ॥ विज्ञप्तिं कुरुतेनोधि--मध्यतः कमला प्रि
या ।। ॥ अहमदतशीलास्मि । स्वामिन युष्मत्प्रसादतः ॥ शश्वदेव सनाथा च । नवनिर्हदयस्थितैः ॥ नए ॥ श्रीकीर्तिवईनो नाम्ना । बांधवोऽपि मया समं ॥ युष्मत्पाददिदृक्षायै । समियनस्ति नक्तियुक् ।। ए ॥ अहो शीलस्य माहात्म्यं । कमलाया यतो मम ॥शत्रुमित्रत्वमापनो । दध्याविति नृपस्तदा ॥ १ ॥ अन्योऽन्यं मिलितौ नूपौ । ततो जलनिधेस्तटे । नचितां प्रतिपत्तिं च । धावप्याचरतःस्म तौ ॥ ए ॥ प्रमोदतस्ततः पौरै-वध्वंदनमालिकां ॥ पुरीं प्रविशतो नूपौ । सतीकमलया युतौ ॥ ए३ ॥ दिनानि कतिचित्तत्र । स्थित्वा प्रोत्या सगौरवं ॥ श्रीकीर्तिवईनो राजा । जगाम निजपत्ननं ॥ ए४ ॥ रतिवल्लन-
नूपोऽपि । सत्या कमलया समं ॥ त्रिवर्गसारं गार्हस्थ्य-धर्म साधितवानलं ॥ एए ॥ क्रमेमग तनये जाते । राज्यनारधुरंधरे ॥ साम्राज्यनारं संयोज्य । स्वयं विषयनिस्पृहौ ॥ ए६ ॥
३
॥
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कीलोप
वृत्ति
॥५३॥
दत्वा दानं ततः संघ । पूजयित्वा च दंपती ॥ दीक्षां जगृहतुः श्रीम-त्स्यंदनाचार्यसन्निधौ ॥ ॥ ए७ ॥ दीक्षां पालयतोः कर्म-संघातं घातिनं नतोः ॥ नत्पन्नं केवलझान-मुन्नयोर्विश्वदी. पकं ॥ एG ॥ विबोध्य क्रमतो नव्य-पूगान् पद्मानि नानुवत् ॥ निर्वाणपदवी प्राप । रतिवजन केवली एए| अथ विहृत्य पुरे नगुकबके ॥ स्वपितरौ प्रतिबोध्य च सान्वयौ॥ वि- र मल केवलवासितनूतला । शिवपदं कमलाप महासती ॥ १० ॥ ॥ इति श्रीरुपल्लीयगने श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां कमलामहासतीकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ।। अथ श्रीकलावतीकथा प्रकाश्यते
इहैव जंबूदीपेऽस्ति । देशः श्रीकमलाह्वयः ॥ स्वर्ग जिगाय योऽपार-लक्ष्मीनातिलो. नमः ॥ १॥ पुरं शंखपुरं तत्र । तारकप्रतिबिंबितः॥ जितः श्रिया ध्रुवं स्वर्गः । पुष्पैरर्चय- तीव यत् ॥ २॥ प्रजानुकूलकत्तत्र । श्रीमान् शंखो महीपतिः ॥ चित्रं न बित्नरांचक्रे । यः कौटिल्यं हृदंतरे ॥ ३ ॥ निर्जित्य समरे स्वीयी-कृतामेकातपत्रिणीं ॥ अनाक्रांतां परैः पृथ्वी
॥३५३।।
૫૦
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लोप
वत्ति
। बुभुजे यः सतीमिव ॥ ४॥ तमेकदा स्वमास्थान-मासीनं दनसंझकः ॥ गजश्रेष्टिसुतो द- नो-पायनः प्राणमन्मुदा ॥ ५॥ तं पृष्टस्वागतं दत्ता-सनासीनं च नूपतिः ॥ पप्रच कौतुकं किंचि-इद देशांतरोचितं ॥६॥ दत्तोऽप्याख्यदतो देव । देवशालपुरं गतः ॥ वाणिज्यसागरे यस्मा-दस्माकं श्रीः प्रवाईते ॥ ७ ॥ कृतकृत्यतया नाथ । व्यावृत्तोऽहं परं मया। वक्तुं न शक्यते ताव-तस्याश्चर्यपरंपरा ॥ ॥ तदस्या वर्णिकामात्रं । स्वयं देवाऽवधार्यतां ॥ वदनि ति न्यधादत्तो । नृपाग्रे चित्रपट्टिकां ॥ ए॥ विलोक्य लिखितां तत्र । शंखः कांचितांगनां ॥ देवीति मन्यमानो शक् । प्राणसीपुरंदर ॥ १० ॥ दत्तः सस्मेरमाहस्म । यदियं देव मा. नुषी ॥ देवीति मेने तेनासौ । पट्टदेव्येव नाव्यतां ॥ ११ ॥ दत्तदृष्टिर्नृपस्तत्र । निधान श्व दुर्गतः ॥ दत्तमूचे न मत्र्येषु । रूपरेखेयमीक्ष्यते ॥ १२ ॥
तेनोचे देव जानीहि । मानवीमेव किंत्वसौ ॥ सृष्टा घुणाकरन्याया-त्रहीदं कौशलं वि- धेः॥ १३ ॥ केयं तीति पृष्टेन । दत्तेनोचे महीपतेः ॥ श्रीमजियसेनस्य । देवशाल पुरेशितुः ॥१४॥ श्रीमतीकुक्षिसंनूता । पुत्री नाना कलावती ॥ कलासौजाग्यरूपायैः । सृष्टे
ए॥
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झीलोप
वृत्ति
एप
ह
निकषः किल ॥ १५ ॥ युग्मं ॥ तारुण्यश्रीरवष्टि । कलावत्या यथा यथा ॥ चिंता हृदि न रेस्य । तार्थे तथा तथा ॥ १६ ॥ नशेढा तमहं ज्ञाता । यो मे प्रश्नचतुष्टयीं ॥ अन्येा. जैनत्नक्ता सा । प्रतिझामकरोदिति ॥ १७॥ गाढं तइचिंताब्धौ । निमनो नूपतिस्तदा ॥ तदर्थे कारयामास । स स्वयंवरमंझपं ॥ १७॥ इतश्च स्वपुरादेव । व्यवसायचिकीरहं ॥ का. नने क्वापि संप्राप्तो । देवशालंप्रति व्रजन् ॥ १५ ॥ राझो विजयसेनस्य । जयसेनान्निधं सु. तं ॥ दुष्टाश्वापहृतं तत्र । मूर्गगतमजीवयं ॥ २० ॥ सुखासनमग्रारोप्य । प्रापयं हेलया गृ हं ॥ राजा तेनोपकारेण । मेने मां पुत्रवत्सदा ।। १ ।। अन्यदा मां सन्नाध्यदं । नरराजः समादिशत् ॥ स्वबंधोर्जयसेनस्य । यथैवोपकृतं त्वया ॥ २२ ॥ तथा स्वसुः कलावत्या-श्चि
तयित्वा वरं वरं ॥ चिंतामहोदधेर्वत्स । मां समाकृष्टुमईसि ॥ २३ ॥ तदा श्रीशंखनूपाल । का नवतो योग्यसंगतिं ॥ विमृश्य च पटे रूपं । लेखयित्वादमागमं ॥ २५ ॥ इदं हि वर्णिका- * मात्रं । न सम्यग् लिखितुं कमः ॥ न यावती प्रत्ना नानोः । प्रतिबिंबेऽपि तावती ॥ ५ ॥
तत्पश्यन् योगिवज्ञजा । कणं मुकुलितेक्षणः ॥ धूनयित्वाध मूनिं । दत्तं मधुरमूचिवान् ॥
॥३
॥
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वृत्ति
गोलोप ॥ ६ ॥ साध्वेवोपकृतं ताव-त्वया मित्रैकवत्सल ॥ क नाग्यं मादृशा ताव-येनेहपा-
त्रसंगमः ॥ १७॥ पए
दत्तः सानंदतः प्राह । नाथ मा खिद्यथा वृथा ॥ शकुनैमि ते पत्नी । ननमेषा नवि. यति ॥ २७ ॥ परमाराध्यतां देव । तं वागीश्वरी सुरी॥ यथा प्रश्नचतुष्कस्य । निर्णयो जायते स्फुटं ॥ २॥ ततः श्रीशंखनूपालो । ब्रह्मचर्यादियुक्तिन्निः॥ वाग्देवीं तोषयामास
सापि स्पष्टतयाऽवदत् ॥ ३० ॥ त्वत्पाणिपद्मयोगेन । शालज्यपि तत्क्षणात् ॥ कर्ता कKलावतीप्रोक्त-प्रश्नानां वत्स निर्णयं ॥ ३१ ॥ बलाटांजलियोगेन । तत्प्रसादं नृपोऽगृहीत् ॥
सरस्वत्यपि तत्सर्व-मुक्त्वाऽह्नाय तिरोदधे ॥ ३२ ॥ कृतकृत्यस्ततो नूपः । समं दत्तेन सत्वरं
॥ प्रतस्थे देवशालाय । सैन्यकंपितनूतलः ॥ ३३ ॥ तमायांतमथाकर्ण्य । विजयोऽपि नरे- श्वरः ॥ जयसेनं सुतं प्रैषीत् । संमुखं शंखनूपतेः॥ ३४॥ दिदृकुर्नारीनेत्रौघै-नीलोत्पलम-
यीमिव ॥ द्यां कुर्वाणं महाथ । शंखस्तत्पुरमाविशत् ॥ ३५ ॥ अथ स्वयंवरे नूपाः। समीयुस्तां वुवूर्षवः ॥ आरोहदेकं शंखोऽपि । मंचमुच्चूलमालिनं ॥ ३६॥ अश्रोचे चित्राऽलं
॥३५६ ॥
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शीलोप
॥ ३९५ ॥
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कार- क्लृप्तदेवेंइकामुकी ॥ विष्वक्षूपघटी निर्य-भूमध्यामलितांवरा ॥ ३३ ॥ साक्षात्कला धिदेवीव | मूर्त्या लक्ष्मीरिवाऽपरा || सौंदर्यसार सर्वस्व - मिव पुंजीकृतं विधेः ॥ ३८ ॥ सखीपरितो व्याप्ता । भृंगीनिरिव पद्मिनी ॥ धृतातपत्रचामर - चाजनैर्नर्त्तितालका ॥ ३५ ॥ सखीकरे विणा । कंदर्पज्यामिव स्रजं ॥ स्वयंवरमवातारी - त्कौमुदी कलावती ||४णा कलापकं ॥ श्रोवाच प्रतीहारी । समश्यापत्रिकाकरा ॥ कथ्यतां निर्णयप्रभ - चतुष्कस्य मदीधवाः ॥ ४१ ॥ को देवः को गुरुः किं च । तत्वं सत्त्वं च कीदृशं ॥ स्फुटीकर्त्तार्हति स्पष्टं | कलावत्या वरस्रजं || ४२ || स्वस्वप्रज्ञाऽनुसारेण । ततः सर्वेऽपि भूधवाः ॥ उत्तरं प्रदधुनैव । मेने सा परमाईती ॥ ४३ ॥ ततः शंख नृपः शंख - निधानाप्त्येव दर्षभाक् ॥ श्रनया सद पांचाली । ममैषा वक्तुमर्हति ॥ ४४ ॥
इत्युक्त्वा स्तंनपांचाली - मूर्ध्नि पाणिकुशेशयं ॥ अधत्त शंखनूपालः । सोत्तराण्यच्यवत्त च ॥ ४५ ॥ वीतरागः परो देवो । महाव्रतधरो गुरुः ॥ तत्वं जीवदया ज्ञेया । सत्त्वं चेंश्यिनिग्रहः ॥ ४६ ॥ ततः प्रमुदिता पूर्ण - कामा कामं कलावती ॥ कंठे श्रीशंखनून - श्विप
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वृनि
॥ ३९७ ।
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शोलोप
॥ ३५८ ॥
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वरणस्रजं ॥ ४७ ॥ ततः कलावती शील- प्रजावेण महीयसा ॥ सामर्पा अपि भूपाला । न शंखे प्राजवंस्तदा ॥ ४८ ॥ सुमुहूर्ते तयोरेक-मासनं तस्थुषोर्द्विजः ॥ दस्ताव योजय६स्ता-जेपनक्षेपपूर्वकं ॥ ४५ ॥ निक्षेप मिषतो हारि- मुश्किायाः करांतरे ॥ आवयोः प्रेममुय- मेकरूपेति संदधे ॥ ५० ॥ सत्कृतो दास्तिकाश्वीय - वस्त्रायैः शंखनूपतिः ॥ युतः कलावतीदेव्या । प्रतस्थे स्वपुरंप्रति ॥ ५१ ॥ स्वयं विजयभूपालः । प्रमोदाश्रुविलोचनः || शिक्षां दत्वा कलावत्या । निवृत्तो दूरमार्गतः ॥ ५२ ॥ दत्तोऽपि विजयकोणी नृदादेशपरायणः ॥ कलावत्याः स्वसुः प्रीति-हेतवे शंखमन्वगात् || ३ || एकस्यंदनमारुढौ । गतौ पथि दंपती ॥ नक्तंदिनपक्षमासां-श्चक्राते क्षणवादतः || ५४ || ऐरावणगजारूढौ । पौलोमीवजिसाविव ॥ मर्ज्या वारणारूढौ । प्रविष्टौ दंपती पुरं ॥ ५५ ॥ पट्टराइया कलावत्या । समं राज्यसुखं जजन ॥ नूयांसमक्षिपत्कालं । लीलया शंखनूपतिः ॥ ५६ ॥ शयनीय स्थिताऽन्येद्युः । स्वप्ने देवी कलावती ॥ पीयूषकुंजमालोक्य । प्रबुद्धा प्रत्युरब्रवीत् ॥ ५७ ॥ प्रमोदोदिरोमांचः । श्रीमान् शंखस्तदाऽवदत् ॥ न राज्यकरिस्तंनः । सुतस्ते नवितोत्तमः ॥ ५८ ॥
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वृत्ति
॥ ३९॥
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शीलोप०
॥३०॥
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मौक्तिकं ताम्रपर्येव । देव्या गर्ने दधानया ॥ श्रष्टमासी व्यतिक्रांता । विंशत्याभ्यधिका दिनैः ॥ ५७ ॥ प्रसूयते किल स्त्री प्राकू । पितृगेह इति श्रुतिः ॥ विजयः स्वनरान मैत्री - दित्याह्वातुं कलावतीं ॥ ६० ॥ तेषां करे कुमारोऽपि । सांशुकामंगदयीं ॥ जगिन्यै प्रेषयामास । मू स्नेहमिवात्मनः || ६ || तेऽपि पूर्वप्रतीतत्वा तद्दत्तस्य समार्पयन् || सहकृत्वा नरान् सोऽपि । कलावत्यै वितीर्णवान् ॥ ६२ ॥ आकार्य कुशलोदतं । पित्रोरानंदमेदुरा ॥ विससर्ज ससत्कारं । कलावत्यपि तान्मुदा ॥ ६३ ॥ बंधुस्नेहात्करे धृत्वा । तदानीमंगदे मुदा ॥ भुजामूले महादेवी । वयस्याभिः सह स्थिता ॥ ६४ ॥
ततो देव समालोक्य | सांगदे स्वभुजातले || प्रमोदमेदुरस्वांता । सा सखीनिः सहाSsसत् ॥ ६५ ॥ नृपोंतःपुरमाग - नाकर्ण्य इतिध्वनिं । किमेता निगदंतीति । गवाक्षांतरितोऽशृणोत् ॥ ६६ ॥ ततोंगदे भुजाब दे । दर्श दर्श कलावती ॥ सखीरुद्दिश्य वाग्देनान्निजं दर्पमिवाऽयमत् ॥ ६७ ॥ श्रहो प्रेम धृतस्थेम । मयि तस्य चिरायुषः ॥ येनेदमद्भुतं मै| केयूरध्यमद्य मे || ६ || चिरादद्य मया प्राप्तं । वस्तु तत्पाणिसंगतः ॥ साक्षात् मि
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वृत्ति
॥३५॥
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शोलोपलिते तस्मिन् । नावि मे सफलं जनुः ॥ ६॥ ॥ सख्योऽप्यूचुर्महादेवि । तस्य विश्वानिनंदि- वृत्ति
नः॥ चंश्स्येव कुमुहत्यां । त्वयि प्रेमातिरिच्यते ॥ ७० ॥ श्रुत्वेति नूपतिर्दीप्त-क्रोधात्ळूरम॥४00 चिंतयत् ॥ क्वाप्यन्यत्र ध्रुवं प्रेम-वती देवी कलावती ॥१॥ बहिरेव ध्रुवं रक्ता । गुंजा इ
व चलेकणाः॥ घिगिमाः कपिवद्यासु । नवति लोलुपो नरः ॥७२॥ तदिमां कपिकच्छुत्रया दंगासक्तां महानिदां ॥ त्यक्ष्यामीति हृदि ध्यात्वा । निवृत्त्यागान्महीधवः ॥ ३॥ ज्ञात्वा
कलावतीत्यागं । तदा दृष्टुमिवाऽक्षमः ॥ समं नूप विवेकेन । रविरस्तमयं गतः ॥ ४॥ 5.
राशेव नरेश्स्य । जजूने च मतिस्ततः ॥ प्रचन्नमथ मातंगी-युगलं नृप आदिशत् ॥ ५ ॥ - त्यक्तायाः कानने देव्याः । सांगदं भुजयोर्युगं ॥ नित्वा युवान्यामादेयं । नात्र कार्या विचार
या ॥ ६॥ धिा निष्करुणो राजा । शय्यापालकमादिशत् ॥ अलक्षितमिमां नीत्वा । त्यज्यतां क्वापि कानने ॥ ७॥
देवीमेकाकिनी सोऽपि । रथमारोप्य संभ्रमात् ॥ नीत्वा कांचिदरण्यानी । पुरस्तस्थौल सशोकवत् ॥ ७० ॥ ततः समदं प्राह । देवि दोषण केनचित् ॥ त्याजितासि वने राज्ञा।
॥
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शीलोप०
वृत्ति
॥४०॥
श्रुत्वा ताग मुमूर्ब सा ॥७॥ पुनः सा प्राप्य चैतन्यं । कथंचिछनमारुतैः ॥ बिनवृदादि- व लता । पपात रथतो भुवि ।। ।। पितरं भ्रातरं चापि । सा स्मरती मुहुर्मुहुः ॥ मूई तीव सती तारं । मुक्तकंठं तदाऽरुदत् ॥ १ ॥ निंदनकरुणोऽपि स्वं । रुदंतीमनु तां रुदन॥ देवीमुत्कलयामास । निशांते स्वपुरं व्रजन ॥ ७ ॥ साऽप्याह जर संदेशं । शंस मे शंखनूपतेः ॥ दास्यां मयि यदाचीर्ण । तत्किं तव कुलोचितं ॥ ३ ॥ शंकास्पदे च दिव्यादि । प्रदाप्यमन्नवन्मम ॥ यथा तथास्तु वा स्वस्ति । तुभ्यं नवतु नूभुजे ॥ ४ ॥ देवीमाश्वासयन सोऽपि । यावत्तिष्टति साश्रुक् ॥ चांडालीयुगलं ताव-न्मूः दोषण्यमिवागमत् ॥ ५ ॥ आः पापे भुज्यतामेत-त्स्वपत्युर्वंचनाफलं ॥ इत्युक्त्वा सांगदं तस्या-श्वित्वा बाहुयुगं गतं ॥ ॥ ६ ॥ सोपालंनं ततः शंखं । साह उखड्यादिता ॥ स्फुटन्मे हृदयं रह । वालुकमिव पक्किम ॥ ७ ॥ तदाकुला नदीतीर-निकुंजे सा गता सती ॥ असूत तनयं तादृक्-दुःखेऽपि सुखहेतुकं ॥ ७ ॥ सुखी जव सुदीर्घायु-नव वत्स स्वतो यतः ।। अक्षमाऽहं तु ते पोषहेतुर्दैवेन कल्पिता ॥ नए ॥ हा उर्गतकुटुंबेऽपि । जातेऽपत्ये स्युरुत्सवाः ॥ राजपल्या अ
॥१॥
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शोलोप
॥ ४०२ ॥
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पि मम । शस्यापि संशयः ॥ ए ॥ इतश्च कानननदी -- पूरो दूरोन्नतस्तदा ॥ संप्लावयितुमारेने । तं कीटमिव बालकं ॥ ५१ ॥
परमेष्टिनमस्कारं । स्मृत्वा प्राह पतिव्रता ॥ मया त्रिवर्गशुद्ध्या चे-स्पालितं शीलमुज्ज्वलं ॥ २ ॥ जिनदर्शनजीवातो । मातः श्रीशासनेश्वरि ॥ शिशोस्तत्पालनोपायो । जशांतिश्व जायतां ॥ ए३ ॥ ततः शीलप्रभावेण । भुजौ जातौ पुनर्नवौ ॥ शांतं नदीपयो व्योम्नः । पुष्पवृष्टिः पपात च ॥ ए४ ॥ शीललीलायितं दृष्ट्वा । स्वयं तत्र कलावती ॥ इनूमानव पाथोधं । तीर्त्वा विस्मयमादधौ ॥ एए ॥ कश्चिदत्रांतरेऽन्येत्य । तापसस्तामवोचत ॥ वत्से प्रसूतवत्साया । नात्र ते स्थातुमौचितिः || ६ || तदेहि देहिपूगाना - मकुतोनयमाश्रमं ॥ इत्युदित्वा मुनिर्निन्ये । सतीं कुलपतेः पुरः ॥ ९७ ॥ तेनापि तातरूपेण । तदा पृष्टा सगङ्गदं ॥ स्वोदंतमवदत्कामो-दरी मंदाक्षमंथरं || ८ || तापसाधिपतिः प्रोचे । नई मा विद्यथा वृथा ॥ जानामि लक्षणैर्नूनं । पुनः श्रेयांसि लप्स्यसे ॥ एए ॥ इचमाश्वासिता तेन । हृष्टा विजयनंदिनी || तापसीनिः सुखं तस्थौ । सपुत्रा पितृगेहवत् ॥ १०० ॥ इतश्च
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वृत्ति
॥ ४०२ ॥
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शीलोप
॥ ४०३ ॥
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श्वपचीयां ते । कलावत्याः कलाचिके || सांगदे शंखराजाय । दर्शिते बेदर्दशे ॥ १ ॥ विलोक्य जयसेनाख्यां । तत्र राजा समाकुलः ॥ दत्तमाहूय पच । विवर्णवदननुविः ॥ २ ॥ किमद्यकल्ये कोsप्यागा-देवशालपुरादिह ॥ तेनोक्तं मानवा देव । ह्य एवात्र समाययुः ॥३॥ देव्याः कृते करे तेषा - मंगदद्वयमन्नुतं । प्रहितं जयसेनेन । तत्तस्यै च मयाऽर्पितं ॥ ४ ॥ श्रुत्वेति नूपतिर्दुःखा- इज्ज्राहत इवादिराट् ॥ सिंहासनात्पपातोर्व्या । मूविविन्न विग्रहः ॥ ॥ ५ ॥ कथं कथमपि प्राप्य । चैतन्यं चंदनादिनिः || पश्चात्तापपरो वक्ष - स्ताडयन्निदमूचि - वान् || ६ || अहो मे मूढचारित्व - महो मे मंदजाग्यता ॥ अहो मे निर्विचारित्व - महोनिस्त्रिंशता मम ॥ ७ ॥ श्रहो विहृदयोग्यत्व - महो दुःकर्मकारिता ॥ अहो अदृश्य वक्त्रत्व-म हो माकुलीनता ॥ ८ ॥
किमेतदित्य पृष्ट | विलपन्निति मंत्रिभिः ॥ सलज्जं सानुतापं च । सपूत्कारमदोऽवदतू ॥ ७ ॥ क्व यामि किमु वा वच्मि । क्व विशामि करोमि किं ॥ आत्मनैव मयात्मा | दंत कष्टे निपातितः ॥ १० ॥ अनादृत्य कुलाचार - मचिंत्य च निजोचितं ॥ धर्मवेदमना
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वृत्ति
॥ ४०३ ॥
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वत्ति
शोलोपलोच्य । हा किं चक्रे उरात्मना ।। ११ । लदमेव चंश्लेखायां । उग्धे पूतरकानिव ।। हहा
दोषमसंन्नाव्यं । तस्यां कथमन्नावयं ॥ १२ ॥ अंतर्वत्नी प्रिया प्रैषि । कथं हा निर्जने वने ॥ ॥४०४॥ न पुनः प्रेषणार्दापि । प्रहिता सा पितुर्गुहे ॥ १३ ॥ विशेषकं ॥ तत्कस्य दर्शयिष्यामि । स्व
कीयमहमाननं ॥ सतोऽपि लज्जेऽहं प्राणान् । धारयस्तदतः परं ॥१५॥ प्रगुणी क्रियतां तस्मा-चिता दारुगणैश्चिता ॥ देहं दहामि येनाहं । नारीहत्यामलीमसं ॥१५ ॥ श्रुत्वेति साग्रहं वाक्यं । राज्ञः पौरा गजादयः ॥ सशोका मंत्रिमुख्याश्च । नूपमिडं व्यजिज्ञपन् ।१६। एका तावन्मृता देवी । केनापि निजकर्मणा ॥ स्वमृत्युना पुनर्नाथ । किं प्रजातं चिकीर्षसि ॥१७॥ किंचान्यदधुना स्वामि-नाग्रहे तव जागृति ॥ सबिर श्व वैमूर्ये । प्रविक्ष्यति वि. षां गुणाः ॥ १७ ॥ तवे किनिमां मुंच । मुधा मृत्योः कथामपि ॥ जुह्वतिस्म तनुं वह्नौ । शलन्नाः सुन्नटा न तु ॥ १५ ॥ इत्यादि पौरामात्यानां । युक्तियुक्तवचांस्यपि ॥ अनादृत्य नृपो वेगा-मृत्यवे काननेऽगमत् ॥ २०॥ समयझो गजः श्रेष्टी। कालदेपचिकीरथ ॥ मधुराकरमादस्म । श्रीशंख धरणीधवं ॥ १ ॥ देव देवीसमीहा चे-तत्पुण्योपचयं चिनु ॥ यत.
॥
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कालोप
वत्ति
०५॥
स्तेनैव हन्यते । पूर्वाचीर्णा महापदः ॥ २२ ॥ ततश्चोपवनेऽत्रैव । विहारे श्रीजिनेशितुः ॥ अचिंतितफलां मूर्ति । सद्योऽर्चयितुमईसि ॥ २३ ॥
किं चात्र वनमध्येऽस्त्य-मिततेजा महामुनिः॥ सांप्रतं सांप्रतोपास्ति-स्तस्यापि के. मकांदया ॥ २४ ॥ तत्कणोचितमाकर्ण्य । तच्चः शंखरामपि ॥ जिनमत्यर्च्य साधु च । नत्वा पुर नपाविशत् ॥ २५॥ मुमुक्षुरपि विज्ञात-तनावो मधुरादरं ॥ चकाराऽतिशयझानी। देशनां नवनाशिनी ॥ २६ ॥ जीवाः संसारकांतारे । पूर्वकर्मवशेरिताः ॥ वातप्रम्य इव व्यय | ब्राम्यति ब्रांतिसंनृताः ॥ २७ ॥ सुखं सुखमिति ब्रांत्या । दुःखपृक्ताः पदे पदे ॥ जीवाः क्लिष्यंति संसारे । वातोद्भूतपलाशवत् ॥ २७॥ कल्पऽमिव कामार्थी । नावोझ्निो नवीह दा ।। न सेवते जिनादेशं । परत्रेह च शर्मदं ॥ २५॥ दुःप्रापं प्राप्य जन्मेदं । तज्ञज
न मा वृथा मृथाः ॥ अचिरेणैव कल्याण-नाजनं हि नविष्यसि ॥ ३० ॥ तहाचमिचमा- * कर्य । सद्यः संजातसंमदः ॥ विशश्राम विशामीश-स्तत्रैव खलु तां निशां ॥ ३१ ॥ अ
थो वित्नातकल्यायां । विनावाँ भुवःपतिः ॥ स्वप्नमालोक्य तं प्रात-र्गुरुणां पुरतोऽवदत् ॥
॥
५॥
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लोप
| ४०६ ॥
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॥ ३२ ॥ अपक्वैकफला वल्ली । पतिता कल्पपादपात् ॥ श्रारुरोद पुनः पूर्ण- फला सा तत्र त त्क्षणात् ॥ ३३ ॥ गुरुरप्याह भूमीं । जवान कल्पमदीरुदः ॥ वल्ली प्रिया ते सा सूत-पुत्रा पुनरुपेष्यति ॥ ३४ ॥
अतः प्रीतः पुरं प्राप्य । सत्वरं नृपकुंजरः । पदात्यश्वयुतं दत्तं । राज्ञीमन्वेष्टुमादिशत् ॥ ३५ ॥ दत्तोऽपि दत्तदृक् विष्वक् । वृक्षावृक्षं वनाद्दनं ॥ भ्राम्यंस्तापसमादी-हूराद् हीपमिवबुधौ ॥ ३६ ॥ गत्वा पप्रच्छ दत्तो शकू । वनेऽस्मिन जगवंस्त्वया ॥ वीक्षितैकाकिनी काचि - निता क्वापि दुःखिता ॥ ३७ ॥ प्रत्युवाच मुनिर्भ । किं तया कार्यमुच्यतां ॥ तेनोक्तं भूपतेर्वह्नौ । विशतः प्राणरक्षणं ॥ ३८ ॥ मत्वा भूपतिसाहाय्यं । मुनिराश्रमरक्षणात् ॥ दत्ताय दर्शयामास । पुत्रोपेतां कलावतीं ॥ ३५ ॥ दूरतो दत्तमालोक्य | जाग्रचोका कलावती ॥ रुरोद रोदसी कुक्षिं-नरि मूत्रप्रतिस्वनैः || ४० || दत्तः प्राह स्वसमास्म । रोदी: कर्मफलं ह्यदः ॥ प्रभुक्त्वा प्राग्भवोपात्तं । न मुच्यं ते जिना अपि ॥ ४१ ॥ तद्विवेकिनि धीरत्व- माधाय रथमारुद || स्वदर्शन सुधादृष्ट्या | नृपमाश्वासय द्रुतं ॥ ४२ ॥ पश्चात्तापपरो
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वृत्ति
॥ ४०६ ॥
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शीलोप
॥ ४७॥
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भूपो । वह्निमह्नाय संविशन् || दिनमद्यतनं कष्टात् । स्थापितोऽस्ति त्वदाशया ॥ ४३ ॥ कुलीना मानमुन्मुच्य | प्रियकारुण्यतस्ततः ॥ नत्वा कुलपतिं सद्य | आप कलावती ॥ ॥ ४४ ॥ ततस्तेनापि दत्ताशीः । प्रहिता दितमिच्छुना ॥ चचाल सह दत्तेन । सांगजा विजयांगजा ॥ ४५ ॥ आकर्ष्याथ पुरोपांत्य - मागतां शंखनूपतिः ॥ नदश्रुलोचनो राज्ञी - मु. वाच न्यंचदाननः ॥ ४६ || निर्दोषापि तदा नरे । यन्मयासि विमंबिता || मोचिता च व
तन्मे । कम्यतां देवि दुःकृतं ॥ ४७ ॥ नृपः प्रीतिपरो बाढं । संमान्येति महासतीं ॥ पुरं प्रवेशयामास । सादरं समदोत्सव || ४८ || पौरांतःपुरनारीनि-वृता देवी कलावती ॥ शचीव सजयंताप । शुद्धतं पुत्रसंयुता ॥ ४ए ॥ स्वप्नानुसारतः पूर्ण - कलशेत्यभिधां ततः ॥ स्वसूनोः कारयामास । द्वादशेऽहनि नूपतिः ॥ ५० ॥ कलावत्यन्यदा प्राह । नूपतिं रहसि स्थिता ॥ केन दोषेण मे स्वामिन् । स दंमः कारितस्त्वया ॥ ५१ ॥ सलज्जमथ नूपालः । प्राद जरे ध्रुवं त्वयि ॥ प्रतिपच्चंश्लेखाया-मिव दोषो न सर्वथा ॥ ५२ ॥ किंतु ते प्राग्जवाचीर्ण - कर्मदोषवशादहं । तत्कर्माकरवं यन्त्र | मातंगा अपि कुर्वते ॥ ५३ ॥ तन्मूलकारणं
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वृत्ति
॥ ४७ ॥
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lavo
॥ ४८ ॥
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चेदं । यत्तद्गदयोर्युगं ॥ विनैव जयसेनाख्यां । जवत्या श्लाघितं प्रिये ॥ ५४ ॥ नगरोपवनस्थालो- र्मुनेरमिततेजसः ॥ यत्कर्म प्राक्तनं पृष्ट्वा । तदपि ज्ञास्यतेऽधुना ॥ ५५ ॥ ततः कलावतीदेव्या | साई मुनिनिनंसया । जगाम नंदनोद्यानं । नूधवः सपरिद्वदः ॥ ५६ ॥ रामे चैत्यसत्त्या पूजयित्वा जिनेश्वरं । निषीदतुर्मुनेर । दंपती नतिपूर्वकं ॥ ५७ ॥ देशनांते महीपालः । पप्र प्रांजलिर्मुनिं ॥ जगवन् किं कृतं कर्म । कलावत्या पुरावे ॥ ५८ ॥ निर्दोषाया अपि मया । येनास्याश्वेदितौ भुजौ ॥ मुनिराख्यातुमारेने । ज्ञात्वाथ ज्ञानचक्षुषा ॥ ५ ॥
अस्ति श्रीमहोदय । श्रीमज्ञनित्रं पुरं ॥ तत्र भूमिपतिश्चारु - विक्रमो नरविक्रमः ॥ ६० ॥ लीलावती च तन्नार्या- सूत पुत्रीं सुलोचनां ॥ आबालकालं सा धर्म - रसिका कौतुक प्रिया ॥ ६१ ॥ मातापित्रोर्मदाप्रेम-पात्रं सत्रं कलाततेः ॥ सा प्राप बाल्यतारुण्यसंधिवर्यै वयः क्रमात् ॥ ६२ ॥ एतस्यां पितुरुत्संग - स्थितायां नूनृतोऽन्यदा || केनाप्युपायमीचक्रे । राजकीरो मनोहरः ॥ ६३ ॥ ततः कौतुकिना राज्ञा । करे कृत्य स पावितः ॥
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वृत्ति
॥ ४०८ ॥
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झीलोपनत्पाट्य दक्षिणं पाणि-माशीर्वादमुदाहरत् ॥ ६ ॥ स्फुरत्तमःपक्षपाति-राजतेजोऽन्निवाईकः वृत्ति
नाति प्रतापन्नानुस्ते । राजन् विश्वावन्नासकः ॥६५॥ प्रीतः स्वदेदालंकारां-स्तदानेतु॥॥॥ नरेश्वरः ॥ दत्वा राजशुकं तु स्व-पुत्र्यै प्रीतमना ददौ ।। ६६ ॥ तं लब्ध्वा सापि दारिद्धि
तनूज इव मोदकं ॥ गत्वा गृहेऽतिपत्स्वर्ण-पंजरे मदिरेक्षणा ॥६७ ॥ शर्कराशकलैः शालि-दाडिमीफलन्नकणैः ॥ दारदूरादिपानः सा । प्रमोदात्तमपोषयत् ।। ६७ ॥ सा कदाचिकरस्थं तं । हृदयस्थं कदाचन ॥ अंकस्थं पंजरस्थं च । पाठयंती व्यनोदयत् ॥ ६॥नोजने शयने राजा-स्थाने याने वने गृहे ॥ योगीव मानसैकाम्यं । नाऽमुंचतं सुलोचना ॥ ॥ ७० ॥ सुलोचना तइंगो-द्याने तु कुसुमाकरे ॥ पंजरस्थं तमादाय । गताऽनेकसखीयुता ॥१॥ तत्र सीमंधरं नंतुं । प्रविष्टा सा जिनौकसि ॥ शुकोऽपि दृष्ट्वा श्रीवीत-रागं चेतस्थानावयत् ॥ ७ ॥ दृष्टपूर्वमिदं बिंब-मीहक्कापि मया पुरा ॥ इत्यूहापोहसंदोहं । विदा धानश्चिरं शकः ॥ ७३ ॥ जातजातिस्मृतिर्दध्यौ । यदहं पूर्वजन्मनि । चारित्रं सुगतिप्राप्ति- र प्रतिन प्राप्तवानहं ॥ ७० ॥ अध्यैषि सर्वशास्त्राणि । कृयोपशमतस्ततः॥ क्रियां पनरकार्ष
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वनि
शोलोपन । सर्वथा पठनैकधीः॥ ५ ॥ वस्त्रपुस्तकपात्रादि-मूर्गमुदिततत्वधीः ॥ परोपकरणीक-
त्य । मुधा ज्ञानमहारयं ॥ ७६ ॥ व्रतं विराध्य पर्यंत-मसंशोध्य मुधावतं ॥ विपद्य कानने ॥४१॥ मुष्मि-नहं राजशुकोऽनवं ॥ ७॥
प्रत्यासन्नतया मुक्त-शास्त्रज्ञानबलादहं ॥ तिर्यग्नवेऽपि संजातः । पाठको धिषणापदुः॥ ७० ॥ तत्कथं ज्ञानदीपेऽहं । करप्राप्तेऽप्यपुण्यवान् ॥ तिर्यग्जन्मोदधौ मनः । स्खलचरणपतिः ।। ७ए ॥ अतःपरमहं नाथ-मेनं नत्वैव संततं ॥ आदास्ये नक्ष्यमित्येष । नियमोऽत्रापि मे नवे ॥ ७० ॥ सुलोचनापि तीर्थेशं । नत्वाऽन्यय॑ च नक्तितः ॥ सपंजरं समादाय । निजमंदिरमासदत् ॥ १॥ कीरं करेऽन्यदाऽादाय । राजकन्या सुलोचना ॥नोक्तुं यावपाविदत् । स्मृत्वा स्वनियमं शुकः ॥ २ ॥ तावन्नमोरहंताण-मित्युक्त्वा च ननोऽध्वना ॥ नदमीयत तीर्थेशं । नंतु चैत्यं जगाम च ॥ ३ ॥ युग्मं ॥ स्वैरं सीमंधरं दे व । नत्वा त्रैवय॑शुहितः ॥ विजहार फलाहारैः । प्रीतः श्रीकुसुमाकरे ॥ ४ ॥ इतो राजतनूजायां । क्रंदत्यां तक्ष्यिोगतः ॥ धावंतिस्म तमादातुं । पत्नयो गरुमा श्व ॥ ५ ॥ तं ब
॥१॥
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शीलोप
॥ ४११ ॥
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न्नं पादपांतस्ते | निविष्टं शाखिनि द्रुतं ॥ बध्ध्वा पाशेन नूपाल - कन्याया उपनिन्यिरे ॥ ८६ ॥ सा प्रेममन्मनालापैः । करेणादाय तं जगौ ॥ जननीनिर्विशेषां मां । परित्यज्य गतो - ऽसि यत् ॥ ८७ ॥ न विश्वसिमि तेनाद - मित्युदीर्य नृपांगजा ॥ गतिगाय तत्पक्षौ । रोपादिपमलीलवत् ॥ ८८ ॥ जीवं दुश्वी कर्मै वा ऽपारसंसारसागरे ॥ तं पंजरे विनिक्षिप्तं । स्थापयामास नूपजा ॥ ८९ ॥ शुकोऽप्यचिंतयग्मेि । पराधीनत्ववेदनां ॥ क्रियां नाऽकरवं मूर्खः । स्वाधीनामपि दा तदा ॥ ९० ॥ सहस्व तदिदानीं रे । जीव पीवरवेदनाः ॥ क्व ते जिनमुखं दृष्टुं । समयः पापकर्मणः || १ || इत्यादिचिंता संताप - मनो दारितशेखरः ॥ श्रश्रू
मुमुचे कर्म -लवानिव विरागवान् ॥ ९२ ॥ स मृत्वाऽनशनेनाथ । कतिचिद्दिवसांतरे ॥ 'देवः सौधर्मकल्पेऽनू - दनल्पाकल्पविभ्रमः || ३ || सुलोचनापि तद्दुःखान्मृताऽनशनमृ
ना || सौधर्मेऽप्रिया तस्य । बुभुजाते च तौ सुखं ॥ ९४ ॥ राजन् स शुकजीवस्त्वं । शंखनामा ततश्च्युतः ॥ जातः सुलोचनाजीवः । पुनरेषा कलावती ॥ एए ॥ प्राग्भवे यत्कलावत्या | पक्षौ विन्नौ शुकस्य ते ॥ तत्कर्मणो विपाकेन । त्वयाऽस्याश्वेदितौ करौ ॥ ए६ ॥
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वृत्ति
॥ ४११ ॥
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शोलोप
॥१२॥
सर्वस्य कर्मणोऽवश्यं । शुनस्याऽप्यशुनस्य वा ॥ दशधा बहुधा चैव । विपाकः परिपच्यते । वृत्ति ॥ ए७ ॥ जातिस्मरणमासाद्य । ततस्तौ दंपती कणात् ॥ संयमायोद्यतौ साधु । प्रणम्य स्वगृहं गतौ ॥ ए॥ निवेश्य राज्ये श्रीपूर्ण-कलशाख्यं निजांगजं ॥ दीक्षां जगृहतुः पार्थे । गुरोरमिततेजसः ॥ एए ॥ प्रपाख्य चारित्रमनल्पकालं । तौ दंपती स्वर्गमवाप्य सम्यक् ॥ ततश्च्युतौ वीणकुकर्मलेशौ । क्रमाविवं प्राप्स्यत नत्तरेण ॥२०॥ ॥इति श्रीरुपल्लीयगजे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां कलावतीकथानकं समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ।। कासांचिन्महासतीनां गृहवासे वसंतीनामपि महर्षिस्तवनीयं शीलमाहात्म्यमाह
॥ मूलम् ॥–सीलवश्नंदयंती-मणोरमारोहिणीपमुहान ॥ रिसिणोवि सया कालं । महासईणं धुणंति गुणे ॥५६॥ व्याख्या-शीलवतीनंदयंतीमणोरमारोहिणीप्रमुखा महा- ॥१॥ सत्यो जयंत्विति संबंधः, प्रमुखशब्देनाऽननिव्यक्तप्रनावप्रतीक्षाणां पतिव्रतानां बाहुल्यमुक्तं, यासां महासतीनां सदाकालं नित्यमृषयोऽप्याजन्मब्रह्मचारिणोऽपि गुणान् स्तुवंति, निर्मलं
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वृत्ति
झीलोपशीलातिशयं श्लाघंत इत्यर्थः, नावार्थः कथानकानिगम्यः, तत्रादौ शीलवतीकथा प्रतन्यते.
तथाहि॥१३॥ जंबूदीपान्निधदीप-मौलिमाणिक्यमंडनं ॥ अस्ति श्रीनंदनवन-नामधेयं पुरोत्तमं ॥
॥१॥ यत्र स्फटिकदाग्रो-बलत्कांतिकदंबकैः ॥ दस्यमान श्व व्योनि । दीयते कणदापतिः॥२॥ तत्रारिमईनो राजा । यस्य विष्टपमंझपे ॥ यशश्चशेदयः स्फार-तार विवित्तिन्नाग् बन्नौ ॥३॥ मान्यस्तस्य सदाचारः। श्रेष्टी रत्नाकरानिधः॥ श्रीनामधेया तज्जाया। निर. पायगुणोदया ॥ ॥ श्राधर्ममनाबाधं । पालयनयमायतौ ॥ सुखहेतुं चिरेणापि । न लेने पुत्रसंततिं ॥५॥ पुत्राऽनावमहापुःख-पीमिता श्रीरथान्यदा ॥ श्रीश्रेष्टिनमन्नाषिष्ट । शिष्टाचारविधायिनी ॥६॥ चैत्याग्रेऽजितनाग्रस्य । स्वामिन्नुपवने पुरः । देवी व्यक्तमहा शक्ति-रास्तेऽजितबलानिधा ॥ ७ ॥ सा च पुत्रानपुत्राणां । निर्धनानां धनानि च ॥ उन गानां च सौनाग्या-न्याधत्ते सेविता सती ॥ ७ ॥ तदार्यपुत्र तस्यां त्व-मुपयाचितुमर्हसि॥ पुत्रार्थे हि विधीयते । स्वप्राणा अप्युपायनं ॥ए॥ तेनापि तत्तथा चक्रे । जातश्च तनयो
॥१३॥
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हीलोप नमः ॥ नाग्ययोगात्फलंत्येव । काले स्वाराधिताः क्रियाः॥१०॥ अथ जन्मोत्सवावं । वृत्ति
3. देवीमाहात्म्यसूचिकां ॥ चक्रेऽजितसेन इति । तस्याख्यां हादशेऽहनि ॥ ११ ॥ कमावाल्य-५ ॥१५॥ मतिकम्य । संप्राप्तो यौवनश्रियं ॥ शिश्रिये स्पाईयेवासौ । सरस्वत्या श्रियापि च ॥१॥
तस्यानुरूपकन्यायै । श्रेष्टी रत्नाकरस्ततः ॥ चिंतां चकार शास्त्रार्थ-संदेह श्व बुध्मिान ॥ ॥१३॥ कन्यामात्मगुणैस्तुल्यां । यद्येष मम नंदनः ॥ न लन्नेत ध्रुवं तत्स्या-क्ष्यर्थः स्रष्टुरुपक्रमः ॥ १५ ॥ यतः-निर्विशेषः प्रनुः पार-वश्यं दुनियोऽनुगः॥ दुष्टा नार्या च चत्वारि । मनःशल्यानि देहिनां ॥ १५ ॥ श्तश्च व्यवसायार्थ । तेनैव प्रहितः पुरा ॥ कोऽप्यन्येत्य वणिक पुत्र-स्तदंतिकमुपाविशत् ॥ १६ ॥ व्यवहारस्वरूपं च । स पृष्टः श्रेटिना कृती
आयव्यययुतं सर्वै । व्याजहार यथाविधि ॥ १७ ॥ किंचाहं जग्मिवान क्लृप्त-मंगलायां) 4. महापुरि ॥ श्रेष्टिना जिनदत्तेन । व्यवहारोऽनवन्मम ॥ १७ ॥
४१४॥ नोजनायाऽन्यदा तेना-ऽन्यर्थितस्तदेऽगमं ॥ अशकं कन्यकां तत्र । स्वर्गादृष्टां सुरीमिव ।। १५ । केयमित्यहमप्रादं । ततो विस्मितमानसः । श्रेष्टी प्राह तनूजेयं । मम चिं.
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वृत्ति
शीलोपतेव देदिनी ॥ २०॥ यतः-किं प्राप्स्यति वरं श्रेष्टं । तदिष्टा किं नविष्यति ॥ किमसौ श्व-
सुरादीनां । स्वगुणै रंजयिष्यति ॥ १ ॥ पालयिष्यति किं शीलं । प्रसविष्यति किं सुतं ॥ ॥१५॥ श्वसुरादिकवर्गोऽस्याः । कथं वा तोषयिष्यते ॥ २२ ॥ मा नवंतु सपन्योऽस्या । दुष्येयुर्मा
स्म यातरः ॥ पितृगृहे कन्या । मूर्ता चिंतेव वाईते ॥ २३ ॥ एषा च गुणमाणिक्य-रोहणाचलनूमिका ॥ पदिशब्दांतसर्वांगि-नाषाविज्ञानदक्षिणा | ॥ कन्येयं शीलवत्याख्या । ख्याता रूपकलागुणैः ॥ तदस्यां योग्यजामातृ-चिंता मे बाधतेतरां ॥ २५ ॥ मयोतं देव मा चिंतां । कुरु श्रीनंदने पुरे ॥ अस्ति योग्यो वरोऽमुष्या। रत्नाकरसुतोऽजितः ॥ ॥ २६ ॥ जिननशेऽन्यधान । साधु साधु त्वयोदितं ।। वरचिंतोदधौ मनो । नवताऽय समुख़्तः ॥ २७ ॥ नुक्त्वेत्यजितसेनस्य । दातुं शीलवती सुतां ॥ जिनशेखरनामानं । प्रजिघा- य निजं सुतं ॥ २७ ॥ सोऽप्यत्रैव मया साई-मागतोऽस्ति धियां निधिः ॥ इति कर्त्तव्यता
तस्मा-च्छ्रेष्टिनादिश्यतां मम ॥श्या श्रेष्टी प्राह महानाग । साध्वेवोपकृतं त्वया ॥ जातश्च सर्वलानेन्यो । महालानोऽयमेव मे ॥ ३० ॥ ससत्कारमयादूतः । श्रेष्टिनूर्जिनशेखरः॥
॥१५
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शीलोप
वृत्ति
॥४१
ददावजितसेनस्य । यामि शीलवती मुदा ॥ ३१ ॥ ययावजितसेनोऽपि । साई तेनैव तां पुरीं ॥ परिणीय महा च । समियाय निजं गृहं ॥ ३२ ॥ स तया गृहलक्ष्म्येव । स्वगोत्रा-4 मृतकुख्यया ।। त्रिवर्गसारं गार्हस्थ्य-धर्म चिरमपालयत् ॥ ३३ ॥ शिवाध्वनिमथाsकर्याऽन्यदा शीलवतीसती ॥ निशीथे निर्गता गेहा-टमादाय मूनि ॥ ३४ ॥ तदानीं श्वसुरस्तस्याः । कामिन्वेव जरजवः॥ निश्या दूरतस्त्यक्त-स्तां ददर्श महासतीं ॥ ३५ ॥ विकल्पोदधिनिर्मग्न-श्वेतस्येवमचिंतयत् ।। कुशीलां कलयाम्येना-ममीनिलक्षणैर्वधूं ॥ ३६ ॥ सजोत्रजा अपि घन-रसकल्लोलसंयुताः । प्रायः स्त्रियो नवत्येव । निम्नगा श्व निम्नगाः ॥३७॥
एताः स्वार्थपरा नार्यो । बहिरेव मनोहराः ॥ अत्यंतदारुणाश्चांतः । स्वर्णाव्याः क्षुरिका व ॥ ३० ॥ शीलवत्यपि निर्माय । किंचित्कार्यमनिंदितं ॥ घटं मुक्त्वा पुनः प्राप्ता । स्वतल्पमविकल्पितं ॥ ३५ ॥ पयस्यलांबुवचिंता-शतपातुकधीरिमः ॥ नत्सुको रजनीशेषे ।
श्रेष्टी जायामन्नाषत ॥ ४० ॥ वधूः शीलगुणैर्वहे । कीदृशी प्रतिनाति ते ॥ तयोक्तं कुलममर्यादा-नुरूपं चेष्टतेऽखिलं ॥ १ ॥ नांतर्मुखी शेमुखी ते । इंमन्ये यन्मया निशि ॥ वी.
॥१६॥
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शीलोप
॥ ४२७ ॥
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૫૩
fadara Ffप |रंतुमय गता वधूः ॥ ४२ ॥ तत्समस्तप्रमाणेभ्यो । बलीयोऽध्यक्ष मे. व हि ॥ जानीहि सकलंकांत-वधूं चंतनूमिव ॥ ४३ ॥ इतश्वाऽजितसेनोऽपि । पितुः पादनिनंसया || समेतस्तत्र तेनाऽय । सखेदमिव जाषितः ॥ ४४ ॥ किमिह प्रोच्यते वत्स । विartis मांगले || रोपिता च न सेहे च । पारिजातकवारी ॥ ४५ ॥ यत्तादृग्वंशजातापि । गुणसंसर्गवत्यपि ॥ कौटिल्यं जजते चाप - लतिकेव वधूरियं ॥ ४६ ॥ सलज्जमजितोऽप्याह | जिनधर्मरताप्यसौ ॥ चेइते दुष्टचारित्वं । इतास्तदखिला गुणाः || ४७ || जाने वत्सवधूरासी- कपलीव नः कुले ॥ सांप्रतं दृष्टदोषा तु । विषवल्लेर्विशिष्यते ॥ ४८ ॥ किंच — को नाम स्त्रीषु विश्वासः । श्वासस्येव शरीरिणः ॥ स्वार्थैकवशतः शीलं । यासां विद्युल्लतायते ॥ ४७ ॥ यदुक्तं
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न बद्ध्यते गुणैः पत्युर्न लक्ष्यंते परीक्षकैः ॥ न घनेन च धार्यते । शीलत्यागोद्यताः स्त्रियः ॥ ५० ॥ शास्त्रेषु श्रूयते यच्च । यच्च लोकेषु गीयते ॥ संवेदयंति दुःशीलं । तन्नार्यः कामलाः ॥ ५१ ॥ निशीथेऽद्य गता क्वापि । नीराहरणदंनतः ॥ यामे तु पुनरप्यागा
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वृत्ति
॥ ४१७ ॥
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शीलोप
॥ ४२८ ॥
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तो मे वधूरियं ॥ ५२ ॥ श्रवेहि तदिमां वत्स । दुर्वृत्तां त्यजनोचितां ॥ गुर्वा देशपराधीनस्तथेत्युक्त्वा गतः सुतः || ३ || श्रेष्टी कूटप्रयोगेण । तस्याः प्रातरजिज्ञपत् ॥ त्वामाह्वयति ते तातो । वत्से मिलितुमुत्सुकः ॥ ५४ ॥ ज्ञात्वा रात्रिविकल्पं तं । विदग्धा शीलवत्यपि ॥ अनुमेने परीक्षायां । किं जात्यं हेम कंपते ॥ ५५ ॥ स्यंदनं प्रगुणीकृत्य | शील
समन्वितः ॥ स्वयं रत्नाकरः श्रेष्टी । चचाल कृतमंगलः ॥ ५६ ॥ मार्गे नद्यामुपेतायां । श्रेष्टी शीलवतीं जगौ || पादत्राणे परित्यज्य । वत्से संचर पाथसि ॥ ५७ ॥ किंचिद्विचार्य साऽप्यंत-स्ते विशेषेण पर्यधात् ॥ मेने च दुर्विनीतां तां । श्रेष्टी प्राकूतकश्मलः ॥ ५८ ॥ पुरः फलितमालोक्य | मुक्षेत्रं जगावसौ ॥ अहो शस्यश्रियः क्षेत्र - स्वामिनः करगोचराः ॥ ए ॥ स्नुषाऽनाणी देवमेतन्न जग्धं यदिदं पुरा || श्रेष्टी दध्यावसंबध - प्रलापिन्यप्यसाविति ॥ ६० ॥ एतस्यां वामचारित्वाऽनुरूपं कृतवानिति ॥ मुदितो द्रुतसंपातं । श्रेष्टी रथमचालयत् ॥ ६१ ॥ समृद्ध्या धनदरंग - सरंगं जनसंकुलं ॥ पुरः पुरमथोद्दीक्ष्य । सोऽशंसन्मूर्धधूननात् ॥ ६२ ॥ तयापि व्यापिबुद्ध्योचे । साध्विदं यदि नोइसं ॥ श्रेष्टिनाऽचिंति सो
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वृत्ति
॥ ४१० ॥
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* वृत्ति
शीलोपल्लुं ठ-गीर्मामपि हसत्यसौ ॥ ६३ ॥
अग्रेऽत्र नटमालोक्य । प्रहारत्नरजर्जरं ॥ श्रेष्टी श्लाधितवानस्य । शौंमीय साधु सा॥१॥ ध्वति ॥ ६५ ॥ विलोक्य तमश्रो प्राह । मधाविव पिकीवधूः ।। साध्वस्ति कुट्टितस्ताव-त्पा
मरोऽयं हि कातरः ॥ ६५ ॥ प्रतिकूला ध्रुवं ह्येषा। मक्ते उष्टचारिणी ॥ प्रत्यकेऽपि विरुक्षार्थ-मुन्मत्तेवाऽन्यधत्त या ॥६६ ॥ नावयनिति तत्याग-कर्म चाप्यनुमोदयन् ॥ न्यग्रोधपादपाधस्ता-क्वापि श्रेष्टी स्थितः पथि ॥ ६७ ॥ वधूरपि वटबायां । परिहृत्य सुदूरतः ॥
आतप पटमावृत्य । तस्थौ स्थिरमतिप्रना ॥ ६ ॥ श्रेष्टी प्राह जिनदत्तां-गजे गयामुपाश्र - य ॥ श्रुत्वाऽप्यश्रुतकेनेव । साऽस्थानजनिमीलया ॥ ६ए ॥ अहो चरितवामेयं । न शिक्षा
ही कुशिष्यवत् ।। इत्युपेक्ष्य स्वयं तस्थौ । तबायाप्तसुखासिकः॥णा ततःक्वापि गतः श्रेष्टी । कर्बटे तत्र गत्वरीः ॥ कुटोस्त्रिचतुरो वीक्ष्य । ग्रामं अस्थमुदाहरत् ।। ७१ ॥ ततः शील- वती किंचि-हिमृश्य मतिमहरा ॥ जनतासंकुलं स्थान-मिदमित्युच्चकैर्जगौ ॥ ७२ ॥ सर्व था विपरीतेयं । कुशिक्षिततुरंगवत् ॥ इति यावषिमात्मा । श्रेष्टी चेतस्यचिंतयत् ॥ ३॥
॥१॥
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॥ ४२० ॥
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तावता मातुलस्तस्यास्तत्राभ्येत्य सगौरवं ॥ श्रेष्टिनं स्वगृदे नीत्वा । जोजनाद्यैरुपाचरत् ॥ ७४ ॥ साग्रहं स्थाप्यमानोऽपि । तेन श्रेष्टी तु सोत्सुकः । प्रतस्थे सवधूकस्त - क्लृप्तव स्वादिसत्कृतिः ॥ ७५ ॥ संप्राप्तः प्रांतरं वृक्ष-वायायाममुचइथं ॥ भुक्त्वा तदुपरि श्रेष्टी । कणं श्रांतश्व सुप्तवान् || ६ || वधूरपि पितुर्गेहं । ततोऽन्य विजानती ॥ शुनाचारा स्वकर्माप्ति-हृष्टा जोक्तुमुपाविशत् ॥ ७७ ॥ करीरस्तंब मारूढ - स्तावता करटोडरटत् ॥ तनापामुपलभ्याह । किं रे करकरायसे ॥ ७८ ॥
श्रुत्वेति चिंतयामास । श्रेष्टी वातकिनी ह्यसौ ॥ दुराचारा नराऽजावा- नापते शकुनैरपि ॥ ७९ ॥ काके करंबकालोक - जातोत्कंठे रटत्यलं || विमृश्याऽवसरं प्रोच्चैः । सती निःशंकाख्यत || || वियुक्ता दुर्नयेनाहं । पत्युरेकेन रे ठिक || पित्रोरपि द्वितीयेन । कृतेन तु मिलामि न ॥ ८१ ॥ जागरूकस्ततः श्रेष्टी । सानिप्रायमिदं वचः ॥ श्रुत्वा प किं वत्से | दुर्नयेनेत्युदीर्यते ॥ ८२ ॥ सा प्राह सत्यमेवाहं । वच्मि श्वसुर सर्वथा ॥ दोषाय मे गुणा एव । जाताश्चंदनवद्यतः ॥ ८३ ॥ कुसुमनिचयः शाखानंगं तनोति वनस्पते
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वृत्ति
॥ ४२० ॥
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वृत्ति
शीलोप रखसगमनो बर्हाटोपो वधाय शिखंडिनः॥ चतुरगमनो यो जात्योऽश्वः स गौरिव वाह्यते ।
Ka गुणवति जने प्रायेणैते गुणाः खलु वैरिणः ॥ ४ ॥ बाल्ये बंधूपरोधेन । सर्वशास्त्रशिरोम॥४१॥ णिं ॥ अहमध्येषि मूढात्मा । शास्त्रं पक्षिरुताह्वयं ॥ ५ ॥ गिरा गारुडिकस्येव । सर्पदष्ट -
व क्षणात् ॥ नबाय रश्रतः श्रेष्टी । तं तत्पार्श्वमीयिवान् ॥ ६ ॥ तदाहं हंत निर्जाग्या । पर निशीथे तव जाग्रतः ॥ श्रुत्वा श्वसुर गोमायु-कांताध्वनिं समुचिता ॥ ७ ॥ घटमादाय
मूर्धाऽगां । नदी तीर्वा च तेन तां ॥ अदां मृतकमाकृष्य । शिवायै जलमध्यतः ॥ ७ ॥ तकटीतटसंटंकी-न्यादायाऽन्नरणान्यहं ॥ अनाणि घटे दिप्त्वा । प्रिं स्वगृहमागमं ॥ ॥ नए ॥ निखातानि महीपीठे । संति तानि तथैव च ॥ अनेन नयेनाह-मियती भुवमासदम् ॥ ए ॥ सांप्रतं वायसस्त्वेष । याचमानः करंबकं ॥ ब्रूते करीरस्तंबाधो । दशलक्षा णि कांचनं ॥ १ ॥ तदहं वच्मि रे काक । पुर्विपाकमिदं वचः॥ मा पुनः पुनराचदव । ते दारमिवात्र मे ॥ ए॥
ततः ससंभ्रमं कौँ । कंपयन स्थविरो जगौ ॥ किं वत्से सत्यमप्येत-त्साऽवदत्संश
)
॥
॥
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वत्ति
कोलोपयोऽत्र कः ॥ ए३ ।। ततः परिकर बध्ध्वा । वृस्तरुणवत्तदा ॥ अयःकुद्दालमादत्त । करे कम-
J ललीलया । ए४ ॥ काकाय स्वजनायेव । दापयित्वा करंबकं ॥ स्वयं खनितुमारेने । करी॥४२॥ रस्तंबमादरात् ।। एए ॥ प्रादुरासन स्वर्णकुंनाः। शीलवत्या गुणा इव ॥ तस्या दोषा इव
क्षिप्ता । दूरतस्तेन रेणवः ॥ ए६ ॥ अहो मूर्तिमती लक्ष्मी-रेवासौ महे वधूः ॥ काचब्रांत्या मरकत-मिवाऽवगणिता मया ॥ ७ ॥ ध्यायनिति रथे स्वर्ण-कलशान् सत्वरं न्यधात् ।। कमयामासिवांस्तां च । स्वापराधप्रकाशनात् ॥ ए॥ अन्निनंदन वधूमेष । सद्मस्थव्यसोत्सुकः ॥ स्यंदनं वालयामास । जितकासीव युःश्तः ॥ एए ॥ वधूराख्यदितोऽन्य
-मेव मेऽस्ति पितुर्ग्रहं ॥ तत्तात पित्रोः संगंतु-मुचितोऽवसरो ह्यसौ ॥ १० ॥ व्यावर्त्तस्वााग्रहादस्मा-त्कुलमुज्ज्वालयाऽधुना ॥ रश्रमारुद मे वत्से । शक् पूरय मनोरथान् ॥१॥ सापि श्वसुरदाक्षिण्या-दवचित्ता तथाऽकरोत् ॥ श्रेष्टी तु खेटयामास । रथं प्रमुदिताशयः॥ ॥॥ तत्पूर्वन्नणितं सर्वं । स मन्वानः सकारणं ॥ पर्वतोपत्यकावासं । ग्राममुसमागतः ॥३॥ जगाद मधुरं वत्से । न ते निर्देतुकं वचः॥ उसस्तदयं प्रामः । कश्रमूचे जनाकु.
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वृत्ति
शालोपलः ॥ ४ !! साडाख्यत ख्यातमेवेदं । तात लोकैन किंचन ॥ यत्रास्ति स्वजनः कोऽपि । त-
X बून्यमपि सुंदरं ॥ ५ ॥ नवंतमागतं श्रुत्वा । यदत्र मम मातुलः ॥ सञ्चकार तथा तेना॥४३॥ ऽस्माकमेतजनाकुलं ॥ ६ ॥ ततो हेतुशताश्लिष्टं । चाणाक्यस्येव जटिपतं ॥ वध्वा व्यव
सितं सर्वं । सान्निप्रायमसौ विदन ॥ ७ ॥
क्रमेण संगतो मार्ग-जुषो वटतरोस्तले ॥ वधू पप्रच किं वत्से । गयाऽस्य मुमुचे तदा ॥ ॥ युग्मं ।। साह श्वसुर किं नेदं । श्रुतपूर्वमपि क्वचित् ॥ वायसवेइटारूढो । वनिताशिरसि अवेत् ॥ ५ ॥ षण्मासान्यंतरे पत्यु-स्तदाऽपायो नवेन्महान् ॥ वृतमूले च सपादि-नवाद्या दोषराशयः ॥ १० ॥ युग्मं ॥ तदस्तापायमाचीण । वरं स्वाधीनकर्मणि ।। परिहृत्य वटबाया-मतिष्टमहमातपे ॥ ११ ।। साधु साधु कुलाधारे । सर्वनावविचकणे ॥ वृक्ष- त्वेन वयं वीत-मतयो बोधिता यया ॥ १२ ॥ श्लाघमानो वधूमिछं । त्रपमाणः स्वकर्मणा
॥ पुनः पप्रच किं साधु । स कुट्टित इतीरितः ॥ १३ ॥ अन्यधत्त वधूस्तात । तत्प्रहारा न संमुखाः ॥ प्रहारैः पृष्टगैरेव । प्रणश्यन् कुट्टितो ह्यसौ ॥ १५ ॥ श्रुत्वा चमत्कृतः श्रेष्टी । त
॥२३॥
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शीलोप
॥ ४२४ ॥
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न्मत्या पुनरब्रवीत् ॥ पत्तनं श्लाघ्यमेवैतत्कथमुलमन्यधाः || १५ || साऽवदत्सुवसेनापि । पत्तनेन किमत्र नः ॥ यत्र च स्वजनो नास्ति । यो दृष्ट्वाऽालापयत्यपि ॥ १६ ॥ यदुक्तं -
स्वनावस्नेहसांरेण । विनैकेन प्रियात्मना ॥ जनाकुलमपि कोणी - पीठमानात्यर एचवत् ॥ १७ ॥ सत्यमूचे महानागे । मुजक्षेत्रमिदं कथं ॥ परिपाकदशापन्न - मपि जग्धमुदादरः ॥ १८ || व्याजहार ततो दारि-हारदूरानुकारगीः || मुग्धा विदग्धगम्यार्थं । पश्य श्वसुर संमुखं ||१८|| भ्रामं ग्रामं क भूमौ । कर्षुकोऽसावितस्ततः ॥ रक्षाऽनपेक्षया शंवाः । स्वैरमनाति यद् डुतं ॥ २० ॥ तद् ध्रुवं व्यमादत्त | वृद्ध्यासौ व्यवहारिणः ॥ तेनात्र निरपेक्षात्मा । पूर्वं जग्धमतोऽब्रुवं ॥ २१ ॥ तमाकार्य ततः श्रेष्टी । स्वयं पच विस्मितः ॥ वृद्ध्याSादाय मया पूर्वं । जग्धमित्याह सोऽपि तं ॥ २२ ॥ अखिलं पुनरुत्पन्न - मिदं सोऽथ गृहीयति ॥ प्रयासफलमेवेदं । ममेत्युक्त्वा जगाम सः ॥ २३ ॥ भूयोऽप्राकीन्नदीं दृष्ट्वा । श्रेष्टी वत्से जलांतरे ॥ संचरंत्या त्वया नोपा-नहौ मुक्ते तदा किमु ॥ २४ ॥ तत्र कंटककीटादे- ये ह टेरगोचरे ॥ को नामाल्पकृते काय-मपाये तात पातयेत् ॥ २५ ॥ इत्यादिपुत्रजायोक्ति-यु.
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वृत्ति
॥ ४३४ ॥
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वृत्ति
शीलोप क्तिप्रीणितमानसः ॥ क्रमात्प्राप गृहं श्रेष्टी । प्रेक्षमाणः पुरीजनैः ॥ २६ ॥ दर्शितानि ततो
४ वध्वा । गृहीत्वान्नरणानि च ॥ तुष्टस्तदखिलं वृत्तं । जगाद सुतजाययोः ॥१७॥ सर्वस्व॥४५॥ स्वामिनी सैव । श्रेष्टिना स्थापिता ततः ॥ तत्कृत्यैश्च गृहं प्राप । नित्यं नवनवश्रियं ॥२०॥
चलत्वादायुषः श्रेष्टी । कालधर्म गतः क्रमात् ॥ गयेव पादपं सद्यः। श्रेष्टिन्यपि तमन्वगा. त् ॥ श्ए | कुटुंबनायकत्वेन । स्थापितः स्वजनैस्ततः ॥ गृहस्थधर्ममजित-सेनश्चिरमपा. लयत् ॥ ३० ॥ इतश्च मेलितकोन-मंत्रिपंचाशतोऽन्यदा ॥ विशिष्टधिषणं कंचि-चिकीर्षमैत्रिणं परं ॥३१॥ अरिमर्दननूपालः । प्रत्येक नागरान जगौ ॥ यो मां हंति स्वपादेन । को दमस्तस्य युज्यते ॥ ३५ ॥ युग्मं ॥ सर्वेऽप्यूचुः शिरश्छेदं । सर्वं दं च सोऽहति ॥ तत् श्रुत्वाऽजितसेनोऽपि । शीलवत्या न्यवेदयत् ।। ३३ ॥ चतुर्विधमहाबुद्धि-निधानं साऽप्यदोऽवदत् ॥ सर्वांगान्तरणतातं । दत्वा संतोष्यते सकः ॥ ३४ ॥ कथमित्यनुयुक्ताह । विदग्धः कः प्रियं विना ॥ तमाहंतुमपीहेत । तशझे सोऽप्यवोचत ॥ ३५ ॥ संतुष्टो नूपतिस्तं च । मुख्यं सकलमंत्रिषु ॥ मत्रिणं स्थापयामास । धर्मकार्यैकसुत्रिणं ॥ ३६ ॥ पर्यंतदेशनूपालं ।
॥२५॥
૫૪
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शोलोप०
॥ ४२६ ॥
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सिंहनामानमन्यदा ॥ सद्योऽन्यषेणयज्ञजा । गृहीत्वा पमूविधं बलं ॥ ३७॥ ततश्चाजितसेनोऽपि । चिंताचांतमना मनाक् ॥ शीलवत्या महासत्या । पृष्टः स्पष्टमभाषत ॥ ३८ ॥ यद्यपि त्वं सुशीलासि । तथाप्येकाकिनीं गृहे ॥ विहाय सद भूपेन । यियासोर्मे न निर्वृतिः ||३|| साऽप्याह राजकार्याणि । कर्त्तव्यानि यथा तथा ॥ शीलं तु मम शक्रोपि । नैव म्लानयितुं क मः ॥४॥ प्रत्ययार्थं तथा चेयं । पुष्पमालास्तु ते गले ॥ सुशीलां विद्धि मामेना-मम्लानां यावदीक्षसे ॥ ४१ ॥ इत्युक्त्वा स्वगुणश्रेलि-मित्र तत्कंठकंदले || पुष्पमालां निचिक्षेप | हृष्टः सोऽपि ततोऽचलत् ॥ ४२ ॥ गतः कांचिदरण्यानीं । नृपः कुसुमवर्जितां ॥ ददर्शाजित सेनस्य । कंठे मालां विकस्वरां ॥ ४३ ॥ कुतोऽसाविति नूपेन । पृष्टो मंत्री स्फुटं जगौ ॥ - त्यमस्तीयमम्लाना | प्रियाशीलप्रभावतः ॥ ४४ ॥ उक्त्वेति स्वापदं प्राप्ते । सचिवे कौतुकी नृपः ॥ पुरः स्वनर्मपात्राणां । तदुवाच विवेकधीः ॥ ४५ ॥
ततः कामांकुरः प्राह । कुतः शीलं मृगीदृशां ॥ ललितांगो ऽवदद्देव । सत्यं कामकुरो - दितं ॥ ४६ ॥ रतिकेलिरनाषिष्ट । संशयः कोऽत्र देव ते । अशोकः प्राह संदेहं । हंतुं प्रदि
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वृत्ति
॥ ४५६ ॥
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शीलोप
॥ ४२५ ॥
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मादि ॥ ४७ ॥ ततः शीलवतीशील - शनाय कुतूहली || दत्वा बहु धनं प्रैषी-दशोकं स्वनरं नृपः ॥ ४८ ॥ विधृत्य नूपनेपथ्यं । प्राप्तोऽसौ नंदने पुरे || शीलवत्या गृहासन्नं । स्थानमादाय तस्थिवान् ॥ ४ए ॥ एषोऽपि पंचमोशार - मुरिन जंगुरांगकः ॥ संचचार पुरस्तस्या । वक्त्रवीक्षणदक्षिणः ||५|| बहुप्रकारान् कुर्वाणं । विकारान वीक्ष्य तं सती ॥ दध्यौ शीलवती मेऽसौ । शीलध्वंसं चिकीर्षति ॥ ५१ ॥ नून मिच्छति मूढोऽसौ । कृष्टुं केसरिकेसरान || विविति इतस्वांतः । सुदूतं वा हुताशनं ॥ ५२ ॥ पश्यामि कौतुकं तावकिमसौ चेष्टते कुधीः ॥ ध्यात्वेत्यपांगकोलेन । प्रवृत्ता तं विलोकितुं ॥ ५३ ॥ अशोकोऽपि विशैकात्मा | सिद्धमर्थं विमृश्यतां ॥ दूतीं प्रस्थापयामास । सापि तामिलमाख्यत ॥ ५४ ॥ न तव तो जर्ता । समं राज्ञास्पदांतरे ॥ वनपुष्पमिवैतत्ते । तारुण्यं याति निष्फलं ॥ ॥ ५५ ॥ जाग्यैरिव तवाकृष्टः । सुनगे तत्पुमानयं ॥ राजमान्योऽनुरागी च । संगं कामयतव ॥ ५६ ॥ साप्याह फलमादातुमुचितं यौवनश्रियः ॥ कुलस्त्रीणां न युज्येत । किंत्वन्यनरसंगमः ॥ ५७ ॥ किंचैतदप्याचर्येत । लभ्यते चेन्मनीषितं । फलाक्ष्यमपि स्नेह
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वृत्ति
॥ ४२७ ॥
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शीलोप
॥ ४२८ ॥
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लोन स्यात्फलेग्रहि ॥ ५८ ॥ तयोचे तत्कियन्मात्रं । याचसे साप्यवोचत || ददातु सांप्रतं मेऽई-लक्षं प्रगुणताकृते ||५|| एत्वर्धलक्षमादाय । पंचमेऽह्नि पुनः स्वयं ॥ पूरयामि यथा पूर्णा - मस्य कांचित्सुखालिकां ॥ ६० ॥ न्यवेदयदशोकाय । मुदिता दूतिकापि तत् ॥ तद्दत्त-मईलकं च । शीलवत्याः समार्पयत् ॥ ६१ ॥ ततोऽपवरकस्यांतः । सुबुद्धिः शीलवत्यपि ॥ प्रछन्नं स्वनरैर्गर्त्ता । खनयामास मांसलां ॥ ६२ ॥ सोत्तरचदमव्यूतं । पर्यकं तदुपर्यधात् ॥ पंचमेऽह्नि ततः सोऽ६ - लक्षमादाय सोन्मदः ॥ ६३ ॥ तांबूलहस्तः सौभाग्या-न्मन्वानस्तृणवज्जगत् ॥ समेत्योपविशंस्तत्र । गततः सहसाऽपतत् ॥ ६४ ॥ रज्जुबधशरावेण । ददती नोजनोदके ॥ नरको जीवमिव । तं तत्राऽस्थापयत्सती ॥ ६५ ॥
मासमात्रे व्यतिक्रांते । राजाख्यन्नर्ममंत्रिणः || सिद्धार्थः किमसिद्धार्थो । नाऽशोकस्तावदागतः ॥ ६६ ॥ भूपेन तावदादिष्टो । वितीर्य इविणं ततः ॥ रतिकेलिचिकीस्तस्यां । रतिकेलिरुपागमत् ॥ ६७ ॥ तयैकलक्षमादाय । सोऽपि तत्रैव पातितः ॥ बुद्धेर्हि सुप्रयुक्तायाः | किमसाध्यमपि कचित् ॥ ६८ ॥ एवं लक्षमुपादाय । तौ प्रत्येकमुज्जावपि ॥ कामांकुरल लि
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वृत्ति
॥ ४२८ ॥
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वृत्ति
शीलोपतांगा-वपि साऽपातयत्क्रमात् ॥ ६ ॥ चातुर्गतिकसंसार-दुःखानीव महासती ॥ पाताले पा-
तयामास । चतुःपुरुषदंनतः ॥ ७० ॥ अथ शत्रं विनिर्जित्य | राजा सिंदरथानिधं ॥ प्रविवे॥४॥- श पुरं पौरैः । कृतमंगलमालिकं ॥ १॥ तेऽथ शीलवती प्रोचु-र्दानास्याः पीमिताः क्षुधा
॥ अनात्मझा नरा यत्स्यु-रस्मघदुःखन्नाजनं ॥ ७॥ न दृष्टं तव माहात्म्य-मस्मानादेशकारिणः ॥ निःकाशयैकदाऽमुष्मा-नरकादिव कूपतः ॥ १३ ॥ तयोचे चेद्यथादिष्टं । वचनं मे करिष्यथ ॥ तदा मोहामि तैरूचे । यत्कर्त्तव्यमयादिश ॥ ४ ॥ एवं नवत्विति यदा । ब्रवीम्यहमशंकितं ॥ नवनिरपि वक्तव्या नवत्वेवं तदेति वाक् ॥ ७५ ॥ शिवयित्वेति ताना. श्र-मूचेऽत्र मतिमत्तमा ॥ निमंत्रयैकदा नूपं । स्वगेहे सपरिब्दं ॥ ७६ ॥ तत्रैव विहिते तेन समेतस्तत्र नूपतिः ॥ मुक्तावचूलोखोचादि-विस्तरैयोतितांबरे ॥ ७ ॥ तया नोजनसामग्री। प्रचन्ना विदधेऽखिला ॥ सुपविष्टश्च नूपालो । नोक्तुं सारपरिबदः ॥ ७० ॥ दध्यौ च ह श्यते ताव-त्र कश्चिन्नोजनोद्यमः ॥ निमंत्रिता वयं चैते । तत्किमेतदिहाद्भुतं ॥ ७ए ॥ ततः - शीलवती गर्ना-झारमागत्य सादरं ॥ कुसुमादिनिरन्यय॑ । प्रौच्चकैरब्रवीदिदं ।। ७० ॥ नो
॥२॥
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शीलोप
॥ ४३० ॥
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जो रसवतीः सर्वाः । यक्षाः सज्जयत द्रुतं ॥ अस्त्ववेमिति तैरुक्ते । प्रादुश्चक्रे तयाथ सा ॥ ॥ ८१ ॥ विधे जोजनं राजा । कौतुकाक्षिप्तमानसः । अपरापि हि सामग्री । प्राप्ता तदजिलापः || २ || तांबूल वस्त्रालंकारैश्चतुर्लकव्ययात्तदा ॥ एवमस्त्विति ताक्यानंतरं सत्कृतो नृपः || ३ || सिद्धिः काचिदपूर्वेयं । यततवाक्यतः ॥ सर्व जातमिति ध्यात्वा - पृलवतीं नृपः ॥ ८ ॥ न किमिदमाश्चर्ये । तयोचे देव मङ्गृदे ॥ प्रसिध्यन् याश्वत्वार- स्तेयः संपद्यतेऽखिलं ॥ ८५ ॥
ततः शीलवतीं राजा । सत्कृत्य वसनादिनिः ॥ कृत्वा तां भगिनीं यज्ञान् । ययाचे बहुमानतः ॥ ८६ ॥ जीवितव्यमपि स्वामिंस्त्वदीयमिदमावयोः ॥ यक्षाणां का कथा तस्मा - किष्यंते प्रोः पुरः ॥ ८७ ॥ प्रतिज्ञायेति सा कूपा - निष्कास्यैतान सिस्रपत् ॥ परितः कु. सुमालीढा - नालितान् हरिचंदनैः ॥ ८८ ॥ ततो वंशकरंमेषु ! निक्षिप्य चतुरोऽपि तानू ॥ रश्रेष्वारोपयामास । धूपक्षेपपुरस्सरं ॥ ८९ ॥ दिगंतव्यापिनिस्तूर्य - निर्घोषैरथ मंत्रिराट् ॥ प्रतस्थे तानुपादाय । कारयन् प्रेक्षीियकं ॥ ए ॥ नृपः सन्मुखमागत्य । बहुमानपुरस्सरं ॥
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वृत्ति
॥ ४३०
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वृत्ति
शीलोप करस्थमिव मन्वानो । जगत्तान स्वगृहेऽनयत् ॥ १ ॥ तदा रसवतोपाका-त्सूपकारान्न्य-
वारयत् ॥ नूपो यदद्य दास्यति । यदा वो दिव्यन्नोजनं ॥ ए॥ नोजनावसरेऽन्यर्च्य । ॥४१॥ राजा यककरंडकान् ॥ जगाद जायतां नोज्य-मेवमस्त्विति तेऽब्रुवन् ॥ ए३ ॥ यावदाई१ मुखं प्रेक-माणानां सर्वदेहिनां ॥ पुरो न किंचन प्रापु-नूतं नूपोदितादि च ॥ ए॥
विलक्षात्मा ततो राजा । समुद्राव्य करंमकान् ॥ म्लानेंश्यिान विदीर्णास्यान् । ददर्श चतुरो जनान् ॥ ५ ॥ प्रेतानिव करालास्ता-निरीक्ष्य सहसा नृपः ॥ नामी यक्षाः किंतु यातु-धाना नक्तवेत्यपासरत् ॥ ए६ ॥ तैरप्यूचे रयाद्देव । न यक्षा न च राक्षसाः ॥ कामांकुरादयः किं तु । त्वन्नमसचिवा वयं ॥ ए७ ॥ सम्यग् निरीक्ष्य नूपेनो-पलक्ष्य च बन्नापिरे ॥ नशः केयमवस्था वः। काकानामिव रोगिणां । ए॥ यथावृत्तः स्ववृत्तांत-स्तैर
प्यूचे क्रमादथ ॥ राजा शीलवतीशीलं । शश्लाघे धूनयन् शिरः ।। एए ॥ आकार्याख्यदहो * बुद्धि-कौशलं ते पतिव्रते ॥ शीलपालनयत्नेना-ऽमुना श्लाघा न कस्य तत् ॥ २०॥ अम्ला
नया तदा पुष्प-मालयैव मया स्फुटं । ज्ञातं ते शीलमाहात्म्य-मज्ञानाद्यदिदं कृतं ॥१॥
॥३१॥
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शीलोप
॥ ४३२ ॥
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तत्तव्यं न कोपोऽत्र । कार्यो बंधुसमे मयि ॥ सापि तं बोधयामास | जिनधर्मोपदेशतः ॥ ॥ २ ॥ परदारनिवृत्तिं च । कारिता नर्ममंत्रिणः ॥ सत्कृत्य प्रेषिता राज्ञा । सती स्वगृहमासदत् || ३ || विशिष्याऽजितसेनोऽपि । राजकार्यधुरंधरः ॥ शीलवत्या समं धर्म-सारं कालमवादयत् ॥ ४ ॥
तत्रागतश्चतुर्ज्ञानी । दमघोषानिधोऽन्यदा || ययावजितसेनोऽपि । तं नंतुं वल्लनायुतः ॥ ३ ॥ देशनांते मुनिः शील-वर्ती जाषितवान् गुरुः ॥ नरे पूर्वजवाऽन्यासा - ज्ञातिते शीलमुज्ज्वलं || ६ || कश्रमित्यजितसेनेन । पृष्टः प्रांजलिना गुरुः || कचे कुशपुरे स्थाने । श्रावकः सुलसानििधः ॥ ७ ॥ तन्नार्या सुयशा गेहे । तयोर्गतनामकः ॥ प्रकृत्या नको नृत्यस्तनार्या दुर्गिला पुनः || ८ || साई सुयशसाऽन्येद्यु - व्रतिनीवसतिं ययौ ॥ दुर्गिला स्वामिनींव | पुस्तकानसादरां ॥ ए ॥ श्रार्ये किमद्य पर्वेति । सा पप्रन प्रवर्तिनीं ॥ तयोass श्रुततिथि - विख्याता श्वेतपंचमी ॥१०॥ य इह श्वेतपंचम्या - मुपवासपरायणः ॥ पुस्तकायर्चपूर्वी । कुयाद् ज्ञानमजावनां ॥ ११ ॥ सा प्रेत्य सुखसौभाग्य-नाग्यबुद्ध्या दिवैजवं
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वृत्ति
॥ ४३२ ॥
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झीलोप
वृत्ति
॥४३॥
॥ प्राप्य क्रमेण निर्वाणं । लन्नते शुशीलयुक् ।। १२ ॥ श्रुत्वेति दुर्गिला प्राह । धन्यासौ स्वा- मिनी मम ॥ निंद्या तु माशी यात्र । स्वहितं कर्तुमक्षमा ॥ १३ ॥ प्रवर्तिन्याह चेद्दानंतपःशीले न गोचरे ॥ तत्स्वाधीनं नावसारं । शीलं त्वमपि पालय ॥ १५ ॥ विधेहि परपुंत्यागं । यावजीवं विवेकिनि ॥ तथाष्टमीचतुर्दश्योः । स्वन्न रपि वर्जनं ॥ १५ ॥ गृहीत्वानिग्रहं हृष्टा । सापि न रत्नाषत ॥ कर्मलाघवतः सोऽपि । तमाश्यित नावतः ॥ १६ ॥ क्रमेण प्रापतुस्तौ च । सम्यक्त्वनावशुक्तिः ॥ गिलापि क्रमाद् ज्ञान-पंचम्या विदधे तपः ॥ १७ ॥ कालधर्म गतौ जातौ । सौधर्मे त्रिदशावुनौ ॥ नवानजितसेनोऽनू-दुर्गजीवस्ततच्युतः ॥ १० ॥ जातश्च ऽगिलाजीवः । सैषा शीलवती सती ॥ ज्ञानाराधनपुण्येन । वि. शिष्टमतिवैनवा ॥ १५ ॥ जातिस्मृत्या ततः सर्वे । स्वयमेव विबुध्य तौ ॥ परं वैराग्यमा. पनौ । जगृहाते व्रतं तं ॥ २०॥ प्रपाल्य चारित्रधुरं चिराय । तौ प्रापतुः पंचमदेवलोकं ॥ ततश्च्युतौ केवलमाप्य सिदिं । व्रजिष्यतो निर्मलशीलयोगात् ॥ १॥
॥इति श्रीरुपल्लीयगछे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
॥३३
૫૫
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शीलोप
॥ ४३४ ॥
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श्री शीलतरंगिण्यां शीलवतीकथा समाप्ता ॥
अथ नंदयंती सतीकथा कथ्यते, तथादि — अस्ति स्वतिपरापार - पौरं श्रीपोतनं पुरं ॥ दृष्ट्वेव यस्याऽनेकश्रीः । श्यामलोऽजनि नीरधिः ॥ १ ॥ तत्रास्ति नूपतिर्जाय - छिक्रमो नरविक्रमः || धाराधरोऽपि यत्खऊ - श्वित्रं शात्रवतापकः ॥ २ ॥ श्रेष्टी सागरपोतोऽस्ति । तत्र सत्रमिव श्रियां || समुइदत्तस्तत्पुत्रः । पवित्राचारपंमितः ॥ ३ ॥ स बाल्येऽपि पुरोपात्त-पुएयप्राग्नारतोऽखिलाः ॥ संजग्राह कलाः काले । रत्नानीव परीक्षकः ॥ ४ ॥ क्रमेण काममुमील-लीला सन्मदमंदिरं ॥ स प्राप यौवनं विंध्य - वनं वन्य इव द्विपः ॥ ५ ॥ इतश्व सोपारपुरे । पौराणां महिमानिधेः ॥ श्रेष्टिनो नागदत्तस्य । नंदयंतीति कन्यका ॥ ६ ॥ सा शैशवमतिक्रांता | जिनधर्मधुरी राधीः ।। संप्राप्ता यौवनं शील - माणिक्यमणिभूमिका ॥ ७ ॥ तामयो मन्मथोवैश-राजधानीं सविभ्रमां ॥ नंदयंतीं मनो यूनां । नंदयंतीं सविस्तरं ||८| सृष्टुर्योग्यसमारंभ-स्येव सत्यापनोद्यतः ॥ श्रेष्टी सागरपोतः स्व-सूनुना पर्यलाययत् ॥ ९ ॥ ॥ युग्मं ॥ अथ समुदत्तस्ता - मेकांत प्रेमलालसां || चित्रवल्ली मिवासाद्य । जातः पूर्णम
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वृत्ति
॥ ४३४ ॥
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शीलोप
॥ ४३५ ॥
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नोरथः || १० || सहदेवाभिधानेन । स बालसुहृदा समं ॥ क्रीमन् कालमतीयाय । कियंतमपि लीलया ॥ ११ ॥ सोऽन्यदा देश विज्ञान-व्यार्जनकुतूहली || पमच पितरं पोत-व्यवायविधित्सया || १२ || पिताह कोटिशो मेऽस्ति । इविणं भुंव वत्स तत् ॥ कोंगले फलिते कल्प वृक्षे व्रजति काननं ॥ १३ ॥ तात कापुरुषा एव । झुंजते पूर्वजार्जितं ॥ श्रोग्या पैतृकी लक्ष्मी- यैौवने जननीव यत् ॥ १४ ॥ निशम्येति तनूजस्य । वाचमुत्साहमंजुलां ॥ शोकानंददशोन्मिश्रः । सगदमदोऽवदत् ॥ १५ ॥ पित्रार्जितैर्धनैर्लोका । दुर्मदाः संति भूरिशः ॥ स्वार्जितैर्विरला एव । दातारो जोगिनश्च ये ॥ १६ ॥
इत्यादि वदता तातः । कथंचन निजाग्रहं ॥ प्रमाणीकारितस्तेन । निक्षुकेनेव तदनं ॥ ॥ १७ ॥ ततः समुइदत्तोऽपि । समं मित्रेण सोत्सुकः ॥ श्रापृच्छ्य स्वजनान् धिष्णे । शु पोतमपूरयत् ॥ १८ ॥ तदा सुहृदमाचष्ट । श्रेष्टिसूः स्वजना मया ॥ श्रापृष्टास्तु विना जायां । यत्तदासी इजस्वला ॥ १९ ॥ तेनोचे चिरसौदार्छे । मयि सत्यपि पार्श्वगे || चिंता ते बाधते चेत- दीनाः कल्पसेवकाः || २० || दाक्षिण्यकुलमर्यादा - लज्जानिगमितात्मनां ॥
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वृत्ति
॥ ४३५
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वृत्ति
गोलोप स्वैरानुरागन्नाजां च । मित्रादन्यन नेवजं ॥१॥ समुशेऽपि ततो राग-समुश्लहरीवशः
केनाप्यलक्षितो रात्रौ । स्ववेश्मधारमासदत् ॥ २२॥ तत्राऽजीजागरत्सूर-पालं दोवारHamपालकं ॥ रत्नांगुलीयकं तस्मै । दत्वा गोप्यं जगाद च ॥ २३ ॥ स्ववासन्नवनं प्राप्तो । जा.
लकांतरवर्त्मना ॥ ददर्शाल्पजले मत्सी-मिव कांतां महाकुलां ॥ २४ ॥ किमियं चेष्टते या. व-दीकते श्रेष्टिनः प्रियां ॥ तावञ्चिरेणाप्यप्राप्य । निशमुन्मुश्तिाऽरतिः॥ २५ ॥ शयनीया. समुदाय । नंदयंती महासती ।। जगामोपवने चंद-द्युतिधौतशिलातले ॥ २६ ॥ युग्मं ।।
सुप्ता तत्र वियोगार्नि-दूना पतिव्रता सती ॥ अमन्यत शिलां दीप्य-दंगारशकटीमिव ॥ २७॥ सोमालाऽशोकपत्राली-मास्तीर्याय शिलातले । शयिता पुनरज्ञासी-दंडानिव वि. धोः करान् ॥ २७ ॥ हा क्षिप्रजग्मुषा पत्या । तदा नाडालापिताऽप्यहं ॥ चं किममुना मेंत-गडुना जीवितेन तत् ॥श्णा स्मारं स्मारं गुणान् पत्यु-र्वियोगविधुरा सती॥पाशमादा- तुकामाऽगा-मृहारामद्रुमांतिकं ॥ ३० ॥ स एव गुणराशिमें। पतियानवे नवे ॥ इत्युदीय द्रुशाखायां । स्वोत्तरीयेण यावता ॥ ३१॥ वनाति पाशबंधेन । स्वात्मानं नागदत्तजा ॥
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॥४३६
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शीलोपा
वृत्ति
॥३
॥
समुदत्तश्चिछेद । पाशमुत्प्लुत्य तावता ॥ ३२ ॥ युग्मं ॥ तत्कालमुलसज्ञगा-ऽतिरेकाच्दू- टिनंदनः ॥ सस्वजे तद्दिनस्नातां । तामयस्कांतवत्कुशीं ॥ ३३ ॥ आपूज्य दयितां प्रीतां । पुनः पोतमथापतत् ।। कर्मानुकूल्यतः कूलं । संप्राप्तश्च महोदधेः ॥ ३४ ॥ अंतर्वत्नी सती नंद -यंत्यपि प्राप्य संमदं ॥ मासत्रयमतीयाय । सुखमप्रकटोदरी ॥ ३५ ॥ वैमूर्यनूमौ वैडूर्यशलाकेव धनध्वनेः ॥ निधानमिव चाधानं । क्रमादाविरनून्मनाक् ॥ ३६ ॥ श्वसुरः कलयामास। मध्धरसती ध्रवं ॥प्रस्थानावसरे सूनो-र्यदेषा ऋतुमत्यनुत् ॥ ३७॥ यतः-बाह्याकारसदाचार-वृत्त्या स्त्रीषु न विश्वसेत् ॥ दुरंतपरिणामाः स्युः । किंपाकफलवत्खलु ॥ ३७॥ तन्नूनं परिहार्येषा । श्वपचीवात्मपंक्तितः ॥ निष्कलंके कुलेऽस्माकं । मास्तु नीलीविशेषकः
॥ ३५ ॥ विमृश्येति ततः श्रेष्टी । जिहासुः सहसा स्नुषां ॥ वने त्यजैतामित्याह । नरं निः. - करुणानिधं ॥ ४० ॥ केनापि व्यपदेशेन । नीत्वा तेनापि कानने॥ मुक्ता मुक्तावलीव शक् । निर्मोकभ्रांतितः सती ॥ ४१ ।। कुतश्चित्कारणात्साध्वि । त्याजिता नवती वने ॥ यथा स्वैरं व्रजेत्युक्त्वा । यावध्यावर्त्तते स च ॥ ४२ ॥ तावदाकस्मिकोत्पात-जयनीता महासती ॥
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वत
शोलोप
I ॥३॥
मूलतश्विनवल्लीव । मूर्छिता पतिता हितौ ॥४३॥ स्फीतशीतवनीवात-व्यपनीतन्त्रमोदया । ॥ हदा केनाऽपराधेन । त्यक्तेत्युक्त्वा रुरोद सा ॥४४॥
तदा निष्करुणो वृतांतरितो यावदीदते ॥ सिंहव्याघ्रादयो दूरं । सती नत्वा ययुः प. थि ॥ ४५ ॥ साऽरवि शासनामर्या । नदयंतो विषं सती ॥ दिन्नः पाशो मुमूर्षाश्च । तस्या देवतया तदा || ४६ ॥ दत्नऊंपा गिरेः शृंगात् । स्मृतपंचनमस्कृतिः ॥ पल्यंकमाविःकु. त्या । तयैवाऽरक्षिचांतरा ॥ ४ ॥ पतिपित्रादिमुक्तां मां । न यमोऽपि जिघृक्षति ॥ किमन्यदपि दैवं मे । विधातेति विषमधीः ॥ ४० ॥ निंदती निजजन्मादि । नाव्यं कर्म च जा. नती ॥ संचचार पुरो यूथ-ब्रष्टेव हरिणी सती ॥ ४॥ ॥ इतश्चैकि नृगुकल-पुरेशेन कृपालुना ॥ मृगया निर्गतेन श्री-पद्मनूपेन सा सती ॥ ५० ॥ संन्नाव्य मधुरं चास्या । ज्ञात्वोदंतं तयेरितं ॥ नगिनीकृत्य तां स्वीय-पुरं निन्ये नरेश्वरः ।। ५१ ॥ ऊचे च दानं दीनार्थि- वर्गे लाग्न ददानया ॥ स्थीयतामापतिप्राप्तेः । सत्रागारे यथासुखं ॥ ५ ॥नंदयंत्यपि तत्कालो-चितं धर्मानुयायि तत् ॥ विदधाना सुखं तस्थौ । ध्यायंती पतिमुन्मनाः ॥ ५३ ॥ तदा
कर
॥३
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शीलोप
॥ ४३५॥
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निः करुणोऽपि शकू | निवृत्तः काननात्ततः ॥ श्रेष्टिनो ज्ञापयामास । तस्याः शीलविजृंज्ञितं ॥ ५४ ॥ तदानीं सूरपालोऽपि । स्वकार्यप्रेषितः पुरा ॥ नंदयंत्याः पितुर्गेदा - त्समियाय चिरेए सः || ५५ ॥ स्वपुत्र्यै नागदत्तेन । प्रहितं भूषणादिकं ॥ दित्सुः पच किं चात्र । नंदयंती न दृश्यते ॥ ५६ ॥ उक्ते सागरपोतेन । तदुदंते विषादवान् || सूरपालो रुदन् प्राह । वृया व्यक्ता पतिव्रता ॥ ५१ ॥ प्रस्थितोऽपि तदा युष्मत्पुत्रः प्रन्नमेत्य च ॥ निशि स्नुषायाः संगत्य | पुनः पोतं समासदत् ॥ ५८ ॥ तदाऽदायि च नामांक - मिदं मे स्वांगुलीयकं ॥ वितीर्य शपथान्मा - मित्युक्त्वा तददर्शयत् ॥ ५० ॥ ततः सागरपोतोऽपि । शोकसागरमध्यगः ॥ स्नुषामन्वेष्टुमादिक-तं स्वयं च चचाल सः ॥ ६० ॥ इतः समुइदत्तोऽपि । दतोपात्तक्रयाणकः || बहुलानयुतः काले । देमेण गृहमाययौ || ६ || तं वृत्तांतमथाकर्ण्य | सोऽपि गोपायिताकृतिः ॥ प्रतस्थे जायामन्वेष्टुं । सपाथेयपरिच्छदः ॥ ६२ ॥ ग्रामकर्बटखेटादि - नगरारण्यभूमिषु ॥ भ्रमंश्विरादयं त्यक्तो । नृत्यैः पाथेयवर्जितैः || ६३ ॥ एकाक्यपि ततो नंदयं तीं मित्रमिव स्मरन् ॥ कंदमूलफलाहार - श्विरं बभ्राम नूतले ॥ ६४ ॥ पिचंकि
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वृत्ति
॥ ४३८९५ |
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वृत्ति
शोलोपलो विवर्णाग-द्युतिः कृशकरकमः ॥ ब्रमन समुदत्तोऽगा-भृगुकापुरं क्रमात् ॥६५॥
क्षुधाक्रांतश्च तत्रैव । सत्रागारे समीयिवान् ॥ दृष्ट्वोपलक्षयामास । स्वप्रियां नयनामृतं ॥४४ ॥ ६६ ॥ नंदयंत्यपि तत्काल-मालोक्योत्पन्ननंदथुः ॥ जागरूकानुरागांक-निश्चिकाय पति ह
दि॥६७ ॥ ससंत्रममयोचाय । स्वौचित्यमुपचर्य च ॥ न्युंबनं विदधानेव । दृशा सस्पृहमैर त ॥ ६॥ जाते मियो दृगाश्लेषे । स्मृतप्राग्मुःखघुर्दशा ॥ वृष्टि पदीनेव । तदाऽश्रु. निरनूसती ॥६ए ॥ तदा पीयूषवृष्ट्यैव । स्वहस्तजलजन्मना ॥ प्रजाय॑ नयने साश्रुः । सतीमाश्वासयत्प्रियः ॥ ७॥ चिरप्रवास खिन्नोऽपि । तन्मुखेंउनिरीक्षणात् ॥ जातः समुह आनंद-रसकहोलमांसलः॥ १ ॥ नंदयंत्याः पतिं तत्रा-गतमाकये सादरं ।। प्रत्युजगाम नूमीशे । वसंतमिव मन्मथः ॥७॥ पृष्टोदंतस्ततः स्वीय-गेहं नीतः स बंधुवत् ॥ वैद्यौषधप्रयोगैश्च । क्रमेणोल्लाघतामपि ॥ ३ ॥ श्रेष्टी सागरपोतोऽपि । सूरपालादयश्च ते ॥ क्रमे. ण मिभिलुस्तत्र । कर्माणीव शरीरिषु ॥ ४ ॥ इतश्च केवलज्ञान-नानुस्तत्र समागमत् ॥ ययुः समुदत्ताद्या । वंदितुं सपरिचदाः ॥ ५ ॥ नगवन् कर्मणा केन । कलंकोऽयं समाप
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शीलोप
॥ ४४१ ॥
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तत् ॥ नंदयंतीति पप्रच | देशनांते पुराजवं || ६ || जगवानाह पौरस्त्य - नवे योत्सवे - नया ॥ नार्थमागतः साधुः । शूइ इत्येष दूषितः ॥ ७७ ॥ सर्वैरनुमतं चैत-देतस्याः श्वसुरादिनिः ॥ सामुदायिकमप्येतत्कर्म त्वय्येव दार्व्यवत् ॥ ७८ ॥ तेन त्वयि महासत्या - मपि कश्मल संजयः ॥ तर्कितः श्वसुरेणायं । पूर्णचं जनैरिव ॥ ७९ ॥ अनालोचितजावानि । कर्माणि प्राणिनामिह || शूकलावा इवाऽश्रांतं । भ्रमयंति जवाटवीं ॥ ८० ॥ धन्याः श्रीमजिनोपरं । धर्ममादृत्य सादरं । स्वर्गापवर्गसंसर्ग - सुनगाः स्युरिद क्रमात् ॥ ८१ ॥ श्रुत्वेति नववैराग्य - सागरांतर्गता सती ॥ सिपेव मौक्तिकं चित्ते । दो व्रतमनोरथं ॥ ८२ ॥
तं प्रपद्या | दीनोधारादिकर्मनिः ॥ स्वजन्म सफलीचक्रे । नागदत्ततनूवा ॥ ८३ ॥ चिरं प्रपाब्येति गृहस्थधर्मं । प्रपद्य चांते व्रतमात्मशुद्ध्या || विक्षिप्य कर्माणि च नंदयंती | महासती मोक्षसुखान्यवाप ॥ ८४ ॥
॥ इति श्रीरुपल्लीयगच्छे श्रीसंघ तिलकसूरिपट्टावतंसश्री सोम तिलकसूरिविरचितायां श्री शीलतरंगिण्यां नंदयंतीकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ॥
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वृत्ति
॥ ४४१ ॥
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शोलोप
॥ ४४ ॥
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श्री मनोरमा महासती, या श्रीसुदर्शन श्रेष्टितधर्मिणी, तस्याश्च शीलमाहात्म्यं श्री सुदर्शनस्याऽनयाराज्ञी कृतोपसर्गस्यावसरे कायोत्सर्गाकृष्ट श्री शासन देवता विहिततादृश जिनधर्मप्रज्ञावनारूपं तत एव शेयमिति ॥ अथ श्री रोहिणी महासत्युदाहरणं श्रोतॄणां श्रवसारणी क्रियते, तथाहि
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अस्ति श्रीपाटलीपुत्रं । पुरं यस्य समृद्धिनिः ॥ अंतस्तप्त इव श्रीदः । कुबेर इति विश्रुतः ॥ १ ॥ तत्रास्ति त्रासितारातिः । श्रीनंदो मेदिनीपतिः ॥ डुर्वेदति यत्कीर्त्तितर्जितश्विरमंबरे || २ || दीपांतरभ्रियां सत्रं । तत्र श्रेष्टी धनावहः ॥ धनदस्य वणिक्पुत्र । इव यो लक्ष्यते धनैः ॥ ३ ॥ तत्प्रिया रोहिणी नाम्नी । विश्वविश्वांगिमोहिनी ॥ रोहिणीव भुवं प्राप्ता । त्यक्त्वा चं कलंकितं ॥ ४ ॥ ययौ समुइयात्राया - मन्यदाऽापृत्रय स प्रियां । विदेशवासिनः प्रायो । जवेयुर्व्यवसायिनः ॥ ५ ॥ तदादि रोहिली वेली - बंध माधाय मूईनि ॥ सखीवृंदयुता । निन्ये दिवसान् धर्मकर्मनिः ॥ ६ ॥ धूलीकदंब पुष्पौध-रेणुधूसरितांबरः ॥ - वातादितो ग्रीष्म - कालस्तपनयौवनं ॥ ७ ॥ सफली कर्त्तुमुद्यान - श्रियं श्रीनंदनूपतिः ॥ ग
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वृत्ति
॥ ४४२ ॥
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शीलोप
वत्ति
॥४३॥
छन् ददर्श धर्माती । रोहिणी जालकस्थितां ॥ ॥ चिरं विरहिणी चारु-लावण्योल्लेखशा- लिनी ॥ इतः प्रकामं कामेन । दर्श दर्श स रोहिणीं ॥ ए॥ विस्मृत्य तत नद्यान-क्रीमा मत्रीमानसः॥ छिगुणीनूतसंतापः । प्रत्यावृत्त्य गृहानगात् ।। १० । स्मराऽपस्मारसंत्रन-चेतनोऽथ महीपतिः॥ प्रातृतैः संनृतां दूतीं । प्राहिणोऽपरोहिणीं ॥ ११ ॥ तामासाद्याऽवदत्सापि । देवस्तुष्टोऽद्य ते स्मरः॥ यत्त्वां कामयते सुत्रु । स्वयं श्रीनंदनूपतिः ॥ १२ ॥ सफलीकुरु तत्पुण्यं । तारुण्यं तस्य संगमात् ॥ श्रुत्वेति रोहिणी रोह-शेषा चेतस्यचिंतयत् ॥१३॥ अहो कुलमनालोच्य । निजमेष निरर्गलः ॥ मत्तदंतीव मे शील-ममुन्मूलयिष्यति ॥ १४ ॥ नपायैस्तदयं बोध्यो । यावनोन्नति धारणां ॥ विमृश्येति सती दूती-मुवाच मधुरादरैः ॥ १५ ॥ सखि स्वन्नावतो नार्यो । वांति सुनगं स्वयं ॥ असावर्थयते मां तु । तदियं पायसे सिता ॥१६॥ अनाविलं कुलं किंतु । शशिलक्ष्म्योरिवावयोः ॥ तदेष उनमा- यातु । यामिन्यां सुन्नगाग्रणीः ॥१७॥
इति प्रानृतमादाय । राज्ञः स्वयं वितीर्य च ॥ सद्यः प्रीतिपरामेतां । विससर्ज महा
॥४३
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होतोप सती ॥ १७ ॥ नंदमानंदयामास । सापि तचनामृतैः ॥ तं वासरमतीयाय । सोऽपि संव
सरोपमं ॥१५॥ प्रादुर्वृतैः प्रनूतैस्तैः। श्रीनंदहृदयादिव ॥ तमोनिमलिनीनूते । सर्वतो मं. ॥ डले दिशां ॥ २०॥ कृतशृंगारसर्वस्वो । विसृज्य परिचारकान् ॥ नर्ममंत्रितखो राजा । रो
हिणीसदनं ययौ ॥ १ ॥ युग्मं ॥ सहसोचितचेटीनिः । सत्कृतो नंदनूपतिः॥ मनोरथमि. बन व प्रोचं । सिंहासनमशिश्रयत् ॥ १२॥ विष्वक संचारयामास । दूतीमिव नृपो दृशं ॥ रो
हिण्यपि नरेंइस्य । पुरोऽनद्भूमिदत्तहक् ॥ २३ ॥ स्तिमितं वक्रितं विष्वक् । प्रसारि तरलं ज. डं ॥ जान चक्षुर्नरेंइस्य । तां निरीक्ष्य मृगेक्षणां ॥ २४ ॥ यावाष्र्यमवष्टन्य । वक्तुमुत्तिटते नृपः ॥ रसवत्यै सखीवृंदं । रोहिणी तावदादिशत् ॥ २५ ॥ नृपस्य पुरतो न्यस्य । स्थूलस्थालं मनोहरैः॥ तत्फलैः पूरयामास । स्वगुणैरिव रोहिणी ॥ २६ ॥ वस्त्रैर्नवनवैः क्लुप्त-स्थगनाः स्थालिका अथ ॥ पुरः संचारयामासु-श्चेटिकाः पूर्वशिक्षिताः॥ ७॥ पायंपा- यमिव स्वैरं । तल्लावएयरसं रयात् ॥ तृषार्तः पानकं पानं । ययाचे रोहिणी नृपः ॥श्णा ततो नवनवस्थाली-न्योऽपि स स्वादयन रसं ॥ एकमेव रसं विंदन् । विस्मितस्तामवोचत
५॥
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शोलोप ॥ श्ए ॥ व्यंजनानामिव स्वादे । वेषवारैरनेकथा ॥ पिधानैरिव किं कोऽपि । स्वादो मुग्धे । वृत्ति
- विशिष्यते ॥ ३०॥ साऽप्याह ज्ञास्यते राजन् । सविवेक विचारिते ॥ कस्यात्र मुग्धता तृ ॥
ष्णां। मृगस्येवान्निधावितः ॥ ३१ ॥ स्थानस्थगनन्नेदेन । न विशेषो रसस्य चेत् ॥ कोने
दस्तहिं रामासु । रूपवेषादिन्नेदतः ॥ ३२ ॥ यथा ब्रांत्या नन्नोऽनेक-चं कश्चिझिलोकते ॥ कर तथा कामन्त्रमभ्रांतः । स्त्रीषु मुह्यति कामुकः ॥ ३३ ॥ जाज्वलीत यथा सूर्यो-पलः सूर्य| विलोकनात् ॥ तथा कामानलः पुंसां । मूढानां स्त्रीनिरीक्षणात् ॥ ३४॥
किंच देव नवानेव । प्रजानां जनकायसे ॥ त्वमेव च परित्राणं । सर्वेषां निर्विशेषतः ॥ ३५ ॥ प्राऽष्यंति नवनयोऽपि । चदन्यायप्रवृत्तयः ॥ जाता तदियमंगार-वृष्टिः पीयूषरो. चिषः ॥ ३६ ।। खानिनरकःखानां । ग्लानिः सुगतिसंपदा ॥ पत्तनं पाप्मनां न्याय्य-मपि - वैषयिकं सुखं ॥३७॥ यदिदं पुनरन्याय-पाति तस्य किमुच्यते ॥ तत्संस्मर कुलाचारं । मा ॥४ विचारपथं त्यज ॥ ३० ॥ इति तचनोन्मीलद्-ज्ञानचक्षुर्नराधिपः ॥ रोहिणी दमयामास । दुायव्रणरोहिणीं ॥ ३ए । संति न दुराचारो-पदेष्टारः पदे पदे ॥ हितार्थमुपदीकर्तुं ।
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शोलोप
॥ ४४६ ॥
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विरला एव केचन ॥ ४० ॥ जगिनी तत्वतस्तन्मे । जवती यदिवा गुरुः ॥ दुर्यशोध महाकूपानोऽहं ययाऽमुतः ॥ ४१ ॥ ब्रुवन्निति सतीं नंद-नूपतिः कृतसत्कृतिः ॥ स्मरन गुणोदयं तस्याः । समियाय निजं गृहं ॥ ४२ ॥ इतोऽर्जितधनो द्वीपां-तरात् श्रेष्टी धनावहः ॥ चिरं विरहजोत्कंठा - विवशो गृहमागमत् ॥ ४३ ॥ रोहिण्यपि तदीयास्य - चंइज्योत्स्नाऽमृतलवैः ॥ चिरात्कृतार्थयामास । नेत्रे नीलोत्पले निजे ॥ ४४ ॥ कदाचिदथ वाचाट-चेटीवक्ताइनावहः || नरेंशगमनोदतं । श्रुत्वा दध्याविदं हृदि ॥ ४५ ॥ समासाद्य मधुछत्रं । वानरः क्षुधितोऽशनं ॥ काको दधिघटीमाप्य । विजने किमु मुंचति ॥ ४६ ॥ लावण्यामृतकुल्येयं । तथा प्रेयस्विनी मम ॥ तन्नेत्रातिथितां प्राप्ता । सुशीला कथमस्ति तत् ॥ ४७ ॥ इत्यंतःक पिताऽनल्प-विकल्पः स धनावहः ॥ रजन्यां स्तिमितस्तस्थौ । सुप्तो ग्राह वावटे ॥४८॥ अथास्य चित्तकालुष्य-कालनप्रत्यला इव ॥ कर्त्तुमारेनिरे वृष्टिं । घनकाले घनाघनाः ॥४५॥ पट्टायते व्योम्नि | रोहिण्याः शीलकांचनं ॥ परीक्षितुं कृता धात्रा । रेजे रेखेव चंचला ॥ || ५० ॥ अथ सप्तदिनीं यावन्महावृष्टौ प्रसृत्वरः || मंदाकिनीपयः पूरः । पुरगोपुरमासदत्
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वृत्ति
॥ ४४६ ॥
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शोलोप०
वृत्ति
॥४४॥
॥ १ ॥ परचक्रादिवाऽमुष्मा-जी तैलोकैर्वहिस्तनैः ॥ तत्पुरं पूरयांचक्रे । फलं बीजन्नरैरिव ॥ ५५ ॥ अत्यासनत्वमापन्ने । नदीपूरे रयात्ततः ॥ पुरीप्रतोलीधाराणि । रोधयामास नूधनः ॥५३॥वेदिकायामिवांनोधौ। ऽर्गन्नित्तौ नदीरये ॥ प्रारोहति नृपोऽस्मार्षी-बीतः स्वान्नीष्टदेवतां ॥ ५५ ॥ तत्कणं वचनात्तस्या । नूनुदाय रोहिणीं । स्वयमारोहयामास । नगरीगोपुरोपरि ॥ ५५ ॥ परमेष्टिनमस्कार-परावर्तनपूर्वकं ॥ हस्ताग्रे नीरमादाय । रोहिणीदमुदा. हरत् ॥५६॥ गंगे त्वदंगचंगं चे-त्रिशुद्ध्या शोलमस्ति मे ॥ निवर्तस्व पुरात्तस्मा-त्ताानागचमूरिव ॥ ५ ॥ इत्युक्त्वा यावदाहंतु-मीष्टे हस्तगतानसा ॥ तावन्मायेव तत्पूरो । जातो दृष्टेरगोचरः ॥ ५॥ न्यवन्त तदाऽह्नाय । जाह्नवीपयसा समं ॥ लोकानां चित्ततो नीति-स्तत्पत्युश्च विकल्पधीः ॥ एए ॥ अहो शीलमहो जैन-धर्मोऽयमिति सर्वतः॥ भुवि व्योमपणे चे-मुच्चैरुञ्चेरुराशिषः ॥ ६ ॥ रोहिण्या अश्र मिथ्यात्व-नाशिन्या देशनागिरा !! श्रीजैनधर्मानिमुख-संयोगोऽनून्महीपतिः॥६१॥ तया साई पुरीचैत्य-परिपाटी विधाय च ॥ रोहिणी प्रापयामास । सदने सोत्सवं नृपः ॥ ६ ॥ धनावहोऽपि सत्कृत्य । सपौरं नृपति
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वति
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मुदा ॥ विससर्ज ततं लोके । तच्चरित्रैश्च निर्मलैः॥ ६३ ॥ धनावहादयः सर्वे । शीलमादा- त्म्यदर्शनात् ॥ शिवश्रीकार्मणं जैन-धर्म चक्रुरनारतं ॥ ६ ॥ श्रीरोहिणी सेति जिनेश्धर्म -प्रतावनाऽतमिदं विधाय ॥ कृत्वा कृतार्थ च मनुष्यजन्म। प्राप्ता प्रनूतां सुकृतप्रतिष्ठांक्षा इति श्रीरुपक्षीयगळे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां रोहिणीकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ॥ अथ शीलवतां संगमपि बहुगुणावहमाह
॥ मूलम् ॥–सीलकलिएहिं सहिं । संगोवि हु बहुगुणावहो हो ॥ कप्पूरसुरहिननपि । कुणश् वत्थूरा सुरहिनं ॥ ५७ ॥ व्याख्या-खु निश्चितं शीलकलितैः शीलवनिः साई संगमोऽपि संसर्गोऽपि तणावहस्तछीलकारणं नवति; दृष्टांतमाह-कपूरसाध्यात्म्यमपि घनसारेण सह वासोऽपि वस्तूनां पदार्थानां सुरनित्वं करोति, विगंधेऽपि वस्तुनि सहवासात्क-
पूरसौगंध्यं संक्रामतीत्यर्थः, यदागमः-जो जारिसेण मित्तं । करे अचिरेण तारिसो होई॥ - कुसुमेहि सह वसंता । तिलावि तग्गंधिया जाया ॥१॥ इतिगाथार्थः ॥ ५ ॥
४
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शोलोप
॥धए
शीलरहितस्य तु शेषगुणगणानामपि अगुणत्वमाह
॥ मूलम् ॥-सयलोवि गुणग्गामो । सीलेण विणा न सोहमावद ॥ नयणविदूर्णव मु. हं । लवणविहूणा रसवश्व ॥ ५० ॥ व्याख्या-सकलोऽपि गुणग्रामः शीलेन विना न शोनामावदति, दृष्टांतावाह-नयनविहीनं मुखमिव, लवणविहीना रसवतीव यथा शोनां न प्राप्नोति, तथौदार्यस्थैर्यगांनीय विज्ञानज्ञानादयो गुणाः शीलेन विना न शोनंते, यदुक्तं-ऐश्वर्यस्य विनूषणं मधुरता शौर्यस्य वाक्संयमो । रूपस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः ।। अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रत्नवतो धर्मस्य निर्वाच्यता। सर्वेषामपि सर्वकालनियतं शीलं परं नूषणं ॥ १ ॥'कर्दीनं वेति ' विहीनस्य विहूण, इति गाथार्थः ॥ ५ ॥
शीलवतामिह प्रत्यक्षफलान्याह
॥ मूलम् ॥–विसविसहरकरिकेसरि-चोरारिपिसायसारणीपमुद्दा ॥ सवेवि असुहन्ना- वा । पहवंति न सीलवंताणं ॥ एए ॥ व्याख्या-विषविषधरकरिकेसरिचौरारिपिशाचशाकिनाप्रमुखाः सर्वेऽप्यशुनन्नावा नपश्वकारित्वेनाऽसौख्यकरा नावाः पदार्थाः स्थावरजंगमा
ए।
१७
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शोलोप
वृत्ति
॥४५॥
श्च शीलवतां न प्रत्नवंति. नक्तंच-तोयत्यग्निरपि सजत्यहिरपि व्याघ्रोऽपि सारंगति । व्या- लोऽप्यश्वति पर्वतोऽप्युपलति वेमोऽपि पीयूषति ॥ विघ्नोऽप्युत्सवति प्रियत्यरिरपि क्रीडातमागत्यपां-नायोऽपि स्वगृहत्यटव्यपि नृणां शीलप्रनावाध्रुवं ॥१॥ इत्यर्थः॥ ५ ॥
अथ शीलं प्रतिपद्य तन्त्रष्टानां दुर्गदौर्गत्यमाह
॥ मूतम् ॥–सीलप्रठाणं पुरा । नामग्गहणंपि पावतरुवीयं ॥ पुण तेसिपि गई तं । जारा हु केवली नयवं ॥ ६ ॥ व्याख्या-शीलभ्रष्टानां पुनर्नामग्रहणमपि पापतरुबीजं, यथा किल बीजं तरोरुत्पादकं तयाऽशीलानां नामग्रहणमपि पापहेतुकमित्यर्थः, या पुनस्तेषां शीलबष्टानां गतिः संसारपर्यटनरूपा तां नगवान् केवली जानाति, अपारत्वात्तःशील्यदुःकृतस्य, इतरज्ञानिन्निरवबोधुमशक्यत्वादित्यर्थः ॥ ६ ॥
पुनः शीलबष्टानामिहलोकपरलोकप्राप्यं दुःखफलमाह
॥ मूलम् -बंधणव्यणताडण-मारणपमुहाई विविहऽस्काई ॥ इह लोयंमि तहा श्रीर-मजसं पावंति गयसीला ॥६१ ॥ दालिदखुदवाही । अप्पान कुरूवया असुहाई ॥ न
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वृत्ति
शोलोपरयं ताई वसगाई । विगलीयसीलाण परलोए ॥ ६३ ॥ युग्मं ॥ व्याख्या-श्ह लोकेऽपि ता.
वतशीला बंधनच्छेदनतामनमारणप्रमुखानि विविधःखानि, तथा स्थिरं चिरंकालस्थायि ॥४१॥ अयशोऽवर्णवादं प्राप्नुवंति, तत्र बंधनं रज्ज्वादिना, बेदनं कर्णनाशादीनां शस्त्रेग, तामनं ल.
गुमादिन्निः कुट्टनं, मारणं प्राणच्यवनं, प्रमुखशब्देनाऽपरानपि कदर्थनाप्रकारान् दुःशीला लनंत इत्यर्थः, परलोकेऽपि गलितशीलानां दारिद्याव्याधिअल्पायुःकुरूपताप्रमुखानि, न केवलं तानि, नरकांतान्यपि तेषां वशगानि हस्तस्थितानि नवंतीति गायाध्यायः॥३१॥शा
शीलभ्रष्टस्यैव दृष्टांतमाह
॥ मूलम् ।।—निरुवमतवगुणरंजिय-सुरोवि सो कूलवालन साढू ॥ मागहियासंगान । गलियवन पाविन कुगई ॥ ६३ ॥ व्याख्या-निरुपमतपोगुणरंजितसुरोऽपि ऽश्चरतपश्चरणाकृष्टदेवोऽपि स कुलवालकः साधुर्मागधिकासंगाजलितव्रतो भ्रष्टचारित्रः सन कुगतिं प्रा.
त इति गाभार्थः, नावार्थो दृष्टांतेन गम्यः, स चाय। बनूवुः केचिदाचार्याः । कमाधारितया यकैः ॥ दीलितात्मेव पाताल-मूलेऽलीयत ना
॥
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शोलोप
॥५॥
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गराट् ॥१॥ गणं पालयतां तेषां । विधिवजणधारिणां ॥ श्रीवीरस्येव गोशालो । विनेयः । वृत्ति समपद्यत ॥ २॥ प्रकृत्या पुर्विनीतात्मा । गुरूक्ते प्रतिकूलधीः ॥ कपिकच्छुवउग-कारी कपिरिवाऽस्थिरः ॥ ३ ॥ प्रयुक्ता गुरुन्निस्तस्य । सारणावारणादिकाः ॥ शिक्षा ज्वरादितस्येव । विषाय घृतविपुषः ॥ ४ ॥ अन्यदा सह तेनैव । सूरयो गुणनूरयः ॥ नजयंतगिरि जग्मु-स्तीर्थयात्राचिकीर्षया ॥५॥ तत्र यात्रिकस्त्रीवर्गे । दृष्ट्वा चंचललोचनं ॥ कुशिष्यं वारयामासुः । सोऽपि चित्ते क्रुधं दधौ ॥ ६ ॥ ततोऽवरोहतां तेषां । गुरूणां चूरणाय सः॥ कुशिष्यो यमगोलान्नं । गंमशैलमपातयत् ॥ ७ ॥ सुददाः सूरयस्तस्य । पतत्प्रस्खलितध्वनिं ॥ श्रुत्वा वितत्य जंघे स्वे । तस्थुर्मोघश्च सोऽन्नवत् ॥ ॥ स्पृष्टरोषलवास्तेऽथ । कुशिव्यं गुरवोऽगृणन् ॥ वनितान्यो व्रतबंशं । रे दुरात्मनवाप्स्यसि ॥ए॥ स्थातास्मि खलु तत्रैव । नेके यत्रांगनामुखं ॥ शापं वो व्यर्थयिष्यामि । प्रतिज्ञायेति उष्टधीः ॥ १०॥ निर्म- ॥५२ । र्यादो गुरुं त्यक्त्वा । पिपासुः सरसीमिव ॥ गतः कांचिदरण्यानी-मज्ञानीव स कापथं ॥
॥ ११ ॥ कायोत्सर्गजुषो नद्याः । कूले तस्य तपस्यतः ॥ परतो मासतो वापि । सार्थादेः ।
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शोलोप
॥ ४५३ ॥
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पारणाऽभवत् ॥ १२ ॥
वर्षाकालेऽन्यदा प्राप्ते । प्रवृत्ता गिरितस्ततः ॥ जाताः स्वच्छंदचारिण्यो । निम्नगाः कुलटा इव ॥ १३ ॥ क्षुल्लकाश्रितकूलायां । गिरिनद्यामितस्ततः ॥ वत्यां देवता दध्यौ । जक्ता श्री जिनशासने ॥ १४ ॥ नूनं प्रवर्द्धमानेन । कृतघ्ननेव सर्वतः ॥ एष नद्याः प्रवाहेन । मुनिराप्लावयिष्यते ॥ १५ ॥ ततः कूलंकषाकूलं । सा प्रावर्त्तयदन्यतः ॥ कूलवालक इत्येष-स्त दादि प्रथितो भुवि ॥ १६ ॥ इतश्व हारकुंमल - वासोनिः सहितो द्विपः ॥ श्रीश्रेणिकनरें | दत्तो व विल्लयोः ॥ १७ ॥ परलोकाध्वनीने च । श्रेणिके कूलिको नृपः ॥ शोकाशजगृहे स्थातु-मशक्तो वास्तुपंडितैः ॥ १८ ॥ सद्यो निरूपितस्थाने । चंपेति नगरीं नवां ॥ निवेश्य तत्र कालादि - दशभ्रातृयुतः स्थितः ॥ १७ ॥ युग्मं ॥ ततः पद्मावतीपट्ट - राज्ञी नित्याग्रहान्नृपः ॥ हारादितुर्यकं दल्ल- विदल्लाभ्यामयाचत । २० ॥ बुद्धिमंतौ ततस्तौ च । म
तामशुनायतिं ॥ सारं स्वसर्वमादाय । विशाल्यां निशि जग्मतुः ॥ २१ ॥ मातामहस्तयोस्तु श्री-टकः पृथिवीपतिः ॥ तात्रमन्यत मेधावी | स्नेहेन युवराजवत् ॥ २२ ॥ विज्ञाय
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वृति
॥ ४५३ ॥
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वत्ति
शोलोप तौ गतौ तत्र । चिंतयामास कूणिकः॥ न बंधू न च रत्नानि । जातोऽहमुन्नयच्युतः ॥२॥
Ke तापी प्रतिज्ञातं । स्वयमेव त्यजामि चेत् ॥ श्रेणिकस्य सुतो नूत्वा । स्वतोऽपि किमु न ॥५४॥ पे ॥ २ ॥ अमर्षादिति दूतेन । चेटकानावयाचत ॥ दौहित्री शरणायातौ । न च तौ चे.
टकोऽप्यदात् ॥ २५॥ ततो रेकारितः सिंह । श्व प्रश्रितत्नीषणः ॥ वेशालीमरुधचंपा-पतिः सर्वान्निसारतः ॥ २६ ॥ जायमाने महायुद्धे । तयोः स्ववलयोर्मिश्रः ॥ व्यापादि कोटिवीराणां । लदाशीत्यधिका तदा ॥ २७ ॥ वीरौ हल्लविहल्लौता-वारूढी सेचनहि ॥ निहत्य तहलं रात्रौ । सत्वरं प्रतिगनतः॥ २८ ॥ कृतोपाया अपि नटा-श्वपान ः कदाचन ॥ न प्रहत्तुं न वा धर्नु । शेकुः सेचनकाइपं ॥ ए ॥ ततस्तौ खदिरांगार-खातिकायाः प्रयोगतः ॥हते सेचनके हल्ल-विहल्लौ नवनिस्पृहौ ॥ ३० ॥ नीतौ शासनदेव्याथ । श्रीमतीर जिनां. तिके ॥ दीक्षां जगृहतुः स्वार्थ-साधको नवतःस्म च ॥ ३१ ॥ श्रीकूणिकोऽपि वेशाली-पु- रीमादातुमदमः॥ प्रतिझामकरोदेवं । बलीयान् श्रेणिकात्मजः ॥ ३२ ॥ हलेन खरयुक्तेन । वेशालीं न खनामि चेत् ॥ तृगुपातेन वा वह्नि-प्रवेशात्तदहं म्रिये ॥ ३३ ॥
॥४५
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शोलोप
॥४५५ ॥
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ततः कृतप्रतिकोऽपि । पुरीं जंक्तुमनीश्वरः ॥ अशोकचंनूपालो । विषसादतरां हृदि ॥ ३४ ॥ गुर्वाज्ञालोपतो रुष्टा । देवता कूलवालके ॥ नजः स्थिताऽतिखिन्नस्य । कूलिकस्येदमन्यधात् || ३५ || गणियं च मागधियं । समणे कुलवालए मिलिज्जेइ ॥ कुलिए हेलाएतो | वेसालिं गहिस्सदि || ३६ || वाचमेतामथाडाकर्ण्य | जयाशाभिमुखो नृपः ॥ श्राह्वास्त बहुमानेन । वेश्यां मागधिकानियां ॥ ३७ ॥ सत्कृत्य वस्त्रालंकारै-रादिदेश महीपतिः । नरे त्वयानेकपुंसां । धीराजन्मोपजीविता || ३८ ॥ तदद्य स्वकलामस्म - कार्ये सफलय डुतं ॥ कृत्वा कलावति पतिं । कूलवालकमानय ॥ ३९ ॥ नमिति प्रतिपेदाना । विसृष्टा भूभुजा तदा ॥ कपटैकपटुः कूट-श्राविकावेपमादधौ ॥ ४० ॥ सा गर्भश्राविकारूपा । नमंती तीर्थमंडलीं ॥ श्राससाद प्रदेशं तं । यत्रर्षिः कूलवालकः || ४१ || वैराग्यनिर्भरेवैषा । वंदित्वा तं मुनिं जगौ || वंदये रैवतादीनि । तीर्थानि भवतामदं ॥ ४२ ॥ ददौ च प्रतिमां मुक्त्वा । ध लामाशिषं मुनिः ॥ नत्वा तीर्थान्यपृच्चच्च । कुतोऽत्रागा विवेकिनि ॥ ४३ ॥ साडाचख्यौ नाथ चंपातो । धर्मैकशरणागमं ॥ नत्वा तीर्थान्यहं तीर्थं । जंगमं त्वामवंदिषं ॥ ४४ ॥
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वृत्ति
॥ ४५५।
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शोलोप चत्वारिंशतादोषै-रदूषितमिहास्ति मे ॥ पाश्रयं तपादाय । महर्षे ऽनुगृहाण मां ॥ ४५ ॥ वृत्ति
जगाम साधुस्तन्नक्ति-यंत्रितात्मा तयापि च ॥ पूर्वसंयोजितव्याः । प्रत्यलान्यत मोदकाः ॥५६॥ - ॥ ६ ॥ भुक्तमात्रैश्च तैः साधु-स्तथाऽनूदतिसारकी ॥ शशाक संचरीतुं न। यश्रांगानि स्व
कान्यपि !!४७ ॥ आपृष्टुमिव सा वक्त्र-न्यस्तवस्त्रा समीयुषी ॥ तदवस्थं च तं दृष्ट्वा । समजदमिवाख्यत ॥ ४ ॥ मुने सेयमवस्था ते । मत्कृता समजायत ॥ धिग्मामामयदां साघो-निरयेऽपि न नूर्मम ॥ ए ॥ किंचैकाकिनमस्वस्थं । नवंतं निर्जने वने ॥ मुक्त्वा ती
तरं गंतुं । न युक्तं मम निर्मम ॥ ५० ॥ आत्मानं पावयिष्यामि । ग्लानशुश्रूषयैव तत् ॥ र इत्युक्त्वा नेषजादीनि । मुहुर्मुहुरुपाहरत् ॥ ५१ ॥
क्रमेणोर्तयामास । तदंगं गणिका तथा ॥ यथा सर्वांगसंस्पर्श । कारयामास तस्य साथ ॥५२॥ नीतश्चोल्लाघतां स्वात्म-वशतां च क्रमादसौ ॥ संकटे पतितः सर्वः । सुखग्राह्यो ॥५६॥ नवेद्यतः ॥ ५३ ॥ कटार्विनमैर्वक्त्र-वचोयुक्तिन्निः सा कमात् ॥ तपस्तस्य खलीचक्रे । स्त्रीसंसर्गेण किं तपः ॥ १४ ॥ ततः संततसंवास-नदयनर्मोक्तियुक्तितिः॥ दंपतीव्यवहारो
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वृत्ति
शोलोपनू-तयोधिग्मोहचेष्टितं ॥ ५५ ॥ रज्जुवइमिव क्रीडा-मर्कटं कूलवालकं ॥ यत्र चंपाधिप-
स्तत्रा-निन्ये मागधिका जवात् ॥ ५६ ॥ कचे चाशोकचंशय । देवायं कूलवालकः ॥ पती॥४७॥ कृत्य मयाानीतो । यत्कर्तव्यमथादिश ॥ ५७ ॥ कूलवालकमादिक-ततो राजा सगौरवं ॥
तथा कुरु यया मंक्षु । वैशाली नज्यते मुने ॥ ५० ॥ तदाढत्य मुनिलिंगि-रूपेण प्रसरन्मतिः॥ प्रविवेशाय वैशाली। बकोटः सरसीमित्र || एए । चंपेशोऽपि विशेपेग । तदानीमरुघत्पुरीं ॥ तदंतः परिवज्राम | मुनिरप्यस्खलजतिः ॥ ६ ॥ प्रेक्षमाणः पुरीच्य-संचयं प. रितोऽय सः ॥ मुनिसुव्रतनाथस्य । दृष्ट्वा स्तूपमचिंतयत् ।। ६१ ॥ नूनमस्य प्रतिष्टायाः। किंचिल्लमबलं महत् ॥ पूरेषा तत्पन्नावेण । शक्रेणापि न नज्यते ॥ ६ ॥ नबाप्यस्तदयं स्तूप-नुपायेनेति चिंतयन् ॥ पानीयहारिकामागें । मुहुर्मुहुरथाऽब्रमत् ॥ ६३ ॥ कुर्वाणा वनितास्तत्र । पुरीरोधकथा मिथः ॥ दृष्ट्वा मागधिकाधीशं । प्रपच्छुरिति दुःखिताः ॥ ६४ ॥ न| गवंश्चिररोधेन । नगर्याः स्मः कदर्थिताः ॥ तदुष्टः कदामुष्या । नविताऽश्विासयाशु नः।६।।
सोऽप्यूचे यावदत्रास्ति । स्तूप एषो ह्यखंडितः ॥ न नावी तावदुष्टो । व्याधेरिव म.
॥४॥
MRO
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शोलोप
॥भएमा
लग्रहे ॥ ६६ ॥ प्रत्ययस्त्वयमेतस्मिन् । नज्यमानेऽपि तत्कणं ॥ वार्दिवेलेव विषि-बलं वृत्ति दूरं प्रयास्यति ॥ ६ ॥ सर्वथा पातिते त्वस्मिन् । नवित्री वः कृतार्थता ॥ यतः स्थापित ए-4 वायं । मुहूर्ते कयकारिणि ॥ ६ ॥ अहंपूर्विकया नंक्तु-मारेने तं ततो जनः ॥ प्रतायते न के धूर्ते-विशिष्टा व्यसनार्दिताः ॥ ६॥ ॥ मज्यमाने ततः स्तूपे । प्रत्ययाथै मुनिब्रुवः ॥ कूणिकं सबलं ज्ञात्वा । किोशी परतोऽनयत् ॥ ७० ॥ तत्प्रत्ययानुसारेण । पुतं नागरिको जनः ।। कूर्मन्यासशिलां याव-स्तूपं समुदमूलयत् ॥ १॥ ततो हादशवर्षी ते । वैशाली कूणिकोऽननक् ॥ दुर्गाद्याऽनूदियत्कालं । सा हि स्तूपप्रनावतः ॥ ७२ ॥ विरराम तदा चंपा-धिपचेटकयो रणः ॥ एतस्यामवसर्पिण्या-मीहशो न कदाप्यनूत् ॥ ३ ॥ नापितोऽशोकचंण । निर्गनथ चेटकः ॥ पूज्य मातामह ब्रूहि । कमादेशं करोमि ते ॥ ४ ॥ सोऽप्याख्यत विलंबस्व । पुर्यां मा प्रविश करां ॥ पुष्करिण्यामिह स्नानं । यावनिर्वतयाम्यहं ॥४॥ ॥ ५ ॥ प्रतिपन्नेऽमुना तस्मिन् । शुन्नध्यानावरुध्धीः ॥ कंठेऽयःपुत्रिकां बध्ध्वा । वाप्यां श्रीचेटकोऽपतत् ॥ ७६ ॥ विधृत्य धरणे ण । तदा साधर्मिकत्वतः ॥ नीतः स्वमंदिरं तत्र
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शोलोप
एए॥
जीविताशाऽनपेक्षया ॥ ७७ ॥ पर्यंताराधनां कृत्वा । विहिताऽनशनक्रमः ॥ सहस्रारमहाकावृत्ति पे । प्राप्तचटकनूपतिः ॥७॥ युग्मं ॥ दौहित्रस्तस्य च ज्येष्टा-सूनुः सत्यकिखेचरः ॥ निनाय नीलवंताजै । समग्रं नगरीजनं ॥ उए ॥ तदा कूणिकनूपोऽपि । लांगलैर्युक्तरासन्नैः॥ वैशाली खेटयित्वालं । स्वप्रतिज्ञामपूपुरत् ॥ ॥ अशोकचक्नूपाल-स्ततः पूर्णमनोरथः ॥ महोत्सवैर्महीयोनिः । प्राप चंपां महापुरीं ॥१॥ कूलवालकमुनिस्तु मागधी-संगरंगजलधौ निमनधीः ॥ शीलखमनसमुबपातका-द्वंत्रमिष्यति नवाननेकाः ॥ २॥ ॥ इति श्रीरुपल्लीयगडे श्रीसंघतिलकस्तूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां कूलवालकमुनिकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ॥ विषयरसपिपासालोलतायां तपश्चरणस्यापि नैरर्थक्यमाह
॥ मूलम् ॥-समणीवि हु विसयरसा । पुबनवे दोवई कयनियाणा | सिवदायगंविए दु तवं । मुहाइ हारिंसु दी मोहो ॥ ६ ॥ व्याख्या-पदी द्रुपदात्मजा पांझवनार्या पू. वनवे सागरदत्त श्रेष्टिसुतानवे श्रमण्यपि गृहीतचारित्रापि विषयरसात्कृतनिदाना नोगगा
मा
INS
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शोलोप
॥ ४६ ॥
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दिक्रीततपश्वरला शिवदायकमपि मोकहेतुकमपि तपो सुधा व्यर्थं दारयामास निर्गमि तवती, हा इति खेदकारी मोहः कष्टतरश्चारित्रमोहनीय कर्मविपाक इति सूत्रसंक्षेपार्थः, वि. स्तरार्थस्त्वयं, तथाहि
समस्तदत्तदृप्ता रि-कंपा चंपा महापुरी ॥ सुरीदर्पणतां याति । प्रत्प्राकारो मणीमयः ॥ १ ॥ गुणा इव त्रयो विप्रास्तत्राऽभूवन् सहोदराः ॥! सोमदेवसोमनूति - सोमदत्ताः स्थिराशयाः ॥ २ ॥ तेषामासन प्रियास्तिस्रः । क्रमेण प्रेमपीवराः ॥ नागीरथ नूतश्री - ज्ञ श्रीश्चेति विश्रुताः ॥ ३ ॥ त्रयाणामपि बंधूना - मित्रमासीघ्यवस्थितिः ॥ अनुक्रमेण जोक्तव्यं । सर्वैरप्येकसद्मनि ॥ ४ ॥ स्ववारकदिनेऽन्येद्यु- र्नागश्रीर्मुदिता हृदि ॥ चक्रे रसवतीं नाना - रसव्यंजनपेशलां ॥ ५ ॥ अज्ञानतस्तयाऽनेक-व्य संस्कारकर्मनिः ॥ कटुबीफलं पक्क -मपच्यत कश्चन ॥ ६ ॥ तदिज्ञायापि पाकांते । कर्मणो दुर्विपाकतः ॥ तावदस्तुव्ययं स्मृत्वा । न तत्याज मितंपचा ॥ ७ ॥ सर्पदष्टमिवांगुष्टं । विप्रा प्रकृतिलोलुपा ॥ कटुटुंबीफलं पक्त्वा । स्थापयामास जाजने ॥ ८ ॥ कुटुंबं जोजयामास । तदन्यैर्भोज्यवस्तुनिः ॥
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वृत्ति
॥ ४६०
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शोलोप
॥ ४६२ ॥
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भुक्त्वा बहिर्गत जर्तृ-देवराद्या अपि कलात् ॥ ए ॥ इतश्व धर्मघोषाख्याः | सूरयो ज्ञानजानवः ॥ समीयुस्तत्पुरोद्याने ऽनवद्यचरणास्पदं ॥ १० ॥ तेषां धर्मरुचिः शिष्यो । मासरूपपार || सूनागृहमिव छागो । नागश्रीनिलयं ययौ ॥ ११ ॥ नानावस्तुव्ययोऽमुष्मिन् । विफलो मानवत्विति ॥ एषोऽपि निक्षुनिंदार्थी । तोषितस्तावदस्तु च ॥ १२ ॥ नागश्रीरिति तत्तुंबी - फलं तस्मै तपस्विने ॥ ददौ दुर्गतिपाताय । सत्यंकारमिवात्मनः ॥ १३ ॥ समागत्य महात्मापि । कुरूणामदर्शयत् || निरीक्ष्य तत्क्षणं प्राहु-गुरवो वत्सलाशयाः ॥ १४ ॥ क
फलमिदं । दौष्ट्यादज्ञानतोऽथवा ॥ दत्तं नागश्रिया सद्यः । प्राणिप्राणप्रयाणकं ॥ १५ ॥ तदिदं स्थं मिले क्वापि । परिस्थापय यत्नतः || आदेशमिममासाद्य । सोऽप्यगान्नगराद्वहिः ॥ ॥१६॥ कथंचित्पात्रतस्तस्मा - हिंदौ निपतिते भुवि ॥ दृष्ट्वा पिपीलिका लग्ना । त्रियमाणाः सहस्रशः ॥ १७ ॥ दध्यौ च बिंदुरप्येष । यदी प्राणघातकः ॥ तत्समग्रमिदं जीवान् । कति कर्त्ता न जस्मसात् ॥ १८ ॥ वरमेकश्च मे जीवो । यातु मा कोटिरंगिनां ॥ विमृश्येति स्वयं साधु-र्बुभुजे तन्मुदान्वितः || १७ || स्वयमाराधनापूर्वं । विपद्यासौ समाधिना ॥ उदप
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वृत्ति
॥ ४६१ ।
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शोलोप
वृत्ति
॥४६॥
J
द्यत सर्वार्थ-सिझे सिमनार श्रः ॥ ३ ॥ बहिर्धर्मरुचेः कस्मा-लिंबोऽनूदितीक्षितुं ॥ धर्म- घोषमुनींण । निर्दिष्टा मुनयोऽपरे ॥ १ ॥ ते बहिस्तं तथा वीक्ष्य । तस्योपकरणं समं ॥ आनिन्युर्गुरुपादांते । यथादृष्टं तथोचिरे ॥ २२॥ सूरयोऽतिशयज्ञाना-तत्स्वरूपं यथास्थित ॥सुगतिप्राप्तिसंयुक्तं । मुनीनां पुरतोऽवदत् ॥ २३ ॥
कथंचिदथ विज्ञाय । तत्स्वरूपं जनाननात् ॥ सोमदेवादयो विप्रा । रुष्टा नागश्रियं गृ. हात् ॥ १ ॥ सद्यो निर्वासयामासुः । सापि लोकैचिंगार्दिता ॥ हन्यमाना च बभ्राम । पामरेवानितः शुनी ॥ २५॥ युग्मं ॥ सा तत्रैव नवे कासा-तिसारोग्रज्वरादिन्तिः ॥ रोगैराक्रांतदेहाडाप्य । वेदनां नरकावनेः ॥ २६ ॥ क्षुतृषाबाधिताऽगाध-रौऽध्यानपरायणा ॥ विप. द्य षष्टनरका-ऽतिश्रितामियमीयुषी ॥ ७ ॥ तत नर्त्य मर्येषु । नरकं सप्तमं गता ॥ त. तोऽपि प्राप्य मीनत्वं । तत्रैव पुनरीयुषी ॥ ॥ समस्तनरकेष्वेवं । पुष्टात्मा घिरिभ्रम- त् ॥ नत्पेदे च तन्य । पृथ्वी कायादियोनिषु ॥ ॥ अथो गिरिनदीपाव-न्यायतः कमलाघवात् ॥ स हि नागश्रियो जीवो । ब्रांत्वा संसारसागरं ॥ ३० ॥ श्रेष्टिसागरदनस्य ।
॥४६॥
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शोलोप
॥ ४६३ ॥
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चंपायांपुरि तस्थुः ॥ सुन श्रेष्टिनी कुक्षौ | कन्याऽनूत्सुकुमारिका ॥ ३१ ॥ तत्रैव जिनदत्ताह्नः । श्रेष्टी नश च तत्प्रिया ॥ तत्पुत्रो सागरो नामा | कलाविज्ञान सेवधिः ॥ ३२ ॥ जिनदत्तोऽन्यदा दृष्ट्वा | वेश्मस्थां सुकुमारिकां ॥ योग्येयं मत्तनूजस्य । सागरस्येत्यचिंतयत् ॥ ३३ ॥ समील्य बंधुवर्ग स्वं । गौरवेश गरीयसा ॥ गत्वा सागरदत्तस्य । मंदिरे तामयाचत ॥ ३४ ॥ सोऽप्याह साधु देयैव । वरस्य खलु कन्यका ॥ किं त्वेषा नाग्यरेखेव । प्राणेयोऽपि प्रिया मम || ३५ || मुहूर्तमपि न स्थातुं । प्रज्जवाम्यनया विना ॥ तदस्तु गृहजामाता । मम ते सागरः सुतः || ३६ || सुतेन मंत्रयामीति । जिनदत्तो गतो गृहं ॥ श्रश्रावयच्च तत्सूनोः । सोऽपि मौनमथाश्रितः ॥ ३७ ॥ संमतं ह्यनिषिधार्थं । मन्वानोऽस्य पिता 1 ततः ॥ जगौ सागरदत्ताय । गृहजामातरं सुतं ॥ ३८ ॥
1
मह
तयोरासी- त्पाणिग्रहमहोत्सवः ॥ बह्वस्मै प्रददौ पाणि- मोचने श्वसुरस्तदा ॥ ३५ ॥ सुवासिनीजने सन्मानिते तत्र यथोचितं । तौ च शिश्रियतुर्नक्तं । पल्यंकं वासवेश्मनि ॥ ४० ॥ सत्यामखिल नोगांग - सामग्र्यामपि सागरः ॥ लेने कर्मवशात्तस्याः । स्प
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वृत्ति
॥ ४६३ ॥
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शोलोप
॥
५॥
मंगारसोदरं ॥ १॥ नीष्मग्रीष्मज्वलनाष्ट्र-मध्यगामीव सागरः॥ कणमेकमतीयाय । स वृत्ति वर्षमिव दारुणं ॥ ४२ ॥ निशणायामचैतस्यां । प्रणश्य स्वगृहेऽगमत् ॥ तस्थौ सा दारलेखेव । तल्प एव विनायका ॥ ३ ॥ पत्येव निझ्या मुक्ता । दर्श दर्शमितस्ततः ॥ यूथभ्र. टा कुरंगीव । रुरोद सुकुमारिका ॥ ४ ॥ निरीक्ष्य तामयो चेटी । रुदंती पतिवर्जितां ॥ न्यवेदयत्सुन्नज्ञयाः । सापि पत्युरवीवदत् ॥ ४५ ॥ सोऽपि स्वरूपं जामातु-जिनदत्तमजिज्ञपत् ॥ तत एषोऽपि साक्षेपं । पुत्रमित्रमतर्जयत् ॥ ४६ ॥ नवता नवता चक्रे । कुलीनेन न साध्विदं ।। स्वजना नाऽपमान्या हि । धैर्यसागर सागर ।। ४७ ॥ सगुणं निर्गुणं वापि । मुच्यतेंगीकृतं न हि ॥ सकलंकं सकौटिल्यं । चंई नोप्रति धूर्जटिः ॥ ४ ॥ तदाश्यिस्व गत्वा र ता-मिदानीमपि वत्सल ॥ मा कुले स्वजनाऽवझा-नवं दोषं नवं कुरु ॥धए॥ सागरः स्पष्टमाचष्ट । वरमग्निं विशाम्यहं ॥ न पुनस्तहं यामि । जामिर्मेऽतःपरं हि सा ॥ ५ ॥ श्रु. ॥ त्वा सागरदत्तोऽपि । तत्कुड्यांतरितोऽखिलं ॥ आगत्य पुत्रिकामाह। करदश्रुविलोचनः ॥१॥ तथा कथंचिइसेऽसौ । विरक्तस्त्वयि सागरः॥ यथा स्वप्नेऽपि नाकांक्ष-त्यंगारशकटीमिव ॥
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वृत्ति
शोलोप ॥ ५५ ॥ तदन्यं चिंतयिष्यामि । ते वत्सायाः कृते पति ॥ न ह्यल्पमूल्यतामेति । रत्नं ग्रा-
K मीणदूषितं !! ५३ ॥ श्रेष्टी सागरदत्तोऽया-ऽन्येधुर्वातायनस्थितः ॥ प्रात्तैककपरं ब्राम्य-न्म॥४६॥ किकाकुलसंकुलं ॥ ५ ॥ कुत्सितं यौवनावस्थं । कदापटपरिग्रहं ॥ निक्षुकं कंचिदशकी
दारिद्यमिव मूर्तिमत् ॥ ५५ ॥ युग्मं ॥ अन्यंगोतनस्नान-निरस्ततनुकरमलं ॥ विलिप्तचंदनं दिव्य-वाससी परिधाप्य च ।। ५६ ॥ ऊचे श्रेष्टी मदीयेयं । पुत्रिका सुकुमारिका ॥ . यं च प्रचुरा लक्ष्मी-विलसन सुखमास्व तत् ॥ ५७ ॥ युग्मं ॥ स्वर्गितामिव मन्वानः । स्वस्य सोऽपि च तगृहे ।। गृहजामातृवत्तस्थौ । प्रोद्यदानंदमेपुरः ॥ ५० ॥ कृतशृंगारया वास-वेश्म प्राप्तस्तया समं ॥ अग्निप्लोषमिवाऽमंस्त । तदाश्लेषं स उर्गतः ॥ एए ॥ राक्षसीमिव तां मत्वा । सहसोचाय निक्षुकः ॥ पलायामास वेगेन । करेणादाय कपरं ॥ ६ ॥
तथैव रुदतीं पुत्री-माश्वास्य जनकोऽब्रवीत् ॥ सोऽयं प्राकर्मणां कोऽपि । विपाकस्त्व- य्युपस्थितः ॥ ६१ ॥ सूर्योऽपि भ्राम्यति व्योनि । गुणी निकामटाव्यते ॥ मूर्योऽपि संपदं ते । विपाकात्पूर्वकर्मणां ॥६॥ यतस्व कर्मोजेदाय । तत्त्वं मा खिद्या वृथा ॥ दानं ददा
॥६॥
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शोलोपना दीनेन्यः । शांतात्मा तिष्ट मद्गृहे ॥ ६३ ।। स्वकर्ममर्म जानाना । सापि धर्म जिनोदिनि
तं ॥ कुर्वाणा तहे तस्थौ। समाधिनिर्जितेंशिया ॥६५॥ तहमन्यदा प्रापुः । साध्व्यो गो॥४॥ चरचर्यया ॥ प्रत्यलान्यंत ताः शुक्षा-शनपानैश्च नक्तितः ॥६५॥ सवित्रं कर्मवल्लीनां। चा
रित्रं तत्पदांबुजे ॥ सा जग्राह विरक्तात्मा । माणिक्यमिव निर्धनः ॥ ६ ॥ सा तपांसि महीयांसि । कर्मनिर्मूलनोद्यता ॥ नूरिशः कर्तुमारेने । मारेनपतिवारिका ॥६॥ कदाप्येषा विशेषोन-तपश्चरणकाम्यया ॥ प्रवर्तिनी प्रणम्येदं । पप्रड स्वबचेतसा ॥ ६॥ विवि. तोद्यानन्नमिस्था । दत्तदृष्टिरदं रवौ ॥ आतापनां चिकीर्षामि । जिहोमि सुदुःकृतं ॥णा साध्व्यः प्रादुर्न नो धर्म-मार्गे बहिरुपाश्रयात् ॥ साध्वीनां कल्पते जातु । कर्तुमातापनाविधि ॥ ७० ॥ साऽप्यनादृत्य तक्षाचं । वनमागत्य किंचन॥ यावदातापनां कर्तु-मारेने दत्त. दृग् रवौ ॥ ७१ ॥ एकस्य तावत्संगे । न्यस्तांघ्रिमपरस्य तु ॥ श्रयंतीमंकमन्येन ।वीज्यमा- ४६६। नप्रकीर्णकां ॥ ३२॥ कृतावतंसमेकेन । धृतरत्रां परेण च ॥ ददर्श देवदत्ताख्यां । गणिकांड तत्र संगतां ॥ ३ ॥ विशेषकं ॥ तस्या अनन्यसामान्य-नाग्यसौन्नाग्यवैनवं ॥ सा वी
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वृत्ति
शोलोपदयाऽपूर्णनोगेबा । निदानमकरोदिति ॥ ४ ॥ मदाचीर्णस्य चेदस्य । तपसोऽस्ति फलं ख-
लु ॥ तदानी देवदत्तेव । नवेयं पंचनका ॥ ५ ॥ सा तथैव तपस्यंती । निदानमिति कु॥५६॥ र्वती ॥ आर्यानिर्वार्यमाणा च । चेतसीदमचिंतयत् ॥ ७६ ॥ पुरा मां मानयंतिस्म । व्रति
न्योऽनिजनामिव ॥ न्यत्कुर्वत्यधुना मां त्व-कारणं वैरिणीमिव ॥ ७ ॥ विमृश्येति पृथग्वेश्म-स्थिता साऽपालयद्वतं ॥ स्वैरत्वान्जैनमार्गस्य । मालिन्यमुपचिन्वती ॥ ७० ॥ संलेखनां ततो मासा-नष्टौ कृत्वा यथाविधि ॥ नवपख्योपमायुष्का । सौधर्मे देव्यन्नूदसौ ॥७॥
ततश्च्युता सा कांपील्य-लघु पदनूपतेः ॥ कन्याऽनूद क्षेपदीसंज्ञा । रूपनिर्जितमेनका ॥ ७ ॥ सा नित्ययौवना जात-यौवनापि पितुः पुरः॥ राधावेधपणं चक्रे । वरेण्यवरकाम्यया ॥ १ ॥ स्वयंवरेऽय प्रत्येकं । दूतप्रेषणकर्मणा ॥ नूपालान् मेलयामास । हुतं द्रु
पदन्नूपतिः ॥ २ ॥ युधिष्टिरादयः पंच । पांडवेयास्तदाऽाययुः ॥ अवातारीन्मरालीव । स्व- * यंवरसरश्च सा ॥ ७३ ॥ वरितुकामा कामांगी। सापि पंचापि लज्जया ॥ प्रतीहारीकरात्पा
र्थ-कंठे मालामचिदिपत् ॥ ॥ दिव्यानुनावादेकापि । पुष्पमाला पृथक्पृथक् ॥ पंचाना
॥६॥
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शोलोप
वृत्ति
॥
६॥
RRORE*
मपि तेषां सा । कंपीठे व्यलोक्यत ॥ ५ ॥ साधुसाधु वृतं राज-कन्यया कृतपुण्यया । - नजलासेति सहसा । वाणी व्योम्न्यशरीरिणां ॥ ६ ॥ कथमेकामहं कन्यां । पंचभ्यो दा
तुमुत्सहे ॥ यास्यामि वा ददानोऽपि । सर्वेषामुपहास्यतां ॥ ७ ॥ पंचानामपि कंठेषु । व. रमाला लुलोठ सा ॥ आदृतं दिव्यवाचा च । तत्किमत्र नविष्यति ॥ ७ ॥ इति पदन्नूपालो । यावचिंतामहार्णवे ॥ मनो यथावत्कर्त्तव्य-मूढश्चिंतयति चिरं ॥ ए ॥ तावक्ष्योमाध्वनाऽन्येत्य । चारणश्रमणो द्रुतं ॥ निदानकथनात्प्राच्या-तत्संदेहमपाहरत् ॥ ए० ॥ हृष्टात्मान्यां ततः पांडु-डुपदान्यां महोत्सवात् ॥ चके वैवाहिकं कर्म । कृष्णापांडतनूभुवां ॥१॥ ज्ञवं शिवश्रीपरिणामि तिनं । तपोऽपि तप्त्वा द्रुपदेशकन्या॥ निदानतोऽजायत पंचपांडु-सूनुप्रिया ही विषयानिलाषः॥ ए॥ ॥ इति श्रीरुपल्लीयगछे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां शैपदीकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ।
मर॥४६न॥
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वृत्ति
शोखोप पारदारिकस्य गरीयसोऽपि लघीयस्त्वमाह
॥ मूलम् ॥–अमरनरासुरविसरिस-पोरसचरिनवि पररमणीरसिन ॥ विसमदसं सं॥६५॥ पत्नो । लंकादिवशवि रंकुव ॥ ६५ ।। व्याख्या-अमरनराऽसुरविसदृशपौरुषचरितोऽपि पर
रमणीरसिकः परस्त्रीलंपटो लंकाधिपतिरपि रावणोऽपि रंक श्व निक्षुरिव विषमदशां मरणावस्थां संप्राप्तः, श्रीरावणः सीतापहारेण रामलक्ष्मणसंग्रामे बिन्नीषणादिबंधुवर्ग वियुज्य ता
दृग्जगज्जयार्जितोर्जस्विसाम्राज्यलक्ष्मीपरिघ्रष्टो रंक इव कृतांताऽतियितां प्राप्तः, इति संके. IG पार्थः, विस्तरार्धस्तु पुरोवदयमाणश्रीसीतामहासतीचरित्राद् शेयः. प्रास्तां दुर्गऽर्गतिनवं दुःखं, शीलभ्रंशाहुर्यशःप्रसरस्यापि अविश्रांततामाह
॥ मूलम् ॥-नेटरपंमियदत्त-दुहियापमुहाग अज्जवि जयंमि ॥ असइत्तिघोसघंटा-टंकारो विरम न तारो ॥६६॥ व्याख्या-नूपुरपंडितादत्तदुहितृप्रमुखाणामसतीनां तारो दीप्तोऽसतीत्वघोषाघंटाटंकारोऽद्यापि जगति न विरमति, अपरो दि घंटास्वरोऽतितरां मेदुरोsपि कणमात्रेण मंदायते, असौ तु दौःशीच्यघंटाघोषोऽद्यापि शास्त्रेषु कोविदैरुधुष्यत इत्य
॥
णा
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शोलोप
J
॥
करार्थः, नावार्थस्तु कथानकाच्यामवसेयः, तत्रादौ नूपुरपंडितोदाहरणं, तग्राहि
अस्ति राजगृहं नाम । पुरं यत्रोचसद्मसु ॥ नक्षत्राणि जिदंति । मुग्धा मौक्तिकलोनतः ॥ १॥ सुवर्णकारस्तत्रास्ति । देवदत्तानिधः सुधीः ॥ यः कलावान् सदा चके । सु. वर्ण श्रवणोचितं ॥२॥ देवदिन्नस्तदीयांग-जन्मा यन्मानसं गुणैः॥ राजहंसैरिवाश्रायि । विवेकपथचंचुन्निः॥३॥ तज्जाया ऽर्गिलानाम्ना-निर्गलस्पईयेव या ॥ रूपसौन्नाग्यशंगारविकारैराश्रितातरां ॥॥ मदयंती मनो यूनां । सरागैर्नेत्रविज्रमैः॥ सा नद्यां स्नातुमन्येद्युजगाम मदनोन्मदा ॥५॥ विनूषास्फालितादित्य-तेजोगुिणितबविः ॥ अलंचकार सा सिंधु-तीरं लक्ष्मीरिवाऽपरा ॥६॥ संत्यक्तकंचुका मुक्त-केशपाशा रयादसौ ॥ सरितितीर्षयेवाडना-दात्तकुंना कुचबलात् ॥ ७॥ प्रत्युजतेव वीचिनि-चंचलत्वसनानिन्निः ॥ प्रविवेश म. हानद्यां । सा प्रसारितदोध्या ॥ ॥ बाहुपक्ष्योत्देपं । कुर्वती गतिमंथरा ॥ ततार राज- हंसीव । संचरंती तटातटं ॥ ॥ तरंगछन्नसांगं । तरत्याः सलिलोतरं ॥ शेवालवल्लरीवास्याः । केशपाशो व्यराजत ॥ १०॥ सूक्ष्माश्वस्त्रां सुस्पष्ट-सर्वांगावयवामिमां ॥ निरीक्ष्य
०॥
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शोलोप
॥ ७१ ॥
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नागरः कश्चि- दुःशीलः कोजतोऽपवत् ॥ ११ ॥ नदी पृष्ठति सुस्नातं । तथामी पादपास्तव ॥ अहं च प्रणतः पाद- पद्मयोस्तरलेक्षणे ॥ १२ ॥
पपाठ सापि स्वस्त्यस्तु । नद्यै नंदंतु च डुमाः ॥ मनीषितं करिष्यामि । सुस्नातप्रश्नकारिणः || १३ || क्षणं तद्वृचसा काम - माइयैव मनोभुवः ॥ सांज्ञनंदरसाऽापूर्णः । स निश्चेष्ट - इवाऽनवत् ॥ १४ ॥ तरोरूर्ध्वदृशः सोऽथ । फलपातार्थिनोऽर्नकान् ।। फलपातेन संतोष्य । केयमित्यनुयुक्तवान् ॥ १५ ॥ तेऽप्याहुर्देवदत्ताह्न - स्वर्णकारवधूरसौ || देवदिन्नप्रिया गेह - मित
दृशोऽतिथिः || १६ || कलेन सापि पर्याप्य । जलकेलिं निरर्गला ॥ योगिनीव तमेकामं । ध्यायंती गृहमासदत् ॥ १७ ॥ युवापि तस्याः शृंगार - मंगारमिव मानले ॥ प्रविष्टं संततं ध्यायन् । न जातु रतिमाप्तवान् ॥ १८ ॥ प्रदोषाचिर्व तौ रक्तौ । वियोगात परस्परं ॥ रथांगाविव दुःखेन । चिरं कालमतीयतुः || १७ || स नागरोऽन्यदा कांचि - त्कुटिलां कुलदेवतां ॥ तापसीं नृशमभ्यर्च्य । प्राहिलोहुर्गिलांप्रति ॥ २० ॥ सापि ज्ञात्वा तयोः पूर्वा-नुरागं संगमं पुनः ॥ श्रभ्युपेत्य ययौ शिक्षा-दंनेन स्वर्णकृद्गृहं ॥ २१ ॥ अथो ददानां तां वी
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वृति
॥ ४७१
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शोलोप
॥४
॥
य । स्याल्यां तिलकमंझली ॥ स्वर्णकारवधू प्राख्य-दितिमायाविनी रहः ॥ २२॥ स्नांती वति तेन यदादि त्वं । दृष्टा यूना जलांतरे ॥ तदादि त्वद्गुणासक्तो-ऽन्यत्रीमपि नवेत्ति सः॥३॥ स्निग्धा तस्मिन् विदग्धा सा । स्वर्णकारवधूरपि ॥ आकारं गोपयंत्याह । खरं पाखंडिनीमथ ॥श्च ॥ आः कुशीले कुलीनां मां । सदोषां कर्तुमर्हति ॥ बभ्रे वेध्यमिवाऽवैदि । दुःकर तेथे वचो मयि ॥ २५ ॥ उष्टे न नवितासीति । जल्पंती कृतकक्रुधा ॥ निर्गत्या ददौ तस्याः। पृष्टे हस्तं सकजलं ॥ १६ ॥ - तदाशयाऽननिज्ञा सा । तं युवानमदोऽब्रवीत् ॥ वृथा कुलीनां तां स्वस्मि-नासीरनुरागिणीं ॥ २७ ॥ अमोघवचनां मोघां। मां मा कार्षीस्तु सांप्रतं ॥ सुविज्ञान्यपि किं कुया-त्पाषाणे मणिकारकः ॥ २० ॥ किंच सा मम निर्यात्याः । कजलांकितपाणिना ॥ चपे-) टां प्रददौ पृष्टे-ऽपराधिन्या श्व स्फुटं ॥ २ ॥ नक्त्वेति दर्शयामास । पृष्टमुद्राव्य तापसी ॥२॥ ॥ तत्र पंचांगुलिन्यासं । दृष्ट्वा यूनापि तर्कितं ॥ ३० ॥ संकेतं कृष्णपंचम्यां । विदग्धा नूनमाह मे ॥ धूर्नानां चरितं गुप्त-मपि धूर्ना विदंति वा ॥ ३१ ॥ परं न ज्ञापितं स्थानं । सं.
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वृत्ति
॥७३॥
गंतव्यं मया व तत् ॥ ध्यात्वेति पुनराहस्म । तापसी धूर्त्तनागरः ।। ३२ ॥ अवश्यं मयि र- तैव । विद्यते सा सुलोचना ॥ नूनं कारणतः कस्मा-दपि निसिता तदा ॥ ३३ ॥ तदेकर दा पुनस्तत्र | गंतुमर्हसि मझिरा ॥ नपक्रमेण गृह्यते । दुर्गाण्यपि न सा किमु ॥ ३५॥ साप्यूचे सा सतीमन्या । नामापि सहते न ते ॥ रुमाया श्व माणिक्यं । उर्लन्नं तत इप्सितं ॥ ३५ ॥ तथापि चेत्तवाशेयं । रत्नमालेव मालिकात् ॥ मत्तोऽपि सिभिमायाति । पुनरेषा व्रजामि तत् ॥ २६ ॥ इत्युदित्वा गता नूयो । पुर्गिलामाह सस्मितं ॥ सुच तं तरुणं रक्तं । विश्वस्त माऽपमानय ॥ ३७ ॥ स्थानजिज्ञासया नूयः। प्रहितेति विमृश्य सा | रोषादिवाऽशोकवनी-हारातां निरवासयत् ॥ ३ ॥ विलादाऽवाङ्मुखी सापि । द्रुतं यूने तदब्रवीत् । सोऽपि तत्संगमस्थानं । ज्ञात्वा चिते मुदं दधौ ॥ ३५ ॥ तामूचे च विनिगुत्य । स्वेगितं नागरायगीः ॥ मत्कृते सोढमेताव-वया वाच्या न सा पुनः ॥ ४० ॥ अथासौ कृष्णपंचम्या-मशोकवनिकांतरे ॥ जगाम सापि पश्यंती । वर्त्म दूराद्ददर्श तं ॥४१॥ पायं पायं मि. श्रः प्रेमा-मृतं नेत्रपुटैरिमौ ॥ श्राश्लिष्यतामुरःपीडं । तरंगाविव वेगतः ॥ ४२ ॥ चिरदर्शन
॥४७३
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शोलोप
वृत्ति
॥७॥
जस्नेह-वार्तानोगसुधाश्रयौ ॥ अतिचक्रामतुर्याम-थीं तौ घटिकामिव ॥ ४३ ॥ बाढूपधा- नयोः क्रीडा-श्रांतपोस्तत्क्षणानयोः ॥ अनूतां मुश्ति नेत्रे [ स्वकर्मत्रसिते व ॥५॥ देवद नस्तदाऽशोक-वनिकां कायचिंतया ॥ प्रगतो विटमैदिष्ट । शयानं स्नुषया समं ॥ ४ ॥
निश्चेतुं विट एवाय-मिति स स्थविरो दु ॥ दृष्ट्वा सुप्तं सुतं गेहे । दध्याविति हृदंतरे ॥ ४६ ।। असतीत्वकथां वध्वाः । प्रत्येष्यति न मे सुतः ॥ इत्यादाय पदात्तस्या । नूपुरं श्वसुरोऽगमत् ॥ ७ ॥ लाघवादपि तेनातं । ज्ञात्वा प्राबुछ दुर्गिला ॥ निश कुतस्त्या नीतेव। निर्जरा वद कामिनां ॥ ४ ॥ सत्वरं जारमुलाप्य । बनाये सापि पुंश्चली ॥ दृष्टौ स्तः श्व सुरेणावां । कुर्याः साहाय्यमाशु मे ॥ भए । तदंगीकृत्य संवीतो-तरीयः स गृहं ययौ ॥ गाढमालिंग्य सुष्वाप । सापि पत्युरांतिके ॥ ५० ॥ पति जागरयामास । ताम्यतीवाथ पु. श्चली ॥ स्वामित्रत्रास्मि धर्मार्ता । न निशद्य समेति मे ॥ ५१ ॥ तदशोकवनोमेहि । वा-
युप्रसरशीतलां ॥ इत्युवाय गतो देव-दिनोऽपि सरलाशयः ॥ ५५ ॥ तत्रापि तत्कणं निशं। र प्रपेदे स्वर्णकृत्सुतः ॥ पुण्यश्रीरिव निज्ञ हि । सुलन्ना सरलात्मनां ॥ ५३ ।। सापि सर्वांग
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शोलोप
॥ ४७५॥
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मालिंग्य । नटीवत् शयिता पतिं ॥ कुतो हि निज्ञ क्षुज्ञणां । लक्ष्मीरिव दरिक्षिणा ॥ ५४ ॥ धू पतिमाहस्म । कः क्रमोऽयं वत्कुले ॥ श्वसुरो यवयानाया । वध्वा हरति नूपुरं ॥ ॥ ५५ ॥ धिग्मेनावृतगात्रायाः । कथं ते निस्त्रपः पिता । वामपादाडुपादाय । नूपुरं सहसा गतः || ५६ || देवदिन्नोऽवदन्न । मा ताम्यः सुप्यतां कणं ॥ निर्भर्त्स्य पितरं प्रात- दापयिष्यामि नूपुरं ॥ ५१ ॥
सोचे मूर्ख न जानासि । स वक्ता प्रातरन्यथा ॥ उपपत्यादिना दृष्टा । मयेयं यद्दधूरिति ॥ ५८ ॥ प्रालस्येन तवानेन । प्राणांतो मे जविष्यति ॥ तत्वा सांप्रतं वृक्ष - प्रिय नूपुरमाइर ॥ ५५ ॥ पतिः प्राह प्रिये मास्म । शंकिष्टाः संशयो न मे ॥ तद् दृष्टव्यं यथा प्रात -स्तं वक्ष्यामि गलन्मतिं ॥ ६० ॥ मां त्वं पितृमुखं वीक्ष्या - ऽन्यथा संज्ञावयिष्यसि ॥ धिगस्तु जीवितं मे तदित्युदश्रुमुखीं प्रियां ॥ ६१ ॥ कलंकनीरुकां ज्ञात्वा । स्वप्रतीत्यधिरोपकानू || शपथान् शतशश्चक्रे । स्त्रीवशाः किं न कुर्वते ॥ ६२ ॥ सक्रोधं देवदिन्नोऽपि । प्रातः पितरमब्रवीत् ॥ नूपुराकर्षणं वध्वाः । किमकार्षीस्त्रपाकरं ॥ ६३ ॥ स्थविरोऽप्याह दुःशीला
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॥ ४७५
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शोलोप०
वृत्ति
॥८६॥
। वधूपबने निशि ॥ दृष्टान्यपुंता सुप्तेति । प्रतीत्यै तदिदं हृतं ॥ ६ ॥ जगार पुत्रतत्राहं । सुप्तोऽनूवं न चापरः ॥ कुर्वताऽनुचितं ताव-नयता लजितः पुनः ॥ ६५ ॥ मंजीरमर्यतामस्या । वृश्त्वं हि यदीदृशं । त्वयात्तं मम सुप्तस्य । तदाऽसौ तु सती ध्रुवं ॥ ६६ ॥ वृक्षः प्राह यदामुष्या। नूपुरं जगृहे मया ॥ नपेत्य गृहमागत्य । जवान सुप्तस्तदेदितः ॥ ६ ॥ वधूरूचे न तीमं । दोषारोपमहं सहे ॥ स्वात्मानं शोधयिष्यामि । दैविकेनापि कर्मणा ॥ ॥ ॥ कलंको हि कुलीनत्व-मस्यीयानपि दूपयेत् ॥ जात्यरत्नमिवाऽनध्य । बिंडुरंतरगों. नसः॥ ६॥ ॥ इहास्ति शोन्ननो यो । जंघयोस्तस्य याम्यहं !! जंघांतर्यस्य नाऽशुक्षे । जातु यातुमपि कमः ॥ ७० ॥ सशकेनाथ तातेन । निःशंकेन च सूनुना ॥ साहसैकनिधेस्तस्याः । प्रतिज्ञा प्रत्यपद्यत ॥ १ ॥ धौतपोतावृता स्माता । बलिहस्ताय उर्मिला ॥ सम. दं सर्वलोकानां । यकमर्चयितुं ययौ ॥ ७॥ मार्गेऽय पहिलीनूय । पूर्वसंकेतितो विटः॥ तजले मशाखायां । गोलांगूल श्वाऽलगत् ॥ ७३ ॥ अहो ग्रहिल इत्येप-स्तद्वंधुन्निरपास्यत सापि स्नानादिकं नूयः । कृत्वा यदं व्यजिज्ञपत् ॥ १४ ॥ मुक्त्वामुं पहिलं यह । गुरु
॥८६॥
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शोलोप
॥७॥
दत्तं तथा पति ॥ स्पृष्टः कदाचिच्चेदन्यः । स प्रत्यक्षोऽस्ति देव ते ॥ ५ ॥ एतद्धितयमुनि- वृत्ति त्वा । लग्नश्चेदपरो नरः॥ मत्तनौ तन्महासत्याः। शुहिं देया दयानिधे ।। ७६ ॥ यावता किं करोमीति । यतश्चितापरोऽनवत् ॥ धूर्ता तजंघयोरंत-निरगातावदाशु सा ॥ ७ ॥ तत्कालं सकले लोके । शुः शुऽति जब्पति ॥ चितिपुस्तजले पुष्प-मालां राजनियोगिनः ॥ ७॥ ताड्यमानेषु तूर्येषु । परितोऽनिजनैतता ॥ हृष्टेन देवदिन्नेन । सहिता स्वगृहं ययौ ॥ ७० ॥ __नूपुराकर्षणोद्भूता-निस्तीर्णा कलंकतः ॥ तदा प्रनृति सा लोकै-रूचे नूपुरपंमिता ॥ ॥ ७॥ ॥ वध्वास्तेन चरित्रेण । विस्मयापनमानसः ॥ स्वर्णकदेवदत्तोऽनू-अष्टनिक्षः स योगिवत् ॥ ७ ॥ अपूर्वकरणारूढ-मिव निशदरिणिं ॥ तं मत्वा नूपतिश्चक्रे । निजांतःपुररककं ॥ १ ॥ राझी काचिनदा मिंग-लुब्धोडाय पुनः पुनः ॥ जागरूकं तमालोक्य | व्याव
त मुहुर्मुहुः ॥ ७२ ॥ ददोऽथ स्वर्णकारोऽपि । तवृत्तांतबुभुत्सया ॥ कुर्वन घुर्पुरारावं । सु. ॥ प्तः कपटनिया ॥ ३ ॥ सापि चौरवञ्चाय । किप्तचक्षुरितस्ततः॥ उच्चैर्गवाहमारूढा । नित्यसंकेतमुझ्या ॥ ५ ॥ तदधोनागबइन । नूलर्नुः पट्टहस्तिना ॥ करेणादाय सा राइय---
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वनि
शोलोप परनूमावमुच्यत ॥ ६ ॥ चिरेशागमनक्रोधा-डावेशादाधोरणस्तदा ॥ हस्तिशृंखलया पृष्टे ।
चेटीमिव जघान तां ॥७॥ साप्याह कश्चिन्मुक्तोऽस्ति । यामिकोऽनिनवोऽद्य नः ॥ स जा. ॥॥ गरूक एवाऽस्या-तनिया नाहमागता ॥ 1 ॥ सांप्रतं कणमासाद्य । सुप्ते तस्मिन् दुरात्म. पनि ॥ आगतास्मि द्रुतं स्वामि-स्तन्मुधा मयि मा कुप ॥नए ॥ हस्तिपकः कोप-पंकि
लो बोधितस्तया ॥ स्वजायामिव तां राज-रामां रेमे स्मरातुरः ॥ए॥ रजन्याः पश्चिमे यामे । तथैव नृपदस्तिना ॥ मुक्ता वातायने पीन-साहसा स्वास्पदं ययौ ॥ १ ॥ तही. दय स्वर्णकारोऽपि । दध्यावध्यामलाशयः ॥ स्त्रीवृत्तं कः खलु ज्ञातुं । घनगर्जमिव कमः ॥ ॥ ए॥ यद्येवं राजयोषाणा-मपि शीलविनितं ॥ को नाम विस्मयस्तर्हि । सामान्यजनयोषितां ॥ ए३ ॥ या नित्यं निजगेहस्य । व्यापारविनियंत्रिताः ॥ संचरंतितरां स्वैरं । तासां शीलं कियचिरं । ए॥ विमृश्येति स्नुषादोषा-ऽमर्षध्यानं विधूय सः॥ सुष्वाप निरं मुक्त-महानार श्च श्रमात् ॥ एप ॥ निस्तं निश्तेि नानू-दयेऽप्यस्मिन्नऽजागृति ॥ यथास्थित तमाचख्यु-नूभुजे यामिकाः पुनः ॥ ६॥ न हि निर्हेतुकोऽकस्मा-स्वापस्तस्येति
॥७॥
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शोलोप
॥४७॥
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भूपतिः ॥ विचार्याह यदा बुद्ध्येत्स प्रेष्योऽत्र तदा डुतं || 9 || चिरं संपिंमितमिव । निसुखमुपेयिवान || स्वर्णकारोऽनवछिन्नं । सप्तरात्रमशेत सः ॥ ए८ ॥ ततो जागरितो हीपां-तरादिव समागतः ॥ नीतश्वेटैः पुरो राइ - स्तेनाप्येवमपृच्छ्यत ॥ एए ॥ किं सुप्तश्विररात्राय । सप्तरात्रं कलाद नोः ॥ श्रादायाऽनयमेषोऽपि । तत्सर्वं स्पष्टमब्रवीत् ॥ १०० ॥ ज्ञात्वा तद्दतिनो वृत्तं । पत्न्या दस्तिपकस्य च ॥ विससर्ज ससत्कारं । स्वर्णकारं नरेश्वरः ||१|| विज्ञातुं ललनां स्वीयां । पुंश्चलीमथ नूपतिः ॥ किलिंचहस्तिनं प्रौढं । विज्ञानिनिरकारयत् ॥२॥ अथैष पुनराह्वाय्य । सर्वाः शुद्धांतयोषितः ॥ ससंभ्रम श्वोवाच । गूढाकारो नराधिपः || ३ || दुःस्वप्नोऽद्य मया दृष्टः । किलिंचमयवारणः । युष्मान्निर्गतवस्त्रानि - रारोढव्यः पुरो मम ॥ ४ ॥ तच्चक्रुः प्रेक्षमाणस्य । राज्ञोंतःपुरनायकाः ॥ सैका सकंपमादस्म । स्वामिन्नस्माद्दिज्ञेम्यहं ॥ ५ ॥ लीलोत्पलेन सामर्ष - स्ताडयामास तां नृपः ॥ ब्रद्ममू नाटयंती | सा पपात किती कणात् ॥ ६ ॥ तामेव कुलटां बुद्ध्या । निश्विकाय ततो नृपः ॥ पृष्टे च शृंखलाघातं । दृष्ट्वा सस्मितमाख्यत ॥ ७ ॥ रमते मत्तनागेन । कृत्रिमेनाद्विजेषि च ॥ शृं
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वृसि
॥ ४७
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शोलोप
॥ ४८ ॥
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खलाघाततो मोदं । यासि मूर्ती तथोत्पलात् ॥ ८ ॥ वैमारभूधरे गत्वा । कोपसंजारनागू नृपः ॥ पत्नीमाकारयत्तं च । इस्तिनं सनिषादिनं ॥ ए ॥
गजे तस्मिन्नथारोह्य । राज्ञीं दस्तिपकान्वितां ॥ आदिदेश विशामीशों । ब्रुकुटीजीषननः ॥ १० ॥ शैलाग्रशृंगमारुह्य । ऊंपापातो वितन्यतां ॥ यद्युष्माकं निपातेन । त्रिवर्गी सफलास्तु मे ॥ ११ ॥ गजाजीवो गजाघीशं । नीत्वा पर्वतमूईनि ॥ ऊर्ध्वकृतैकचरणं । farastra || १२ || दाहाकारपरा लोकाः । प्रोचुः स्वामित्रमुं पशुं ॥ आदेशकारिरक | कुंजरं राजकुंजर ॥ १३ ॥ अवमन्य नृपे कोपा - पातयेत्याशु जल्पति ॥ - यां पयांपिं हस्ति-पको डुतमधारयत् ॥ १४ ॥ न वध्योऽयं गजो देव । पूत्कुर्वाणेऽखिले जने ॥ सतूष्णीके नृपे सोऽथ । गजमेकांहिसा दधौ ॥ १५ ॥ तन्मुधामारणं दस्तिरत्नस्य दृष्टुमकमा || भुजानुर्दच्य भूपालं । सकष्टं जनताऽवदत् ॥ १६ ॥ देवाय दुर्लनः स र्व - लक्षणश्च सुशिक्षितः || उपवाह्यस्तदेतस्य । मारणं युज्यते न दि ॥ १७ ॥ स्वाधीनोऽपि पराधीनो | योग्यायोग्यविधौ प्रभुः । तत्प्रसीद दयासार । रक्ष रत्नं हि यत्नतः ॥ १८ ॥
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वृचि
॥ ४८ ॥
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शोलोप
वृत्ति
॥
॥
तदादृत्य नृपोऽवादी-इदतैनं गिरा मम ॥ निवर्तयते शैलाया-येना, वारणोत्तमं ॥ १५॥ लोकः प्रोजैस्तदा प्रोचु-राधोरणधुरीण नोः॥ निवर्तय नृपादेशा-जमेनमितो गिरेः॥२॥ सोऽप्युवाच गिरेरेनं । केमेण भुवमानये ॥ आवयोरन्नयं नूपः । सर्वश्रा प्रददाति चेत् ॥१॥ प्रोक्तः प्रधानैर्नृपाल-स्तयोरनयमन्यधात् ॥ शनैःशनैर्गजं सोऽपि । मेदिन्यामुदतारयत् ॥ ॥ २२ ॥ मद्देशो मुच्यतां शीघ्र-मित्युक्तो नूभुजा रयात् ॥ नत्तीर्य हस्तिनो राशी-महामात्रौ पलायितौ ॥ २३ ॥ संध्यायां कंचनग्रामं । प्राप्तौ श्रांतौ महाध्वना ॥ शून्ये देवकुले ध. न्यं-मन्यौ सुप्तावुनावपि ॥ २४ ॥ चौरस्त्वेकस्तदा ग्रामा-चौर्यं कृत्वा पलाय्य च ॥ प्रविष्टो देवकुलके । तत्रैव रजनीनरे ॥ २५ ॥ तत्र प्रविष्टं तं ज्ञात्वा । ग्रहीष्यामः प्रगे ध्रुवं । इति देवकुलं ग्रामा-दारक्षकाः पर्यवेष्टयन् ॥ २६ ॥ महांधकारे चौरोऽपि । तत्र सर्वत्र पर्यटन् । सुप्तावनूतां तौ यत्र । तं प्रदेशमुपेयिवान् ॥ २७ ॥ निषादी निरं सुप्तो । न तत्स्पृष्टोऽप्यजागरीत् ॥ ईषत्करेण स्पृष्टापि । जजागार नृपांगना ॥ २७ ॥ तेन वश्यौषधेनेव । स्पृष्टा मं. दमसौ दणात् ॥ अनुरक्ताऽवदन्मदं । निशीथे कासि नए नोः ॥ ७ ॥
॥
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वनि
शालोप सोऽपि मंदमन्नापिष्ट । नदेऽहं तस्करोऽधुना ॥ नश्यनारककेन्योऽत्रा-ऽविशं प्राणरि-
Ka रक्षया ॥ ३० ॥ सानुरागा पुराचारा । शनैश्चौरमवोचत ॥ रक्षाम्यहमवश्यं त्वां । विधत्से ॥४२॥ चेन्ममेप्सितं ॥ ३१ ॥ चौरोऽप्याद मया सुन्नु । स्वर्ण प्राप्तं सुगंधि च ॥ आजन्मजीवितेशा
सि । मम त्वं प्राणरक्षणात् ॥ ३२ ॥ परं ब्रूहि कया युक्त्या। रक्षिष्यसि शुन्नानने ॥ आ- श्वासय कणं चेतो । नाग्यापनाति मे यतः ॥ ३३ ॥ सा प्राद प्रातरारक-पुरुष्वागतेष्वदं ॥ वक्ष्ये त्वामेव नार-मेवमस्त्विति सोऽब्रवीत् ॥ ३५ ॥ प्राविशन सायुधाः प्रातः । कृतनकुटयो नटाः ॥ पप्रच्छुस्तेऽपि कश्चौरो । युष्मास्विति ससंत्रमं ॥ ३५ ॥ मूर्ता मायेव सा दुष्टा । ग्रामीणपुरुषान्प्रति ॥ चौरमुद्दिश्य सा प्राह । ममायमिति वजनः ॥ ३६॥ ग्रामांतरे व्रजंतौ नौ । दंपती दिवसात्यये ॥ अस्मिन् देवालयेऽवास्त्वः । श्रमाक्रांताविमा निशां ॥
॥३७॥ तेऽपि संन्नावयामासुः । संनूयेति परस्परं ॥ लुंटाकवृत्तेश्चौरस्य । कुतः स्त्रीरत्नमी. भी दृशं ॥ ३० ॥ ईदृशी वल्लना यस्य । सादाखदमीरिवोत्तमा ॥ तस्या नर्ता नवेचौर । इ.
ति याति न संगति ॥ ३ ॥
॥
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शोलोप
धृति
॥३
अयमेव परं चौर । इति हस्तिपकस्य ते ॥ शूलाधिरोपणं चक्रु-दोपमारोप्य तत्कणं ॥ ॥ ४० ॥ गूलाप्रोतः पथा यं यं । संचरतं स प्रैकत ॥ तृषानों दीनवाक् पातुं । तं तं नीरमयाचत ॥ १॥ न कोऽपि पाययामास । तस्य नूपन्नयात्पयः॥ इतश्च जिनदासाख्यः । श्राइस्तेनाध्वनाऽगमत् ॥ ४२ ॥ याचमानं जलं चौरं । श्रावकश्चैवमब्रवीत् ॥ करोषि मच्चश्चत्त-दन्यां ते हराम्यहं ॥४३॥ यावहार्यानये ताव-त्रमोऽहत्रय इति स्मर ॥ मेंगेऽपि घोषयामास । तत्पदं नीरवांया ॥धा राजानुशामुपादाय । श्राोऽपि जलमाहरत् ।। मुदा पुण्योपकाराय । यतंते तादृशा यतः ॥ ४५ ॥ निषाद्यपि जलं दृष्ट्वा-दानीतमाश्चास्य तत्कणं ॥ नमोऽहनय इति प्रोच्चैः । पठन प्राणैरमुच्यत ॥ ४६॥ अज्ञातधर्मतत्वोऽपि । नमस्कारप्रत्नावतः ॥ अकामनिर्जरायोगा-ध्यंतरेषु सुरोऽनवत् ॥ ७ ॥ पुंश्चली सापि चौरेण । व्रजंती पथि सोन्मदा ।। प्राप कूलंकषां कांचि-दात्मानमिव कुस्थिति ॥ ४ ॥ चौरोऽप्याह प्रिये वस्त्रालंकारैस्त्वां समन्वितां ॥ पारं नेतुं न शक्रोऽस्मि । तटिन्या एकवेलया ॥ ४ ॥ तदर्पय मम स्वीयं । वस्त्रालंकरणादिकं ॥येनेदं परतो धृत्वा । नयामि त्वां ततः सुखं ॥
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शोलोपए || अहं तु यावदायामि । तावनिकमानसा ॥ तिरोन्नव शरस्तंबे । समेष्याम्यचि
रादहं ॥१॥ ॥४४॥
किं शंकसे निजे पृष्टे । त्वामारोप्य गरुत्मवत् ॥ एष आगत्य नेतास्मि । प्राणेश्वरि परं तटं ॥५२॥ सापि दत्वाऽखिलं तस्मै । स्वयं शरवणे स्थिता ॥ महापराधतो देवे-नेव स. र्वस्वदंडिता ॥ ५३॥ तस्करोऽपि कणानद्या । गत्वा पारमतर्कयत् ॥ ममापि खड्वपायाय । या तथाऽघातयत्पतिं ॥ ५४॥ ध्यात्वेति पश्चाउदीक्ष्य । स पक्षीवोदडीयत ॥ धूर्ता हि साधितस्वार्थाः । परापेक्षां न कुर्वते ॥ ५४॥ नग्ना सा गाढन्ननाशा । मुषित्वा यांतं वीक्ष्य तर ॥ विदस्ता हस्तमुदिप्य । पूच्चकार चलेक्षणा ॥ ५५ ॥ किं मामभ्रादिव भ्रष्टां । विहाय व जतो दहा ॥ कृतघ्न विघ्नं निघ्नंतु । कथं ते पथि देवताः ॥ ५६ ॥ चौरः प्राह हताशे त्वां । नमामेकाकिनी वने ॥ बिन्नेमि नीमामालोक्य । तदुराशे कृतं त्वया ॥ ५७ ॥ वदनिति
मृ GH गोत्पात-मुत्पतनश्यतिस्म सः॥ दुष्टा सेतस्ततो भ्रष्टा । तस्थौ दीनतमानना ॥ ५० ॥ इतो र देवत्वमापनो । जीवो इंस्तिपकस्य सः ॥ अवधिज्ञानतोऽशक्षी-तथास्थां स्वैरिणी वने ॥णा
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शोलोप
वृत्ति
॥
५॥
प्राग्जन्मगृहमेधिन्या-स्तस्याः संबोधनेछया ॥ मुखानमांसखमस्य । गोमायो रूपमादधे ॥ ॥ ६॥ मांसपेसी मुखात्त्यक्त्वा । शृगालस्तदृशोः पुरः ॥ सरित्तीरगतं मीनं । इतं नोक्तु मधावत ॥६२!! मोनो नदीजले नूयः । प्रविवेश कणादपि ॥ तन्मांसं तु शकुन्यात्तं । व्य. थै फेरुस्तु तस्थिवान् ॥ ६३ ॥ ननोचे मांसमुनित्वा । दुर्बुद्धे मीनमिछसि ॥ भ्रष्टो मांसाच्च मीनाच । किं शृगाल विलोकसे ॥ ६ ॥ गोमायुराह न रं । मुक्त्वोपपतिमाहता ॥ भ्रष्टा पत्युस्तथा जारा-त्रनिके किमु वीतसे ॥ ६५ ॥ तत् श्रुत्वा जयकंप्राया-स्तस्याः स व्यंतरेश्वरः ।। दिव्यं स्वरूपमाधाय । जगाद द्युतिमंबरी ॥६५॥ सोऽहं हस्तिपकः पापे । यस्त्वया मारितस्तदा ॥ जैनधर्मप्रसादेन । देवत्वमिदमासदं ।। ६७ ॥ तत्त्वं कृतापराधापि । मयका कृपयोव्यसे ॥ जिनधर्ममुपादत्स्व । प्राच्यपापव्यपोहकं ॥ ६॥ तथेति प्रतिपन्नां ता-मुत्पाव्य व्यंतरामरः ॥ प्रव्रज्यां ग्राहयामास । नीत्वा साध्वीपदांबुजे ॥६५॥ संप्राप्नुवत्याः शु. चिशीलरत्न-ग्रंशं तथा नूपुरपंडितायाः ॥ अद्यापि तस्या असतीत्वनूतो। दुःकीर्तिनादो विराम नैव ॥ ७० ॥
॥
ॐ
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शोलोप
॥४८६ ॥
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॥ इति श्रीरुपल्ली गछे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंस श्री सोमतिलक सूरिविरचितायां श्री - शीलतरंगिण्यां नूपुरपं हितायाः कथा समाप्ता, प्रसंगतो राजपत्नी में कथा चोक्ता ॥ श्रीरस्तु ॥ दत्तपुहितुरुदाहरणमुदाहियते, तथाहि
कर्जस्वल श्रियां गेह-मास्ते जयपुरं पुरं ॥ यस्याच्चसद्मशृंगाणि | विश्रांत्यै स्युर्दिवौकसां ॥ १ ॥ राजा जयरथस्तत्र । धर्मसत्रं महारथः ॥ यत्खऊपुष्करे लक्ष्मी - र्नित्यवासमशिश्रयत् ॥ २ ॥ मंत्री दत्तानिवो यस्य । मत्या शून्यांतेरेक्षणः ॥ स्वं जितं ज्ञापयन्नत्र | का
एवाऽनवत्कविः || ३ || तस्यास्ति कन्या शृंगार-मंजरी मंजरीव या ॥ कामः कामु कालीनां । मनस्तल्लयमानयत् ॥ ४ ॥ साडारूढयौवना पीनस्तन शैलक्ष्य स्थितः ॥ कामकेसरिणः स्थाम्ना -ऽभ्रमयद्दिश्वमानसं ॥ ५ ॥ सा तु पूर्वजवाची कर्मकालुष्यदूषिता ॥ जेजे गतींगिताकारै - रसतीपथपथितां ॥ ६ ॥ तथाहि — तिर्यग्वलितया दृष्टया । गवंती पथि
ते || अनापंतमप्याला- पयते परुषाक्षरं ॥ ७ ॥ चंचत्कांचनसचाय - घनामंबर मंडना || अनेक स्थिरपदा | विद्युल्लेखेव सा बनौ ॥ ८ ॥ अन्यदोपवनक्रीडा - कौतुकी जयन्तूप
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वृत्ति
॥ ४८६ |
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शोलोप
वृत्ति
॥ध
तिः॥ वातायनसमासीनां । नेत्रातिथ्यत्वमानयत् ॥॥ तदानीमन्यचेतस्क-मिव ज्ञा- त्वा नराधिपं ॥ जघान मदनो निल्ल । व गीतवशं मृगं ॥ १० ॥ तहशश्च विशामीशो। विस्मृत्यारामरम्यतां ॥ समियाय गृहं क्रीमा-शंकुता इव पंजरं ॥ ११ ॥ __अथाऽमात्यैरयाचिष्ट । राजा दत्तसुतां रयात् ॥ किं परापेक्षतां कुर्या-कोऽपि स्वरसबोधितः ॥ १२ ॥ प्रदत्तामथ दत्तेन । सुतामुशाह्य नूपतिः॥ प्रमोदाऽवैततां नेजे । तत्वज्ञानी. व निवृति ॥ १३ ॥ सा तु स्वन्नावलोलत्वा-हिनमैरथ नपतिं ॥ नपाचरंती तं लीन-चित्तं धूर्ततयाऽकरोत् ॥ १४ ॥ कदाचिचिरारामे । क्रीमाशैले कदाचन ॥ कदाचित्सप्तनूगेहे । नेजे तां तहशो नृपः ॥ १५ ! स्वबंदचरितां नाना-विलास विहितादरां ॥ स्मरातुरमना राजा
रामां रेमे रमामिव ॥ १६ ॥ तामयो मन्मथागारं । प्रासादे सप्तनूमिके || व्यतिरिव्य सपत्नीन्यः । स्थापयामास नूपतिः ॥ १७ ॥ उद्यम चपलत्वेन । वक्तृत्वं मुखरत्वतः ॥ प्रेम स्थेमयुतं धाष्टर्या-दार्जवं चातिहासतः ॥ १७ ॥ इतस्ततो दृग्निपाता-सत्रपत्वं च नूधनः ॥ तस्यां संन्नावयामास । वातकींच्यामिव ॥ १५ ॥ युग्मं । पतिवालन्यतस्तत्र । स्नानपा
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नि
शोलोपनाऽशनादिकाः॥ क्रियाः समस्ताः कुर्वाणा । तयो स्वैरं सुरीव सा ॥ २० ॥ श्तश्च नगरे
तस्मि-न्निध्यपुत्रो धनंजयः॥ संचचार स्मर व । सौधावस्तेन वर्मना ॥ १ ॥ वीक्ष्य ॥an- दत्तसुता काम-मूढा तं कामन्नासुरं ॥ पुष्पमाला गलेऽमुष्य । बाहुपाशमिवाऽविपत् ॥२॥
नद्यानावधि तत्सौधे । तनावको धनंजयः ॥ सुरंगां खानयामास । प्रबन्नामाप्तपूरुः ॥२॥ मतागतानि कुर्वाणा । राझी तत्र स्मरातुरा || कालं किंचिदतीयाय । सुख स्वान्नाष्टकेलिन्निः ॥ २४ ॥ वलमानोऽन्यदा राज-रहिकातो नराधिपः ॥ ददोपवने राझी । क्रीडंती दत्तपुत्रिकां ॥ २५ ॥ ज्ञात्वा सापि विदग्धात्मा । गत्वाऽागारं सुरंगया ॥ तस्थौ वातायने दत्त-लो. चना नृपतिप्रति ॥ २६ ॥ ___समेति त्वरितं याव-सौधोपरि नरेश्वरः ॥ मुमुदे तामश्रो वीक्ष्य । प्रेम्णा संमुखचक्षुषी ॥७॥ प्रेक्षणीयको सायं-तनस्यावसरेऽन्यदा ॥ गंधर्वा रचयामासुः । ससामंतनृपाग्रतः ॥ २७ ॥ तानमानलयग्राम-मूनास्वनपेशलं ॥ गीतमाकर्णयामास । नृपो वादित्रसुंदरं ॥ ॥ ५ ॥ युग्मं ॥ तेषु सदोलमालोक्य । नृपो दत्तसुतां खलु ॥ विसृज्य प्रेक्षणं याव-सौ
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शोलोप
॥धए
धमारुह्य वीतते ॥ ३० ॥ घूर्णमानदृशं ताव-नस्पैकतलशायिनी ॥ निशणामिव तां वीक्ष्य वृति । स्वशंकां समकोचयत् ॥ ३१ ॥ विशिष्यशंकया राजा । तथोपचरितस्तया ।। आतिथ्यमपि तथ्येन । यथा मेने तदीरितं ॥ ३२ ॥ सपौरजनसामंतो । वसंतसमयेऽन्यदा ॥ ययावुपवने क्रीडां । कर्तुं सांतःपुरो नृपः ॥ ३३ ॥ कुसुमावचयेनाशु । श्रांतो तावथ दंपती ॥ नक्तं सुषुपतुर्वल्लि-मंडपे क्वापि निर्जरं ॥ ३४ ॥ कालेनेव करालेन । दंदशूकेन तावता ॥ दष्टा राझी जजागार । पूत्कुर्वाणा कणादश्र ॥ ३५ ॥ यावदारनताह्वातुं । नूपतिर्मत्रवादिनः॥ पपात मूर्बिता ताव-ज्ञझी गरलवेगतः ॥ ३६ ॥ प्रयुक्ता विषमोक्षाय । क्रिया गारुझिकैर्यकाः॥ खलोपकृतिवत्तस्यां । तास्ता वैफल्यमासदन ॥ ३७ ॥ विधूय धीरतां राजा । वल्लन्नाप्रेमविबलः । विललाप चिरं राज्यं । मन्वानो जीर्णतार्णवत् ॥ ३० ।। वारितोऽपि विशामोश-श्चितां चंदनदारुतिः॥चितां प्रवेष्टुकामोऽन-जायया सह यावता ॥ ३५ ॥ गहनंदीश्वरे ताव- नए। खेचरो व्योमवर्त्मना॥ विलोक्य जनतामेलं । तत्राऽकस्मादवातरत् ॥४०॥ सर्पदष्टप्रियाप्रेम-वशाश्विानरे नृशं ॥ विशंतं नूपमाशंक्य । सकृपः खेचरोऽन्नवत् ॥ १ ॥ निवार्य स
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शोलोप
I
॥धए
हसा तस्मा-त्साहसात्खेचरो नृपं ॥ चकार सज्जा तज्जायां । जलाडोटेन सत्वरं ॥ ४२ ॥र- वृत्ति रंज राजा मुमुदे । जनता जगुरंगनाः ॥ नेऽप॑दंगाश्च तदा । जातं हर्षमयं जगत् ॥३॥ अकृत्रिमोपकर्तारं । सर्वकामगुणादरैः ॥ सन्मान्य खेचरं राजा । विससर्ज यथागतं ॥
ध्यार निशामुवास तत्रैव । नूयस्तत्रागतो नृपः॥ सापायमपि सेवंते। स्थानं मन्मथजीविनः ।।
इतश्च पूर्वसंकेता-तत्रैवागानंजयः ॥ सुदूरमपि नो दूरं । यत्र लग्नं मोगिनां ॥ ६ ॥ साऽप्येत्य तमयोवाच । किमि, सुखमावयोः ॥ यावो देशांतरं कंचि-द्यावजागर्ति नो नृपः ॥ ७ ॥ श्रेष्टिसूनुरत्नाषिष्ट । मुग्धे नेयं विमर्शधीः ॥ कोऽलंनूष्णुर्भुजंगस्य । समुह शिरोमणिं ॥ ४० ॥ जीवत्यस्मिन्नराधीशे । यस्त्वामपि जिहीर्षति ॥ ज्वलिते करवालानौ। स खलु स्वं जुहूर्षति ॥ ४ए ॥ तदुक्तमन्युपेत्याथ । गता राज्ञी नृपांतिकं ॥ जिघांसुस्तं च नि-श स्त्रिंशा । सा निस्त्रिंशं करेऽकरोत् ॥ ५० ॥ ख निःकोशमाधाय । यावक्ष्यापारयत्यसौ॥ ॥ णा समेत्य जगृहे पाणि-स्तावता श्रेष्टिसूनुना ॥ ५१ ॥ अचिंतयच येनेयं । पट्टराझीपदे कृता॥ यस्यां च व्यालदष्टायां । प्राणा अपि पणीकृताः ।। ५२ ॥ तस्मिन्नपि महानागे। चेष्टते यदि
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वृत्ति
शोलोप हीदृशं ॥ तस्याः संन्नाव्यते चित्तं । मयि स्वार्थिनि कीदृशं ॥ ५३॥ तदलं विषवल्लीव-दन-
1 याऽनर्थकुख्यया ॥ श्यत्कालमनालोच्य । धिगात्मानमहारयं ॥ ५ ॥ त एव केवलं धन्या । भए ये संसारं पलालवत् ॥ परित्यज्य फलं धर्म-माश्यिते तपोधनाः ॥ ५५ ॥ यदर्थ तप्यतेऽत्यपार्थ-मनुत्तरसुरैरपि ॥ प्राप्तं तन्मानुष्यं मूढा । हारयति मुधैव हा ॥ ५६ ॥ इत्यादिनवैरा
ग्य-नागी सर्व विरक्तघीः ॥ बुझतत्वतया नेजे । जैनी दीक्षां धनंजयः ।। ५७ ॥ गतः प्रात
नरेशोऽपि । सदनं मदनैकहत् ॥ चिराय पालयामास । राज्यं रज्यन्मनोरथः ॥ ७ ॥ अ* न्यदा नूमिपालस्य । स्वास्थानीमधितस्थुषः ॥ समीयुर्वणिजो वाजि-व्रजविक्रयकारिणः ॥
॥ एए ॥ तेषु सल्लकणं कंचि-तुंगमेकं तुरंगमं ॥ कुतूहलवशो राजा । पर्याणितमकारयत् ॥६० ॥ सबले निर्बले वापि । हिपदेऽपि चतुष्पदे ॥ अपरीक्ष्य न कर्त्तव्यः । कार्यारोपो वि. पश्चिता ॥६॥
इति वारयतामेव । सचिवानां नृपोत्तमः ॥ करेणाकृष्य वल्गां त-मारुरोह तुरंगमं ॥ ॥६२ ॥ अश्वोऽपि प्रथमं तास्ता । वीथिकाः प्रथयन्नपि ॥ वल्गया किंचिदाकृष्टः। संचचार
॥
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शोलोप
वृत्ति
॥धए॥
समीरवत् ॥ ६३ ॥ वदतां याति यातीति । यातो दृष्टेरगोचरः ॥ नृपोऽप्यचिंतयत्ताव-हनेऽहं । पातितोऽमुना ॥ ६ ॥ निर्विमश्च यथा नाव्यं । नवत्वेवं विकल्पयन् ॥ मुमोच शिथिला वल्गां । स्थिरस्तस्थौ च शूकलः ॥६५॥ ज्ञात्वा कुशिक्षितं तस्मा-दवतीर्य नृपो भुवि ॥ क्षुत्तृषाबाधितोऽत्यर्थ-मरण्यानीमथाऽभ्रमत् ।। ६६ ॥ प्रशांतश्वापदं याव-नं याति पुरः पुरः॥ तावन्मोहतमोव्यूह-तिरस्कारदिवाकरं ॥ ६७ ॥ तपःशोषितसर्वांगं । निर्ममं प्रतिमाजुषं ॥ मुनि ददर्श नूमीशे । मूर्त धर्ममिव स्थितं ॥ ६॥ सुधास्त्रात इव प्रीतो । ववंदे नृ. पतिर्मुनि ॥ प्रतिमां पारयित्वा च । महात्माशिषमब्रवीत् ॥ ६ए ॥ व्रतदानोपकर्तारं । तं मन्वानस्तपोधनः ॥ यथोचितमुपादिद-उपविश्य विशेषतः ॥ ७० ॥ राजन्नसारे संसारे । क्रूरे दुःखं निरंतरं ॥ अंतरेण जिनोपइं । धर्म त्राणं न किंचन ॥ १॥ इत्यादिदेशनाजात -वैराग्योऽथ विशांपतिः ॥ मन्वानस्तृणवज्ञज्यं । दर्गे दीवामनोरथं ॥ ॥ कचे च नगवन् नोग-योग्येऽपि मधुरेऽपि च ॥ वयसि व्रतनिर्माणे । किं ते वैराग्यकारणं ॥ ३ ॥ मु. निरूचे नवानेव । राजन् संयमहेतुकः ॥ कथमित्यनुयुक्तश्च । पुनराह महामुनिः ॥ ४ ॥
॥धएश
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शोलोप
वृत्ति
॥
३॥
तदानीमहिदष्टायां । जायायां यजनाधिप ॥ नवता चेष्टितं प्रेम्णा । तत्राहं सादिन्नावना- क् ॥ ५ ॥ चिरंतनघननेह-वशात्तत्र समीयुषः ॥ कृतघ्नमिव संत्यज्य । नवंतं मम संगता ॥ ६ ॥
किमिकमावयोः सौख्य-मित्युदित्वा पुराशया ॥ पाणौ कृपाणमादाय । यावत्त्वांप्रत्यधावत ॥ ७७ ॥ तमांछिद्य रयात्ताव-दहमिबमचिंतयं ॥ घिगिमां धिक् च कामेछां । धिक् संसारविळंबनां ॥ ७ ॥ संविग्नात्मा समुत्सृज्य । समग्रं गरलौघवत् ॥ दीदामादाय नूपाल । करोम्यातापनामहं ॥ ७ ॥ श्रुत्वेति जातवैराग्यः । सैन्येन समुपेयुषा ॥ समं राजा समागव-त्पुरमुद्यत्पताककं ॥ ॥ कोणार्णमिव मन्वानः। संसारं स रसापतिः ॥ विधाय पुत्रसाशज्यं । स्वयं दीदामुपाददे ॥ १॥ क्रमेण ज्ञातवृत्तांतैः । स्वजनैः पामरैश्च सा ॥ न्यकृता धिक्कृता दत्त-ऽहिता दुःखिताऽन्नवत् ॥ २॥ वृहं निकाचितं कृत्य-सृष्टं कर्म नि- बद्ध्य च ॥ जगामाधोगतिं नागा-क्रांतकैवर्तजालवत् ॥ ३ ॥ तत नभृत्य तिर्यतू-त्पद्य पापमुपाय॑ च ॥ शीलवैकल्यतो नीम-नवानंत्यं भ्रमिष्यति ॥ ४ ॥ सतीनावविपर्यये
॥३॥
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वृत्ति
॥धए॥
कालोपण । निरंतरं क्लिष्टमुपायं कर्म ॥ बभ्राम सा दत्तसुता दुरंत-संसारपायोनिधिमुग्रपापा ॥
॥इति श्रीरुपल्लीयगळे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां दत्तहितकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु । अथ पूर्वोक्तकधार्थमुपदेशरूपेण नावयन्नाह
॥ मूलम् ॥ एवं सीलाराहण-विराहणाणं च सुरकदुस्काई॥श्य जाणिय नो जवा। मा सिढिला होद सीलंमि ॥६७ ॥ व्याख्या-एवं पूर्वोक्तनंग्या शीलाराधनाविराधनयोश्च सु
खदुःखानि कथितानि, शीलस्याराधने सुखं विराधने च खमिति यथाक्रमं ज्ञेयं; इति ज्ञा- त्वा विमृश्य नो नव्याः शीले चतुर्थव्रतपालने मा शिथिला नवत? शीलमेवाझ्यिध्वमित्यर्थः। म शोलधारिणां नारीसंगोऽपि वर्जनीय इत्याह
॥मूलम्॥ वनवयधारीणं । नारीसंगो अपबारी ॥ मूसाणव मंजारी।श्र निसि-
च सुत्नेवि ॥ ॥ व्याख्या-ब्रह्मव्रतधारिणां शोलपालनबश्कदाणां नारीसंगो, मूष. 4 काणामिव मार्जारीसंगो अनर्थप्रस्तारी पापहेतुः, यथा ह्युदुराणां बिमालिका क्यकारिणी न.
एमा
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शोलोप ति, तथा स्त्रीसंगः शीलवतां शोलशरीरविघातकारित्वादनर्थपरंपराकरी. प्रामाण्यमाह
इति हि सूत्रेऽपि दशवैकालिकसूत्रेऽपि निषिई वर्जितं, चकारः समुच्चयार्थः, तदेवाहभए॥ ॥ मूलम् ॥-विनूसा श्छीसंसग्गो। पणीयं रसन्नोयणं ॥ नरस्सत्तगवेसिस्स । विसं
तालनमं जह ।। ६५ ।। व्याख्या-आत्मगवेषिणस्तत्वज्ञस्य पुरुषस्येदं तालपुटं विषमेवेति या संबंधः, किं तदित्याह-विनूषा मंडनं नन्नटवस्त्रान्तरणादिन्तिः, यथा सोमनीतिः-नानृषिः
कुरुते काव्यं । नाविष्णुः पृथिवीपतिः ॥ निस्पृहो नाधिकारी स्या-त्र कामी मंझनाऽप्रियः ॥ ॥१॥इति. स्त्रीसंसों वनितादिन्तिः सहवासः, यदाहुः-संसर्गजं गुणमवाप्य हि पाटलाया-स्तोयं कपालशकलान्यपि वासयंति ॥ ज्ञानाधिकैरहरहः परिघृष्यमाणाः । प्रायेण मं.
दमतयोऽपि नवंति तद्शाः ॥ १ ॥ इति, प्रणीतः स्निग्धाहारः, सरसनोजनं विकृतिसेवनं, * यदागमः-विर विगईसीन आहारे अन्निरकणं ॥ अर अतवोकम्मे । पावसमणुत्ति वु-
च॥ १ ॥ इति. यथा तालपुटं नाम विषं सद्यः प्राणापहारकं, तथेदमपि विनूषादिकं शीलजीवितापहारकत्वेन तादृग्विषोपमं शेयमिति गाथार्थः ॥ ६ए ॥ सितनिदर्शनान्येवाद
धएप
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शोलोप
॥४९६ ॥
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॥ मूलम् ॥ – जहा कुक्कडपोयस्स । निचं कुकलन जयं ॥ एवं खु बंजयारिस्स । इडी - विग्गन जयं ॥ ७० ॥ व्याख्या -यथा कुर्कुटपोतस्य कुलला हिडालान्नित्यं जयं यथा बसमासाद्य मार्जरः कुर्कुटबालकं नित्येव, एवममुना जंग्या खु इति निश्वयेन ब्रह्मचारिणः स्त्रीविग्रहानयं, स्त्रीशरीरं तस्य मदनोन्मादं जनयतीत्यर्थः ॥ ७० ॥ ग्रास्तां विभ्रमसारस्त्रीशरीरदर्शनस्य, चित्रगतस्यापि स्त्रीरूपस्य वर्जनीयतामाह
॥ मूलम् ॥ - चित्तनित्तिं न निशाए । नारिं वा समलंकियं ॥ जरकरं पिव दहूणं । दिपिसिमारे || ७१ ॥ व्याख्या - चित्रनित्तिं कुड्यालिखितानि चित्राणि न निध्यायेत् न पश्येत्, चित्ररूपकाणि हि दृष्टमात्राणि मनोहारित्वेन प्रमोदपोषकाणि, नारीं वा सुष्टु श्रलं - कृतां विभूषितां न विलोकयेत्, ननु ' न शक्यं रूपमदृष्टुं । चक्षुर्गोचरमागतं ' इति चेन्न, करं सूर्यमिव दृष्ट्वा दृष्टिं प्रतिसमाहरेत् व्यावर्त्तयेदिति भावः ॥ ७१ ॥ प्रसंगदोषपरिजater स्त्रीनामापि निषेधयन्नाद
|| मूलम् || - पायप डिडिन्नं । कन्ननास विगप्पियं ॥ अवि वासस्यं नारिं । बंजया
I
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वृत्ति
॥ ४५६ ॥
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होलोपरी विवजए ॥ ७२ ॥ व्याख्या-हस्तपादपरिचिन्नां बिनकरचरणां, कर्णनासाविकल्पितां
निवृत्ति कर्णनासिकां अपि वर्षशतजराजीर्णामपि नारी ब्रह्मचारी विवर्जयेत्, रूपवेषवर्षादिनिरपेए कं स्त्रीत्यनिधापि परिहर्तव्येत्यर्थः ॥ ७२ ॥ ननु शाततत्वानां शीलधर्मवतां किमयमाग्रहो
पदेश इत्याह
॥मूलम् ॥-विसमा विसयपिवासा । अणानवन्नावणारे जीवाणं ॥ अश्उजेआणि अ। इंदियाणि तह चंचलं चित्तं ॥ ३ ॥ थोवमसारं संतं । मोहणवल्लीन महिलियानविद ॥श कहवि चलिअचित्तो । गवए एवमप्पाणं ॥ ४॥ युग्मं ॥ व्याख्या-जीवानां प्रा. गिनामनादिन्नवनावनयाऽन्यस्तत्वेन विषमा विषयपिपासा, उस्तरा नोगतृष्णा, ति दुर्जेयानि चेंख्यिाणि, तथा चंचलं चिनं चपलं मनइंऽियं ॥ ७॥ ननु सत्त्वेन तृष्णां निरुत्स्यंतीत्याह-थोवमिति स्तोकमप्यल्पमप्यसारं क्षणभंगुरं सत्त्वं चित्तधाष्टय महिलाश्च स्त्रियो मो- धए॥ बनवल्लयः स्वनावादेव मोहोत्पादिकाः, यऽक्तं—नीयंगमाहिं सुपन-हराहिं नपत्रिमंथरगई. हिं ॥ महिलाहिं निलगाहिं । गिरिवरगरूआवि निजंति ॥१॥ इत्येवंप्रकारैश्चलितचित्तः प्रा
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झालोपणी कथमपि एवं पूर्वोक्तस्त्रीसंसर्गवर्जननंग्यात्मानं स्थापयेत्, शीलनंग न प्राप्नोतीत्यर्थः । वृत्ति
॥ ४ ॥ जीवस्यैव स्वयंप्रबोध्यतामाह॥॥ ॥मूलम् ॥-रे जीव समश्कप्पिय-निमेससुहलालसो कहं मूढ ॥ सासयसुहमसम
तमं । हारयसि ससिसोयरं च जसं ॥ ५ ॥ व्याख्या-रे जीव लोः स्वात्मन् स्वमतिक हिपतनिमेषसुखलालसश्चदुःस्पंदप्रमाणसुखलेशलंपटः सन् हे मूढ मूर्ख! असमतमं शाश्वतसुखं शीलशीलनलन्यमनंतं मोक्षसुखं, शशिसोदरं च चंनिर्मलं यशो दारयसि निर्गमयसि, यदुक्तं-दत्तस्तेन जगत्यकीर्तिपटहो गोत्रे मषीकूर्चक-श्चारित्रस्य जलांजलिर्गुणग-4 णारामस्य दावानलः ॥ संकेतः सकलापदां शिवपुरक्षारे कपाटो दृढः । कामातस्त्यजति प्रनोदयन्निदाशस्त्रीं परस्त्रीं न यः॥१॥ इति गाथार्थः ॥ ५ ॥ कामासक्तस्य दूषणान्याह
॥ मूलम् ॥–कलिमलअरश्अभुस्का-वाहीदादाई विविदअसुहाई ॥ मरणंपि दु विर- एन। दासु । संपजश कामतविभाणं ॥ ७६ ॥ व्याख्या-कलिमललांपव्यात्तदप्राप्तौ चित्तदोन्नः, अरतिर्गाढं चित्तोगः, अबुभुका तनचिंताव्याकुलितांतरत्वादरोचकत्वं, व्याधिरादिसंजवः,
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शोलो
॥४॥
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दादस्तापोकः, त्र्यादिशब्दान्मूर्छाद्य सुखानि, न केवलमेतानि जायंते, मरणं प्राणत्यागोऽपि खुरवश्यं कामतप्तस्य संपद्यते, मरणांतां दशामपि प्राणी स्मरातुरतयाऽनुभवति यदुक्तंप्रथमे त्वािः स्याद् । द्वितीयेऽप्यर्थचिंतनं ॥ अनुस्मृतिस्तृतीये च । चतुर्थे गुणचिंतनं ॥ ॥ १ ॥ उद्वेगः पंचमो ज्ञेयो । विलापः षष्ट नव्यते ॥ उन्मादः सप्तमो यो । जवेश्याधिरथाष्टमे ॥ २॥ नवमे जडता प्रोक्ता । दशमे मरणं जवेत् ॥ तथा च - सव्याधेः कृशता कतस्य रुधिरं दृष्टस्य लालाश्रुतिः । सर्वं नैतदिहास्ति तत्कथमसौ पांथो वराको मृतः ॥ श्राः ज्ञातं मधुलंपटैर्मधुकरैराब इकोलाहलै - नूनं साहसिकेन चूतमुकुले दृष्टिः समारोपिता ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ ७६ ॥ पुनर्विषयिणां दुःखसंज्ञारमाह
॥ मूलम् ॥ - विसई डुरकलरका । विसयविरत्ताराम समसमसुरकं ॥ जइनिन परिचितसि । ता तुप्रवि अणुवो एसो || 9 || व्याख्या - विषयिणां स्मरातुराणां दुःखलकासंपते, विषय विरक्तानां कामिनी संगविमुखानां श्रसमशमसौख्यमसमानोपशमसुखं मोरूपं जवति, यदि निपुणं परिचिंतयसि, जो जव्यजीव यदि निपुणतया विचारयसि तदा
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वृत्ति
॥४॥
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शोलोप
॥ ५०० ॥
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तव स्वस्यापि एषोऽनुभवः, यतो विषयासक्तानां च दुःखविपाकोदयः प्रकट एव यदुक्तं - तीरातीरमुपैति रौति करुणं चिंतां समालंबते । किंचिद्ध्यायति निश्वलेन मनसा योगीव मुकेक्षणः ॥ स्वां बायामवलोक्य कूजति पुनः कांतेति मुग्धः खगो । धन्यास्ते भुवि ये निवृ-मदना धिग्दुःखिताः कामिनः ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ ७७ ॥ इवं विषयाशां निर्वास्य प्रबोधोपदेशमाह
॥ मूलम् ॥ - जासिं च संगवसन । जसघम्मकुलाई दारसे मूढ ॥ तासिपि किंपि चिते । चिंतसु नारीण दुच्चरियं ॥ ७८ ॥ व्याख्या – हे मूढ संसारव्यामूढप्राणिन् ? यासां नाhi संगवशतो यशोधर्मकुलानि दारयति, तासामपि दुश्चरितं चित्ते चिंतय ? यद्यपि-रतो पुठ्ठो मूढो । पुवं दुग्गादिन अ चत्तारि ॥ नवएसस्सारदा । अरिहो पुरा होइ मो ॥ १ ॥ इत्युपदेशयोग्यः, तथापि माध्यस्थ्यमास्थाय दणं विचारयेति गाथार्थः ॥ ७८ ॥ नारीदोषाने वाह
॥ मूलम् ॥ चवलानं कुडिलान | वंचणनिरयानं दुट्ठधिद्वान || तद नीश्रगामिणीन ।
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वृत्ति
॥ ५०० ॥
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होलोप
॥१॥
जान तासिपि को मोहो ॥ ७ ॥ व्याख्या-याश्चपलाश्चंचलस्वन्नावाः, कुटिला मायाशी- वृत्ति लाः, वंचनानिरताः परपुरुषचित्तरंजनबज्ञाध्यवसायाः, उष्टा व्यसनपातनप्रवणाः, धृष्टा दृष्ट-4 व्यलीका अपि सतींमन्याः, ततो इंघः, तथा नोचगामिन्यः कुपात्रदासनटविटरताः, यदुतं-जन्मार्गगामिनी सांइ-रसा घनचिंतांतरा ॥ स्त्री नदीवन्निनत्त्येव । कुलं कूलं श्च दणात् ॥ १ ॥ या एवंविधास्तासु को मोदः, यउक्तं-अनुरागो वृथा स्त्रीषु। तथा गर्वो वृषेति च ॥ प्रियोऽहं सर्वदा ह्यस्या। ममैषा सर्वदा प्रिया ॥१॥ एवं निःस्नेहा ए. व स्त्रियो झेया इति नावः, नक्तं च-एता हसंति च रुदंति च कार्य हेतो-विश्वासयंति च परं न च विश्वसंति ॥ तस्मानरेण कुलशीलसमन्वितेन । नार्यः स्मशानघटिका श्व वर्जनीयाः॥१॥ इति गाथार्थः ॥ ए ॥ अमूषामेव कणरागितामाह
॥ मूलम् ॥-गुणसायरंपि पुरिसं । चंचलचित्ता विवजिनं पावा ॥ वच्च निरस्करे ॥१॥ वि हु । नीअत्तमहो महेलाए ॥ ७० ॥ व्याख्या-च पुनरर्थे चंचलचित्ता पापा दुराचारा गुणसागरमपि गुणवंतमपि पुरुषं पतिं वर्जयित्वा निरक्षरेऽपि मूर्खेऽपि रज्यते, अहो महे.
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शोलोप
॥५०॥
लायाः स्त्रिया नीचत्वं कुत्सिताचारशीलत्वं. 'महिलायां महेलापि । मेहला स्यान्महेलिका र वृत्ति ॥' इति शब्दलेदः, इति गाथार्थः ॥ण्णा एवंविधासु तासु विरक्तानां पुनःपुनरुपदिशनाद
॥ मूलम् ॥-रूवोवहलियमयर-यंपि पुहवोसरंपि परिहरिनं ॥श्यरनरेवि पसज्जा। हीही महिलाण अहमत्तं ॥१॥ व्याख्या-रूपोपहसितमकरध्वजमपि कामरूपमपि पुरुष पृथ्वीश्वरमपि राजानमपि परिहृत्य, इतरनरेऽपि सामान्यमानुषेऽपि प्रसज्यते, कामातुरा हि रामा रूपादिशक्षिात्रनिरपेदं यत्रकुत्रापि रज्यते. सनिर्वेदमाह-होही महिलानामधमत्वं, धिक् स्त्रीणां कुकर्मकारित्वं. नक्तं च-नो वयस्य यदि स्वस्य । प्रशस्यमपि वांगसि | क. रन्यत्र मा कार्षीः । प्रमाणं नायिकासुखं ॥१॥ इत्यर्थः ॥२॥ तत्स्वरूपपुरवबोध्यतामाद
॥मूलम्॥-धीरा व कायरा वा । नारी मुझ व बुद्धिमंता वा॥ रत्ताव विरत्ता वा। सर रला कुडिला व नो जाणे ॥ २ ॥ व्याख्या-नारी स्त्री धीरा साहसिनी, वा अथवा, ॥५
कातरा नीरुस्वन्नावा, या मुग्धा मूखी, यदिवा बुझिमंती स्वकार्यकरणप्रवणमतिः, वाऽयवा रक्ताऽनुरक्ता, वा पुनर्विरक्ता अन्यासक्ता सरला सन्मार्गगामिनी, कुटिला वा वक्र
॥
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शोलोप
॥५३॥
VRAT
चरित्रा वेति न जाने, विशेषं नोपलक्ष्यामि. यऽक्तं-प्राणप्रदा देदहरा नाराणां । जीरुस्व- । वनि नावाः प्रविशति वह्नौ ॥ क्रूराः परं पल्लवपेशलाग्यो । मुग्धा विदग्धानपि वंचयति ॥१॥ - ति गाथार्थः ॥ ७९ ॥ बुनिवपरिकलितभुवनानामपि स्त्रीचरित्रबहिर्मुखतामाह
॥ मूलम् ॥-निअमश्माहप्पेणं । जे सयलं तिहुअणं परिकलयंति ॥ नारीचरियवियारे । तेवि हु मूढुव मूव ॥ ३ ॥ व्याख्या-ये बुझिमंतो निजमतिमाहात्म्येन सकलं त्रिभुवनं परिकलयंति, जगत्रयस्वरूपं जानते, तेऽपि पुमांसो नारीचरित्रविचारेषु निश्चितं मूढा व मूका श्व, स्त्रीणां सुशीलदुःशीलतापरिझानेऽझाना श्व. यदिवा किंचिजानंतोऽपि सुसंचितकपटत्वाक्तुमकमतया मूका निरु प्रसरा श्व. यदुक्तं-चतुरः सृजता पूर्व-मुपायांस्तेन वेधसा ॥ न सृष्टः पंचमः कोऽपि । गृह्यते येन योषितः ।। १ ।। इति गाथार्थः ॥ ३॥ ननु मानुष्यसाधारणा अपि कश्रममूरीदृश्य इत्याह
॥ मूलम् ॥-अन्नं रम निरस्क। अनं चिंते नासए अन्नं ॥ अन्नस्त देश दोसं । कवमकुडी कामिणी विनला ॥ ४ ॥ व्याख्या-अन्यं नरं सस्पृहतया रमते कामयते, निरी
1M.DI
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होलोप कते पश्यति चान्य सविभ्रमतया, समुच्चयोऽध्याहारार्थः, अन्यं चिंतयति हृदये तत्वतया नि- वृत्ति
धने, नापते सशृंगारवचनैर्वाचालयत्यन्यं, अन्यस्य प्रत्यऽननुरागिणो दोषं दौःशील्यापवाद॥५०॥
मसद्भूतमपि ददाति, तस्मात्कामिनी स्त्री विकटा विपुला कपटकुटी दंनगृहं. यदुक्तं-जपंति साईमन्येन । पश्यत्यन्यं सविभ्रमाः ।। हृतं चिंतयंत्यन्यं । न स्त्रीणामेकतो रतिः॥ ॥१॥ अन्यच्च-श्रावत संशयानामपि नयनवनं पत्तनं साहसानां । दोषाणां सन्निधानं कपटशतमयं क्षेत्रमप्रत्ययानां ॥ मोदारस्य विघ्नं नरकपुरमुखं सर्वमायाकरंडं । स्त्रीयंत्र केन सृष्टं विषममृतमय प्राणिलोकस्य पाशः ॥१॥ इतिगाथार्थः ॥ ४ ॥ अनुरक्तास्वपिस्त्रीवविश्वसनीयतामाह
॥ मूखम् ॥-जबाणुरत्तचित्ता । स धणदेसाअंपि डे ॥ तंपि हु खिवेश के । महिला मिंठस्स निवनजा ।। ५ ॥ व्याख्या-यत्र पुरुषेऽनुरक्तचित्ना रागपरवशा महिए भला कामुकी सती धनदेशादिकमपि मुंचति, तमपि नरं सा खे विपति, प्राणांतं प्रापय
ति, दृष्टांतमाह-मेंठस्य नृपनायेंति लुप्तोपमा ज्ञेया. यथा किल राजपत्नी हस्तीपकेऽनुरज्य
॥
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शोलोप
वृति
॥५५॥
कुटुंबव्यराष्ट्रराज्यादितमृद्धिं मुक्त्वापि तमेव गजपालकं, तत्काल मिलितं तस्करं पतीकृत्य शूलायामपि रोपितवतीति विस्तरतः प्रागुक्तनूपुरपंमिताकथातो ज्ञेयमिति गाथार्थः ॥ ५ ॥ तरिक्तानामुपश्लोकयन्नाह
॥ मूलम् ॥–कुडिलं महिलाललिअं । परिकलिन विमलबुझियो धीरा ॥ धन्ना विरत्तचित्ता । हवंति जद अगडदत्ता ॥ ६ ॥ व्याख्या-महिलां स्त्रियं ललितामपि कुटिलांमकरदंष्ट्रावत्क्रूरहृदयां परिकल्प्य ज्ञात्वा विमलबुझ्यो निर्मलमतयो धीरा मेरुवर्यन्नाजो ध. न्याः पुण्यवंतो विरक्तचित्ता नवंति, यथा अगमदत्तादय इति संदेपार्थः, आदिशब्दाबालिनजंबूप्रनृतयः, विस्तरार्थो दृष्टांतादयसेयः, तथाहि
अस्ति शंखपुरं नाम । पुरं यत्रत्यसंपदः ॥ निरीक्ष्याऽनिमिषो नाकं । वंचनामिव मे निरे ॥१॥ तत्रास्ति रूपशौंकीर्य-सुंदरः सुंदरो नृपः ॥ कृपाणलेखा यत्पाणि-पद्मे शृंगावली यथा ॥२॥ वल्लन्ना सुलसा तस्य । त्रस्यदेण विलोचना ॥ अदीदिपत्पताकेव । या सइंशं न कं गुणैः ॥ ३ ॥ तत्कुतिभूरनूत्पुत्रो-ऽगमदत्त इति श्रुतः ॥ दोषैरशेषैरवीण-निधान
र
ՈԼԱԾԱ
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गोलोप मिव यः श्रितः॥॥ महेश श्व नूमीशे-ऽन्येयुरास्थानमास्थिते ॥ कुमारोप्रक्रमं पौराः।। वृत्ति
J पुरोपश्चमब्रुवन् ॥५॥ क्रुधाताम्रो नृपः सूनोः। श्रावयनिदमब्रवीत् ॥ अपुत्रो दि वरं प्राणी। ॥५६॥ विनीतांगजो न तु ॥६॥ नूष्यते सगुणैः पुत्रैः। सामान्यमपि यत्कुलं । कुलमत्युज्ज्व.
लमपि । कुपुत्रैः सकलंक्यते ॥णा साहंकारः कुमारोऽपि । नूपालेनेति नत्सितः॥ निर्जगाम पुराशत्रौ । पंचास्य श्व निर्नयः ॥ ७॥ क्रमेण भुवमाक्रामन् । प्राप्य वाणारसी पुरीं ॥ मपुरपारीणां । श्रियं तस्या व्यलोकयत् ॥ ए॥ गतः क्वापि पश्चात्रे । मठे सोऽशठमानसः॥ नत्वा पवनचंज्ञख्य-मुपाध्यायमुपाविशत् ॥ १० ॥ विलोक्याकृतिमंतं त-मुपाध्या. योऽवदन्मुदा ॥ कुतोऽत्र संगतः किंवा । तवागमनकारणं ॥ ११ ॥ यथातथं कुमारोऽपि।निजकोदंतमब्रवीत् ॥ सोऽपि तं प्रीणयन्नाह । सवात्सल्यमिमां गिरं ॥ १२ ॥
न मोक्तुं पितरौ वत्स । सुपुत्राणामिहोचितं ॥ तावंतरेण नैवान्यो। यदत्र परमोपकृत् ॥५०६ ।। ॥ १३ ॥ स्तन्यपाननिवृत्यापि । मुच्यते पितरौ यदि ॥ पशूनां मानवानां च । वत्स तर्हिर किमंतरं ॥ १५ ॥ राजसूनुरजाषिष्ट । साधु ह्यस्मि प्रबोधितः ॥ पितृन्यां जन्यते पुत्रो । गु
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शोलोप
॥ ५०७ ॥
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रुला ज्ञानजन्म तु ॥१५॥ प्रमाणं मे त्वदादिष्ट - मूचिवांसममुं गुरुः ॥ श्रानीय स्वगृहे स्नान - नोजनैर्जगृहेतरां ॥ १६ ॥ ऊचे च जनकस्येव । गेहे मे वत्स तस्थुषा ॥ कृतार्थीक्रियतां लक्ष्मीः । पुत्रेणेव त्वया नृशं ॥ १७ ॥ तथेति प्रतिपद्याथ । विनयं विनयन्त्रयं ॥ क्रमेणान्यस्तवान् सर्वाः । शस्त्रशास्त्रादिकाः कलाः || १८ || स पुरोपवनेऽन्येद्युः । शरैः खेलन खलूरिकां । अकस्मादन्वद्भूत्पृष्ठे । पुष्पस्तबकतामनं ॥ १९ ॥ चक्षुराक्षिप्य साक्षेपं । लकतो यावदीक्षते ॥ तरुणीं रमणीमेकां । पुरस्तात्तावदैत ॥ २० ॥ वीरंमन्यममुं नूनं । स्मरवीरोऽपि कौतुकी ॥ कटाहसायकैर्यो डुं । तदाऽढौकत तबलात् ॥ २१ ॥ स्वनेत्रवाणैर्भूचाप-मुक्तैनिर्भिन्नमानसं ॥ ज्ञात्वा कुमारं मारानं । सविकारमुवाच सा ॥ २२ ॥ यदादिलोचनैर्दृष्टो | मया त्वं सुनगाग्रणीः । तदादि दंत कामोऽयं । निर्दयो मामताडयत् || २३ || इमामत्र्यनां नाथ । नावमंतुं तदर्हसि ॥ तदाकर्याऽवदत्सोऽपि । कासि त्वं कस्य वा सुता ॥ २४ ॥ साऽप्याह बंधुदत्तस्य । श्रेष्टिनोऽहं सुता प्रिया ॥ बाल्येऽप्यधीतशास्त्रा च । नाम्ना मदनमंजरी ॥ २५ ॥ कमला कृपरोनेव । पत्या किंतु विडंबिता || तिष्ठामि स्वपितुर्गेहे | निर्गुलेव
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वृत्ति
॥ ५०७ ॥
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शोलोप
॥५८॥
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धनुर्लता ॥ २६ ॥ नक्तं च
1
पतिर्मूख दि मुग्धानां । जमः प्रज्ञावतां गुरुः ॥ शूराणां नेश्वरः स्वामी । मृत्योरपि विशिष्यते ॥ २७ ॥ सरसीव पिपासोस्त्वं । चिराद्दृग्गोचरं गतः । तस्माज्जीवोऽसि नर्त्तुश्व | मम जानामि नापरं ॥ २८ ॥ तद्रूपमोदितः प्राह । कुमारोऽपि मनोज्ञगीः ॥ रंजोरु सफलीकार्यः । काले तव मनोरथः ॥ २७ ॥ प्रमोदमेदुरा साथ । जगाम निजमंदिरं ॥ अश्ववारः कुमारोऽपि । प्रतस्थे नगरोन्मुखः || ३० || शृण्वन् कलकलारावं । पश्यन शून्या निवापणान् । यावच्यापारयामास । विस्मितः पुरतो दृशं ॥ ३१ ॥ तावत्सप्तास्पदश्वोत- दानपंकिलनूतलं ॥ नदंशुंडं क्रोधांध - मायांतं गजमैकत ॥ ३२ ॥ युग्मं ॥ ततस्तुरंगाडुत्तीर्य । धावित्वा रजसादसौ ॥ वेष्टितेनोत्तरीयेण । जघान करिणः करं ॥ ३३ ॥ कोपात्संमुखमायांतं । प्रसारितकरं रयात् ॥ दादारवपरे पौरे । पेचके दतवान् छिपं ॥ ३४ ॥ पुरः क्षिप्तोत्तरीयोऽथ । गजं परिणतं स्यात् ॥ आरुह्यालानयामास । त्माधारेणसंस्तुतः || ३५ ॥ राजा भुवनपालोSr । तं समाहूय वेत्रिणा || नमंतं गाढमालिंग्य | पादपीठे न्यवेशयत् || ३६ ॥ गुणैरेव म
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वृि
॥ ५८ ॥
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गोलोप या ज्ञातं । वत्स यद्यपि ते कुलं । तथापि तविशेषार्थ । मनो मे तरलायते ॥ ३७॥ वृत्ति
श्रुत्वेत्यवाङ्मुखो याव-मनाक् तिष्टति राजसूः ॥ तावत्पवनचंइस्त-दृत्तांतमखिलं ज-१ एए गौ ॥ ३०॥ राजोचे तर्हि साम्राज्य-मिदमस्यैव नान्यथा ॥ इत्युक्त्वा कुमरं राजा । सच्च
के नूषणादिन्तिः ॥ ३५ ॥ इतः सप्रानृताः पौरा । नूमिन्नर्ने व्यजिज्ञपन् ॥ देव त्वन्नगरी) क्षु-ग्रामादप्यतिरिच्यते ॥४०॥ यत्केनचिददृष्टेन । चौरेण निशि मुष्यते ॥ त्वयि शास्तरिय
यद्येवं । तचंशजरविपुषः ॥ १॥ आक्षिप्य क्षितिपालेना-दिष्टो नगररक्षणे ॥ तलारकः कोSणिपृष्ट-घृष्टमौलिरथाऽब्रवीत् ॥ ४२ ॥ देवासौ तस्करः सिझे । मांत्रिको वास्ति निश्चितं ॥
यश्चिरंचिंत्यमानोऽपि । न प्रयाति दृशोः पथं ॥४३॥ नपायचिंताविश्रांते । नृपेऽश्र कुमारोऽवदत् ॥ विमुच्य तात चिंतार्त्ति । ममैवादिश्यतामिदं ॥ ४ ॥ न चान्यत्रेदमादेश्यं । म य्यादेशवशंवदे ॥ शुंठीसाध्ये कफापोहे । कः प्रयुक्ते रसायनं ॥ ४५ ॥ दत्तादेशस्ततो राज्ञा। ए॥ कुमारो मुदिताशयः॥ श्रीमत्पवनचंश्स्यो-पाध्यायस्याऽन्यनुज्ञया ॥४६॥ द्यूतकृन्मालिका. पान-वेश्यानदयापणादिषु ।। चौरमन्वेषयन् काम-मतिचक्राम षदिनीं ॥ ४ ॥ युग्मं ॥
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सोलोप सप्तमेऽह्नि ततो दध्यौ । चौरवार्तापि नाप्यते ॥ एकमेव दिन शेषं । तत्प्रतिज्ञा कथं मम ॥ वात
॥ ॥ इति निश्चित्य स प्रेत-वनमाश्रित्य यावता | कृपाणपाणिन्यग्रोध-तलासीनो वि.५ ॥५१॥ लोकते ॥ ४॥ तावता रौशक-मालालंकारधारिणं ॥ कषायवाससं दंग-कुंडिकाव्यग्र
पाणिकं ॥ ५० ॥ विशालनालं ताम्रादं । दीर्घजंघाभुजोर्जितं ॥ परिव्राजकमायांतं । राजसू. नुरवैक्त ॥ ५१ ॥ युग्मं ॥
स एवायमिति स्पष्टं । संन्नावयति नूपजे ॥ पाखंमिकोऽप्यथागत्य । कस्त्वमित्यनुयुक्त तं ॥ ५॥ अहं वैदेशिको द्यूतादारिद्यमतुलं गतः ॥ नमामि यत्रतत्रार्थी । नष्टधेनुरिवाऽ
निशं ॥ ५३॥ पाखंमी पुनरप्याह । हिमानीवाजिनीवनं ॥ विहन्मि तव दारिद्यं । धुतमेदि 1. मया समं ॥ ५५ ॥ ततः प्रमाणमादेश । इत्युक्तवति नूपजे ॥ तत्रैव तमवस्थाप्य । गतः - पितृवने स्वयं ॥ ५५ ॥ अयस्कुशीक्ष्यं खऊ । चादाय पुनरीयुषा ॥ चलितः कुमरस्तेन | |१||
नगरानिमुखं रयात् ॥ ५६ ॥ विधाय विद्यया सद्यः । पौरलोचनबंधनं ॥ स कात्रं पातयामास । कस्यापि धनिनो गृहे ॥ ५७ ॥ रत्नानरणवस्त्राणां । कृष्ट्वा पेटा अनेकशः ॥ कुमार.
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शोलोप
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संयुतोऽनैषीत्क्वापि देवकुले क्षणात् ॥ ५८ ॥ तत्र वैदेशिकान् सुप्ता - नुवाप्य धनलोजतः ॥ स्वयमप्रेसरः शून्य-चैत्ये पेटा अनीनयत् ॥ ५० ॥ तत्र सुप्तेषु सर्वेषु । सोऽपि सुष्वाप दांत्रिकः ॥ दध्यावत्रांतरे राज - पुत्रोऽस्याहो दुरात्मता ॥ ६० ॥ तन्मयायं न विश्वास्यो । मुक्तस्तरे प || वटकोटरमध्यास्य । तस्थिवान् खमदंडभृत् ॥ ६१ ॥ परित्रापि खन । सर्वान् सुप्तान् निहत्य तान् ॥ उत्तरीयं द्विधा चक्रे | कुमारस्यापि कोपतः ॥ ६२ ॥ स्रस्तरं शून्यमालोक्य । यावत्पश्यतीतस्ततः ॥ तावत्खप्रकरेण श्री - कुमारेण स तर्जितः ॥ ॥ ६३ ॥ क्व यासि रे चिरं कृत्वा । चौर्यमद्य दुराशय ॥ वदन्निति बिशछेदं । तजंघायुग्ममविदत् ॥ ६४ ॥
जगाद चौरः शौर्येण । तवाहं खलु रंजितः । हितोपदेशस्तदयं । महानाग निशम्य - तां ॥ ६५ ॥ चैत्यस्य पृष्टदेशेऽस्ति । न्यग्रोधतरुरुच्चकैः ॥ कोटरे तस्य पाताल - जवनं मम विद्यते ।। ६६ ।। तत्र वीरमतीत्यस्ति । शिलापिहितमाहितः । द्वारमुद्घाटयेः खजः । संकेताॐ च गृह्यतां ॥ ६७ ॥ सा मे कनीयसी जामि-जवंतं परिशेष्यति ॥ दर्शयिष्यति ते कोश
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वृत्ति
।। ५११ ॥
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कालोपसर्वस्वं च नरोत्तम ॥ ३० ॥ गत्वा कुमारस्तत्सर्वै । तथा कृत्वा च तत्कणं ॥ प्रविष्टस्तदेवत
वीर-मती वीक्ष्य विसिस्मये ॥ १५ ॥ तड्पमोहितस्तस्यै । भ्रातृवृत्तांतमब्रवीत् ॥ तदीयं ॥५१॥ खजरत्नं च । सोऽनिज्ञानमथार्पयत् !! ७० ॥ हर्षोत्फुल्ला दधौ सापि । तस्य स्वागतसत्कृति
॥पल्यंके स्थापयित्वा तं । गृहोपरि जगाम सा ॥ १ ॥ दध्यौ कुमारो विहिष्टे । विश्वासो युज्यते न हि ।। त्यक्त्वा पठ्यकमिति स । कोणे कापि तिरोदधे ॥ ७ ॥ यंत्रेण मुक्तया स. द्यः। शिलया तस्य पश्यतः॥ सा चूर्णीकृत्य पढ्यंकं । निःशंकं पुनरागमत् ॥ ३॥ म. चातुर्जीवितं हृत्वा । कस्त्वमद्यापि जीवसि ॥ जल्पंतीमिति तां केशै-धृत्वा बहिरुपानयत् ॥ ॥ ७ ॥ तथैव तहहारं । पिधाय स तया युतः॥ तामेवायोपदीकृत्य । प्रनाते नृपमानमत् ॥ ५ ॥ शौर्य प्रशंसन साश्चर्य । कुमारस्य नरेश्वरः ॥ पोरेन्यो दापयामास । तच्चौरापहृतं धनं ॥ ६ ॥
॥१॥ सहस्रं दंतिनां जात्य-वाजिनामयुतं तथा ॥ रत्नालंकारवस्त्राद्यं । सुवर्ण कोटिसंमितं ॥ ॥७॥ ग्रामलदान्वितं राष्ट्र कोशयानासनैः सह ॥ कन्यां कमलसेनां च । प्रीतस्तस्मै
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वृत्ति
शीलोप ददौ नृपः ॥ ७ ॥ युग्मं ।। पृथक्मासादमध्यास्त । कुमारः सपरिछदः ॥ आराधयन्नुपा-
ध्यायं । मेने जनकवन्नृपं ।। ए ॥ अन्यदा वनिता काचि-छईयित्वा तमन्यधात् ॥ य॥५१॥ त्वया तोषिता श्रेष्टि-पुत्री मदनमंजरी ॥ ७ ॥ सा ते दंतिदमं राज-रंजनं चौरनिग्रहं ।।
हर राजपुत्रीविवाहं च । श्रुत्वानंदितमानसा ॥ १ ॥ मां प्रैषीदिति सोचाय । तत्कंठे हारमया विपत् ॥ कचे च नूनं निर्जाग्या । न स्मृता या पुनस्त्वया ॥ २ ॥ सोऽपि प्राह तया खे
दो। न कर्त्तव्यः कथंचम ॥ यमुक्तं सह नेष्यामि । जायते किं तदन्यथा ॥ ३ ॥ सत्कृत्य तामयो तस्यै । दत्वा रत्नांगुलीयकं । प्रैषीदथान्यदान्येत्य । प्रतिहारो व्यजिज्ञपत् ॥ ४ ॥ राजदौवारिको देव । हारि शंखपुरागतौ ॥ तव क्रमौ दिदृताते । सोऽपि प्रावेशयन्मुदा ॥ ॥ ५ ॥ नपलक्ष्याऽनिलवेग-शुनवेगान्निधौ स तौ ॥ प्रणमंती समालिंग्य । प्रावेशयदयां
तिके ॥ ६ ॥ पित्रोः क्षेमकयां पृष्टः । सुवेगो वेगतोऽवदत् ॥ सर्वत्र कुशलं देव । त्वघियो- * गस्तु उस्सहः ॥ ७ ॥ दृशं सबाष्पां बिभ्राणः। कुमारोऽपि तदाऽवदत् ॥ धिक् शत्रुरूपं
मादृदं । ध्यायति पितरः सुतं ॥ ७॥ यउक्तं
॥१३॥
६५
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पीलोप
वान
॥५५
बब्बूलवत्तुदंत्येके । वप्तारमपि कंटकैः॥ घर्षतोऽप्युपकुवैति । केचिचंदनवत्पुनः ॥ए 4 प्रवासे सहवासेऽपि । दुःखमेव मया कृतं ॥ पित्रोरिति विषीदंतं । सुवेगस्तं पुनर्जगी ॥ए॥
प्रवासोऽपि न खाय । सुतस्य गुणिनः पितुः ।। यत्पुनः सहवासोऽस्य । तहि स्वर्णस्य सौ. रनं ॥ १ ॥ तत्पीय रयात्पित्रोः । स्वगुणैर्दर्शनेन च ॥ चिरं विरहजोत्कंठ-सत्वरः कु. मरोऽप्यथ ॥ ए ॥ तौ सत्कृत्य सहादाय । नवनं नूपतेर्ययौ ॥ सुवेगेन च वृत्तांतं । समग्रं तं न्यवेदयत् ॥ ए३ ॥ राज्ञा भुवनपालेन । स्वदेशगमनाय सः ॥ सुतासंवाहनापूर्व-मनुमेने कथंचन ।। ए ॥ अथोपाध्यायमापृच्य । श्वश्रूविहितमंगलः ॥ प्रतस्थेऽनुगतो राज्ञा। कुमारः सपरिबदः॥ ५॥ प्रवृत्ते कटके गंतुं । व्यावृत्त्य कुमरः स्वयं ॥ रजन्यां स्थापयामास । दृतिकामंदिरे रथं ॥ ए६ ॥ ततः सत्वरमारोप्य । रथे मदनमंजरीं ॥ समगस्त स्वसै| न्यस्य । गबन शून्येन वर्मंना ॥ ए॥ तस्यान्यदा विंध्यवने । तस्थुषः शिबिरांतरे ॥ पपा- त सौप्तिकं पल्ली-पतेर्नीमानिधानतः ॥ ए॥ युद्ध्यमानास्ततो माना-रूढाः कुमरपत्तयः नीता दिशो दिशं तेन । पलाशा श्च वायुना ॥ एए ॥ प्रवृत्तेऽथ कुमारेण । नीमपल्लीप
॥१५॥
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शीलोप
॥ ५१५ ॥
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ते रणे ॥ एहिरेयादिरांचक्रे । जयश्रीरंतरा चिरं ॥ १०० ॥ बलादवती पत्युर्जयं मदनमंजरी ॥ जेजे सारथितां स्फार-शृंगारद्रुममंजरी ॥ १ ॥
समरेऽय कुमारेण | जीमः पंचत्वमापि सः ॥ स्वयं चैकरथेनाथ । प्रस्थितस्तेन वर्त्मनि ॥ २ ॥ संजग्मेऽर्वपथे तस्य । पुरतः पुरुषव्यं ॥ तेनोचे दूरमार्गोऽयं । याति शंखपुरंप्रति ॥ ३ ॥ अयं तु निकटः पंथा । दुर्गमः परमत्र यत् ॥ चौरो दुर्योधनाख्योऽस्ति । हस्ती चैकस्तथा दरिः ॥ ४ ॥ तदपाकर्ण्य सोऽन्यास - वर्त्मनाऽखेटयश्यं ॥ केचित्तस्यैव सार्थेन । | पांथा अपि प्रतस्थिरे ॥ ५ ॥ गततर्वणं राज - सूनोरन्यूनचेतसः ॥ कपालमालालंकारो । दस्तोदस्तकमंडलुः || ६ || रणद्वंटारणोज्जाम - जटाजूट विभूषितः ॥ कापालिकः पुरोनूय । साशीर्वादमदोऽवदत् ॥ ७ ॥ युग्मं ॥ यियासुस्तीर्थयात्राया - महं ते सार्थमर्थये ॥ प्रतस्थे ऽनुरथं सोऽपि । कुमाराऽनुज्ञया ततः ॥ ८ ॥ विधृत्य टंकनकुलीं । तदद्भ्यर्थनया रथे ॥ गतः चिरिग्रामं । कुमारो दिनयौवने || || अथ तत्रैव तिष्ठत्सु । मुनिरूचे नृपात्मजं ॥ धर्मवत्सरेऽमुष्म-न वर्षा इद स्थितः ॥ १० ॥ तदद्य प्रथयिष्यति । मामातिथ्यममी ज
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वृत्ति
॥ ५१५ ॥
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शीलोपनाः ॥ त्वमप्यद्य ससानोंदि विवेकिन्नतिथीनव ॥११॥ न युक्तं मुनिन्नक्तं मे । नोक्तुमित
विवेकिनः ॥ वर्जितोऽप्ययमानैषी-दधिग्धादिकं रयात् ॥ १२ ॥ कुमारवर्ग सर्वेऽपि । भु॥१६॥ त्वा सुप्तास्तरोस्तले ॥ स्वपाथेयं कुमारोऽपि । यावनोक्तुमुपाविशत् ॥ १३ ॥ सोऽहं र्यो
धनो नामा । चौरः किं न त्वया श्रुतः ॥ प्रियां लक्ष्मीमिवादाय । करे यासि ममाग्रतः।। * ॥१४॥ विषेण मारिताः पांथाः । खगेन त्वां त्विति ब्रुवन् ॥ दधावे खजमाकृष्य । पाखं
मी कुमरंप्रति ॥ १५ ॥ विशेषकं ॥ विस्मितो नूपजातोऽपि । पक्वकर्कटिकामिव ॥ विधा J व्यधित तवीर्ष । मंडलाग्रेण लीलया ॥ १६ ॥ कुमारो नीरमानीय । ददौ तस्मै पिपासिने
॥चौरोऽपि रंजितस्तस्य । गुणैरिदमवोचत ।॥ १७ ॥ म गिरेरस्य निकुंजांत-र्विवरे मेऽस्ति मंदिरं ॥ तत्रैव कोशसर्वस्वं । सुंदरी नाम च प्रिया
॥ १७ ॥ विक्रमैकधनादत्स्व । तत्सर्वं मदनुज्ञयाः ॥ गत्वा तत्र कुमारोऽपि । तत्पत्न्यै तन्न्य- ॥५१६ ।। वेदयत् ॥ १५ ॥ स तां रतिमिवालोक्य। कंदर्पमिव सापि तं ॥नेजेऽनुरागितां कामः । किमौचित्यं विचारयेत् ॥ २०॥ तौ तथालोक्य सक्रोधं । तदा मदनमंजरी ॥ धारयामास म
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शीलोप
॥ १७ ॥
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र्यादा - पथोधिमिवामराः ॥ २१ ॥ स्त्रियं श्रियं च तां चौर-सत्कां त्यक्त्वा च भूपभूः ॥ चचाल रथमारुह्य | पुरो वीरधुरंधरः ॥ २२ ॥ व्रजन्नतर्वणं नूयः । पुरः क्रूरांतकाकृतिं ॥ वायं दंतिनं वीक्ष्य | वश्ययामास हेलया || २३ || पुनः केसरिणं वीक्ष्य | पुरो दंष्ट्रा बिजीषएां ॥ वस्त्रावृतं भुजादंडं । मुखे क्षिप्त्वाऽनयत्कयं ॥ २४ ॥ तोर्णः क्रमेणाऽरण्यानीं । स ज्ञानीव वदधिं ॥ पुरश्व सैन्यमशकी - मोहसौख्यमिवाऽमदः ॥ २५ ॥ तन्मुख्यानथ पप्रच्छ । पुरावृत्तांतमादितः ॥ तेऽप्याख्यन् श्रूयतां देव | सौप्तिके पतिते तदा ॥ २६ ॥ शठेन केनाप्यश्रावि । यत्कुमारः पुरोऽगमत् ॥ सेनां कमलसेनां च । संवाह्य शक् ततो वयं ॥ २७ ॥ निर्गता बाह्यमार्गे । भुवमेतावतीमिताः ॥ युष्मानदृष्ट्वा चालोच्य । स्थितमत्रैव सत्रपैः ॥ ॥ २८ ॥ ततः कुमारः सैन्येना - ऽनुयातो निर्विलंबितः ॥ प्राप्तः शंखपुरं सा । पितृमातृमनोरथैः || २७ ॥ प्रत्युङ्गतो नृपादेशा-न्मंत्रिसामंत पुंगवैः ॥ प्रविवेश पुरं पौर- क्लृप्त मंगलमालिकं ॥ ३० ॥ लुलोठोत्कंग्या सद्यः । कुमारः पितृपादयोः ॥ राजापि सस्वजे स्नेहा - स रोमांचं निजांगजं ॥ ३१ ॥ राजादेशादथो मातुः । पादवंदनमादधौ ॥ स्नपयंतीव सा बा
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वृति
॥ ५१७ ।
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डीलोप
॥५१॥
पैः। पुत्रांग पाणिनास्पृशत् ॥ ३२ ॥ ययौचित्येन संन्नाव्य । पौरामात्यादिकांस्ततः॥
तावात निर्देशतः प्राप । कुमारोऽय निजं गृहं ॥ ३३ ॥ पुण्येऽह्नि नूपतिः सूनौ । यौवराज्यश्रियं । न्यधात् ॥ बंधुवत्प्रीणयामास । प्रकृतीश्च निजैर्गुणैः ॥ ३४ ॥ कुमारो वचनां ज्येष्टां । प्रेम्णा मदनमंजरीं ॥ मेने कमलसेनां तु । कृतज्ञात्मा लघीयसीं ॥ ३५ ॥ सर्वकर्मसु मेने स । ज्येष्टामेव प्रियां धुरि ॥ तथापि कुख्या सा लध्वी । रुरोष न मनागपि ॥ ३ ॥ - प्रवृत्तेऽथ वसंततौ । कोकिलालापमंजुले॥ गतोऽनिरामामाराम-नूमि राजा सवल्लनः ॥३७॥ कुमारोऽगमदत्तोऽपि । व्यापिकंदर्पदर्पन्नत् ।। साई मदनमंजर्या । मंजर्या कृतशेखरः ॥ ३०॥ जाताऽविगीतसंगीत-मईलध्वनिबंधुरं ॥ प्रापऽद्यानमानंद-मयः स रथवाहनः ॥ ३ए । युग्मं ॥ दिनं समय निर्माय । वनक्रीकामसौ सुधीः ॥ श्रांतो जायायुतोऽशेत । रथ एव महारथः ॥ ४० ॥ निशवशात्प्रियाबाहुं । लंबमानं राबहिः॥ दष्टवान् भुजगो दै. ॥१॥ वा-तस्याः कर्मेव मूर्तिमत् ॥ १॥ विनिश्या तया दष्टा-दष्टेति गदिते सति ॥ रथोनीर्णः कुमारोऽश्र | दंदशूकमलोकयत् ॥ ४५ ॥ विषेण तस्यां मू.त्या-ममूर्वन्नृपनूरपि ॥ कुमार
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शीलोप
वृत्ति
॥५१॥
स्वाप चैतन्यं । वनवातैर्न चाऽपरा ॥३॥ कुर्वते मांत्रिका याव-न्मंत्रतंत्रौषधादिकं॥ वि- पोर्मिलुप्तचैतन्या । तावनिश्चेष्टतामगात् ॥४॥ ततः कृत्वा कुमारोंके । विलप्य करुणं चिरं ॥ चितामारचयामास । प्रवेष्टुं प्रियया सह ॥ ४५ ॥ इतश्च खेचरः कश्चि-तनिष्कारणबांधवः॥ तीर्थयात्रां व्रजन श्रुत्वा । तत्कोलाहलमागतः ॥ ६ ॥ कुमारान्यर्थितो विद्यां । स्मृ. त्वा विद्याधरस्ततः ॥ श्राडोट्य सलिलैरस्या। विषवेगमपाहरत् ॥ ७ ॥ योगीव शक्तिमुन्मील-नयनामाप्य स प्रियां ॥ आनंदादैतपीयूष-हृदमन श्वाऽनवत् ॥ ॥ .
तस्मिन् घन श्वाऽकस्मा-उपकृत्य यथागतं ॥ गते कुमारस्तां निन्ये । कामायतनमंडपं॥४ए ॥ नक्तायां शीतबाधायां । तया पल्या वनांतरं ॥ गत्वाऽरणिं च निर्मथ्य । स्वयमनिमुपाहरत् ॥ ५० ॥ दीपोद्योतमिवाऽकस्माद् । दृष्ट्वा शक् च निमीलितं ॥ दूरादायतने तस्मिन् । विस्मितः कुमरस्ततः ॥५१॥ स पप्रन प्रियां स्वबो । दीपोद्योतस्य कारणं ॥ सा प्राह वह्निस्त्वत्पाणि-स्थितः कुड्येऽनुबिंबितः ॥ ५५ ॥ ततस्तस्याः करे खऊं । वितीर्य शुचिमानसः ।। अस्याः शीतापनोदाय । कृशानुमुददीपयत् ॥ ५३॥ तस्मिन्नधोमुखे वहिं । फूत्कु
॥१ए।
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शीलोप
॥५०॥
णेऽसिवल्लरी ॥ द्योतमाना विद्युदिव । ध्वनंती पतिता कितौ ।। ५४ ॥ अथ सशंकमुत्था- वृत्ति य। किमेतदिति नूपजे ॥ ब्रुवाणे सा पुनः प्राह । शीतकंप्रात्करान्मम ॥ ५५ ॥ निर्गत्य कोशतः खः । पपात सरणत्कृतिः ॥ निःशंकः स ततस्तस्याः । शीतं जहे कृशानुना ॥ ॥५६॥ ततः परिवदेनासौ । प्रातराजग्मुषा युतः ॥ साई मदनमंजर्या । स्वकीयं गृहमासदत् ।। ५७ ॥ त्रिवर्ग साधयामास । यथायोग्यं वशेश्यिः ॥ न्यायधौं विशेषेण । पोषयामास च क्रमात् ॥ ५ ॥ मध्येसनमथान्येद्यु-युवराजस्य तस्थुषः ॥ दर्शयामासिवान कर श्चि-दाश्चीयं वाजिवाणिजः ॥ ५ए ॥ तत्रातिविस्तृतं वक्षः-पृष्टे निर्मीसितं मुखे ॥ लघु कणे स्फिजिस्थूलं । संयुक्तं दर्शिनिवुवैः ॥ ६ ॥ मध्ये कामं पृथु पृष्टे । प्रचलाप्रपदं रयात् || कुमारोऽथ समारोह-तुंगमेकं तुरंगमं ॥ ६१ ॥ युग्मं ॥ प्लवमानं निरंधान-स्तंसवल्गामाकर्षयन् ॥ प्रपेदे पंचमी धारां । स्पाईयेव ततो हयः॥६॥ संभ्रांतैरपरैश्चाश्व-वारैरुत्तेजि- ॥५ ता हयाः॥ कोचविलिरे श्रांताः । केचिच्चानुप्रतस्थिरे ॥६३ ॥ कुशिष्य श्व कोपानों । गुनश्वः स शूकलः ॥ कुमारं प्रापयामास । निर्जनामटवीं कणात् ॥ ६ ॥ यावदेषोऽमुचछ
॥
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वत्ति
शीलोपरगां । श्रमानों दिनयौवने ॥ तावदश्योऽपतमौ । धनाप्तौ प्रतिनरिव ॥ ३५ ॥ प्रविशन व
नमशही-चैत्यं नानिजिनेशितुः॥ पुरःस्थदीपिकानीर-कृतस्त्रानो विवेश सः ॥ ६ ॥ स.. ॥५१॥ द्यःफलं जिनं नत्वा । जगत्यां पुनरागतः ॥ कुर्वाणं देशनां जैनं । मुनिमेकमलोकत ॥६॥
प्रदक्षिणाय्य नत्वा च । पुरस्तस्योपविष्टवान् ॥ व्रतायोत्कंठितान् पंच । पुरुषान् वीक्ष्य पृष्टवान् ॥ ६॥ स्वामिन् क एते प्रत्यग्र-वयसश्चरणार्थिनः ।। योजितांजलयः पंच । किं वा वैराग्यकारणं ॥ ६ए ॥ मुनिराख्यत तत्र । शृणु विध्याटवीस्थितिः ॥ पल्लीशो नीमनामाऽनू-तस्यामी पंच बांधवाः ॥ ७० ॥ तत्र राजसुतः कोऽपि । स्कंधावारं न्यवेशयत् ॥त. सैन्ये सौप्तिकं पल्ली-पतिश्च प्रददौ ततः ॥ १॥ किंचियाकुलतां नीते। कुमारे तस्य वखन्ना ॥ बनूव सारथिः क्लृप्त-शृंगारा स्पंदने स्वयं ॥ ७ ॥ ततस्तहिनमत्रांतं । हत्वा प. लीपतिं तं ॥ स प्रतस्थे पुरस्तस्य । भ्रातरोऽमी च सोदराः ॥ ७३ ।। तदैव संगताः स्वी- य-ग्रामतोऽमर्षतोऽथ ते ॥ वैरनिर्यातनां कर्तु-कामास्तमनु निर्गताः ॥ ७ ॥ तस्मिन्नानवस्तेऽपि । प्रदर्जुमथ कानने ॥ दृष्ट्वा प्रियासखं तस्थु-इवन्नं देवकुलांतरे ॥ ५ ॥ अथ व.
॥५१॥
५५
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शीलोप
॥ ५२२ ॥
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नया सर्प-दष्टया सह नूपजे ॥ वह्नौ प्रवेष्टुकामे तां । जीवयामास खेचरः ॥ ७६ ॥ - कायामथ शीतात । तया नृपसुतः स्वयं । जगाम वह्निमाहर्तुं । चौराश्चैत्यांतरेऽथ ते ॥ ॥ ७७ ॥ पुरातं दीपमुद्धाव्य । कुमारशयनास्पदं ॥ यावत्पश्यंति तावत्त-त्पत्न्या हग्गोचरं गतः ॥ ७८ ॥ लघीयान् सोदरोऽमीषां । सोऽपि तां वीक्ष्य सस्पृदं ॥ मिथेोऽनुरागितां ज । क्व त्रपा कामिनां यतः ॥ ७९ ॥ स्वयमन्यर्थयंतीं तां । कामुकीं प्राद तस्करः ॥ पत्यौ जीवति को नाम । त्वामादातुं प्रभुः शुभे ॥ ८० ॥
साऽप्याह तर्हि त्वैनं । त्वां निःशल्यं करोम्यहं । वदंत्यामिति तस्यां तत्पतिरागाकृशानुयुक् ॥ ८१ ॥ विधाय दीपकं तेऽपि । परतोऽपसृता मनाक् । नद्योतदेतौ पृष्टे च । प्रतिबिंबितमाह सा ॥ ८२ ॥ दत्वा कृपाणं तत्पाणौ । यावद्धमति पावकं । तत्पतिस्तावदेषापि । प्रहर्त्तुं तमसज्जयत् ॥ ८३ ॥ इतश्च दध्यौ चौरोऽपि । धिगस्या दुष्टचित्ततां ॥ यन्मयि करागेण | स्वपतिं दंतुमिति ॥ ४ ॥ येनैतस्याः कृते साईं । मृत्युर्दासत्वमीदृशं ॥ - गीकृतं न तस्याऽनू - मयि स्थैर्यवती कथं ॥ ८५ ॥ श्रमुं च नररत्नं हा । सत्त्वशीर्यसेव
1
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वृत्ति
॥५१॥
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वृत्ति
शीलोप किं । विनाश्य कतमां पुष्ट-गतिं यास्याम्यहं मुधा ॥ ६ ॥ विमृश्येति मटित्येत्य । स पु-
1. मांस्तत्कराग्रतः ॥ कृपाणं स्खलयामास । स्निग्धबंधुरिवापदं ॥ ७ ॥ श्रुत्वेत्यचिंतयचित्ते । ॥५॥ कुमारो घिगहो स्त्रियः॥ धिक साहसं च मे येन । सैव चाग्रेसरी कृता ॥ 1 ॥ जातिमा
लां तिरस्कृत्य । धत्तूरं रजसाद्दधे । मोहामप्रियां त्यक्त्वा । मया मेने यदित्वरी ॥ र मुनिरूचे ततः श्रुत्वा । कुमारः खमात्कृति ॥ किमेतदिति पाच । साऽप्यूचे शीतकंपतः
॥ ए० ॥ वैराग्यानेऽत्र पंचापि । पल्लोपतिसहोदराः ॥ भ्रातृवैरगृहणेवां । विहाय हितकांक्षया ॥ १ ॥ दध्युर्यासां कृते प्राणां-स्तृणीकृत्यापि मानवः ॥ सुखं बुभुक्षते तासां । स्त्रीणां चेष्टितमोदृशं ॥ ए ॥ इत्यादिनवनिर्वेदा-द्रजंतः स्वजिघांसया ॥ मद्देशनामथाकी । घ.
न्या वाढत्यमी व्रतं ॥ ए ॥ इत्याकर्य कुमारोऽपि । प्राह सर्वोऽप्ययं प्रनो ॥ पोक्तो मदी. र यो वृत्तांतो । यत्सोऽहं सा च मे प्रिया ॥ ए५ ॥ जाता विरोधिनेन । ममामी बांधवा ध्रुवं
॥ बाह्यांतरंगाः प्राणा यै-रिहामुत्र च रक्षिताः ॥ ए६ ॥ धन्या सेयमरण्यानी । यत्र देवो जिनेश्वरः ॥ तत्वज्ञानं सशुरुश्च । प्राप्तं रत्नत्रयं मया ॥ ए७ ॥ संसारस्तदयं धिक् धिक् । स.
॥५३॥
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झीलोप
। ॥५ ॥
थाऽनर्थसागरः ॥ चरणौ चारणर्षे ते । शरणं चरणेन मे ॥ ७ ॥ ततः सर्वैर्युतो गेदं । ॥ वत्ति गतः पित्रोरनुज्ञया ॥ कुमारो जगृहे दीक्षां । साई कमलसेनया ॥ एए ॥ जायाविरामेण स वईमान-शुहिं समाराध्य चिरं चरित्रं ॥ निर्मूल्य कर्माएयगडाच्च दत्तो । मोक्षस्य सौख्यानि समाससाद ॥ २० ॥ ॥ इति श्रीरुपल्लीयगछे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां अगमदत्तमुनिकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ।। नारीविश्वस्तस्य दुर्दशाप्राप्तिमाह
॥ मूलम् ॥-मुहमहुरासु निग्घिण-मणासु नारीसु मुइ वीसासं ॥ जंतो लदसि अ. वस्तं पएसिरानव विसमदसं ॥ ७ ॥ व्याख्या हे मुग्ध! मुखमधुरासु आपातरमणीयासु च निघृणमनस्सु निःशूकहृदयाषु एवंविधासु नारीषु यदि त्वं विश्वासं सनसे तदा प्रदे ॥५ शिराज श्वाऽवश्यं विषमदशां लप्स्यसे, इति गाथार्थः, नावार्थाय च कथानकमुच्यते, तश्रा
नगर्यामलकल्पास्ति । यत्र कल्पमहीरुहः ॥ अनेकतामिवापन्ना । लक्ष्यते धनदंन्नतः
॥
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झीलोप ॥१॥ तस्यां समवसृत्यंतः । श्रीमतीरं जिनेश्वरं ॥ दिविषदो दिवोऽन्येत्य । श्रीसूर्यानो व्य- वत्ति
जिज्ञपत् ॥ २॥ नतिव्यक्तिरसादद्य । स्वामिन्नाव्यविधि नवं ॥ गौतमादिमहर्षीणां । दर्शना-1 ॥५५॥ यान्ववेहि मां ॥३॥ तेन विरिति विज्ञप्तः। स्वामी मौनावलंबनः ॥ अनिषेधन्ननुमति-प
रोऽबोधि सुरेण तत् ॥॥ ऐशानी दिशमाश्रित्य । देवो निजभुजघ्यात् ॥ विकृत्याष्टशतं देवान् । देवीश्चाऽकृत नाटकं ॥ ५॥. स धात्रिंशधिं नाट्यं । दर्शयित्वा महर्डिकः ॥ विद्युइंडमिवोत्प्लुत्य । सूर्यानः स्वर्ययौ पुनः ॥६॥ अथान्यलोकबोधित्सु-ऊरं पप्रल गौतमः ॥ कोऽयं देवः कुतो बोधि-रस्य श्रीरियती कथं ॥ ७ ॥ प्राह श्रीमान महावीरः । श्रूयतां वत्स गौतम ॥ केत्रेऽत्रैव पुरी नाना । श्वेतांबी वीतर्दशा ॥ ७ ॥ तां शास्ति नास्तिकः कामं । प्रदेशीनामनूपतिः ॥ स्फुलिंग इव यत्कोप-वढे ति दिवाकरः ॥ ए ॥ सूर्यकांतास्ति।
तनार्या । सूर्यकालश्च नंदनः ॥ जिनधर्मरतश्चित्र-नामाऽस्य सचिवोत्तमः ॥१०॥ सोऽन्यदा ॥५२५॥ * राजकार्येऽगा-जितशतुनृपांतिके ॥ श्रावस्त्यां प्राणमत्तत्र । केशिनं गणधारिणं ॥११॥ स च
तु निनस्तस्मा-प्रतिपद्य गृहिवतं ॥ श्वेतांब्यां च विहाराय । तमन्यर्थ्य गृहं ययौ ॥१॥
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शीलोप
॥ ५२६ ॥
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विहरतोऽथ पीठं । श्रीमंतः केशिसूरयः ॥ श्रारामे श्वेतांबी पुर्या । गत्वा च क्रमतः स्थिताः ॥ १३ ॥ नद्यानपालकेभ्योऽथ । स विज्ञाय तदागमं ॥ मुदितो मनसा नत्वा । तं तत्रैवेत्यचिंतयत् ॥ १४ ॥ सचिवे मय्यपि स्वामी । चेदसौ नरकंगमी || अनृणश्च तदा तस्याहं कथं स्यां कुपुत्रवत् ॥ १५ ॥ तदुपायात्कुतोऽप्यस्य । श्रावयामि गुरोर्गिरः ॥ प्रकटे सेवधौ साध्यं | जाग्यमेव शरीरिणां ॥ १६ ॥ वादवादनदंज्ञेन । मतिमांश्चित्रमंत्रिराट् ॥ प्रदेशिनं प्रदेश तं । निन्ये न्यायं गुणा इव ॥ १७ ॥ श्रांतः श्रितस्तरोश्यायां । श्रुत्वा तद्देशनागिरं ॥ उदेगं परमं प्राप । वीणानादमिवामयी ॥ १७ ॥ मुखमर्कटिकां कुर्वन् । बजाये चित्रमंत्रिणं ॥ किमसौ नीरसो दूरं । रारटीति व्यथार्त्तवत् ॥ १९५ ॥ किमस्ति निगदन्नेवं । गत्वा निश्चीयति ॥ तेनेति निकटं नीतः । स शुश्रावेति देशनां ॥ २० ॥ मूढास्तत्वमजानाना । नानायुक्त्यर्थपेशलं || सहासनया जन्म । हारयंते मुधा ददा ॥ २१ ॥ नरकातिथितां यांति । वृथा जीवाः कदाग्रहात् ॥ न पुनस्तत्वमादृत्य । श्रयंत्यूर्ध्वगतिं शुजां ॥ २२ ॥ प्रमाणमप्रमाणं वा । निषेधं वान्यवस्तुनः ॥ केवलाऽध्यक्षजल्पाको । नैव वक्तुमपि क्षमः ॥ २३ ॥ यो
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वृत्ति
॥ ५२६ ॥
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झीलोप
॥५॥
गिप्रत्यक्षतस्तस्मा-दवाऽप्यनुमानतः ॥ प्रात्मानुमेयः स्वात्मान्य-कर्मलोकादिसाधकः ॥ ॥ २३ ॥ श्वाषप्रयत्नाद्या । अपि दृष्टेरगोचराः॥ चैतन्यं नातिवर्त्तते । यत्र निर्मुक्तगोलवत् ॥॥ जीवेषु ज्ञानविज्ञान-तारतम्यं यदीप्सितं ॥ तत्रादृष्ट्वा विनानाव-श्चित्ते कस्य न व.
ते ॥ ३५ ॥ फलादौ चक्षुषा दृष्टे । दशनोदकसंप्लवः ॥ रसस्मृतिनवोऽकस्मा-जायते हर्ष। पूरतः ॥ २६ ॥ तदिशियातिरिक्तोऽस्ति | कश्चिदव्यक्तदर्शनः । रूपं दृष्ट्वानुरूपस्य । रसस्य स्मरतीह यः॥२७॥ बालवृक्षाद्यवस्थासु । परिणामस्य नेदतः ॥ स्मृतेरयोगस्तत्कश्चि-गुप्तः कर्त्तानुमीयतां ॥ २५ ॥ कुड्यवत्वतननांग-रोहवृद्ध्यादिकर्मणां ॥ प्रयत्नवधिातृत्वा-लिंग्यं । लिंगमिवात्मनः ॥ ३० ॥ दृष्टे पदार्थे चक्षुन्यों । परागादिविक्रियाः ॥ जन्याः स्वजनकं कंचि-ददृष्टं ब्रुवते स्फुटं ॥ ३१ ॥ रूपादिवङ्गुणत्वेन । सुखादीनामपि ध्रुवं । गुणी कश्चिदथेष्टव्यः । स चात्मा दृगगोचरः॥३॥
॥ * अहमस्मि सुखी कुखी-त्यादिसंवेदनाध्वना ॥ प्रत्यकेऽप्यात्मनि मुधा । व्यामोहस्त्ज्यतामयं
॥३३॥ चंदमूर्योपरागादे-रविसंवादयुक्तितः ॥ सर्वज्ञः प्रणिधातव्यो-नुमेयत्वेन वह्निवत् ॥
॥
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शीलोप० १
॥ ५२८ ॥
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॥ ३४ ॥ सूक्ष्मांतरितज्ज्ञावानां । ज्ञातृत्वाद्यनुमानतः ॥ सर्वज्ञो ध्रुवमेष्टव्यः । कुड्यांतरितवस्तुवत् ॥ ३५ ॥ प्राप्तवाक्यानुमानाभ्यां । सर्वज्ञं प्रतिपद्य तत् ॥ सम्यग्मार्गस्तदादिष्टः । श्र यणीयः शिश्रिये ॥ ३६ ॥ इत्यादि तराि तत्व-गर्भया शिथिलाग्रहः ॥ संदेदांदोलितो राजा । रयादाजग्मिवान् सनां ॥ ३७ ॥ सूरेः स्निग्धदृशा कीर - धारयेव रयादसौ ॥ प्रालि - तमलो नूपो । मधुरामशृणोरिं ॥ ३८ ॥ जवन्मतेन जगवन् । मत्पिता नरकं गतः ॥ मा ताच मर्मज्ञा । नूनं दिवमुपेयुषी ॥ ३७ ॥ न तथा कस्यचित्कोऽपि । यथाहं वल्लनस्तयोः ॥ तत्किं तावेत्य युक्तार्थ । न निवेदयतो मम ॥ ४० ॥ गुरुराचष्ट नरका - प्राणी प
शः कथं ॥ पशुवत्कर्मनिर्ब्रः । स्वैर मागंतुमर्हति || ४१ || देवाश्व विषयासक्ताः । संक्रांप्रीतयो दिवि ॥ नराऽनधी नकर्त्तव्याः । कथमायांतु नूतलं ॥ ४२ ॥ योजनानां शतान्यस्या । भूमेश्चत्वारि पंच च ॥ ऊर्ध्वं गछति दुर्गंधो। नाडायांति तदिदाऽमराः || ४३ ॥ श्रईतां पंचकल्याण - महेषु तपसा तथा ॥ मर्त्यलोके समायांति | देवा न पुनरन्यथा ॥ ४५ ॥ भूयो भूपतिरप्राकी - दस्युरेको मया प्रत्तो ॥ क्षिप्त्वा कुंभ्यंतरे द्वारं । नीरंध्य स्थापितः स्वयं ॥४५॥
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वृत्ति
॥ ५१ ॥
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शीलोप म्याकुलतनुः काले । स दृष्टो नष्टचेष्टितः॥ न जीवनिर्गमाध्वातु । प्रवेशाध्यान्यदेहिनां ॥ वत्ति
॥ ६ ॥ पुनश्च चूर्णवत्तस्मिन् । पिष्टवापि प्रविलोकिते ॥ न जीवः सर्वथा दृष्टो । यदिवा नो-4 एश्या पलक्षितः ॥ ७ ॥ तोलयित्वान्यदा चौरः । श्वासं रुध्ध्वा विनाशितः ॥ न जीवाऽजीवयोई.
टो । विशेषस्तुलिते पुनः॥ ४ ॥ गुरुराख्यदयस्कुंच्यां । नीरंध्रायां स्थितो नरः ॥शंख धमति तब्दो । बहिराकर्ण्यते कथं ॥ भए ॥ ध्वनेः पौगलिकत्वेन । सूक्ष्मास्तत्पुमला बहिः ॥ नित्वा कुंनी विनिष्क्रांता । निर्गमाध्वा च नेक्ष्यते ॥ ५० ॥
तथैवाऽमूर्ती जीवोऽपि । कुंजीतो निर्गतो बहिः ॥ शब्दपुजलवकिंतु । सूक्ष्मत्वेन न - लक्ष्यते ॥५१॥ वहिन वीक्ष्यते यह-निनेऽप्यरणिदारुणि || समस्त्येव तथा जीवः । प्राणिपिंडे प्रपद्यतां ॥ ५५ ॥ हतावपूर्णे पूर्णे च । पवनेन यथा तुला ॥ न निद्यते तथा नूप । कि
मु जीवेऽपि नेष्यते ॥ ५३ ॥ मूर्तानामपि सूक्ष्माणां । नावानामीदृशी गतिः ॥ स्वन्नावान- श्णा * दमूर्नस्य । किमु वक्तव्यमात्मनः ॥ ५५ ॥ आत्मानं चिन्मयं सूक्ष्मं । कर्मबई महाबलं ॥
ज्ञात्वा कुरु महाराज । मतिं श्रीजैनशासने ॥ ५५ ॥ ततो नास्तिकतां त्यक्त्वा । पारंपर्या
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वत्ति
लोप गतामपि ॥ परीक्ष्य हेमवज्जैनं । श्रेयले मतमाश्रय ॥ ५६ ॥ सोऽपि विशणमिथ्यात्व-मु-
शे निस्तंश्वोधिन्नाक् ॥ हादशात्मतया सूर्य । इव धर्ममवाप्तवान् ॥ ५॥ पालयनिर्मलं ॥३०॥ श्राइ-धर्म स वसुधाधवः ॥ बाह्याभ्यंतरंगेष्वाप । विषयेषु विरागतां ॥ ५७ ॥ तन्नार्या सूर्य
म कांताख्या । रागिणी पुरुषांतरे । तस्मै ददौ विरक्ताय । विषं पौषधपारणे ॥ एए ॥ ज्ञात्वा
पि तत्कृतं तत्रा-विष्टचित्ततया नृपः ॥ परमेष्टिनमस्कार-स्मरणप्रवणाशयः ॥ ६ ॥ स्वचिने धृतिमाधाय । स्वयमात्तमहाव्रतः ॥ मृत्वा विमाने सूर्याने । सौधर्मे त्रिदशोऽनवत् ॥
॥ ३१ ॥ स एष मत्वाऽवधिना स्वबोधि । सूर्यान्ननामा भुवमन्युपेतः ॥ भुक्त्वा ततः पल्य. ॐ चतुष्कमायु-च्युतो विदेदेषु शिवं समेता ॥३॥ ॥इति श्रीरुपक्षीयगछे श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां प्रदेशिनृपकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु । नारीणामविश्वसनीयतामाह॥ मूलम् ।।-अणुकूलसपिम्माणवि । रमणीणं मा करिज वीसासं ॥ जह रामलक
॥५३०॥
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वृत्ति
झीलोप मणेहिं । सुप्पणहाए महारमे ॥ ए ॥ व्याख्या-अनुकूलप्रेम्णामपि हिताचरणाऽरीणस्ने-
3- हयुक्तानामपि रमणीनां स्त्रीणां विश्वास मा कुर्याः ? यदुक्तं-न नारीषु न मूर्खेषु । न वि. ॥५३१॥ राक्षेषु शत्रुषु । न चाऽविज्ञातशीलेषु । विश्वसंति मनीषिणः ॥ १॥ अनुकूलाश्च ताः सप्रे
माणश्चेति समासः, दृष्टांतमाह-यथा महारण्ये दंडकारण्ये रामलक्ष्मणान्यां सूर्पणखाया पर रावणन्नगिन्या विश्वासो न कृतः, कामयमानापि सा परिहतेत्यर्थः, तथाहि-सुर्पणखा सौ.
मित्रिविनाशितशंबूकाख्यपुत्रशोका; भ्रमंती पंचवटीवने तस्थिवांसौ रामलक्ष्मणौ दृष्ट्वा रूपसौन्नाग्यव्यामूढा विस्मृतपुत्रवधकष्टा कामुकी तावेव कामयतेस्म. मम जायास्तीति रामेण निराकृता सौमित्रिमनुससार. पूर्व रामंप्रति अन्निसृतत्वान्मम प्रजावती त्वमिति तेनापि विकिनाऽमुनोपायेन परिहतेति. विस्तरस्तु पुरोवदयमाणसीताचरित्राद् ज्ञेयः, इति गाथार्थः ॥ ए ॥ पूर्वोक्तमेव विशेषयन्नाह
॥ मूलम् ॥-पररमणिपणान । दरिकन्नानवि मुनमा मूढ ॥ पमसि अगले किं किल । दरिकनं रस्कसीहि समं । ए ॥ व्याख्या हे मूढ पररमणीप्रार्थनायां दाक्षिण्यादपि
॥३१॥
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शीलोप मा मुह्य ? परस्त्रियां दाक्षिण्येनापि मा रमस्व ? ननु दाक्षिण्याऽनंगीकारे पुरुषगुणहानिरि- वृत्ति
. त्याह-अनर्थे पतिष्यसि, राक्षसीनिः किं किल दाक्षिण्यं? स्त्रीणां च राक्षसीत्वं प्रसिइमेव." ॥३॥ यमुक्तं-दर्शने हरते प्राणान् । स्पर्शने हरते बलं ।। मैथुने हरते कायं । स्त्री हि प्रत्यक्षराम सी ॥१॥ इत्यर्थः ॥ ॥ अथ परस्त्रीसंगेऽपि सुनगंमन्यानियित्राह
॥मूलम् ॥-पररमणीरंगान । सोहग्गं मा गणेसु निप्रग्ग ॥ ज सिविदूरंगं । कारश्ता मुणसु सोहग्गं ॥ १ ॥ व्याख्या हे निर्लाग्य दुर्दैवत! पररमणीरंगात्सौन्नाग्यं रूपादिग मा मन्यस्व ? तर्हि कयं गर्व नचित इत्याह-पदि सिविध्ध्वा मोक्षलक्ष्म्या रंग क. रोषि तदा सौन्नाग्यं मन्यस्व ? यउक्तं-रज्यते मुक्तिकांतायां । या विरागिणि रागिणी॥को. ऽन्यस्त्रियां हि रज्येत । या रागिणि विरागिणी ॥१॥ इति नावः ॥ १ ॥ संसारान्जिलाषिणां मोदलानर्लनतामाह
॥ मूलम् ॥-बहुमहिलासु पसत्तं । सिवलबी कह तुमं समीदे ॥ अरावि पोढम-E पहिला । अन्नासत्तं न ईहे ॥ ए३ ॥ व्याख्या-बहुमहिलासु अनेकस्त्रीषु प्रसक्तं त्वां शिव
॥५३॥
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वृत्ति
शीलोप लक्ष्मीर्मोकश्रीः कथं समीदते ? नानिलपतीत्यर्थः, अपित्त्या दृढयन्नाह-इतरापि प्रौढम-
हिला अन्यासक्तं नेहते न कांदति, यदुक्तं-अन्याऽन्यरमणीरत-चक्रवर्त्यपि मा वरः॥ पर॥५३॥ स्त्रीसंगविरतो । हालिकोऽपि वरं वरः ॥ १ ॥ निर्मलशीलपालनेनैव मौकः पाप्यत इति ना
वः ॥ ए ॥ तदेवोपदिशन्नाद
॥ मूलम् ॥-सायससुइसिरिरम्मं । अविहडपिम्मं समिसिविहुं ॥ जर ईहसि ता. परिहर । अरान तुबमहिला ॥ ए३ ॥ व्याख्या-शाश्वतसुखश्रीरम्यामविघटप्रेमाणं समृहिसिविधूं यदीहसे यदि वांगसि, तदितरास्तुबमहिलाः सांसारिकस्त्रियः परिहर ? शीलमेव पालयेत्यर्थः॥ ए३ ॥ कामा नां सुखविपर्ययमेवाह
॥ मूलम् ||-रम्मान रमणी । दहुं विविहान कामतविअस्स | कल सुहं तुद होपर ही । जणिमिणं आगमेवि जन ॥ ए३ ॥ व्याख्या-विविधा अनेकप्रकारा रम्या मनोज्ञा में रमणीः स्त्रीदृष्ट्वा कामतप्तस्य रे जीव तव कुत्र व सुखं नविष्यति ? संताप एव नवता प्रा
प्य इत्यर्थः, आगमे सिझतेऽपि यत इदं नणितमिति नावार्थः ॥ ए३ ॥ तदेवाह
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शीलोपा
वत्ति
॥५३
॥ मूलम् ॥-जइ तं काहिसि नावं । जाजा दिछसि नारी ॥ वायाश्धुयहोव |
अ ठिअप्पा नविस्तति ॥ ए ॥ व्याख्या-यदि त्वं या या नारीरीकसे, तासु तासु नावं चित्तविकारं करिष्यसि, यत्नदोनित्यसंबंध इति. तदा वातो तो हगे वृक्ष वाऽस्थितात्मा काप्यप्राप्तस्थैर्यो नविष्यसीति नावः ॥ ४ ॥ स्त्रीशरी रेऽपि वैराग्यहेतुतां दर्शयत्राह
॥मूलम् ॥ रमणीणं रमणीयं । देहावयवाण जं सिरिं सरसि ॥ जुबणविरामवेरग्ग-दाशणं तं चिय सरेसु ॥ ए५ ॥ व्याख्या-रमणीनां देहावयवानां स्त्रीणामंगोपांगानां रमणीयां रम्यां यां श्रियं स्मरसि, तामेव श्रियं यौवनविरामे वैराग्यदायिनी स्मर? यौवनस्य विरामो वाक्य, तत्र विरक्ततोत्पादयित्रीं चिंतय ? वृद्धत्वे हि शीर्णपणी लतामिव श्ल. यांगी नारी विलोक्य सर्वः कोऽपि विरज्यते; अतस्तां दशां यौवनेऽपि स्मृत्वा शीलमेव पालयेति गाथार्थः ॥ ए५ ॥ शीलस्यैव माहात्म्यं, ताहितस्य निंद्यतां चाह
॥मूलम्॥–सीलपवित्तस्स सया । किंकरनावं करंति देवावि ॥ सीलपठो नठो । परमिठीवि हु जन जणियं ॥ एह ॥ व्याख्या-शीलपवित्रस्य देवा अपि सदा किंकरनावं कु
५३५॥
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शीलोप
॥ ५३५ ॥
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dem
ति, शीलभ्रष्टः पुनः परमेष्टी ब्रह्मापि नष्टः, सर्वथा विगुप्त इत्यर्थः, यतो जणितं चिरंतनमुनिनिरिति ॥ ए६ ॥ तदेवाह
॥ मूलम् ॥ - जगली जइ मोली । जइ मुंमी वक्कली तवस्सी वा ॥ पचितो अबजं । बंजावि न रोश्रए मन || 9 || व्याख्या - यदिशब्दाः सर्वेऽभ्युपगमे, पुनःपुनर्यो - पादानं च समग्र गुणवानपि प्राणी शीलरहितो न किंचिदित्यतिशयदर्शनार्थं, तत्र स्थानी कायोत्सर्गिको, मौनी वचः संयमवान, मुंगी केशविकलमौलिः, वल्कली वृक्षत्वग्वस्त्रः, तपस्वी निरंतरतपःसेवनरी सशरीरः, वा शब्दाज्जातिकुलादिसंग्रहः, किं बहुना अब्रह्म मैथुनं प्रार्थयन ब्रह्मापि लोकोक्त्या सृष्टिकर्त्तापि मह्यं न रोचते, न प्रतिज्ञासते, प्रास्तां सामान्यनर इति गाश्रार्थः || ७७ || सामान्योपदेशानुक्त्वा नामनिर्देशेनाद—
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॥ मूलम् ॥ - यज्ञावंतो जावं । सजोगजुत्तो जिइंदिन घीरो ॥ ररक मुली गिदी वि हु । निम्मल निसीलमाणिकं ॥ ए८ ॥ व्याख्या - इति पूर्वोक्तं जावं जावयन् स्वयोगगु तो मनोवचनकाय निरोधवान् जितेंशियः स्वायत्तीकृतेंयिव्यापारो धीरो निश्चलचित्तो मुनि
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वृत्ति
॥ ५३५ ॥
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शीलोप
॥ ५३६ ॥
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स्तपोधनो गृहीत्वा खु निश्चितं निजशीलमाणिक्यं रक्षति, माणिक्यमिव शीतं सुरक्षितं क रोतीत्यर्थः ॥ ८ ॥ अथ मुनेरेव शीलरकोपायमाह
॥ मूलम् ॥ - एते मंताइ । पासठाइकुसंगमवि सययं । परिवजंतो नवबंज - गुति - गुत्तोच साहू || || व्याख्या - एकां ते विजने मंत्रादिकं वनिताभिः पर्यालोचं, प्रादिशब्दात्तत्संसक्ते स्थाने स्थातुं परिवर्जयन्, अन्यच्च पार्श्वस्थादिषु संगं सततं परिवर्जयन, नवब्रह्मचर्य गुप्तिगुप्तः साधुश्चरति, आदिशब्दादवसन्नकुशील संसक्तयथाबंदाः, तत्र वनिता - नायतनसंगो वर्जनीयः, यदागमः - खरामवि न खमं कानं । प्रलाययण सेवां सुविहि ॥ जं गंधं दोइ वर्णं । तग्गंधो मारुनु होइ ॥ १ ॥ पार्श्वस्थलक्षणं चेदं यदागमः - सो पासTags | सवे देते य होइ नायवो ॥ सङ्घमि नागदंसण - चरणाएं जोन पासंमि ॥ १ ॥ | देसंमि पासो । सिज्जायर हिडरायपिंडं च । नीयं च श्रग्गपिंरुं । भुंज निक्कारणे चेव ॥ २ ॥ प्रवसन्नादिलक्षणं सूत्राद् ज्ञेयं. नवब्रह्मगुप्तयस्त्विमाः - वसहिकहनि सिज्जिं दिग्र-कुतरक्की लिपीए ॥ अश्मायादारविनू - सलाय नवबंजचेरगुतीन ॥ १ ॥ इति नवगु
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वृति
|| ५३६ ॥
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वृत्ति
शीलोपप्तिनिर्गुप्तो रक्षितशीलो महात्मा चारित्रं पालयतीति गतं ॥ एए ॥ गृहस्थस्यापि शीलर-
कोपायमाह॥५३॥ ॥मूलम् ॥-वेसादासीइत्तर-पमुहाणमसेसदुछनारीणं ॥ सीलवयरस्कण्ठं । गिहीविसं
गं विवजिजा ॥ १० ॥ व्याख्या-गृही गृहस्थोऽपि शीलवतरक्षणार्थं वेश्यादासीअसतीप्र* मुखाणामशेषऽष्टनारीणां संग संसर्ग विवर्जयेत्, तत्र वेश्या वारविलासिनी विटनटन्नोग्या,
दासी कर्मकररी, असती पतिवंचनया परपुरुषरमणशीला, प्रमुखशब्देन नटीप्रनृतयः, तासां संगं परिहरेदित्यर्थः, यउक्तं-धमत्रान्नृपतिविनश्यति यतिः संगात्सुतो लालनात् । विप्रोऽनध्ययनात्कुले कुतनयाहीलं खलोपासनात् ॥ मैत्री चाऽप्रणयात्समृधिरनयात्नेहः प्रवासाश्रयात् । स्त्री मद्यादनवेक्षणादपि कृषिस्त्यागात्प्रमादानं ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ १० ॥ मु. निगृहस्थयोः शिक्षामाह
॥मूलम्॥-वेसादासीइत्तर-परंगणालिंगिणीणसेवान ॥ वजिज्ज नत्तरोत्तर । एएसिं दोसा वि. सेसेणं ॥१०॥व्याख्या-वेश्यादासाइत्वरीपरांगनालिंगिनीनां सेवा उत्तरोत्तरमधिकाधिकं वर्जये
॥५३॥
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नि
शीलोपत् तत्र इत्वों व्यगृहीताः संग्रहण्यादयः, परांगना व्यरूपसौनाग्यादिलुब्धाः, लिंगिन्यो
व्रतधारिण्यस्तासां सेवा रतक्रीमाः परिहरेत्, यत एता विशेषेण दृष्याः, यदागमः-संज॥५३॥ पमिसेवाए । देवदवस्स नरकणे ॥ इसिघाए सासणुमादे । बोहिघान निवेश्न ॥१॥ इति ।
नावः ॥ ११ ॥ नन्नयोरपि कुसंसर्गपरिदरणीयतामाह
॥ मूलम् ।।-जूआरपारदारीअ-नडविरुपमुहेहिं सह कुमितेहिं ॥ संगं वजिज जया-संगान गुणावि दोसावि ॥ १२ ॥ व्याख्या-द्यूतकारपारदारिकनटविटप्रमुखैः कुमित्रैः सह संगं सदा वर्जयेत्, यतः सत्संगाणाः कुसंसर्गाच दोषा अपि. यउक्तं-गुणा गु. गझेषु गुणीनवंति । ते निर्गुणान प्राप्य नवंति दोषाः ॥ सुस्वाऽतोयप्रनवा हि नद्यः । समुश्मासाद्य लवंत्यपेयाः॥१॥ इति नावः ॥ १०२ ।। नारीणां गुणानाह
॥ मूलम् ॥–मिनन्नासिणी सुलज्जा । कुलदेसवयाणुरूववेसधरा ।। अन्नमणसीला च- ना-ससंगा हुजनारीवि ॥ १०३ ॥ व्याख्या-मितन्नाषिणी परिमितालापा, सुलजा पावती, यदुक्तं असंतोषा हिजा नष्टाः । संतोषेण तु पार्थिवाः ॥ सलज्जा गणिका नष्टा । नि
॥५३॥
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वृत्ति
शीलोपर्लज्जाश्च कुलस्त्रियः॥१॥ इति, कुलदेशवयोऽनुरूपवेषधरा नाऽनुचितावरवतीत्यर्थः, अन-
I मणशीला अत्यक्तस्वदेहलीका, यदाहुः-स्वगेहदेहलीं त्यक्त्वा । निस्त्रपा याति या बहिः॥ ॥५३ए ज्ञेया कुलस्थितोपात् । कुलटा कुलजापि सा ॥१॥ इति, त्यक्ताऽसतीसंगा, एवंविधा या
नारी नवेत् सा श्लाध्येति गाथार्थः॥ १३ ॥ पुनस्तकुणानेवाह
॥ मूलम् ॥–देवगुरुपियरसुसराइ-एसु जना थिरा वरविवेत्रा ॥ कंताणुरत्तचित्ता । वि. रला महिला सुदढचित्ता ॥ १४ ॥ व्याख्या-देवगुरुपितृश्वसुरादिकेषु नक्ता, स्थिरा, वरविवेका, कांतानुरक्तचित्ता, नर्तृनता, सुदृढचित्ता, निजशीलरकणदृढा विरला महिला, आदि. शब्दाद्देवरत्नन॒मित्रादिपरिग्रहः, एवं विधा काचिनवेदित्यर्थः ॥ १४ ॥ महासतीनां शीलदाwमेवाद
॥ मूलम् ॥ निम्मलमहासईणं । सीलवयं खंमिन न सक्कोवि ॥ सक्के जेण ताणं । जीवान सीलमप्रहिनं ॥ १५ ॥ व्याख्या-निर्मलमहासतीनां शीलवतं खंमयितुं शक्रोऽपिन शक्तो न समर्थः, येन तासां जीवात्प्राणनाशाहीलमन्यधिकं, ताः शोलरक्षा
॥३॥
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शीलोप)
॥ ४० ॥
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प्राणनाशमपि सहते, यदुक्तं - वरं प्रांतावर्ते सनयजलमध्ये प्रविशनं । वरं सर्पाकीर्णे तृगदनकूपे प्रपतनं ॥ वरं विंध्याटव्यामनशनतृषार्त्तस्य मरणं । न शीलादिभ्रंशो जवति कुवजानामिह पुनः ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ १०५ ॥ सतीशब्दस्य गाथयाऽर्यमाद
॥ मूलम् ॥ - सच्चि सत्ति जाइ । जा विहुरेवि हु न खंडर सीलं ॥ तं किल क यं कणयं । जं जलपानवि विमलतरं ॥ १०६ ॥ व्याख्या - सैव सतीति जायते, मदासतीनाम लनते, या विधुरेऽपि संकटेऽपि शीलं न खंमयति दृष्टांतमाह तत्किल कनकं कनकं, यज्ज्वलनाद्दैश्वानराहिमलतरं तदेव सुवर्णनाम प्राप्नोति, यह्नेरुत्तीर्णं सन्निर्मलं वि शिष्य प्रतिज्ञासते. एवं सत्यपि सैव या परायत्तापि स्वात्मानं रक्षति, न पुनर्यथा - रहो ना. स्ति को नास्ति । नास्ति प्रार्थयिता नरः ॥ तेन नारद नारीणां । सतीत्वमुपजायते ॥ १ ॥ इत्यादीति गाथार्थः ॥ १०६ ॥ सतीमन्यानां दुष्टत्वमाद
॥ मूलम् ॥ - श्रसत्तवजियान । पावानं नराण दूसरी दिति ॥ किं काही मो श्रम्हे । निरग्गला जेल मे पुरिसा ॥ १०७ ॥ व्याख्या - निजसत्त्ववर्जिताः शीलदार हिताः पापा
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वृति
॥ सण |
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वृत्ति
शीलोप दुष्टाचारिण्यः स्त्रियो नराणां दूषणं ददति, येन हेतुना किं कुर्मो वयं ? पुरुषा इमे निरर्गलाः
. स्वचंदं संपटाचाराः, अमीषामेव दोषो नास्माकमित्यर्षः ॥ १० ॥ निजोक्तमेव महासतीह॥५१॥ ष्टांतेन दृढयन्नाह
॥मूलम् ॥-तिहुयणपहुणावि हु । रावणेण जिसे न रोममित्तंपि ॥ संचालितं न कोर । चरिअं चित्तंति सीपाए ॥ १७ ॥ व्याख्या--त्रिभुवनप्रभुणापि जगत्रयजिगिप्सुनापि रावणेन राक्षसाधिपतिना यस्या रोममात्रमपि न संचालितं, कायोऽपि न संस्पृष्ट इत्यर्थः, तस्याः सीतायाश्चरित्रं सचित्रमिव कस्य नाश्चर्य जनयतीति संकेपार्थः ॥ १०॥ विस्तरार्थ.. स्त्वयं, तग्राहि
पुर्यस्ति मिश्रिला यत्र । पुण्यवंतोऽखिला जनाः ॥ स्वर्गतुं शिथिला नित्य-मघवंतं सु. व रालयं ॥ १ ॥ जनकस्तत्र नूपोऽनू-द्यस्य शक्तिवृषानुगा ॥ प्रतापयशसी सद्यो-मूत सूर्य-
दुदंनतः ॥ २ ॥ विदेहा एव यदेह-सौंदर्यादखिलाः स्त्रियः ॥श्तीव तत्प्रिया नाना । विदेहा प्रथिता भुवि ॥ ३॥ राज्यनीतिरिव प्राज्या। सुप्रयुक्ता यशःश्रियौ । युगपत्समयेऽसूत । सा
५४१॥
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शीलोपराझी पुत्रकन्यके ॥ ४॥ जहार युग्मतस्तस्मा-जातमात्रादयामरः ॥ दारकं पूर्ववैरेण ।
वै वान नतेय श्वोरगं ॥ ५ ॥ स वैतादयगिरौ वालं । विद्युत्पुंजमिवाऽमुचत् ॥ खेचरश्चंगत्याख्यः।। ॥५२॥ पतितं तमौकत ॥ ६ ॥ अधीशो दक्षिणश्रेणे-रधनूपुरनायकः॥ भुवस्थं बालमादाय । पु.
त्रीकृत्यान्वपालयत् ॥ ७ ॥ नाना नामंडलः सूनुर्ववृधे बालचंवत् ॥ विदेदापि हृते तस्मिन् । शोचित्वा सुचिरं स्थिता ॥ ७ ॥ ततः पितृन्यां सा पुत्री । युग्मजाऽपहते सुते ॥ सीतेयं कथितेतीव । सा सीतेति प्रसिदिलाक् ॥ ए॥ पुत्रापहारेणातंक-शंकितैः स्वजनैरथ ॥ लोठिता नूमिपीठे सा । प्रश्रिता नूसुतेत्यतः ॥ १० ॥ सा वईमाना लक्ष्मी । कलानिर्वयसापि च ॥ अवाप यौवनं यूना-मुन्मादे कापिशायनं ॥ ११ ॥ वरार्थचिंतयाचांतस्वां तेऽत्र जनके नृपे ॥ आतरंगतमम्ले-राजस्तन्मंगलं ललौ ॥ १२ ॥ ततः पुर्यामयोध्याया-मासीदशरथो नृपः॥ मित्रं जनकनून -श्चतस्रस्तस्य वजनाः ॥१३॥ कौशल्याश्र सु. ॥५॥ मित्राख्या । कैकेयी सुप्रना तथा ॥ रामलक्ष्मणनरत-शत्रुघ्नाः क्रमशः सुताः॥१५॥ रामः पद्माख्यया ख्यातो । बलदेवोऽष्टमोऽनवत् ॥ नारायणो महाप्राणो । लक्ष्मणश्चाईचत्रय.
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EXCE
शीलोप नूत् ॥ १५ ॥ अश्रो जनकदूतस्तं । प्रणत्य न्यषदत्पुरः॥ श्रेयः पमह सोऽपि शक् । सुह- वृत्ति
1. दो मैग्रिलस्य च ॥१६॥ जाने श्रेयःप्रवृत्त्यर्थ । मम त्वं प्रेषितोऽधुना ॥ तथाप्यागमने हेतुं ॥५३॥ तं दूत निवेद्यतां ॥ १७ ॥ दूतः प्राह स मे ल -राप्ताः संति सहस्रशः ॥ जवानेव स्मृ. मतः किंतु । शवुकष्टे स्वबंधुवत् ॥ १७ ॥ अस्त्यंतराले वैताढ्य-कैलासनगयोरिद ॥ अाईबर्बर-2 नामा च । देशः क्लेश श्चांगवान् ॥ १५॥
पुरे मायूरशालाख्ये । आतरंगतमानिधः ॥ तृष्णानिष्णो ज्वर श्च । म्लेचराजोऽस्ति दुजयः ॥ २०॥ परेसहस्रास्तत्पुत्राः । प्राज्यराज्यधुरंधराः॥ तेजन्नालेजकंबोजा-दीन देशानुपभुंजते ॥ १॥ सांप्रतं स बनंजास्य । मंडलं सुहृदस्तव ॥ तलिंबं परित्यज्य । प्रयतस्व यथोचिते ॥ २२ ॥ निवार्य पितरं रामः । सनह्य तं ततः स्वयं ॥ लक्ष्मणेन युतःप्राप । मि
श्रिलां सबलो धिा ॥ २३ ॥ हत्वा म्लेबाधिपं राम-चंस्तम श्व क्षणात् ॥ जनकं तोषया- ५५३॥ * मास । धिा निकटदूरगं ॥ २२ ॥ दातुमैहत रामाय । सीतां जनकनूपतिः॥श्तश्च नारदः
कन्या-तःपुरं कौतुकादगात् ॥ २५ ॥ कोपीनधारिणं पिंग-केशं उत्रवृषीधरं ॥ तं दृष्ट्वा नी
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शीलोप०
॥ ४४ ॥
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पणाकारं । सीता जीतांतराविशत् ॥ २६ ॥ दासीजिः कंठकर्णातः- शिखासु विघृतो दात् ॥ मुक्तस्ताभ्यः स नृत्प्लुत्य । वैताढ्यं क्रोधतो ययौ ॥ २७ ॥ तत्र नामंगलाख्यस्य । सुनोइगतेः पुरः ॥ कृत्वा चित्रपटे सीतां । दर्शयामास नारदः ॥ २८ ॥ ततश्च कामं कामार्त्त । ज्ञात्वा नामंगलं पिता || नामरूपादिकं तस्याः । पुनः सर्वमबुध्यत ॥ २५ ॥ विसृज्य नारदं चित्र - गतिमं जगौ ॥ वत्स मा खिद्यतां सीतां । त्वयोद्दाहयितास्म्यहं ॥ ३० ॥ - श्रो चपलगत्याख्य - खेचरेण निशि डुतं । श्रनाय्य जनकं सीतां । ययाचे निजसूनवे ॥ ३१ ॥ तेन रामाय देतेति । प्रोक्ते चंदगतिर्जगौ || मित्रत्वेन न दत्से चेत् । तदा हर्तुमपि कमः ॥ ॥ ३२ ॥ यत्तु रामं परित्यज्य । परिशेष्यति मत्सुतः । यदि वा शृणु सर्वेषा - मनिंद्यं वचनं मम ॥ ३३ ॥ विद्ये धनुषी वज्जा -ऽर्णवावर्ते गृदे मम ॥ पृथक् यक्षसहस्त्रेणा - ऽधिष्टिते देवताज्ञया ॥ ३४ ॥
भविष्यतोः कृते सीरि-शार्ङ्गियोः स्थापिते इमे ॥ एतद् इयमुपादाय । कुरु सीतार्पले पणं ॥ ३५ ॥ युग्मं ॥ अप्येकमेतयोर्योमे । यद्यारोपयति धनुः ॥ जित एव स यश्व । ते
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वृति
॥ ४४ ॥
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झीलोप
वृत्ति
पए
नोशाह्या सुता त्वया ॥ ३६॥ कणं विमृश्य जनकः । कालदेपचिकीर्षया ॥ एवमस्त्विति तं विद्या-धराधीशमवोचत ।। ३७ ॥ वजावार्णवावर्ने । ततो दत्वा स कार्मुके ॥ प्रापयामास सानंदं । मिथिलां जनकेश्वरं ॥ ३० ॥ नामंडलयुतश्च-गतिरप्याशु संगतः ॥ प्रारेने मिथिलेशोऽपि । प्रातः सीतास्वयंवरं ॥ ३५ ॥ निविष्टास्तत्र नूपाला । नूचराः खेचरा अपि ।। रा. मश्च लक्ष्मणश्चापि । निषलौ पितुरंतिके ॥ ४० ॥ अथालंकारिता सीता । सन्नामध्यमवातरत् ॥ पेतुश्च तत्र सर्वेषां । हशोबुज श्वालयः ॥ १ ॥ अथ वेत्री समाचष्ट । नोनोः शृ. एवंतु नूभुजः ॥ वजावन धनुरिदं । ज्यारूढं यः करिष्यति ॥ ४२ ॥ अस्यां सन्नायां नूचारि-खचरेः समर्चितः॥ कन्याललामवैदेहीं । सोऽवश्यं परिणेष्यति ॥ ३ ॥ ततः सरनसं शावा । वैदव जिघृक्षवः ॥ समीयुर्मुदिताः कामं । नूमिपा नपकार्मुकं ॥ ४ ॥ केऽपि नेशुरुदंतेऽपि । नैके शेकुरपीक्षितुं ॥ न स्पृष्टुमप्यलं केचि-त्पेतुरादौ पणे परे ॥ ४५ ॥ सहर्षे सीतया दृष्टो । रामोऽथ पितुराज्ञया । धनुर्नामितवान् वजा-वनै सह नृपाननैः ॥ ६ ॥ प्राकृष्य सह वैदेही-हृदा दशरथात्मजः॥ उत्तार्य तनुश्चके । प्राणैः साई तथैव च ॥७॥
॥॥
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वृत्ति
शीलोप लक्ष्मणोऽप्यर्णवावत । धनुरारोप्य लोलया ॥ विद्यानृतामुपायंस्त । तदाष्टादश कन्यकाः ॥
॥ ४० ॥ नामंमलोऽपि सीतार्थ । ताम्यन केनापि साधुना ॥ तवेयं युग्मजातेति । ज्ञानिना ॥५४॥ प्रतिबोधितः ॥ भए ॥ सत्कृता वाजिरत्नाद्यै-जनकेन नृपा गताः । स्वस्थानमपि रामोऽपि।
राजधानी निजामगात् ॥ ५० ॥ अनिषेक्तुमना राम-मथो दशरथो जरन् ॥ कैकेय्या या. चितः स्वैरं । पुरान्यासीकृतं वरं ॥५१॥ निःश्वस्य स्वप्रतिज्ञात-मनुवंध्यमश्रोऽवदत् ॥ राममाकार्य नूमीः । सविषादमयोऽवदत् ॥ ५ ॥ मया सारख्यतुष्टेन । पुरा वत्स स्वयंवरे
॥ दत्तो वरस्तं कैकेयी । पुत्रराज्येन याचते ॥५३॥ हृष्टस्तातमन्नाषिष्ट । रामोऽपि विनया- नतः ।। समौ हि तनयावावा-महं च नरतोऽपि ते ॥ ५५ ॥ राज्यं तदीयतामेव । जरताय 7 मतं तु मे ॥ पुष्पे शोर्पधृते शेष-पुष्पाणि न वित्नांति किं ॥ ५५ ॥
श्रुत्वेति नूभुजादिष्टो । राज्याय तरतोऽवदत् ॥ त्वया सह वनं गता। न राज्ये मे प्र. * योजनं ॥ ५६ ॥ राजाप्याह प्रतिज्ञां मे । मातुराज्ञां च पूरय ॥ याचते त्वयि राज्यं य-त्प.
वदत्तमसौ वरं ॥ ५॥ रामोऽपि जरतं प्राह । न राज्ये लोलुता तव ॥ तथापि राज्यमादा.
एव६॥
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वृत्ति
झीलोपाय | तातं सत्यापयाधुना ॥ ५० ॥ प्रगम्य राममाहस्म । जरतोऽपि सगदं ॥ युक्तं ताता-
I यो राज्यं । दातुं लातुं न मे पुनः ॥ एए ॥ रामोऽथ दध्यौ मय्यत्र । सति नैष गृहीष्यति ॥५४॥ ॥राज्यं येन कुलोनानां । उध्यो विनयक्रमः ॥६॥ नत्वेति पितरं सार-तूगीरधनुरंचि.
मतः ॥ रामोऽपराजिताख्यां च । प्रणम्योवाच मातरं ॥३१॥ मातर्मामिव वीकेया। नरतं तपथ्यवृत्तितः ॥ नरताय ददौ राज्यं । यत्तातः स्वप्रतिज्ञया ॥ ३२ ॥ मय्यत्र विद्यमानेऽसौ । न
राज्यं प्रतिपत्स्यते ॥ तदहं यातुमिहामि । वनं तेनेत्युदोरिते ॥६॥ पपात मूर्जिता देवी। व्यजनैर्जातचेतना ॥ विललाप कथं राम-वियोगार्तिमहं सहे ॥ ६ ॥ रामः प्राह तवेयं का
मातः कातरता नवा ॥ कुखिनो किं नवेत् सिंही। गते सिंहे वनांतरं ॥६५॥ यतस्तातेन कैकेय्या । देयमस्ति झणं वरं ॥ सत्यव्रतस्य तस्याह-मानण्येनोत्सहे कथं ॥ १६ ॥ ____मंबां विबोध्यासौ । मातृः शेषाः प्रणम्य च ॥ निःशंकः सिंहवशमः । प्रतस्थे का- ननंप्रति ॥ ६७ ।। सीतापि नृपमापृष्ठ्य । मता तेनाऽनिषेधतः ॥ स्वन रनुयानाय । श्वश्रू पप्रचनक्तितः ॥ ६ ॥ सबाष्पमंकमारोप्य । सापि प्राह सगदं ॥ वत्से सर्वसहस्तेऽस्ति।
५
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वत्ति
शीलोप पतिः किं तस्य करं ॥६॥ त्वं बाले जातिमालेव । म्लायसि श्वसनादपि ॥ वनवासं
महायासं । कयंकारं सहिष्यसे ॥ ७० ॥ न रमनुगडंति । संकटेऽपि पतिव्रताः|| अनुरो॥५॥ हुमशक्ताहं । त्वां विधिप्रतिषेधयोः ॥ १॥ सीताह मातस्तत्रैव । सर्वं मम शिवंकरं ॥ यत्र
त्वत्पुत्रशुश्रूषा-मविश्रांततया लन्ने ॥ २॥ श्वश्रूवर्गमिति प्रीति-परा नत्वा विदेदजा ॥वा. हिवेलेव शीतांशु-मन्वियाय पति पुतं ॥ ३ ॥ लक्ष्मणोऽपि वने यांतं । राममाकर्ण्य सत्वरं । सवैलक्ष्यं हृदा दध्या-वर्णवावर्त्तदत्तदृक् ॥ ४ ॥ अहो नयंकरा सैषा । कैकेयी का. लरात्रिवत् ॥ या वबे समयेऽमुष्मि-त्रमुमुत्पातकरं ॥५॥ कैकेयीसूनवे राज्यं । दत्वा ता.
तोऽनृणोऽनवत् ॥ आविद्य पुनरेतस्मा-ज्ञमाय वितराम्यहं ॥ ७६ ॥ यक्ष न दास्यते राज्यं दासत्ववान नरतः स्वयं ॥ कुलवैरुद्ध्यमुन्मुन्त । राममेवानुयामि तत् ॥७॥ध्यात्वेति ता
लमापृचय। सुमित्रां चापराजितां ॥सीतासमन्वितं रामं । सौमित्रिरनुजग्मिवान् ॥॥ पौरैर- भी पारबाष्पौधै-रीक्ष्यमाणास्त्रयोऽपि ते ॥ प्रफुल्लवदनाः पुर्या । अयोध्याया विनिर्ययुः ॥ ७ ॥
रामः सौमित्रिसीताच्या-मन्वितः संचरन् भुवं ॥ दंडकाख्यामरण्यानीं । गत्वाऽस्थानिरिग
५
॥
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गीलोप हरे ॥ ७० ॥ मासकपणप्रांते । तत्राणायातौ महामुनी ॥ जानकी पारयामास । प्रासुः वृत्ति
10 काशनदानतः ॥ १ ॥ गंधांबु ववृषुर्देवा । इंदुन्निध्वनिपूर्वकं ॥ एत्य तधतो रोगी । खगः [पए कश्चिन्मुनी नतः ॥ २॥ सगंधनामा पतीः । पादस्पर्शवशात्तयोः ॥ रत्नांकुरजटो नीरुक्
। स्वर्णपदो बनूव च ॥ ३ ॥ नत्वा रामोऽपि पप्रच्छ । दुष्टात्मासौ कथं खगः॥ युष्मत्पाईस्थितः शांत | श्वाऽजायत संप्रति ॥ ४ ॥ तावूचतुः कुंलकार-कृदनाऽनूत्पुरं पुरा ॥ दंडकिस्तत्र नूपालो । मंत्री पालकसंझकः ॥ ५ ॥ पीडितः स्कंदकाचार्यो । मंत्रिणा तेन दंजतः ॥ निदानतो मृतो वह्नि-कुमारेषु सुरोऽनवत् ॥ ६ ॥ दग्धमेतत्पुरं तेन । सराष्ट्र सही नूभुजा ॥ तदिदं दंडकारण्यं । ख्यातं जातं तदाख्यया ॥ ७ ॥ दंडकिस्तु नवं भ्रांत्वा । कु. टी सोऽयं खगोऽनवत् ॥ जातिस्मरणतश्चावा-मालोक्य द्रुतमीयिवान् ॥ ७ ॥ नीरोगः कः रुणासारो | जिनधर्मपरायणः ॥ जातः साधर्मिकश्चायं । जटायुर्युवयोरतः !! ए ॥ राघवा- पधए॥ वपि तं बंधुं । मन्वानौ सीतया युतौ ॥ प्राप्तौ पंचवटीं वल्ली-गृहेषु स्थितिमीयतुः ॥ ए॥
अश्र क्रौंचरवानद्या-स्तटे दाशरगिलघुः ॥ वंशजाल्यां ददशैकं । खजं क्रीमापरायणः ॥
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शीलोप || ए१ ॥ सकौतुकमश्रादाय । कंपयन पाणिना रयात् ॥ लुनाव लीलया वंश-जाली बाल- नि
मृणालवत् ॥ ए ॥ सधूमकुंकं मुंडं स । तत्रालोक्य धरातले ॥ सवदत्रं कबंधं च । स्वचि॥५०॥ तांतरचिंतयत् ॥ ए३ ॥ दहा मया हतः कश्चि-त्पुमानेष विनायुधः ॥ चिराय शोचयित्वा
स्वं । रामाय तदशंसत ॥ ए ॥ रामोऽप्याख्यदसौ सूर्य-हासः खजोऽनिधानतः॥ साधको ऽस्य हतः किंच । रक्षितापि नविष्यति ॥ ए५ ॥ इतः पाताललंकेश-खरराक्षसवलना ॥ दशग्रीवस्वसा चं-खाऽागात्पुत्रमादितुं ॥ ए६ ॥ दृष्ट्वा वंशांतरे सूनोः । कबंधं रुधिरारुणं हा वत्स हतकेनेति । हतः केनेति साऽरुदत् ॥ ए७ ॥ सौमित्ररथ पादांक-वर्त्मना तत्र साऽगमत् ॥ दृष्ट्वा दाशरथी पुत्र-शोकमेषाऽप्यमुंचत ॥ ए॥ विलोक्य कामुको रामं । का
मं कामवशेश्यिा ॥ कृत्वा कन्याकृति स्वीय-पाणिग्रहमयाचत ॥ एए ॥ रामेणानातिनाथ सऽसि । मम नार्ययमंतिके ॥ अंगीकुरु कनिष्टं मे । सौमित्रिमिति साऽप्यगात् ॥ १० ॥ ॥५॥
सोऽप्याह मेऽप्रजाश्रित्या। नवसि त्वं प्रजावती ॥ निराकृतेति सा रामं । कामार्ता पुनराश्रयत् ॥१॥ हसिता सीतया साथ । विकृत्य विकृताकृति । कोपाजत्वा खराय शक् ।
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शालोप
॥५१॥
शंबूकवधमाख्यत ॥२॥ चतुर्दश सहस्राणि । गृहीत्वा सुन्नटानसौ ॥ प्रतस्थे योऽमुत-से वृति क्रुधा दशारथात्मजौ ॥ ३॥
कुतुकादथ तान् हंतुं । राममन्यर्थ्य लक्ष्मणः॥ संकटं सिंहनादेन। ज्ञापयेथा ममेत्यश्र॥४॥ शिक्षामादाय रामस्य । प्रस्थितो राक्षसान्प्रति ॥ हंतुं प्रवृत्तश्चैकाकी। गरुत्मानिव पत्रगान् ॥ ५ ॥ युग्मं ॥ अथ चंणखा पत्युः । साहाय्यप्रविधित्सया ॥ त्रिकूटे सत्वरं गत्वा । दशास्यमिदमब्रवीत् ॥६॥ विद्यते दंमकारण्ये । वीरौ दाशरथी नन्नौ ॥ यमाय तव जामेय-स्तान्यां बलिरदीयत ॥ ७ ॥नावुको नवतां क्रोधा-तान्यां योद्धमुपस्थितः ॥ सौ. मित्रिरेको निर्जीको । युद्ध्यमानोऽस्ति तैः सह ॥ ७॥ रामस्तु तस्य शोर्येण । स्ववीर्येण च गर्वितः ॥ सीतया जायया स्वैरं । क्रीमन्नस्ति स हस्तिवत् ॥ ए ॥ स्त्रीरत्नं न च ताहक ते । धर्मदौ च न तौ जितौ ॥ तन्मन्ये टिट्टिनस्येव । भ्रातस्ते खलु दोष्मतां ॥ १० ॥ तत्कालं ॥५१॥ मदनोऽक-वशोऽय दशकंधरः॥ पुष्पकेश विमानेन । सीतोपांतमुपेयिवान् ॥ ११ ॥ रामपावे निषलां तां । दर्तुं दृष्ट्वापि नाशकत् ॥ दूरे किं तु स्थितो नाग-दमन्या श्व पन्नगः॥
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शीलोप
॥५५॥
॥१२॥ स्मृत्वाऽवलोकिनी विद्यां । प्राह सीतामुपादर ॥ साऽप्युवाच त्वदादेशा-त्र मे
किवात मपि शकं ॥ १३ ॥ किं तूपायोऽस्ति येनासौ । सौमित्रमनुधावति ॥ मिश्रो यदेतयोरस्ति। संकेतः सिंहनादतः ॥१४॥
तेनाप्यनुमता सापि । विदधे केसरिध्वनि ॥ श्रुत्वा रामोऽपि साशंक-माः किमेतदिति ब्रुवन् ॥ १५ ॥ बन्नाषे सीतया स्वामिन् । किमद्यापि विलंबसे ॥ प्रयादि शीघ्रं त्रायस्व । लक्ष्मणं संकटादतः ॥ १६ ॥ प्रसन्नं सीतया नुनो । रामोऽपि सहसाग्रहात् ॥ मौर्वामारोप यंश्चापे । सौमित्रिमनुजग्मिवान् ॥ १७ ॥ अथोत्तीर्य दशग्रीवो । व्यग्रां लक्ष्मणचिंतया ॥ आरोपयितुमारेने । विमाने जानकी रयात् ॥ १७॥ जटायुरथ सीतायाः। श्रुत्वा रुदितमागतः ॥ सीतामाहस्म मा वत्से । नयं कुर्या इति क्रुधा ॥ १५ ॥ कोरनखराघातै-ईशान-2 नमुपाश्वत् ।। क्रुः सोऽपि कृपाणेन । तं पृथिव्यामपातयत् ॥ २०॥ अथारोप्य विमाने ५५शा सा । नीयमाना तदाऽलपत् ॥ रद नामंगल ब्रात-ही मां राम सलक्ष्मण ॥ १॥ तदा नामंगलस्यैकः । पत्तिः श्रुत्वा तदारवं ॥ खेचरो योऽमागछन् । पातितस्तेन नूतले ॥२२॥
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शीलोप अथ लंकापतिः प्राह । किमाकंदसि जानकि ॥ त्रिलोकीकंटकः सोऽहं । पतिर्यस्या निदेश- वृति
कृत् ॥ २३ ॥ इह लंकामहोद्याने । देवानामपि दुर्लन्नां ॥ कुरु क्रीडां हतवीडं । स्वर्णरत्न-4 ॥५३॥ शिलातले ॥ २५ ॥ वनेचरेण किं तेन । श्रय मां यौवनोत्कटं ॥ मरु स्मरति किं नंगी। रं
मनोरु सप्ति नंदने ॥ २५ ॥ ब्रुवनिति पथा सिंधो-स्तां रुदंती निनाय सः ॥ सापि श्रीरामरा २ मेति । न मुमोच मुखाइचः ॥ २६ ॥ चाटु कुर्वन् पपाताय । पौलस्त्यस्तत्पदांबुजे ॥ सम
कोचयदेषापि । परपुंस्पर्शशंकया ॥ २७॥ मुहुरन्यय॑माना च । शशापेति पतिव्रता॥अवाप्स्यसि फलं मृत्योः । परस्त्रीवांयाऽनया ॥ २०॥ पश्यती सुखमामेषा । प्रसादं स्वयमे ष्यति ॥ इति प्रत्याशया हृष्टो । लंकेशः स्वपुरं ययौ ॥ शए । वणिक पण्यांगना दस्युतकृत्पारदारिकः ॥ परस्वांतमजानाना । ग्रंथौ ग्रनंति मारुतं ॥ ३० ॥ न यावत्कुशालोदंतं । रामलक्ष्मणयोर्लन्ने ॥ तावन्नाभामि सा चेति। तदाऽन्निग्रहमग्रहीत् ॥३१॥ स देवरमणोद्याने ॥५३॥ । त्रिजटारक्षितामथ ।। गुप्तां च यामिकैः सीता-मशोकद्रुतलेऽमुचत् ॥ ३५ ॥ दृष्ट्वाय राम. मायांतं । संत्रांतो लक्ष्मणोऽवदत् ।। आर्यामेकाकिनी मुक्त्वा । त्वमपीह किमागतः ॥३३॥
७०
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शीलोपाकागां तव वेडा-मित्युक्ते प्राह लक्ष्मणः॥ न जातमत्कृता याहि । द्रुतं केनापि . वात
चितः ॥ ३४ ॥ निहत्यारिकुलं पृष्टे । तवैवाहं समागतः ॥ व्यावृत्तश्च निजं याव-फुटजं याmun ति राघवः ॥ ३५ ॥ तावत्सीतामनालोक्य । तत्र चित्तोपतापतः ॥ पपात मूर्बितो रामः ।
क्षितौ कृत श्व दुमः ॥ ३६ ॥ वनानिलैस्ततो लब्ध-संज्ञश्चेतस्ततो ब्रमन् ॥ हतं जटायुमा.
लोक्य । सीतापहरणं विदन ॥३७॥ ददौ पंचनमस्कारं । तस्मै स परमाईतः॥ मृत्वा मा. १हेश्कल्पेऽनू-जटायुस्त्रिदशोनमः ॥३०॥ ___दर्शदर्शमरण्यानीं । तरुकुंजादिगह्वरान् ॥रामः सीतामनालोक्य । मूर्वितो न्यपतत्पुनः ॥३ए ॥ समेतो तसंपातं । विराधेनान्वितस्तदा ॥ सौमित्रिमूतिं राम-मेकाकिनमलोकत ॥ ४० ॥ सित्वाशु सलिलैर्वीज-यित्वाथ तरुपल्लवैः ॥ तेन सुस्थीकृतो रामो । वि-) | योगग्रहिलोऽवदत् ॥ १ ॥ सर्वत्र वीक्षितं तावद् । दृष्टा क्वापि न जानकी ॥ नूनं दृष्टास्ति ॥५॥ युष्मानिः । किं न ब्रूत वनांगनाः ॥ ४२ ॥ त्वामेकाकितया मुक्त्वा । जातोऽहं लक्ष्मणानुगः ॥ भ्राता च त्वत्कृते मुक्तो । धिग्मे कुमतिमीहशीं ॥ ४३ ॥ विलपन्निति नूपी । निप.
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झीलोपपपात पुनः पुनः ॥ साश्चर्य परितस्तस्थुः । पक्षिणो हरिणा अपि ॥ ४४ ॥साश्रुः सौमित्रिवृति
रप्याह । नत्वार्य किमिदं वद ॥ जितारिः पुरतस्तेऽहं । स्थितो भ्रातास्मि लक्ष्मणः ॥ ४॥ ॥५५॥ रामोऽपि तत्कणं सिक्तः । सुधयेव गिरा तया ॥ सहर्षबाष्पं सौमित्रि-मालिलिंग पुनः पुनः
॥४६ ॥ सौमित्रिराह नेदानीं । विषादः खलु युज्यते ॥ ब्लेनापहता सीता । तदुपायाय
यत्यते ॥ ७ ॥ विराधस्त्वेष पाताल-कायाः पैतृकं पदं ॥ राज्यमईति मित्रं वः । प्रतिॐ ज्ञातं मयास्ति यत् ॥ ४ ॥ ततो निवेशितो राज्ये । गत्वा रामेण स तं ॥ सुंदश्चश्णखा
चापि । नीतौ रावणमाश्रितौ ॥ ॥ किष्किंधायामयो रामः । सुग्रीवं शरणागतं । स्थापयामासिवान् हत्वा । विटसुग्रीवमाहवे ॥ ५० ॥ स्पष्टमष्टादश स्वीयाः । कन्या दातुमयोद्यतं ॥ सुग्रीवं प्रार्थयामास । रामः सीताप्रवृत्तये ॥ १ ॥
अथ हृष्टः कपीशेऽपि । वीरो वीरान् दिशो दिशि ॥ सर्वत्र प्रेषयामास । रामस्येव म- ५५५॥ नोरथान् ॥ ५५ ॥ सुग्रीवः पुनरुग्रोवः । कंबुझीपं स्वयं व्रजन ॥ दृष्ट्वा नूपतितं रन-जटिनं राममानयत् ॥ ५३॥ पति मंमलस्यासौ । रदोऽपहरणादिकं ॥ सीतायाः सकलं वृत्तं ।
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शीलोप
॥
राघवाय व्यजिज्ञपत् ॥ ५५ ॥ रावणापहृतां सीतां। ज्ञात्वा रामोऽध हर्षवान् ॥ कियहरेऽ- वन स्ति सा लंका । पप्रच्छेति मुहुर्मुहुः ॥ ५५ ॥ सुग्रीवाद्या अपि प्रोचुः । किं दूरासन्नचिंतया ॥ यस्त्रिलोकीनटः पापी । दुर्जयो दशकंधरः॥ ५६ ॥ रामोऽनाषत पर्याप्तं । यजयाऽजयचिंतया ॥ सौमित्रिर्दर्यतां किंतु । ततो विज्ञास्यते बलं ॥ ५७ ॥ सौमित्रिरपि साक्षेपं । प्राह तंग तस्य किं बलं ॥ यो वायस श्वापूपां । हृत्वा सीतां पलापितः ॥ ५० ॥ जांबवानय मंत्रीशः
सौमित्रिमिदमाख्यत ॥ नत्पाटयति यः कोटि-शिलां तं च स हिंस्यति ॥ एए॥ निन्यिरे* सिंधुदेशेऽथ । सर्वे संजूय लक्ष्मणं ॥ तस्यामुत्पाटितायां च । पुष्पवृष्टिं दधुः सुराः॥६॥ नत्वा कोटिशिलां शैले । सम्मेते च जिनेश्वरान् ॥ विमानयानाः सर्वेऽपि । किष्किंधां पुनरैयरुः ॥ ३१ ॥ कपिवृक्ष अथ प्रोचु-युष्मतो रावणक्यः ॥ मानयन्निः परं नीति । दूतः प्रे।
योऽत्र संप्रति ॥ ३२ ॥ तथेत्युक्तेऽथ पद्मेन । समर्थ सर्वकर्मसु ॥ आह्वास्त हनुमंतं तं । क- ॥५६॥ ॐ पीः सूर्यपत्तनात् ॥ ३३ ॥ पुरस्कृत्यांजनेयं च । सुग्रीवो राममन्यधात् ॥ देवासौ जीवितं
राज्ये । मम वीरोऽर्जुनध्वजः ॥ ६४ ॥ तदेष प्रेष्यतां स्वैरं । देवीसीताप्रवृत्तये ॥ पद्मोऽपि
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शालोपमुश्किां दत्वा । देव्यै वाचिकमब्रवीत् ॥ ६५ ॥ गत्वा हनुमद्धंकायां । संकेतायाऽपयेरिमां॥ वृत्ति
J शंसश्च त्वां विना राम-स्त्वन्मयं वीक्षते जगत् ॥ ६६ ॥ मा.प्राणान् परित्यादी-वृत्रैव ५ ॥५५॥ विरहे मम ॥ रामोऽहं यदि तत्प्रत्या-हरिष्ये नवती कुतं ॥ ६ ॥ नमित्युक्त्वा ततो रामं ।
नत्वा व्योमाध्वना रयात् ॥ आंजनेयो गतो लंकां । बिन्नीषणमदोऽवदत् ॥६॥ तवैव पुरतो न्यायाऽ-न्यायौ कुलिन वम्यहं ॥ तन्मोचय रघोः पत्नीं । वातुः श्रेयो यदीबसि ॥६॥ बलवानपि ते नाता । कारायां यस्य तस्थिवान् ॥ ज्ञात्वा तस्यापि हंतारं । राम सीतार्यता दुतं ॥ ७० ॥ सोऽप्याख्यत्पुरैवोक्तो । नातास्मानिः कथामिमां ॥ वदयते च पुनर्यस्मात् । श्रेयः कस्य न वल्लनं ॥१॥ ___ हनुमानपि तत् श्रुत्वा । शक् देवरमणे गतः ॥ मुंचती दीर्घनिःश्वासान् । कृशांगी म. लिनांबरां ॥ ७२ ॥ सततं रामरामेति-ध्यायंती योगिनीमिव ॥ ददर्श रुदती सीता-मशो- ॥५॥ काख्यतरोस्तले ॥ ७३ ॥ साधु साधु सती ध्यायं । ध्यायमित्रं हनूमता ॥ तदंके मुश्किामोचि । विद्यापिहितवर्मणा ॥ ॥ हर्षाश्रुसलिलैः सापि । मपयित्वा च तां जगौ ॥
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वृत्ति
शीलोप मुश्केि कुशली कश्चि-शघवो लक्ष्मणान्वितः ॥ ७५ ॥ सोऽथ प्राह प्रवृत्त्यै ते । प्रभुणा प्रे-
1. पितोऽस्म्यहं ॥ मयि तत्र गते देवः। समेष्यति रिपुछिदे ॥ ७६ ॥ सीताऽपृछत्कथं वत्स । वाएप हिलंधितवानसि ॥ हनुमानाह खेचारि-विद्यया तमलंघयं ॥ ७ ॥ तत्पृष्टां राघवादिष्टां ।
जगौ सोऽप्यखिलां कयां ॥ प्रभुप्रत्यायनादेतो-चूमारत्नमयाचत ॥ ७ ॥ तत्समाऽवदत्सापि । वत्स तूर्णमितो. व्रज || मा नूयादत्र तेऽनर्थो । निष्कपे राक्षसास्पदे ॥ ७ ॥ सो. प्यूचे मातर्मा शंकां । कुरु वत्सलमानते ॥ दर्शयित्वैव यास्यामि । पत्नित्वं रामपादयोः॥ ॥ ७० ॥ नत्वाऽशोकवनी नंक्त्वा । हत्वा चादादिराक्षसान ।। निपात्य लंकासनानि । त्रोट. यित्वात्मबंधनं ॥ १ ॥ दशास्यमुकुटं सद्य-चूर्णयित्वा महानटः ॥ नत्वा रामाय सीताया-चूमामणिमयार्पयत् ॥ २ ॥ रामेणापि समालिंग्य । पृष्टः सीताकथामसौ ॥ शशंस सकलां लंका-मंदिरांसनादिकां ॥ ३ ॥ विराधजांबवन्नील-नामंडलनलांगदैः॥ संयुतः प्र. स्थितो रामो । लंकायां गगनाध्वना ॥ ६ ॥ ..
सुग्रीवप्रमुखैरग्रे-सरैर्मार्गेऽनुपछुताः । चचाल रामतौमित्रि-चमूरुपरि नीरघेः ॥॥
५
॥
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लोप
एएए
अब्ध्यंतर्नलनीलान्यां । संग्रामे दीपनायकौ ॥ नाना समुइसेतू तौ । बौ रामस्य चार्पितौल वृत्ति ॥ ६ ॥ पुननिवेश्य तौ राज्ये । रामः सेवापरायणौ ॥ सुवेलाशिस्थितं वेल-नृपमेष जिगाय तं ॥ ७ ॥ सहीपेऽय लंकायाः । पार्चे इंसरनं नृपं ।। जित्वा तत्र स्थितो दत्वा-वा| सान् दशरथात्मजः ॥ ७ ॥ श्रुत्वाथ राममायांतं । रावणोऽपि रणोत्कटः ॥ सैन्यं प्रगुणयामास । कुदृष्टिरिव दुर्गतीः ॥ नए || अथो बिनीषणो नत्वा । प्रोवाच दशकंधरं ॥ प्रसीद देव स्वस्यापि । शुनोदक विचारय । ए० ॥ परदारापहारेण । लजितं प्रश्रम कुलं ॥ सांप्रतं सर्वसंहारं । मा कुर्वर्पय जानकीं ॥ १ ॥ इत्यादितच-स्तथा नत्सितवानमुं ॥ स परिबदसंयुक्तो । रामचंई यथाऽश्रयत् ॥ ए॥ समयझेन तेनापि । सत्कृत्य स्थापितोंतिके ॥ प्रतिपेदे च लंकाया । राज्यमस्मै शुन्नात्मने । ए३ ॥ अथ रामाज्ञया लंकां । कपयो रुरुधुः कणात् ॥ सर्वाः प्रकृतयो जीवं । गुणस्थान वादिमे ॥ ए४ ॥ हस्तप्रहस्तमारी. पए च-शुकसारणसंज्ञकाः॥ निर्गता दुर्गतो योहुँ । सेनान्यो रक्षसां विनोः॥॥ कपयः दोन्नयामासु-युध्यमाना महाबलाः ॥ रदोबलमशेषं त-तुषपुंजमिवानिलाः ॥ ए६ ॥ अथो दशा
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शीलोप
वति
॥
ननो बंधु-युतो योई समागतः॥ बनूवुः संमुखास्ते च । रामनामंगलादयः ॥ ७॥ वा- द्यमानैर्महातूयः । खजाखजि शराशरि ॥ वीक्ष्यमाणाः सुरैयोनि चिरं युयुधिरेऽयते ॥॥ शूलं बिनीषणेऽमुंच-क्रोधोध्मातो दशाननः॥ शुलध्यानीव कर्माणि । सौमित्रिः कणशोऽदलत् ॥ एए ॥ ततः प्रवतिक्रोधो । दशास्यो हृद्यताडयत् ॥ सौमित्रि शितयाशक्त्या । सोऽ. प्युठा मूर्डितोऽपतत् ॥ २० ॥ शोकार्ने राघवानीके । व्यावृने शिविरंप्रति ॥ दशास्योऽप्यविशल्लंकां । जितकासी रणांगणात् ॥१॥ पपात मूर्गविछिन्ना । तनिशम्य विदेदजा ॥ विद्याधरीतिः संसिक्ता । जजैश्चैतन्यमाप च ॥॥ मंदनाग्या पुरात्माई । न मृता शैशवेऽपि किं ॥ नर्तदेवरयोरि । यत्कृते कष्टमापतत् ॥ ३ ॥ इत्यादिविलपंती तां । काचिहिद्याधरी जगौ ॥ प्रातस्ते देवरो नाव । निःशल्यो देवि मा शुच ॥४॥ स्वस्थाऽनवत्तदा सीता । ध्यायंती तपनोदयं ॥ सौमित्रिं पतितं दृष्ट्वा-ऽपतज्ञमोऽपि मूर्बितः॥ ५ ॥ मूर्गते प्राह किं तृष्णा-मकाले वत्स तिष्टसि ॥ संन्नावयानुगानेता-निजान वाचा दृशापि वा ॥६॥
लंकाराज्यं तदा वत्स । प्रतिपद्य बिन्नीषणे ॥ निश्चिंत श्व किं शेषे । शेषपृष्ट श्वाऽज्यु
॥५६॥
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शीलोपतः ॥ ७॥ हा वत्स तिष्ट यचामि । तं दत्वाऽस्मै तदास्पदं ॥ इत्युक्त्वा धनुरास्फाल्य । या- वृत्ति
वचलति राघवः ॥७॥ तावहिनीषणो दस्ते । तमादायान्यधादिदं ॥ मोहं जहीदि धीरत्व॥५१॥ मवलंबस्व नायक ॥ ए ॥ जीवत्यपि इतः शक्त्या । यावन्नानूदयं पुमान् ॥ मंत्रतंत्रादिन्नि
स्तस्मा--प्रतीकाराय यत्यतां ॥ १० ॥ आमेत्युक्तेऽय रामेण । चतुर्दिक्षु चमू युताः॥ राघव-) परितस्तस्थुः । सुग्रीवाद्या नदायुधाः ॥ ११॥ प्रतिचं इतोऽन्येत्य । खेचरो राममन्यधात् ॥ शक्तेर्विनिर्गमोपाय-मनुनूतममुं शृणु ॥ १२ ॥ मातुलो जरतस्यास्ति । शेणमेघो नरेश्वरः॥ विशल्या नामतः कन्या । तस्याः स्नानांबुसेचनात् ॥ १३ ॥ शक्तर्विनिर्गमो नावीत्युक्ते नामंगलादयः ॥ गत्वा रामाज्ञया तामा-नीयाऽसिंचंश्च लक्ष्मणं ॥१४॥ ज्वलंती निगता शक्ति-रुदियाय दिवाकरः ॥ दध्वनुः पद्मसैन्ये च । श्रेयोऽदुनयः प्रगे ॥ १५ ॥ शकुनैर्वार्यमाणोऽपि । रावणोऽय रणांगणं ॥ प्रातरागात्सैन्ययुतः । प्रातराशसमुत्सुकः ॥ १६ ॥ ॥५६॥ रामरावणयोर्नूयः । प्रवृत्तः समरोत्सवः ॥ प्रजह्वानरा रक्षः-शीर्षाण्यादाय गोलवत् ॥१७॥ निष्टमानं वेगेन । नत्वा सौमित्रिरग्रज !! विधूय वेदनां शक्ते-रुत्तस्थे समरेचया ॥१॥ प्र-2
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शीलोप
॥ ५६२ ॥
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वर्द्धमानशौर्यं । लक्ष्मणं वीक्ष्य रावणः ॥ बहुरूपकरीं विद्या - मस्मरतजिगीषया ॥ १९ ॥
स्मृतमात्रतया शक्त्या - मागतायां दशाननः ॥ विचकार सशस्त्राणि । निजरूपाणि नूरिः || २० | पुरस्तात्पार्श्वयोः पृष्टे । भूमौ व्योम्नि च लक्ष्मणः ॥ ददर्श रावणानेव । समंतादस्त्रवर्षिणः || २१ || एकोऽपि लक्ष्मणस्तार्या - रूढोऽनेक इवोर्जितः ॥ परितः पातयामास । रावणान्निशितैः शरैः ॥ २२ ॥ अथाईचक्री लंकेश श्वक्रं स्मृत्वा करेऽकरोत् ॥ भ्रमयित्वा शिरस्तिनि । मुमुचे चाऽनिलक्ष्मणं ॥ २३ ॥ परीय चक्रं सौमित्रे- दक्षिण पाणिमासदत् ॥ अष्टमो हरिरित्येष | जुघुषुश्च सुरा दिवि ॥ २४ ॥ तेनैव लक्ष्मणेनापि । तविरोऽसूयत कलात् ॥ पपात पुष्पवृष्टिश्च । सुरमुक्ता ननोंगलात् ॥ २५ ॥ निवेश्य राघवौ लंका - राज्ये श्री बिजी || नद्याने चग्मतुः सीता-मादातुं सपरिदौ ||२६|| विलोक्य दूरादायांतौ । दर्षोत्फुल्ला विदेहजा || नवमेघपयःसिक्ता । वनालीव व्यराजत ॥ २७ ॥ धन्या महासती सीतेत्याहुर्दिवि दिवौकसः ॥ लक्ष्मणाद्या नतास्तस्यै । नंदिताश्च तयााशिषा || ॥ २८ ॥ शशांक व रोहिण्या | पद्मिन्येव दिवाकरः ॥ तदानीं रामनरेश । रेजे सीता म
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वृत्ति
|| ५६२||
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झीलोप
वृत्ति
दासती ॥ श्ए ॥ अन्वीयमानौ सुग्रीव-नामंगलविनीषणैः ॥ आरुह्य पुष्पकं प्राप्तौ । सा- केत राघवौ रयात् ॥ ३० ॥ नरतः सानुजोऽन्येत्य । सरामं विष्णुमानमत् ॥ लदमणोऽपि नमंतौ तौ । हर्षेण परिषस्वजे ॥ ३१ ॥ वाद्यमानेषु तूर्येषु । प्रविष्टावध मंदिरं ॥ श्वश्रूनि.. दिता सीता। नव वीरप्रसूरिति ॥ ३२ ॥ लक्ष्मणस्याईचक्रीत्वा-निषेकानंतरं हली ॥ सुग्रीवादीन स्वदेशेषु । विसतर्जाखिलान्नृपान् ॥ ३३ ॥ गर्न बन्नार सीताथ । शरत्नस्वप्नसू. चितं ॥ संमेतशैलयात्रादौ । जातास्तस्याश्च दोहदाः ॥ ३५॥ अत्रांतरेऽस्फुरत्तस्या । दक्षिणं च. क्षुरकणे ॥ तदाचचके रामाय । सीतापि चकिताशया ॥ ३५ ॥ उर्निमित्तमिदं न। तात्वा । मंदिरे निजे ॥ देवानां क्रियतामा । दानं पात्रेषु दीयतां ।। ३६ ॥ ननुः शिक्षामिति श्रुत्वा । जानक्यपि तथाऽकरोत् ॥ पुरीमहत्तराः सत्य-गिरो राममथान्यधुः ॥ ३७॥ देव सत्यम
सत्यं वा । सर्वलोकैर्यफुच्यते ॥ श्रज्ञातव्यं बुधैरेत-दीप्सितं चाऽप्यनीप्सितं ॥ ३० ॥ । तथाहि दशकंठेन । नारीलोलेन जानकी ॥ एकाकिनी हृता साथ । षण्मासी स्थापिता गृहे ॥ ३५ ॥ सा च रक्ता विरक्ता वा । दुर्लक्ष्यमिति योषितां ॥ संमत्याथ दगदेषा ।।
॥५६३॥
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वृत्ति
शीलोप भुक्ता नो वेत्यलक्षितं ॥३॥ युक्तियुक्तः प्रवादोऽयं । तैलबिंऽरिवानसि ॥ सर्वत्र प्रसृतो लोके ।
। तन्मा मृष रघूछह ।। ४१ ॥ तदनेन प्रवादेन । पवनेनेव राघव ।। नोपेक्षस्वादर्शमिव । स्व॥५॥- कुलं मलिनीनवत् ॥ ॥ कलंकमिति सीतायां । रामो निश्चित्य दुःखितः॥ जातस्तूष्णी
मुखो नूयो । धैर्यमालंब्य सान जगौ ॥ ३ ॥ साधु व्यज्ञपि युष्मानि-न स्त्रीमात्रकृतेऽप्यई | ॥ सहिष्ये ऽर्यशस्तानि-त्युदित्वा विससर्ज सः ॥ ४५ ॥ बंघमन्नथ काकुस्थो । निशीथे वीरचर्यया ॥ चर्मकृन्मंदिरासन्नं । गत्वाधो यावता स्थितः ॥४५॥ तावदेष चिरात्प्राप्तां । स्वन्नायाँ प्रतिवेश्मतः ॥ सादेपमूचिवानि । हत्वा पादेन चर्मकृत् ॥ ६ ॥ इयत्कालं स्थिताकासीः। साप्यूचे त्वं नवः पुमान || रामो रदोगृहानीतां । सीतां राझी न किं दधौ ॥ ७ ॥ तेनापि सोढा षएमासी । न त्वं कसमपि कमः ॥ सोऽप्यूचे स्त्रीजितः सोऽस्ति । नाहं ताहक् कयं सहे ॥ ४ ॥ श्रुत्वेति दध्यौ मुखानों । रामो धिक् स्त्रीकृते ह्यहं ॥ नीचानामपि धिक्कारान् । स्वकर्णातिश्रितां नये ॥ भए । नूनं पतिव्रता सीता । शीलः स च रावणः॥ वंशश्च निःकलंको मे । हा किं रामो विचेष्टतां ॥ ५० ॥
॥६॥
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शीलोप
॥ ५६५॥
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ध्यात्वेति मंत्रयामास । समं सौमित्रिणा रहः ॥ सोऽप्याख्यन्मास्म लोकोक्तया । सीतां त्यज महासतीं ॥ ५१ ॥ रसिकः परदोषोक्तौ । स्वनावादेव यज्जनः ॥ शिक्षणीयः स तूपालै-र्योपेक्ष्यो महात्मनिः ॥ ५२ ॥ रामोऽप्याख्यदिदं सत्यं । लोकः प्रायो यदीदृशः ॥ किंतु सर्व विरुद्धोऽर्थ - त्याज्य एव यशस्विनिः ॥ ५३ ॥ सिद्धाइयेति सौमित्रिं । निषिध्य प्र सनं बलः ॥ ऊंचे कृतांतं सेनान्यं । सीतां रे त्यज्यतां वने ॥ ए४ ॥ किंच सम्मेतयात्रायामस्या जातोऽस्ति दोहदः ॥ तेनैव ब्रद्मना गंगा - परकूले नयेरिमां ॥ ५५ ॥ नत्वा सोऽपि रथे सोता-मारोप्य स्वामिशासनात् ॥ सम्मेते कारयन् यात्रां । जोषले काननेऽमुचत् ॥ ५६ ॥ कचे च लोकनिर्वादा-देवी त्वं त्याजिता वने ॥ दतोऽदं दंत कार्येऽस्मि - नियुक्तः स्वामिना
|| ७ || श्रुतिमूर्जिता सीता । पतिता रथतो भुवि ॥ स्वस्थीभूय चिरादूचे । रामंप्रति पतिव्रता ॥ ५० ॥ यद्यज्ञानजनाल्लोका - ऽपवादजयजीरुता || दिव्यं किमिति सन्नादाः । समकं जगतो मम || ५ए ॥ छं कुलोचितं किं ते । निर्घृणेोऽपि निर्घृणं || एकाकिनीं वनेत्याकी - दाधानवतीं प्रियां ॥ ६० ॥ तथाप्यदं भविष्यामि । वनेऽप्यत्र सुधर्मिणी ॥ चि
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वृत्ति
॥ ५६५॥
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शीलोपरं जयतु किंतु श्री-राघवो लक्ष्मणान्वितः ॥३१॥ श्बमादिश्य सेनान्यं । विससर्ज महास-
ती॥ करदश्रुप्लुतः सोऽपि । नत्वा सीतां न्यवर्तत ॥ १२ ॥ जानक्यपि निजं कर्म । निंदंती ॥५६॥ प्राग्नवार्जितं॥ यूथभ्रष्टा कुरंगीव । बभ्राम चकिता वने ॥६॥ अथ श्रीवजजंघेन । तत्राऽ:
यातेन नूभुजा ॥ लगिनीकृत्य सा निन्ये । पुमरीकपुरे मुदा ॥ ६ ॥ इतश्च निजसेनान्याका स्तत्तथाकर्य राघवः ॥ असहिष्णुर्वियोगार्ति। सीतायास्तत्कणं ततः ॥ ६५ ॥ तेनैव सह से
नान्या । तत्रारण्ये गतः स्वयं ॥ सर्वत्राऽन्वेषयामास । न च प्रैकिष्ट जानकीं ॥ ६६ ॥ वि. मृश्येति गृहेऽन्येत्य । तस्याः प्रेतक्रियां दधे ॥ ध्यायंश्च सीतासोतेति । रामः कालमवाहयत् ॥६॥ सीतापि सुषेवे तत्र । युग्मजौ तनयौ ततः ॥ अनंगलवणानिख्य-मदनांकुशसंझि
तौ ॥ ६ ॥ वनजंघस्तयोर्जन्मो-सवं चक्रे स्वपुत्रवत् ॥ ख्यातौ कुशलवावुल्ला-पनैस्तौ र मिथिलीसुतौ ॥ १५ ॥ कलाकलापसंपूर्णौ । प्रपन्नयौवनश्रियौ । जातौ महाभुजाविज्ञ-वि. भाव वीरौ सुदुःईरौ ।। ७० ॥ शशिचूलां निजां पुत्रीं । कन्या हात्रिंशतं पराः ॥ वजजंघो मुदा
नंग-सवणेनोदवाइयत् ॥ ३१ ॥ अंकुशाप ययाचेऽश्र । पृथुपृथ्वीपतेः सुतां ॥ अज्ञातवंश
॥५६६ ।।
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शीलोपत्ये ष-स्तस्मै नाऽदत्न कन्यकां ।। ७२ ॥
तश्च वजजंघेन । पृथोर्जाते महाहवे ॥ पृथोर्बनंजतुः सैन्यं । संक्रुझ लवां कुशौ॥4 ॥५६॥ ॥ ३ ॥ पृथु पलायमानं तो। साकेपमिदमाहतुः ॥ अवंशजाच्यामावाच्यां । नाशिता वंश
जाः कथं ॥ १४॥ वखित्वा पृथुनाऽत्नाणि । शौर्याद ज्ञात कुलं तव ॥ ततः श्रीवजजंघेन । संघानं समजायत ॥ ५ ॥ इतश्च शिबिरे तत्र । निषले सर्वराजनिः ॥ समेतो नारदो नत्वा । वजजंघेन चोच्यत ॥ ६ ॥ अंकुशाय मुने कन्यां । पृथुराजः प्रदित्सति ॥ वंशं तदनयो—हि । येनासावपि तुष्यति ।। ७७ ॥ हसित्वा नारदोऽप्यूचे । को न वेत्त्यनयोः कुलं ॥ दक्षिणौ रावणवधे । यत्नातौ रामलक्ष्मणौ ॥ ७० ॥ लोकनिर्वावन्नीतेन । रामेण जनकात्मजा ॥ गर्नस्थयोरप्यनयो-स्तत्यजे गहने वने ॥ ए ॥ अंकुशोऽथावदद्ब्रह्म-त्र चक्रे तेन सा. विदं ।। न ह्यनालोच्य लोकोक्त्या । तस्यैतत्कर्तुमर्हति ॥ ७० ॥ लघुराह कियडूरे । सा पुरी यत्र तौ नृपौ ॥ मुनिराख्यदितः षष्टि-युग्योजनातं हि सा ॥१॥ अथो कनकमालाख्यां । पृथुनूपस्य कन्यकां ॥ परिणाय्यांकुशेन श्री-वनजंघोऽगमत्पुरीं ॥ ॥ अथ मातुलमा
॥५६॥
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शीलोप
॥ ५६८ ॥
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पृष्ठ्यं । प्रसूं च लवणांकुशौ ॥ जननीत्यजनाऽमर्षा - प्रस्थितौ सेनया सह ॥ ८३ ॥ क्रमेण गत्वोपायोध्यं । तस्तुस्तौ रणोन्मुखौ ॥ श्रुत्वा येोडुमथाऽायातौ । ससैन्यौ रामलक्ष्मणौ ॥ || ८४ || जाते समरसंमर्द्दे । दोष्मंतौ लवणांकुशौ ॥ निन्यतुर्लीलया राम - सैन्यं दैन्यदशाममौ ॥ ८५ ॥ अयोधिषातामा तौ । रामनई सलक्ष्मणं ॥ मुमोच कुपितश्चक्रं । कुशायाद्य स लक्ष्मणः || ६६ || चक्रं चागत्य वेगेन । परीयांकुशमक्षतं ॥ पूर्वकर्मेव कर्त्तारं । पुनलक्ष्मणमाश्रयत् ॥ ८७ ॥
अथ श्रीराम सौमित्री । विषस्याविति दध्यतुः ॥ बलनारायणावेतौ । न चावां किमु नूतले ॥ ८८ ॥ जामंडलयुतोऽभ्येत्या-त्रांतरे नारदो मुनिः ॥ खिन्नं सलक्ष्मणं रामं । विदस्य प्रोचिवानिति ॥ ८ ॥ कोऽयं विषादो युवयो - ईर्षस्थाने रघूछहौ ॥ कस्य नाडानंदयेश्चित्तं । निजपुत्रात्पराजयः ॥ ५० ॥ तवैव तनयावेतौ । सीताकुद्दिसमुन्नवौ ॥ त्वां दृष्टुं रणदंजेन | संगतौ नत्वमौ रिपू ॥ ५१ ॥ बभूव नालं यचक्र -मनिज्ञानमिदं तु ते ॥ अंतरेण स्वगोत्रं यन्त्र चक्रं क्वापि निष्फलं ॥ ७२ ॥ श्रथो तनयवात्सल्यान्मुदा रामः सलक्ष्मणः ॥ लव
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वृति
॥५६॥
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वृत्ति
झीलोपणांकुशयोः पार्थे । जगाम जवतः स्वयं ॥ ए३ ॥ विनीतौ तावपि क्षिप्र-मवतीर्य रथादथ
॥ प्रगतौ शिरसााघातौ । तान्यामपि सगौरवं ॥ ए ॥ तउत्सवमयं सर्व । सैन्यइंघमन्नूपक्षणा तदा ॥ महा पुष्पकारूढो । रामोऽपि प्राविशत्पुरीं ॥ ५॥ अथ सौमित्रिसुग्रीव-वज
जंघबिनीषणैः॥ विज्ञप्तो राघवः शीघ्रं । सातामानाययन्मुसा ॥ १६ ॥ सौमित्रिः संमुखंगत्वा । नत्वा चाह प्रजावतीं ॥ निजप्रवेशतो देवि । पवित्रय चिरात्पुरीं ॥॥ सीता प्रोचे विना शुहिं । न प्रविक्ष्यामि तां पुरीं । गृहं च यावनिर्वादो । ममायं नोपशाम्यति ॥ए मया चांगीकृतं दिव्य-पंचकं तदिदं यथा ॥ ज्वालालीढे विशाम्यग्नौ । यदिवाऽभामि तंडुलान् ॥ एए ॥ पिबामि तप्तं कोशं वा-ऽधिरोहामि तुलामश्र ॥ लिहामि जिह्वया फालं । यद् ब्रूत करवाणि तत् ॥ ३० ॥ राघवोऽपि तदाकएर्य । समेतस्तत्र सीतया ॥ अत्याग्रहगृहीतश्च । वह्निदिव्यममन्यत ॥१॥ शतानि त्रीणि हस्तानां । रामो गर्तामखानयत् ॥ पुरु- षध्यदनं च । पूरयामास चंदनैः ॥२॥ विहिते ज्वलने दीप्ते । स्मृतपंचनमस्कृतिः॥ सीता सत्यापनामेवं । चक्रे वक्रेतराशया ॥ ३॥ लोकपालाश्च शृण्वंतु । चेदहं राघवं विना ॥ नरं
५६॥
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शीलोप
॥५०॥
मनस्यधामन्यं । दहत्वग्निस्तदा मम ॥४॥
अन्यथा वह्निरप्येष । सुधाकुंममिवास्तु मे ॥ इत्युक्त्वा स्मृतसर्वज्ञा । ददौ ऊंपां हुताशने ॥ ५ ॥ प्रविष्टायां च तत्रास्यां । वह्निरहाय शांतवान् ॥ क्रीमावापीव संजझे । जलपर्णा च खातिका ॥ ६ ॥ मध्येजलं सहस्राब्ज-सिंहासनवरस्थिता ॥ शीलप्रत्नावतः सीता रराज श्रीरिवांगिनी ॥ ७॥ शीर्षोपरिष्टाजानक्याः । पुष्पवृष्टिं व्यधुः सुराः ॥ अहो शील महो शीलं । प्रशशंसुश्च मानवाः ॥ ॥ दृष्ट्वाऽनुलावं मातुश्च । तरंतौ लवणांकुशौ ॥ गत्वा प्रणेमतुः पादौ । राजहंसाविव जुनं ।। ए ॥ लक्ष्मणाद्या नमश्चक्रु-वैदेहीमश्र नक्तितः॥ तामन्येत्य च रामोऽपि । प्रोवाच रचितांजलिः ॥१०॥ देवि त्यक्ताऽप्यरण्ये त्व-मजीवः स्वानुनावतः ॥ तदेवासीन्महादिव्यं । न पुनातवानदं ॥ ११ ॥ कात्वा सर्वं तदध्यास्व । पुपकं स्वगृहे चल ॥ राज्यश्रियमिमां नई । पुरेव सफलीकुरु ॥१२॥ सीताप्युचे न दोष- ॥५ स्ते । न लोकस्यापि कश्चन ॥ सोढव्यः किंतु जीवेन । विपाकः पूर्वकर्मणां ॥ १३ ॥ पर्यातं नववासेन । ममातः परमोदृशं ॥ तञ्जेदाय चारित्रं । श्रयिष्यामि महाफलं ॥१४॥त-K
॥
.
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शीलोप
॥ ५७१ ॥
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तो मर्दितो जात - स्तद्व्रतग्रहणोत्सवः ॥ स्वयं जग्राद रामस्त-त्वं -केशांश्च क्लेशमुक्तये ||१५|| चारित्रमाचर्य चिरं च सीता । कल्पेऽच्युते प्राप सुराधिपत्वं ॥ क्रमेण कर्माणि विधूय शुक्ल - ध्यानेन रामोऽपि शिवं समेतः ॥ १६ ॥
॥ इति श्रीरुपलीयगच्छे श्रीसंघ तिलकसूरिपट्टावतंसश्री सोम तिलकसूरिविरचितायां श्री शीलतरंगिण्यां साध्वी सीताचरित्र समाप्तं ॥ श्रीरस्तु ॥ महासतीलक्षणमाद—
॥ मूलम् ॥ - जा सीलजंगसामग्गि-संजवे निश्चला सई एसा || इयरा महासईन । घरे घरे संति पनराज ॥ १०० ॥ व्याख्या - या शीलभंगसामग्री संज्ञवे निश्चला, एकांतस्नेइमोदान्यर्धनादिसंकटे समापतितेऽपि स्वीयशीलं रक्षितुं कृतमदाप्रदा, एषा सतीति कथ्यते. इतरा महासत्योऽप्रार्थिता असंकटे पतिताख शीलपालनप्रवणा गृहे गृहे प्रचुर अपरिमिताः संति, यदुक्तं विरला महिलाः शील- कलिता अपि संकटे ॥ प्रायोऽनभ्यर्थिता एव । सांप्रतं हि पतिव्रताः ॥ १ ॥ इति ज्ञावः ॥ १०७ ॥ एवं सति शीलरक्षणोपायमाद
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वृति
॥ ५१ ॥
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वत्ति
हसीलोप ॥ मूलम् ।।-तहवि हु एगंता-संगो निचंपि परिहरेअबो ॥ जेण य विसमो इंदिय-
Ko गामो तुहाई सत्ताई॥ ११० ॥ व्याख्या-यद्यपि शीलं प्रतिपाल्यं, तथापि पालयितुमि॥५७ बता एकांतादिसंगो नित्यं परिहर्तव्यः, येन कारणेन इंघियग्रामो विषमो दुःरक्ष्यः, तुलानि
भासत्वानि, चित्तदाय जीवानामढपमेव, अतः स्वसंबंधिनीनिरपि स्त्रीनिः सहैकांतसंगो वर्जका नीयः, यदाहुः-मात्रा स्वस्रा उहित्रा वा । नाविविक्तासनो नवेत् ॥ बलवानिश्यियामो
विज्ञांसमपि कर्षति ।। १ ॥ इति गाथार्थः ॥ ११ ॥ निदोषतायामपि संगाहूषणांतरमावि
नवयन्नाद
॥ मूलम् ॥-जावि हु नो वयनंगो । तदवि हु संगान हो। अबवान ॥ दोसनिहालनिनणो । सबो पायं जणो जेण ॥ १११ ।। व्याख्या-यद्यपि तादृगजिह्मवमवतां महा
मनां व्रतन्नंगो न नवति, तथापि संगादपवादो दोषारोपः प्रकट एव, यतः प्रायो बाहुल्येन मन सर्वो जनो लोको दोषनितालननिपुणः, परदोषग्रहणदतः, नक्तं च-कपि नत्यि लो
यस्त । लोयणं जेण नियज्ञ नियदोसेः॥ परदोसपिचणेणं । लोयणलरकाई जायंति ॥१॥
॥
॥
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इtalo
॥ ५७३ ॥
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अन्यश्च - गुणावि गुणनि जाड़ें । दियए निवसंसु सो गर्नु कालोः ॥ अहुणा गुणावि अगु- तोल जायंति लोयाएं ॥ २ ॥ इति जावार्थः ॥ १११ ॥ अथ फलोपदर्शनपूर्व शीलोपदेशोपसंहारमाद
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॥ मूलम् ॥ तो सवदावि सीलंमि । उज्जमं तद करेद जो नवा ॥ जद पावेद लहु च्चिय । संसारं तरिय सिवसुरकं ॥ ११२ ॥ व्याख्या - जो नव्यास्तस्मात्रिकरणशुद्ध्या शीले तोद्यमं कुरुत ? यथा लघु शीघ्रं संसारं तीर्त्वा शिवसौख्यं प्राप्नुत. जव्या इति सामान्यवचनेन पुरुषस्त्रीणां साधारणतया शीलपालनादेव मोक्षः, त एव चोपदेशतत्वयोग्याः, अनव्यानां हितोपदिष्टमपि प्रवचनतत्त्वं हृदये न संक्रामति, यदर्द६चः - मित्रुदिठ्ठी जीवो । नवछं पवयणं न सद्ददर || सद्दद असावं । नवइयं तदइ श्रणुवहं ॥ १ ॥ इति गाथार्थः ॥ ११२ ॥ अथ ग्रंथकारो गर्वपरिहारपूर्वकं प्रवर्त्तकाद्यने कोपदेशपरंपरोप संवर्गणामाद
॥ मूलम् ॥ - इय सीलनावणाए । ज्ञावंतो निञ्चमेव अप्पालं ॥ धन्नो धरिज्ज बंनं । धम्ममदाजवणविरथंजं ॥ ११३ ॥ व्याख्या - इति पूर्वोक्तोपदेशश्रागर्ने शीलजावनया नि
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॥ ५७३ ॥
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शीलोप
॥ ५७४ ॥
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त्यमेवात्मानं जावयन्, शीलप्रतिपालनाय स्वात्मानं दृढीकुर्वन् धन्यः पुण्यपरिणामी जीवो धर्ममहानवनस्थिरस्तंनं पुण्यप्रासादावष्टंभस्तंनरूपं ब्रह्म शीलवतं धारयेत्, धन्या एव तारयितुं क्षमाः, न तु मादृशः पापीत्यर्थः, किल ग्रंथकारो ज्ञापयति, संगदोषेऽपि धन्याः शीलं पालयत्येव, तादृक् शीलातिशयपरीक्षाया अजावेऽपि शीलवंतः श्रातव्या इति अत्र च धनश्री सतीदृष्टांतः, तथाहि
नगर्युज्जयिनीत्यस्ति । स्वस्तिवाद इव श्रियः ॥ श्रेयःपुंजा इवानांति । कुंजा यत्रत्यवेश्मसु ॥ १ ॥ जितशत्रुरिति ख्यातः । प्रतापी तत्र भूपतिः ॥ कमला यनुजस्तं । पांचालीव-न्यलीयत ||२|| श्रेष्टी सागरचंशेऽस्ति । चं श्रीरिति तत्प्रिया ॥ यचित्तवादिः पुण्येन । चंइेणेव प्रमोदते ॥ ३ ॥ पुत्रः समुइदत्तोऽस्ति । तयोरादेयवाक्सुधः । कलाकलाप शिक्षार्थमुपाध्यायस्य सोऽर्पितः || ४ !! पाठकेन सहान्येद्युः । स लुब्धां वीक्ष्य मातरं ॥ विवादानिग्रहं चित्ते । जग्राह स्त्रीविरक्तिमान् ॥ ५ ॥ पिता च यौवनस्थस्य । तस्योद्वादनदेतवे ॥ श्रादत्त शतशः कन्या | अनुरूपवयःकुलाः ॥ ६ ॥ लक्ष्मीरिव यतिः सोऽपि । निराचेष्टेऽखि
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॥ ५७४ ॥
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TA
शीलोपलाः कनीः ॥ छं तस्य विरक्तस्य । समयो याति योगिवत् ॥ ७॥ अन्यदा व्यवहारेण । वृत्ति
सौराष्ट्र तत्पिता गतः ॥ धनस्य सार्थवाहस्य । गेहे गिरिपुरे स्थितः ॥ ॥ कृते समुश्दत्त॥७५ स्य । तस्य पुत्री धनश्रियं ॥ आदर्यालक्षितां श्रेष्टी । समियाय निजे गृहे ॥ ए॥ नक्तः स
मुश्दत्तश्च । पुरे गिरिपुरे मम ॥ संति नांझानि तानि त्वं । वत्स गत्वा समानय ।। १० ॥ का कन्याग्रहणवृत्तांतं । सबै तत्सुहृदां पुरः॥ रहो निवेदयामास । श्रेष्टी स्वेष्टविधित्सया॥
॥ ११ ॥ स्वोचितोपवितस्फूर्त्या । ततो विततवाहनः ॥ प्रतस्थे मित्रयुक् श्रेष्टी--सूनुर्गिरिपु-य रंप्रति ॥१॥ संप्राप्तस्तत्पुरोद्यानं । स्वेप्सितं पुण्यवानिव ॥ वयस्या ज्ञापयामासु-र्धनस्य च तदागमं ॥ १३ ॥ सोऽपि विवाहसामग्रीं । प्रगुणीकृत्य सर्वकां ॥ कुमारं सपरीवारं । निमंव्य स्वगृहेऽनयत् ॥ १४ ॥ विधाप्य उद्मना पाणि-ग्रहणं पुच्या धनश्रियः ॥ श्रीधनस्तुष्टिदानेन । जामातरमतोषयत् ॥ १५ ॥ गतो वासगृहे मित्र-क्लृप्तसर्वोचितक्रियः ॥ दृष्ट्वा धन- ५॥ श्रियं नीर-मिव फेरुवर्तत ॥ १६ ॥ आगत्य सुप्तो मित्रेषु । विनातायामश्रो निशि ॥शरीरचिंतादनेन । कानने स पलायितः ॥१७॥ वयस्यै पिते तस्मिन् । स्वरूपे श्वसुरादिन्तिः
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वृति
शीलोप ॥ सर्वत्राऽन्वेषितं नैव । जामातुः शुहिराप्यत ॥ १०॥ श्रुत्वा सागरचंशेऽपि । तत्रैवोपेयि-
1. वान रयात् ॥ कतिचिहिवसान स्थित्वा । पुनः स्वपुरमासदत् ॥ १७ ॥ हादशाब्द्यामतीता॥५६॥ या-मितः कार्पटिकान्वितः ॥ समुदत्तस्तत्रागात् । प्ररूढश्मश्रुमांसलः ॥ २० ॥ गृहाराम
स्थितं चैष । सार्थेशं धनमब्रवीत् ॥ नद्यानपालकस्तेऽहं । जाये वेतनमंतरा ॥१॥श्रेष्ठि. नांगीकृते सोऽपि । वृक्षायुर्वेदपंडितः ॥ तमारामं सुराराम-रम्यमारचयक्रमात् ॥२२॥ता. मुद्यानश्रियं वीक्ष्य । सर्व फलशालिनीं ॥ आनंदसाः सार्धेशो । मनसीदमचिंतयत् ॥२॥ नहीशकलापात्र-मयं योग्योऽत्र कर्मणि । किमु चिंतामणिश्ागो-गलालंकारजाजनं ॥२॥ ततो न्ययुक्त तं हट्ट-व्यापारे सार्थनायकः । वाणिज्यकलया चक्रे । तत्रापि स्ववशाः प्रजाः ॥ २५ ॥ विधेनपात्रं सर्वेषां । लक्ष्मीसंवननौषधं ॥ नाना विनीतक इति । सर्वत्र प्रश्रितोऽ.
जवत् ॥ २६ ॥ माऽमुं सर्वगुणं ज्ञात्वा । लोनाफुलातु नूपतिः ॥ इत्येनं दिष्टवान् श्रेटी । स- भर्वेषु गृहकर्मसु ॥ २७ ॥ मनीषितानि कुर्वाणं । सर्वकर्माणि तं धनः ॥ पुत्रादप्यधिकं मेने।
गुणाः कस्य न मानदाः॥२०॥ समग्रकार्यसारत्वा-हिनीतत्वेन च क्रमात् ॥ सत्या धनश्रि
५६॥
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शीलोप
वृत्ति
॥५
॥
योऽप्येष । विश्वासास्पदतामगात् ॥ ३५ ॥ अन्येास्तां तलारको । वीक्ष्य वातायनस्थितां ॥ मन्मथव्यथितोऽत्यर्थ । तन्मयं विश्वमैदत ॥ ३०॥
अथो सदा तदासन्नं । स विज्ञाय विनीतकं ॥ अन्यर्थ्य प्राहिणोदौत्ये । कामुकोऽधिधनश्रियं ॥ ३१ ॥ सोऽप्यूचेऽवसरं ज्ञात्वा । तमुदंतं धनश्रियः ॥ धूर्ती हि किं न चेष्टंते । परमार्थ जिघृक्षवः ॥ ३२ ॥ धूनयंती शिरः प्राह । धनश्रीरपि तं सती॥ विनीतक चिरं त्वं मे । प्राणेन्योऽप्यसि वल्लन्नः ॥ ३३ ॥ अमुना कर्मणा किंतु । शत्रुभ्योऽप्यसि दारुणः ॥ मदीयशीलमाणिक्यं । यद्दूषयितुमिचसि ॥ ३४ ॥ कायेन मनसा वाचा । स एव मम वजन्नः॥ समुदत्तो दत्तो यः । पितृभ्यां सर्वसादिकं ॥ ३५ ॥ पुनर्विनीतकः प्राह । गूढहर्षो धनश्रियं ॥इविणं कृपणेनेव । मुधा किं जन्म हार्यते ॥ ३६ ॥ रक्तां त्वामपि यो हित्वा । गतः शुद्धिश्च नाप्यते ॥ प्रतिनाति मुधा तस्य । कृते तजन्महारणं ॥ ३७॥ विनीतोऽप्यविनीतोऽसि ममेदं श्रावयन्मुहुः ॥ पद्मिन्या श्व हैमंतः । समीरः सीकरान्वितः ॥ ३० ॥ शीलमेव कुलस्त्रीणा-मिदाऽमुत्र च जीवितं ॥ नष्टे शीले पुनः प्राणी । जीवनपि मृतोपमः ॥ ३ ॥
E
॥
७३
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शीलोपशीलमेकमिदं मागा-सर्वमन्यन्नविष्यति ॥ सति कंदे न संदेहो । वख्याः पल्लवप्रोजमे ॥ वत्ति
॥ ४० ॥ चिरं परिचितत्वेना-धुना जीवन्नुपेक्षितः ॥ पुनरिवं प्रवक्ता चे-इंसाध्योऽसि स. ॥॥ र्वथा ॥ ४० ॥ इति निर्जलितः सार्थ-पतिपुच्या विनीतकः ॥ निपत्य पादयोरूचे-ऽपराधः
क्षम्यतामयं ॥४१कोऽयं समुदत्तस्तु । पतिस्तव निवेद्यतां ॥ धनश्रीरप्यन्नाषिष्ट । वि. शालायां महापुरि ॥ ४॥श्रेष्टी सागरचंशेऽस्ति । तत्सुतोऽयं गुणाकरः ॥ समुह व रनानां । यः कलानां निकेतनं ॥४३॥ ऊचे विनीतकस्तर्हि । तवाहं रंजितो गुणैः ॥ सम. न्वेष्य समानेष्ये । पतिं तव यतस्ततः॥४४॥ इत्युक्त्वा निर्गतस्तस्या। विमृशन शीलमु. ज्ज्वलं ॥ मुमोच गर्वं ज्ञानोव । स्त्रीषु दुःशीलतााग्रहं ॥ ४५ ॥ गतश्चोजयिनी माता-पिचोरानंदयन्मनः ॥ धनाय ज्ञापयामास । तत्पितापि तदागमं ॥ ४६ ॥ पुनर्जातममन्यंत ।) पितरौ श्वसुरश्च तं ॥ बनूवुश्चोन्नयत्रापि । वापिनमहोत्सवाः ||४७ ॥ समृद्ध्याथ महीय. ॥५ स्या । गृहयालुर्धनश्रियं ॥ समुदत्तः संप्राप्तः । पुरं गिरिपुरं रयात् ॥ ७ ॥ वीक्ष्य जामातरं तीर-मिव योगी नवांबुधेः ॥ सद्यश्चमत्कृताः सर्वे । प्रमोदादैतमासदन ॥ ४ए ॥ सती
॥
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शीलोप धनश्रीरपि निष्कलंकं । शीलप्रनावात्रुतवैनवेन ॥ चिरादिहामुत्रनवोन्नवानि । कल्याणसौ. वृत्ति
ख्यान्यखिलान्यवाप ॥ ५ ॥ MIT ॥ इति श्रीरुपलीयगले श्रीसंघतिलकसूरिपट्टावतंसश्रीसोमतिलकसूरिविरचितायां
श्रीशीलतरंगिण्यां धनश्रीमहासतीकथा समाप्ता ॥ श्रीरस्तु ॥ अथ ग्रंथसमाप्तौ स्वनामगनी मंगलाशिषमाह
॥ मूलम् ॥– जयसिंहमुणीसर-विणेयजयकिनिणा कयं एयं ॥ सीलोवएसमालं। पाराहिय लहह बोहिसुहं ॥ ११४ ॥ व्याख्या-इति पूर्वोक्तप्रकारेण श्रीजयसिंहमुनीश्वरवि
नेयजयकीर्तिना कृतामेनां शीलोपदेशमालामाराध्य बोधिसुखं सन्नध्वमिति समुदायार्थः नो नव्या इति गम्य, तत्रश्रीजयसिंहमूरिनामधेया आचार्यास्तेषां विनेयः शिष्यो जयकीर्ति-थ नामा प्रकरणकारः, जयप्रधाना कीर्तिर्यस्य, या जगति कीर्तिर्यस्येति स्वपरहितोपदेशकत्वे- ए। न सान्वयनाममहात्मना, तेन कृता सिद्धांतोक्तगाथार्थसंग्रहेण प्रथितां शीलोपदेशमालां शी. लसारोपदेशानां मालां श्रेणिं, यदिवा मालामिव मालां पुष्पमयी, सर्वेषामुनमांगकंठधार्य
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शीलोप
वत्ति
॥५०॥
त्वेन, तामाराध्य स्वयं सेवित्वा श्रोतृणामुपदिश्य वा बोधिसुखं प्राप्नुत? बोधे सम्यक्त्वे स. ति सुखं पारंपर्येण मोक्षरूपं, यतस्तदेवाऽनुत्तरमनंतमव्याबाधमव्ययं समग्रं मंगलमूलं चे. ति गाथार्थः ॥ ११ ॥ इति समाप्तं शीलोपदेशमालाख्यं प्रकरण, तत्समाप्तौ च संपूर्णेयं शीलतरंगिणीनामश्रीशीलोपदेशमालावृत्तिरिति ॥ आ श्रीशीलोपदेशमालानी शीलतरंगिणी नामनी वृत्ति जामनगरनिवासि पंमित श्रावक हीरालाल हंसराजे स्वपरना श्रेयमाटे गपी प्र. सिह करी ॥ श्रीरस्तु ॥
॥ समाप्तोऽयं ग्रंथः गुरुश्रीमच्चारित्रविजयसुप्रसादात् ॥
पण
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