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जाता है। अन्त में वह स्तूपिका का आकार ग्रहण कर लेता है। दक्षिण में इसका प्रयोग अधिक हुआ है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते है कि द्रविड़ शैली में विमान - शिखर का ऊपरी भाग पिरामिड की तरह ऊँचा होता चला जाता है। उसमें शिखर अनेक मंजिलों के होते हैं, जिन्हें स्तूपिका कहा जाता है। इसका वर्गाकार गर्भगृह विशाल चौकोर अहाते में बनाया जाता था, जिसकी छत पदक्षिणा-पथ को ढक लेती है। गुम्बदी भाग अर्धगोलाकार होता है, मण्डप में बड़ा गलियास और ऊँचे स्तम्भ रहते हैं। बाद में मन्दिरों को गोपुरम् से भी जोड़ दिया गया ।
(अ) नागर शैली की लगभग छह शैलियाँ क्षेत्रीय आधार पर विकसित हुईं
(1) उड़ीसा शैली — यह शैली भुवनेश्वर सम्भाग में विकसित हुई सातवीं शदी के बाद। इसमें गर्भगृह अर्धगोलाकार रहता है। गर्भगृह के सामने सभा भवन अर्थात् जगमोहन है । साधारणतः इस शैली के मन्दिरों में स्तम्भ नहीं होते । भीतरी भाग में प्रस्तर साधारण कोटि के रहते हैं, पर बाहरी भाग में मूर्तियाँ अलंकृत रहती हैं । गोपुर सहित लम्बे प्राकार होते हैं और शिखर भाग ऊपर क्रमशः छोटा होता जाता है। इसका समय लगभग आठवीं-नवीं शती है। कोणार्क मन्दिर भी इसी शैली में निर्मित हुआ है । इस शैली में बने मन्दिरों की बाहरी दीवालों पर शृंगारिक अंकन है, जो तन्त्रमन्त्र परम्परा से प्रभावित माना जा सकता है। इसे हम बाह्य जगत् की अपवित्रता का प्रतीक कह सकते है 1
(2) खजुराहो शैली चंदेल शासकों ने इस शैली की प्रस्थापना की। इसमें परकोटा नहीं रहता । ठोस प्रस्तर का सीढ़ीदार चबूतरा रहता है। मन्दिरों के सारे भाग एकदूसरे से बँधे रहते है । ऊँचाई लगभग सौ फीट से अधिक नहीं रहती । मन्दिर के तीन भाग रहते हैं - मण्डप, अर्धमण्डप और गर्भगृह । इसमें गलियारा, प्रदक्षिणापथ और महामण्डप भी होते हैं। बाह्य भाग अलंकृत और अश्लील चित्रों से अंकित है। गर्भगृह की मीनार चारों ओर शिखरनुमा रहती हैं, जिसे अरुश्रृंग कहा जाता है। निचले भाग में अंग - शिखर रहता है, जो खजुराहो शैली की विशेषता है। शिखर आमलक, स्तूपिका और कलश रहते है । शैली अलंकृत है। मिथुन चित्रों का बाहुल्य रहता है। इस शैली में शिखर ऊँचा हो गया और पंचायतन शैली अधिक लोकप्रिय हो गई।
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(3) राजस्थानी और मध्यदेशीय शैली - छठीं शती से गुप्त शैली का यहाँ विकास हुआ, जिसे गुर्जर-प्रतिहारों में दसवीं शती तक विकसित किया । पर्वतों को खोदकर और प्रस्तरों को जोड़कर इस शैली के मन्दिर बनाये गये । ओसिया और कुभारिया के जैन मन्दिर इसी शैली के बनाये गये हैं । इन मन्दिरों का बाहरी भाग साधारण है, पर भीतरी भाग अलंकृत है ।
76 :: जैनधर्म परिचय
(4) गुजरात-काठियावाड़ शैली इस काल के मन्दिरों के तीन भाग होते हैंपीठ, मंडोकार और शिखर । इसे सोलंकी शैली भी कहा जाता है। इसमें स्तम्भ के
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