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(यस्थ प्रथमः पथस्तते । ऋ० १ | ८३ ॥ ५ ॥ 'भारतीय दर्शन शास्त्र का इतिहास' में देवराज जी लिखते हैं कि
"यज्ञों के इस व्यापारिक धर्म के साथ साथ ही ब्राह्मण काल में हिन्दु धर्म के कुछ महत्वपूर्ण सिद्धान्तों का भी आविष्कार हुआ। हिन्दु जीवनके आधारभूत वर्णाश्रम धर्मके स्रोतका यहीं समय है। प्रसिद्ध तीन ऋणों की धारणा इसी समय हुई | ...
इस युग में वैदिक कालके देवताओंकी महत्ताका हास होने लगा था । यज्ञों के साथ हो अग्नि का महत्व बढ़ने लगा था । लेकिन इस कालका से बहा देवता पूजापन है। नैतीस देवता चौतीस वा प्रजापति हैं प्रजापति में सारे देवता सन्निविष्ठ हैं (शतपथ में ) यज्ञको विष्णु रूप बताया गया है (यशो में विष्णु) नारायण का नाम भी पाया जाता है। कहीं कहीं विश्वकर्मा और प्रजापतिको एक करके बताया गया है।
राधाकृष्णन ने इस युग की व्यापारिक यज्ञ प्रवृत्ति का अत्यन्त कड़े शब्दों में वर्णन किया है। वे लिखते हैं कि "इस युग में वेदों के सरल और भक्ति मय धर्म की जगह एक कठोर हृदय घाती व्यापारिक धम्मं ने ले लो। जो कि एक प्रकार के ठेके पर अवलम्बित था। आर्यों के पुरोहित मानो देवताओं से कहते थे 'तुम हमें इच्छित फल दो. इसलिये नहीं कि तुम में हमारी भक्ति हैं परन्तु इसलिये कि हम गणित की क्रियाओं की तरह यज्ञ विधानों का ठीक क्रमशः अनुष्ठान करते हैं । कुछ यक्ष ऐसे थे जिनका अनुष्ठाता सदेह ( सर्वतनुः ) स्वर्ग को चला जा सकता था। स्वर्ग प्राप्ति और अमरता यत्र विधानों का फल श्री, नकि भक्ति भावना का ।"