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. सूत्रस्थान-अ०.१ चार महास्नेह, पांच लवण, · आठ. मूत्र और आठ प्रकारको ही दूध कहे हैं। और वमन विरेचन आदि संशोधन कार्यके लियेः पुनर सुजीले ई. प्रकारके वृक्ष कहे हैं जो इन सबका विकारों में, विधिवत् उपयोग करना अनिताहै वह आयुर्वेदका जाननेवाला मानाजाताहै ॥ ७३ ॥ ७४ ॥
मूलपधान द्रव्य। .. हस्तिदन्तीहैमवतीश्यामात्रिवृदधोगुडा। सप्तलातामा . प्रत्यक्त्रेणीगवाक्ष्यपि ॥ ७५ ॥ ज्योतिष्मतीचदिबीजाण
पुष्पीविषाणिका । अजगन्धाद्रवन्तीचक्षीरिणीचानबोडशी ॥ ७६ ॥ शणपुष्पीचबिम्बीचछर्दनेहैमवत्यपि । श्वेताज्यों
तिष्मतीचैवयोज्याशीविरेचने ॥ ७७. ॥ एकादशाबारी. . ष्टायाःप्रयोज्यास्ताविरेचने । इत्युक्तानामकरी यांलालिमा • फलिनीशृणु ॥७,
अब क्रमसे ऊपर कहेहुए द्रव्योंका वर्णन करते हैं।नागदंती,वच,काली निशोर लाल निशोथ, विधायरा, सातला, सफेद अपराजिता वा उमेद वच, दंती इंद्रायण, मालकांगुनी, कंदूरी, शणपुष्पी, घंटारखा (छनछुना), विकाका (मैजीसंगी या
आवर्तकी), अजगंध वंती छोटीदती),दूधली यह १६ द्रव्य मूलप्रधान है अर्याल जहां इनका कोई और कहाहो तो मूल ही लेना चाहिये क्योंकि गूलमें ही अधिक गुण है इनमें शणपुष्पा, दूरी, वच, यह तीनों वमन करनेके काम लीजाती हैं । श्वेता और मालकांगुनी शिरोविरेचनमें प्रयुक्त की जाती हैं। और वाकी एकादश औषधियां विरेचन कराने में काम आती हैं। यह तो सूलप्रधान कहीं अव फलप्रधानोंको सुनो ॥ ७९ ॥ ७६ ॥ ७७ ।। ७८॥ . . . . . . फलप्रधान द्रव्यं ।
। शंखिन्यथविडङ्गानित्रपुषंमदनानिच । आनू . स्थलजमली-- तकंद्विविधस्मृतम् ॥ ७९ ॥ प्रकीआँचोदकी-प्रत्यक्षु पीतथाभया । अन्तःकोटरपुष्पीचहस्तिपर्शाश्वशारदम् ।। ॥८० ॥ कम्पिल्लकारखधयोः फलंयत्कुटजस्ताव । धामापचमथेक्ष्वाकुजीमूतंकृतवेधनम् ॥ ८१ ॥ मदनकुटजैश्चैवा