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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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लगती है । पर्यस्थ भी सशोफ और सरक्त हो जाती है। धीरे धीरे उपसर्ग अन्दर से बाहर की ओर आता है । अस्थि और पर्यस्थ के बीच में इतना पूय एकत्र हो जाता है कि पर्यस्थ अस्थिदण्ड से काफी ऊँची उठ जाती है। कुछ समय पश्चात् पर्यस्थ को भेदकर पूय ऊपर की मृदु ऊतियों में प्रवेश करता है, पर्यस्थ के नीचे के अस्थिदण्ड पर लाल तथा धूसर ( grey ) वर्ण के धब्बे पड़े हुए देखे जाते हैं तथा वह कर्बुरित ( mottled ) हो जाता है । अस्थि के भीतर पूयनक्रिया बढ़कर नीचे अस्थि के मध्यभाग तक पहुँचती है पर अस्थिशिर को भेद कर ऊपर की ओर इसलिए नहीं जा पाती कि अस्थिशिरीयकास्थि (epiphysial cartilage) प्रायशः रक्तविरहित होती है ।
पाक के प्रारम्भ से ही यद्यपि अस्थि का विरलन ( rarefaction ) और विचूर्णियन ( decalcification ) होता रहता है जो लगातार चलता रहता है परन्तु पाक-क्षेत्र के चारों ओर जहाँ पाक का प्रभाव अत्यल्प होता है नवीन अस्थि का निर्माण उसी प्रकार प्रारम्भ हो जाता है जिस प्रकार किसी विद्रधि के चारों ओर तान्तव ऊति का निर्माण होने लगता है । इसके कारण उपसर्ग का प्रसार रोकने में सहायता मिलती है ।
अस्थिमज्जापाक में अस्थिनाश कई कारणों से होता है । उनमें निम्न मुख्य हैं:
:
१. पर्यस्थ भाग और अस्थिदण्ड के बीच में पूरा भर जाने से अस्थि के बाह्यस्तरों में रक्त पहुँचने में बाधा होना ।
२. अस्थिकुल्या के स्वतः कठोर होने के कारण तथा भीतर पाक प्रक्रिया के कारण तरल भाग बढ़ जाने से इतना अधिक पीडन बढ़ जाता है कि रक्तसंवहन कार्य में अवरोध आजाता है ।
३. देर तक रक्तवाहिनियों में रक्त का प्रचलन न होने से वहाँ जारक की कमी होती है साथ ही सब ओर पूय ही पूय व्याप्त रहता है इस कारण वाहिनियों का अन्तश्छद टूट फूट जाता है इसके कारण अन्तर्वाहिनी आतंचन (intravascular clotting ) होकर घनास्त्रोत्कर्ष ( thrombosis ). देखा जाता है।
इन तीन कारणों से अस्थि के प्रभावित भाग की रक्तपूर्ति रुक जाती है और अस्थि का वह भाग मृतक हो जाता है । इसे मृतास्थिलव ( sequestrum ) कहते हैं । इस मृतास्थिलव के चारों ओर एक गुलाबी रेखा बन जाती है जो सजीव और मृतक अस्थि में विभेद करती है । अस्थि का यह मृत टुकड़ा अब शरीर का एक भागरूप न होकर भाररूप विदेशी पदार्थवत् हो जाता है जिसके चारों ओर पूयोत्पत्ति चलती रहती है जो महीनों तक देखी जाती है । मृतास्थिलव को शस्त्रकर्म द्वारा यदि न निकाल दिया जावे तो इसका प्रचूषण बहुत धीरे धीरे होता है और अन्त में किसी नाड़ीar (sinus ) द्वारा इसका निष्कासन हो पाता है ।
घोर अस्थिमज्जा पाक के कारण कई प्रकार के उपद्रव भी देखे जाते हैं विशेषकर पुंजगोलाणुजन्य उपसर्ग द्वारा रोगोत्पत्ति होने पर । ये उपद्रव दो प्रकार के हो सकते हैं एक स्थानिक और दूसरे सार्वदेहिक | स्थानिक दृष्टि से यह एक जीर्णपूयिक
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