Book Title: Gommatasara Karma kanda
Author(s): Nemichandra Siddhant Chakravarti, Jawaharlal Shastri
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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गोम्मटसार कर्मकाण्ड-३१
जैसे १२ वें गुणस्थानतक मतिज्ञानावरणादिकर्म का उदय होते हुए भी मतिज्ञानादि अपने कार्य करते रहते हैं इसलिये इन प्रकृतियों को देशघाती कहा है। तथा क्षायोपशमिक भावों में भी इनके देशघाती स्पर्धकों का उदय रहता है।
घातियाकमों के सर्वघाती-देशघाती भेदों को कहकर आगे अघातियाकर्मों के प्रशस्तअप्रशस्तरूप दोभेदों में से सर्वप्रथम प्रशस्त (पुण्य) प्रकृतियों को दो गाथाओं से कहते हैं
सादं तिण्णेवाऊ, उच्वं णरसुरदुगं च पंचिंदी। देहा बंधणसंघादंगोवंगाई वण्णचओ॥४१॥ सपचारतजरिमई, अवघालूणगुरुछक्क सग्गमणं।
तसबारसट्ठसठ्ठी, बादालमभेददो सत्था ॥४२॥ जुम्मं ॥ . अर्थ - सातावेदनीय, तीनआयु, उच्चगोत्र, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रियजाति, पाँचशरीर, पाँचबन्धन, पाँचसयात, तीन अंगोपांग, वर्णचतुष्क, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रर्षभनाराचसंहनन, उपघातबिना अगुरुलघुषट्क, प्रशस्तविहायोगति, त्रसआदि बारह ये अड़सठ प्रकृतियाँ भेदविवक्षा से हैं तथा अभेदविवक्षा से पुण्यप्रकृतियाँ ४२ ही हैं।
विशेषार्थ - उपर्युक्त गाथा में कथित पुण्यप्रकृतियों में जो तीन आयु कही है वे तिर्यंच, मनुष्य और देवायु जानना । वर्णचतुष्क में - वर्ण-गंध-रस और स्पर्श हैं, किन्तु यहाँ शुभरूप वर्णादि चतुष्क को ही ग्रहण करना। इनके भेद करने पर वर्ण ५, गन्ध २, रस ५ और स्पर्श ८ इस प्रकार २० भेद होते हैं सो यह कथन भेदविवक्षा से है, किन्तु अभेदविवक्षा में शुभरूप वर्णादि चार ही ग्रहण के योग्य हैं। उपघात के बिना अगुरुलघुषट्क अर्थात् अगुरुलघु-परधात-उच्छ्वास-आतप और उद्योत ये ५ प्रकृतियाँ जानना। बस आदि १२ प्रकृतियाँ इस प्रकार हैं - स, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक-शरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशस्कीर्ति, निर्माण और तीर्थकर । भेद विवक्षासे तो ६८ प्रकृतियाँ कहीं और अभेदविवक्षा से ४२ प्रकृतियाँ कही सो इसका अभिप्राय यह है कि पाँच बन्धन और ५ सङ्यात, पांचशरीरों के अविनाभावी हैं अतः उनको पृथक् नहीं गिनने से १० प्रकृतियाँ तो ये एवं वर्णादि की २० में से सामान्य से वर्णचतुष्क कहने पर १६ प्रकृतियाँ वे कम हो गईं। इस प्रकार इन २६ प्रकृतियों को कम कर देने पर अभेदविवक्षा में ४२ ही प्रकृतियाँ रहती हैं एवं भेदविवक्षासे इन २६ का भी कथन होने से ६८ प्रकृतियाँ हो जाती हैं। यहां पृथक्-पृथकप से नाम गिनाकर पुण्य (प्रशस्त) प्रकृतियों का कथन किया गया है। इसी बात को एक संक्षिप्तसूत्र द्वारा तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वामी आचार्य ने कहा है "सातावेदनीय, शुभआयु, नामकर्मकी शुभप्रकृतियाँ तथा शुभगोत्र (उच्चगोत्र) ये पुण्यरूप हैं। १. "सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं" तत्त्वार्थ सूत्र. ८/२५!