Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३२
अब दो गाथाओं से अप्रशस्त प्रकृतियों को कहते हैं -
घादी णीचमसादं णिरयाऊ णिरयतिरियदुग जादीसंठाणसंहदीणं चदुपणपणगं च वण्णचओ॥४३॥ उवघादमसग्गमणं थावरदसयं च अप्पसत्था हु।
बंधुदयं पडि भेदे अडणउदि सयं दुचदरसीदिदरे॥४४॥जुम्मं ॥ अर्थ - घातियाकर्मकी ४७ प्रकृतियाँ तथा नीचगोत्र, असातावेदनीय, नरकायु, नरकगतिनरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति-तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, जाति ४, संस्थान ५, संहनन ५, (अशुभ) वर्णचतुष्क, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावरादि १० ये अप्रशस्त (पाप) प्रकृतियाँ हैं। भेदविवक्षा से बन्धरूप ९८ प्रकृतियाँ एवं उदयरूप १०० प्रकृतियाँ हैं। अभेदविवक्षा से वर्णादि की १६ प्रकृति घटानेपर बन्धरूप ८२ और उदयरूप ८४ प्रकृतियाँ हैं ऐसा जानना।
विशेषार्थ - यहाँ अप्रशस्तप्रकृतियों में घातियाकर्मों की प्रकृतियाँ कही गई सो घातियाकर्म तो अप्रशस्तरूप ही हैं। उनकी ४७ प्रकृतियाँ - ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ९, मोहनीय २८ और अन्तराय की ५ हैं। तथा नीचगोत्र, असातावेदनीय, नाकायु, नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चगति', तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, एकेन्द्रियादि ४ जाति, समचतुरस्रसंस्थानबिना न्यग्रोधमण्डलादि ५ संस्थान, वज्रर्षभनाराचबिना वज्रनाराचादिक ५ संहनन, अशुभवर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श, उपघात, अप्रशस्तविहायोगति स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशस्कीर्ति इस प्रकार वर्णादि की १६ कम करने से उदयापेक्षा ८४ प्रकृतियाँ तथा घातियाकर्म की ४७ में से सम्यग्मिथ्यात्व
और सम्यक्त्वप्रकृति कम कर देने से बन्धापेक्षा ८२ प्रकृतियाँ अप्रशस्तरूप कही हैं। भेदविवक्षा से वर्णादि की १६ मिलने पर बन्धापेक्षा ९८ एवं उदयापेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्त्वप्रकृति मिलने से १०० प्रकृतियाँ पापरूप (अप्रशस्त) कही हैं।
१. शंका - गो.क.गा.सं. ४१ में तिर्यंच आयु को प्रशस्तप्रकृति कहा है और यहाँ गाथा ४३ में तिर्यंचगति को अप्रशस्त ।
प्रकृति कहा है। इसका क्या कारण है? समाधान - तिर्यंचगति में कोई जाना नहीं चाहता है, इसलिए तिर्यंचगति को अप्रशस्तप्रकृति कहा है। किन्तु तिथंचगति में पहुँचकर कोई मरना नहीं चाहता, अत: तिर्यंचायु को प्रशस्तप्रकृति कहा है। नरकगति में न तो कोई जाना चाहता है,
और न ही कोई वहां रहना चाहता है, अत: नरकायु तथा नरकगति दोनों को अप्रशस्तप्रकृति कहा गया है। ___ राजा शुभ को जब यह ज्ञात हुआ कि वह मरकर विष्ठा का कीड़ा होगा, तो उसने अपने पुत्र को कहा कि तुम उस | (कीड़े को) मार देना, क्योंकि वह तिर्यंचगति में जाना नहीं चाहता था, किन्तु राजा के वहाँ उत्पन्न होने पर जब राजा का पुत्र राजा की कीड़ेरूप पर्याय को मारने गया तो उस कीड़े ने अपनी रक्षा के लिए विष्टा में प्रवेश कर लिया, कारण कि अब वह मरना नहीं चाहता था (आयुक्षय नहीं चाहता था)। इससे विदित होता है कि तिर्यंच आयु प्रशस्त प्रकृति है।