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विकृतिविज्ञान
उसके रक्तपूर्ण स्थान पर्यस्थ अथवा मज्जक होते हैं। जब हम पर्यस्थ पाक कहते हैं तो उसका अर्थ केवल पर्यस्थ मात्र में ही पाक नहीं है बल्कि अस्थिदण्ड के बाह्यस्तरों में भी पाक जानना चाहिए । इसी प्रकार अस्थिपाक या अस्थिमज्जापाक में पर्यस्थ का भी कुछ न कुछ पाक अवश्य मिलता है ।
पर्यस्थपाक ( Periostitis )
यह तीन प्रकार का होता है - लस्यपर्यस्थपाक ( serous ), प्रगुणन पर्यस्थपाक ( proliferative ) तथा सपूय पर्यस्थपाक ( suppurative ) । इनमें लस्य पर्यस्थ पाक बहुत कम देखा जाता है तथा यह अतीव सौम्य स्वरूप का होता है । प्रगुणन पर्यस्थपाक निम्न कारणों से मिलता है:
१. आघात
२. पर्यस्थ के नीचे रक्तस्राव
३. अनुतीव्र उपसर्ग ४. फिरंग की द्वितीय एवं तृतीयावस्था सपूय पर्यस्थपाक का कारण तीव्र पूयजनक उपसर्ग होता है ।
अस्थिपाक (Osteitis )
यह भी ३ प्रकार का होता है -- विरलक अस्थिपाक ( rarefying osteitis ) या अस्थ्यशनापाक ( caries of bone ), जारठक या संघनन अस्थिपाक (scle - rosing or condensing osteitis ), तथा सपूय अस्थिपाक ।
विरलक अस्थिपाक या अस्थ्यशनापाक ऐसे समझना चाहिए जैसे मृदु ऊतियों का व्रणीभवन | अस्थि के अणुओं का विघटन ( disintegration of molecules ) होने लगता है जिसके कारण अस्थि के कोशाओं की धीरे धीरे मृत्यु होती जाती है। मृतकोशाओं को अस्थिदलक ( osteoclasts) भक्षण करते चले जाते हैं जिसके कारण अस्थिपदार्थ विरल होता जाता है । जहाँ जहाँ से अस्थि का भक्षण होता जाता है वहाँ गड्ढे बनते जाते हैं जिसके कारण प्रत्यक्ष दर्शन से ऐसा मालूम पड़ता है कि अस्थि को कीड़ों ने खा लिया हो । यह पाक संपूय अथवा पूयविरहित दोनों प्रकार का देखा जाता है । पूयविरहित अस्थिपाक को केयरीजसिक्का ( caries sicca ) नाम से पुकारते हैं।
जाठक या संघनन अस्थिपाक में विरलन का कार्य नहीं होता अपि तु वहाँ नवीन अस्थि और बनने लगती है जो अस्थि को ठोस करती चली जाती है। जिसके कारण अस्थि निकुल्या और छिद्रिष्ट भाग घटते चले जाते हैं और हड्डी हाथी दाँत की तरह ठोस हो जाती है ।
अस्थि में व्रणशोथ के कारण वही सब क्रियाएँ देखी जाती हैं जो अन्यत्र मिलती हैं । अस्थि का रक्तपूर्ण हो जाना, उपसर्गाभिकर्ता के द्वारा ऊति विनाश होना तथा स्वस्थ ऊति द्वारा अस्वस्थ भाग का पुनर्निर्माण करना यह सब यहाँ भी चलता है । अस्थियों में ऊतिनाश का अर्थ अस्थि का शोषण ( absorption ), विरलन
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