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सृष्टिखण्ड]
• सत्सङ्गके प्रभावसे पाँव प्रेतोका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य •
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बाष्कलिने कहा-देवेश्वर ! मैं आपकी भक्ति दर्शन करके पापसे छुटकारा पा जाते हैं। भीष्म ! जो चाहता हूँ। मेरी मृत्यु भी आपके ही हाथसे हो, जिससे मनुष्य मौन होकर यज्ञ-पर्वतपर चढ़ता है अथवा तीनों मुझे आपके परमधाम श्वेतद्वीपकी प्राप्ति हो, जो पुष्करोंकी यात्रा करता है, उसे अश्वमेध यज्ञका फल तपस्वियोंके लिये भी दुर्लभ है।
मिलता है। वह सब पापोंसे मुक्त हो मृत्युके पश्चात् पुलस्त्यजी कहते हैं-बाष्कलिके ऐसा कहनेपर श्रीविष्णुधाममें जाता है। भगवान् श्रीविष्णुने कहा–'तुम एक कल्पतक ठहरे भीष्पजी बोले-भगवन्! यह तो बड़े रहो। जिस समय वराहरूप धारण करके मैं रसातलमें आश्चर्यकी बात है कि वामनजीके द्वारा दानवराज प्रवेश करूँगा, उसी समय तुम्हारा वध करूँगा; इससे बाष्कलि बन्धनमें डाला गया। मैंने तो श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके तुम मेरे रूपमें लीन हो जाओगे।' भगवान्के ऐसे वचन मुखसे ऐसी कथा सुन रखी है कि भगवान्ने वामनरूप सुनकर वह दानव उनके सामनेसे चला गया। भगवान् धारण करके राजा बलिको बाँधा था और विरोचनकुमार भी उससे त्रिलोकीका राज्य छीनकर अन्तर्धान हो गये। बलि आजतक पाताल-लोकमें मौजूद हैं। अतः आप बाष्कलि पाताललोकका निवासी होकर सुखपूर्वक रहने मुझसे बलिके बाँधे जानेकी कथाका वर्णन कीजिये। लगा। बुद्धिमान् इन्द्र तीनों लोकोंका पालन करने लगे। पुलस्त्यजी बोले-नृपश्रेष्ठ ! मैं तुम्हें सब बातें यह जगद्गुरु भगवान् श्रीविष्णुके वामन-अवतारका वर्णन बताता हूँ, सुनो। पहली बारकी कथा तो तुम सुन ही है, इसमें श्रीगङ्गाजीके प्रादुर्भावकी कथा भी आ गयी है। चुके हो। दूसरी बार वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तरमें भी यह प्रसङ्ग सब पापोंका नाश करनेवाला है। यह मैंने भगवान् श्रीविष्णुने त्रिलोकीको अपने चरणोंसे नापा था। श्रीविष्णुके तीनों पगोंका इतिहास बतलाया है, जिसे उस समय उन देवाधिदेवने अकेले ही यज्ञमें जाकर राजा सुनकर मनुष्य इस संसारमें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता बलिको बाँधा और भूमिको नापा था। उस अवसरपर है। श्रीविष्णुके पगोंका दर्शन कर लेनेपर उसके दुःस्वप्र, भगवान्का पुनः वामन-अवतार हुआ तथा पुनः उन्होंने दुश्चिन्ता और घोर पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। पापी मनुष्य त्रिविक्रमरूप धारण किया था। वे पहले वामन होकर प्रत्येक युगमें यज्ञ-पर्वतपर स्थित श्रीविष्णुके चरणोंका फिर अवामन (विराट) हो गये। ............
सत्सङ्गके प्रभावसे पाँच प्रेतोंका उद्धार और पुष्कर तथा प्राची सरस्वतीका माहात्म्य
भीष्मजीने पूछा-ब्रह्मन्! किस कर्मके करनेवाले एक ब्राह्मण थे, जो 'पृथु' नामसे सर्वत्र परिणामसे मनुष्य प्रेत-योनिमें जाता है तथा किस कर्मके विख्यात थे। वे सदा सन्तुष्ट रहा करते थे। उन्हें योगका द्वारा वह उससे छुटकारा पाता है-यह मुझे बतानेकी ज्ञान था। वे प्रतिदिन स्वाध्याय, होम और जप-यज्ञमें कृपा कीजिये।
संलग्न रहकर समय व्यतीत करते थे। उन्हें परमात्माके पुलस्त्यजी बोले-राजन् ! मैं तुम्हें ये सब बातें तत्त्वका बोध था। वे शम (मनोनिग्रह), दम (इन्द्रियविस्तारसे बतलाता हूँ, सुनो; जिस कर्मसे जीव प्रेत होता संयम) और क्षमासे युक्त रहते थे। उनका चित्त है तथा जिस कर्मके द्वारा देवताओंके लिये भी दुस्तर घोर अहिंसाधर्ममें स्थित था। वे सदा अपने कर्तव्यका ज्ञान नरकमें पड़ा हुआ प्राणी भी उससे मुक्त हो जाता है, रखते थे। ब्रह्मचर्य, तपस्या, पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) उसका वर्णन करता हूँ। प्रेत-योनिमें पड़े हुए मनुष्य और वैदिक कर्मोंमें उनकी प्रवृत्ति थी। वे परलोकका सत्पुरुषोंके साथ वार्तालाप तथा पुण्यतीर्थीका बारम्बार भय मानते और सत्य-भाषणमें रत रहते थे। सबसे मीठे कीर्तन करनेसे उससे छुटकारा पा जाते हैं। भीष्म ! सुना वचन बोलते और अतिथियोंके सत्कारमें मन लगाते थे। जाता है—प्राचीन कालमें कठिन नियमोंका पालन सुख-दुःखादि सम्पूर्ण द्वन्द्वोंका परित्याग करनेके लिये