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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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( rarefaction ) तथा नाश ( necrosis ) किया जाता है । पुनर्निर्माण का कार्य कणीयन ऊति (granulation tissue) के द्वारा भी होता है तथा नवीन, घन (dense) अथवा जारठक ( sclerotic ) अस्थि के निर्माण द्वारा भी होता है । यह निर्माण वैसा ही समझना चाहिए जैसा अन्य ऊतियों में तन्तूत्कर्ष ( fibrosis ) । सर्वप्रथम ज्यों ही पर्यस्थ भाग में रक्ताधिक्य होता है उसके नीचे के भाग में उपस्थित अस्थिकारक कोशा ( osteoblasts ) उत्साहित हो जाते हैं । इस कारण नवास्थिनिर्माण चल पड़ता है उस स्थान पर अस्थिनाशक कोशा ( osteoclasts ) की संख्या बहुत कम होती है जिसके कारण उनकी क्रिया शान्त रहती है । परन्तु छिद्रिष्ट ( cancellous ) अस्थि में इन दोनों की संख्या समान होती है इस कारण अस्थिभवन एवं अस्थिनाश दोनों साथ-साथ चलते हैं यद्यपि अस्थिनाश ही अधिक होता है ।
ही अधिरक्तता घटती है जहाँ अस्थिकर तत्व अधिक होता है, अस्थि का जरठन हो जाता है तथा जहाँ अस्थिहर तत्व अधिक होते हैं वहाँ उसका छिद्रण और प्रचूषण अधिक हो जाता है । अस्थिदलक कई-कई छिद्रों के बीच के अस्थिभाग को खाकर बहुत बड़ा अवकाश भी बना देते हैं इस क्रिया को अस्थिदलकीय गर्तिकीय पुनर्चूषण ( osteoclastio lacunar resorption ) कहते हैं । इसी प्रक्रिया द्वारा अस्थि का विरलन भी होता है ।
मा में अस्थि का नाश और प्रचूषण पुनर्निर्माण से कहीं अधिक होने के कारण अस्थि के बड़े-बड़े भाग या कभी-कभी सम्पूर्ण अस्थि ( कीकस vertebra ) पूर्णतः विलुप्त होती हुई देखी जाती है।
फिरङ्ग में अस्थिनिर्माण नाश से अधिक होता है इस कारण अस्थिकोशाओं के प्रगुणन के कारण अस्थि ठोस हो जाती है ।
सपूयावस्था में अस्थिवैरल्य और अस्थिसंघनन दोनों देखे जाते हैं ।
अस्थिपाक के तीनों प्रकार अस्थिमज्जापाक में प्रायशः मिलते हैं । अतः हम अब आगे उसी का वर्णन करेंगे ।
सपूय अस्थिमज्जा पाक
तीव्र (Acute Suppurative Osteomyelitis) इस रोग का परिचय देते हुए सुश्रुत लिखता है: --
अथ मज्जपरीपाको घोरः समुपजायते ।
सोऽस्थिमांसनिरोधेन द्वारं न लभते यदा । ततः स व्याधिना तेन ज्वलनेनेव दह्यते ॥ अस्थिमज्जोष्मणा तेन शीर्यते दह्यमानवत् । विकारः शल्यभूतोऽयं क्लेशयेदातुरं चिरम् ॥ अथास्य कर्मणा व्याधिद्वारन्तु लभते यदा । ततो भेदः प्रभं स्निग्धं शुकुं शीतमथो गुरु || भिन्नेऽस्थि निःस्रवेत् पूयमेतदस्थिगतं विदुः । विद्रधिं शास्त्रकुशलाः सर्वदोषरुजावहम् ॥
( सु. नि. स्था. अ. ९ ) इसका तात्पर्य यह है कि कभी-कभी अस्थि के भीतर मज्जा में घोरपाक ( acute inflammation in the marrow of the bone ) उत्पन्न हो जाता है ।
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