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सृष्टिखण्ड ]
तीर्थमहिमाके प्रसङ्गमें वामन-अवतारकी कथा.
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आपको ही सारा भार सौंपकर कैलास पर्वतपर विहार स्त्री और भूमि दोनों दान करूंगा। आप मुझपर कृपा करते हैं। मुझसे भिन्न बहुत-से दानवोंको, जो बलवानोंसे करके यह सब स्वीकार करें। भी बलवान् थे, आपने अकेले ही मार गिराया। बारह पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! दानवराज आदित्य, ग्यारह रुद्र, दोनों अश्विनीकुमार, आठ वसु तथा बाष्कलिके ऐसा कहनेपर उसके पुरोहित शुक्राचार्यने सनातन देवता धर्म-ये सब लोग आपके ही बाहुबलका उससे कहा-'महाराज! तुम्हें उचित-अनुचितका आश्रय ले स्वर्गलोकमें यज्ञका भाग ग्रहण करते हैं। बिलकुल ज्ञान नहीं है; किसको कब क्या देना चाहियेआपने उत्तम दक्षिणाओंसे सम्पन्न सौ यज्ञोंद्वारा इस बातसे तुम अनभिज्ञ हो। अतः मन्त्रियोंके साथ भगवान्का यजन किया है। वृत्र और नमुचि-आपके भलीभाँति विचार करके युक्तायुक्तका निर्णय करनेके ही हाथसे मारे गये हैं। आपने ही पाक नामक दैत्यका पश्चात् तुम्हें कोई कार्य करना चाहिये। तुमने इन्द्रसहित दमन किया है। सर्वसमर्थ भगवान् विष्णुने आपकी ही देवताओंको जीतकर त्रिलोकीका राज्य प्राप्त किया है। आज्ञासे दैत्यराज हिरण्यकशिपुको अपनी जाँघपर अपने वचनको पूरा करते ही तुम बन्धनमें पड़ जाओगे। बिठाकर मार डाला था। आप ऐरावतके मस्तकपर राजन् ! ये जो वामन हैं, इन्हें साक्षात् सनातन विष्णु ही बैठकर वज्र हाथमें लिये जब संग्राम-भूमिमें आते हैं, उस समझो। इनके लिये तुम्हें कुछ नहीं देना चाहिये; क्योंकि समय आपको देखते ही सब दानव भाग जाते हैं। इन्होंने ही तो पहले तुम्हारे वंशका उच्छेद कराया है और पूर्वकालमें आपने बड़े-बड़े बलिष्ठ दानवोंपर विजय पायी आगे भी करायेंगे। इन्होंने मायासे दानवोंको परास्त किया है। देवराज ! आप ऐसे प्रभावशाली है। आपके सामने है और मायासे ही इस समय बौने ब्राह्मणका रूप मेरी क्या गिनती हो सकती है। आपने मेरा उद्धार करनेकी बनाकर तुम्हें दर्शन दिया है; अतः अब बहुत कहनेकी इच्छासे ही यहाँ पदार्पण किया है। निस्सन्देह मैं आपकी आवश्यकता नहीं है। इन्हें कुछ न दो। [तीन पग तो आज्ञाका पालन करूंगा। मैं निश्चयपूर्वक कहता हूँ, बहुत है,] मक्खीके पैरके बराबर भी भूमि देना न आपके लिये अपने प्राण भी दे दूंगा। देवेश्वर ! आपने स्वीकार करो। यदि मेरी बात नहीं मानोगे तो शीघ्र मुझसे इतनी-सी भूमिकी बात क्यों कही? यह स्त्री, पुत्र, ही तुम्हारा नाश हो जायगा; यह मैं तुम्हें सच्ची बात गौएँ तथा और जो कुछ भी धन मेरे पास है, वह सब एवं कह रहा हूँ।' त्रिलोकीका सारा राज्य इन ब्राह्मणदेवताको दे दीजिये। बाष्कलिने कहा-गुरुदेव ! मैंने धर्मकी इच्छासे
आप ऐसा करके मुझपर तथा मेरे पूर्वजोपर कृपा करेंगे, इन्हें सब कुछ देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है। प्रतिज्ञाका इसमें तनिक भी संशय नहीं है। क्योंकि भावी प्रजा पालन अवश्य करना चाहिये, यह सत्पुरुषोंका सनातन कहेगी- 'पूर्वकालमें राजा बाष्कलिने अपने घरपर धर्म है। यदि ये भगवान् विष्णु है और मुझसे दान लेकर आये हुए इन्द्रको त्रिलोकीका राज्य दे दिया था।' [आप देवताओंको समृद्धिशाली बनाना चाहते हैं, तब तो मेरे ही क्यों, दूसरा भी कोई याचक यदि मेरे पास आये तो समान धन्य दूसरा कोई नहीं होगा। ध्यान-परायण योगी वह सदा ही मुझे अत्यन्त प्रिय होगा। आप तो उन सबमें निरन्तर ध्यान करते रहनेपर भी जिनका दर्शन जल्दी नहीं मेरे लिये विशेष आदरणीय है; अतः आपको कुछ भी पाते, उन्होंने ही यदि मुझे दर्शन दिया है, तब तो इन देने में मुझे कोई विचार नहीं करना है। परन्तु देवराज! देवेश्वरने मुझे और भी धन्य बना दिया। जो लोग हाथमें मुझे इस बातसे बड़ी लज्जा हो रही है कि इन कुश और जल लेकर दान देते हैं, वे भी मेरे दानसे ब्राह्मणदेवताके विशेष प्रार्थना करनेपर आप मुझसे तीन सनातन परमात्मा भगवान् विष्णु प्रसन्न हों' इस वचनके ही पग भूमि माँग रहे हैं। मैं इन्हें अच्छे-अच्छे गाँव दूंगा कहनेपर मोक्षके भागी होते हैं। इस कार्यको निश्चित और आपको स्वर्गका राज्य अर्पण कर दूँगा। वामनजीको रूपसे करनेके लिये मेरा जो दृढ़ संकल्प हुआ है, उसमें