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'धर्मविषयक'
धर्मके विना प्रीति नहीं, धर्मके विना रीति नहीं, धर्मके विना हित नहीं, यह मैं हितकी बात कहता हूँ; धर्मके विना टेक नहीं, धर्मके विना प्रामाणिकता नहीं, धर्मके विना ऐक्य नहीं, धर्म रामका धाम है; धर्मके विना ध्यान नहीं, धर्मके विना ज्ञान नहीं, धर्मके विना सच्चा भान नहीं, इसके विना जीना किस कामका है ! धर्मके विना तान नहीं, धर्मके विना प्रतिष्ठा नहीं, और धर्मके विना किसी भी वचनका गुणगान नहीं हो सकता ॥४॥
सुख देनेवाली सम्पत्ति हो, मानका मद हो, क्षेम क्षेमके उद्गारोंसे वधाई मिलती हो, यह सब किसी कामका नहीं; जवानीका जोर हो, ऐशका उत्साह हो, दौलतका दौर हो, यह सब केवल नामका सुख है; वनिताका विलास हो, प्रौढ़ताका प्रकाश हो, दक्षके समान दास हों, धामका सुख हो, परन्तु रायचन्द्र कहते हैं कि सद्धर्मको विना धारण किये यह सब सुख दो ही कौड़ीका समझना चाहिये॥५॥
जिसे चतुर लोग प्रीतिसे चाहकर चित्तमें चिन्तामणि रत्न मानते हैं, जिसे प्रेमसे पंडित लोग पारसमणि मानते हैं, जिसे कवि लोग कल्याणकारी कल्पतरु कहते हैं, जिसे साधु लोग शुभ क्षेमसे सुधाका सागर मानते हैं, ऐसे धर्मको, यदि उमंगसे आत्माका उद्धार चाहते हो, तो निर्मल होनेके लिये नीति नियमसे नमन करो । रायचन्द्र वीर कहते हैं कि इस प्रकार धर्मका रूप जानकर धर्मवृत्तिमें ध्यान रक्खो और वहमसे लक्षच्युत न होओ ॥६॥
धर्म विना प्रीत नहीं, धर्म विना रीत नहीं, धर्म विना हित नहीं, कथु जन कामk; धर्म विना टेक नहीं, धर्म विना नेक नहीं, धर्म विना ऐक्य नहीं, धर्म धाम रामन; धर्म विना ध्यान नहीं, धर्म विना शान नहीं, धर्म विना भान नहीं, जीव्युं कोना कामर्नु ? धर्म विना तान नहीं, धर्म विना सान नहीं, धर्म विना गान नहीं, वचन तमामनुं ॥ ४ ॥ साह्मबी सुखद होय, मानतणो मद होय, खमा खमा खुद होय, ते ते कशा कामk; जवानीनं जोर होय. एशनो अंकोर होय. दोलतनो दोर होय, ए ते सुख नामर्नु वनिता विलास होय, प्रौढ़ता प्रकाश होय, दक्ष जेवा दास होय, होय सुख धामर्नु; वदे रायचंद एम, सद्धर्मने धार्या विना, जाणी लेजे मुख एतो, बेएज बदामनुं ! ॥ ५ ॥ चातुरो चौपेथी चाही चिंतामणी चित्त गणे, पंडितो प्रमाणे छे पारसमणी प्रेमयी; कवियो कल्याणकारी कल्पतरु कये जेने, सुधानो सागर कथे, साधु शुभ क्षेमथी; आत्मना उद्धारने उमंगयी अनुसरो जो, निर्मळ थवाने काजे, नमो नीति नेमयी; बदे रायचंद वीर, एवं धर्मरूप जाणी, "धर्मवृत्ति ध्यान धरो, विलसोनवेमयी" ॥६॥