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वि. सं. १९४१ चैत्र
श्रीमोक्षमाला "जिसने आत्मा जान ली उसने सब कुछ जान लिया"
(निग्रंथप्रवचन)
१ वाचकको अनुरोध वाचक ! यह पुस्तक आज तुम्हारे हस्त-कमलमें आती है । इसे ध्यानपूर्वक बाँचना; इसमें कहे हुए विषयोंको विवेकसे विचारना, और परमार्थको हृदयमें धारण करना । ऐसा करोगे तो तुम नीति, विवेक, ध्यान, ज्ञान, सद्गुण और आत्म-शांति पा सकोगे।
___ तुम जानते होगे कि बहुतसे अज्ञान मनुष्य न पढ़ने योग्य पुस्तकें पढ़कर अपना अमूल्य समय वृथा खो देते हैं । इससे वे कुमार्ग पर चढ़ जाते हैं, इस लोकमें अपकीर्ति पाते हैं, और परलोकमें नीच गतिमें जाते हैं।
भाषा-ज्ञानकी पुस्तकोंकी तरह यह पुस्तक पठन करनेकी नहीं, परन्तु मनन करनेकी है । इससे इस भव और परभव दोनोंमें तुम्हारा हित होगा । भगवान्के कहे हुए वचनोंका इसमें उपदेश किया गया है।
तुम इस पुस्तकका विनय और विवेकसे उपयोग करना । विनय और विवेक ये धर्मके मूल हेतु हैं।
तुमसे दूसरा एक यह भी अनुरोध है कि जिनको पढ़ना न आता हो, और उनकी इच्छा हो, तो यह पुस्तक अनुक्रमसे उन्हें पढ़कर सुनाना ।
तुम्हें इस पुस्तकमें जो कुछ समंझमें न आवे, उसे सुविचक्षण पुरुषोंसे समझ लेना योग्य है।
तुम्हारी आत्माका इससे हित हो; तुम्हें ज्ञान, शांति और आनन्द मिले; तुम परोपकारी, दयालु, क्षमावान, विवेकी और बुद्धिशाली बनो; अर्हत् भगवान्से यह शुभ याचना करके यह पाठ पूर्ण करता हूँ।
२ सर्वमान्य धर्म जो धर्मका तत्त्व मुझसे पूँछा है, उसे तुझे स्नेहपूर्वक सुनाता हूँ। वह धर्म-तत्त्व सकल सिद्धांतका सार है, सर्वमान्य है, और सबको हितकारी है ॥ १॥
भगवान्ने भाषणमें कहा है कि दयाके समान दूसरा धर्म नहीं है । दोषोंको नष्ट करनेके लिये अभयदानके साथ प्राणियोंको संतोष प्रदान करो ॥२॥
धर्मतत्त्व जो पूज्यं मने तो संभळाई लेहे तने; जे सिद्धांत सकळनो सार सर्वमान्य सहुने हितकार ॥१॥ भाख्यु भाषणमां भगवान, धर्म न बीजो दया समान; अभयदान साये संतोष, यो प्राणिने दळवा दोष ॥२॥