Book Title: Bhagvati Sutra Part 03
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Catalog link: https://jainqq.org/explore/004088/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: पावयण णिग्गथ सच्च जो उवा गयरं वंदे अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ जोधपुर पामज्ज घिगुणाय सयंयंत Kala श्री अ.भा.सुधान कृति रक्षक स जार 300 HOUJARKOXoxo0OP0अखिल SOCKO भगवती सूत्र वि LOOKO अखिल सुधर्म जैन संस्कृतिशाखा कार्यालय सुधर्म जण रतीय सुधर्म जनेहरू गेट बाहर, ब्यावर (राजस्थान) संस्कृति रक्षक भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति धर्म जैन संस्कृति रक्षक सबै अखिल भारतीय सुधर्म जO: (01462)251216, 257699,250328 संस्कति रक्षक संघ आ व अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल संघ अरिक्षिक संघ अXिXKDOKOM अखिल तिरक्षक संघ अदि POOJAअखिल स्कृिति रक्षक संघ अ मसacaसबालभारतीय अखिल संस्कृति रक्षक संघ, अजिव संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजन सरकार अखिल स्कृति रक्षक संघ सुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अभिभारतीय सुधजनसंस्कति अखिल संस्कृति रक्षक संघ अस्थि नयजिन संस्कृति रक्षक संघ रतीय सुधर्म जैन संस्क्रमित अखिल संस्कृति रक्षक संघ अदि ल अखिल संस्कृति रक्षक संघ दि विस संस्कृति रक्षक संघ अहि अखिल स्कृति रक्षक संघ अर्ज नीय सुधर्म सस्कारक्षकारतीयसति अखिल स्कृति रक्षक संघ अर्ज जायसुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ. अखिल भारतीय सु संस्कृति रक्षक संघ सीय सुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधमजन संस्कृति अखिल संस्कृति रक्षक संघ अनि लीयसुधर्मजन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति अखिल स्कृति रक्षक संघ अPIAFयसुधर्म जैन सं भारधर्म जैन संस्कतिYABअखिल स्कृति रक्षक संघ अMEसधर्म जैन संस्क भारत धर्म न संस्कृतिक अखिल स्कृति रक्षक संघ अर्ज जीव सुधर्मजन संस्कृत भाधर्मजैन संस्कृति अखिल स्कृति रक्षक संघ अनि दीय सुधर्मजन संस्कृति र भारत-धर्म जैन संजलि अखिल स्कृति रक्षक संघ अति सु भर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति अखिल स्कृति रक्षक संघ अखिल स्कृति रक्षक संघ अर्ज ठ, काठन तिभावाथ एवाववच स्कृति रक्षक संघ अनि निरक्षक संघ अखिलभारतीयसुधमजन अखिल स्कृति रक्षक संघ अनि COPneya अखिल स्कृति रक्षक संघ अन्।ि स्कृति रक्षक संघ अर्ज अखिल स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्ष आवरण सौजन्य तीयसुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कतिरक्षक संघ अखिल स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय री जै रक्षक संघ अखिल स्कृितिबावनाintereखिल भारतीय । जन्म रक्षका संचाअखिल स्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधमंजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल Ge00/G O (शुद्ध मूल पाठ, कठिन शब्दार्थ, भावार्थ एवं विवेचन सहित) अखिल विद्या बाल मंडली सोसायटी, मेरठ हा संघ जाखिल Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्न माला का २१ वाँ रत्न गणधर भगवान् सुधर्मस्वामि प्रणीत 11111111111111111 भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र) तृतीय भाग (शतक७-८) -सम्पादकपं. श्री घेवरचन्दजी बांठिया “वीरपुत्र" (स्वर्गीय पंडित श्री वीरपुत्र जी महाराज) न्याय व्याकरणतीर्थ, जैन सिद्धांत शास्त्री -प्रकाशक श्री अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर शाखा-नेहरू गेट बाहर, ब्यावर-305901 80 (01462) 251216, 257699 Fax No. 250328 For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्य सहायक उदारमना श्रीमान् सेठ जशवंतलाल भाई शाह, बम्बई प्राप्ति स्थान १. श्री अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, सिटी पुलिस, जोधपुर 2626145 २. शाखा - अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, नेहरू गेट बाहर, ब्यावर 251216 ३. महाराष्ट्र शाखा - माणके कंपाउंड, दूसरी मंजिल आंबेड़कर पुतले के बाजू में, मनमाड़ ४. कर्नाटक शाखा - श्री सुधर्म जैन पौषध शाला भवन, ३८ अप्पुराव रोड़ छठा मेन रोड़ चामराजपेट, बैंगलोर - १८ 25928439 ५. श्री जशवन्तभाई शाह एदुन बिल्डिंग पहली धोबी तलावलेन पो० बॉ० नं० 2217, बम्बई - 2 ६. श्रीमान् हस्तीमल जी किशनलालजी जैन प्रीतम हाऊ० कॉ० सोसा० ब्लॉक नं० १० स्टेट बैंक के सामने, मालेगांव (नासिक) ७. श्री एच. आर. डोशी जी - ३६ बस्ती नारनौल अजमेरी गेट, दिल्ली-६ ८. श्री अशोकजी एस. छाजेड़, १२१ महावीर क्लॉथ मार्केट, अहमदाबाद ६. श्री सुधर्म सेवा समिति भगवान् महावीर मार्ग, बुलडाणा 252097 23233521 5461234 १०. प्रकाश पुस्तक मंदिर, रायजी मोंढा की गली, पुरानी धानमंडी, भीलवाड़ा 327788 ११. श्री सुधर्म जैन आराधना भवन २४ ग्रीन पार्क कॉलोनी साउथ तुकोगंज, इन्दौर १२. श्री विद्या प्रकाशन मन्दिर, ट्रांसपोर्ट नगर, मेरठ (उ. प्र. ) १३. श्री अमरचन्दजी छाजेड़, १०३ वाल टेक्स रोड़, चैन्नई 25357775 १४. श्री संतोषकुमार बोथरा वर्द्धमान स्वर्ण अलंकार ३१४, शांपिग सेन्टर, कोटा 2360950 सम्पूर्ण सेट मूल्य: ४००-००| पाँचवीं आवृत्ति १००० मुद्रक वीर संवत् २५३४ विक्रम संवत् २०६४ जनवरी २००८ स्वास्तिक प्रिन्टर्स प्रेम भवन हाथी भाटा, अजमेर 2423295 For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | निवेदन । सम्पूर्ण जैन आगम साहित्य में भगवती सूत्र विशाल रत्नाकर है, जिसमें विविध रत्न समाये हुए हैं। जिनकी चर्चा प्रश्नोत्तर के माध्यम से इसमें की गई है। प्रस्तुत तृतीय भाग में सातवें और आठवें शतक का निरूपण हुआ है। प्रत्येक शतक में विषय सामग्री क्या है? इसका संक्षेप में यहाँ वर्णन किया गया है - शतक ७ - सातवें शतक में १० उद्देशक हैं, उनमें से पहले उद्देशक में आहारक और अनाहारक सम्बन्धी वर्णन है। दूसरे उद्देशक में विरति अर्थात् प्रत्याख्यान सम्बन्धी वर्णन है। तीसरे उद्देशक में वनस्पति आदि स्थावर जीवों का वर्णन है। चौथे उद्देशक में संसारी जीवों का वर्णन है। पांचवें उद्देशक में खेचर जीवों का वर्णन है। छठे उद्देशक में आयुष्य सम्बन्धी, सातवें उद्देशक में साधु आदि सम्बन्धी, आठवें उद्देशक में आयुष्य सम्बन्धी, नववे उद्देशक में असंवृत अर्थात् प्रमत्त-साधु आदि सम्बन्धी और दसवें उद्देशक में कालोदायी आदि अन्यतीर्थिक . सम्बन्धी वर्णन है। शतक ८ - आठवें शतक में १० उद्देशक हैं - १. पुद्गल के परिणाम के विषय में प्रथम उद्देशक है। २. आशीविष आदि के सम्बन्ध में दूसरा उद्देशक है। ३. वृक्षादि के सम्बन्ध में तीसरा उद्देशक है। ४. कायिकी आदि क्रियाओं के सम्बन्ध में चौथा उद्देशक है। ५. आजीविक के विषय में पाँचवां उद्देशक है। ६. प्रासुक दान आदि के विषय में छठा उद्देशक है। ७. अदत्तादान आदि के विषय में सातवाँ उद्देशक है। ८. प्रत्यनीक - गुर्वादि के द्वेषी विषयक आठवाँ उद्देशक है। ६. बन्ध-प्रयोग बन्ध आदि के विषय में नौवाँ उद्देशक है। १०. आराधना आदि के विषय में दसवाँ उद्देशक है। उक्त दोनों शतक एवं उद्देशकों की विशेष जानकारी के लिए पाठक बंधुओं को इस पुस्तक का पूर्ण रूपेण पारायण करना चाहिये। संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन में आदरणीय श्री जशवंतभाई शाह, मुम्बई निवासी का मुख्य सहयोग रहा है। आप एवं आपकी धर्म सहायिका श्रीमती मंगलादेनशाह For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] 0000000000000000000000000000000000000000000000000000 की सम्यग्ज्ञान के प्रचार-प्रसार में गहरी रुचि है। आपकी भावना है कि संघ द्वारा प्रकाशित सभी आगम अर्द्ध मूल्य में पाठकों को उपलब्ध हो तदनुसार आप इस योजना के अंतर्गत सहयोग प्रदान करते रहे हैं। अतः संघ आपका आभारी है। आदरणीय शाह साहब तत्त्वज्ञ एवं आगमों के अच्छे ज्ञाता हैं। आप का अधिकांश समय धर्म साधना, आराधना में बीतता है। प्रसन्नता एवं गर्व तो इस बात का है कि आप स्वयं तो आगमों का पठन-पाठन करते ही हैं, साथ ही आपके सम्पर्क में आने वाले चतुर्विध संघ के सदस्यों को भी आगम की वाचनादि देकर जिनशासन की खूब प्रभावना करते हैं। आज के इस हीयमान युग में आप जैसे तत्त्वज्ञ श्रावक रत्न का मिलना जिनशासन के लिए गौरव की बात है। आपके पुत्र रत्न मयंकभाई शाह एवं श्रेयांसभाई शाह भी आपके पद चिह्नों पर चलने वाले हैं। आप सभी को आगमों एवं थोकड़ों का गहन अभ्यास है। आपके धार्मिक जीवन को देख कर प्रमोद होता है। आप चिरायु हों एवं शासन की प्रभावना करते रहें, इसी शुभ भावना के साथ। इसके प्रकाशन में जो कागज काम में लिया गया है वह उच्च कोटि का मेफलिथो है साथ ही पक्की सेक्शन बाईडिंग है बावजूद आदरणीय शाह साहब के आर्थिक सहयोग के कारण अर्द्ध मूल्य ही रखा गया है। __संघ की आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत भगवती सूत्र भाग ३ की यह पांचवीं आवृत्ति श्रीमान् जशवंतलाल भाई शाह, मुम्बई निवासी के अर्थ सहयोग से ही प्रकाशित हो रही है। संघ आपका आभारी है। यद्यपि कागज, प्रकाशन एवं पारिश्रमिक आदि में अत्यधिक वृद्धि हो गई है किन्तु आपके आर्थिक सहयोग के कारण भगवती सूत्र के सातों भागों में मात्र रु० १००) की वृद्धि की गई है। जो कि अन्य प्रकाशनों की तुलना में विशेष नहीं है। पाठक बन्धुओं से निवेदन है कि वे इस पांचवीं आवृत्ति का अधिक से अधिक लाभ उठावें। ब्यावर (राज.) दिनांकः १५-१-२००८ भाग ३ संघ सेवक नेमीचन्द बांठिया अ. भा. सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ, जोधपुर For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्वाध्याय निम्नलिखित बत्तीस कारण टालकर स्वाध्याय करना चाहिये। आकाश सम्बन्धी १० अस्वाध्याय काल मर्यादा • १. बड़ा तारा टूटे तो- ... एक प्रहर २. दिशा-दाह * जब तक रहे ३. अकाल में मेघ गर्जना हो तो दो प्रहर ४. अकाल में बिजली चमके तो एक प्रहर ५. बिजली कड़के तो आठ प्रहर ६. शुक्ल पक्ष की १, २, ३ की रात प्रहर रात्रि तक ७. आकाश में यक्ष का चिह्न हो जब तक दिखाई दे . ८-६. काली और सफेद धूअर- . जब तक रहे १०. आकाश मंडल धूलि से आच्छादित हो जब तक रहे औदारिक सम्बन्धी १० अस्वाध्याय . -११-१३. हड्डी, रक्त और मांस, ये तिर्यंच के ६० हाथ के भीतर हो। मनुष्य के हो, तो १०० हाथ के भीतर हो। मनुष्य की हड्डी यदि जली या धुली न हो, तो १२ वर्ष तक। १४. अशुचि की दुर्गंध आवे या दिखाई दे-. तब तक १५. श्मशान भूमि सौ हाथ से कम दूर हो, तो। * आकाश में किसी दिशा में नगर जलने या अग्नि की लपटें उठने जैसा दिखाई दे और प्रकाश हो तथा नीचे अंधकार हो, वह दिशा-दाह है। • For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. चन्द्र ग्रहण खंड ग्रहण में ८ प्रहर, पूर्ण हो तो १२ प्रहर (चन्द्र ग्रहण जिस रात्रि में लगा हो उस रात्रि के प्रारम्भ से ही अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १७. सूर्य ग्रहण खंड ग्रहण में १२ प्रहर, पूर्ण हो तो १६ प्रहर (सूर्य ग्रहण जिस दिन में कभी भी लगे उस दिन के प्रारंभ से ही उसका अस्वाध्याय गिनना चाहिये।) १८. राजा का अवसान होने पर, जब तक नंया राजा घोषित न हो . १६. युद्ध स्थान के निकट जब तक युद्ध चले २०. उपाश्रय में पंचेन्द्रिय का शव पड़ा हो, जब तक पड़ा रहे (सीमा तिर्यंच पंचेन्द्रिय के लिए ६० हाथ, मनुष्य के लिए १०० हाथ। उपाश्रय बड़ा होने पर इतनी सीमा के बाद उपाश्रय में भी अस्वाध्याय नहीं होता। उपाश्रय की सीमा के बाहर हो तो यदि दुर्गन्ध न आवे या दिखाई न देवे तो अस्वाध्याय नहीं होता।) २१-२४. आषाढ़, आश्विन, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा दिन रात २५-२८. इन पूर्णिमाओं के बाद की प्रतिपदा दिन रात २६-३२. प्रातः, मध्याह्न, संध्या और अर्द्ध रात्रिइन चार सन्धिकालों में १-१ मुहूर्त उपरोक्त अस्वाध्याय को टालकर स्वाध्याय करना चाहिए। खुले मुंह नहीं बोलना तथा सामायिक, पौषध में दीपक के उजाले में नहीं वांचना चाहिए। नोट - नक्षत्र २८ होते हैं उनमें से आर्द्रा नक्षत्र से स्वाति नक्षत्र तक नौ नक्षत्र वर्षा के गिने गये हैं। इनमें होने वाली मेघ की गर्जना और बिजली का चमकना स्वाभाविक है। अतः इसका अस्वाध्याय नहीं गिना गया है। For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट १०९२ १०९५ १०९५ १११५ ܐܐܐ १२८४ १३१३ १३३६ १३९३ १४०१ १४१४ . १४२५ १४४१ १४९५ १५२८ पंक्ति १ Ε १२ १७ ११७१ ११९२ १२०७ १२०९ ८ १२१८ १८ १२२३ १४ १२२८ १६ १२३५ ७ १२३७ १२७१ १२७६ १२८३ २० १४ ६ १८ १० ७ ७ २३ १.३ १५ २६ ε १८ ८ अंतिम १ ६ २६ अशुद्ध 'वोच्तिण्णा' हाँ णिoगंथे उत्तरगुणप्रत्वाख्यान आमकल्याण धौर एयमाणत्तयं पहले पहले अठार कुद्वस्स शुद्धि-पत्र पट्टय रइयांचिदिय.... तियँच काय परिणत रुक्षस् पर्शपने इसी प्रकार मृषामनः प्रयोगपरिणत में भी कहना चाहिए। पओगपरिगए णो अपज्जत्तग़ा ऋतु में तमोकम्मं शरीर को उल्लंघन पुच्च व्यारार जीवितों + For Personal & Private Use Only शुद्ध 'वोच्छिण्णा' यहां णिग्गंथे उत्तरगुणप्रत्याख्यान आत्म कल्याण ओर एयमाणत्तियं पहले सण्णापट्ट मुयइ अठारह कुद्धस्स रइय पंचिदिय..... तियंच काय प्रयोगपरिणत रूक्ष- स्पर्शपने पगपरिणए णो अपज्जत्तगाणं ऋजु तवोकम्मं शरीर की. उल्लंघन षडुच्च व्यापार जीवितों की Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रमणिका शतक ७ पृष्ठ | क्रमांक विषय उद्देशक ३ कर्म क्रमांक विषय . पृष्ठ उद्देशक १ . २४७ अनाहारक और अल्पाहारक का | २६२ वर्षादि ऋतुओं में वनस्पति का काल १०७८ आहार २४८ लोक संस्थान २६३ कृष्णादि लेश्या और अल्पाधिक १०८१ २४९ श्रमणोपासक की सांपरायिकी क्रिया २६४ वेदना और निर्जरा .. ११३७ १०८२ २५० श्रमणोपासक के उदार व्रत १०८३ २६५ शाश्वत अशाश्वत नैरयिक ११४३ २५१ श्रमणों को प्रतिलाभने का लाभ १०८५ उद्देशक ४ २५२ कर्म रहित जीव की गति १०८७ २६६ संसार समापनक जीव ११४५ २५३ दुःख से व्याप्त २५४ ऐर्यापथिकी और सांपरायिकी उद्देशक ५ क्रिया | २६७ खेचर तिर्यंच के भेद ११४७ २५५ अंगारादि दोष । १.९५ उद्देशक ६ २५६ क्षेत्रातिक्रान्तादि दोष . १०९९ २५७ शस्त्रातीत आदि दोष २६८ आयु का बंध और वेदन कहां? ११४६ ११०१ (अ) उदगम के सोलह दोष ११०४ २६९ आभोगनिर्वतितादि आयु ११५३ ११५३ २७० कर्कश अकर्कश वेदनीय (ब) उत्पादना के सोलह दोष ११०६ २७१ साता-असाता वेदनीय ११५६ . (स) एषणा के दस दोष ११०७ २७२ भरत में दुषम-दुषमा काल ११५८ उद्देशक २ २७३ छठे आरे के मनुष्यों का स्वरूप ११६२ २५८ सुप्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान ११०९ उद्देशक ७ २५९ मूलोत्तर गुण प्रत्याख्यान १११३ | २७४ संवृत्त अनगार और क्रिया ११६८ २६० प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी ११२० २७५ काम-भोग २६१ क्या जीव शाश्वत है ? ११२८ ] २७६ छद्मस्थ और केवली ११७५ १०९३ For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रमांक विषय २७७ अकाम वेदना का वेदन उद्देशक ८ . २७८ छद्मस्थ सिद्ध नहीं होता २७९ पाप दुःखदायक २८० अप्रत्याख्यानिकी क्रिया आदि २८१ आधाकर्म का फल उद्देशक ९ २८२ असंवृत अनगार उद्देशक १ २८९ पुद्गलों का प्रयोग- परिणतादि स्वरूप २९० मिश्र परिणत पुद्गल विषयक नौ दंडक २१ विस्रसा परिणत पुद्गल २९२ एक द्रव्य परिणाम २९३ दो द्रव्यों के परिणाम २९४ तीन द्रव्यों के परिणाम २९५ चार आदि द्रव्यों के परिणाम २९६ परिणामों का अल्प बहुत्व - उद्देशक २ २९७ आशीविष २९८ छद्मस्थ द्वारा अज्ञेय २९९ ज्ञान के भेद ३०० ज्ञानी अज्ञानी (:) पृष्ठ ११७८ ११८२ ११८३ ११८६ ११८७ ११८८ १२३२ क्रमांक विषय २८३ महाशीला-कंटक संग्राम २८४ रथ- मूसल संग्राम शतक ८ १२५४ १२५५ १२५६ १२७६ १२८१ १२८४ १२८७ उद्देशक १० २८५ कालोदायी की की तत्त्वचर्चा और प्रव्रज्या २८६ पाप और पुण्य कर्म और फल २८७ अग्नि के जलाने बुझाने की क्रिया २८८ अचित्त पुद्गलों का प्रकाश ३०१ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार १३०७ ३०२ ज्ञान - दर्शनादि लब्धि १३२० ३०३ योग उपयोगादि में ज्ञान अज्ञान १३४४ ३०४ ज्ञान की व्यापकता ( विषय द्वार ) १३५१ ३०५ ज्ञानादि का काल १३५७ ३०६. ज्ञान-अज्ञान के पर्याय १३५९ उद्देशक ३ ३०७ वृक्ष के भेद ३०८ जीव प्रदेशों पर शस्त्रादि का स्पर्धा ३०६ आठ पृथ्वियों का उल्लेख उद्देशक ४ १२८८ १२९६ १२९८ १३०४ ३११ भावक के भाण्ड ३१० पांच क्रिया For Personal & Private Use Only पृष्ठ ११९० ११९९ उद्देशक ५ १२१४ १२२१ १२२५ १२२८ १३६७ १३६९ १३७१ १३.७३ १३७४ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१०) . १३७८ १५२९ क्रमांक विषय पृष्ठ | क्रमांक विषय ३१२ श्रावक व्रत के भंग उद्देशक ९ ३१३ आजीविकोपासक और ३२५ प्रयोग और विलसा बंध श्रमणोपासक १४६६ १३८६ ३२६ प्रयोग बंध १४७५ उद्देशक ६ ३२७ शरीर बंध १४८१ ३२८ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध ३१४ श्रमण-अश्रमण के प्रतिलाभ १४९८ ३२६ आहारक शरीर प्रयोग बंध १५११ का फल १३९२ ३३० तेजस्-शरीर प्रयोग बंध ३१५ दूसरों के लिये प्राप्त पिण्ड का १५१५ ३३१ कार्मण-शरीर प्रयोग बंध उपभोग १३९५ ३३२ शरीर बंध का पारस्परिक ३१६ अकृत्य सेवी आराधक ? १३९९ सम्बन्ध ३१७ दीपक जलता है या बत्ती ? १४०६ ३३३ बंधकों का अल्पबहुत्व ३१८ क्रियाएँ कितनी लगती हैं ? १४०७ १५३५ . उद्देशक १० उद्देशक ७ ३३४ श्रुत और शील के आराधक १५३७ ३१९ अन्य तीथिक और स्थविर संवाद १४१५ / ३३५ जघन्यादि आराधना और आराधक १५४१ उद्देशक ८ । ३३६ आराधकों के शेष भव १५४५ ३२० प्रत्यनीक । १४२८ ३३७ पुद्गल का वर्णादि परिणाम १५४७ ३२१ व्यवहार के भेद । ३३८ पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश १५४९ ३२२ ऐर्यापषिक और सांपरायिक ३३९ लोकाकाश और जीव के प्रदेश १५५१ १४३५ ३४० कर्म-वर्गणाओं से आबद्ध जीव १५५२ ३२३ कर्म प्रकृति और परीषह १४५१ ३४१ कर्मों का पारस्परिक संबंध १५५६ ३२४ सूर्य और उसका प्रकाश . १४६२ । ३४२ जीव पुद्गल है या पुद्गली ? १५६५ १४३२ बन्ध For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अ० भा० सुधर्म जैन सं० रक्षक संघ, जोधपुर आगम बत्तीसी प्रकाशन योजना के अन्तर्गत प्रकाशित आगम अंग सूत्र क्रं. नाम आगम १. आचारांग सूत्र भाग - १ - २ २. सूयगडांग सूत्र भाग - १, २ ३. स्थानांग सूत्र भाग - १, २ ४. समवायांग सूत्र ५. भगवती सूत्र भाग १ - ७ ६. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र भाग - १, २ ७. उपासकदशांग सूत्र ८. अन्तकृतदशा सूत्र ६. अनुत्तरोपपातिक दशा सूत्र. १०. प्रश्नव्याकरण सूत्र ११. विपाक सूत्र १. २. ३. ४. उववाइय सुत्त राजप्रश्नीय सूत्र जीवाजीवाभिगम सूत्र भाग - १, २ प्रज्ञापना सूत्र भाग - १,२,३,४ जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति ५. ६ - ७. चन्द्रप्रज्ञप्ति - सूर्यप्रज्ञप्ति ८- १२. निरयावलिका (कल्पिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा) दशवैकालिक सूत्र उत्तराध्ययन सूत्र भाग - १, २ १. २. ३. नंदी सूत्र ४. अनुयोगद्वार सूत्र उपांग सूत्र 1 मूल सूत्र छेद सूत्र १ - ३. त्रीणिछेदसुत्ताणि सूत्र ( दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प, व्यवहार) ४. निशीथ सूत्र १. आवश्यक सूत्र For Personal & Private Use Only मूल्य ५५-०० ६०-०० ६०-०० २५-०० ३००-०० ८०-०० २०-०० २५-०० १५-०० ३५-०० ३०-०० २५-०० २५-०० ८०-०० १६० -०० ५०-०० २०-०० २०-०० ३०-०० ८०-०० २५-०० ५०-०० ५०-०० ५०-०० ३०-०० Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mur . पगडा १५-०० १-०० . . . . आगम बत्तीसी के अलावा संघ के प्रकाशन क्रं. . नाम मूल्य|क्रं. नाम - मूल्य १. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ . १४-००/५१. जिनागम विरुद्ध मूर्ति पूजा १५-०० २. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-०० |५२. बड़ी साधु वंदना १५-०० ३. अंगपविट्ठसुत्ताणि भाग ३ ३०-००/५३. तीर्थकर पद प्राप्ति के उपाय ५-०० ४. अंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८०-०० ५४. स्वाध्याय सुधा ७-०० ५. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग १ ३५-०० | ५५. आनुपूर्वी १-०० ६. अनंगपविट्ठसुत्ताणि भाग २ ४०-००५६. सुखविपाक सूत्र २-०० .७. अनंगपविट्ठसुत्ताणि संयुक्त ८०-०० ५७. भक्तामर स्तोत्र २-०० ८. अनुत्तरोववाइय सूत्र. ३-५०/५८. जैन स्तुति ७-०० ६. आयारो ८-०० ५६. सिद्ध स्तुति ८-०० १०. सूयगडो ६-०० ६०. संसार तरणिका १०-०० ११. उत्तरज्झयणाणि (गुटका) . १०-०० ६१. आलोचना पंचक . . . २-०० १२. दसवेयालिय सुत्तं (गुटका) ६२. विनयचन्द चौबीसी । '१-०० १३. णंदी सुत्तं (गुटका) अप्राप्य ६३. भवनाशिनी भावना । २-०० १४. चउछेयसुत्ताई ६४. स्तवन तरंगिणी ५-०० १५. अंतगडदसा सूत्र ६५. सामायिक सूत्र १६-१८.उत्तराध्ययन सूत्र भाग १,२ ६६. सार्थ सामायिक सूत्र ३-०० १६. आवश्यक सूत्र (सार्थ) ६७. प्रतिक्रमण सूत्र ३-०० २०. दशवैकालिक सूत्र ६८. जैन सिद्धांत परिचय अप्राप्य २१. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग १ ६६. जैन सिद्धांत प्रवेशिका २२. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग २ ७०. जैन सिद्धांत प्रथमा ४-०० १०-०० २३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ३ ७१. जैन सिद्धांत कोविद ३-०० १०-०० ७२. जैन सिद्धांत प्रवीण ४-०० २४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ४ १०-०० ७३. तीर्थंकरों का लेखा . अप्राप्य २५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह संयुक्त १५-०० ७४. जीव-धड़ा २-०० २६. पन्नवणा सूत्र के थोकड़े भाग १ ७५. १०२ बोल का बासठिया ०-५० २७. पनवणा सूत्र के थोकड़े भाग २ ३-०० ७६. लघुदण्डक २८. पनवणा सूत्र के थोकड़े भाग ३ १०-०० ७७. महादण्डक १-०० २६-३१. तीर्थंकर चरित्र भाग १,२,३ १४०-०० ७८. तेतीस बोल २-०० ३२. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग १ ३५-०० ७६. गुणस्थान स्वरूप ३-०० ३३. मोक्ष मार्ग ग्रन्थ भाग २ ८०. गति-आगति १-०० ३४-३६. समर्थ समाधान भाग १,२,३ ८१. कर्म-प्रकृति १-०० ३७. सम्यक्त्व विमर्श ८२. समिति-गुप्ति २-०० ३८. आत्म साधना संग्रह ५३. समकित के ६७ बोल २-२० ३६. आत्म शुद्धि का मूल तत्वत्रयी ८४. पच्चीस बोल ४०. नवतत्वों का स्वरूप १५-०० ५५. नव-तत्त्व, ४१. अगार-धर्म १०-०० ८६. सामायिक संस्कार बोध ४-०० ४२. Saarth Saamaayik Sootra अप्राप्य ८७. मुखवस्त्रिका सिद्धि ३-०० ४३. तत्त्व-पृच्छा १०-०० १८. विद्युत् सचित्त तेऊकाय है ३-०० ४४. तेतली-पुत्र ५०-०० ८९. धर्म का प्राण यतना २-०० ४५. शिविर व्याख्यान १२-०० १०. सामण्ण सहिधम्मो . अप्राप्य ४६. जैन स्वाध्याय माला १८-०० ११. मंगल प्रभातिका १.२५ ४७. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग १ २२-०० ६२. कुगुरु गुर्वाभास स्वरूप ५-०० ४८. सुधर्म स्तवन संग्रह भाग २ १८-०० ६३. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ५ २०-०० ४६. सुधर्म चरित्र संग्रह १०-०० १४. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ६ २०-०० ५०. लोकाशाह मत समर्थन १०-००६५. जैन सिद्धांत थोक संग्रह भाग ७ २०-०० ८-०० । । । । । ३-०० ८-०० ! ! ! ! For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णमोत्युणं समणस्स भगवओ महावीरस्स गणधर भगवत्सुधर्मस्वामि प्रणीत भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशक १. १-१ आहार २ विरइ ३ थावर ४ जीवा ५ पक्खी व ६ आउ ७ अणगारे । ८ छउमत्थ ९ असंवुड १० अण्ण उत्थि दस सत्तमम्मि सए । कठिन शब्दार्थ-असंवुड - असंवृत्त । भावार्थ-१ आहार, २ विरति, ३ स्थावर, ४ जीव, ५ पक्षी, ६ आयुष्य, ७ अनगार, ८ छद्मस्थ, ९ असंवृत और १० अन्य-तीथिक । सातवें शतक में ये दस उद्देशक हैं। - विवेचन-इस सातवें शतक में दस उद्देशक हैं। उनमें से पहले उद्देशक में आहारक और अनाहारक सम्बन्धी वर्णन है। दूसरे उद्देशक में विरति अर्थात प्रत्याख्यान सम्बन्धी वर्णन है। तीसरे उद्देशक में वनस्पति आदि स्थावर जीवों का वर्णन है । चौथे उद्देशक में संसारी जीवों का वर्णन है। पांचवें उद्देशक में खेचर जीवों का वर्णन है । छठे उद्देशक में आयुष्य सम्बन्धी, सातवें उद्देशक में साधु आदि सम्बन्धी, आठवें उद्देशक में छद्मस्थ मनुष्यादि सम्बन्धी, नव उद्देशक में असंवृत अर्थात् प्रमत्त-साधु आदि सम्बन्धी और दसवें उद्देशक में कालोदायी आदि अन्यतीर्थिक सम्बन्धी वर्णन है । For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ अनाहारक और अल्पाहारक का काल अनाहारक और अल्पाहारक का काल २ प्रश्न-तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-जीवे णं भंते ! के समयमणाहारए भवइ । २ उत्तर-गोयमा ! पढमे समए सिय आहारए सिय अणाहारए, बिइए समए सिय आहारए सिय अणाहारए, तइए समए सिय आहारए सिय अणाहारए, चउत्थे समए णियमा आहारए । एवं दंडओ । जीवा य एगिंदिया य चउत्थे समए, सेसा तइए समए । ३ प्रश्न-जीवे णं भंते ! कं समयं सव्वप्पाहारए भवइ ? ३ उत्तर-गोयमा ! पढमसमयोववण्णए वा चरमसमयभवत्थे वा, एत्य णं जीवे सव्वप्पाहारए भवइ । दंडओ भाणियन्वो जाव वेमाणियाणं। कठिन शब्दार्थ-सव्वप्पाहारए-सब से अल्प (अल्पतम) आहार वाला। भावार्थ-२ प्रश्न-उस काल उस समय में गौतमस्वामी ने इस प्रकार पूछा कि-हे भगवन् ! परभव में जाता हुआ जीव, किस समय में अनाहारक (आहार नहीं करने वाला) होता है ? २ उत्तर-हे गौतम ! परभव में जाता हुआ जीव, प्रथम समय में कदाचित् आहारक होता है और कदाचित् अनाहारक होता है। दूसरे समय में कदा. चित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। तीसरे समय में भी कदाचित् आहारक और कदाचित् अनाहारक होता है। परन्तु चौथे समम में नियमा For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ७ उ.०१ अनाहारक और अल्पाहारक का काल ( अवश्य ) आहारक होता है। इस प्रकार नैरयिक आदि चौवीस ही दण्डक में कहना चाहिए । सामान्य जीव और एकेंद्रिय, चौथे समय में आहारक होते हैं । इनके सिवाय शेष जीव, तीसरे समय में आहारक होते हैं । १०७९ ३ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव किस समय में सब से अल्प आहार वाला होता है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! उत्पत्ति के प्रथम समय में और भव (जीवन) के अन्तिम समय में जीव सब से अल्प आहार वाला होता है। इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डक में कहना चाहिए । विवेचन - यहाँ यह प्रश्न किया गया है कि परभव में जाता हुआ जीव, किस समय । में अनाहारक होता है ? इसका उत्तर यह दिया गया कि जब जीव, एक भव की आयुष्य पूर्ण करके ऋजुगति से परभव में जाता है और प्रथम समय में ही वहां उत्पन्न होता है, तब परभव सम्बन्धी आयुष्य के प्रथम समय में ही आहारक होता है । परन्तु जब वक्रगति द्वारा दो समय में उत्पन्न होता है, तब प्रथम समय में अनाहारक होता है और दूसरे समय में आहारक होता है । जब तीन समय में उत्पन्न होता है, तत्र प्रथम के दो समयों में अनाहारक होता है और तीसरे समय में आहारक होता है । जब परभव में चार समय में उत्पन्न होता है, तब प्रथम के तीन समयों में अनाहारक होता है और चौथे समय में आहारक होता है । तीन वक्र ( मोड़) वाली गति में चार समय लगते है । तीन मोड़ इस प्रकार होते हैं; - सनाड़ी से बाहर विदिशा में रहा हुआ कोई जीव, जब अधोलोक से ऊर्ध्वलोक में सनाड़ी से बाहर दिशा में उत्पन्न होता है, तब वह प्रथम समय में त्रिश्रेणी से समश्रेणी में आता है, दूसरे समय में साड़ी में प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है और चौथे समय में सनाड़ी से बाहर निकल कर उत्पत्ति स्थान में पहुँच कर उत्पन्न होता है । इनमें से पहले के तीन समयों में विग्रहंगति होती है । इस विषय में दूसरे आचार्य तो इस प्रकार कहते हैं कि चार वक्र की भी विग्रहगति होती है । यथा - कोई जीव, अधोलोक में त्रसनाड़ी से बाहर विदिशा में रहा हुआ है, वहां से मरकर ऊर्ध्वलोक में त्रसनाड़ी से बाहर विदिशा में उत्पन्न हो, तब पहले समय में विश्रेणी से समश्रेणी में आता है, दूसरे समय में बसनाड़ी में प्रवेश करता है, तीसरे समय में ऊर्ध्वलोक में जाता है, चौथे समय में बसनाड़ी से बाहर निकल कर समश्रेणी में आता है और पाँचवें For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८० भगवती सत्र-श. ७उ.. अनाहारक और अल्पाहारक का काल समय में उत्पत्ति स्थान में जाकर उत्पन्न होता है । इनमें से प्रथम के चार समयों में विग्रहगति होती है । विग्रहगति के इन चार समयों में जीव, अनाहारक होता।" परन्तु यह बात सूत्र में नहीं बतलाई गई है । क्योंकि प्रायः कोई भी जीव, इस तरह से उत्पन्न नहीं होता। जीव (सामान्य जीव) पद और एकेन्द्रिय पद में पूर्वोक्त रीति से समझना चाहिए कि वे चौथे समय में नियमा (नियमत:-अवश्य) आहारक होते है । जीव और एकेन्द्रिय जीवों को छोड़ कर शेष सभी जीव, तीसरे समय में अवश्य ही आहारक होते हैं। इनमें से जो नारकादि त्रस जीव, बस जीवों में ही उत्पन्न होता है, उसका गमनागमन सनाड़ी से बाहर नहीं होता, इसलिए वह तीसरे समय में नियम से आहारक होता है । जैसे कि कोई मत्स्यादि भरतक्षेत्र के पूर्व भाग में रहा हुआ है । वह वहाँ से मरकर जब ऐरक्त क्षेत्र के पश्चिम भाग के नीचे नरक में उत्पन्न होता है, तव एक समय में भरत-क्षेत्र के पूर्वभाग से नीचे उत्पत्तिभाग की समश्रेणि में जाता है, फिर दूसरे समय में पश्चिम में जाता है और तीसरे समय में उत्तर में उत्पत्ति स्थान पर पहुंच कर नरक में उत्पन्न होता है । इन तीन समयों में से प्रथम के दो समयों में अनाहारक रहता है और तीसरे समय में आहारक होता है। इसके बाद यह प्रश्न किया गया है कि-जीव, किस समय में सर्वाल्पाहारी होता है ? उत्तर में कहा गया है कि उत्पत्ति के प्रथम समय में जीव सर्वाल्पाहारी होता है। इसका कारण यह है कि उस समय में आहार ग्रहण करने का हेतुभूत शरीर अल्प होता है। अतः उस समय में सर्वाल्पाहारता होती है । तथा जीवन के अन्तिम समय में अर्थात् वर्तमान आयष्य के अन्तिम समय में जीव, सल्पिाहारी होता है, क्योंकि उस समय में प्रदेशों के संहृत (संकुचित) हो जाने के कारण-शरीर के अल्प अवयवों में जीव के स्थित होजाने के कारण सर्वाल्पाहारता होती है। प्रज्ञापना सूत्र के अठाईसवें पद में आहार के दो भेद बतलाये गये हैं। यथा-आभोगनिर्वतित (इच्छा पूर्वक ग्रहण किया गया) आहार और अनाभोगनिर्वतित (बिमा इच्छा के अनाभोग रूप से अनुपयोगपूर्वक ग्रहण किया हुआ) आहार । इनमें से आभोगनिर्वतित आहार तो नियत समय पर होता है और अनाभोगनिर्वतित आहार उत्पत्ति के प्रथम समय से प्रारम्भ होकर अन्त समय तक प्रति समय निरन्तर होता है। ऊपर जो आहार का कथन किया गया है, वह अनाभोगनिर्वतित आहार के विषय में समझना चाहिए। For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. १ लोक संस्थान लोक संस्थान ४ प्रश्न - किंसटिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ? ४ उत्तर - गोयमा ! सुपट्टगसंठिए लोए पण्णत्ते, हेट्ठा विच्छिष्णे जाव उपिं उड्ढमुइंगागारसंठिए; तंसि य णं सासयंसि लोगंसि हेडा विच्छिसि जाव उपिं उड्ढमुइंगागारसंटियंसि उप्पण्णणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवे वि जाणइ पासइ, अजीवे वि जाणइ पास, तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करेइ | ܐܘܐ कठिन शब्दार्थ - - सुइट्ठगसंठिए - सुप्रतिष्ठक अर्थात् शराव ( सकोरे ) के आकार, उड्ढमुइंगागारसं ठिए - - ऊर्ध्व मृदंग के आकार के समान । भावार्थ - ४ प्रश्न - हे भगवन् ! लोक का संस्थान ( आकार ) किस प्रकार का कहा गया है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! लोक का संस्थान सुप्रतिष्ठक- शराव ( सकोरे ) के आकार है । वह नीचे विस्तीर्ण है यावत् ऊपर ऊर्ध्व मृदंग के आकार संस्थित है । इस नीचे विस्तीर्ण यावत् ऊपर ऊर्ध्वं मृदंग के आकार वाले लोक में, उत्पन्न केवलज्ञान - दर्शन को धारण करने वाले अरिहन्त जिन केवली, जीवों को भी जानते और देखते हैं तथा अजीवों को भी जानते और देखते हैं। इसके पश्चात् वे सिद्ध होते हैं, यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं । विवेचन - पहले प्रकरण में अनाहारकपन का वर्णन किया गया है । अनाहारकपता लोक-संस्थान के वश से होता है । इसलिए अब लोक-संस्थान के विषय में कहा जाता है । लोक का संस्थान शराव के आकार बतलाया गया है । इसका आशय यह है कि-नीचे एक उलटा शराव ( सकोरा ) रखा जाय, फिर उस पर एक सीधा शराव रखा जाय और उस पर एक उलटा शराव रखा जाय। इस तरह उलटे सीधे और उलटे तीन शरावों For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८२ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ ऐपिथिकी और साम्परायिकी क्रिया को रखने से लोक-संस्थान बनता है। लोक का विस्तार मूल में सात रज्जु परिमाण है। ऊपर क्रम से घटते हुए.सात रज्जु की ऊँचाई पर एक रज्जु विस्तार है। फिर क्रम से बढ़ते हुए साढ़े नौ से साढ़े दस रज्जु की उंचाई पर विस्तार पांच रज्जु है। फिर कम से घटते हुए मूल से चौदह रज्जु की ऊँचाई पर एक रज्जु का विस्तार है। मूल से लेकर ऊपर तक की ऊँचाई चौदह रज्जु है । ___ लोक के तीन भेद हैं । उनमें से अधोलोक का आकार (उलटे) शराव जैसा है। तिर्यक् लोक का आकार झालर या पूर्ण चन्द्रमा जैसा है । ऊध्र्वलोक का आकार ऊर्ध्व मृदंग जैसा है। ___ इस लोक में उत्पन्न-ज्ञान-दर्शन-धारक अरिहन्त जिन केवली भगवान् सिद्ध होते है यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं । ऐपिथिकी और साम्परायिकी क्रिया ५ प्रश्न-समणोवासयस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स तस्स णं भंते ! किं इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कन्जइ ? ५ उत्तर-गोयमा ! नो इरियावहिया किरिया कन्जइ, संपराइया किरिया कजइ। प्रश्न-से केणटेणं जाव संपराइया ? उत्तर-गोयमा ! समणोवासयस्स णं सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स आया अहिगरणी भवइ, आयाऽहिगरणवत्तियं य णं तस्स णो इरियावहिया किरिया कजइ, संपराइया किरिया कजइ; से तेणटेणं जाव संपराइया। For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श.७ उ. १ श्रमणोपासक के उदार प्रत १०८३ कठिन शब्दार्थ-सामाइयकडस्स-मामायिक करने वाले, अच्छमाणस्स-बैठे हुए के, संपराइया-कषाय संबंधी, अहिगरणी-अधिकरणी (जीव-वधादि आरम्भ और क्रोधादि कषाय के साधन)। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! श्रमण (साधु) के उपाश्रय में बैठे हुए सामायिक करने वाले श्रमणोपासक (साधुओं का उपासक-श्रावक) को क्या ऐपिथिको क्रिया लगती है, या साम्परायिकी क्रिया लगती है ? । ५ उत्तर-हे गौतम ! ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती, किंतु साम्परायिकी क्रिया लगती है। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर-हे गौतम ! श्रमण के उपाश्रय में बैठे हुए सामायिक करने वाले श्रमणोपासक की आत्मा अधिकरणी (कषाय के साधन से युक्त) है । उसकी आत्मा अधिकरण का निमित्त होने से उसे ऐपिथिको क्रिया नहीं लगती, किंतु साम्परायिकी क्रिया लगती है। इस कारण यावत् साम्परायिकी क्रिया लगती है। विवेचन-जो व्यक्ति सामायिक नहीं किया हुआ है तथा साधु के उपाश्रय में नहीं बैठा हुआ है, उसको साम्परायिकी क्रिया लगती है, किंतु जो व्यक्ति सामायिक करके साधु के उपाश्रय में बैठा हुआ है, क्या उसको भी साम्परायिकी क्रिया लगती है ? यह प्रश्न है । इसके उत्तर में कहा गया है कि जो श्रावक सामायिक करके साधुओं के उपाश्रय में बैठा हुआ है, उसे भी साम्परायिकी क्रिया लगती है। क्योंकि साम्परायिकी क्रिया, कषाय के कारण लगती है। उस श्रावक में कषाय का सद्भाव है । इसलिए उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है, किंतु ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती। श्रमणोपासक के उदार व्रत ६ प्रश्न-समणोवासयस्स णं भंते ! पुवामेव तसपाणसमारंभे पञ्चक्खाए भवइ, पुढविसमारंभे अपञ्चक्खाए भवह; से य पुढविं For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८४ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ श्रमणोपासक के उदार व्रत खणमाणे अण्णयरं तसं पाणं विहिंसेजा, से णं भंते ! तं वयं अइचरइ ? ६ उत्तर-णो इणटे समटे, णो खलु से तस्स अइवायाए आउट्टइ। ... ७ प्रश्न-समणोवासयस्स णं . भंते ! पुव्वामेव वणस्सइसमारंभे पच्चक्खाए, से य पुढविं खणमाणे अण्णयरस्स रुक्खस्स मूलं छिंदेजा, से णं भंते ! तं वयं अइचरइ ? . ७ उत्तर-णो इणटे समढे, णो खलु से तस्स अइवायाए आउट्टइ। कठिन शब्दार्थ-पुवामेव--पहले, खणमाणे--खोदता हुआ, अग्णयरं-दूसरे, वयं अइचरइ--व्रत को अतिचारी करता है, अइवायाए-अतिपात-हिंसा के लिए, आउदृइ-प्रवृत्ति करता है। भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक को पहले से ही त्रस जीवों के वध का प्रत्याख्यान हो और पृथ्वीकाय के वध का प्रत्याख्यान नहीं हो, उस श्रमणोपासक को पृथ्वी खोदते हुए त्रस जीव की हिंसा हो जाय, तो हे भगवन् ! क्या उसके व्रत में अतिचार लगता है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति उस त्रस जीव की हिंसा करने के लिए नहीं होती। ७ प्रश्न- हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक को पहले से ही वनस्पति के वध का प्रत्याख्यान हो और पृथ्वीकाय के वध का प्रत्याख्यान नहीं हो, तो पृथ्वी को खोदते हुए उसके हाथ से किसी वृक्ष का मूल छिद (कट) जाय, तो क्या उसके व्रत में अतिचार लगता है ? For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ७. उ. १ श्रमणों को प्रतिलाभने का लाभ १०८५ ७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है, क्योंकि वह वनस्पति के वध के लिए प्रवृत्ति नहीं करता। विवेचन-जिम श्रावक ने त्रम जीव मारने का त्याग किया है तथा जिस श्रावक ने वनस्पतिकाय के जीवों को मारने का त्याग किया है, तो पृथ्वी खोदते समय उसके हाथ से त्रस जीव की हिंसा हो जाय अथवा किसी वृक्ष की जड़ कट जाय, तो उसके लिये हुए त्याग व्रत में कोई अतिचार नहीं लगता। क्योंकि सामान्यतया देशविरति श्रावक को संकल्पपूर्वक हिंसा का त्याग होता है, इसलिए जिन जीवों की हिंसा का उसने प्रत्याख्यान किया है, उन जीवों की संकल्पपूर्वक हिंसा करने के लिए जबतक वह प्रवृत्ति नहीं करता, तब तक उमके व्रत में दोष नहीं लगता। श्रमणों को प्रतिलाभने का लाभ .: ८ प्रश्न-समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासु-एसणिजेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेमाणे किं लव्भइ ? . . ___८ उत्तर-गोयमा ! समणोवासए णं तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे तहारूवस्स समणस्स वा माहगस्स वा समाहिं उप्पा. एइ, समाहिकारए णं तामेव समाहिं पडिल भइ । ९ प्रश्न-समणोवासए णं भंते ! तहारूवं समणं वा जाव पडिलाभेमाणे किं चयइ ? ९ उत्तर-गोयमा ! जीवियं चयइ, दुच्चयं चयइ, दुक्कर करेइ, दुल्लहं लहइ, बोहिं बुज्झइ, तओ पच्छा सिज्झइ, जाव अंतं करेइ । For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८६ भगवती सूत्र - श. ७८. १ श्रमणो को प्रतिलाभने का लाभ कठिन शब्दार्थ - लग्भइ-प्राप्त करता है, समाहि उप्पाएइ - समाधि (शांति) उत्पन्न करता है, पडिलभइ - प्राप्त करता है, चयइ-छोड़ता है-देता है, दुच्चयं चयइ - कठिनाई से त्यागने योग्य वस्तु का त्याग करता है, बोहि बुज्झइ - बोधि- सम्यग्दर्शन का अनुभव करता है। भावार्थ-८ प्रश्न - हे भगवन् ! तथारूप के अर्थात् उत्तम श्रमण- माहण को प्रासुक और एषणीय अशन-पान खादिम स्वादिम द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को क्या लाभ होता है ? ८ उत्तर - हे गौतम! तथारूप के श्रमण- माहण को यावत् प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक, तथारूप के श्रमण-माहण को समाधि उत्पन्न करता है । उन्हें समाधि प्राप्त कराने वाला वह श्रमणोपासक स्वयं भी समाधि प्राप्त करता है । ९ प्रश्न - हे भगवन् ! तथारूप के श्रमण- माहण को प्रतिलाभित करता हुआ श्रमणोपासक, किसका त्याग करता है ? ९ उत्तर - हे गौतम! वह जीवित (जीवन निर्वाह के कारणभूत अन्नादि ) का त्याग करता है, दुस्त्यज वस्तु का त्याग करता है, दुष्कर कार्य करता है, दुर्लभ वस्तु का त्याग करता है, बोधि ( सम्यग्दर्शन) को प्राप्त करता है । इसके बाद वह सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है । विवेचन तथारूप अर्थात् साधु के गुणों से और वेष से युक्त श्रमण-माहण को प्रासुक अर्थात् निर्जीव और एषणीय ( निर्दोष- दोष रहित ) अशन-पान खादिम स्वादिम प्रतिलाभित करता हुआ (बहराता हुआ) श्रमणोपासक क्या करना है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि वह श्रमण-माहणों को समाधि उत्पन्न करता है और वह स्वयं भी समाधि प्राप्त करता है । वह श्रमणोपासक किसका त्याग करता है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि वह जीवित का त्याग करता है। अशनादि वस्तुएँ जीवन निर्वाह की हेतुभूत हैं। इसलिए अशनादि का दान करता हुआ मानों जीवन का ही दान करता है। क्योंकि अशनादि का दान करना वा कठिन है । अथवा मूलपाठ में आये हुए 'चयइ' आदि क्रियाओं का दूसरा अर्थ किया गया है कि वह कर्मों की दीर्घ स्थिति को ह्रस्व करता है और कर्म द्रव्य सञ्चय का त्याग For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती पुत्र श. ७ उ. १ कर्म राहत जीब की गति करता है । फिर अपूर्वकरण के द्वारा ग्रन्थिभेद करता है, फिर अनिवृत्तिकरण को प्राप्त कर सम्यक्त्व लाभ करता है। इसके बाद सिद्ध होता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता है । 'दानविशेष' से 'बोधिगुण' की प्राप्ति होती है । यह बात दूसरी जगह भी कही गई है । यथा अनुकंप अकामणिज्जर, बालतवे दाणविणए' अर्थ - अनुकम्पा, अकामनिर्जरा, बालतप, दान, विनय आदि से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है । यथा " १०८७ केइ तेणेव भवेण निग्बुया, सव्वकम्मओ मुक्का । केइ तइयभवेणं, सिज्झिस्संति जिणसगासे ॥ अर्थ-कितनेक जीव तो उसी भव में सभी कर्मों से रहित होकर मुक्त हो जाते हैं और कितनेक जीव, महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर तीसरे भव में सिद्ध हो जाते हैं । कर्म रहित जीव की गति १० प्रश्न - अत्थि णं भंते ! अकम्मस्स गई पण्णायइ ? १० उत्तर - हंता, अस्थि । १ ११ प्रश्न - कहं णं भंते ! अम्मस्स गई पण्णाय ? ११ उत्तर - गोयमा ! णिस्संगयाए, णिरंगणयाए, गहपरिणामेणं, बंधणळेयणयाए, णिरिंधणयाए, पुव्वप्पओगेणं अकम्मस्स गई पण्णाय । १२ प्रश्न - कहं णं भंते ! णिस्संगयाए, णिरंगणयाए, गहपरिणामेणं अकम्मर गई पण्णाय ? १२ उत्तर - से जहाणामए केई पुरिसे सुक्कं तुंबं णिच्छिड्ड For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८८ भगवती सूत्र - श. ७ उ. १. कर्म रहित जीव की गति णिरुवहयं आणुपुवीए परिक्रम्मेमाणे परिकम्मेमाणे दव्भेहि य कुहिय वेढे, वेढेत्ता, अट्ठहिं मट्टियालेवेहिं लिंपइ लिंपित्ता उन्हे दलयह, भूइं भूइं सुक्कं समाणं अत्थाहमतारमपोरिसियंसि उदगंसि पक्खिवेज्जा, सेणूं गोयमा ! से तुंबे तेसिं अटुण्हं मट्टियालेवाणं गुरुयत्ताए, भारियत्ताए, गुस्संभारियत्ताए सलिलतलमइवइत्ता अहे धरणितलपड़ट्टाणे भवइ ? हंता भवइ । अहे णं से तुंबे तेसिं अट्टहं मट्टियावाणं परिक्खएणं धरणितलमइवइत्ता उपिं सलिलतलपड़ट्टाणे भवइ ? हंता भवइ । एवं खलु गोयमा ! णिस्संगयाए, णिरं गणयाए, गइपरिणामेणं अकम्मरस गई पण्णाय । कठिन शब्दार्थ- पण्णा इ - स्वीकृत है, णिस्संगयाए - निःसंगता से, रिंगणयाएनीरागता से, रिघणयाए - निरिन्धनता से अर्थात् कर्मरूप ईन्धन से रहित होने से, पुण्वओगे - पूर्व प्रयोग से, णिच्छिहुं-छिद्र रहित, णिरुवहयं जो टुटा हुआ नहीं हो, परिकम्मेमाणे - संस्कार करके, वेढेइ-बाँधे, मट्टियालेवेहि मिट्टी के लेप से, उण्हे दलयइ - धूप में रखकर सुखावे, भूइं भू-भूयः भूयः - बारम्बार, अत्याहमता रमपोरिसिघंसि उदगंसि - अथाह और तिरा नहीं जा सके ऐसे पुरुष प्रमाण से भी अधिक गहरे पानी में, पक्खिवेज्जा - प्रक्षेप करे, सलिलतलमइबइत्ता-पानी के ऊपर के तल को छोड़कर, अहे धरणितलपट्ठाणे-नीचे पृथ्वी तल पर बैठे । भावार्थ - १० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कर्म रहित जीव की गति होती है ? १० उत्तर - हां, गौतम ! कर्म रहित जीव की गति होती है । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! कर्म रहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? ११ उत्तर - हे गौतम ! निःसंगपन से, नीरागपन से, गतिपरिणाम से, बन्धन का छेद होने से, निरिन्धन होने से अर्थात् कर्मरूपी ईन्धन से मुक्त होने से और पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव की गति होती है । For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र- श. ७ उ. १ कर्म रहित जीव की गति १०८५ १२ प्रश्न-हे भगवन् ! निःसंगपन से, नीरागपन से और गतिपरिणाम से कर्म रहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! जैसे कोई छिद्र रहित और निरुपहत (बिना टूटा हुआ) सूखा तुम्बा हो, उस सूखे हुए तुम्बे पर क्रमपूर्वक अत्यन्त संस्कारयुक्त डाभ और कुश लपेट कर, उस पर मिट्टी का लेप कर दिया जाय और फिर उसे धूप में सूखा दिया जाय । इसके बाद क्रमशः डाभ और कुश लपेटते हए आठ बार उसके ऊपर मिट्टी का लेप कर दिया जाय । इसके बाद थाह रहित अतरणीय और पुरुष प्रमाण से अधिक गहरे पानी में उसे डाल दिया जाय, तो हे गौतम ! वह तुम्बा मिट्टी के आठ लेपों से भारी हो जाने एवं अधिक वजन वाला हो जाने से क्या पानी के उपरितल को छोड़कर नीचे पथ्वीतल पर जा बैठता है ? गौतमस्वामी ने कहा-हाँ भगवन् ! वह तुम्बा नीचे पृथ्वीतल पर बैठ जाता है। भगवान् ने पूछा हे-गौतम ! पानी में पड़े रहने के कारण ज्यों ज्यों उसका लेप गल कर उतरता जाय यावत् उस पर से आठों लेप उतर जाय, तो क्या वह तुम्बा पृथ्वीतल को छोड़ कर पानी के उपरितल पर आ जाता है ? गौतमस्वामी ने कहा-हां, भगवन् ! वह पानी के उपरितल पर आ जाता है। भगवान ने फरमाया-हे गौतम ! इसी प्रकार निःसंगपन से, नीरागपन से और गतिपरिणाम से कर्म रहित जीव की भी गति होती है। - १३ प्रश्न-कहं णं भंते ! बंधणछेयणयाए अकम्मस्स गई पण्णायइ ? ___ १३ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए कलसिंबलिया इ वा, मुग्गसिंबलिया इ वा, माससिंबलिया इ वा, सिंबलिसिंबलिया इ वा, For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९०. भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ कर्म रहित जीव की गति एरंडमिंजिया इ वा उण्हे दिण्णा सुका समाणी फुडित्ता णं एगंतमंतं गच्छइ, एवं खलु गोयमा ! ० । १४ प्रश्न-कहं णं भंते ! णिरिंधणयाए अकम्मस्स गई ? ० । १४ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए धूमस्स इंधणविप्पमुक्कस्स उड्ढं वीससाए णिवाघाएणं गई पवत्तह, एवं खलु गोयमा ! । १५ प्रश्न-कहं णं भंते ! पुब्बप्पओगेणं अकम्मस्म गई. पण्णायइं? . १५ उत्तर-गोयमा ! से जहाणामए कंडस्स कोदंडविप्पमुक्कस्स लक्खाभिमुही णिवाघाएणं गई. पवत्तइ, एवं खलु गोयमा ! पुब्बप्पओगेणं अकम्मस्स गई पण्णायइ, एवं खलु गोयमा ! णिस्संगयाए, णिरंगणयाए जाव पुबप्पओगेणं अकम्मस्स गई पण्णायइ । कठिन शब्दार्थ-कलसिंबलिया-मटर या बटले की फली, एरंडमिजिया-एरण्ड का बीज, फुडित्ता-फूटकर, एगंतमंतं--एकान्त में, इंधणविप्पमुक्कस्स-ईंधन से मुक्तछुटे हुए, णिव्याघाएणं--निराबाध होकर गइपवत्तह-गति होती है, कंडस्स--बाण की, कोदंडविप्पमुक्कस्स--धनुष से छुटे हुए, लक्खाभिमुही--लक्ष्य की ओर । १३ प्रश्न- हे भगवन् ! बन्धन का छेद होने से कर्म रहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? १३ उत्तर-हे गौतम! जैसे कोई मटर की फली, मूंग की फली, उड़द को फली, शिम्बलि अर्थात् शेमल की फली और एरण्ड का फल, धूप मे रख कर सुखाया जाय । सूख जाने पर वह फूट जाता है और उसमें का बीज उछल कर दूर जा गिरता है । हे गौतम ! इसी प्रकार कर्मरूप बन्धन का छेद हो जाने For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ७ उ. १ दुःख में व्याप्त पर, कम रहित जीव की गति होती है। . १४ प्रश्न-हे भगवन् ! निरिन्धन (कर्मरूपो इंधन से रहित) होने से कर्म रहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? १४ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार इंधन से छूटे हुए बूंए की गति, किसी प्रकार की रुकावट के बिना-स्वाभाविक रूप से ऊपर की ओर होती है, इसी प्रकार हे गौतम ! कर्मरूप इंधन से रहित होने से, कर्म रहित जीव की गति होती है। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! पूर्व-प्रयोग से कर्म रहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार धनुष से छूटे हुए बाण की गति, किसी भी प्रकार की रुकावट के बिना लक्ष्याभिमुख होती है, इसी प्रकार हे गौतम ! पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव की गति होती है। हे गौतम ! इस प्रकार निःसंगता से, नीरागता से, यावत् पूर्व प्रयोग से कर्म रहित जीव की गति होती है। विवेचन--पूर्व प्रकरण में अकर्मन्व का कथन किया गया है । अतः इस प्रकरण में भी अकर्मत्व विषयक कथन किया जाता है। कर्म रहित जीव की ऊर्ध्वगति होने में निःसंगता, नीरागता (मोह रहितता) गतिपरिणाम, बन्धनविच्छेद, निरिन्धनता और पूर्वप्रयोग, ये छह कारण हैं । इन छह कारणों से कर्म रहित जीव की गति किस प्रकार होती है ? इसके लिए मूल में तुम्बा, मूंगादि की फली, एरण्डफल, धूम, बाण आदि के उदाहरण देकर बतलाया गया है, जिससे विषय स्पष्ट और सुगम हो गया है । दुःख से व्याप्त १६ प्रश्न-दुक्खी णं भंते ! दुक्खेणं फुडे, अदुक्खी दुक्खेणं फुडे ? For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१२ भगवती सूत्र - श. ७ उ. १ दुःख से व्याप्त १६ उत्तर - गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुडे, णो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे । १७ प्रश्न - दुक्खीणं भंते! णेरइए दुक्खेणं फुडे, अदुक्खी dese दुक्खेणं फुडे ? १७ उत्तर - गोयमा ! दुक्खी रइए दुक्खेणं फुडे, णो अदुक्खी रए दुक्खेणं फुडे । एवं दंडओ, जाव वेमाणियाणं । एवं पंच दंडगा यव्वा - १ दुक्खी दुक्खेणं फुडे, २ दुक्खी दुक्खं परियायह ३. दुक्खी दुक्ख उदीरेइ, ४ दुक्खी दुक्ख वेएइ, ५ दुक्खी दुक्ख णिज्जरेइ | कठिन शब्दार्थ--फुडे--स्पृष्ट, परियाय-- ग्रहण करता है । भावार्थ - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या दुखी जीव, दुःख से व्याप्त होता है, या अदुखी ( दुःख रहित ) जीव, दुःख से व्याप्त होता है ? १६ उत्तर-हे गौतम ! दुखी जीव हो दुःख से व्याप्त होता है, अदुखी जीव, दुःख से व्याप्त नहीं होता । १७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या दुखी नैरयिक, दुःख से व्याप्त होता है, या अदुखी नैरयिक दुःख से व्याप्त होता है ? दण्डक १७ उत्तर - हे गौतम ! दुखी नैरयिक, दुःख से व्याप्त होता है, अदुखी नैरयिक, दुःख से व्याप्त नहीं होता। इस तरह वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही में कहना चाहिए । इस तरह पांच दण्डक ( अलापक) कहने चाहिए । यथा - १ दुःखी, दुःख से व्याप्त होता है, २ दुःखी, दुःख को ग्रहण करता है, ३ दुःखी दुःख को उदीरता है ( उदीरणा करता है), ४ दुःखी दुःख को वेदता और ५ दुःखी दुःख को निर्जरता है । For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. १ ऐर्यापथिकी और सांपरायिकी क्रिया विवेचन-- पूर्व प्रकरण में अकर्मत्व का कथन किया गया है। अब इस प्रकरण में अकर्मत्व से विपरीत कर्मत्व का कथन किया जाता है । यहाँ दुःख के कारणभून मिथ्यात्वादिक कर्म को भी 'दुःख' शब्द से कहा गया है । इसलिए यहाँ ' दुःखी' शब्द का अर्थ है- 'सकर्मक जीव' । सकर्मक जीव ही कर्म से स्पृष्ट (बद्ध ) होता है, जो कर्म रहित है वह कर्म से स्पृष्ट नहीं होता । अतएव सिद्ध जीव कर्म से स्पृष्ट नहीं होते, क्योंकि वे कर्म- रहिन होते हैं। सकर्मक जीव ही कर्मों को निधत्तादि करता है, उदारता है. वेदता है और निर्जरता है ।. कर्मों का स्पर्श (बद्ध होना ), ग्रहण, उदीरणा, वेदना और निर्जरा, ये पांच बातें सकर्मक जीव में ही होती हैं, अकर्मक जीव में नहीं। यदि अकर्मक जीव में भी ये पांच बातें हों, तो सिद्ध भगवान् में भी इनका प्रसंग होगा, किन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिए सिद्ध भगवान् में उपरोक्त पाँचों बातें नहीं होती । ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रिया १८ प्रश्न - अणगारस्स णं भंते! अणाउतं गच्छमाणस्स वा, चिट्टमाणस्स वा, णिसीयमाणस्स वा, तुयट्टमाणस्स वा, अणाउतं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गेण्हमाणस्स वा, णिक्खिवमाणस्स वा तस्स णं भंते! किं इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ ? १८ उत्तर - गोयमा ! णो इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जइ । प्रश्न-से केणट्रेणं ? उत्तर - गोयमा ! जस्सं णं कोह- माण-माया लोभा वोच्छिष्णा भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, णो संपराइया किरिया 1 १०६३ For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९४ भगवती- -श ७ उ १ ऐर्यापथिकी और साम्परायिकी क्रिया कज्जह: जस्स णं कोह- माण- माया लोभा अवोच्छिष्णा भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जर, णो इरियावहिया किरिया कज्जह; अहासुतं रीयमाणस्स हरियावहिया किरिया कज्जह, उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जह, से णं उस्सुत्तमेव रीयइ से तेणट्टेणं । कठिन शब्दार्थ - अनाउस - उपयोग रहित, चिट्ठमाणस्स खड़े रहते ठहरते, निसीयमाणस्स - बैठते, तुयट्टमाणस्स - सोते हुए के, परिग्गहं-- पात्र पायपुंछनपादप्रोंछन- रजोहरण, गेण्हमाणस्स – ग्रहण करते हुए, णिक्खिवमाणस्स — रखते हुए, वोच्छिण्णा -- नष्ट होगए, क्षय होगए, अहासुतं - यथासूत्र - सूत्रानुसार, रीयमाणस्सकरनेवाले- बरतने वाले, उस्सुतं -- उत्सूत्र - ( सूत्र विरुद्ध ) । भावार्थ- १८ प्रश्न - हे भगवन् ! बिना उपयोग गमन करते हुए, खड़े रहते हुए, बैठते हुए, सोते हुए और इसी प्रकार बिना उपयोग के वस्त्र, पात्र, कम्बल और पादप्रच्छन ( रजोहरण ) ग्रहण करते हुए अनगार को क्या ऐर्याafrat क्रिया लगती है या साम्परायिकी क्रिया लगती है ? १८ उत्तर - हे गौतम! ऐर्यापथिकी क्रिया नहीं लगती, साम्परायिकी क्रिया लगती है ? प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर - हे गौतम! जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ व्युच्छिल ( अनुदित - उदयावस्था में नहीं रहे हैं) होगये हैं, उसको ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती । जिस जीव के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारों व्युच्छिन्न (अनुदित ) नहीं हुए, उसको साम्परायिकी क्रिया लगती है, ऐर्याथिक क्रिया नहीं लगती। सूत्र ( आगम ) के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले अनगार को ऐर्यापfest क्रिया लगती है और सूत्र से विपरीत प्रवृत्ति करने वाले अनगार को साम्परायिकी क्रिया लगती है। उपयोग रहित साधु, सूत्र से विपरीत, प्रवृत्ति करता है । इसलिए हे गौतम ! उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है । For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवतो सूत्र-श. ७ उ. १ अगारादि दोष १०९५ विवेचन-यहां मूलपाठ में वोच्तिण्णा' शब्द दिया है, जिसका अर्थ 'क्षीण और अनुदित' होता है, किन्तु टीकाकार ने इसका अर्थ केवल अनुदित लिखा है । यहाँ 'क्षीण और अनुदित' ये दोनों अर्थ रखने से ही संगति ठीक बैठ सकती है, क्योंकि ग्यारहवें उपशान्तमोहनीय गुणस्थान, बारहवें क्षीणमोहनीय गुणस्थान और तेरहवें सयोगी केवली गुणस्थान में, केवल ऐपिथिकी क्रिया पाई जाती है। इनमें से बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में तो कषाय का सर्वथा क्षय हो चुका है और ग्यारहवें गुणस्थान में कषाय का क्षय नहीं हो र, उपशम होता है अर्थात् कषाय उदयावस्था में नहीं रहता। अतः 'वोच्छिण्णा' शब्द के हहां 'अनुदित और क्षीण' ये दोनों अर्थ लेना ही संगत है । अंगारादि दोष १९ प्रश्न-अह भंते ! सइंगालस्स, सधूमस्स, संजोयणादोसदुट्ठस्स पाण-भोयणस्स के अटे पण्णत्ते ? . .. १९ उत्तर-गोयमा ! जे णं णिगंथे वा णिग्गंथी वा फासु. एसणिजं असण-पाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहेत्ता मुच्छिए, गिद्दे, गढिए, अझोपवण्णे आहार आहारेइ, एस णं गोयमा ! सइंगाले पाण-भोयणे। जे णं णिग्गथे वा, णिग्गंथी वा फासु-एसणिजं असणपाण-खाइम-साइमं पडिग्गाहित्ता महयाअप्पत्तियं कोहकिलामं करेमाणे आहारं आहारेइ एस गं गोयमा ! सधूमे पाण-भोयणे । जेणं णिग्गंथे वा २ जाव पडिग्गाहेत्ता गुणुप्पायणहेउं अण्णदव्वेणं सद्धि संजोएत्ता आहारं आहारेइ, एस णं गोयमा! संजोयणादोसट्टे पाणभोयणे । एस णं गोयमा ! सइंगालस्स, सघूमस्स; संजोयणादोस For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ अंगारादि दोष दुटुस्स पाण-भोयणस्स अट्टे पण्णत्ते । २० प्रश्न-अह भंते ! वीतिंगालस्स, वीयधूमस्स, संजोयणादोस. विप्पमुक्कस्स पाण-भोयणस्स के अटे पण्णत्ते ? . २० उत्तर-गोयमा ! जे णं णिग्गंथे वा जाव पडिग्गाहेत्ता अमुच्छिए जाव आहारेइ; एस णं गोयमा ! वीतिंगाले पाण-भोयणे । जे णं णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा जाव पडिग्गाहेत्ता णो महयाअप्पत्तियं जाव आहारेइ, एस णं गोयमा ! वीयधूमे पाण-भोयणे। जे णं णिग्गथे वा णिग्गंथी वा जाव पडिग्गाहेत्ता जहा लधं तहा आहारं आहारेइ, एस णं गोयमा ! संजोयणादोसविप्पमुक्के पाण-भोयणे । एस णं गोयमा ! वीतिंगालस्स, वीयधूमस्स संजोयणादोसविप्पमुक्कस्स पाण-भोयणस्स अट्टे पण्णत्ते । कठिन शब्दार्थ-सइंगालस्स-अंगार दोष, संजोयणादोसदुद्रुस्स- आहार में स्वाद के लिए कुछ मिलाने के दोष से दुष्ट हुए, पाणभोयणस्स-भोजनपानी, गढिए-स्नेह युक्त, अज्झोववण्णे-अध्युपपन्न-मोह में एकाग्रचित्त, महयाअप्पत्तियं-अत्यंत अरतिपूर्वक -खिन्न होकर, कोहकिलाम-क्रोधाभिभूत होकर, गणप्पायणहेर्छ-स्वाद उत्पन्न करने के लिए, वीतिगालस्स-अंगार दोष रहित। भावार्थ-१९ प्रश्न -हे भगवन् ! अंगार (इंगाल) दोष, धूमदोष और संयोजना दोष से दूषित पान-भोजन (आहारपानी) का क्या अर्थ है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! कोई निर्ग्रन्थ साधु अथवा साध्वी, प्रासुक और एषगीय अशन पान खादिम और स्वादिम रूप आहार को ग्रहण करके उसमें मूच्छित, गृद्ध, प्रथित और आसक्त होकर आहार करता है, तो हे गौतम ! यह अंगार दोष से दूषित आहार-पानी कहलाता है। कोई निन्य साधु या साध्वी For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ अंगारादि दोष १०९७ प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिम-स्वादिम रूप आहार ग्रहण करके अत्यन्त अप्रीतिपूर्वक, क्रोध से खिन्न होकर आहार करता है, तो हे गौतम ! यह 'धूम' दोष से दूषित अशन-पान-भोजन कहलाता है। कोई निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी, प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिम-स्वादिम रूप आहार ग्रहण करके उसमें स्वाद उत्पन्न करने के लिए दूसरे पदार्थों के साथ संयोग करके आहार करता है, तो हे गौतम ! यह संयोजना' दोष से दूषित पान-भोजन कहलाता है । हे गौतम ! इस प्रकार अंगार-दोष, धूम-दोष और संयोजना दोष से दूषित पान. भोजन का अर्थ कहा गया हैं। २० प्रश्न-हे भगवन् ! अंगार-दोष, धूम-दोष और संयोजना दोष, इन तीन दोषों से रहित पान-भोजन का क्या अर्थ है ? २० उत्सर-हे गौतम ! जो कोई निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी यावत् आहार पानी को ग्रहण करके मूळ रहित आहार करता है, तो हे गौतम ! बह अंगार दोष रहित पान-भोजन कहलाता है । जो निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी यावत् अशनाशिको प्रहण करके अत्यन्त अप्रीतिपूर्वक यावत् आहार नहीं करता है, तो हे गौतम ! यह धूमदोष रहित पान-भोजन कहलाता है । जो कोई निम्रन्थ साधु या साध्वी यावत् अशनादि को ग्रहण करके जैसा मिला है, वैसा आहार करता है, किन्तु स्वाद के लिए दूसरे पदार्थों का संयोग नहीं करता, तो हे गौतम ! यह संयोजना दोष रहित पानमो नन कहलाता है। इस प्रकार अंगारदोष, धूमदोष और संयोजनादोष, इन तीन दोषों से रहित पान-मोजन का अर्थ है। र विवेचन-गवेषणेषणा और ग्रहणेषणा द्वारा प्राप्त निर्दोष आहारादि को खाते समय माण्डला के पांच दोषों को टालकर उपभोग करना-प्रासषणा है । ग्रासषणा के पांच दोष ये हैं;-१ अंगार, २ धूम, ३ संयोजना, ४ अप्रमाण और ५ अकारणः। इन दोषों का विचार साध-मण्डली में बैठ कर भोजन करते समय किया जाता है। इसलिए ये 'माण्डला' के दोष भी कहे जाते हैं । इनका अर्थ इस प्रकार है (१) अंगार दोष-स्वादिष्ट और सरस आहार करते हुए आहार की या दाता की प्रशंसा करते हुए आहार करना-'अंगार दोष' है । जैसे अग्नि से जला हुआ खदिर आदि For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०९८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ अंगारादि दोष . ईन्धन, अंगारा (कोयला) हो जाता है, उसी प्रकार उक्त रागरूपी अग्नि से, चारित्ररूपी ईन्धन जल कर कोयले की तरह हो जाता है अर्थात् राग से चारित्र का नाश हो जाता है। (२) धूम-विरस आहार करते हुए आहार की या दाता की द्वेषवश निन्दा करना अर्थात् कुराहना करते हुए आहार करना-'धूम दोष' है । यह द्वेषभाव, साधु के चारित्र को जलाकर सधूम काष्ठ की तरह कलुषित करने वाला है। (३) संयोजना-उत्कर्षता पैदा करके के लिए, एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य के साथ संयोग करना-'संयोजना' दोष है। जैसे रस लोलुपता के कारण दूध, शक्कर, घी आदि द्रव्यों को स्वाद के लिये मिलाना । (४) अप्रमाण-शास्त्र में वर्णित प्रमाण से अधिक आहार करना-'अप्रमाण' दोष है। (५) अकारण-साधु को छह कारणों से आहार करने की आज्ञा है । उन छह कारणों के सिवाय बल-वोर्यादि की वृद्धि के लिए आहार करना-'अकारण' दोष है।। . यहां तीन दोषों का निर्देश किया गया है । 'अकारण' दोष का समावेश इन्हीं में . कर दिया गया है । अप्रमाण दोष का वर्णन आग दिया जायगा। ___इन पांच दोषों को टालकर साधु को आहार करना चाहिए । आहार का प्रमाण बतलाने के लिए 'कुक्कुटी अण्डक प्रमाण मात्र' शब्द दिया है । टीकाकार ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है -कुक्कुटी (मुर्गी) के अण्डक प्रमाण का एक कवल समझना चाहिए। ऐसे बत्तीस कवल प्रमाण, पुरुष का आहार माना गया है । अथवा-कुटो का अर्थ है-झोंपड़ी। जीवरूप पक्षी के लिए आश्रयरूप होने से यह शरीर उसके लिए झोंपड़ी है । यह शरीररूपी कुटी अशुचिप्रायः है. इसलिए यह 'कुकुटी' कहलाता है । इस कुकुटी का उदरपूरक (मुखमुख में सुगमता पूर्वक जाने वाले) आहार को 'कुकुटी अण्डक' कहते हैं। इसका प्रमाण 'कुकुटी अण्डक प्रमाण' कहलाता है । इसका तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष का जितना आहार होता है, उसके बत्तीसवें भाग को 'कुकुटी अण्डक प्रमाण' कहते हैं । इस व्याख्यानुमार यह समझना चाहिए कि यदि कोई पुरुष अपने हाथ से चौसठ कवल (ग्रास) भी ले और उतने आहार से उसके उदर (पेट) की पूर्ति होती है, तो उतना आहार उसके लिए 'प्रमाण प्राप्त' आहार कहलाता है । तात्पर्य यह है कि जिस पुरुष का जितना आहार है अर्थात् जितने आहार से उसकी उदरपूर्ति होती है. उस आहार को वह अपने हाथ द्वारा कितने ही ग्रास से मुख में क्यों न रखे, किन्तु शास्त्रीय भाषा में वह आहार 'बत्तीस कवल प्रमाण' कहलाता है । उस आहार का चतुर्थांश (चौथा हिस्सा) खाना 'अल्पाहार' For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ७ उ. १ क्षेत्रातिक्रान्तादि दोष १०९९ ऊनीदरो है । बारह कवलप्रमाण आहार करना ढाई-भाग ऊनोदरी है । उस आहार का अर्धांश (आधा भाग) खाना 'द्विभाग प्राप्त' ऊनोदरी है। उस आहार का तीन चौथाई भाग खाना 'अवमोदरिका' है अर्थात् चतुर्थांश ऊनोदरी है और अपनी जितनी खुराक है उतना आहार करना 'प्रमाण प्राप्त' आहार कहलाता है । इससे एक कवल भी कम आहार करने वाला मुनि 'प्रकाम-रस-भोजी' नहीं कहलाता। क्षेत्रातिक्रान्तादि दोष २१ प्रश्न-अह भंते ! खेत्ताइक्कंतस्स, कालाइक्कंतस्स, मग्गाइ. किंतस्स पमाणाइकंतस्स पाण-भोयणस्स के अटे पण्णत्ते ? . २१ उत्तर-गोयमा ! जे णं णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा फासुएसणिजं असण-पाण-खाइम-साइमं अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहेत्ता उग्गए सूरिए आहारं आहारेइ, एस णं गोयमा ! खेत्ताइक्कते पाण-भोयणे । जे णं णिग्गंथे वा जाव साइमं पढमाए पोरिसीए पडिग्गाहेत्ता पच्छिमं पोरिसिं उवायणावेत्ता आहारं आहारेइ, एस णं गोयमा ! कालाइक्कते पाण-भोयणे । जे णं णिग्गंथे वा जाव साइमं पडिग्गाहित्ता परं अद्धजोयणमेराए वीइक्कमावइत्ता आहारमाहारेइ, एस णं गोयमा ! मग्गाइक्कंते पाण-भोयणे । जे णं णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा फासु-एसणिजं जाव साइमं पडिग्गाहित्ता परं बत्तीसाए कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ताणं कवलाणं आहारं आहारेइ, एस णं गोयमा ! पमाणाइक्कते पाण-भोयणे । अट्ठ For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०० भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ क्षेत्रातिक्रान्तादि दोष कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अवड्ढोमोयरिए, सोलस कुक्कुडिअंडगपमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे दुभागप्पत्ते, चउव्वीसं कुक्कुडिअंडगपमाणे जाव आहारं आहारेमाणे ओमोयरिए, बत्तीसं कुक्कुडिअंडगमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे पमाणपत्ते, एत्तो एक्केण वि घासेणं ऊणगं आहारं आहारेमाणे समणे णिग्गंथे णो पकामरसभोईत्ति वत्तव्वं सिया। एस गं गोयमा ! खेत्ताइक्कंतस्स, कालाइक्कंतस्स, मग्गाइक्कंतस्स पमाणाइक्कंतस्स पाण-भोयणस्स अट्टे पण्णत्ते । कठिन शब्दार्थ-खेताइक्कंतस्स-क्षेत्रातिक्रान्त, अणुग्गए सूरिए-सूर्य के बिना उदित हुए, उवायणावेता-रखकर, परं अजोयणमेराए बोइक्कमावइत्ता-आधयोजन (दो कोस) की मर्यादा का उल्लंघन करके, कुक्कुडिअंडगपमाणे-कुक्कुटी (मुर्गी) के अंडे के नराबर, अवड्डोमोपरिए-अपार्च ऊनोदरिका, दुभागप्पत्ते-द्विभाग प्राप्त, ओमोयरिए-ऊनोदरिका, पमाणपत्ते-प्रमाणप्राप्त (प्रमाण के अनुसार) घासेणं-ग्रास, ऊणगं-कम, पकामरसमोईप्रकामरस भोजी (अत्यंत मधुरादि रस का खाने वाला)। भावार्थ-२१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिकान्त पान-भोजन का क्या अर्थ है ? २१ उत्तर-हे गौतम ! जो कोई निग्रंथ साधु या साध्वी, प्रासुक और एषणीय अशन-पान-खादिम और स्वादिम, इन चार प्रकार के आहार को सूर्योदय से पूर्व ग्रहण करके सूर्योदय के पीछे खाता है, तो हे गौतम ! यह'क्षेत्रातिक्रान्त पान-भोजन' कहलाता है। जो कोई निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी यावत् आहार को प्रथम पहर में ग्रहण करके अन्तिम पहर तक रखकर खाता है, तो हे गौतम ! यह 'कालातिकान्त पानभोजन' कहलाता है । जो कोई निर्ग्रन्थ साधु For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ १ शस्त्रातीत आदि दोप . या साध्वी यावत् आहार को ग्रहण करके आधे योजन की मर्यादा का उल्लंघन करके खाता है, तो हे गौतम ! यह मार्गातिक्रान्त पान-भोजन कहलाता है । जो कोई निर्ग्रन्थ साधु या साध्वी यावत् आहार को ग्रहण करके कुक्कुटी अण्डक प्रमाण बत्तीस कवल ( ग्रास) से अधिक खाता है, तो हे गौतम ! यह प्रमाणाति. कान्त पान- भोजन कहलाता है । कुक्कुटीअण्डक प्रमाण आठ कवल का आहार करने वाला साधु 'अल्पाहारी' कहलाता है। कुवकुटी अण्डक प्रमाण बारह कवल का आहार करने वाले साधु के 'किञ्चिन्न्यून अर्ध ऊनोदरिका' होती है। कुक्कुटी अण्डकप्रमाण सोलह कवल का आहार करने वाले साधु के 'अर्ध ऊनोदरिका' होती है । अर्थात् वह साधु द्विभाग प्राप्त (अर्धाहारी) कहलाता है। कुक्कुटी rush प्रमाण चौवीस कवल का आहार करने वाले साधु के 'ऊनोदरिका' होती - है कुक्कुटी अण्डक प्रमाण बत्तीस कवल का आहार करने वाला साधु 'प्रमाण प्राप्त' (प्रमाणयुक्त) आहार करने वाला कहलाता है । बत्तीस कवल से एक. भी कवल कम आहार करने वाला साधु 'प्रकाम-रस- भोजी ' ( अत्यन्त मधुरादि रस का भोक्ता ) नहीं कहलाता। इस प्रकार क्षेत्रातिक्रान्त, कालातिक्रान्त, मार्गातिक्रान्त और प्रमाणातिक्रान्त पान- भोजन का अर्थ कहा गया है । विवेचन - क्षेत्रातिक्रान्त-यहां क्षेत्र शब्द का अर्थ है-सूर्य सम्बन्धी ताप-क्षेत्र, अर्थात् दिन, इसका अतिक्रमण करना 'क्षेत्रातिक्रान्त' कहलाता है। दिन के पहले प्रहर में लाये हुए आहार को चौथे प्रहर में करना 'कालातिक्रान्त' है। आधे योजन से आगे ले जाकर आहारोदि करना : 'मार्गातिक्रान्त' है । बत्तीस कवलप्रमाण से अधिक आहार करना ' प्रमाणातिक्रान्त' है । इसका विवेचन पहले किया जा चुका है । शस्त्रातीत आदि दोष २२ प्रश्न - अह भंते ! सत्यातीयस्स, सत्यपरिणामियस्स, एसियस्स, वेसियस्स, सामुदाणियस्स पाण-भोयणरस के अट्टे पण्णत्ते ? ११०१ For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ७ उ. १ गरत्रातीत आदि दोष २२ उत्तर - गोयमा ! जेणं णिग्गंथे वा णिग्गंथी वा णिविखत्तसत्थमुसले ववगयमाला वण्णगविलेवणे ववगयचुयचइ यचत्तदेहं, जीवविप्पजढं, अकयं, अकारियं, असंकप्पियं, अणाहूयं, अकीयकडं अणुद्दिट्टं, णवकोडीपरिसुद्धं, दसदोस विप्पमुक्कं, उग्ग-मुप्पायणेसणासुपरिसुद्धं वीतिंगालं, वीतधूमं संजोयणादोस विप्पमुनकं, असुरसुरं अचवचनं अदुयं, अविलंबियं अपरिसाडिं, अक्खोवंजण-वणाणुलेवणभूयं, संजमजायामायावत्तियं, संजमभारवहणट्टयाए विलमिव पणगभूपणं अप्पाणेणं आहारमाहारेइ एस णं गोयमा ! सत्थातीयरस, सत्यपरिणामियरस जाव पाण- भोयणरस अयमट्टे पणत्ते । * सेवं भंते! मेवं भंते ! त्ति ॥सत्तमसए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ 'कठिन शब्दार्थ — सत्यातीयस्स - शस्त्रातीत, सत्यपरिणामियस्स— शस्त्र परिणामित, एसिस्स - एषणीय, वेसियस्स- व्येषित - विविध, सामुदाणियस्स — सामुदायिक, वित्त सत्यमूसले - शस्त्र मूसलादि रहित, ववगयमालाबण्णगविलेवणे -- पुष्पमाला और चन्दनादि विलेप रहित, चुयचयचत्तवेह - देह शोभा रहित, जीवविप्पजढं-जीव रहित - प्रासुक, अणाहूयं -- अनाहूत - आमन्त्रण रहित, अकीयकडं खरीदा हुआ नहीं, अनुद्दिट्ठऔद्देशिक नहीं, उग्गमुप्पायणे सणापरसुद्धं- - उद्गम उत्पादन रूप एषणादि दोष रहित शुद्ध, असुरसुरं - - सुसुशब्द रहित, अचबचवं - चपचप शब्द रहित, अदुयं-- शीघ्रता रहित, उतावल रहित, अपरिसाडि -- नहीं छोड़ते हुए, अक्खोवंजणवणाणुलेवणभूनं गाड़ी की धूरी के लेप और व्रण पर लेप की तरह, संजमजायामायावत्तियं - संयम यात्रा मात्रा का निर्वाह करने, बिलमिखपण्णगभूएन- बिल में सर्प सीधा होकर जाता है, उस तरह सीधा गले उतारना । ११०२ For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी भूत्र - श. ७ उ. १ शस्त्रातीन आदि दाष ११०३ - - भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित, एषित, व्येषित, सामुदायिक, भिक्षारूप पान-भोजन का क्या अर्थ है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! कोई निग्रंथ साधु या साध्वी जो शस्त्र और मूसलादि से रहित है, पुष्पमाला और चन्दन के विलेपन से रहित है, वे कृम्यादि जन्तुरहित, निर्जीव, साधु के लिये स्वयं नहीं बनाया हुआ एवं दूसरों से नहीं बनवाया हुआ, असंकल्पित, अनाहूत (आमन्त्रण रहित) अक्रोतकृत (नहीं खरीदा हुआ.) अनुद्दिष्ट (औद्देशिक आदि. दोष रहित) नव-कोटि विशुद्ध, शंकित आदि दस दोष रहित, उद्गम और उत्पादना सम्बन्धी एषणा के दोषों से रहित अंगार दोष रहित, धूम दोष रहित, संयोजना दोष रहित, सुरसुर और चपचप शन्द रहित, बहुत शीघ्रता और बहुत मन्दता से रहित, आहार के किसी अंश को छोडे बिना, नीचे न गिराते हुए, गाडी को धूरी के अंजन अथवा घाव पर लगाये जाने वाले लेप की तरह केवल संयम के निर्वाह के लिये और संयम का भार वहन करने के लिये, जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करता है, उसी प्रकार मो आहार करते हैं, तो हे गौतम ! वह शस्त्रातीत, शस्त्रपरिणामित यावत् पान-भोजन का अर्थ है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। .. विवेचन-कैसा आहार शस्त्रातीत अर्थात् अग्नि आदि शस्त्र से उतरा हुआ तथा शस्त्रपरिणामितं अर्थात् अग्न्यादि शस्त्र लगने से अचित्त बना हुआ होता है, उस आहार पानी का अर्थ यहाँ बतलाया गया है। नवकोटि विशुद्ध का अर्थ इस प्रकार है-(१)किसी जीव की हिंसा नहीं करना। (२) किसी जीव की हिंसा नहीं कराना । (३) हिंसा करने वाले का अनुमोदन भी नहीं करना । (४) स्वयं न पकाना । (५) दूसरों से न पकवाना । (६) पकाने वालों का अनुमोदन भी नहीं करना । (७) स्वयं न खरीदना । (८) दूसरों से नहीं खरीदवाना। (९) खरीदने वाले का अनुमोदन भी नहीं करना । इन नौ दोषों से रहित आहार, वस्त्र, पात्र, मकानादि नव कोटि विशुद्ध कहलाते हैं । ये ही मुनि के लिये कल्पनीय हैं। For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०४ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ शस्त्रातीत आदि दोष उदगम के सोलह दोष अहाकम्मुद्देसिय, पूइकम्मे य मीसजाए य। ठवणा पाहुडियाए, पाओयर कीय पामिच्चे ॥१॥ परियट्टिए अभिहडे, उनिभन्ने मालोहडे इय । अच्छिज्जे अणिसिळे, अज्झोयरए य सोलसमे ॥ २ ॥ अर्थ-(१) आधाकर्म-साधु के निमित्त से सचित्त वस्तु को अचित्त करना या . अचित्त को पकाना आदि 'आधाकर्म' कहलाता है। यह दोष चार प्रकार से लगता है। प्रतिसेवन-आधाकर्मी आहार का सेवन करना । प्रतिश्रवण-आधाकर्मी आहार के लिये निमन्त्रण स्वीकार करना । संवसन-आधाकर्मी आहार भोगने वालों के साथ रहना। अनुमोदन-आधाकर्मी आहार भोगने वालों की प्रशंसा करना। (२) औद्देशिक-सामान्य याचकों को देने की बुद्धि से जो आहारादि तैयार किये जाते हैं, उन्हें भी औद्देशिक कहते हैं । इनके दो भेद हैं-ओघ और विभाग । भिक्षुकों के लिये अलग तैयार न करते हुए अपने लिये बनते हुए आहारादि में ही कुछ और मिला देना 'ओघ' है । विवाहादि में याचकों के लिये अलग निकाल कर रख छोड़ना 'विभाग' है। यह उद्दिष्ट, कृत और कर्म के भेद से तीन प्रकार का है। फिर प्रत्येक के उद्देश, समुद्देश, आदेश और समादेश इस तरह चार चार भेद बतलाये गये हैं, किन्तु यहाँ यह अर्थ विवक्षित है । यथा-किसी खास साधु के लिये बनाया गया आहार, यदि वही साधु ले, तो आधाकर्म, दूसरा ले तो औद्देशिक है। (३) पूतिकर्म-शुद्ध आहार में आधाकर्मादि का अंश मिल जाना 'पूतिकर्म' है। आधाकर्मी आदि आहार का थोड़ा-सा अंश भी शुद्ध और निर्दोष आहार को सदोष बना देता है । शुद्ध चारित्र पालने वाले संयमी के लिए वह अकल्पनीय है । जिसमें ऐसे आहार का अंश लगा हो ऐसे बर्तन को भी टालना चाहिए। (४) मिश्रजात-अपने और साधु के लिये एक साथ पकाया हुआ आहार मिश्रजात' कहलाता है। इसके तीन भेद हैं-यावर्थिक, पाखंडीमिश्र और साधुमिश्र । जो आहार अपने लिये और सभी याचकों के लिये इकट्ठा बनाया जाय वह 'यावदर्थिक' है। जो अपने और साधु सन्यासियों के लिये इकट्ठा बनाया जाय, वह 'पाखंडीमिश्र' है । जो केवल अपने लिये और साधुओं के लिये इकट्ठा बनाया जाय, वह 'साधु-मिथ' है। . (५) स्थापन-साधु को देने की इच्छा से कुछ काल के लिये आहार को अलग For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ . १ उद्गम के दोष (६) प्राभृतिका - साधु को विशिष्ट आहार बहराने के लिये जीमणवार या निमंत्रण के समय को आगे पीछे करना । 14 (७) प्रादुष्करण - देय वस्तु के अंधेरे में होने पर अग्नि, दीपक आदि का उजाला करके या खिड़की वगैरह खोलकर वस्तु को प्रकाश में लाना अथवा आहारादि को अन्धेरी जगह से प्रकाश वाली जगह में लाना 'प्रादुष्करण' है । (८) क्रीत - साधु के लिये मोल लिया आहारादि । ( ९ ) प्रामित्य ( पामिच्चे) -- साधु के लिये उधार लिया हुआ आहारादि । (१०) परिवर्तित - साधु के लिये बदला करके लिया हुआ । (११) अभिहृत - ( अभिहडे ) - साधु के लिये गृहस्थ द्वारा ग्राम या घर आदि से सामने लाया हुआ आहारादि ! (१२) उद्भिन्न- साधु को घी आदि देने के लिये कुप्पी आदि का मुंह ( छांदण) खोल कर देना । (१३) मालापहृत – ऊपर, नीचे या तिरछी दिशा में जहाँ आसानी से हाथ नहीं पहुँच सके, वहाँ पंजों पर खड़े होकर या नसेनी एवं सीढ़ी आदि लगाकर आहार देना । इसके चार भेद हैं। उर्ध्व अध:, उभय और तिर्यक, इनमें से भी हर एक के जघन्य, उत्कृष्ट और. मध्यम रूप तीन-तीन भेद हैं। एड़ियाँ उठाकर हाथ फैलाते हुए छत में टंगे छींके आदि 'कुछ निकालना जघन्य ऊर्ध्व - मालापहृत है। सीढ़ी आदि लगाकर ऊपर के मंजिल से उतारी गई वस्तु उत्कृष्ट ऊर्ध्वमालापहृत है । इनके बीच की वस्तु मध्यम है। इसी तरह अधः, उभय और तिर्यक् के भी भेद जानने चाहिये । से . (१४) आछेद्य-निर्बल व्यक्ति या अपने आश्रित रहने वाले नौकर चाकर और पुत्र आदि से छीन कर साधु को देना, इसके भी तीन भेद हैं- स्वामीविषयक, प्रभुविषयक और स्तेनविषयक । ग्राममालिक 'स्वामी' और अपने घर का मालिक 'प्रभु' कहलाता हैं । चोर और लुटेरे को 'स्तन' कहते हैं। इन में से कोई किसी से कुछ छीन कर साधु को दे, तो क्रमशः इन तीनों से भी उपरोक्त दोष लगता है। (१५) अनिसृष्ट - किसी वस्तु के एक से अधिक मालिक होने पर सब की इच्छा बिना देना । (१६) अध्यवपूरक - साधुओं का आगमन सुनकर आधण में कुछ बढ़ाना अर्थात् अपने लिये बनते हुए भोजन में साधुओं का आगमन सुनकर उनके निमित्त से और मिला देना । For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०६. . ... भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ उत्पादन के दोष उद्गम के सोलह दोषों का निमित्त गृहस्थ दाता होता है। अर्थात् गृहस्थ के निमित्त से ये दोष साधुओं को लगते हैं। • उत्पादना के सोलह दोष धाई दूई निमित्ते, आनीव वाणिमगे तिगिच्छा य।" कोहे माणे माया लोहे, य, हवंति दस एए ॥१॥ पुग्विपच्छासंथव, विज्जा मंते य चुण्ण जोगे य। ... उप्पायणाइ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे यः॥२॥ (१) धात्री-बच्चे को खिलाना, पिलाना आदि धाय का काम करके या किसी के घर में धाय की नौकरी लगवाकर आहार लेना। (२) दूती-एक दूसरे का सन्देश गुप्त या प्रकट रूप से पहुंचा - कर, दूत का काम करके आहारादि लेना। . (३) निमित्त-भूत और भविष्यत् को जानने के शुभाशुभ निमित्त बतलाकर आहा. रादि लेना। . (४) आजीव - स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से अपनी जाति और कुल आदि प्रकट करके। .. . (५) वनीपक-श्रमण, शाक्य, सन्यासी आदि में जो जिसका भक्त हो, उसके सामने उसी की प्रशंसाकर के या दीनता दिखाकर आहारादि लेना। (६) चिकित्सा-औषधि करना या बताना आदि चिकित्सक का काम करके आहारादि ग्रहण करना। ...... (७) क्रोध-क्रोध करके या गृहस्थ को शापादि का भय दिखाकर भिक्षा लेना। . (८) मान-अभिमान से अपने को प्रतापी, तेजस्वी, बहुश्रुत आदि. बताते हुए अपना प्रभाव जमाकर आहारादि लेना। (९) माया–वंचना अर्थात् ठगाई करके आहारादि लेना। (१०) लोभ-आहार में लोभ करना अर्थात् भिक्षा के लिये जाते समय जीभ के लालच से यह निश्चय करके निकलना कि आज तो अमुक वस्तु ही खायेंगे और उसके अनायास न मिलने पर इधर-उधर ढूंढना तथा दूध आदि मिल जाने पर स्वादवश शक्कर आदि के लिये इधर-उधर भटकना 'लोमपिण्ड' है। (११) प्रापश्चात्संस्तव (पुविपच्छा संथव)-आहार लेने के पहले या पीछे For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ एषणा के दोष ११०७ दाना की प्रशंसा करना । (१२)विद्या-स्त्रीरूप देवता से अधिष्ठित या जप, होम आदि से सिद्ध होने वाली अक्षरों की रचना विशेष को विद्या' कहते हैं । विद्या का प्रयोग करके आहारादि लेना 'विद्यापिण्ड' है। (१३) मन्त्र-पुरुषरूप देव के द्वारा अधिष्ठित ऐसी अक्षर रचना, जो केवल पाठ मात्र से सिद्ध हो जाय, उसे 'मन्त्र' कहते हैं । मन्त्र के प्रयोग से लिया जाने, वाला आहा रादि 'मन्त्रपिण्ड' है। . (१४) चूर्ण-अदृश्य करने वाले सुरमे आदि का प्रयोग करके जो आहारादि लिया जाय, उसे 'चूर्णपिण्ड' कहते हैं। . (१५)योग-पादलेप वशीकरण आदि सिद्धियां बताकर जो आहारादि लिया जाय, उसे 'योगपिण्ड' कहते हैं। (१६) मूलकम-गर्भ-स्तम्भन, गर्भाधान, गर्भपात आदि संसार सागर में भ्रमण कराने वाली सावद्य-क्रिया करना। उत्पादना के दोष साधु से लगते हैं अर्थात् इन दोषों के लगने का निमित्त साधु ही लेता है। एषणा के दस दोष संकिय-मक्खिय-णिक्खित्त, पिहिय-साहरिय-बाय-गुम्मीसे । अपरिणय-लित्त-छड्डिय, एसण-दोसा बस हवंति ॥१॥ (१) संकिय (शंकित)-आहार में आधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी उसे लेना। (२) मक्खिय (म्रक्षित)-देते समय आहार, चमचा या हाथ आदि किसी अंग का सचित्त वस्तु से छू जाना या सचित्त वस्तु से लगे हुए हाथ या बर्तन आदि से देना। (३) णिक्खित्त (निक्षिप्त)-दी जाने वाली वस्तु, सचित्त के ऊपर रखी उसे लेना। इसके पृथ्वीकायादि छह भेद हैं। .. (४) पिहिय (पिहित)-देय वस्तु, सचित्त के द्वारा ढंकी हुई हो । इसके भी पृथ्वीकायादि छह भेद हैं (५) साहरिय (संहृत्य)-जिस बर्तन में असूझती वस्तु पड़ी हो, उसमें से असूझती वस्तु निकाल कर उसी बर्तन से आहारादि देना। For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ एषणा के दोष (६) दायक-बालक आदि दान देने के अनधिकारी से, आहारादि लेना 'दायक' दोष है । यदि अधिकारीव्यक्ति स्वयं बालक आदि के हाथ से आहारादि बहराना चाहे, तो उसमें दोष नहीं हैं । पुरुषविशेष की अपेक्षा इसके चालीस भेद किये गये हैं। . (७) उम्मीसे (उन्मिश्र)-अचित्त के साथ सचित्त या मिश्र मिला हुआ अथवा सचित्त या मिश्र के साथ अचित्त मिला हुआ आहार लेना 'उन्मिश्र' दोष है। (८) अपरिणय (अपरिणत)-पूरे पाक के बाद वस्तु के निर्जीव होने से पहले ही उसे लेलेना अथवा जिसमें शस्त्र पूरी तरह परिणत न हुआ हो, ऐसी वस्तु लेना। (९) लित्त (लिप्त) हाथ या पात्र (भोजन परोसने का बर्तन) आदि में लेप करने वाली वस्तु को 'लिप्त' कहते हैं । जैसे-दूध, दही, घी आदि लेप करनेवाला वस्तु को लेना 'लिप्त दोष' है । रसीली वस्तुओं के खाने से भोजन में गृद्धि बढ़ जाती है । दही आदि के हाथ या बर्तन आदि में लगे रहने पर उन्हें धोना पड़ता है। इससे 'पश्चात्कर्म' आदि दोष लगते हैं । इसलिये साधु को लेप करनेवाली वस्तुएं नहीं लेनी चाहिये । अधिक स्वाध्याय और अध्ययन आदि खास कारण से या वैसी शक्ति न होने पर लेप वाले पदार्थ भी लेने कल्पते हैं । लेपवाली वस्तु लेते समय दाता का हाथ और परोसने का बर्तन संसृष्ट (जिसमें दही आदि लगे हुए हों) अथवा असंसृष्ट होते हैं । इसी प्रकार दिया जाने वाला द्रव्य सावशेष (जो देने से कुछ बाकी बच गया हो) या निरवशेष (जो बाकी न बचा हो) दो प्रकार का होता है । इन के आठ भांगे होते हैं। जैसे (१) संसृष्ट-हाथ, संसृष्ट-पात्र और सावशेष द्रव्य । (२) संसृष्ट-हाथ, संसृष्ट-पात्र और निरवशेष द्रव्य । (३) संसृष्ट-हाथ, असंसृष्ट-पात्र और सावशेष द्रव्य । (४) संसृष्ट-हाथ, असंसृष्ट पात्र और निरवशेष द्रभ्य। (५) असंसृष्ट-हाथ, संसृष्ट पात्र और सावशेष द्रव्य । (६) असंसृष्ट-हाथ, संसृष्ट-पात्र और निरवशेष द्रव्य। (७) असंसृष्ट-हाथ, असंसृष्ट-पात्र और सावशेष द्रव्य । (८) असंसृष्ट-हाथ, असंसृष्ट-पात्र और निरवशेष द्रव्य । इन आठ भागों में विषम अर्थात् प्रथम, तृतीय, पंचम और सप्तम भंगों में लेप वाले पदार्थ ग्रहण किये जा सकते हैं । सम अर्थात् दूसरे, चौथे, छठे और आठवें भंग में ग्रहण न करना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. २ सुप्रत्याख्यान दुप्प्रत्याख्यान सत्पर्य यह है कि हाथ या पात्र संसष्ट हो या असंसृष्ट, पश्चात्कर्म अर्थात् हाथ आदि का धोना, इस बात पर निर्भर नहीं है । पश्चात्कर्म का होना या न होना द्रव्य के न वचने या वचने पर आश्रित है । अर्थात् यदि दिया जाने वाला पदार्थ कुछ बाकी बच जाय तो हाथ या कुड़छी आदि के लिप्त होने पर भी उन्हें नहीं धोया जाता, क्योंकि उसी द्रव्य को परोसने की फिर संभावना रहती है। यदि वह पदार्थ बाकी न बचे, तो बर्तन आदि धो दिये जाते हैं । इसे साधु को पश्चात्कर्म दोष लगने की संभावना रहती हैं। इसलिये ऐसे भांगे कल्पनीय कहे गये हैं- जिनमें दी जाने वाली वस्तु सावशेष कही है । सारांश यह है कि लेप वाली वस्तु तभी कल्पनीय है जब वह लेने के बाद कुछ बाकी बची रहे । पूरी लेने पर ही पश्चात्कर्म दोष की संभावना है। लिप्त दोष का प्रचलित अर्थ यह है कि तत्काल के लपे हुए आंगन पर जाकर साधु आहारादि लेवे या उस पर जाकर दाता आहारादि देवे । (१०) छड्डिय (छर्दित) - जिसके छींटे नीचे पड़ रहे हों, ऐसा आहार लेना 'छर्दित दोष' है। एसे आहार में नीचे चलते हुए कीड़ी आदि जीवों की हिंसा का डर है, इसलिये साधु को अकल्पनीय है । " एषणा के दोष साधु और गृहस्थ दोनों के निमित्त से लगते हैं । इन उपरोक्त समस्त दोषों को टालकर मुनि को आहारादि ग्रहण करना और भोगना चाहिये । इन दोषों का यह अर्थ और वर्णन पिण्डनिर्युक्ति, प्रवचनसारोद्वार आदि ग्रन्थों से लिया गया है । ॥ इति सातवें शतक का पहला उद्देशक संपूर्ण ॥ शतक ७ उद्देशक २ ११०९ सुपत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान प्रश्न- १ सेणूणं भंते ! सव्वपाणेहिं सव्वभूएहिं सव्वजीवेहिं, मव्वसत्तेहिं पञ्चखायमिति वयमाणस्स सुपच्चक्खायं भवह, दुपञ्च For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११० भगवती सूत्र --श ७ उ. २ सुप्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान क्वायं भवइ ? १. उत्तर - गोयमा ! सव्वपाणेहिं, जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वयमाणस्स सिय सुपच्चक्खायं भवइ, सिय दुपच्चनखायं भवइ । प्रश्न - से केणणं भंते! एवं वुच्चइ - सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्ते हिं जाब सिय पच्चखायं भवइ ? उत्तर - गोयमा ! जस्स णं सव्वपाणेहिं, जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वयमाणस्स णो एवं अभिसमण्णागयं भवइ - इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तरस णं सव्र्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पवक्खायमिति वयमाणस्स णो सुपचक्खायं भवइ, दुपञ्चक्खायं भवइ । एवं खलु से दुपचक्खाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसतेहिं पञ्चकखायमिति वयमाणे णो सच्चं भासं भासह, मोसं भासं भासइ । एवं खलु से मुसावाई सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्ते हिं तिविहं तिविहेणं असंजय-विश्य-पडिहय-पच्चक्खायपावकम्मे, सकि रिए, असंवुडे, एगंतदंडे, एगंतवाले यावि भवइ । जस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वयमाणस्स एवं अभिसमण्णा - गयं भवइ - इमे जीवा, इमे अजीवा, इमे तसा, इमे थावरा, तस्स णं सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पञ्चवखायमिति वयमाणरस सुपच्चक्खायं भवइ, णो दुपच्चक्खायं भवइ । एवं खलु से सुपच्चवखाई सव्व For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. 3. उ. २ सुप्रत्यान्यान दुष्प्रत्याख्यान ११११ पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं . पञ्चश्वायमिति वयमाणे सच्चं भामं भासइ, णो मोसं भासं भासइ । एवं खलु से सच्चवाई सव्वपाणेहिं, जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजय-विरय-पडिहय-पञ्चवखायपावकम्मे, अकिरिए, संवुडे, एगंतपंडिए यावि भवइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाव सिय दुपञ्चक्खायं भवइ । कठिन शब्दार्थ-अभिसमण्णागयं-इस प्रकार का ज्ञान होना, सकिरिए-सक्रिय, असंवडे-असंवृत (जिसने आश्वव द्वारों को नहीं रोका) एगंतवंडे-एकान्त दण्ड (दूसरे प्राणियों की हिंसा करने वाला) एगंतबाले-एकान्तबाल (सर्वथा अज्ञानी)। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! 'मैने सभी प्राण. सभी भत. सभी जीव और सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, इस प्रकार कहने वाले के सुप्रत्याख्यान होता है, या दुष्प्रत्याख्यान होता है ? .१ उत्तर-हे गौतम ! 'मने सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीव, और सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है'-इस प्रकार बोलने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है। ___प्रश्न-हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं कि सभी प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का त्याग करने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है. ? .. उत्तर-हे गौतम ! 'मैने सर्वप्राण. यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है'-इस प्रकार बोलने वाले पुरुष को यदि इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये स हैं, ये स्थावर हैं, उस पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता है।' 'मैने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों को हिंसा का प्रत्याख्यान किया है-इस प्रकार बोलता हुआ वह दुष्प्रत्याख्यानो पुरुष, सत्यभाषा नहीं बोलता, किन्तु असत्य For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११२ भगवती सूत्र - श. ७ उ २ सुप्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान भाषा बोलता है । इस प्रकार वह मृषावादी सर्वप्राण यावत् सर्व सत्वों में तीन करण तीन योग से असंयत, (संयम रहित) अविरत (विरति रहित ) पापकर्म का अत्यागी एवं अप्रत्याख्यानी ( जिसने पापकर्म का त्याग और प्रत्याख्यान नहीं किया है) सक्रिय ( कायिकी आदि कर्म-बन्ध की क्रियाओं से युक्त ) संवर रहित, एकान्तदण्ड ( हिंसा करने वाला) और एकान्त अज्ञानी है । गौतम ! जो पुरुष जीव, अजीव, त्रस और स्थावर को जानता है, उसको ऐसा ज्ञान है, तो उसका कहना कि 'मैने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है'- सत्य है। उसका प्रत्याख्यान, सुप्रत्याख्यान है, किंतु दुष्प्रत्याख्यान नहीं । 'मैने सर्व प्राण यावत् सब सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है' - इस प्रकार बोलने वाला वह सुप्रत्याख्यानी, सत्य भाषा बोलता है, मृषा भाषा नहीं बोलता । इस प्रकार वह सुप्रत्याख्यानी सत्यभाषी, सर्वप्राण यावत् सर्व सत्वों में तीन करण तीन योग से संयत, विरत, पाप-कर्म का त्यागी, प्रत्यायानी, अक्रिय (कर्म-बन्ध की क्रियाओं से रहित ) संवरयुक्त और एकान्त पंडित है । इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा जाता हूं कि यावत् कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है । विवेचन - प्रथम उद्देशक में प्रत्याख्यानी जीव का वर्णन किया गया है । अब इस दूसरे उद्देशक में प्रत्याख्यान का वर्णन किया जाता है । किस जीव का प्रत्याख्यान, सुप्रत्याख्यान होता है और किस का दुष्प्रत्याख्यान होता है, इस प्रश्न के उत्तर में बतलाया गया है कि सभी प्राण, भूत, जीव. सत्त्व की हिंसा का प्रत्याख्यान करने वाले जीव को यदि जीव, अजीव, त्रस और स्थावर का ज्ञान है, तो उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है और जिसको इनका ज्ञान नहीं, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है । क्योंकि ज्ञान के अभाव में उसे यथावत् बोध नहीं हो सकता । -- आगे के प्रश्न का उत्तर देते हुए दुष्प्रत्याख्यान का कथन पहले किया गया और सुप्रत्याख्यान का पीछे, इसका कारण यह है कि यहाँ 'यथा संख्य' न्याय को छोड़कर 'यथासन्न' न्याय स्वीकार किया गया है +। + जो शब्द पहले माया है, उसको व्याख्या पहले करना और जो शब्द पीछे जाया है, उसकी For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ७ उ. २ मूलांतर गुण प्रत्यास्थान . १११३ सुप्रत्याख्यान का कारण जीवाजीवादिका बोध है और बोध का अभाव दुष्प्रत्याख्यान में निमित्त है। मूलोत्तर गुण प्रत्यार यान । २ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! पञ्चक्खाणे पण्णत्ते ? २ उत्तर-गोरमा ! दुविहे. पञ्चक्खाणे पण्णत्ते, तं जहा-मूलगुणपञ्चरखाणे य उत्तरगुणपञ्चक्खाणे य। - ३ प्रश्न-मूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ३ उत्तर-गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-सव्वमूलगुणपच्चक्खाणे य देसमूलगुणपञ्चक्खाणे य। ४ प्रश्न-सव्वमूलगुणपञ्चवखाणे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? ४ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-सव्वाओ पाणाइ. वायाओ वेरमणं, जार सवाओ परिग्गहाओ वेरमणं । __-५ प्रश्न-देसमूलगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? - ५ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-थूलाओ पाणाइ. वायाओ वेरमणं, जाव थूलाओ परिग्गहाओ वेरमणं। व्याख्या पीछे करना-यह 'यथासंख्य' (यथाक्रम) न्याय कहलाता है। .. जो शन्द प्रश्न के अन्त में आया है उसकी पहले व्याख्या करना और जो शब्द प्रश्न के प्रारम्भ में आया है उसको व्याख्या पीछे करना, यह 'यथाऽऽसन्न' (समीपस्थ)न्याय कहलाता है। यहाँ प्रश्न के अन्त में आये हुए 'दुष्प्रत्याख्यान' शब्द की व्याख्या पहले की गई और सुप्रत्याख्यान शब्द की व्याख्या पीलेकी गई है। For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. २ मूलोत्तर गुण प्रत्याख्यान भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? २ उत्तर - हे गौतम ! प्रत्याख्यान दो प्रकार का कहा गया है । यथामूलगुणप्रत्याख्यान और उत्तरगुणप्रत्याख्यान । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! मूलगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? ३ उत्तर - हे गौतम! मूलगुणप्रत्याख्यान दो प्रकार कहा गया है । यथा - सर्व मूलगुणप्रत्याख्यान और देश-मूल- गुणप्रत्याख्यान । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! सर्व-मूल-गुण- प्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? ४ उत्तर - हे गौतम ! सर्व मूलगुणप्रत्याख्यान पांच प्रकार का कहा गया है । यथा - सर्व प्राणातिपात से विरमण, सर्व- मृषावाद से विरमण, सर्व अदत्तादान से विरमण, सर्व-मैथुन से विरमण और सर्व परिग्रह से विरमण | ५ प्रश्न - हे भगवन् ! देश मूलगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? ५ उत्तर- हे गौतम ! देश मूलगुणप्रत्याख्यान पाँच प्रकार का कहा गया । यथा-स्थूल - प्राणातिपात से विरमण यावत् स्थूल- परिग्रह से विरमण । १११४ विवेचन – चारित्ररूप कल्पवृक्ष के मूल के समान प्राणातिपात विरमण आदि गुण 'मूलगुण' कहलाते हैं। मूलगुण विषयक प्रत्याख्यान (त्याग) को 'मूल गुणप्रत्याख्यान ' कहते हैं । वृक्ष की शाखा के समान मूलगुणों की अपेक्षा जो उत्तररूप गुण हों, वे 'उत्तरगुण' कहलाते हैं । और तद्विषयक प्रत्याख्यान ' उत्तरंगुणप्रत्याख्यान' कहलाते हैं । सर्वथा मुलगुणप्रत्याख्यान - 'सर्वमूल गुणप्रत्याख्यान' नहलाता है और देशतः (अंशतः ) मूलगुण प्रत्याख्यान, 'देशमूलगुणप्रत्याख्यान' कहलाता है। सर्वविरत मुनियों के सर्वमूलगुणप्रत्याख्यान होता है और देशविरत श्रावकों के देश मूलगुणप्रत्याख्यान होता है ।. ६ प्रश्न - उत्तरगुणपच्चक्खाणे णं भंते ! कहविहे पण्णत्ते ? ६ उत्तर - गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - सवुत्तरगुणपच्च For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. २ मूलांतर गुण प्रत्याख्यान १९९५ क्खाणे य देसुत्तरगुणपञ्चकखाणे य । ७ प्रश्न-सव्वुत्तरगुणपञ्चवखाणे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? ७ उत्तर-गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते, तं जहा अणागयमइक्कंत कोडीसहियं णियंटियं चेव । सागारमणागार परिमाणकडं निरवसेसं ॥ साकेयं चेव अद्धाए पच्चस्खाणं भवे दसहा । ८ प्रश्न-देसुत्तरगुणपञ्चक्खाणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते । ८ उत्तर-गोयमा ! सत्तविहे पण्णत्ते, तं जहा-१ दिसिव्वयं, २ उवभोगपरिभोगपरिमाणं, ३ अण्णत्थदंडवेरमणं, ४ सामाइयं, ५ देसावगासियं, ६ पोसहोववासो, ७ अतिहिसंविभागो; अपच्छिममारणंतियसलेहणाझूसणाऽऽराहणया । कठिन शब्दार्थ-अणागयं-अनागत, अइवतं-अतिक्रान्त, कोडीसहियं-कोटिसहित, नियंटियं-नियन्त्रित, सागारमणागार--साकार निराकार, ६ परिमाणकरपरिमाणकृत, साकेयं-संकेत। .. भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! उत्तरगुणप्रत्याल्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? ६ उत्तर-हे गौतम ! उत्तरगुणप्रत्वाख्यान दो प्रकार का कहा गया है।। यथा-सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान और देशोत्तरगुणप्रत्याख्यान । . ७ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है? ___७ उत्तर-हे गौतम ! सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान दस प्रकार का कहा गया है । यया-१ अनागत, २ अतिक्रान्त, ३ कोटिसहित, ४ नियन्त्रित, ५ साकार, For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११६ भगवती सूत्र - श. ७ उ. २ मूलोत्तर गुण प्रत्याख्यान: ६ अनाकार, ७ परिमाणकृत, ८ निरवशेष, ९ संकेत, १० अद्धाप्रत्याख्यान । इस प्रकार सर्वोत्तरगुणप्रत्याख्यान दस प्रकार का कहा गया है। ८ प्रश्न - हे भगवन् ! देशउत्तरगुणप्रत्याख्यान कितने प्रकार का कहा गया है ? ८ उत्तर - हे गौतम ! देश उत्तर गुण प्रत्याख्यान सात प्रकार का कहा गया है । यथा -१ दिग्व्रत, २ उपभोगपरिभोगपरिमाण, ३ अनर्थदण्डविरमण, ४ सामायिक, ५ देशावकाशिक, ६ पौषधोपवास, ७ अतिथिसंविभाग, और अपश्चिममारणान्तिक-संलेखना नोषणा - आराधना । बिबेचन—सर्वोत्तरगुण प्रत्याख्यान के दस भेद हैं । यथा ( १ ) अनागत प्रत्याख्यान होही पज्जोसवणा मम प तथा अंतराइयं होज्जा । गुरुवेयावच्चेणं, तबस्ति गेलण्णयाए वा ॥ १ ॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जह तं अणागए काले । एयं पच्चवखार्ण अणागयं होइ नायव्वं ॥ २ ॥ . अर्थ - किसी आने वाले पर्व पर निश्चित किये हुए प्रत्याख्यान को, उस समय बाधा पड़ती देखकर पहले ही कर लेना - ' अनागत प्रत्याख्यान है'। जैसे कि पर्युषण में आचार्य, तपस्वी और ग्लान ( रोगी) मुनि की सेवा शुश्रूषा करने के कारण होने वाली अन्तराय को देखकर पहले ही उपवास आदि कर लेना । (२) अतिक्रान्त पज्जो सबणाइ तवं जो खलु न करेइ कारणज्जाए । गुरुवेयावच्चेण तवस्सिगेलण्णयाए वा ॥ १ ॥ सो दाइ तवोकम्मं पडिवज्जइ तं अइच्छिए काले । एयं पचचक्खाणं अइक्कतं होइ णायध्वं ॥ २ ॥ अर्थ - पर्युषणादि के समय कोई कारण उपस्थित होने पर बाद में तपस्यादि करना अर्थात् गुरु तपस्वी और ग्लान की वैयावृत्य आदि कारणों से जो व्यक्ति पर्युषण आदि पर्वो पर For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - स. ७ उ. २ मूलोत्तर गुण प्रत्याख्यान तपस्या नहीं कर सका, वह यदि वाद में वहीं तप करे, तो उसे 'अतिक्रान्तप्रत्याख्यान' कहते हैं । (३) कोटि सहित पटुवणओ उ दिवसो पच्चक्खाणस्स निट्ठवणओ य । महियं समेति दोणि उ तं भण्णइ कोडीसहियं तु ॥ | १ || अर्थ —–जहाँ एक प्रत्याख्यान की समाप्ति तथा दूसरे प्रत्याख्यान का प्रारम्भ एक ही दिन में हो जाय, उसे कोटि-सहित प्रत्याख्यान कहते हैं। जैसे कि उपवास के पारणे में आयम्बिल आदि तप करना । (४) नियन्त्रित मासे मासे य तवो अमुगो अमुगे दिणम्मि एवइयो । हट्ठेण गिलाण व कायव्वो जाव ऊसासो || १ || एयं पच्चक्खाणं नियंटियं धीरपुरिसपण्णसं । ज गेव्हंत अणगारा अणिस्तियप्पा अपडिबद्धा ॥२॥ अर्थ- जिस दिन जो प्रत्याख्यान करने का निश्चय किया है, उसी दिन उसे नियम पूर्वक करना, बीमारी आदि की बांधा आने पर भी उसे नहीं छोड़ना-नियन्त्रित प्रत्यास्थान है। प्रत्येक मास में जिस दिन जितने काल के लिये जो तप अंगीकार किया है, उसे अवश्य करना, रोग आदि बाधाएँ उपस्थित होने पर भी प्राण रहते उसे नहीं छोड़ना नियन्त्रित प्रत्याख्यान है । १११७ (५) साकार ( सागार) प्रत्याख्यान - जिस प्रत्याख्यान में कुछ आगार अर्थात् अपवाद रखा जाय, उन आगारों में से किसी के उपस्थित होने पर त्यागी हुई वस्तु त्याग का समय पूरा होने से पहले भी काम में ले ली जाय तो प्रत्याख्यान नहीं टूटता । जैसे कि नवकारसी, पोरिसी आदि प्रत्याख्यानों में अनाभोग आदि आगार हैं । (६) अनाकार (अनागार ) प्रत्याख्यान - जिस प्रत्याख्यान में 'महत्तरागार' आदि आगार न हों। ( अनाभोग और सहसाकार तो उसमें भी होते हैं, क्योंकि मुंह में अगुंली आदि के अनुपयोग पूर्वक पड़ जाने से आगार न होने पर प्रत्याख्यान के टूटने का डर है ।) (७) परिमाण-कृत बत्ती हिं व कवलेहि व घरेहि भिक्खाहि अहव बहि । जो मतपरिच्चायं करेह परिमाणकडमेयं ॥१॥ For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. २ मूलोत्तर गुण प्रत्याख्यान अर्थ-दत्ति (दात), कवल (ग्रास), घर, भिक्षा या भोजन के द्रव्यों की मर्यादा करना 'परिमाणकृत' प्रत्याख्यान है। (८) निरवशेष सव्वं असणं सव्वं च पाणगं सम्वलज्जपेज्जविहि । परिहरइ सम्वभावेणेयं मणियं निरवसेसं ॥१॥ .., अर्थ-अशन, पान, खादिम और स्वादिम चारों प्रकार के आहार का सर्वथा त्याग करना-निरवशेष प्रत्याख्यान हैं। (९) संकेत प्रत्याख्यान अंगुटुमुढिगंठीघर सेऊसास थिबुगजोइक्खें । मणियं संकेयमेयं धीरेहि अणतणाणिहि ।।१।। . अर्थ-अंगठा, मुट्ठी, गांठ आदि के चिन्ह को लेकर जो प्रत्याख्यान किया जाता . है, उसे 'संकेत प्रत्याख्यान' कहते हैं। (१०) अद्धा प्रत्याख्यान अदापच्चक्खाणं जंतं कालप्पमाणछेएणं। पुरिमड्डपोरसीहि मुहुत्तमासद्धमासेहिं ॥१॥.. .. - अर्थ-अद्धा अर्थात् काल को लेकर जो प्रत्याख्यान किया जाता है, जैसे पोरिसी, दोनोरिमी, अद्धमाप, मास आदि, उसे 'अद्धा-प्रत्याख्यान' कहते हैं। __.. देशोत्तर-गुण प्रत्याख्यान के सात भेद बतलाये गये हैं । यथा-(१) दिग्वत-पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर, नीचे, इन छह दिशाओं की मर्यादा करना एवं नियमित दिशा से आगे आश्रवसेवन का त्याग करना-'दिग्व्रत' या 'दिशिपरिमाणवत' कहलाता है। : (२) उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत-भोजनादि जो एक बार भोगने में आते हैं, वे 'उपभोग' हैं और बार बार भोगे जाने वाले वस्त्र, शय्या आदि 'परिभोग' है + । उपभोग परिभोग योग्य वस्तुओं का परिमाण करना छब्बीस बोलों की मर्यादा करना एवं मर्यादा के उपरान्त उपभोग परिभोग योग्य वस्तुओं के भोगोपभोग का त्याग करना 'उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत' है। + उपभोग परिभोग शब्दों का अर्थ उपासकदशांग सूत्र अध्ययन १ में इस प्रकार भी किया हैबारवार भोग जाने वाले पदार्थ 'उपभोग' और एक ही बार भोगे जाने वाले पदार्थ परिभोग' है। For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७. उ. २ मूलात्तर गुण प्रत्याख्यान (३) अनर्थदण्ड विरमण व्रत-अपध्यान अर्थात् आर्तध्यान, रोद्रध्यान करना, प्रमाद पूर्वक प्रवृत्ति करना, हिंसाकारी शस्त्र देना एवं पापकर्म का उपदेश देना-ये. सभी कार्य 'अनर्थदण्ड है। क्योंकि इनसे निष्प्रयोजन हिंसा होती है । इस अनर्थदण्ड से निवृत्त होना 'अनर्थदण्डविरमण' व्रत है। (४) सामायिक व्रत-सावद्य-व्यापार का त्याग कर आतंध्यान और रौद्रध्यान को दूर कर, धर्मध्यान में आत्मा को लगाना और मनोवृत्ति को समभाव में रखना-सामायिकव्रत है। एक सामायिक काल, दो घडी अर्थात् एक मुहूंत (४८ मिनिट) है । सामायिक में बत्तीस दोषों कों वर्जना चाहिये । (५) देशावकाशिक व्रत-दिग्वत में दिशाओं का जो परिमाण किया है, उसका तथा पहले के सभी व्रतों का प्रतिदिन संकोच करना, 'देशावकाशिक' व्रत है । मर्यादा के बाहर की दिशाओं में आस्रव का सेवन नहीं करना चाहिये, तथा मर्यादित दिशाओं में जितने द्रव्यों की मर्यादा की है, उसके उपरान्त द्रव्यों का उपभोग न करना चाहिये । (६) पौषधोपवास व्रत-एक दिन रात अर्थात आठ प्रहर के लिये-चार आहार, मैथुन, मणि, सुवर्ण तथा आभूषण, पुष्पमाला, सुगन्धित चूर्ण आदि तथा सकल सावध व्यापारों को त्याग कर धर्मस्थान में रहना और धर्म-ध्यान में लीन रहकर शुभभावों से उक्त काल को व्यतीत करना 'पोषधोपवास' व्रत है। इस व्रत में पौषध के अठारह दोषों का त्याग करना . चाहिये। (७) अतिथिसंविभाग व्रत-पंच-महाव्रतधारी साधुओं को उनके कल्प के अनुसार निर्दोष अशन, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र कम्बल, पादप्रोञ्छन, पीठ, फलक, शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज-ये चौदह प्रकार की वस्तुएँ निष्काम बुद्धिपूर्वक, आमकल्याण की भावना से देना तथा दान का संयोग न मिलने पर सदा ऐसी भावना रखना-अतिथिसंविभाग व्रत' है। दिग्वत, उपभोग परिभोग परिमाणवत, अनर्थदण्डविरमण व्रत, इनको 'गुणवत' भी कहते हैं । सामायिक व्रत; देशावकाशिक व्रत, पौषधोपवास व्रत और अतिथिसंविभाग व्रत, इनको 'शिक्षावत' कहते हैं। - अपश्चिममारणान्तिकसंलेखना:-यद्यपि आवीचि-मरण की दृष्टि से सभी प्राणियों का प्रतिक्षण मरण हो रहा है, किन्तु यहां उस मरण की विवक्षा नहीं की गई । परन्तु सम्पूर्ण आयु की समाप्तिरूप मरण की विवक्षा की गई है । अपश्चिम अर्थात् जिसके पीछे कोई कार्य करना शेष न रहा हो, उसे 'अपश्चिम' कहते हैं । अन्तिम मरण के समय शरीर For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो सूत्र-श. ७ उ. २ प्रत्यात्यानी अप्रत्याख्यानी : और कषायादि को कृश करने वाला तप विशेष 'अपश्चिम-मारणान्तिक-सलेखना' कहलाती है । उसके सेवन की आराधना अखण्ड काल तक करना 'अपश्चिममारणान्तिक-संलेखनाजोषणा आराधना' कहलाती है। यहाँ दिग्वतादि सात देशोत्तरगुण कहे गये हैं। सलेखना को भजना (विकल्प) से देशोतरगुण समझना चाहिये, क्योंकि आवश्यक में ऐसा कहा गया है कि यह संलेखना देशोत्तर गुणवाले के लिये देशोत्तरगुणरूप है और सर्वोत्तरगुण वाले के लिये सर्वोत्तरगुणरूप है। देशोतरगुण वाले को भी अन्तिम समय में यह अवश्य करनी चाहिये, यह बात सूचित करने के लिये इसका कथन देशोत्तर गुणों के साथ किया गया है। प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी ९ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपचाखाणी, अपचक्खाणी ? ९ उत्तर-गोयमा ! जीवा मूलगुणपञ्चक्खाणी वि, उत्तरगुणपवाखाणी वि, अपच्चरखाणी वि। १० प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं मूलगुणपञ्चक्खाणी-पुच्छा । १० उत्तर-गोयमा ! णेरइया णो मूलगुणपञ्चक्खाणी, णो उत्तरगुणपञ्चक्खाणी, अपचक्खाणी; एवं जाव चरिंदिया, पंचिं. दियतिरिक्खजोणिया मणुप्सा य जहा जीवा, वाणमंतर-जोइसियवेमाणिया जहा णेरइया । . भावार्थ- प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, मूलगुणप्रत्याख्यानी है, उत्तरगुगप्रत्याख्यानी है, या अप्रत्याख्यानी है ? For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र-शं. ७ उ. २ प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी ११२१ ९ उत्तर-हे गौतम ! जीव, मूलगुण प्रत्याख्यानी भी हैं, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी भी हैं और अप्रत्याख्यानी भी हैं। .......... १० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिक जीव, मूलगुण प्रत्याख्यानी है, उत्तरगुण प्रत्याख्यानी हैं, या अप्रत्याख्यानी हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीव, मूलगुण प्रत्याख्यानी नहीं हैं, उत्तर-गुण प्रत्याख्यानी भी नहीं हैं, अप्रत्याख्यानी हैं। इस प्रकार चतुरिन्द्रिय, जीवों पर्यन्त कहना चाहिये । पंचेन्द्रिय तियंच और मनुष्यों के विषय में औधिक जीवों की तरह कहना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के विषय में नरयिक जीवों की तरह कहना चाहिये। ११ प्रश्न-एएसि णं भंते ! जीवाणं मूलगुणपञ्चक्खाणीणं, उत्तरगुणपञ्चक्खाणीणं, अपच्चक्खाणीण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? ____ ११ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा मूलगुणपञ्चवखाणी, उत्तर... 'गुणपञ्चक्खाणी असंखेजगुणा, अपञ्चक्खाणी अणंतगुणा । १२ प्रश्न-एएसि णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणंपुच्छा । १२ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मूलगुणपञ्चक्खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी असंखेजगुणा, अपञ्चक्खाणी असंखेजगुणा। .. १३ प्रश्न-एएसि णं भंते ! मणुस्साणं मूलगुणपञ्चक्खाणीणं For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२२ - भगवती सूत्र - श. ७ उ. २ सुप्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान पुच्छा । १३ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सा मूलगुणपच्चर खाणी, उत्तरगुणपञ्चक्खाणी संखेज्जगुणा, अपचक्खाणी असंखेज्जगुणा । ११ प्रश्न - हे भगवन् ! मूलगुणप्रत्याख्यानी, उत्तरगुणप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी जीवों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम! मूल-गुण- प्रत्याख्यानी जीव सब से थोड़े हैं, उत्तर- गुण- प्रत्याख्यानी जीव उनसे असंख्यगुणे हैं और अप्रत्याख्यानी जीव, उनसे भी अनन्तगुणे हैं । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! इन मूलगुण- प्रत्याख्यानी आदि जीवों में पंचेंद्रियतिर्यंच जीव कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? १२ उत्तर - हे गौतम! मूल-गुण- प्रत्याख्यानी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव सबसे थोडे है, उनसे उत्तरगुण- प्रत्याख्यानी असंख्यगुणे हैं और अप्रत्याख्यानी उनसे असंख्यगुणे हैं । कौन १३ प्रश्न - हे भगवन् ! इन मूलगुण- प्रत्याख्यानी आदि में मनुष्य किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम! मूल-गुण- प्रत्याख्यानी मनुष्य सबसे थोडे हैं, उत्तर-गुण- प्रत्याख्यानी मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं और अप्रत्याख्यानी मनुष्य उनसे असंख्यातगुणे हैं । १४ प्रश्न - जीवा णं भंते! किं सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपञ्चक्खाणी ? . १४ उत्तर - गोयमा ! जीवा सव्वमूलगुण पच्चक्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपचक्खाणी वि । For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती' सूत्र - श. ७ उ. २ प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी १५ प्रश्न - शेरइयाणं - पुच्छा ! : १५ उत्तर-गोयमा ! णेरइया णो सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी, णो देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी । एवं जाव चउरिंदिया | १६ प्रश्न - पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं - पुच्छा । १६ उत्तर - गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णो सव्वमूलगुणपञ्चक्खाणी, देसमूलगुणपञ्चक्खाणी वि, अपच्चक्खाणी वि । मणुस्सा जहा जीवा, वाणमंतर - जोइस चेमाणिया जहा रहया । ११२३ १७ प्रश्न - एएसि णं भंते ! जीवाणं सव्वमूलगुणपच्चवखाणीणं, देसमूलगुणपच्चक्खाणीणं, अपचक्खाणीण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? १७ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा सव्वमूलगुणपच्चक्खाणी, देसमूलगुणपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपञ्चवखाणी अनंतगुणा । एवं अप्पा बहुगाणि तिणि वि जहा पढमिल्लए दंडए, णवरं सव्वत्थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया देसमूलगुणपच्चक्खाणी, अपच्चक्खाणी असंखेजगुणा । कठिन शब्दार्थ- पढ मिल्लए- पहले में, अप्पाबहुगाणि - अल्पबहुत्व । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव सर्व मूलगुण- प्रत्याख्यानी हैं, देश मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, या अप्रत्याख्यानी हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम! जीव सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी भी हैं, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी भी हैं और अप्रत्याख्यानी भी हैं । For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२४ भगवती सूत्र-श. ७ उ.२ प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी १५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिक जीव, सर्व-मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, देशमूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, या अप्रत्याख्यानी हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीव, सर्व-मूलगुणप्रत्याख्यानी नहीं, और देशमूलगुणप्रत्याख्यानी भी नहीं, किंतु अप्रत्याख्यानी हैं । यावत् चतुरिन्द्रिय तक इसी प्रकार कहना चाहिये। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव, सर्व-मलगण प्रत्याख्यानी हैं, देशमूलगुण प्रत्याख्यानी हैं या अप्रत्याख्यानी हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च जीव, सर्व-मूलगुण प्रत्याख्यानी नहीं, किन्तु देशमूलगुण प्रत्याख्यानी हैं और अप्रत्याख्यानी हैं। मनुष्यों का कथन औधिक जीवों के समान करना चाहिये । वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों का कथन, नरयिक जीवों के समान करना चाहिये। १७ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वमूलगुणप्रत्याख्यानी, देशमूलगणप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी जीवों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? १७ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-मूलगुण प्रत्याख्यानी जीव, सबसे थोडे हैं। देशमूलगुणप्रत्याख्यानी जीव, उनसे असंख्य गुणे हैं। और अप्रत्याख्यानी जीव, उनसे अनन्त गुणे हैं। इसी प्रकार तीन अर्थात् औधिक जीव, पञ्चेन्द्रिय तियंञ्च और मनुष्य का अल्प बहुत्व, प्रथम दण्डक में कहे अनुसार कहना चाहिये, किंतु इतनी विशेषता है कि देशमूलगुणप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रिय तियंच, सब से थोडे हैं और अप्रत्याख्यानी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च उनसे असंख्य गुणे हैं। १८ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं सव्वउत्तरगुणपञ्चक्खाणी देसुत्तरगुण पञ्चक्खाणी, अपचक्खाणी? __१८ उत्तर-गोयमा ! जीवा सव्वुत्तरगुणपञ्चक्खाणी वि, तिण्णि वि। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य एवं चेव, सेसा अप For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. २ प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्यानी ११२५ चक्खाणी, जाव वेमाणिया। १९ प्रश्न-एएसि णं भंते ! जीवाणं सव्वउत्तरगुणपञ्चक्खाणीणं? __ १९ उत्तर-अप्पावहुगाणि तिण्णि वि जहा पढमे दंडए, जाव मणुस्साणं । भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, सर्वोत्तरगुण-प्रत्याख्यानी हैं, देशोत्तरगुण-प्रत्याख्यानी हैं, या अप्रत्याख्यानी हैं ? १८ उत्तर-हे गौतम! जीव, सर्वोत्तरगण-प्रत्याख्यानी आदि तीनों प्रकार के हैं। पंचेन्द्रिय तियंच और मनुष्यों का कथन भी इसी तरह करना चाहिये । शेष वैमानिक पर्यन्त सभी जीव, अप्रत्याख्यानी हैं। १९ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वोत्तरगुण-प्रत्याख्यानी, देशोत्तरगुणप्रत्याख्यानो और अप्रत्याख्यानी जीवों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? १९ उत्तर-हे गौतम ! इन तीनों की अल्प-बहुत्व, प्रथम दण्डक में कहे अनुसार यावत् मनुष्यों तक जान लेना चाहिये। २० प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं संजया, असंजया, संजयासंजया ? २० उत्तर-गोयमा ! जीवा संजया वि, असंजया वि, संजयासंजया वि तिणि वि, एवं जहेव पण्णवणाए तहेव भाणियव्वं जाव वेमाणिया, अप्पाबहुगं तहेव तिण्ह वि भाणियव्वं । २१ प्रश्न-जीवा पं. भंते ! किं पञ्चक्खाणी, अपञ्चक्खाणी, For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२६ भगवती सूत्र - श. ७ उ २ प्रत्याख्यानी अप्रत्याख्याना पञ्चक्खाणापच्चक्खाणी ? २१ उत्तर - गोयमा ! जीवा पच्चक्खाणी वि तिणि वि एवं मणुस्सा वितिष्णि वि, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया आइल्लविरहिया सेसा सव्वे अपचक्खाणी, जाव वेमाणिया । २२ प्रश्न - एएसि णं भंते! जीवाणं पञ्चक्खाणीणं जाव विसेसाहिया वा ? २२ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा पञ्चक्खाणी, पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणी असंखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी अनंतगुणा । पंचिंदियतिरिक्खजोणिया सव्वत्थोवा पच्चवखाणापच्चवखाणी, अपचन खाणी असंखेजगुणा | मणुस्सा सव्वत्थोवा पच्चक्खाणी, पच्चक्खाणापच्चक्खाणी संखेज्जगुणा, अपच्चक्खाणी असंखेज्जगुणा । कठिन शब्दार्थ - आइल्लविरहिया - आदि ( प्रथम ) के भंग से रहित । भावार्थ - २० प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव संयत हैं, असंयत हैं, संयतासंयत (देश- संयत ) हैं ? २० उत्तर - हे गौतम ! जीव संघत भी हैं, असंयत भी हैं और संयतासंयत भी हैं। तीनों प्रकार के हैं। इस तरह प्रज्ञापना सूत्र के बत्तीसवें पद में कहे अनुसार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये और तीनों अल्पबहुत्व पूर्ववत् कहना चाहिये । २१ प्रश्न - - हे भगवन् ! जीव, प्रत्याख्यानी हैं, अप्रत्याख्यानी हैं या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी (देश प्रत्याख्यानी ) हैं ? २१ उत्तर - हे गौतम! जीव, प्रत्याख्यानी आदि तीनों प्रकार के हैं। इसी For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ७. उ. २ प्रत्याख्यानी अप्रत्यास्थानी का तरह मनुष्य भी तीनों प्रकार के हैं। पंचेन्द्रिय-तियंच-योनिक जीव, प्रथम भृंग रहित हैं अर्थात् वे प्रत्याख्यानी नहीं हैं, किन्तु अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्वानी हैं। शेष वैमानिक पर्यन्त सभी जीव अप्रत्याख्यानी हैं । ११२७ २२ प्रश्न - हे गौतम ! प्रत्याख्यानी आदि जीवों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? २२ उत्तर - हे गौतम! प्रत्याख्यानी जीव सबसे थोडे हैं, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी जीव उनसे असंख्य गुणे हैं और अप्रत्याख्यानी जीव उनसे अनन्त गुणे हैं। पंचेन्द्रियतियंच जीवों में प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी जीव सबसे थोड़े हैं और अप्रत्याख्यानी उनसे असंख्यगुणे हैं। मनुष्यों में प्रत्याख्यानी मनुष्य सबसे थोडे हैं । प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी उनसे संख्यातगुणे हैं और अप्रत्याख्यानी उनसे असंख्य गुणे हैं । 1 विवेचन-- मूलगुणप्रत्याख्यानी जीव सबसे थोड़ कहे गये हैं अर्थात् सर्वमूलगुणप्रत्या. रूपानी और देश मूलगुण प्रत्याख्यानी जीव सबसे थोड़े हैं, क्योंकि सर्व उत्तरगुणप्रत्याख्यानी और देश उत्तर गुणप्रत्याख्यानी जीव उनसे असंख्य गुणे हैं । इसका कारण यह है कि सर्वविरत (मुनि) जीवों में, जो उत्तर गुणप्रत्याख्यानी हैं, वे अवश्य ही मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, किंतु जो मूलगुणप्रत्याख्यानी हैं, वे कदाचित् उत्तरगुणप्रत्याख्यानी होते भी हैं और नहीं भी होते हैं । जो उत्तरगुणप्रत्याख्यान से रहित हैं, ऐसे मूलगुणप्रत्याख्यानी ही यहाँ पर गृहीत किये हैं । वे दूसरे जीवों से अल्प ही हैं। बहुत से मुनि दस विध प्रत्याख्यान से युक्त होते हैं, फिर भी वे मूलगुणप्रत्याख्यानी जीवों से संख्यात गुणे ही होते हैं, असंख्यात गुणे नहीं होते । क्योंकि सभी मुनि संख्यात ही होते हैं। इस प्रकार मूलगुणप्रत्याख्यानी जीव सबसे थोड़े होते हैं । उत्तरगुणप्रत्याख्यानी जीव उनसे असंख्यात गुणे होते हैं, इसका कारण यह है कि देशविरत जीवों में मूलगुण से रहित भी उत्तरगुण वाले होते हैं, क्योंकि मधु-मांसादि का त्याग एवं विचित्र प्रकार के अभिग्रह के धारक होने से वे उत्तर गुण वाले हैं तथा सामायिक, पौषधोपवास आदि करने वाले होने से वे उत्तरगुण के धारक हैं। इसलिये देशवितोत्तरगुण वालों की अपेक्षा मूलगुण वालों से उत्तरगुण वाले जीव असंख्यात गुणे कहे गये हैं । अप्रत्याख्यानी • जीब उनसे अनन्त गुणे हैं। इसका कारण यह है कि मनुष्य और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च ही प्रत्याख्यान वाले होते हैं, शेष जीव तो अप्रत्याख्यानी ही होते हैं । उनमें वनस्पतिकाय For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. २ क्या जीव शाश्वत है ? के जीव भी सम्मिलित हैं और वे अनन्त हैं। इसलिये अप्रत्याख्यानी जीव अनन्त गुणे हैं । मनुष्यों में अप्रत्याख्यानी असंख्यात गुणे कहे गये हैं, इसका कारण यह है कि इन में सम्मूच्छिम मनुष्यों का ग्रहण किया गया है। गर्भज मनुष्य तो संख्यात ही हैं। : ११२८ मूलगुण प्रत्याख्यानी आदि जीव संयत आदि होते हैं, इसलिये आगे संयतों के संबंध में कहा गया है । संयतादि के सम्बन्ध में जिस तरह प्रज्ञापना सूत्र के बत्तीसवें पद में कहा गया है, उसी तरह यहाँ भी कहना चाहिये तथा उनका अल्पबहुत्व पूर्ववत् कहना चाहिये । औधिक सूत्र में सब से थोड़े संयत जीव हैं, संयतामंयत उनसे असंख्य गुणे हैं और असंयत जीव अनन्त गुणे हैं । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में सब से थोड़े संयतासंयत है; असंयत उनसे असंख्यात गुणे हैं। मनुष्यों में सबसे थोड़े संयत जीव हैं. उनसे संयतासंयत संख्यात गुणे हैं और उनसे असंयत जीव असंख्यात गुणे हैं । प्रत्याख्यानादि होने पर ही संयतादि होते हैं । इसलिये आगे प्रत्याख्यानी आदि के सम्बन्ध में कथन किया गया है । यद्यपि छठे शतक के चौथे उद्देशक में प्रत्याख्यानी आदि का कथन हो चुका है, किन्तु वहाँ उनका अल्प बहुत्व नहीं बताया गया है। इसलिये यहाँ अल्प- बहुत्व सहित प्रत्याख्यानी का पुनः कथन किया गया है, तथा यहाँ सम्बन्धान्तर से उनका कथन प्रासंगिक भी है। अतएव उनका यहां कथन किया गया है । क्या जीव शाश्वत है ? २३ प्रश्न - जीवा णं भंते! किं सासया, असासया ? २३ उत्तर - गोयमा ! जीवा सिय सासया, सिय असासया । प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - जीवा सिय सासया, सिय असासया ? उत्तर- गोयमा ! दव्वट्टयाए सासया, भावट्टयाए असासया, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुबइ - जाव सिय असासया । For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. २ क्या जीव शाश्वत है ? .. ११२९ २४ प्रश्न-णेरड्या णं भंते ! किं सासया, असासया ? : २४ उत्तर-एवं जहा जीवा तहा णेरइया वि, एवं जाव वेमाणिया जाव सिय सासया, सिय असासया । • सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ® ॥ सत्तमसए बिईओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-सासया-शाश्वत (नित्य) दम्वद्वयाए-द्रव्य की अपेक्षा से, मापट्टयाए-भाव की अपेक्षा से । भावार्थ-२३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव शाश्वत है या अशाश्वत है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! जीव कथञ्चित् शाश्वत और कञ्चित् अशाश्वत है। . प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है कि जीव कञ्चित् शाश्वत है और कञ्चित् अशाश्वत है ? ... उत्तर-हे गौतम | द्रव्य की अपेक्षा जीव शाश्वत है और भाव की अपेक्षा जीव अशाश्वत है । इस कारण ऐसा कहता हूं कि जीव कथञ्चित् अशाश्वत २४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिक जीव शाश्वत हैं, या अशाश्वत हैं? - २४ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार जीवों का कथन किया गया है, उसी प्रकार नरयिकों का भी करना चाहिये । इसी तरह वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डक का कथन करना चाहिये कि जीव कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३० भगवती सूत्र-श. ७ उ. ३ वर्षादि ऋतुओं में वनस्पति का आहार विवेचन-जीवों का प्रकरण चालू होने से यहां जीवों के विषय में शाश्वतता और अशाश्वतता का कथन किया गया है । ॥ इति सातवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ७ उद्देशक ३.. वर्षादि ऋतुओं में वनस्पति का आहार १ प्रश्न-वणस्सइकाइया णं भंते ! किं कालं सवप्पाहारगा वा, सव्वमहाहारगा वा भवंति ? १ उत्तर-गोयमा ! पाउसवरिसारत्तेसु णं एत्थ णं वणस्सइ. काइया सव्वमहाहारगा भवंति, तयाणंतरं च णं सरए, तयाणंतरं च णं हेमंते, तयाणंतरं च णं वसंते, तयाणंतरं च णं गिम्हे, गिम्हासु णं वणस्सइकाइया सव्वप्पाहारगा भवंति। .२ प्रश्न-जइ णं भंते ! गिम्हासु वणस्सइकाइया सव्वप्पाहारगा भवंति, कम्हा णं भंते ! गिम्हासु बहवे वणस्सइकाइया पत्तिया, पुफिया, फलिया हरियगरेरिजमाणा, सिरीए अईव अईव उवसोभेमाणा उपसोभेमाणा चिटुंति ? २ उत्तर-गोयमा ! गिम्हासु णं बहवे उसिणजोणिया जीवा For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती.सूत्र-श. ७ उ. ३. वर्षादि ऋतुओं में वनस्पति का आहार ११३१ य, पोग्गला य वणस्सइकाइयत्ताए वक्कमंति विउक्कमति, चयंति, उववजंति, एवं खलु गोयमा ! गिम्हासु वहवे वणस्सइकाइया पत्तिया, पुफिया, जाव चिटुंति । कठिन शब्दार्थ-पाउस-वरिसा-रत्तेसु-पाउम- अर्थात् श्रावण और भाद्रपद मास, परिसा-आश्विन और कार्तिक मास की रात्रियों में, (चौमासे में) तयाणंतरं-उसके बाद, सरए-शरद् ऋतु अर्थात् मार्गशीर्ष और पौष मास में, हेमंते-हेमन्त ऋतु अर्थात् माघ और • फाल्गुण मास में, वसंते-बसंत ऋतु-चैत्र और वैशाख में, गिम्हे-ग्रीष्म-ज्येष्ठ और आषाढ़ मास में, बहवे-बहुत से, हरियगरेरिज्जमाणा-हरियाई से एकदम दीप्ति युक्त, सिरीएशोभा से, उसिणजोणिया-उष्ण योनिवाले, विउक्कमंति-विशेष उत्पन्न होते हैं। भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव, किस काल में सर्वाल्पाहारी (सब से थोड़ा आहार करने वाले) होते है और किस काल में सर्वमहाहारी (सब से अधिक आहार करने वाले) होते हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! प्रावट ऋतु में अर्थात् श्रावण और भाद्रपद मास में तया वर्षा ऋतु में अर्थात् आश्विन और कार्तिक मास में वनस्पतिकायिक जीव, सर्व-महाहारी होते हैं । इसके बाद शरद् ऋतु में इसके बाद हेमन्त ऋतु में इसके बाद बसन्त ऋतु में और इसके बाद ग्रीष्म ऋतु में अनुक्रम से अल्पाहारी होते हैं, एवं ग्रीष्म ऋतु में सर्वाल्पाहारी होते हैं। __ २ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि ग्रीष्म ऋतु में वनस्पतिकायिक जीव, सर्वाल्पाहारी होते हैं, तो बहुत से वनस्पतिकायिक, ग्रीष्म ऋतु में पानवाले, पुष्पवाले, और फलवाले हरे हरे एकदम दीप्तियुक्त एवं वन की शोभा से सुशोभित कैसे होते हैं ? ____२ उत्तर-हे गौतम ! ग्रीष्म ऋतु में बहुत से उष्णयोनिवाले जीव और पुद्गल वनस्पतिकाय रूप से उत्पन्न होते हैं, विशेष रूप से उत्पन्न होते हैं, वृद्धि को प्राप्त होते हैं और विशेष रूप से वृद्धि को प्राप्त होते हैं। इस कारण हे गौतम | गोष्म ऋत में बहुत से वनस्पतिकायिक पत्तों वाले, पुष्पों वाले For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३२ भगवती सूत्र - श. ७ उ. ३ वर्षादि ऋतुओं में वनस्पति का आहार यावत् होते हैं । विवेचन - ऋतुएं छह कही गयी हैं। यथा-प्रावृट्, वर्षा, शरद्, हेमन्त, बसन्त और ग्रीष्म । श्रावण और भाद्रपद को 'प्रावृट्,' आश्विन और कार्तिक को 'वर्षा' मृगशिर और पौष को 'शरद्,' माघ और फाल्गुन को 'हेमन्त,' चैत्र और वैशाख को 'बसन्त' तथा ज्येष्ठ और आषाढ़ को 'ग्रीष्म ऋतु कहते हैं । इन छह ऋतुओं में से प्रावृट् और वर्षा ऋतु में वनस्पतिकायिक जोव, सर्वमहाहारी ( सब से अधिक आहार करने वाले) होते हैं। क्योंकि उस समय वर्षा बरसती है । इसलिये जल की अधिकता के कारण वनस्पति को आहार अधिक मिलता है । उसके बाद शरद् हेमन्त और बसन्त में क्रमश: अल्पाहारी होते हैं और ग्रीष्म ऋतु में सर्वाल्पाहारी होते हैं । ग्रीष्म ऋतु में सर्वाल्पाहारी होते हुए भी कई वनस्पतियाँ पत्र पुष्पादि से युक्त होकर एकदम हरी-भरी दिखाई देती है । इसका कारण यह है कि उनमें उस समय उष्णयोनिक जीव अधिक पैदा होते हैं और वृद्धि को प्राप्त होते हैं । ३ प्रश्न - से णूणं भंते ! मूला मूलजीवफुडा, कंदा कंदजीवफुडा, जाव बीया बीयजीवफुडा ? ३ उत्तर - हंता, गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा, जाव बीया बीयजीवफुडा । ४ प्रश्न - जइ णं भंते ! मूला मूलजीवफुडा, जाव बीया बीयजीवफडा, कम्हा णं भंते ! वणस्सइकाइया आहारेंति, कम्हा परि णामेंति ? ४- उत्तर - गोयमा ! मूला मूलजीवफुडा, पुढवीजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति; कंदा कंदजीवफुडा मूलजीवपाडवृद्धा, तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेंति, एवं जाव बीया बीयजीव For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ३ वर्षादि ऋतुओं में वनस्पति का आहार ११३३ फुडा फलजीवपडिबद्धा तम्हा आहारेंति, तम्हा परिणामेति । कठिन शब्दार्थ--फुडा-व्याप्त, पडिबद्धा-प्रतिबद्ध-बंधे हुए । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वनस्पतिकाय के मूल, मूल के जीवों से स्पष्ट (व्याप्त) होते हैं ? कन्द, कन्द के जीवों से स्पृष्ट होते हैं ? यावत् बीज, बीज के जीवों से स्पृष्ट होते हैं ? . ___३ उत्तर-हाँ गौतम ! मल, मूल के जीवों से स्पष्ट होते हैं यावत् बीज बीजों के जीवों से स्पष्ट होते हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि मूल, मूल के जीवों से व्याप्त हैं यावत् बीज, बीज के जीवों से व्याप्त हैं, तो वनस्पतिकायिक जीव, किस तरह आहार करते हैं और किस तरह परिणमाते हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! मल, मूल के जीवों से व्याप्त हैं और वे पृथ्वी के जीवों के साथ संबद्ध हैं, इससे वनस्पतिकायिक जीव, आहार करते हैं और परिणमाते हैं। इस तरह यावत् बीज, बीज के जीवों से व्याप्त हैं और वे फल के जीवों के साथ संबद्ध हैं। इससे वे आहार करते और उसको परिणमाते है। विवेचन--यहां पर एक ही वृक्षादिरूप वनस्पति के दस विभाग बतलाये गये हैं। यथा-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाला (शाखा),प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि मूलादि के जीव मूलादि से व्याप्त हैं और पुष्प, फल, बीजादि के जीव, पुष्प फल बीजादि से व्याप्त हैं । वे भूमि से दूर हैं और आहार तो भूमिगत होता है, फिर वे किस प्रकार आहार ग्रहण करते हैं और परिणमाते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि मूल, मूलजीवों से स्पृष्ट है और पृथ्वी जीवों के साथ प्रतिबद्ध हैं । उस प्रतिबद्धता के कारण मूल के जीव, पृथ्वी रस का आहार करते हैं । कन्द, कन्द के जीवों से स्पृष्ट हैं और मूल के जीवों से प्रतिबद्ध है । उस मूल जीव प्रतिबद्धता के कारण कन्द के जीव, मूलजीवों द्वारा गृहीत पृथ्वीरस का आहार करते हैं । इस तरह क्रमशः स्कन्धादि से लेकर बीज पर्यन्त समझ लेना चाहिये। ये सब परस्पर एक दूसरे से प्रतिबद्ध हैं। For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३४ भवगती सूत्र-श. ७ उ. ३ कृष्णादि लेश्या और अल्पाधिक कर्म . ५ प्रश्न-अह भंते ! आलुए, मूलए, सिंगबेरे, हिरिली, सिरिली सिसिरिली, किट्ठिया, छिरिया छीरविरालिया, कण्हकंदे, वजकंदे, सूरणकंदे, खेलूडे, अदभद्दमुत्था, पिंडहलिदा, लोहिणीहूथीहू, थिरुगा, मुग्गपण्णी, अस्सकण्णी, सीहकण्णी, सीहंढी, मुसुंढी, जेयावण्णे, तहप्पगारा सव्वे ते अणंतजीवा विविहसत्ता ? .. ५ उत्तर-हंता, गोयमा ! आलुए. मूलए जाव अणंतजीवा विविहसत्ता। कठिन शब्दार्थ--जेयावणे-उसी प्रकार के, तहप्पगारा--तथाप्रकार के। भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! आलू, मूला, अदरख, हिरीलो, सिरीली, सिस्सिरीलो किट्टिका, छिरिया, छोरविदारिका, बज्र कन्द, सूरणकन्द, खेलरा, आर्द्रभद्रमोथा, पिंडहरिद्रा, रोहिणी, हुथिहू, थिरुगा, मुद्गपर्णी, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिहण्डी, मुसुण्ढी और इसी तरह को दूसरी वनस्पतियां, क्या अनन्त जीव वाली हैं और विविध जीव वाली हैं ? ५ उत्तर-हे गौतम ! आलू, मूला यावत् मुसुण्ढी और इसी प्रकार की दूसरी वनस्पतियां अनन्त जीव वाली हैं और विविध जीव वाली हैं। विवेचन-आलू, मूला, हिरीली सिरीली आदि ये सब अनन्तकाय के भेद हैं और भिन्न भिन्न देशों में उन उन नामों से प्रसिद्ध हैं। इनमें अनन्त जीव हैं और वे विविध सत्त्व हैं अर्थात् वर्णादि के भेद से अनेक प्रकार के हैं एवं विचित्र कर्म के कारण भी वे अनेक प्रकार के हैं। कृष्णादि लेश्या और अल्पाधिक कर्म ६ प्रश्न-सिय भंते ! कण्हलेसे गैरइए अप्पकम्मतराए, गील. For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ७ उ. ३ कृष्णादि लेश्या और अल्पाधिक कर्म ११३५ लेसे णेरइए महाकम्मतराए ? ६ उत्तर-हंता, मिया। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुन्चइ-कण्हलेसे णेरइए अप्पकम्मतराए, णीललेसे णेरइए महाकग्मतराए ? ___ उत्तर-गोयमा ! ठिई पडुच्च, से तेणटेणं गोयमा ! जाव महाकम्मतराए । - ७ प्रश्न-सिय भंते ! णीललेसे णेरइए अप्पकम्मतराए, काउ. लेसे गैरइए महाकम्मतराए ? ७ उत्तर-हंता, सिया। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-णीललेसे णेरइए अप्पकम्मतराए, काउलेसे णेरइए महाकम्मतराए ? उत्तर-गोयमा ! ठिइं पडुच्च; से तेणटेणं गोयमा ! जाव महा. कम्मतराए । एवं असुरकुमारे वि, णवरं तेउलेसा अब्भहिया, एवं जाव वेमाणिया जस्स जइ लेस्साओ तस्स तत्तिया भाणियव्वाओ, जोइसियस्स ण भण्णइ । जाव सिय भंते ! पम्हलेस्से वेमाणिए अप्पकम्मतराए, सुक्कलेसे वेमाणिए महाकम्मतराए ? हंता, सिया । से केणटेणं ? सेसं जहा णेरड्यस्स; जाव महाकम्मतराए। कठिन शब्दार्थ-अमहिया-अधिक । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या कृष्णलेश्या वाला नरयिक कदाचित् For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३६ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ३ कृष्णादि लेश्या और अल्पाधिक कर्म अल्पकर्म वाला होता है और नीललेश्या वाला नैरयिक, कदाचित् महाकर्म वाला होता है ? ६ उत्तर-हाँ, गौतम ! होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? जिससे ऐसा कहा जाता है कि कृष्णलेश्या वाला नरयिक, कदाचित अल्पकर्म वाला होता है और नील. लेश्या वाला नरयिक कदाचित् महाकर्म वाला होता है ? उत्तर-हे गौतम ! स्थिति की अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है कि यावत् महाकर्म वाला होता है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नीललेश्या वाला नरयिक कदाचित् अल्पकर्म वाला होता है और कापोतलेश्या वाला नैरयिक, कदाचित् महाकर्म वाला होता है ? ७ उत्तर-हां, गौतम ! कदाचित् होता है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण कहते हैं कि नीललेश्या वाला नैरयिक कदाचित् अल्पकर्म वाला होता है और कापोतलेश्या वाला नैरयिक कदाचित् महाकर्मः वाला होता है ? उत्तर-हे गौतम ! स्थिति की अपेक्षा ऐसा कहता हूँ कि यावत् वह महाकर्म वाला होता है। इसी प्रकार असुरकुमारों के विषय में भी कहना चाहिये, परन्तु उनमें एक तेजोलेश्या अधिक होती है अर्थात् उनमें कृष्ण, नील, कापोत और तेजो, ये चार लेश्याएं होती है इसी तरह वैमानिक देवों पर्यन्त कहना चाहिये । जिसमें जितनी लेश्या हों उतनी कहनी चाहिये, किन्तु ज्योतिषी दण्डक का कथन नहीं करना चाहिये। प्रश्न-यावत् हे भगवन् ! क्या पद्मलेश्या वाला वैमानिक, कदाचित् अल्पकर्म वाला होता है और शुक्ललेश्या वाला वैमानिक कदाचित् महाकर्म वाला होता है ? उत्तर--हां, गौतम ! कदाचित् होता है। For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. ३ वेदना और निर्जरा प्रश्न - हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? उत्तर- शेष सारा कथन नैरथिक की तरह कहना चाहिये यावत् महाकर्म होता हैं । विवेचन - कृष्णलेश्या अत्यन्त अशुभ परिणाम रूप है, उसकी अपेक्षा नीललेश्या कुछ शुभ परिणाम रूप है । इसलिये सामान्यतः कृष्णलेश्या वाला जीव महाकर्मी और नील लेश्या वाला जीव अल्पकर्मी होना है, परन्तु आयुष्य की स्थिति की अपेक्षा कृष्णलेशी जीव कदाचित् अल्पकर्मी और नौललेशी जीव, कदाचित् महाकर्मी भी हो सकता है। जैसे कि सातवीं नरक में उत्पन्न कोई कृष्णलेश्या वाला नैरयिक, जिसने अपनी आयुष्य की बहुत स्थिति क्षय करदी हैं, अतएव उसने बहुत कर्म भी क्षय कर दिये हैं, उसकी अपेक्षा कोई नील लेश्या वाला नैरयिक दस सागरोपम की स्थिति से पाँचवी नरक में अभी तत्काल उत्पन्न " हुआ ही है। उसने आयुष्य की स्थिति अधिक क्षय नहीं की । अतएव उसके अभी बहुत कर्म की हैं। इस कारण वह उस कृष्णलेशी नैरयिक की अपेक्षा महाकर्मी हैं । यहाँ ज्योतिषी दण्ड का निषेध करने का कारण यह है कि ज्योतिषी देवों में केवल एक तेजोलेश्या ही होती है, दूसरी लेश्या नहीं होती। दूसरी लेश्या के न होने से वह . अल्पकर्मी और महाकर्नी, किस दूसरी लेश्या की अपेक्षा कहा जाय ? इसलिये वह अन्य लेश्या सापेक्ष अल्प-कर्म वाला और महाकर्म वाला नहीं कहा जा सकता वेदना और निर्जरा ११३७ ८ प्रश्न-से णूणं भंते ! जा वेयणा सा णिज्जरा, जा णिज्जरा सा वेयणा ? ८ उत्तर - गोयमा ! णो णट्ठे समट्टे । प्रश्न - सेकेट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - जा वेयणा ण सा णिज्जरा, जा णिजरा ण सा वेयणा ? For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ३ वेदना और निर्जरा , उत्तर-गोयमा ! कम्मं वेयणा, णोकम्मं णिजरा, से तेणटेणं गोयमा ! जाव ण सा वेयणा । ___ ९ प्रन-णेरइयाणं भंते ! जा वेयणा सा णिजरा, जा गिजरा सा वेयणा? ९ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-णेरइयाणं जा वेयणा ण सा णिजरा, जा णिजराण सा वेयणा ? उत्तर-गोयमा ! णेरइयाणं कम्मं वेयणा, णोकम्मं णिजरा; से तेणटेणं गोयमा ! जाव ण सा वेयणा, एवं जाव वेमाणियाणं । कठिन शब्दार्थ-णोकम्म-नोकर्म अर्थात् कर्म का अभाव ।, भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! जो वेदना है, वह निर्जरा कहलाती है और जो निर्जरा है, वह वेदना कहलाती है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि जो वेदना है वह निर्जरा नहीं कहलाती और जो निर्जरा है वह वेदना नहीं कहलाती? उत्तर-हे गौतम ! कर्म, वेदना है और नोकर्म, निर्जरा है। इस कारण से ऐसा कहता हूं कि यावत् जो निर्जरा है वह वेदना नहीं कहलाती । * ९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिक जीवों के जो वेदना है, वह निर्जरा कहलाती है और जो निर्जरा है, वह वेदना कहलाती है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। . ___ प्रश्न हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि नरयिक जीवों के जो वेदना है, वह निर्जरा नहीं कहलाती और जो निर्जरा है.वह वेदना नहीं For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ३ वदना आर निजरा ११३९ .ooooo कहलाती ? उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीवों के जो वेदना है, वह कर्म है और जो निर्जरा है, वह नोकर्म है। इसलिये हे गौतम ! में ऐसा कहता हूँ कि यावत् जो निर्जरा है, वह वेदना नहीं कहलाती। इसी प्रकार वैमानिक पर्यन्त चौबीस हो दण्डकों में कहना चाहिये । १० प्रश्न-से गुणं भंते ! जं वेद॑सु तं णिजरिंसु, जं णिजरिंसु तं वेद॑सु ? १० उत्तर-णो इणटे समटे । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जं वेद॑सु णो तं णिजरेंसु, जं णिजरेंसु णो तं वेदेंसु ? उत्तर-गोयमा ! कम्मं देदेंमु, णोकम्मं णिजरिंसु, से तेणटेणं गोयमा ! जाव णो तं वेदें । प्रश्न-णेरड्याणं भंते ! जं वेदेंसु तं णिजरेंसु ? उत्तर-एवं णेरइया वि, एवं जाव वेमाणिया। ११ प्रश्न-से णूणं भंते ! जं वेदेति तं णिजरेंति, ज गिजरेंति तं वेदेति ? ११ उत्तर-गोयमा ! णो इगट्टे समटे । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जाव णो तं वेदेति ? उत्तर-गोयमा ! कम्मं वेदेति, णोकम्मं णिजरेंति, से तेणटेणं For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ३ वेदना और निर्जरा. गोयमा ! जाव णो तं वेदेति, एवं णेरइया वि, जाव. वेमाणिया । १२ प्रश्न-से गूणं भंते ! जं वेदिरसंति तं णिजरिस्संति, जं णिजरिस्संति तं वेदिस्संति ? १२ उत्तर-गोयमा ! णो इणढे समढे । प्रश्न-से केणटेणं जाव णो तं वेदिस्संति ? उत्तर-गोयमा ! कम्मं वेदिस्संति, णोकम्मं णिजरिस्संति, से तेणटेणं जाव णो तं णिजरिस्संति, एवं गैरइया वि, जाव वेमा. णिया । १३ प्रश्न-से णूणं भंते ! जे वेयणासमए से णिजरासमए, जे णिजरासमए से वेयणासमए ? १३ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समठे। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ-जे वेयणासमए णसे णिजरा. समए, जे. णिजरासमए ण से वेयणासमए ? .. उत्तर-गोयमा ! जं समयं वेदेति णो तं समयं णिजरेंति, जं समयं णिजरेंति णो तं समयं वेदेति, अण्णम्मि समए वेदेति अण्णम्मि समए णिजरेंति, अण्णे से वेयणासमए, अण्णे से णिजरासमए; से तेणटेणं जाव ण से वेयणासमए ण से णिजरासमए । For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ७ उ. ३ वेदना और निर्जरा ११४१ १४ प्रश्न-णेरड्याणं भंते ! जे वेयणासमए से गिजरासमए, जे णिजरासमए से वेयणासमए ? १४ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे । प्रश्न-मे केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-णेरइयाणं जे वेयणासमए ण ने णिजराममए, जे णिजरासमए ण से वेयणासमए . उत्तर-गोयमा : णेरड्या णं जं समयं वेदेति णो तं समयं गिजरेंति, जं समयं णिज्जरेंति णो तं समयं वेदेति, अण्णम्मि समए वेदेति, अण्णम्मि समए णिज्जरेंति, अण्णे से वेयणासमए, अण्णे से णिज्जरासमए, से तेणटेणं जाव ण से वेयणासमए, एवं जाव वेमाणियाणं । कठिन शब्दार्थ-अण्णम्मि समए-अन्य समय में । भागर्थ-१० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जिन कर्मों को वेद लिया, उनको निर्जीर्ण किया और निर्जीर्ण किया, उनको वेद लिया ? १० उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। • 'प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि जो वेद लिये, वे निर्जीर्ण नहीं किये और जो निर्जीर्ण किये, वे वेदे नहीं गये ? ..... उत्तर-हे गौतम ! कर्म, वेदा गया और नोकर्म, निर्जीर्ण किया गया। इस कारण पूर्वोक्त प्रकार से कहा जाता है। . . प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिक जीवों ने जिस कर्म को वेदा, वह निर्जीर्ण किया गया ? उत्तर-पूर्व कहे अनुसार नैरयिकों के विषय में भी जान लेना चाहिये। यावत् वैमानिक पर्यन्त चौवीस ही दण्डक में इसी तरह कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. ३ वेदना और निर्जरा ११ प्रश्न - हे भगवन् ! जिसको वेदते हैं, उसकी निर्जरा करते हैं ? और जिसकी निर्जरा करते हैं, उसको वेदते हैं ?.. ११ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । ११४२ प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि जिसको वेदते हैं उसकी निर्जरा नहीं करते और जिसकी निर्जरा करते हैं, उसको वेदते. नहीं ? उत्तर - हे गौतम! कर्म को वेदते हैं और नोकर्म को निर्जीर्ण करते हैं । इसलिये ऐसा कहता हूँ कि यावत् जिसको निर्जीणं करते हैं, उसको वेदते नहीं । इसी तरह नरयिकों के विषय में जानना चाहिये । यावत् वैमानिक पर्यन्त चौबीस ही दण्डक में इसी तरह जान लेना चाहिये । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! जिसको वेदेंगे, उसको निर्जरेंगे और जिसको निर्जरेंगे उसको वेदेंगे ? वेदेंगे ? १२ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि यावत् उसको नहीं 1 उत्तर - हे गौतम! कर्म को वेदेंगे और नोकर्म को निर्जरेंगे। इस कारण यावत् जिसको वेदेंगें उसको नहीं निर्जरेंगे । १३ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जो बेदना का समय हैं, वह निर्जरा का समय है और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय है ? १३ उत्तर - हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । प्रश्न - हे भगवन् ! क्या कारण है कि जो वेदना का समय है वह निर्जरा का समय नहीं और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं ? उत्तर - हे गौतम ! जिस समय वेदते हैं, उस समय निर्जरते नहीं हैं For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. ३ शाश्वत अशाश्वत नैरयिक और जिस समय निर्जरते हैं, उस समय वेदते नहीं, अन्य समय में वेदते हैं और अन्य समय में निर्जरते हैं। वेदना का समय दूसरा है और निर्जरा का समय दूसरा है । इसका कारण यावत् वेदना का जो समय है, वह निर्जरा का समय नहीं । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! नरयिक जीवों के जो वेदना का समय है, वह निर्जरा का समय है और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय है ? १४ उत्तर - हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं । प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि नैरयिकों के जो वेदना का समय है, वह निर्जरा का समय नहीं और जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं ? उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जीव, जिस समय में वेदते हैं, उस समय में निर्जरते नहीं और जिस समय में निर्जरते हैं, उस समय में वेदते नहीं । अन्य समय में वेदते हैं और अन्य समय में निर्जरते हैं। उनके वेदना का समय दूसरा है और निर्जरा का समय दूसरा है। इस कारण से ऐसा कहता हूँ कि यावत् जो निर्जरा का समय है, वह वेदना का समय नहीं । इस वैमानिक पर्यन्त चौवीस ही दण्डक में जान लेना चाहिये । प्रकार यावत् विवेचन- - उदय में आये हुए कर्म को भोगना 'वेदना' कहलाती है और जो कर्म भोगकर क्षय कर दिया गया है, वह 'निर्जरा' कहलाती है । इसलिये वेदना को 'कर्म' कहा गया है और निर्जरा को 'नोकर्म' कहा गया है। वेदना कर्म की होती है । इसलिये वेदना को 'कर्म' कहा गया है। कर्म वेदित हो गया, इसलिये कर्म के अभाव को 'निर्जरा' कहते हैं । ११४३ शाश्वत अशाश्वत नैरयिक १५ प्रश्न - रइया णं भंते ! किं सासया, असासया ? For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४४ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ३ शाश्वत अशाइत नैरयिक १५ उत्तर-गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया । . प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-णेरड्या सिय सासया, सिय असासया ? ... उत्तर-गोयमा ! अव्वोंच्छित्तिणयट्टयाए सासया, वोच्छित्ति- . णयट्टयाए असासया, से तेणटेणं जाव सिय सासया, सिय असासया; एवं जाव वेमाणिया जाव सिय असासया । . * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति* ॥ सत्तमसए तईओ उद्देसो समत्तो। कठिन शब्दार्थ-अव्वोच्छित्तिणयट्टयाए-द्रव्याथिकनय की अपेक्षा, वोच्छित्तिणयट्टयाए-पर्यायाथिकनय की अपेक्षा से । ____ भावार्थ- १५ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव शाश्वत हैं या अशाश्वत हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचित अशाश्वत हैं। प्रश्न- हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि नैरयिक जीव, कथंचित शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत हैं। उत्तर-हे गौतम ! अव्यवच्छित्ति (अव्युच्छित्ति-द्रव्याथिक) नय की अपेक्षा शाश्वत हैं और व्यवच्छित्ति (व्युच्छित्ति--पर्यायाथिक) नय की अपेक्षा अशाश्वत हैं। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहता हूँ कि नरयिक जीव, कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचित् अशाश्वत हैं, इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये कि वे कथंचित् शाश्वत और कथंचित् अशाश्वत हैं। __हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. ४ संसार-समापनक जीव विवेचन — अव्यवच्छित्ति नय का अर्थ है- द्रव्य की अपेक्षा और व्यवच्छित्ति नय का अर्थ है - पर्यायों की अपेक्षा । द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा सभी पदार्थ शाश्वत हैं और पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा सभी पदार्थ अशाश्वत हैं । ॥ इति सातवें शतक का तीसरा उद्देशक समाप्त ॥ शतक ७ उद्देशक ४ संसार - समापन्नक जीव १ प्रश्न - रायगिहे णयरे जाव एवं वयासी - कइ विहा णं भंते ! संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! छव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता, तं जहा - पुढविकाइया, एवं जहा जीवाभिगमे जाव सम्मत्त किरियं वामिच्छत्तकिरियं वा । + जीवा छव्विह पुढवी जीवाण ठिई भवट्ठिई काये । पिल्लेवण अणगारे किरिया सम्मत्त - मिच्छत्ता || सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति || सत्तमस चउत्थो उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ - संसारसमावण्णगा-संसार में रहने वाले, पिल्लेवण - निर्लेपन - खाली होना । + यह गाथा वाचनान्तर है-ऐसा टीकाकार लिखते हैं । ११४५ For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४६ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ४ संसार-समापनक जीव भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतम स्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा । हे भगवन् ! संसारसमापन्नक (संसारी) जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १ उत्तर-हे गौतम! संसारसमापनक जीव, छह प्रकार के कहे गये हैं। यथा-पृथ्वोकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और त्रसकायिक । यह सारा वर्णन जीवाभिगम सूत्र के तिर्यंच के दूसरे उद्देशक में कहे अनुसार सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया पर्यन्त कहना चाहिये । ___ संग्रह गाथा का अर्थ इस प्रकार है-जीवों के छह भेद, पृथ्वीकायिक जीवों के छह भेद । पथ्वीकायिक जीवों की स्थिति, भवस्थिति, सामान्य कायस्थिति, निर्लेपन, अनगार सम्बन्धी वर्णन, सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-पृथ्वीकायिक जीवों के छह भेद कहे गये हैं । यथा - सहा य सुद्ध बालू य, मणोस्सिला सक्कराय खरपुढवी। .. इग बार चोद्दस सोलट्ठार, बावीससयसहस्सा ।। १ ॥ अर्थ-१ सहा (श्लक्ष्णा) २ शुद्ध पृथ्वी, ३ बालुका पृथ्वी, ४ मणोसिला (मन:शिला) पृथ्वी, ५ शर्करापृथ्वी ६ खरपृथ्वी। इन छहों पृथ्वीकायिक जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट स्थिति' श्लक्ष्णा पृथ्वी की एक हजार वर्ष, शुद्ध-पृथ्वी की बारह हजार वर्ष, बालुका पृथ्वी की चौदह हजार वर्ष, मणोसिला (मनःशिला- मेन सिल) पृथ्वी की सोलह हजार वर्ष, शकंरा पृथ्वी की अठारह हजार वर्ष और खर-पृथ्वी की बाईस हजार वर्ष की है। नारकी और देवता की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है। तिर्यञ्च और मनुष्य की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है । इस तरह सभी जीवों की भवस्थिति प्रज्ञापना सूत्र के चौथे स्थिति पद के अनुसार कहनी चाहिये। निर्लेपन-वर्तमान समय में तत्काल के उत्पन्न हए पृथ्वीकाय के जीवों को प्रति समय For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - - श. ७ उ ५ खेचर तियंच के भेद एक एक पहरे -निकाले तो जघन्य पद में असंख्यात अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल में और उत्कृष्ट पद में भी असंख्यात अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी काल में निर्लेप (खाली) होते हैं । जघन्यपद से उत्कृष्ट पद में काल असंख्यात गुणा अधिक समझना चाहिये । इसी तरह अकाय, ते काय और वायुकाय का भी कहना चाहिये । वनस्पतिकाय अनन्तानन्त होने से कभी निर्लेप नहीं होती । त्रसकाय, जघन्य पृथक्त्व सौ सागर में और उत्कृष्टपद में भी पृथक्त्व सौ सागर में निर्लेप होती है, किन्तु जघन्यपद से उत्कृष्ट पद में काल विशेषाधिक है । अविशुद्ध लेश्या वाले अवधिज्ञानी अनगार के, देव देवी आदि को जानने सम्बन्धी बारह आलापक कहने चाहिये । ܚܐ ܐ ܐ अन्तर्थिक कहते हैं कि एक जीव, एक समय में सम्यक्त्व की ओर मिथ्यात्व की ये दो क्रिया करता है । अन्यतीर्थिकों का यह कथन मिथ्या है, क्योंकि एक जीव, एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है, दो क्रिया नहीं कर सकता । इस प्रकार यह सारा वर्णन जीवाभिगम सूत्र के तिर्यञ्च के दूसरे उद्देशक के समान कहना चाहिये । ॥ इति सातवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ७ उद्देशक ५ खेचर तिर्यंच के भेद १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - खहयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते! कइविहे जोणीसंग पण्णत्ते ? १ उत्तर - गोयमा ! तिविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते, तं जहा - अंडया, पोयया, सम्मुच्छिमा ; एवं जहा जीवाभिगमे, जाव 'णो चेव णं ते For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४८ - भगवती सूत्र - श. ७ उ. ५ खेचर तिर्यच के भेद विमाणे वीईवएजा, एमहालया णं गोयमा ! ते विमाणा पण्णत्ता।' जोणीसंगह-लेसा दिट्ठी णाणे य जोग-उवओगे । उववाय-ट्टिइ-समुग्धाय-चवण-जाइ-कुल-विहीओ॥ * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति । ॥ सत्तमसयस्स पंचमो उद्देसो सम्मत्तो॥ कठिन शब्दार्थ-खहयर-खेचर, वीईवएज्जा-उल्लंघन करता है । भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! खेचर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च जीवों का योनि-संग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? १ उत्तर-हे गौतम ! इनका योनि-संग्रह तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-अण्डज, पोतज और सम्मच्छिम । ये सारा वर्णन जीवाभिगम सूत्र में कहे अनुसार कहना चाहिये यावत् 'उन विमानों को उल्लंघा नहीं जा सकता। इतने बड़े विमान कहे गये हैं, यहां तक सारा वर्णन कहना चाहिये। ___ संग्रह गाथा का अर्थ इस प्रकार है-योनि संग्रह, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, उपपात, स्थिति, समुद्धात, च्यवन और जातिकुलकोटि । ... हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--खेचर-पंचेन्द्रिय तियंञ्चों के तीन प्रकार का योनि-संग्रह कहा गया है। उत्पत्ति के हेतु को 'योनि' कहते हैं और अनेक का कथन एक शब्द के द्वारा कर दिया जाय, उसे 'संग्रह' कहते हैं । खेचर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अनेक होते हुए भी तीन प्रकार के योनि. संग्रह के द्वारा उनका कथन किया गया है। यथा-अण्डज, पोतज और सम्मूच्छिम । अण्डे से उत्पन्न होने वाले जीव 'अण्डज' कहलाते है । जैसे कबूतर, मोर, हम आदि । जो जीव जन्म के समय चर्म से आवृत होकर कोथली सहित उत्पन्न होते हैं, वे 'पोतज' कहलाते हैं । जैसे-चिमगादड़ आदि कोई तोता आदि जो माता-पिता के संयोग के बिना उत्पन्न होते हैं For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ ६ आयु का बन्ध और वेदन कहां ? वे सम्मूच्छिम खेचर - तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय कहलाते हैं । खेचर- तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय में अण्डज और पोतज स्त्री, पुरुष और नपुंसक तीनों होते हैं । सम्मूच्छिम जीव नपुंसक ही होते हैं । खंचर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च में लेश्या छह, दृष्टि तीन, ज्ञान तीन, ( भजना से ) अज्ञान तीन ( भजना से ) योग तीन, उपयोग दो पाये जाते हैं । सामान्यतः ये चारों गति से आते हैं और चारों गति में जाते हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग है । केवलो - समुदघात और आहारक समुद्घात को छोड़कर इनमें पांच समुद्घात पाये जाते हैं । इनकी बारह लाख कुल कोड़ी है । इस प्रकरण में अन्तिम सूत्र विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित का है । यदि कोई देव नौ आकाशांतर प्रमाण ( ८५०७४०१ योजन) का एक कदम भरता हुआ छह महीने तक चले तो किसी विमान के अन्त को प्राप्त करता है और किसी विमान के अन्त को प्राप्त नहीं करता । विजयादि चार विमानों का इतना विस्तार है । इन सब बातों का विस्तृत वर्णन जीवाभिगम सूत्र से जान लेना चाहिये ।. ॥ इति सातवें शतक का पांचवा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ७ उद्देशक ११४९ आयु का बन्ध और वेदन कहां ? १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - जीवे णं भंते ! जे भविए रइएस उववजित्तए से णं भंते ! किं इहगए णेरइयाज्यं पकरेह, उववजमाणे रइयाज्यं पकरेइ, उववण्णे णेरइयाउयं पकरेह ? १ उत्तर - गोयमा ! इहगए णेरइयाउयं पकरेइ, णो उववज्जमाणे For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५० भगवती सूत्र - ७ उ ६ आयु का बन्ध और वेदन कहां होता है ? रइयाज्यं पकरेs, णो कुमारेसु वि, एवं जाव माणिएसु । ववण्णे णेरइयाउयं पकरेड़ । एवं असुर २ प्रश्न - जीवे णं भंते ! जे भविए रइएस उववज्जित्तए से णं भंते! किं इहगए णेरइयाउयं पडिसंवेदेह, उववज्जमाणे णेरइयाउयं पडिसंवेदेइ, उववण्णे रइयाज्यं पडिसंवेदेइ ? २ उत्तर - गोयमा ! णो इहगए णेरइयाज्यं पडिसंवेदेह, उववजमाणे रइयाउयं पडिसंवेदेड, उववण्णे वि णेरड्याउयं पडिसंवेदेह । एवं जाव वेमाणिएस । ३ प्रश्न - जीवे णं भंते ! जे भविए णेरइएस उववज्जित्तए से णं भंते ! किं इहगए महावेयणे, उववज्जमाणे महावेयणे, उववण्णे महावेयणे । ३ उत्तर - गोयमा ! इहगए सिय महावेयणे सिय अप्पवेयणे, उववजमाणे सिय महावेयणे सिय अपवेयणे; अहे णं उववण्णे भवइ तओ पच्छा एतदुक्ख वेयणं वेयह, आहच्च सायं । ४ प्रश्न - जीवे णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववजित्तए पुच्छा । ४ उत्तर - गोयमा ! इहगए सिय महावेयणे सिय अप्पवेयणे, उववजमाणे सिय महावेयणे सिय अप्पवेयणे; अहे णं उववण्णे भवइ For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ आयु का बन्ध और वेदन कहां होता है ? ११५१ तओ पच्छ एगंतसायं वेयणं वेदेइ, आहच असायं । एवं जाव थणियकुमारेसु । ___५ प्रश्न-जीवे णं भंते ! जे भविए पुढविक्काइएसु उववजित्तए पुन्छ । ५ उत्तर-गोयमा ! इहगए सिय महावेयणे सिय अप्पवेयणे; एवं उववजमाणे वि, अहे णं उववण्णे भवइ तओ पच्छा वेमायाए वेयणं वेदेइ । एवं जाव मणुस्सेसु, वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिएसु जहा असुरकुमारेमु । कठिन शब्दार्थ-उववज्जित्तए-उत्पन्न होने योग्य, इहगए-इस भव में, उववज्जमाणेउत्पन्न होता हुआ, उववण्णे-उ-पन्न होने के बाद, पडिसंवेदेइ-करता है, आहच्च-कदाचित् । . भावार्थ-१ प्रश्न-राजगह नगर में गौतम स्वामी ने यावत इस प्रकार पूछा-हे भगवन् ! जो जीव, नरक में उत्पन्न होने योग्य है, वह जीव, इस भव में रहता हुआ नरक का आयुष्य बांधता है, या नरक में उत्पन्न होता हुआ नरक का आयुष्य बांधता है ? या नरक में उत्पन्न होने पर नरक का आयुष्य बांधता है.? १ उत्तर-हे गौतम ! इस भव में रहा हुआ जीत, नरक का आयुष्य बांधता है, परन्तु नरक में उत्पन्न होता हुआ नरक का आयुष्य नहीं बांधता और नरक में उत्पन्न होने के बाद भी नरक का आयुष्य नहीं बांधता । इस प्रकार असुरकुमारों में यावत् वैमानिकों तक में भी जान लेना चाहिए। २ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव, नरक में उत्पन्न होने योग्य है, वह इस भव में रहता हुआ नरक का आयुष्य वेदता है, या वहाँ उत्पन्न होता हुआ नरक का आयुष्य बेदता है, अथवा वहाँ उत्पन्न होने के बाद नरक का आयुष्य वेदता है ? ... २ उत्तर-हे गौतम ! इस भव में रहा हुआ जीव नरक के आयुष्य का For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५२ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ आयु का बन्ध और वेदन कहां होता है ? वेदन नहीं करता, परन्तु नरक में उत्पन्न होता हुआ और उत्पन्न होने के बाद नरक के आयुष्य का वेदन करता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक तक चौवीस हो दण्डक में कहना चाहिये । ३ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव, नरक में उत्पन्न होने वाला है, वह इस भव में रहा हुआ महावेदना वाला है, या नरक में उत्पन्न होता हुआ महावेदना वाला है या उत्पन्न होने के बाद महावेदना वाला है ? . ३ उत्तर-हे गौतम ! वह जीव, इस भव में रहा हुआ कदाचित् · महावेदना वाला होता है और कदाचित् अल्प वेदना वाला होता है । नरक में उत्पन्न होता हुआ कदाचित् महावेदना वाला होता है और कदाचित् अल्प वेदना वाला होता है, किंतु नरक में उत्पन्न होने के बाद एकांत दुःख रूप वेदना वेदता है। कदाचित् सुखरूप वेदना वेदता है। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव, असुरकुमारों में उत्पन्न होने वाला है...? ४ उत्तर-हे गौतम | वह इस भव में रहा हुआ ,कदाचित् महावेदना वाला होता है और कदाचित् अल्प वेदना वाला होता है, उत्पन्न होता हुआ कदाचित् महावेदना वाला होता है और कदाचित् अल्प वेदना वाला होता है, परन्तु उत्पन्न होने के बाद वह एकांत सुख रूप वेदना वेदता है और कदाचित् दुःख रूप वेदना वेदता है । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! जो जीव, पृथ्वीकाय में उत्पन्न होने वाला है....? ५ उत्तर-हे गौतम ! इस भव में रहा हुआ वह जीव, कदाचित् महावेदना वाला होता है और कदाचित् अल्प वेदना वाला होता है। इसी प्रकार उत्पन्न होता हुआ भी कदाचित् महा वेदना वाला और कदाचित् अल्प वेदना वाला होता है, परन्तु उत्पन्न होने के बाद वह विमात्रा (विविध प्रकार से) से वेदना वेदता है । इस प्रकार यावत् मनुष्य पर्यन्त कहना चाहिये। जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा है, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देवों के विषय में भी कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ आभोगनिवतितादि आयु ११५३ आभोगनिवर्तितादि आयु ६ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं आभोगणिव्वत्तियाउया, अणाभोगणिव्वत्तियाउया ? ६ उत्तर-गोयमा ! णो आभोगणिव्वत्तियाउया, अणाभोगणिवत्तियाउया । एवं णेरइया वि, एवं जाव वेमाणिया। .. कठिन शब्दार्थ-आभोगनिव्वत्तियाउया-जानते हुए आयुष्य कर्म को बंधकर । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, आभोगनिर्वतित आयुष्य वाले हैं, या अनाभोग निर्वतित आयुष्य वाले हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! जीव, आभोगनिर्वतित आयुष्य वाले नहीं, किन्तु अनाभोगनिर्वतित आयुष्य वाले हैं। इस प्रकार नरयिकों के विषय में भी जानना चाहिये, यावत् वैमानिकपर्यन्त इसी तरह जानना चाहिये । कर्कश अकर्कश वेदनीय ७ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! जीवाणं कक्सवेयणिजा कम्मा कति ? ७ उत्तर-(गोयमा !) हंता, अस्थि । ८ प्रश्न-कहं णं भंते ! जीवाणं ककसवेयणिज्जा कम्मा कति ? ८ उत्तर-गोयमा ! पाणाइवाएणं, जाव मिच्छादसणसल्लेणं; For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ ६ अकर्कश वेदनीय एवं खलु गोयमा ! जीवाणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति । ९ प्रश्न - अत्थि णं भंते! णेरड्याणं कक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति ? ११५४ ९ उत्तर - एवं चेव, एवं जाव वेमाणियाणं । १० प्रश्न - अस्थि णं भंते ! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जंति ? १० उत्तर - हंता, अस्थि । ११ प्रश्न - कहं णं भंते! जीवाणं अककसवेयणिज्जा कम्मा कति ? ११ उत्तर - गोयमा ! पाणाड़वायवेरमणेणं, जाव परिग्गहवेरमणेणं कोहविवेगेणं, जाव मिच्छादंसणसल्लविवेगेणं; एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कज्जति । १२ प्रश्न - अत्थि णं भंते ! णेरइयाणं अकक्कसवेयणिज्जा कम्मा कजंति ? १२ उत्तर - गोयमा ! णो इणट्ठे समट्ठे । एवं जाव वेमाणिया, वरं मणुस्साणं जहा जीवाणं । कठिन शब्दार्थ - - कक्कसवेयणिज्जा – कर्कश - वेदनीय - दुःखपूर्वक भोगी जा सके ऐसी वेदना, अकक्कसवेयणिज्जा -- अकर्कश वेदनीय - जो सुखपूर्वक भोगी जा सके । भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीव, कर्कशवेदनीय ( अत्यन्त दु:ख पूर्वक भोगने योग्य) कर्मों का बन्ध करते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ ककंश अकर्कश वेदनीय ७ उत्तर-हां, गौतम ! बांधते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, कर्कश-वेदनीय कर्म किस प्रकार बांधते हैं ? ८ उत्तर-हे गौतम ! प्राणातिपात के सेवन से यावत् मिथ्यादर्शनशल्य, इन अठारह पापों के सेवन से जीव, कर्कश वेदनीय कर्म बांधते हैं। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या नरयिक जीव, कर्कश-वेदनीय कर्म बांधते ९ उत्तर-हां, गौतम ! बांधते हैं। यावत् वैमानिक पर्यन्त इसी तरह कहना चाहिये। ___ १० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीव, अकर्कश-वेदनीय (सुख पूर्वक भोगने योग्य) कर्म बांधते हैं ? १० उत्तर-हाँ, गौतम ! बांधते हैं। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, अकर्कश-वेदनीय (अति सुखपूर्वक भोगने योग्य ) कर्म किस प्रकार बांधते हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! प्राणातिपात विरमण से यावत् परिग्रह विरमण से तथा क्रोध विवेक (क्रोध का त्याग)से यावत मिथ्यादर्शनशल्य विवेक (त्याग) से जीव, अकर्कश-वेदनीय कर्म बांधते हैं। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव, अकर्कश-वेदनीय कर्म बांधते हैं ? ...१२ उत्तर-हे गौतम! यह अर्थ समर्थ नहीं। इस तरह यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये । परन्तु मनुष्यों के विषय में औधिक जीवों की तरह कथन करना चाहिये। - विवेचन-नरयिक जीव, सदा दुःखरूप वेदना वेदते हैं, किन्तु नरकपालादि (परमाधार्मिक देव आदि) का संयोग न होने पर एवं तीर्थङ्कर भगवान् के जन्म महोत्सव आदि. प्रसंग पर कदाचित् सुखरूप वेदना वेदते हैं। असुरकुमारादि जीव, भव-प्रत्यय के कारण एकान्त साता वेदना वेदते हैं, किन्तु प्रहारादि के लगने से कदाचित् असाता वेदना वेदते हैं। जव कर्कश-वेदनीय कर्म बांधते हैं । जैसे कि स्कन्दक आचार्य के शिष्यों ने पहले के किसी भव में बांधा था । जीव अकर्कश-वेदनीय बाँधते हैं। जैसे कि भरत चक्रवर्ती For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ साता-असाता वेदनीय आदि के बाँधा हुआ था । कर्कश-वेदनीय को बांधने का कारण प्राणातिपातादि अठारह पापस्थान सेवन है और इन अठारह पापस्थानों का त्याग करने से अकर्कश-वेदनीय कर्म का बंध होता है। नरकादि जीवों में प्राणातिपात आदि पाप स्थानों का विरमण नहीं, इसलिये वे अकर्कश-वेदनीय कर्म का बन्ध नहीं कर सकते । साता-असाता वेदनीय १३ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! जीवाणं सायावेयणिजा कम्मा कजति ? १३ उत्तर-हंता, अस्थि । .१४ प्रश्न-कहं णं भंते ! जीवाणं सायावेयणिज्जा कम्मा कजति ? - १४ उत्तर-गोयमा ! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयाए, जीवाणुकंपयाए, सत्ताणुकंपयाए; बहूणं पाणाणं, जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए, असोयणयाए, अजूरणयाए, अतिप्पणयाए, अपिट्टणयाए, अपरियावणयाए; एवं खलु गोयमा ! जीवाणं सायावेयणिजा कम्मा कजंति; एवं णेरइयाण वि, एवं जाव वेमाणियाणं । ____१५ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! जीवाणं असायावेयणिज्जा कम्मा कजंति ? १५ उत्तर-हंता, अस्थि । १६ प्रश्न-कहं णं भंते ! जीवाणं असायावेयणिजा कम्मा For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ७ उ. ६ माता-असाता वेदनीय कजति ? १६ उत्तर-गोयमा ! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए, परजूरणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, परपरियावणयाए; बहूणं पाणाणं, जाव सत्ताणं दुक्खणयाए, सोयणयाए जाव परियावणयाए; एवं खलु गोयमा ! जीवाणं अस्सायावेयणिजा कम्मा कजंति । एवं णेरइयाण वि, एवं जाव वेमाणियाणं । ___ कठिन शब्दार्थ-सायावेयणिज्जा-सुखपूर्वक वेदी जाने वाली, पाणाणुकंपयाए-प्राणियोंकी अनुकम्पा करने से, परसोयणयाए-दूसरे जीवों को शोक कराने से, परजूरणयाए-दूसरों को खेदित करने से, तिप्पणयाए-टपटप आंसू गिराने से, परपिट्टणयाए-दूसरों को पीटने से । भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, साता-वेदनीय कर्मों का बन्ध करते हैं ? १३ उत्तर-हाँ, गौतम ! करते हैं। १४ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, सातावेदनीय कर्म किस प्रकार बांधते हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों पर अनुकम्पा करने से, बहुत से प्राणों, मतों और सत्त्वों को दुःख न देने से, उन्हें शोक उत्पन्न न करने से, उन्हें खेदित एवं पीड़ित न करने से, उनको न पीटने से, उनको परिताप (कष्ट ) नहीं देने से जीव, सातावेदनीय कर्म बांधते हैं। इसी प्रकार नरयिकों में भी जानना चाहिये, यावत् वैमानिक पर्यन्त इसी तरह कहना चाहिये। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, असातावेदनीय कर्म बांधते हैं ? १५ उत्तर-हां, गौतम ! बांधते हैं। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव, असाता-वेदनीय कर्म किस प्रकार बांधते हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! दूसरे जीवों को दुःख देने से, दूसरे जीवों को शोक उत्पन्न करने से, दूसरे जीवों को खेद उत्पन्न करने से, दूसरे जीवों को पीडित For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५८ भगवती मूत्र-श. ७ उ, ६ भरत में दुषम-दुषमा काल करने से, दूसरे जीवों को पीटने से, दूसरे जीवों को परिताप उत्पन्न करने से, बहुत से प्राग, भूत, जीव और सत्त्वों को दुःख देने से, शोक उत्पन्न करने से यावत परिताप उत्पन्न करने से जोव, असाता-वेदनीय कर्म बांधते हैं। इसी प्रकार नरयिकों में और इसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिये । विवेचन-यहाँ साता-वेदनीय कम बन्ध के दस कारण बनलाये गये हैं । यथा(१) प्राण (२) भूत (३) जीव (४) सत्त्व, इन चारों पर अनुकम्पा करने से । (५) बहुत प्राण, भूत, जाव और सत्त्वों पर अनुकम्पा करने से । (६) उन्हें शोक नहीं उपजाने से । (७) खेदित नहीं करने से । (८) वेदना (पीड़ा) नहीं उपजाने से । (५) नहीं पीटने से और (१०) परिताप नहीं उपजाने से । इन दस कारणों से जीव, साता-वेदनीय कर्म बांधता है। ... असाता-वेदनीय कर्म बांधने के बारह कारण बतलाये गये हैं । यथा-(१) दूसरे जीवों को दुःख देने से । (२) शोक उत्पन्न करने से । (३) खेद उपजाने से । (४) पीड़ा उपजाने से । (५) पीटने से । (६) परिताप उपजाने से । (७ से १२) बहुत प्राण, भूत, जीव, सत्त्वों को दुःख देने से, शोक उपजाने से, खेद उत्पन्न करने से, पीड़ा पहुंचाने से पीटने मे और परिताप उपजाने से जीव, असातावेदनीय कर्म वांधना है । भरत में दुषम-दुषमा काल १७ प्रश्न-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए दुसमदुसमाए समाए उत्तमकट्टपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ ? । १७ उत्तर-गोंयमा ! कालो भविस्सइ हाहाभूए, भंभाभूए, कोलाहलगभूए; समयाणुभावेण य णं खर-फरुम-धूलिमइला, For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ७ उ. भरत में दुषम-दुषमा काल दुव्विसहा, वाउला, भयंकरा, वाया संवद्रुगा य वाहिंति; इह अभिनव धूनाहिंति य दिना समंता रओसला, रेणुकलुसतम पडलणिरालोगा; समयलुम्वयाए य णं अहियं चंदा सीयं मोच्छंति, अहियं सूरिया तवइस्मंति; अदुत्तरं च णं अभिक्खणं बहवे अरसमेहा, विरसमेहा, खारमेहा, खत्तमेहा, (खट्टमेहा) अग्गिमेहा, विज्जुमेहा, सिमेहा, असणिमेहा; अपिवणिज्जोदगा [अजवणिजोदया] वाहि-रोग-वेदणोदीरणा परिणामसलिला, अमणुष्णपाणियगा, चंडाणिलवहयतिक्वधाराणिवायपरं वासं वासिहिंति, जे णं भारहे वासे गामाऽऽगस्-नयर खेड- कबड-मडंब - दोणमुह-पट्टणाऽऽसमयं जणवयं चउप्पय गवेलए, खहयरे य पक्खिसंधे, गामा-रण्ण पयारणिरए तसे य पाणे, हुप्पगारे रुक्ख गुच्छ गुम्म-लय- वल्लि-तणपव्वग - हरिओमहि पवालंकुरमादीए य तण वणस्सइकाइए विदुधंसेहिंति, पव्वय- गिरि- डोंगर - उत्थल- भट्टिमादीए य वेयड्ढगिरिवजे विरावेहिंति, सलिलविल-गड्ड- दुग्गविसमणिष्णुष्णया च गंगासिंधुवज्जा समीकरेहिंति । " १८ प्रश्न - तीसे णं समाए भारहवासस्स भूमीए केरिसए आयारभाव पडोयारे भविस्सह ? १८ उत्तर - गोयमा ! भूमी भविस्सर इंगालब्भूया, मुम्मुरब्भया, छारियभूया, तत्तकवेल्लयब्भूया, तत्तसमजोइभूया, धूलिबहुला, रेणु For Personal & Private Use Only " 7 ११५९ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ. ६ भरत में दुषम-दुषमा काल वहुला, पंकबहुला, पणगबहुला, चलणिबहुला, बहूणं धरणिगोयराणं सत्ताणं दुणिक्कमा यावि भविस्सइ । . कठिन शब्दार्थ-उत्तमकट्ठपत्ताए-अत्यंत उत्कट अवस्था प्राप्त, आयारभावपडोयारेआकारभावप्रत्यवतार-आकार और भावों का आविर्भाव, हाहाभूए-हाहाकार भूत, भंभाभूएकराहने रंभाने जैसे, खरफरुसधूलिमइला-कठोर स्पर्श और धूल से मेले शरीर वाले, दुन्विसहादुम्सह-मुश्किल से सहन करने योग्य, वाउल-व्याकुल, वायासंवट्टगा य वाहिति-संवर्तक वायु चलेगा, धूमाहिति-धूल उड़ने से, रओसला-रजस्वला, रेणुकलुसतमपडलणिरालोगारज से मलीन हो अंधकार के पट जैसी, नहीं दिखाई देने वाली, समयलक्खयाए-काल की रुक्षता से, चंडाणिलपहयतिक्खधाराणिवायपउरंवासं वासिहिति-भयानक वायु के साथ तीक्ष्ण धारा से बहुत बरसात होगी, अदुत्तरं-अधवा, डोंगर-डूंगर-पर्वत, दुणिक्कमा-दुनिष्कमामुश्किल से पार करने योग्य । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के भरत क्षेत्र में इस अवपिणी काल के दुषमदुषमनामक छठा आरा जब अत्यन्त उत्कट अवस्था को प्राप्त होगा, तब इस भरतक्षेत्र का आकारभावप्रत्यवतार (आकार और भावों का आविर्भाव) कैसा होगा? १७ उत्तर-हे गौतम ! वह काल हाहाभूत अर्थात् मनुष्यों के हाहाकारयुक्त, भंभाभूत अर्थात् पशुओं के दुःखयुक्त आर्तनाद से युक्त (जिस काल में पशु भाँ भां शब्द करेंगे) कोलाहलभूत (दुःख से पीड़ित पक्षी जिसमें कोलाहल करेंगे) होगा। काल के प्रभाव से अत्यन्त कठोर, धूमिल (धूल से मलीन बने हुए), असह्य, व्याकुल (जीवों को आकुल-व्याकुल कर देने वाली) और भयंकर वायु एवं संवर्तक वायु चलेगी। इस काल में बारबार चारों तरफ धूल उड़ती हुई होने से रज से मलीन, अन्धकार युक्त और प्रकाश-शून्य दिशाएँ होगी। काल की रुक्षता से चन्द्रमा से अत्यन्त शीतलता गिरेगी और सूर्य अत्यन्त तपेंगे। अरस मेघ अर्थात खराब रस वाले मेघ, विरस (विरुद्ध रस वाले) मेघ, क्षार मेघ अर्थात् खारे पानी वाले मेघ, तिक्त मेघ अर्थात् खट्टे पानी वाले मेघ, अग्नि मेघ अर्थात अग्नि के समान गर्म पानी वाले मेघ, विद्युत्मेघ अर्थात् बिजली सहित मेघ, For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ७ उ ६ भरत में दुपम दुपमा काल विषमेघ अर्थात् विष सरीखे पानी वाले मेघ, अशनिमेघ अर्थात् ओले (गडे ) बरसाने वाले मेघ अथवा वस्त्र आदि के समान पर्वतादि को तोड़ने वाले मेघ, अपेय अर्थात् नहीं पीने योग्य पानी वाले मेघ, तृषा को शान्त न कर सकने वाले पानी युक्त मेघ, व्याधि, रोग और वेदना उत्पन्न करने वाले मेघ, मन को अरुचिकर पानी वाले मेघ, प्रचण्डं वायु युक्त तीक्ष्ण धाराओं के साथ बरसेंगे । जिससे भरत क्षेत्र के ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडम्ब, द्रोणमुख, पट्टन और आश्रम, इन स्थानों में रहने वाले मनुष्य, चतुष्पद, खग ( आकाश में उड़ने वाले पक्षी) ग्राम और जंगलों में चलने वाले त्रस जीव तथा बहुत प्रकार के वृक्ष, गुल्म, लताएँ, बेलें, घास, दूब, पर्वक (गन्ने आदि ) शाल्यादि धान्य, प्रवाल और अंकुर आदि तृण वनस्पतियाँ, ये सब विनष्ट हो जायेगी । वैताढ्य पर्वत को छोड़कर शेष सभी पर्वत, छोटे पहाड़, टीले, स्थल, रेगिस्तान, आदि सब का विनाश हो जायगा। गंगा और सिन्धु, इन दो नदियों को छोड़कर शव नदियां, पानी के झरने, गड्ढे, सरोवर, तालाब आदि सब नष्ट हो जायेंगे । दुर्गम और विषम, ऊँचे और नीचे सब स्थान समतल हो जायेंगे । १८ प्रश्न - हे भगवन् ! उस समय में भरत क्षेत्र की भूमि का आकारभावप्रत्यवतार ( आकार और भावों का आविर्भाव - स्वरूप) कैसा होगा ? ܕ ܕ ܕ . १८ उत्तर - हे गौतम ! उस समय इस भरतक्षेत्र की भूमि अंगार के समान, मुर्मुर ( छाणा को अग्नि) के समान, भस्मीभूत (गर्म राख के समान ), तपे हुए लोह के कड़ाहे के समान, ताप द्वारा अग्नि के समान, बहुत धूल वाली, बहुत रज वाली, बहुत कीचड़ वाली बहुत शैवाल वाली, बहुत चलनि ( कर्दम ) वाली होगी। जिस पर पृथ्वीस्थित जीवों को चलना बड़ा ही कठिन होगा । विवेचन – इस अवसर्पिणी काल के दुपमदुषमा नामक छठे आरे में इस भरत क्षेत्र का कैसा स्वरूप होगा ? मनुष्य और पशु-पक्षियों की क्या दशा होगी और भूमि का स्वरूप कैसा होगा, इसका वर्णन ऊपर बतलाया गया है । यह अवसर्पिणी काल है । इसलिये इसमें जीवों के संहनन और संस्थान क्रमशः हीन होते जायेंगे। आयु, अवगाहना, उत्थान, कर्म, For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६२ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ छठे आरे के मनुष्यों का स्वरूप बल, वीर्य, पुरुष कार-पराक्रम का ह्रास होता जायगा । इस काल में पुद्गलों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हीन होते जावेंगे। शुभभाव घटते जावेंगे और अशुभ भाव बढ़ते जावेंगे। अवसर्पिणी काल दस कोडाकोड़ी सागरोपम का होता है। इस काल के छह विमाग है जिन्हें 'आरा' कहते हैं । वे इस प्रकार हैं-(१) सुषमसुषमा, (२) सुषमा, (३) सुषमदुषमा, (४) दुषमसुषमा, (५) दुषमा और (६) दुषमदुषमा। इन सब आरों में जीव और पुद्गलों की क्रमशः हीन, हीनतर और हीनतम दशा होती जाएगी। छठे आरे में हीनतम दशा होगी। जिसका वर्णन ऊपर किया गया है । इसका विस्तृत विवेचन जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र के दूसरे वक्षस्कार में है। वहाँ अवसर्पिणी काल के छह आरों का तथा उत्सर्पिणीकाल के छह आरों के स्वरूप का विस्तृत वर्णन दिया गया है। छठे आरे के मनुष्यों का स्वरूप १९ प्रश्न-तीसे णं भंते ! समाए भारहे वासे मणुयाणं केरिसए आयारभावपडोयारे भविस्सइ ? __ १९ उत्तर-गोयमा ! मणुया भविस्संति दुरूवा, दुव्वण्णा, दुग्गंधा, दुरसा, दुफासा, अणिट्ठा, अकंता जाव अमणामा, हीणस्सरा, दीणस्सरा, अणिट्ठस्सरा, जाव अमणामस्सरा, अणादेज्जवयणपच्चायाया णिल्लज्जा, कूड-कवड-कलह-वह-बंध-वेरणिरया, मज्जायातिक्कमप्पहाणा, अकज्जणिच्चुज्जता, गुरुणियोय-विणयरहिया य, विकलरूवा, परूढणह-केस-मंसु-रोमा, काला, खर-फरसझामवण्णा, फुट्टसिरा, कविल-पलियकेसा, बहुण्हारसंपिणद्ध-दुईसणिज्जरूवा, संकुडियवलीतरंगपरिवेढियंगमंगा, जरापरिणयव्व For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ छठे आरे के मनुप्यों का स्वरूप ११६३ थेरगणरा; पविरलपरिसडियदंतसेढी, उम्भडघड (य) मुहा (उच्भडघाडामुहा) विसमणयणा, वंकणासा वंक (ग) वलीविगय-भेसणमुहा, कच्छू कमरा-भिभूया, खर-तिक्खणख-कंड्यविक्खयतणू, दददुः किडिभ सिंज्झ-फुडियफल्सच्छवी, चित्तलंगा, टोलागइ-विसमसंधिबंधणउक्कुडुअट्ठिगविभत्त-दुबला कुसंघयण-कुप्पमाण-कुसंटिया, कुरूवा कुट्ठाणासण-कुसेज्ज-दुभोइणो, असुइणो, अणेगवाहिपरिपीलियंगमंगा, खलंत-वेव्भलगई, निरुच्छाहा, सत्तपरिवज्जिया, विगय चेट्ट-गढतेया, अभिक्खणं सीय-उण्ह-खर-फरुसवायविज्झ:डियमलिणपंसुरयगुडियंगमंगा, बहुकोह-माण-माया, बहुलोभा, असुह-दुक्खभागी, ओसणं धम्मसण्ण-सम्मत्तपरिभट्ठा, उक्कोसेणं रयणिप्पमाणमेत्ता, सोलसवीसइवासपरमाउसो, पुत्त-णत्तुपरियालपणय (परिपालण) बहुला गंगा: सिंधूओ महाणईओ, वेयड्ढे च पव्वयं णिस्साए बावत्तारै णिओया बीयं बीयामेत्ता विलवासिणो भविस्संति । . कठिन शब्दार्थ-मणादेज्जवयणा-जिनके वचन स्वीकार करने योग्य नहीं, जिल्लज्जानिलंज्ज, मज्जायातिक्कमप्पहाणा-मर्यादा का उल्लंघन करने में अग्रगण्य, अकज्जणिच्चज्जत्ता-अकार्य करने में सदैव तत्पर, गुरुनियोविणयरहिया-मातापितादि गुरुजन के विनय से रहित, फुट्टसिरा-खड़े केश वाले, कविलपलियकेसा-कपिल अर्थात् पीले और पलित अर्थात् सफेद केग वाले. कच्छूकसराभिभूया-खुजली को खुजलाने से दुःखी बने हुए, बकिरिसिज्म फुडिय फरसच्छवी-दाद किडिभ और कुष्ट रोग से कटी हुई चमड़ी वाले, टोलागइ-ऊँट के समान चाल, खलंत वेम्भलगई-स्खलन युक्त विव्हल गतिवाले, मोसणं-बहुलता से प्रायः करके, णिस्साए-आश्रय में । For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ छठे आरे के मनुष्यों का स्वरूप भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! उस समय अर्थात् 'दुषमदुषमा' नामक छठे आरे के समय मनुष्यों का आकारभाव-प्रत्यवतार (आकार और भावों का आविर्भाव-स्वरूप) कैसा होगा? १९ उत्तर-हे गौतम ! उस समय इस भरतक्षेत्र के मनुष्य, कुरूप, कुवर्ण, कुगन्ध, कुरस और कुस्पर्शयुक्त, अनिष्ट, अमनोज, अमनाम (मन को नहीं गमने वाले अर्थात् अच्छे नहीं लगने वाले) हीन स्वर, दीन स्वर, अनिष्ट स्वर, अमनोज्ञ स्वर और यावत् असनाम स्वरयुक्त, अनादेय और अप्रीति युक्त वचन वाले, निर्लज्ज, कूट, कलह, वध, बन्ध और वैर में आसक्त, मर्यादा का उल्लंघन करने में अग्रणी, अकार्य में तत्पर, माता-पिता आदि पूज्यजनों की आज्ञा भंग करने वाले, विनय रहित, विकलरूप अर्थात् बेडौल आकार वाले, बढ़े हुए नख, केश, दाढी, मूंछ और रोम वाले, काले, अतीव कठोर, श्यामवर्ण वाले, . बिखरे हुए बालों वाले, पीले और सफेद केशों वाले, अनेक स्नायुओं से आवेष्टित, दुर्दर्शनीय रूप वाले, संकुचित और वली-तरंगयुक्त (झुर्रियों से युक्त) टेढ़ेमेढ़े अंगोपांग वाले, अनेक प्रकार के कुलक्षणों से युक्त, जरापरिणत वृद्ध पुरुष के सदृश प्रविरल और टूटे फूदे सडे दाँतों वाले, घडे के समान भयङ्कर मुंह वाले, विषम नेत्रों वाले, टेढ़ी नाक वाले, टेढ़े और विकृत मुखवाले, खाज (एक प्रकार की भयङ्कर खुजली) वाले, कठिन और तीक्ष्ण नखों द्वारा खुजलाने से विकृत बने हुए, दद्रु (दाद) किडिभ (एक प्रकार का कोढ़) सिध्म (एक प्रकार का भयंकर कोढ़) वाले, फटी हुई कठोर चमडी वाले, विचित्र अंग वाले, ऊंट के समान गति वाले, कुआकृतियुक्त, विषमसंधिबन्धनयुक्त, ऊँची नीची विषम हड्डियों और पसलियों से युक्त, कुगठन युक्त, कुसंहनन वाले, कुप्रमाणयुक्त, विषम संस्थानयुक्त, कुरूप कुस्थान में बढ़े हुए शरीर वाले, कुशय्या वाले (खराब स्थान में शयन करने वाले,) कुभोजन करने वाले, विविध व्याधियों से पीड़ित, स्खलित गति वाले, उत्साह रहित, सत्त्व रहित, विकृत चेष्टा युक्त, तेज होन, बारम्बार शीत, उष्ण, तीक्ष्ण और कठोर पवन से व्याप्त (संत्रस्त) रज आदि से मलिन For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ छठे आरे के मनुष्यों का स्वरूप ११६५ अंग वाले, अत्यन्त क्रोध, मान, माया और लोम से युक्त, अत्यन्त अशुभ वेदना को भोगने वाले और प्रायः धर्म-संज्ञा (धर्म-भावना) एवं सम्यक्त्व से भ्रष्ट होंगे । इनको अवगाहना एक हाथ प्रमाण होगी। इनका आयुष्य सोलह वर्ष और अधिक से अधिक बीस वर्ष का होगा। ये बहुत पुत्रपौत्रादि परिवार वाले तथा अत्यन्त ममत्व वाले होंगे। इनके बहत्तर कुटुम्ब (आश्रय स्थान वाले) बीजभत (आगामी मनुष्य जाति के लिए बीज रूप) होंगे। ये गंगा और सिन्धु महानदियों के बिलों में और वैताढय पर्वत की गुफाओं का आश्रय लेकर रहेंगे। २० प्रश्न ते णं भंते ! मणुया कं आहारं आहारोहिंति ? २० उत्तर-गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं गंगा-सिंधुओ महाणईओ रहपहवित्थराओ अक्खसोयप्पमाणमेत्तं जलं वोज्झिहिंति, से वि य णं जले बहुमच्छ कच्छभाइण्णे णो चेव णं आउबहुले. भविस्सइ । तए णं ते मणुया सूरुगमणमूहुत्तसि य सूरस्थमणमुहुतंसि य बिलेहितो णिद्धाहिति, णिद्धाइत्ता मच्छ-कच्छभे थलाइं गाहेहिंति, गाहित्ता सीयायवतत्तएहिं मच्छ-कच्छएहिं एक्कवीसं वाससहस्साई वित्तिं कप्पेमाणा विहरिस्संति । २१ प्रश्न-ते णं भंते ! मणुया णिस्सीला, णिग्गुणा, णिम्मेरा, णिप्पञ्चक्खाण-पोसहोववासा ओसण्णं मंसाहारा, मच्छाहारा, खोदाहारा, कुणिमाहारा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिंति, कहिं उववजिहिंति ? . २१ उत्तर-गोयमा ! ओसणं गरग-तिरिक्खजोणिएसु उव For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६६. भगवभी सूत्र-श. ७ उ. ६ छठे आरे के मनुष्यों का स्वरूप वजिहिति । २२ प्रश्न ते णं भंते ! सीहा, वग्धा, वगा, दीविया, अच्छा, तरच्छा, परस्सरा, णिस्सीला तहेव जाव कहिं उववजिहिंति ? ___२२ उत्तर-गोयमा ! ओसण्णं णरग-तिरिक्खजोणिएसु उववजिहिति ।। ___२३ प्रश्न ते णं भंते ! ढंका, कंका, विलका, मदुगा, सिही, णिस्सीला, तहेव जाव ओसण्णं णरग-तिरिक्खजोणिएसु उववजिहिंति। * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति® ॥ सत्तमस्स सयस्स छटो उद्देसओ समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-अक्खसोयप्पमाणमेत्तं-रथ की धुरी रहने के छिद्र जितने प्रमाण में, वोज्झिहिति-बहेंगा, निद्धाहिति-निकलेंगे, जिम्मेरा–कुलादि की मर्यादा से हीन, खोद्दाहारा क्षुद्र आहार वाले, कुणिमाहारा-मृतक का मांस खाने वाले, परस्सराशरभ, मदुगा-जलकाक (जलकोए) । भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! वे मनुष्य किस प्रकार का आहार करेंगे? २० उत्तर-हे गौतम ! उस काल उस समय में गंगा और सिन्धु महानदियां, रथ-मार्ग प्रमाण विस्तृत होगी। उनमें अक्ष-प्रमाण (धुरी के छिद्र में प्रवेश करे उतना) पानी बहेगा । उस जल में अनेक मच्छ और कच्छप होंगे। पानी अति अल्प होगा। वे बिलवासी मनुष्य सूर्योदय के समय एक मुहर्त और सूर्यास्त के समय एक मुहूर्त अपने अपने बिलों से बाहर निकलेंगे और गंगा सिन्धु महानदियों में से मछलियां और कच्छपादि को पकड़ कर रेत में गाड़ देंगे। वे रात को ठण्ड से और दिन की गर्मी से सिक जायेंगे । इस प्रकार शाम को गाडे For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ ६ छठे आरे के मनुष्यों का स्वरूप हुए मच्छादि को सुबह निकाल कर खायेंगे और सुबह के गाडे हुए मच्छादि को शाम को निकाल कर खायेंगे। इस प्रकार वे इक्कीस हजार वर्ष तक अपनी आजीविका चलावेंगे । २१ प्रश्न - हे भगवन् ! शील रहित, निर्गुण, मर्यादा रहित, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास रहित, प्रायः मांसाहारी, मत्स्याहारी, क्षुद्राहारी, मृतकाहारी वे मनुष्य, मरण समय काल करके कहाँ जायेंगे ? कहाँ उत्पन्न होंगे ? २१ उत्तर - हे गौतम ! वे मनुष्य प्रायः नरक और तिर्यञ्च में जायेंगे, नरक तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होंगे। ११६७ २२ प्रश्न - हे भगवन् ! उस काल और उस समय के सिंह, व्याघ, वृक (भेड़िया, ) द्वीपो ( गेण्डा) रीछ, तरक्ष (जरख), शरभ आदि जो कि पूर्वोक्त रूप से निःशील आदि होंगे, वे मर कर कहाँ जायेंगे ? कहाँ उत्पन्न होंगे ? २२ उत्तर - हे गौतम! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होंगे । २३ प्रश्न - हे भगवन् ! उस काल और उस समय के ढंक (एक प्रकार के कौए) कंक, बीलक, जलवायस ( जल काक) मयूर आदि निःशील आदि होंगे, वे मर कर कहाँ उत्पन्न होंगे ? पक्षी जो पूर्ववत् २३ उत्तर - हे गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न होंगे। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-दुषमदुषमा नामक छठे आरे के मनुष्य कैसे होंगे, वे किस प्रकार का आहार करेंगे, इत्यादि बातों का वर्णन ऊपर किया गया है। उस समय के मनुष्य प्रायः धर्म और सम्यक्त्व से रहित होंगे। अत्यन्त पापी और अधर्मिष्ठ होंगे । अतएव वे मरकर प्रायः नरक और तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होंगे । इसी प्रकार उस समय के सिंह व्याघ्रादि जानवर और ढंक कंकादि पक्षी भी मरकर प्रायः नरक और तिर्यञ्च गति में उत्पन्न होंगे । ॥ इति सातवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६८ भगवती सूत्र - श. ७ उ ७ संवृत्त अनगार और क्रिया शतक ७ उद्देशक ७ सवृत अनगार और क्रिया १ प्रश्न - संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स आउतं गच्छ माणस, जाव आउतं तुयमाणस्स, आउतं वत्थं पडिग्गहं कंबलं पायपुंछणं गेहमाणस्स वा, णिक्खिवमाणस्स वा, तस्स णं भंते । किं इरियावहिया किरिया कज्जइ, संपराइया किरिया कज्जड़ ? १ उत्तर - गोयमा ! संवुडस्स णं अणगारस्स जाव तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, णो संपराइया किरिया कज्जइ । प्रश्न - सेकेणटुणं भंते ! एवं वुच्चइ - संवुडस्स णं जाव णो संपराइया किरिया कज्जइ ? उत्तर - गोयमा ! जस्स णं कोह- माण- माया लोभा वोच्छिणा भवंति तस्स णं इरियावहिया किरिया कज्जइ, तहेव जाव उस्सुत्तं रीयमाणस्स संपराइया किरिया कज्जइ; से णं अहासुत्तमेव रीयह, से तेणणं गोयमा ! जाव णो संपराइया किरिया कजड़ । कठिन शब्दार्थ - संवुडस्स - संवृत--संयमी, आउत्तं- उपयोग पूर्वक, गच्छमाणस्स - चलते हुए, तुयमाणस्स - सोते हुए, णिक्खिवमाणस्स रखते हुए, , इरियावहियं - गमनागमन सम्बन्धी ( अकषायी को), संपराइया - कषाय के सद्भाव में लगने वाली, बोच्छिण्णा नष्ट, उस्सुतंउत्सूत्र-सूत्र विधि रहित, रीयमाणस्स चलते हुए, अहासुत्तमेव - यथासूत्र - सूत्रानुसार । For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श. ७ उ. ७ काम-भोग भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! उपयोग पूर्वक चलते, बंठते यावत् सोते तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, और पादप्रोञ्छन (रजोहरण) आदि लेते हुए और रखते हुए संवृत (संवरयुक्त) अनगार को ऐपिथिकी क्रिया लगती है या साम्परायिकी क्रिया लगती है ? १ उत्तर-हे गौतम ! संवरयुक्त अनगार को यावत् ऐर्यापथिको क्रिया लगती है, किन्तु साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती। प्रश्न-हे भगवन् ! आप किस कारण कहते हैं कि संवरयुक्त यावत् अणगार को ऐपिथिको क्रिया लगती है, साम्परायिकी क्रिया नहीं लगती ? उत्तर--हे गौतम ! जिसके क्रोध, मान, माया और लोभ व्यवच्छिन्न हो गये हैं, उसको ऐर्यापथिकी क्रिया लगती है । इसी प्रकार ' यावत् सूत्र विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाले को साम्परायिकी क्रिया लगती है । वह संवृत अनगार यथासूत्र (सूत्र के अनुसार) प्रवत्ति करता है । इस कारण हे गौतम ! उसको यावत् साम्परायिको क्रिया नहीं लगती। विवेचन--इस विषय का विवेचन पहले दिया जा चुका है । यहाँ 'वोच्छिण्ण' (व्यवच्छिन्न-व्युच्छिन्न) शब्द का अर्थ अनुदय प्राप्त (जो उदय में नहीं आय हुए हैं, किन्तु सत्ता में रहे हुए हैं, अभी केवल उपशमन ही किया गया है) और नष्ट (सर्वथा क्षीण) हुए समझना चाहिये । क्योकि ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवी जीव को केवल एपिथिको क्रिया लगती है। इनमें से ग्यारहवें गुणस्थानवी जीव के क्रोधादि कषाय का उपशमन हुआ है और बारहवें तथा तेरहवें गुणस्थानवर्ती जीव के क्रोधादि कषाय का सर्वथा क्षय हो चुका है। काम-भोग २ प्रश्न-रूवी भंते ! कामा, अरूवी कामा ? For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७० भगवती मूत्र-श. ७ उ. ७ काम-भोग M २ उत्तर-गोयमा ! रूबी.कामा, णो अरूवी कामा। ३ प्रश्न-सचित्ता भंते ! कामा, अचित्ता कामा ? ३ उत्तर-गोयमा ! सचित्ता वि कामा, अचित्ता वि कामा। ४ प्रश्न-जीवा भंते ! कामा, अजीवा भंते ! कामा ? . ४ उत्तर-गोयमा ! जीवो वि कामा, अजीवा वि कामा। ५ प्रश्न-जीवाणं भंते ! कामा, अजीवाणं कामा ? ५ उत्तर-गोयमा ! जीवाणं कामा, णो अजीवाणं कामा । . ६ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! कामा पण्णता ? ६ उत्तर-गोयमा ! दुविहा कामा पण्णत्ता, तं जहा-सदा य रूवा य। ७ प्रश्न-रूवी भंते ! भोगा, अरूवी भोगा ? ७ उत्तर-गोयमा ! रूवी भोगा, णो अरूवी भोगा। ८ प्रश्न-सचित्ता भंते ! भोगा, अचित्ता भोगा ? ८ उत्तर-गोयमा ! सचित्ता वि भोगा, अचित्ता वि भोगा । ९ प्रश्न-जीवा भंते ! भोगा-पुच्छा। ९ उत्तर-गोयमा ! जीवा वि भोगा, अजीवा वि भोगा। १० प्रश्न-जीवाणं भंते ! भोगा. अजीवाणं भोगा ? १० उत्तर-गोयमा ! जीवाणं भोगा, णो अजीवाणं भोगा। कठिन शब्दार्थ-पाच-अपेक्षा से । For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ७ उ. ७ काम-भोग १९७१ भावार्थ-२ प्रश्न-हे भगवन् ! काम रूपी है या अरूपी है ? २ उत्तर-हे गौतम ! काम रूपी हैं, अरूपी नहीं हैं। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! काम सचित्त हैं, या अचित्त है ? ३ उत्तर-हे गौतम ! काम सचित्त भी हैं और अचित्त भी हैं। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! काम जीव हैं या अजीव हैं ? ४ उत्तर-हे गौतम ! काम जीव भी हैं और अजीव भी हैं। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! काम जीवों के होते हैं या अजीवों के ? ५ उत्तर-हे गौतम ! काम जीवों के होते हैं, अंजीवों के नहीं होते। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! काम कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! काम दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-शंम्द और रूप। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! भोग रूपी है या अरूपी हैं ? ७ उत्तर-हे गौतम ! भोग रूपी हैं, अरूपी नहीं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! भोग सचित्त हैं या अचित्त ? ८ उत्तर-हे गौतम ! भोग, सचित्त भी है धौर अचित्त भी हैं। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! भोग, जीव हैं, या अजीव ? ९ उत्तर-हे गौतम ! भोग, जीव भी हैं और अजीव भी हैं। १० प्रश्न-हे भगवन् ! भोग, जीवों के होते हैं, या अजीवों के ? १० उत्तर-हे गौतम ! भोग, जीवों के होते हैं, अजीवों के नहीं होते। ११ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! भोगा पण्णता ? ... ११ उत्तर-गोयमा ! तिविहा भोगा पण्णत्ता, तं जहा-गंधा, रसा, फासा।.. १२ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! कामभोगा पण्णता ? For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७२ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ७ काम-भोग ... ११७२ ... . भगवती मूत्र-श. ७ उ. ७ काम-भोग १२ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा कामभोगा पण्णत्ता, तं जहासद्दा, रूवा, गंधा, रसा, फासा । .. १३ प्रश्न-जीवा णं भंते ! किं कामी, भोगी ? १३ उत्तर-गोयमा ! जीवा कामी वि, भोगी वि। प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ-जीवा कामी वि, भोगी वि? ___उत्तर-गोयमा ! सोइंदिय चक्खिदियाई पडुच्च कामी, पाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई पडुच्च भोगी, से तेणटेणं गोयमा ! जाव भोगी वि। १४ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! किं कामी, भोगी ? १४ उत्तर-एवं चेव, जाव थणियकुमारा । १५ प्रश्न-पुढविकाइयाणं पुच्छा। १५ उत्तर-गोयमा ! पुढविकाइया णो कामी, भोगी। . प्रश्न-से केणटेणं जाव भोगी ? उत्तर-गोयमा ! फासिंदियं पडुच्च; से तेणटेणं जाव भोगी; एवं जाव वणस्सइकाइया; बेइंदिया एवं चेव, णवरं जिभिदिय-फासिंदियाइं पडुच्च भोगी; तेइंदिया वि एवं चेव, णवरं घाणिदियजिभिदियफासिंदियाई पडुच्च भोगी। __ १६ प्रश्न-चउरिंदियाणं पुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ७ उ. ७ काम-भोग ११७३ १६ उत्तर-गोयमा ! चउरिंदिया कामी वि, भोगी वि । प्रश्न-मे केणटेणं जाव भोगी वि ? उत्तर-गोयमा ! चक्खिदियं पडुच्च कामी, घाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाइं पडुच्च भोगी, से तेणटेणं जाव भोगी वि अवसेसा जहा जीवा, जाव वेमाणिया। १७ प्रश्न-एएसि णं भंते ! जीवाणं कामभोगीणं, गोकामीणं गोभोगीणं, भोगीण य कयरे कयरहितो जाव विसेसाहिया वा ? ... १७ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा कामभोगी, णोकामी णोभोगी अणंतगुणा, भोगी अणंतगुणा। .. भावार्थ-११ प्रश्न-हे भगवन् ! भोग, कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! भोग तीन प्रकार के कहे गये हैं । यथा-गन्ध, रस और स्पर्श। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! काम-भोग, कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! काम और भोग दोनों मिलाकर पांच प्रकार के कहे हैं । यथा-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श । १३ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव कामी हैं या भोगी हैं ? १३ उत्तर-हे गौतम ! जीव, कामी भी हैं और भोगी भी हैं। प्रश्न-हे भगवन् ! किस कारण से कहते हैं कि जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं ? . उत्तर-हे गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय और चारिन्द्रिय की अपेक्षा जीव कामी हैं और घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय तथा स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा जीव भोगी हैं। इस कारण हे गौतम ! जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। . For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७४ भगवती सूत्र - श. ७ उ. ७ काम भोग १४ प्रश्न - हे भगवन् ! नैरयिक जीव, कामी हैं या भोगी हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम! नैरयिक जीव, कामी भी हैं और भोगी भी हैं । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव कामी हैं, या भोगी हैं ? १५ उत्तर - हे गौतम ! पृथ्वीकायिक जीव, कामी नहीं हैं, भोगी हैं । प्रश्न- हे भगवन् ! किस कारण से कहते हैं कि पृथ्वीकायिक जीव यावत् भोगी हैं ? उत्तर-- - हे गौतम! स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा वे भोगी हैं । इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक कहना चाहिये । बेइन्द्रिय जीव भी भोगी हैं, परन्तु वे जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा भोगी हैं । तेइन्द्रिय जीव भी इसी तरह जानना चाहिये, किन्तु वे घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा भोगी हैं । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीव कामी हैं या भोगी हैं ? १६ उत्तर - हे गौतम! चतुरिन्द्रिय जीव कामी भी हैं और भोगी भी हैं। न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? प्रश्न उत्तर - हे गौतम! चतुरिन्द्रिय जीव, चक्षुइन्द्रिय की अपेक्षा कामी हैं । घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा भोगी हैं। शेष वैमानिकपर्यन्त सभी जीवों के विषय में औधिक जीवों की तरह कहना चाहिये । १७ प्रश्न - हे भगवन् ! कामभोगी, नोकामीनोभोगी और भोगी जीवों में कौन किससे अल्प यावत् विशेषाधिक हैं ? १७ उत्तर - हे गौतम! कामभोगी जीव सबसे थोडे हैं, नोकामीनोभोगी जीव उनसे अनन्तगुणे हैं और भोगी जीव, उनसे अनन्त गुणे हैं । विवेचन-रूप अर्थात् मूर्त्तता जिनमें हों, वे 'रूपी' कहलाते हैं और जिनमें न हो, वे 'अरूपी' कहलाते हैं । जो विशिष्ट शरीर स्पयं के द्वारा भोगे न जाते हों, किन्तु जिनकी ' केवल कामना - अभिलाषा की जाती हो, वे 'काम' कहलाते हैं । मनोज्ञ शब्द और संस्थान तथा वर्ण 'काम' कहलाते हैं । वे काम, पुद्गल धर्म होने से मूर्त हैं, अतएव रूपी हैं, किन्तु For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ७ छद्मस्थ और केवली ११७५ अरूपी नहीं । ममनस्क (संजी) प्राणी के रूप की अपेक्षा काम सचित्त भी हैं और शब्द द्रव्य की अपेक्षा से तथा असंनी जीव के गरीर के रूप की अपेक्षा अचित्त भी हैं । यहाँ सचित्त शब्द से विशिष्ट चेतना अथवा संज्ञीपन ग्रहण किया गया है और अचित्त शब्द से विशिष्ट चेतना शून्य अर्थात् असंजीपन ग्रहण किया गया है। जीवों के शरीर के रूपों की अपेक्षा काम जीव भी हैं और शब्दों की अपेक्षा चित्रित पुतली आदि के रूपों की अपेक्षा अजीव भी हैं । काम सेवन के कारण भूत होने से जीवों के ही होते हैं, अजीवों के नहीं होते । क्योंकि उनमें काम का अभाव है। ...... जो शरीर से भोगे जाये, वे गन्ध, रम और स्पर्श द्रव्य ‘भोग' कहे जाते हैं । वे भोग पुद्गल धर्म होने से मूर्त हैं, अतएव रूपी हैं, अरूपी नहीं । किन्हीं संजी गन्धादि प्रधान जीव शरीरों की अपेक्षा भोग सचित्त भी हैं और किन्हीं असंज्ञी गन्धादि विशिष्ट जीव-शरीरों की अपेक्षा अचित्त भी हैं। जीवों के शरीर विशिष्ट गन्धादि युक्त होते हैं । इसलिये भोग, जीव भी है और अजीव द्रव्य भी विशिष्ट गन्धादि युक्त होते हैं, इसलिये भोग अजीव भी हैं। . चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीव काम-भोगी हैं। वे सबसे थोड़े हैं, उनसे नोकामीनोभोगी अर्थात् सिद्ध जीव अनन्तगुणे हैं और भोगी अर्थात् एकेंद्रिय बेइन्द्रिय तेइन्द्रिय जीव उससे अनन्त गुणे हैं, क्योंकि एक अकेली वनस्पतिकाय ही अनन्त गुण है ! छमस्थ और कवली १८ प्रश्न छउमत्ये णं भंते ! मणूसे जे भविए अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववजित्तए, से णूणं भंते ! से खीणभोगी णो पभू उहाणेणं, कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं, पुरिसक्कार-परकमेणं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए ? से पूर्ण भंते ! एयमटुं एवं वयह ? १८ उत्तर-गोयमा ! णो इणटे समटे, पभू णं भंते ! से उट्ठा For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७६ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ७ छद्मस्थ और केवली . णेण वि, कम्मेण वि, बलेण वि, वीरिएण वि, पुरिसकार-परकमेण वि अण्णयराइं विपुलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरित्तए, तम्हा भोगी, भोगे परिचयमाणे महाणिजरे, महापज्जवसाणे भवइ । ___ कठिन शब्दार्थ--छउमत्येणं-- छद्मस्थ-जिसका ज्ञान आवरण युक्त हो, खीणभोगी--अरस विरस खाने से दुर्बल शरीर वाला, वयह--कहते हैं, परिच्चयमाणे-त्याग करने पर, महापज्जवसाणे--महाफलवाला। भावार्थ-१८ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा छदमस्थ मनुष्य जो किसी देवलोक में उत्पन्न होने के योग्य है, वह क्षीण-भोगी (दुर्बल शरीरवाला) उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारपराक्रम द्वारा विपुल और भोगने योग्य भोगों को भोगने में समर्थ नहीं है ? हे भगवन् ! आप इस अर्थ को इसी तरह कहते हैं ? १८ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। वह उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकारपराक्रम द्वारा किन्हीं विपुल और भोगने योग्य भोगों को भोगने में समर्थ है। इसलिये हे गौतम ! वह भोगी, मोगों का त्याग करता हआ महानिर्जरा और महापर्यवसान (महाफल) वाला होता है। विवेचन-भोग भोगने का साधन शरीर है । इसलिये शरीर को यहाँ भोगी कहा है। तपस्या या रोगादि से जिसका शरीर क्षीण हो गया हो, वह 'क्षीणभोगी' कहलाता है। उसके विषय में भोग भोगने सम्बन्धी जो प्रग्न किये गये हैं, उनका आशय यह है कि यदि वह भोग भोगने में असमर्थ है, तो वह भोगी नहीं कहला सकता और जब भोगी नहीं है, तो वह किन भोगों का त्याग करेगा ? अतएव भोग-त्यागी भी नहीं कहला सकता और जबकि वह भोग त्यागी नहीं है, तो उसके निर्जरा नहीं होगी। निर्जरा के अभाव में देवलोक में उत्पत्ति नहीं हो सकती। ___ इस प्रश्न का उत्तर यह दिया गया है कि वह क्षीण-भोगी मनुष्य, क्षीण-शरीर के योग्य किन्हीं भोगों को भोग सकता है, अतएव वह भोगी है और उनका त्याग करने से वह भोग-त्यागी है, इससे निर्जरा होती है और उससे देवलोक में उत्पन्न हो सकता है। ___ १९ प्रश्न-आहोहिए णं भंते ! मणसे जे भविए अण्णयरेसु For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ७ छद्मस्थ और केवली ११७७ देवलोएसु०? १९ उत्तर-एवं चेव, जहा छउमत्थे जाव महापजवसाणे भवइ । २० प्रश्न-परमाहोहिए णं भंते ! मणुस्से जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झित्तए, जाव अंतं करेत्तए, से गूणं भंते ! से खीणभोगी? २० उत्तर-सेसं जहा छउमत्थस्स । २१ प्रश्न-केवली णं भंते ! मणूसे जे भविए तेणेव भवग्गहणेणं? ___२१ उत्तर-एवं जहा परमाहोहिए, जाव महापज्जवसाणे भवइ। कठिन शब्दार्थ-आहोहिए-अधोऽवधिक अर्थात् नियत क्षेत्र के अवधिज्ञान वाला, परमाहोहिए--परमाऽवधिक अर्थात् परम अवधिज्ञानी। .१९ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा अधोऽवधिक (नियतक्षेत्र के अवधिज्ञान वाला) मनुष्य जो किसी देवलोक में उत्पन्न होने योग्य है, वह क्षीण-भोगी (दुर्बल शरीरवाला) उत्थान, यावत् पुरुषकारपराक्रम द्वारा विपुल भोगने योग्य भोगों को भोगने में समर्थ है ? ... १९ उत्तर-हे गौतम ! इसका कथन भी उपर्युक्त छदमस्थ के समान ही जान लेना चाहिये, यावत् वह महापर्यवसान वाला होता है। ___भावार्थ-२० प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा परमावधिक मनुष्य जो उसी भव में सिद्ध होने वाला है यावत् सर्व दुःखों का अन्त करने वाला है, क्या वह क्षीण भोगी यावत् भोगने योग्य विपुल भोगों को भोगने में समर्थ है ? २० उत्तर-हे गौतम ! इसका उत्तर छमस्य के लिये दिये हुए उत्तर के समान जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११७८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ७ अकाम वेदना का वेदन . . २१ प्रश्न-हे भगवन ! केवलज्ञानी मनुष्य जो उसी भव में सिद्ध होने वाला है यावत् सभी दुःखों का अन्त करने वाला है। क्या वह और भोगने योग्य विपुल भोगों को भोगने में समर्थ है ? २१ उत्तर-हे गौतम ! इसका कथन परमावधिज्ञानी की तरह करना चाहिये । यावत् वह महापर्यवसान वाला होता है। विवेचन-नियत क्षेत्र विषयक अवधिज्ञान बाला 'आधोवधिकज्ञानी' कहलाता है। उत्कृष्ट अवधिज्ञान वाला परमाधोऽवधिकज्ञानी कहलाता है। यह चरमशरीरी होता है। केवलज्ञान वाला केवलज्ञानी कहलाता है, वह तो चरमशरीरी है ही। इन तीनों के भोग भोंगने सम्बन्धी वक्तव्यता, छग्रस्थ की तरह कहनी चाहिये । अकाम वेदना का वेदन २२ प्रश्न-जे इमे भंते ! असण्णिणो पाणा, तं जहा-पुढवि. क्काइआ जाव वणस्सइकाइआ, उट्ठा य एगइया तसा; एए णं अंधा, मूढा, तमं पविट्ठा, तमपडल-मोहजालपडिच्छण्णा अकामणिकरणं वेयणं वेदेंतीति वत्तव्यं सिया ? . २२ उत्तर-हंता, गोयमा ! जे इमे असण्णिणो पाणा, जाव पुढविकाइआ जाव वणस्सइकाइआ छट्टा य जाव वेयणं वेदेंतीति वत्तव्वं सिया। __२३ प्रश्न-अस्थि णं भंते ! पभू वि अकामणिकरणं वेयणं वेदेति ? २३ उत्तर-हंता, गोयमा ! अस्थि । For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ ७ अकाम वेदना का वेदन २४ प्रश्न - कहं णं भंते! पभू वि अकामणिकरणं वेयणं वेदेति ? २४ उत्तर - गोयमा ! जे णं णो पभू विणा पईवेणं अंधकारंसि रूवाई पासित्तए, जे णं णो पभू पुरओ रुवाई अणिज्झाइत्ताणं पासित्तए, जे णं णो पभू मग्गओ रूवाएं अणवयक्खित्ता णं पासितए, जे णं णो पभू पासओ रूवाहं अणवलोइत्ता णं पासित्तए, जे णं णो पभू उड्ढं रूवाई अणालोएत्ता णं पासित्तए, जे णं णो पभू अहे रूवाईं अणालोइत्ता णं पासित्तए, एस णं गोयमा ! पभू वि अकामणिकरणं वेयणं वेदेति । कठिन शब्दार्थ - असण्णिणो बिना मन वाले जीव, तमपडलमोहजालपरिच्छण्णाअज्ञान अन्धकार और मोह के पर्दे से आवृत - ढके हुए, विणा पईवेणं - बिना दीपक के, अकामणिकरण - अनिच्छा पूर्वक, अणिज्झाइत्ता - देखे बिना, अणवयक्तित्ता - पश्चाद् भाग को देखे बिना, अणबलोइत्ता - बिना देखे । ११७९ . भावार्थ - २२ प्रश्न- हे भगवन् ! जो ये असंज्ञी ( मन रहित ) प्राणी हैं, per - पृथ्वीकाfor, अकायिक, तेउकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक और छठे कितनेक कायिक ( सम्मूच्छिम त्रसकायिक) जीव जो अन्ध ( अज्ञानी), मूढ, अज्ञानान्धकार में प्रविष्ट, अज्ञानरूप आवरण और मोह जाल के द्वारा आच्छादित हैं, वे अकामनिकरण ( अनिच्छापूर्वक) वेदना वेदते हैं, - क्या ऐसा कहना चाहिये ? २२ उत्तर - हां, गौतम ! जो ये असंज्ञी प्राणी पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक छठे त्रस ( सम्मूच्छिम त्रस ) कायिक जीव, ये सब अकामनिकरण वेदना वेदते हैं। For Personal & Private Use Only । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८० भगवती सूत्र-श. ७ उ. ७ अकाम वेदना का वेदन ।' २३ प्रश्न-हे भगवन ! क्या ऐसा भी है कि समर्थ होते हुए (संज्ञी होते हए) भी जीव, अकाम-निकरण बेदना वेदते हैं ? . २३ उत्तर-हां, गौतम ! वेदते हैं। - २४ प्रश्न-हे भगवन् ! समर्थ होते हुए भी जीव, अकामनिकरण वेदना किस प्रकार वेदते हैं ? - २४ उत्तर-हे गौतम ! जो जीव समर्थ होते हुए भी अन्धकार में दीपक के बिना पदार्थों को देखने में समर्थ नहीं होते, अवलोकन किये बिना सामने के पदार्थों को नहीं देख सकते, अवेक्षण किये बिना पीछे रहे हुए रूपों को नहीं देख सकते, अवलोकन किये बिना दोनों और के रूपों को नहीं देख सकते, आलोचन किये बिना ऊपर और नीचे के रूपों नहीं देख सकते, वे समर्थ होते हुए भी अकाम-निकरण वेदना वेदते हैं। २५ प्रश्न-अत्थि णं भंते ! पभू वि पक.मणिकरणं वेयणं वेदेति ? २५ उत्तर-हंता, अत्थि। २६ प्रश्न-कहं णं भंते ! पभू वि पकामणिकरणं वेयणं वेदेति ? २६ उत्तर-गोयमा ! जे णं णो पभू समुदस्स पारं गमित्तए, जे णं णो पभू समुदस्स पारगयाई रूकई पासित्तए, जे णं णो पभू देवलोगं गमित्तए, जे णं णो पभू देवलोगगयाइं रूवाई पासित्तए, एस णं गोयमा ! पभू वि पकामणिकरणं वेयणं वेदेति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ सत्तमस्स सयरस सत्तमो उद्देसओ समत्तो॥ For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ७ अकाम वेदना का वेदन · १९८१ कठिन शब्दार्य-पकामणिकरणं-तीव्र इच्छापूर्वक । भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या ऐसा भी होता है कि समर्थ होते हुए भी जीव, प्रकामनिकरण (तीव्र इच्छापूर्वक) वेदना को वेदते हैं ? .. २५ उत्तर-हां, गौतम ! वेदते हैं। २६ प्रश्न-हे भगवन् ! समर्थ होते हुए भी जीव, प्रकामनिकरण वेदना किस प्रकार वेदते हैं ? ___२६ उत्तर-हे गौतम ! जो समुद्र के पार जाने में समर्थ नहीं हैं, जो समुद्र के पार रहे हुए रूपों को देखने में समर्थ नहीं हैं, जो देवलोक में जाने में समर्थ नहीं है और जो देवलोक में रहे हुए रूपों को देखने में समर्थ नहीं है, हे गौतम ! वे समर्थ होते हुए भी प्रकामनिकरण वेदना वेदते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन-जो असंज्ञी अर्थात् मन रहित प्राणी हैं, उनके मन नहीं होने से इच्छा शक्ति और ज्ञान शक्ति के अभाव में अकामनिकरण (अनिच्छा पूर्वक-अज्ञानपने ) सुख-दुःखरूप वेदना वेदते हैं। -- जो संज्ञी अर्थात् मन सहित जीव हैं, वे भी अनिच्छापूर्वक अज्ञानपने सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। जैसे कि जिस मनुष्य में देखने को शक्ति है, किन्तु शक्ति होते हुए भी वह अन्धकार में रहे हुए पदार्थों को दीपक के बिना नहीं देख सकता, तथा पीठ पीछे रहे हुए यावत् ऊपर और नीचे रहे पदार्थों को भी देखने की. शक्ति होते हुए भी उपयोग के बिना नहीं देख सकता । तात्पर्य यह है कि सामर्थ्य होते हुए भी इच्छा शक्ति और ज्ञानशक्ति युक्त जीव, अज्ञानदशा में सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। जबकि असंज्ञी जीव सामयं के अभाव में इच्छा शक्ति और ज्ञान शक्ति रहित होने से अनिच्छापूर्वक अज्ञान-दशा में सुख-दुःख का अनुभव करते हैं। . संज्ञी (मन सहित) जीव प्रकाम-निकरण (तीव्र अभिलाषापूर्वक) वेदना वेदते हैं। जैसे कि समुद्र के पार जाने की तथा उस पार रहे हुए रूपों को देखने की तथा देवलोक में जाने की एवं वहां के रूपों को देखने की शक्ति नहीं होने से तीव्र अभिलाषापूर्वक वेदना वेदते हैं । उन जीवों में इच्छा शक्ति और ज्ञान शक्ति है, परन्तु उसे प्रवृत्त करने का सामर्थ्य नहीं है । उसकी तीव अभिलाषा मात्र है । इससे वे वेदना का अनुभव करते हैं। For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ ८ छद्मस्थ सिद्ध नहीं होता तात्पर्य यह है कि असंज्ञी जीव 'इच्छा और ज्ञान शक्ति के अभाव में अनिच्छा और अज्ञान पूर्वक सुखदुःख वेदते हैं ।' संज्ञी जीव, इच्छा और जान शक्ति युक्त होते हुए भी उपयोग के अभाव में अनिच्छा और अज्ञानपूर्वक वेदना वेदते हैं । एवं सामर्थ्य और इच्छायुक्त होते हुए भी प्राप्तिरूप सामर्थ्य के अभाव में मात्र तीव्र अभिलाषांपूर्वक वेदना वेदते हैं। ॥ इति सातवें शतक का सातवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ७ उद्देशक द १९८२ छद्मस्थ सिद्ध नहीं होता १ प्रश्न - छउमत्थे णं भंते । मणूसे तीयमणंतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं० ? १ उत्तर - एवं जहा पढमसए चउत्थे उद्देसर तहा भाणियव्त्रं, जाव अलमत्थु । २ प्रश्न - से पूर्ण भंते ! हत्थिस्स य समे चैव जीवे ? २ उत्तर - हंता, गोयमा ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य एवं जहा 'रायप्प सेणइज्जे' जाव खुड्डियं वा, महालियं वा, से तेणट्टेणं गोयमा ! जाब समे चैव जीवे । • कठिन शब्दार्थ - तीयमणंतं - अतीत अनन्त, सासयं - शाश्वत, अलमत्यु - पूर्ण, खुड्डियं - क्षुद्र (छोटा), महालियं - महान् ( बड़ा ) । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य अनन्त और शाश्वत For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ८ पाप दुःखदायक ११८३ अतीत काल में केवल संयम द्वारा, केवल संवर द्वारा, केवल ब्रह्मचर्य द्वारा और केवल अष्टप्रवचन माता के पालन द्वारा सिद्ध हुआ है, बुद्ध हुआ है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त किया है ? ___ १ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इस विषय में प्रथम शतक के चौथे उद्देशक में जो कहा है वही यावत् 'अलमत्यु' पाठ तक कहना चाहिये। २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या हाथी और कुन्थुए का जीव समान है ? २ उत्तर--हाँ, गौतम ! हाथी और कुन्थआ दोनों का जीव समान हैं। इस विषय में राजप्रश्नीय सूत्र में कहें अनुसार यावत् 'खुड्डियं वा महालियं वा' पाठ तक कहना चाहिये। विवेचन-छद्मस्थ मनुष्य के विषय में जिस प्रकार भगवती सूत्र के पहले शतक के चौथे उद्देशक (प्रथम भाग पृ. २१६) में कथन किया गया है, उसी प्रकार यहां भी कथन करना चाहिये । भूतकाल में, वर्तमान काल में और भविष्यत्काल में जितने सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए, होते हैं और होंगे, वे सभी उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहन्त जिन केवली होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए हैं, होते हैं और भविष्य में भी होंगे। उत्पन्न ज्ञान-दर्शन के धारक अरिहन्त जिन केवली को 'अलमत्थु' (अलमस्तु-पूर्ण) कहना चाहिये। हाथी और कुन्थुआ का जीव समान है । इस विषय में राजप्रश्नीयसूत्र में दीपक का दृष्टांत दिया गया है । जैसे-एक दीपक का प्रकाश किसी एक कमरे में फैला हुआ है, यदि उसको किसी बर्तन द्वारा ढक दिया जाय, तो उसका प्रकाश उस बर्तन परिमाण हो जाता है, इसी प्रकार जब जीव, हाथी का शरीर धारण करता है, तो उतने बड़े शरीर में व्याप्त रहता है और जब कुन्थुआ का शरीर धारण करता है, तो उस छोटे शरीर में व्याप्त रहता है । इस प्रकार केवल शरीर में ही छोटे बड़े का अन्तर रहता है, किन्तु जीव में कुछ भी अन्तर नहीं है । सभी जीव समान हैं । पाप दुःखदायक ३ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! पावे कम्मे जे य कडे, जे य कजइ, For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८४ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ८ पाप दुःखदायक जे य कजिस्सइ सव्वे से दुक्खे, जे णिजिण्णे से सुहे ? ३ उत्तर-हंता, गोयमा ! णेरइयाणं पावे कम्म जाव सुहे। एवं जाव वेमाणियाणं। ४ प्रश्न-कइ णं भंते ! सण्णाओ पण्णत्ताओ? ४ उत्तर-गोयमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आहारसण्णा, भयसण्णा, मेहुणसण्णा, परिग्गहसण्णा, कोहसण्णा, माणसण्णा, मायासण्णा, लोभसण्णा, लोगसण्णा, ओहसण्णा । एवं जाव वेमाणियाणं। ५ णेरइया दसविहं वेयणं पञ्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहासीयं, उसिणं, खुहं, पिवासं, कंडं, परझं, जरं, दाह, भयं, सोगं । ____ कठिन शब्दार्थ-सन्ना-संज्ञा-इच्छा, पच्चणुभवमाणा-अनुभव करते हुए, कंडेखुजली, परज्मं परतन्त्रता, नरं-ज्वर । भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीवों द्वारा जो पापकर्म किया गया है, किया जाता है और जो किया जायेगा, क्या वह सब दुःखरूप है। और जिसकी निर्जरा की गई है, क्या वह सब सुख रूप है ? . ३ उत्तर-हां, गौतम ! नरयिकों द्वारा जो पापकर्म किया गया है यावत् वह दुःख रूप है और जिसकी निर्जरा की गई है, वह सुख रूप है । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त चौवीस दण्डक में जान लेना चाहिये। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! संज्ञा कितने प्रकार की कही गई है ? ४ उत्तर-हे गौतम ! संज्ञा दस प्रकार की कही गई है । यथा-१ आहार संज्ञा, २ भय संज्ञा, ३ मैथुन संजा, ४ परिग्रह संज्ञा, ५ क्रोध संज्ञा, ६ मान संज्ञा, ७ माया संज्ञा, ८ लोभ संज्ञा ९ लोक संज्ञा और १० ओघ संज्ञा । इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ७ उ. ८ पाप दुःखदायक यावत् वैमानिक पर्यन्त चौवीस ही दण्डक में ये दस संज्ञायें पाई जाती हैं। ५-नरयिक जीव दस प्रकार की वेदना का अनुभव करते हुए रहते हैं। यथा-१ शीत, २ उष्ण, ३ क्षुधा, ४ पिपासा, ५ कण्डू (खुजली), ६ परतन्त्रता, ७ ज्वर, ८ दाह, ९ भय, १० शोक । विवेचन-नैरयिक जीव जो पापकर्म करते हैं, किये हैं, और करेंगे वे सब दुःख के हेतु और संसार का कारण होने से दुःख रूप हैं और जिन पाप-कर्मों की निर्जरा की है, वे मुख स्वरूप मोक्ष (छुटकारे) का हेतु होने से सुख स्वरूप हैं। नरयिकादि संज्ञी हैं. इसलिये आगे संज्ञा का वर्णन किया जाता है । यथा वेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से पैदा होने वाली आहारादि की प्राप्ति के लिये आत्मा की इच्छा विशेष को संज्ञा' कहते हैं। अथवा जिन बातों से यह जाना जाय कि जीव आहारादि को चाहता है, उसे 'संज्ञा' कहते हैं। किसी के मन से मानसिक ज्ञान ही मंज्ञा है अथवा जीव का आहारादि विषयक चिन्तन 'संजा' है । इसके दस भेद हैं:.: (१) आहार संज्ञा-क्षुधावेदनीय के उदय से कवलादि आहार के लिये पुद्गल ग्रहण करने की इच्छा को 'आहार-संज्ञा' कहते हैं । (२) भय संज्ञा-भय मोहनीय के उदय से व्याकुल चित्त वाले पुरुष का भयभीत होना, घबराना, रोमाञ्च, शरीर का कम्पन आदि क्रियाएं 'मय-संज्ञा' हैं । (३) मैथुन संज्ञा-पुरुष-वेदादि (नो कषायरूप वेदमोहनीय) के उदय से, स्त्री आदि के अंगों को देखने, छुने आदि की इच्छा तथा उससे होने वाले शरीर में कम्पन आदि, जिनसे मथुन की इच्छा जानी जाय, 'मैथुन-संज्ञा' कहते हैं । (४) परिग्रह संज्ञा-लोभरूप कषाय-मोहनीय के उदय से संसार बन्ध के कारणों में आसक्तिपूर्वक सचित्त और अचित्त द्रव्यों को ग्रहण करने की इच्छा ‘परिग्रह-संज्ञा' कहलाती है। (५) क्रोध संज्ञा-क्रोध के उदय से आवेश में भर जाना, मुंह का सूखना, आँखें लाल हो जाना और कांपना आदि क्रियाएँ 'क्रोध संज्ञा' हैं । - (६) मान संज्ञा--मान के उदय से आत्मा के अहंकारादि रूप परिणामों को 'मान संज्ञा' कहते हैं। . . (७) माया मंजा--माया के उदय से बुरे भाव सेकर दूसरे को ठगना, झूठ बोलना For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८६ __ भगवती सूत्र-श. ७ उ. = अप्रत्यास्यानिकी क्रिया आदि भगवती सत्रडा. आदि ‘माया संजा' है। (८) लोभ संज्ञा-लोभ के उदय से सचित्त या अचित्त पदार्थों को प्राप्त करने की लालसा करना 'लोभ संज्ञा' है।, (1) ओघ संज्ञा-मतिज्ञानावरण आदि के क्षयोपशम से शब्द और अर्थ के सामान्य ज्ञान को 'ओघ संज्ञा' कहते हैं । (१०) लोक संज्ञा-सामान्य रूप से जानी हुई बात को विशेष रूप से जानना 'लोकसंज्ञा' है । अर्थात् दर्शनोपयोग को 'ओघ-संज्ञा' और ज्ञानोपयोग को. लोक संज्ञा' कहते हैं। किसी के मत से ज्ञानोपयोग ओघ-संज्ञा है और दर्शनोपयोग लोक-संजा । सामान्य प्रवृत्ति को 'ओघ-संज्ञा' कहते हैं तथा लोक दृष्टि को 'लोक-संज्ञा' कहते हैं, यह भी एकमत है। अप्रत्याख्यानिकी क्रिया आदि ६ प्रश्न-से णूणं भंते ! हत्थिस्स य कुंथुस्स य समा चेव अपबक्खाणकिरिया कजइ ? ६ उत्तर-हंता, गोयमा ! हथिस्स य कुंथुस्स य जाव कजइ । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव कजइ ? उत्तर-गोयमा ! अविरइं पडुच्च, मे तेणटेणं जाव कजइ । कठिन शब्दार्थ-अपच्चक्खाणकिरिया-विरति (त्याग) के अभाव में लगनेवाली क्रिया। भावार्थ-६ प्रश्न--हे भगवन् ! क्या हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है ? ६ उत्तर-हाँ, गौतम ! हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानी क्रिया समान लगती है। प्रश्न-हे भगवन् ! इसका क्या कारण है ? For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ८ आधाकर्म का फल ११८७ उत्तर-हे गौतम ! अविरति की अपेक्षा हाथी और कुन्थुए के जीव को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान लगती है। विवेचन-अविरति की अपेक्षा हाथी और कुंथुए को अप्रत्याख्यानिकी क्रिया समान रूप से लगती है । क्योंकि अविरति का सद्भाव दोनों में ममान है । आधाकर्म का फल ७ प्रश्न-आहाकम्म णं भंते ! मुंजमाणे किं बंधइ, किं पकरेइ, किं चिणाइ, किं उबचिणाइ ? ७ उत्तर-एवं जहा पढमे सए णवमे उद्देसए तहा भाणियव्यं, जाव सासए पंडिए, पंडियत्तं असासयं । ___ मेवं भंते ! मेवं भंते ! ति ॐ ॥ सत्तमम्स सयस्स अट्ठमो उद्देसो सम्मत्तो॥ भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! आधाकर्म आहारादि सेवन करने वाला साधु, क्या बांधता है, क्या करता है, किसका चय करता है, किसका उपचय करता है? ७ उत्तर-हे गौतम ! आधाकर्म आहारादि का सेवन करने वाला साध, आयुष्य कर्म को छोड़कर, शेष सात कर्मों की प्रकृतियों को, यदि वे शिथिल बंध से बन्धी हुई हों, तो उन्हें गाढ़ बन्ध वाली करता है यावत् बारम्बार संसार परिभ्रमण करता है। इस विषयक सारा वर्णन प्रथम शतक के नववे उद्देशक में कहे अनुसार कहना चाहिये। यावत् पण्डित शाश्वत है और पण्डितपन अशाश्वत है, यहां तक कहना चाहिये। . हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । इस For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ९ असंवृत अनगार प्रकार कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। . विवेचन-आधाकर्म का अर्थ इस प्रकार है "आधया साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकं, वयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म ।" ___ अर्थ-साधु के लिये सचित्त पदार्थ को अचित्त बनाया जाय, अथवा अचित्त को पकाया जाय, घर आदि बनवाये जायें, वस्त्रादि बुनवाये जायें, उसे 'आधाकर्म' कहते हैं। तात्पर्य यह है कि आहार, पानी, वस्त्र, पात्र कम्बल, मकान आदि कोई.भी पदार्थ जो साध के लिये बनवाये जायें, वे सब 'भाधाकर्म' दोष दूषित हैं । इनका सेवन करना मुनि के लिये अनाचार है। इस विषय का विस्तृत विवेचन प्रथम शतक के नववें उद्देशक में किया जा चुका है। वहाँ 'पण्डितपन अशाश्वत है' तक का सारा वर्णन यहां कहना चाहिये । .: ॥ इति सातवें शतक का आठवां उद्देशक समाप्त ॥ शतक ७ उद्देशक असंवृत अनगार १ प्रश्न-असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवण्णं एगरूवं विउवित्तए ? १ उत्तर-णो इणढे समटे। .. २ प्रश्न-असंवुडे णं भंते ! अणगारे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एगवणं एगरूवं जाव० ? ... For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र - ग. ७ उ. ९ असंवृत्त अनगार २ उत्तर-हंता, पभू। - ३ प्रश्न-से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुम्वइ तत्थगए पोग्गले परियाहत्ता विकुम्बइ अण्णस्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुम्वइ ? ३ उत्तर-गोयमा ! इहगए पोग्गले परियाइत्ता विकुम्वइ, णो तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुम्वइ, णो अण्णत्थगए पोग्गले जाव विकुम्वइ । एवं एगवण्णं अणेगरूवं चउभंगो जहा छ?सए णवमे उद्देसए तहा इहा वि भाणियव्वं, णवरं अणगारे इहगयं (ए) इहगए चेव पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ, सेसं तं चेव, जाव लुक्खपोग्गलं गिद्धपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ? हंता, पभू । से भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता, जाव णो अण्णत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुब्वइ । कठिन शब्दार्थ-मसंडे-असंवृत्त, (असंयमी-आश्रवसेवी,) परियाइता-ग्रहण करके । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असंवत (प्रमत्त) अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण किये बिना एक वर्ण गला, एक रूप वैक्रिय कर सकता है ? १ उत्तर--गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। २ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या असंवत अनगार, बाहर के पुद्गलों को ग्रहण करके एक वर्ण वाले एक रूप की विक्रिया कर सकता है ? २ उत्तर-हाँ, गौतम! कर सकता है। ३ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या वह अनगार, यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया करता है, या यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९० भगवती सूत्र- श. श. ७ उ. ६ महाशिला कंटक मंग्राम करता है, या अन्यत्र रहे हुए पुदगलों को ग्रहण करके विक्रिया करता है ? उत्तर-हे गौतम ! यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया (विकुर्वणा) करता है, परन्तु वहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया नहीं करता और अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके भी विक्रिया नहीं करता । इस प्रकार एक वर्ण अनेकरूप, अनेक वर्ण एक रूप और अनेक वर्ण अनेकरूप चौभंगी आदि का कथन जिस प्रकार छठे शतक के नववे उद्देशक में किया गया है, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये । परन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ रहा हुआ, यहाँ रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके विक्रिया करता है । शेष सारा वर्णन उसी के अनुसार कहना चाहिये, यावत् 'हे भगवन ! क्या रूक्ष पुद्गलों को स्निग्ध पुद्गलपने परिणमाने में समर्थ है ? हां, समर्थ है।' हे भगवन् ! क्या यहां रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके यावत् अन्यत्र रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण किये बिना विक्रिया करता है, वहाँ तक कहना चाहिये। ___ विवेचन—यहाँ 'इहगए' शब्द का अर्थ 'यह मनुष्य लोक' समझना चाहिये, क्योंकि यहां प्रश्नकर्ता गौतम स्वामी हैं, उनकी अपेक्षा, 'इह' शब्द का अर्थ 'यह मनुष्य लोक' ही करना संगत है। 'तत्थगए' का अर्थ है--वैक्रिय बनाकर वह अनगार जहाँ जायेगा वह स्थान । 'अन्नत्थगए' का अर्थ है,--'उपरोक्त दोनों स्थानों से भिन्न स्थान' । तात्पर्य यह है कि जिस स्थान पर रहकर मुनि वैक्रिय करता है, वहां के पुद्गल 'इहगत' कहलाते हैं। वैक्रिय करके जिस स्थान पर जाता है, वहाँ के पुद्गल 'तत्रगत' कहलाते और इन दोनों स्थानों से भिन्न स्थान के पुद्गल 'अन्यत्र गत' कहलाते हैं । देव तो तत्रगत अर्थात् देवलोक में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय कर सकता है, किन्तु मुनि तो इहगत अर्थात् मनुष्य लोक में रहे हुए पुद्गलों को ग्रहण करके वैक्रिय कर सकता है । महाशिला-कंटक संग्राम ४ प्रश्न-णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णायमेयं अर. हया-महासिलाकंटए मंगामे । महासिलाकंटए णं भंते ! संगामे वट्ट For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७.उ. ९. असंवृत्त अनगार माणे के जहत्था, के पराजइत्था ? : - ४ उत्तर - गोयमा ! वज्जी विदेहपुत्ते जड़त्था णव मल्लई णव लेच्छई कासी-कोसलगा अट्टारस वि गणरायाणो पराजइत्था । तणं से कोणिए राया महासिलाकंटगं संगामं उवद्वियं जाणित्ता कोटुंबियपुरिसे सहावेह, सद्दावित्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाप्पिया ! उदाई हत्थिरायं पडिकप्पेह, हय-गय-रह- जोह - कलियं चाउरंगिणं सेणं सण्णाह, मण्णाहेत्ता मम एयमाणत्तियं खिप्पामेव पचप्पिe । तरणं ते कोडुंवियपुरिसा कोणिएणं रण्णा एवं वृत्ता समाणा हट्ट तुटु-जाव अंजलिं कट्टु एवं सामी, तहत्ति' आणा विणणं वयणं पडिसुगंति, पडिसुणित्ता खिप्पामेव छेयाय - रियोवएस मतिकपणा - विकप्पेहिं सुणिउणेहिं एवं जहा उववाइए जान भीमं संगामियं अउज्झ उदाहं हत्थिरायं पडिकप्पेंति, हय-गय-जाव सण्णा हेंति, सण्णाहित्ता जेणेव कूणिए राया तेणेव उवागच्छंति, उवागंच्छित्ता करयल जाव कूणियस्स रण्णो तमाणत्तियं पञ्चप्पि पंति । तएण से कूणिए राया जेणेव मज्जणघरं तेणेव उवागच्छ उवागच्छित्ता, मज्जणघरं अणुप्पविसइ, मज्जणघरं अणुप्पविसित्ता हाए, कयवलिकम्भे, कय कोउय-मंगल- पायच्छिते, सव्वालंकारविभूसिए, सण्णद्ध-बद्ध वम्मियकाए, उप्पीलियसरासणपट्टिए, पिणद्धगेवेज - विमलवरवद्ध - चिंधपट्टे, गहियाउहप्पहरणे, सकोरेंटमल्लदामेणं ११९१ For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९२ भगवती सूत्र- श. ७ उ. ९ महाशिला-कंटक संग्राम . छत्तेणं धरिजमाणेणं चउचामरबालवीइयंगे, मंगलजयसद्दकयालोए एवं जहा उववाइए जाव उवागच्छित्ता उदाई हत्थिरायं दुरूढे । कठिन शब्दार्थ-णापमेयं अरहया-अरिहंत जानते हैं, वट्टमाणे-होते हुए, के जइत्या के पराजइत्या-कौन जीता और कौन पराजित हुआ, वजी-वनी-इन्द्र, विदेहपुत्ते-विदेहपुत्र कोणिक, उबढ़ियं-उपस्थित होने पर, खिप्पामेव-शीघ्र, पडिकप्पेह-सजाकर तैयार करो, सण्णाहेह-तैयार करो, एयमाणत्तयं-इस आज्ञा को, पच्चप्पिणह-पीछी अर्पण करो, रण्याराजा, एवं वुत्ता समाणा-इस प्रकार कहने पर, अंजलिकटु-हाथ जोड़कर, एवं सामी तहत्तिहे स्वामी ऐसा ही होगा, छेयारियोवए समतिकप्पणा- कुशल आचार्य के उपदंश से मतिकल्पना द्वारा, सुणिरहि-सुनिपुण, अउज्ज्ञ-अयोद्धचं-जिसके साथ कोई युद्ध नहीं कर सके, तमाणत्तियं पच्चपिणंति-उनकी आज्ञा लौटाई--काम कर देने की सूचना दी, मज्जणघरं-स्नान घर, गाए कयबलिकम्मे-स्नान मर्दनादि किये, कयको उयमंगलपायच्छित्ते-कृत कौतुक मंगल प्रायश्चित्त, सण्णबद्ध वम्मियकबए-सनद्धबद्ध--शस्त्रादि सजकर कवच धारण कर, उप्पिलियसरासणपट्टिए-तने हुए धनुर्दण्ड को धारण कर, पिणद्धगेवेज्ज-विमलवरबधिपट्टेगले में आभूषण पहने और उत्तमोत्तम चिन्हपट्ट बाँधकर, गहियाउहप्पहरणे-आयुध--गदा आदि शस्त्र तथा प्रहरण-भाला आदि शस्त्रों को ग्रहण करके, सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणेकोरंट : पुष्पों की माला वाले छत्र, चउचामरबालवीइयंगे-चार चँवर के बालों से विजाता हुआ, मंगलजयसहकयालोए-जिसके दर्शन से लोक मंगल और जय जयकार करे। भावार्थ-४ प्रश्न-अरिहन्त भगवान ने यह जाना है, यह सुना है अर्थात प्रत्यक्ष देखा है, विशेष रूप से जाना है कि महाशिलाकण्टक नामक संग्राम है। हे भगवन् ! जब महाशिलाकण्टक संग्राम चलता था, तब उसमें कौन जीता और कौन हारा? ४ उत्तर-हे गौतम ! वनी अर्थात् इन्द्र और विवेहपुत्र अर्थात् कोणिक राजा जीते । नव मल्लि और नव लच्छी जो कि काशी और कौशल देश के अठारह गणराजा थे, वे पराजित हुए। . उस समय में 'महाशिला कंटक संग्राम' उपस्थित हुआ जान कर कोणिक राजा ने अपने कौटुम्बिक पुरुषों (आज्ञा पालक सेवकों) को बुलाया । बुलाकर For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ७ उ. ९ महाशिला कंटक संग्राम उनसे इस प्रकार कहा कि-हे देवानुप्रियों ! शीघ्र ही 'उदायो' नामक पलहस्ती - को तैयार करो और हाथी, घोड़ा, रथ और योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना सन्नद्धबद्ध करो अर्थात् शस्त्रादि से सुसज्जित करो और वंसा करके अर्थात मेरी आज्ञानुसार कार्य करके मेरी आज्ञा वापिस मुझे शीघ्र सौंपो । इसके पश्चात् कोणिक राजा के द्वारा इस प्रकार कहे हुए वे कौटम्बिक पुरुष हृष्ट, तुष्ट हुए यावत् मस्तक पर अञ्जलि करके-हे स्वामिन् ! जैसी आपकी आज्ञा'-ऐसा कहकर विनयपूर्वक वचनों द्वारा आज्ञा स्वीकार की। वचन को स्वीकार करके कुशल आचार्यों द्वारा शिक्षित और तीक्ष्ण मति-कल्पना के विकल्पों से युक्त इत्यादि विशेषणों युक्त औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् भयंकर संग्राम के योग्य उदार (प्रधान) उदायो नामक पट्टहस्ती को सुसज्जित किया । तथा घोड़ा, हाथी, रथ और योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित किया। सुसज्जित करके जहाँ कोणिक राजा था, वहां आये और दोनों हाथ जोड़कर कोणिक राजा को उसकी आज्ञा वापिस सौंपी। इसके बाद कोणिक राजा जहाँ स्नानघर हैं, वहां आया और स्नानघर में प्रवेश किया। फिर स्नान एवं बलिकर्म (स्नान सम्बन्धी सभी कार्य किया। प्रायश्चित्तरूप (विघ्नों को नाश करने वाले कार्य) कौतुक (मषतिलकादि) और मंगल करके सब अलङ्कारों से विभूषित हुआ, सन्नद्धबद्ध हुआ। लोह कवच को धारण किया। मुडे हुए धनुर्दण्ड को ग्रहण किया । गले में आभूषण पहने । योबा के योग्य उत्तमोत्तम चिन्ह पट बांधे। आयुध और प्रहरणों को धारण किया, कोरण्टक-पुष्पमाला युक्त छत्र धारण किया। उसके चारों तरफ चामर ढलाये जाने लगे । जय-विजय शब्द उच्चारण किये जाने लगे। ऐसा कोणिक राजा औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार यावत् उदायी नामक पट्टहस्ती पर बैठा । - तए णं से कूणिए राया हारोत्थयसुकयरइयवच्छे जहा उबवाइए जाव सेयवरचामराहिं उधुब्वमाणीहिं उधुव्वमाणीहिं हयगय-रहपवर For Personal & Private Use Only Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ९ महाशिला-कंटक संग्राम जोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिबुडे, महयाभडचडगरविंदपरिक्खित्ते जेणेव महासिलाकंटए संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासिलाकंटयं संगामं ओयाए । पुरओ य से सक्के देविंदे देवराया एगं महं अभेजकवयं वइरपडिरूवगं विउवित्ता णं चिट्ठइ । एवं खलु दो इंदा संगामे संगामेंति, तं जहा-देविंदे य, मणुइंदे य । एगहत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया पराजिणित्तए । तएणं से कूणिए राया महासिलाकंटकं संगामं संगामेमाणे णव मल्लई णव लेच्छई कासी कोसलगा अट्ठारस वि गणरायाणो हयमहियपवरवीरघाइय-विवडियचिंधद्धयपडागे किच्छपाणगए दिसोदिसिं पडिसेहित्था। कठिन शब्दार्थ-हारोत्थयसुकयरइयवच्छे-जिसका हारमाला आदि से वक्षस्थल शोभित है, महाभडचडगरविंदपरिक्खिते-महान् योद्धाओं के समूह से व्याप्त, ओयाएउतरा, अभेज्जकवयं-अभेद्यकवच, वहरपडिरूवगं-वज्र जैसा, हयमहियपदरवीरघाइयविवडियचिधद्धयपडागे-उनके महान् वीर योद्धाओं को मारा, घायल किये, उनकी चिन्हांकित पताका गिरादौ, किच्छपाणगए-प्राण संकट में पड़ गए, पडिसेहित्था-भगा दिये। . भावार्थ-इसके पश्चात् हारों से आच्छादित वक्षस्थल वाला कोणिक, जनमन में रति उत्पन्न करता हुआ और औपपातिक सूत्र में कहे अनुसार बारबार श्वेत चामरों से बिजाता हुआ यावत् घोडे, हाथी, रथ और उत्तम योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणो सेना से परिवृत महान् सुभटों के विस्तीर्ण ससह से व्याप्त कोणिक राजा, महाशिला-कंटक संग्राम में आया। उसके आगे देवेन्द्र, देवराज शक्र, वज्र के समान अभेद्य एक महान् कवच की विकुर्वणा करके खड़ा हुआ। इस प्रकार . मानो दो इन्द्रः संग्राम करने लगे। यथा-(१) देवेन्द्र और (२.) मनुजेन्द्र ।. अब For Personal & Private Use Only Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-टा. ७ उ. ९ महाशिला-कंटक संग्राम कोणिक राजा, एक हाथी के द्वारा भी शत्र सेना का पराजय करने में समर्थ है। इसके बाद उस कोणिक राजा ने महाशिला-कण्टक संग्राम करते हुए नव मल्लि और नव लच्छि जो काशी और कौशल देश के अठारह गणराजा थे, उनके महायोद्धाओं को नष्ट किया, घायल किया और मार डाला। उनकी चिन्ह युक्त ध्वजा और पताकाओं को गिरा दिया। जिनके प्राण महासंकट में पड़ गये हैं, ऐसे उन राजाओं को युद्ध में से चारों दिशाओं में भगा दिया। ५ प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-महासिलाकंटए संगामे ? ५ उत्तर-गोयमा ! महासिलाकंटए णं संगामे वट्टमाणे जे तत्थ आसे वा, हत्थी वा, जोहे वा, सारही वा, तणेण वा, पत्तेण वा, कटेण वा, सक्कराए वा अभिहम्मइ सव्वे से जाणेइ महासिलाए अहं अभिहए, से तेणटेणं गोयमा ! महासिलाकंटए संगामे। ६ प्रश्न-महासिलाकंटए णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कइ जणसयसाहस्सीओ वहियाओ ? ६. उत्तर-गोयमा ! चउरासीइं जणसयसाहस्सीओ वहियाओ। ७ प्रश्न ते णं भंते ! मणुया णिस्सीला, जाव णिप्पञ्चक्खाणपोहोवपासा, रुट्ठा, परिकुविया, समरवहिया, अणुवसंता कालमासे कालं किचा कहिं गया, कहिं उबवण्णा ? ..७ उत्तर-गोयमा ! ओसणं णरग-तिरिक्ख जोणिएसु उपवण्णा । . कठिन शब्दार्थ-अमिहम्मइ-मारा जाय, अभिहत-मारा गया वहियाओ-मारे गये For Personal & Private Use Only Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९६ भगवती मूत्र या. ७ उ. ९ महाशिला-कंटक संग्राम । वक्ष हुए, समरहिया-युद्ध में घायल हुए. ओसणं-विशेप करके । भावार्थ-५ प्रश्न-हे भगवन् ! इसे महाशिलाकण्टक संग्राम क्यों कहा जाता है ? ५ उत्तर-हे गौतम ! जब महाशिला-कण्टक संग्राम हो रहा था, उस समय उस संग्राम में जो भी घोड़ा, हाथी, योद्धा और सारथि आदि तृण, काष्ठ, पत्र या कंकर आदि के द्वारा आहत होने पर वे सब ऐसा जानते थे कि हम महाशिला से मारे गये हैं अर्थात् हमारे ऊपर महाशिला पड़ गई । इस कारण हे गौतम ! उसे महाशिलाकण्टक सग्राम कहा गया है। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! महाशिला-कण्टक संग्राम में कितने लाख मनुष्य मारे गये ? ६ उत्तर-हे गौतम ! चौरासी लाख मनुष्य मारे गये । ७ प्रश्न-हे भगवन् ! निःशील यावत् प्रत्याख्यान पौषधोपवास रहित, रोष में भरे हुए, कुपित बने हुए, युद्ध में घायल हुए और अनुपशांत ऐसे वे मनुष्य काल के समय में काल करके कहाँ गये और कहाँ उत्पन्न हुए?.. ७ उत्तर-हे गौतम ! वे प्रायः नरक और तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न हुए। विवेचन-महाशिलाकण्टक संग्राम का पूर्व सम्बन्ध इस प्रकार है । श्रेणिक राजा की मृत्यु के पश्चात् कोणिक राजा ने राजगृह नगर को छोड़कर चम्पा नगरी को अपनी राजधानी बनाया और स्वयं भी वहां रहने लगा । कोणिक राजा के छोटे भाई का नाम विहल्लकुमार + था। श्रेणिक राजा ने अपने जीवन-काल में ही उसे एक सेचानक गन्ध हस्ती और अठारहसरा वङ्कचूड़ हार दे दिया था। विहल्लकुमार अन्तःपुर सहित हाथी पर सवार होकर गंगा नदी के किनारे जाता और वहां अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं करता। हाथी उसकी रानियों को अपनी सूंड में उठाता, पीठ पर बिठाता और अनेक प्रकार की कोड़ाओं द्वारा उनका मनोरञ्जन करता हुआ उन्हें गंगा नदी में स्नान कराता । इस प्रकार + टीकाकार ने लिखा है कि कोणिक राजा के हल्ल और बिहल्ल नाम के दो छोटे भाईये, किन्तु अनुतरोपपातिक मूत्र में बिहल और वैहायस ये दो भाइयों के नाम आये है। For Personal & Private Use Only Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ९ महाशिला-कंटक संग्राम ११९७ उसकी क्रीड़ाओं को देखकर लोग कहने लगे कि "वास्तव में राज्यश्री का उपभोग तो विहरूलकुमार करता है।" जब यह बात कोणिक की रानी पमावती ने सुनी, तो उसके हृदय में ईर्षा उत्पन्न हई। वह सोचने लगी-यदि हमारे पास सेचानक गन्ध हस्ती नहीं है,तो यह राज्य हमारे किस काम का ? इसलिये विहल्ल कुमार से सेचानक गन्ध हस्ती अपने यहां मंगा लेने के लिये में राजा कोणिक से प्रार्थना करूंगी। तदनुसार उसने अपनी इच्छा राजा कोणिक के सामने प्रकट की। रानी की बात सुनकर पहले तो राजा ने उसकी बात को टाल दिया, किंतु उसके बार-बार कहने पर राजा के हृदय में भी यह बात जंच गई । उसने विहल्लकुमार से हार और हाथी मांगे। विहल्लकुमार ने कहा-यदि आप हार और हाथी लेना चाहते हैं, तो मेरे हिस्से का राज्य मुझे दे दीजिये । विहल्लकुम्गर की न्याय संगत बात पर कोणिक ने कोई ध्यान नहीं दिया, किन्तु हार और हाथी बार-बार मांगता रहा । इस पर से विहल्लकुमार को ऐसा विचार उत्पन्न हुअा कि 'कदाचित् कोणिक यह हार, हाथी मुझ से बरबस छीन लेगा।' अतः वह हार और हाथी को लेकर अपने अन्तःपुर सहित विशाला नगरी में अपने नाना चेड़ा राजा की शरण में चला गया। तत्पश्चात् राजा कोणिक ने अपने नाना चेड़ा राजा के पास दूत द्वारा यह सन्देशा भेजा कि "विहल्लकुमार मुझे पूछे बिना ही.सेचानक हाथी और वंकचूड़ हार लेकर आपके पास चला आया है। इसलिये उसे मेरे पास बापिस शीघ्र भेज दीजिये ।' . विशाला नगरी में जाकर दूत, चेड़ा राजा की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने राजा कोणिक का सन्देश कह सुनाया। चेड़ा राजा ने दूत से कहा-"तुम. कोणिक से कहना कि जिस प्रकार तुम श्रेणिक के पुत्र, चेलना के अंगजात और मेरे दोहित्र हो, उसी प्रकार विहल्लकुमार भी श्रेणिक का पुत्र, चेलना का अंगजात और मेरा दोहित्र है। श्रेणिक राजा जब जीवित थे, तब उन्होंने यह हार और हाथी, विहल्लकुमार को दे दिया था। यदि अब तुम .उन्हें लेना चाहते हो, तो विहल्लकुमार को अपने राज्य का हिस्सा दे दो।" ..दूत ने जाकर यह बात कोणिक राजा से कही । कोणिक राजा ने दूसरा दूत भेज कर चेटक राजा को निवेदन करवाया कि राज्य में उत्पन्न हुई सब श्रेष्ठ वस्तुओं का स्वामी राजा होता है । हार और हाथी भी राज्य में उत्पन्न हुए हैं । इसलिये उन पर मेरा अधिकार है । वे मेरे ही भोग में आने चाहिये ।" चेड़ाराजा ने दूत को पुनः वही उत्तर देकर सम्मान सहित विसर्जित किया । तब कोणिक राजा ने तीसरा दूत भेजकर कहलवाया-"या तो आप हार हाथी सहित विहल्ल कुमार को मेरे पास भेज दीजिये, अन्यथा युद्ध के लिये For Personal & Private Use Only Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११९८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ९ महाशिला-कंटक संग्राम . तैयार हो जाइये।" चेड़ा राजा के पास पहुंच कर दूत ने कोणिक राजा का सन्देश कह सुनाया । चड़ा राजा ने कहा-"यदि कोणिक अनीतिपूर्वक युद्ध करने को तैयार हो गया है, तो नीति को रक्षा के लिये मैं भी युद्ध करने को तैयार हूँ।" . दूत ने जाकर कोणिक राजा को उपरोक्त बात कह सुनाई। तत्पश्चात् कोणिक ने काल, सुकाल आदि दस भाईयों को बुलाकर कहा-"तुम सब अपने-अपने राज्य में जाकर अपनी-अपनी सेना लेकर शीघ्र आओ।" कोणिक राजा की आज्ञा को सुनकर दसों भाई अपने-अपने राज्य में गये और सेना लेकर वापिस कोणिक की सेवा में उपस्थित हुए। कोणिक भी अपनी सेना को सज्जित कर तैयार हुआ। फिर वे सभी विशाल नगरी पर चढ़ाई करने के लिये रवाना हुए। उनकी सेना में तेतीस हजार हाथी, तेतीस हजार घोड़े, तेतीस हजार रथ और तेतीस करोड़ पैदल सैनिक थे। ___ इधर चेड़ा राजा ने अपने धर्ममित्र काशी देश के नव मल्लि वंश के राजाओं को और कोशल देश के नव लच्छि वंश के राजाओं को बुलाया और विहल्लकुमार विषयक सारी हकीकत कही । चेड़ा राजा ने कहा-"भूपतियों ! कोणिक राजा मेरी न्याय संगत बात की अवहेलना करके अपनी चतुरंगिणी सेना को लेकर युद्ध करने के लिये यहाँ आ रहा है । अब आप लोगों की क्या सम्मति है ? क्या विहल्ल कुमार को वापिस भेज दिया जाय, या युद्ध किया जाय ?" सभी राजाओं ने एक-मत होकर उत्तर दिया-"मित्र ! हम क्षत्रिय हैं । शरणागत की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है । विहल्ल कुमार का पक्ष न्याय संगत है और वह हमारी शरण में आ चुका है इसलिये हम इसे कोणिक के पास नहीं भेज सकते।" उनका कथन सुनकर चेड़ा राजा ने कहा-"जब आप लोगों का यही निश्चय है, तो आप लोग अपनी-अपनी सेना लेकर वापिस शीघ्र आइये ।" तत्पश्चात् वे अपने-अपने राज्य में गये और सेना लेकर वापिस चेड़ा राजा के पास आये चेड़ा राजा भी तैयार हो गया । उन उन्नीस राजाओं की सेना में सत्तावन हजार हाथी, सत्तावन हजार घोड़े, सत्तावन हजार रथ और सत्तावन करोड़ पदाति थे । दोनों ओर की सेनाएँ युद्ध में आ डटीं । घोर संग्राम होने लगा। चेड़ा राजा का ऐसा नियम था कि वे एक दिन में एक बार बाण छोड़ते थे। उनका बाण अमोघ था, वह कभी निष्फल नहीं जाता था। पहले दिन कोणिक का भाई कालकुमार सेनापति For Personal & Private Use Only Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ९ रथमूसल संग्राम बनकर युद्ध में गया। वह चेड़ाराजा के एक ही बाण से मारा गया। उसकी सभी सेना भाग गई। इस प्रकार दस दिन में चेड़ा ने कालकुमार आदि दसों भाईयों को मार डाला । ग्यारहवें दिन कोणिक की बारी थी। कोणिक ने विचार किया-" में भी चेड़ा राजा के आगे टिक नहीं सकूँगा । मुझे भी वे एक ही बाण में मार डालेंग"-एसा सोच कर उसने तीन दिन युद्ध स्थगित रखा और देव आराधना के लिये उसने अष्टम तप करके अपने पूर्वभव के मित्र देवों का स्मरण किया। जिससे शकेन्द्र और चमरेन्द्र उसकी सहायता करने के लिये आये । शक्रन्द्र ने कोणिक से कहा-'चेड़ा राजा परम श्रावक हैं, इसलिये में उसे नहीं मारूंगा, किन्तु तेरी रक्षा करूंगा।' फिर शकेंन्द्र ने कोणिक की रक्षा करने के लिये वज सरीखे अभेद्य कवच की विकुर्वणा की और चमरेन्द्र ने महाशिलाकण्टक संग्राम और रथमूसल संग्राम, इन दो संग्रामों की विकुर्वणा की, जिसमें महाशिलाकण्टक संग्राम का वर्णन मूल पाठ में दिया गया हैं । उस संग्राम में चौरासी लाख मनुष्य मारे गये थे। रथमूसल संग्राम का वर्णन आगे दिया जा रहा हैं । नोट-यह कथा नन्दीसूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र आदि की टीका के आधार से दी गई है । इस कथा में और निरयावलिकासूत्र वर्णित कथा में कुछ अन्तर हैं, सो जिज्ञासुओं को वहाँ देखना चाहिए। रथमूसल संग्राम ८ प्रश्न-णायमेयं अरहया, सुयमेयं अरहया, विण्णायमेयं अरहया-रहमुसले संगामे । रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणे के जइत्था, के पराजइत्था ? . ८ उत्तर-गोयमा ! वजी, विदेहपुत्ते, चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था; णवमल्लई, णव लेच्छई पराजइत्था । तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगामं उवट्ठियं, सेसं जहा महासिलाकंटए, For Personal & Private Use Only Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०० T०० भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ रथमूसल संग्राम णवरं भूयाणंदे हत्थिराया जाव रहमुसलं संगामं ओयाए । पुरओ य से सक्के, देविंदे देवराया, एवं तहेव जाव चिट्ठइ, मग्गओ य से चमरे अमरिंदे असुरकुमारराया एगं महं आयसं किढिणपडिरूवगं विरब्वित्ता णं चिट्ठइ । एवं खलु तओ इंदा संगामं संगाति, तं जहा-देविंदे य, मणुइंदे य, असुरिंदे य। एग हत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया जहत्तए, तहेव जाव दिसोदिसिं पडिसेहित्था ।। कठिन शम्वार्थ-मग्गओ-पीछे, आयसं-लोह का बना हुआ, किढिणपडिरूवर्गकिठिन नामक बांस से बने हुए तापसपात्र के समान, पडिसेहित्था-भगा दिए । - भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! अरिहन्त भगवान ने जाना है, प्रत्यक्ष किया है और विशेष रूप से जाना है कि रथमूसल नामक संग्राम है । हे भगवन ! जब रथमूसल संग्राम हो रहा था, तब कौन जीता था और कौन हारा था ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वज्री (इन्द्र), विदेह पुत्र (कोणिक) और असुरेन्द्र, असुरकुमार-राज चमर जोता था और नवमल्लि तथा नवलच्छि राजा हारे थे। रथमूसल संग्राम को उपस्थित हुआ जानकर कोणिक राजा ने अपने कौटुम्बिक (सेवक) पुरुषों को बुलाया। यावत् महाशिलाकण्टक संग्राम में कहा हुआ सारा वर्णन यहां कहना चाहिये । इसमें इतनी विशेषता है कि यहां भूतामन्द नामक पट्टहस्ती है यावत् वह कोणिक रथमूसल संग्राम में उतरा । उसके आगे देवेन्द्र देवराज शक है यावत् पूर्ववत् सारा वर्णन कहना चाहिये । पीछे असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर ने, लोह के बने हुए किठिन (बांस का बना हुआ एक तापस पात्र) के समान कवच की विकुर्वणा की। इस प्रकार तीन इन्द्र युद्ध करने लगे। यथा-देवेन्द्र, मनुजेन्द्र और असुरेन्द्र । अब कोणिक एक हाथी के द्वारा भी शत्रुओं को पराजय करने में समर्थ है, यावत् उसने पूर्व कथित वर्णन के अनुसार शत्रुओं को चारों दिशाओं में भगा दिया। For Personal & Private Use Only Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - 5. ७ उ. १ रथमूसल संग्राम ९ प्रश्न - से केणणं भंते ! एवं बुच्चइ रहमुसले संगामे ? ९ उत्तर - गोयमा ! रहमुसले णं संगामे वट्टमाणे एगे रहे अणासए, असारहिए, अणारोहए, समुमले, महया जणक्खयं, जणवहं, जणप्पमदं, जणसंवद्रकप्पं रुहिरकद्दमं करेमाणे सव्वओ समता परिधा वित्था, से तेणट्टेणं जाव रहमुसले संगामे । १० प्रश्न - रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणे कह जणसयसाहसीओ वहियाओ ? १० उत्तर - गोयमा ! छष्णउडं जणसयसाहस्सीओ वहियाओ ? १२०१ ११ प्रश्न - ते णं भंते ! मणुया णिस्सीला जाव उववण्णा ? ११ उत्तर - गोयमा ! तत्थ णं दससाहस्सीओ एगाए मच्छीए कुच्छिसि उववण्णाओ, एगे देवलोगेसु उववण्णे, एगे सुकुले पच्चायाए; अवसेसा ओसण्णं णरगतिरिक्खजोणिएसु उववण्णा । कठिन शब्दार्थ - अणासए - अश्व रहित बिना घोड़े का, असारहीए - सारथी रहित, अणारोहए- योद्धाओं से रहित, समूसले - मूसलसहित जणप्पमद्दं जन समूह का मर्दन करने वाला, जणसंबट्टकप्पं- जन-प्रलयकारी, रुहिरकद्दमं करेमाणे रक्त का कीचड़ करते हुए, परिधावित्था - दौड़ता है, कुच्छिसि - कुक्षा में, सुकुले पच्चायाए-अच्छे कुल में उत्पन्न हुआ । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! इसे रथमूसल संग्राम क्यों कहते हैं ? १९ उत्तर - हे गौतम ! जिस समय रथमूसल संग्राम हो रहा था, उस समय अब रहित, सारथी रहित, योद्धा रहित और मूसल सहित रथ, अत्यन्त जन संहार, जन वध, जन मर्दन और जन प्रलय करता हुआ तथा रक्त का कीचड़ करता हुआ चारों ओर दौड़ता था । अतः उस संग्राम को रथमूसल For Personal & Private Use Only Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०२ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ९ रथमूसल संग्राम ।। संग्राम कहा गया है। १० प्रश्न-हे भगवन् ! रथमसल संग्राम में कितने लाख मनुष्य मारे गये ? १० उत्तर-हे गौतम ! छयानवे लाख मनुष्य मारे गये। .. ११ प्रश्न-हे भगवन् ! निःशील (शील रहित.) यावत् वे मनुष्य मरकर कहाँ गये, कहाँ उत्पन्न हुए ? ११ उत्तर-हे गौतम ! उनमें से दस हजार मनुष्य तो एक मछली के उदर में उत्पन्न हुए। एक मनुष्य देवलोक में उत्पन्न हुआ, एक मनुष्य उत्तम कुल (मनुष्य गति) में उत्पन्न हुआ और शेष प्रायः नरक और तिर्यञ्च योनि में उत्पन्न हुए। १२ प्रश्न-कम्हा णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियरण्णो साहेज दयित्था ? __ १२ उत्तर-गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया पुव्वसंगइए, चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया परियायसंगइए; एवं खलु गोयमा ! सक्के देविंदे देवराया, चमरे य असुरिंदे असुरकुमारराया कूणियस्स रण्णो साहेजं दलयित्था । कठिन शब्दार्थ-साहेग्ज-सहायता, परियायसंगइए-पर्याय-तापस दीक्षा के साथी । भावार्थ-१२ प्रश्न-हे भगवन् ! देवेन्द्र, देवराज शक्र . और असुरेन्द्र, असुरकुमारराज चमर, इन दोनों इन्द्रों ने कोणिक राजा को किस कारण से सहायता दी? १२ उत्तर-हे गौतम ! देवेन्द्र, देवराज शक्र तो कोणिक राजा का पूर्व संगतिक (पूर्वभव सम्बन्धी अर्थात् कार्तिक सेठ के भव में) मित्र था और असु For Personal & Private Use Only Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ७ उ. ६ रथमूमल संग्राम १२०३ - रेन्द्र असुरकुमारराज चमर, कोणिक राजा का पर्याय-संगतिक (पूरण नामक तापस को अवस्था का साथी) मित्र था । इसलिये हे गौतम ! देवेन्द्र देवराज शक ने और असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर ने कोणिक को सहायता दी। १३ प्रश्न-बहुजणे णं भंते ! अण्णमण्णस्स एवमाइनखइ, जाव परूवेह-एवं खलु बहवे मणुस्सा अण्णयरेसु उच्चावएसु संगामेसु अभिमुहा चेव पहया समाणा कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, से कहमेयं भंते ! एवं ?' १३ उत्तर-गोयमा ! जणं से बहुजणो अण्णमण्णस्स एवं आइक्खइ-जाव उववत्तारो भवंति; जे ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु । अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, जाव परूवेमि-एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वेसाली णामं णयरी होत्था, वण्णओ । तत्थ णं वेसालीए णयरीए वरुणे णामं णागणत्तुए परिवसइ, अड्ढे जाव अपरिभूए, समणोवासए, अभिगयजीवाजीवे, जाव पडिलाभेमाणे छटुं छटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। . कठिन शब्दार्थ-पहया-मारे गए। भावार्थ--१३ प्रश्न-हे भगवन् ! बहुत से मनुष्य इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि अनेक प्रकार के छोटे बड़े संग्रामों में से किसी भी संग्राम में सम्मुख रहकर युद्ध करते हुए उसमें मारे जायें, तो वे सब काल के समय काल करके देवलोकों में से किसी देवलोक में उत्पन्न होते हैं । हे भगवन ! For Personal & Private Use Only Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०४ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ९ रथमूसल संग्राम ऐसा किस प्रकार हो सकता है ? १३ उत्तर-हे गौतम ! बहुत से मनुष्य जो इस प्रकार कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं कि संग्राम में मारे हुए मनुष्य, देवलोकों में उत्पन्न होते हैं, वे मिथ्या कहते हैं। हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ,उस काल उस समय में वैशाली नाम की नगरी थी। उसमें वरुण-नागनत्तुआ (नाग नामक पुरुष का 'वरुण' नामक पौत्र या दोहित्र) रहता था। वह धनाढय यावत् किसी से पराभूत न हो सके-ऐसा समर्थ था। वह श्रमणोपासक था और जीवाजीवावि तत्त्वों का ज्ञाता था, यावत् वह आहारादि द्वारा श्रमण निग्रन्थों को प्रतिलाभित करता हुआ एवं निरन्तर छठ-छठ की तपस्या द्वारा अपनी आत्मा को भावित करता हुआ विचरता था। तएणं से वरुणे णागणए अण्णया कयाई रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं रहमुसले संगामे आणत्ते समाणे छठभत्तिए अट्ठमभत्तं अणुवट्टेइ, अणुवट्टित्ता कोडंवियपुरिसे सदावेइ, सदावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउग्घंट आसरहं जुत्तामेव उवट्ठावेह, हय-गयरह० जाव सण्णाहेत्ता मम एवं आणत्तियं पञ्चप्पिणह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सच्छत्तं सज्झयं जाव उवट्ठावेंति, हय-गय-रह० जाव सण्णाहेंति, सण्णाहित्ता जेणेव वरुणे णागणत्तुए, जाव पच्चप्पिणंति । तएणं से वरुणे णागणत्तुए जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छइ, जहा कूणिओ, जाव-पायच्छित्ते, सव्वालंकारविभूसिए, For Personal & Private Use Only Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. ९ रथमूसल संग्राम १२०५ मण्णद्ध-बदधे सकोरंटमल्लदामेणं जाव धरिजमाणेणं; अणेगगणणायग० जाव दूय-संधिवालसदधि संपरिबुडे मजणघराओ पडिणिक्खमड़, पडिणिक्वमिता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसोला, जेणेव चाउग्घंटे आसरहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरुहइ, दुरुहित्ता हय-गयरह जाव संपरिबुडे, महयाभडचडगर० जाव परिस्खित्ते जेणेव रहमुसले संगामे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता रहमुमलं संगामं ओयाओ। कठिन शब्दार्थ-रायाभिओगेणं-राजा के अभियोग-आदेश से, भाणतेसमाणे-आज्ञा होने पर, अणुवट्टेइ-बढ़ाता है, दूय-संधिवालसद्धि-दूत और संधीपाल के साथ, चाउग्घंटचार घण्टाओं से युक्त, ओयाओ-उतरा। - भावार्थ-एक बार राजा के आदेश से, गण के अभियोग से और बल के अभियोग से, रथमूसल संग्राम में जाने की आज्ञा हुई। तब उसने बेले की तपस्या को बढ़ाकर तेले को तपस्या करली । उसने अपने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और इस प्रकार कहा-'हे देवानुप्रियों! चार घण्टा गला अश्वरथ, सामग्री सहित तैयार कर उपस्थित करो। घोड़ा, हाथी, रथ और प्रवर-योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना को सज्जित करो, यावत् सज्जित करके यह मेरी आमा मुझे समपित करो। कोटुम्बिक पुरुषों ने यावत् उसको आज्ञा को स्वीकार कर छत्र सहित, ध्वजा सहित यावत् रथ को शीघ्र उपस्थित किया और घोड़ा, हाथी, रथ एवं प्रवर-योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना को सज्जित किया और बरुण-नागनत्तुआ को उसकी आज्ञा वापिस सौंपी। वरण-नागनत्तआ स्नानघर में गया और कोणिक की तरह यावत् कौतुक और मंगल रूप प्रायश्चित करके सर्वालङ्कारों से विभूषित हुआ, कवच पहना, कोरण्टपुष्प को माला युक्त छत्र धारण किया। फिर अनेक गणनायक यावत् दूत और सन्धिपालों के साथ परिवृत हो स्नान-घर For Personal & Private Use Only Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०६ भगवती सूत्र - श. ७ उ. ९ रथमूसल संग्राम से बाहर निकला । निकल कर बाहर की उपस्थानशाला में आया और चार घण्टा वाले अश्वरथ पर सवार हुआ । घोडे, हाथी, रथ और प्रवर-योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना के साथ यावत् महान् सुभटों के समूह से परिक्त वह वरुणनागनत्तुआ रथमूसल संग्राम में आया । तएणं से वरुणे णागणत्तुए रहमुरलं संगामं ओयाए समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ-कप्पड़ मे रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स जे पुब्बिं पहणइ से पडिहणित्तए, अवसेसे णो कप्पइत्ति; अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हइ, अभिगेण्हेत्ता रहमुसलं संगाम संगामेति । तएणं तस्स वरुणस्स णागणत्तुयस्स रहमुसलं संगामं संगामेमाणस्स एगे पुरिसे सरिसए, सरिसत्तए, सरिसव्वए, सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडिरह हव्वं आगए । तएणं से पुरिसे वरुणं णागणतुयं एवं वयासी-"पहण भो वरुणा ! णागणत्तुया ! पहण० !" तए णं से वरुणे णागणतुए तं पुरिसं एवं वयासी-“णो खलु मे कप्पइ देवाणुप्पिया ! पुचि अहयस्स पहणित्तए, तुमं चेव णं पुब्धि पहणाहि ।” तएणं से पुरिसे वरुणेणं णागणत्तुएणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसिमाणे धणुं परामुसइ धणुं परामुसित्ता उसु परामुसह, उनु परामुसित्ता ठाणं ठाइ, ठाणं ठिचा आययकण्णाययं उसु करेइ, आययकण्णाययं उमुं करित्ता वरुणं णागणत्तुयं गाढप्पहारी करेइ । तएणं से वरुणे णागणतुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे For Personal & Private Use Only Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-म. ७ ऊ. १. रथमूसल संग्राम १२०७ आमुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे धणु परामुसइ, धणुं परामुसित्ता, उमुं परामुमड़, उग्मुं परामुसित्ता आययकण्णाययं उसुं करेइ, आययकण्णाययं उसुं करेत्ता तं पुरिमं एगाहच्चं कूडाहच्चं जीवियाओ ववरोवेइ । कठिन शब्दार्थ--अभिग्गह-अभिग्रह (प्रतिज्ञा), पहण--मार-प्रहार कर, पडिहत्तए-प्रतिहत करना, पडिरहं-प्रतिरथ--रथ के सामने, मिसिमिसेमाणेक्रोधाग्नि से दीप्त, उसं-बाण को. आययकण्णाययं-कान तक खींचकर, गाढप्पहारी करेइ-जोरदार प्रहार करता है, एगाहच्च-एकदम, कूडाहच्चं-विलम्ब रहित । भावार्थ-युद्ध में प्रवृत्त होने के पूर्व उसने यह नियम लिया कि 'रथमूसल संग्राम में युद्ध करते हुए मुझ पर जो पहले वार करेगा, उसी को मारना मुझे योग्य है, दूसरे को नहीं। इस प्रकार का अभिग्रह करके वह संग्राम करने लगा। संग्राम करते हुए वरुण-नागनत्तुआ के रथ के सामने, उसी के समानवय वाला, उसी के समान त्वचा वाला और उसी के समान अस्त्रशस्त्रादि उपकरणों वाला एक पुरुष, रथ में बैठकर आया और उसने वरुण नागनत्तुआ से कहा कि-"हे वरुणनागनत्तुआ ! तूं मुझ पर प्रहार कर तूं मुझ पर प्रहार कर।" तब वरुण-नागनत्तुआ ने उस पुरुष से इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रिय ! जबतक मुझ पर पहले कोई प्रहार नहीं करेगा, तबतक उस पर प्रहार करना मुझे योग्य नहीं है । इसलिये पहले पहले तू ही मुझ पर प्रहार कर।" जब वरुण-नागनत्तुआ ने उस पुरुष से ऐसा कहा, तब कुपित एवं क्रोधाग्नि से धमधमाते हुए उस पुरुष ने धनुष उठाया, उस पर बाण चढ़ाया, अमुक आसन से अमुक स्थान पर रह कर धनुष को कान तक लम्बा खींचा और वरुणनागनत्तुआ पर तत्काल प्रबल प्रहार किया। उस प्रहार से घायल बने हुए वरुणनागनत्तुआ ने कुपित होकर धनुष उठाया, उस पर बाण चढ़ाया और उस बाण को कान पर्यन्त खोंचकर उस पुरुष पर फेंका। इस प्रहार से जिस प्रकार पत्थर के टुकडे टुकडे हो जाते हैं, उसी प्रकार वह पुरुष जीवन से रहित हो गया। For Personal & Private Use Only Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र – श. ७ उ. ९ रथमूसल संग्राम 1. तए णं से वरुणे णागणत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीक. ए समाणे अत्थामे, अबले, अवीरिए, अपुरिसवकारपरवकमे अधारणिज्जमिति कट्टु तुरए णिगिues, तुरए णिगिव्हित्ता रहं परावत्तेड़, रहं परावत्तित्ता रहमुसलाओ संगामाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता, एगंतमंत अवक्कमइ, एगंतमंत अवक्कमित्ता तुरए णिगिव्हड तुर णिणिहित्ता रहं वेइ, रहं ठवेत्ता, रहाओ पचोर, रहाओ पचोरुहिता तुर मोह, तुरए मोएत्ता तुरए विसज्जेइ, तुरए विसज्जित्ता दग्भसंथारगं संथरह, दव्भसंथारगं संथरित्ता दव्भसंथा रगंदुरु , दब्भसंथारगं दुरुहित्ता, पुरत्थाभिमुहे संपलियं कणिसपणे करयलजाव कट्टु एवं वयासी - "णमोत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं, जाव संपत्ताणं, णमोत्थुणं समणस्स भगवओ महावीररस, आइगररस, जाव संपाविकामस्स, मम धम्मायरियरस, धम्मोव देसगस्स वंदामि णं भगवंतं तत्थगयं इहगए, पासउ मे से भगवं तत्थगए, जाव वंद णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता, एवं वयासी - पुव्विं पि मए समणरस भगवओ महावीरस्म अंतिए थूलए पाणाइवाए पचखाए जावजीवाए, एवं जाब थूलए परिग्गहे पञ्चक्खाए जावजीवाए: इयाणि पिणं अहं तस्सेव भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वं पाणाड़वायं पत्रक्खामि जावजीवाए, एवं जहा खंदओ, जाव एवं पिणं चरिमेहिं ऊसास-णीसासेहिं बोसिरिस्मामि त्ति कट्टु सण्णाहपट्टे मुयह, मुड़ता १२०८ For Personal & Private Use Only Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ७ उ. ९ रथमूमल मंग्राम सल्लुद्वरणं करेड़, सल्लुद्धरणं करेत्ता आलोइयपडिक्कंते, समाहिपत्ते, आणुपुव्वी कालगए । कठिन शब्दार्थ - अत्थामे -- सामान्य रूप से शक्ति रहित, अबले-- शारीरिक बल रहित, अवीरिए - मानसिक शक्ति रहित, अधारणिज्जं -- अपने शरीर को धारण करने में असमर्थ, तुरए णिगिण्हइ -- घोड़े को रोका, पच्चोरुहइ -- उतरता है, तुरए मोएइ -- घोड़े को छोड़ता है, दब्मसंथारगं संथरइ -- घास का बिछाना बिछाता है, दुरुहइत्ता -- बैठकर, पुरत्या भिमु -- पूर्व की ओर मुंह करके, सपलियंकणिसणे -- पर्यंक आसन से बैठकर, करयल - - हाथ की हथेलियाँ, पासउ -- देखें, सण्णाहपट्टमुयइ -- इ-- कवच छोड़ता - खोलता है, सल्लुद्धरणं करेइ-- बाण को निकालता है, आलोइयपडिक्कंते-- आलोचना प्रतिक्रमण करता है । १२०९ भावार्थ - इसके बाद उस पुरुष के प्रबल प्रहार से घायल हुआ वरुणनागनतुआ शक्ति रहित, निर्बल, वीर्यरहित और पुरुषकार पराक्रम से रहित बना और 'अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा - ऐसा समझ कर रथ को वापिस फेरा और संग्राम स्थल से बाहर निकला। एकान्त स्थान में आकर रथ को खड़ा किया। रथ से नीचे उतर कर उसने घोडों को छोड़ कर विसर्जित कर दिया। फिर दर्भ ( डाभ ) का 'संथारा बिछाया और पूर्व दिशा की ओर मुंह करके पर्यंकासन से दर्भ के संथारे पर बैठा और दोनों हाथ जोड़कर यावत् इस प्रकार कहा - 'अरिहन्त भगवन्त यावत् जो सिद्धगति को प्राप्त हुए हैं, उन्हें नमस्कार हो । मेरे धर्म-गुरु धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को नमस्कार हो, जो धर्म की आदि करने वाले हैं यावत् सिद्धगति को प्राप्त करने की इच्छा वाले हैं। वहाँ दूर स्थान पर रहे हुए भगवान् को यहाँ रहा हुआ में वन्दना करता हूँ। वहाँ रहे हुए भगवान् मुझे देखें," इत्यादि कहकर उसने वन्दन नमस्कार किया । वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा कि " पहले मैंने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास जीवन पर्यन्त स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान किया था, यावत् स्थूल परिग्रह का जीवन पर्यन्त प्रत्याख्यान किया था, अब अरिहन्त भगवान् महावीर स्वामी के पास ( साक्षी से ) सर्व प्राणातिपात का प्रत्याख्यान जीवन पर्यन्त करता हूँ ।" इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१० भगवती सूत्र श. ७ उ ९ रथमूसल संग्राम स्कन्दक की तरह 'इस शरीर का भी अन्तिम श्वासोच्छ्वास के साथ त्याग करता हूँ', ऐसा कह कर उसने सन्नाहपट (कवच ) खोल दिया । सन्नाहपट को खोलकर बाण को बाहर खींचा। बाण को शरीर से बाहर निकाल कर आलोचना की, प्रतिक्रमण किया और समाधि युक्त काल धर्म को प्राप्त हो गया । तणं तस्स वरुणस्स णागणत्तुयस्स एगे पियवालवयंसए रहमुसलं संगामं संगामेमाणे एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबले जाव अधारणिज्जमिति कट्टु वरुणं णागणत्तुयं रहमुसलाओ संगामाओ पडिणिक्खमाणं पासह, पासित्ता, तुरए णिगिण्हड़, तुरए णि गिहित्ता जहा वरुणे जाव तुरए विसजेड़, पडसंथारगं दुरुहड़, पडसंथारगं दुरुहित्ता पुरत्थाभिमुहे जाव अंजलिं कट्टु एवं वयासीजाईं णं भंते! मम पियबालवयंसस्स वरुणस्स णागणत्तुयस्स सीलाई, वयाई, गुणाई, वेरमणाई, पञ्चवाण- पोसहोववासाई, ताई णं ममं पि भवंतु त्ति कट्टु सण्णाहपट्टे मुयइ, मुझत्ता सल्लुद्धरणं करे, सल्लुद्धरणं करेत्ता आणुपुब्वी कालगए । तरणं तं वरुणं णागणत्तुयं कालगयं जाणित्ता अहासण्णिहिए हिं वाणमंतरेहिं देवेहिं दिव्वे सुरभिगंधो-दगवासे वुट्ठे, दसवण्णे कुसुमे णिवाइए, दिव्वे य गीयगंधवणिure कए यावि होत्था । तरणं तस्स वरुणस्म णागत्यस्स तं दिव्वं देविडिंट, दिव्वं देवज्जुडं, दिव्वं देवाणुभागं सुणित्ता ● इनका वर्णन भगवती सूत्र शतक २ उद्देशक १ पृ. ४४५ में है । For Personal & Private Use Only Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ७ उ. ५ रथ ममल मंग्राम १२११ य पासित्ता य बहुजणो अण्णमण्णस्म एवं आइक्खड़, जाव परूवेइ एवं खलु देवाणुप्पिया ! वहवे मणुस्सा जाव उववत्तारो भवंति । कठिन शब्दार्थ-पियबालवयंसए-प्रिय बाल मित्र, पडिणिक्खममाणं-निकलते हुए, अहासणिहिएहि--निकट रहने वाले, दसद्धवणे--पांच वर्ण के, णिवाइए-डाले, गीयगंधव गिणाए--गीत गन्धर्व नाद किया। भावार्थ- उस वरुणनागनत्तुआ का एक प्रिय बाल-मित्र भी रथमूसल संग्राम में युद्ध करता था। वह भी एक पुरुष द्वारा घायल हुआ और शक्ति रहित, बल रहित, वीर्य रहित बने हुए उसने सोचा-'अब मेरा शरीर टिक नहीं सकेगा, उसने वरुणनागनत्तुआ को युद्ध-स्थल से बाहर निकलते हुए देखा । वह भी अपने रथ को वापिस फिराकर रथ-मसल संग्राम से बाहर निकला और जहाँ वरुण-नागनत्तुआ था, वहां आकर घोडों को रथ से खोल कर विजित कर दिया। फिर वस्त्र का संथारा बिछाकर उस पर पूर्व दिशा की ओर मुंह करके बैठा और दोनों हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला-'हे भगवन् ! मेरे प्रिय बालमित्र वरुण-नागनत्तुआ के जो शीलवत, गुणवत, विरमण व्रत, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास हैं, वे सब मुझे भी होवें'--ऐसा कहकर उसने कवच खोला। शरीर में लगे हुए बाण को बाहर निकाला और अनुक्रम से वह भी काल-धर्म को प्राप्त हो गया। ___ वरुण-नागनत्तुआ को काल-धर्म प्राप्त हुआ जानकर निकट रहे हुए वाणव्यन्तर देवों ने उस पर सुगन्धित जल की वृष्टि की, पाँच वर्ण के फूल बरसाये और गीत एवं गन्धर्व-नाद किया। उस वरुण-नागनत्तुआ को द्विव्य देवऋद्धि, द्विव्य देव-धुति और द्विव्य देव प्रभाव को सुनकर और देखकर बहुत से मनुष्य परस्पर इस प्रकार कहने लगे यावत् प्ररूपणा करने लगे कि 'हे देवानप्रियों ! जो संग्राम करते हए मरते हैं, वे देवलोक में उत्पन्न होते हैं।' • १४ प्रश्न-वरुणे णं भंते ! णागणत्तुए कालमासे कालं किच्चा For Personal & Private Use Only Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१२ भगवती सूत्र - श. ७ उ. ९ रथमूमल मंग्राम । कहिं गए, कहिं उववण्णे ? १४ उत्तर-गोयमा ! सोहम्मे कप्पे, अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववण्णे, तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइ ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं वरुणस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णता । से णं भंते ! वरुणे देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिक्खएणं जाव महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, जाव अंतं करेहिति । १५ प्रश्न-वरुणस्स णं भंते ! णागणत्तुयस्स पियवालवयंसए कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहिं उबवण्णे ? .. १५ उत्तर-गोयमा ! सुकुले पञ्चायाए । १६ प्रश्न-से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उब्वद्वित्ता कहिं गच्छिहिति, कहिं उववजिहिति ? ___ १६ उत्तर-गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति, जाव अंतं काहिति। * सेवं भंते ! मेवं भंते ! त्ति ॥ सत्तमसयस्स णवमओ उद्देसओ सम्मत्तो । १४ प्रश्न-हे भगवन् ! वरुण-नागनत्तुआ काल के समय में काल करके । कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? . For Personal & Private Use Only Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ७ उ. ६ रथममल संग्राम १०१३ १४ उत्तर-हे गौतम ! सौधर्म देवलोक के अरुणाभ नामक विमान में देवपने उत्पन्न हुआ है। वहां के कितने ही देवों की स्थिति चार पल्योपम की कही गई है, तदनुसार वरुण देव की स्थिति भी चार पल्योपम की है। . प्रश्न-हे भगवन् ! वह वरुणदेव, देवलोक की आयु, भव और स्थिति का क्षय होने पर कहाँ जाएगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? उत्तर-हे गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा यावत् सभी दुःखों का अन्त करेगा। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! वरुण-नागनत्तुआ का प्रिय बालमित्र, काल के समय काल करके कहां गया, कहाँ उत्पन्न हुआ ? १५ उत्तर-हे गौतम ! वह सुकुल में (अच्छे मनुष्य कुल में ) उत्पन्न हुआ है। १६ प्रश्न-हे भगवन् ! वहाँ से काल करके वरुण-नागनत्तुआ का प्रिय बालमित्र कहाँ जायेगा, कहाँ उत्पन्न होगा ? १६ उत्तर-हे गौतम ! वह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध होगा यावत् सर्व दुःखों का अन्त करेगा। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। . विवेचन-महाशिलाकण्टक संग्राम और रथमूसल संग्राम इन दोनों संग्रामों में एक करोड़ अस्सी लाख मनुष्य मारे गये । उनमें से एक वरुण-नागनत्तुआ देवलोक में गया और उसका प्रिय बाल-मित्र मनुष्य गति में गया। ॥ इति मातवें शतक का नववाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१४ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १० कालोदायी की तत्त्वचर्चा और प्रव्रज्या शतक ७ उद्देशक १० कालोदायी की तत्त्वचर्चा और प्रव्रज्या १-तेणं. कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णगरे होत्था, वण्णओ । गुणसिलए चेहए, वण्णओ । जाव पुढविसिलापट्टओ। तस्स णं गुणसिलयस्स चेइयस्स अदूरसामंते बहवे अण्णउत्थिया परिवसंति, तं जहा-कालोदाई, सेलोदाई, सेवालोदाई, उदए, णामुदए, णम्मुदए, अण्णवालए, सेलवालए, संखवालए, सुहत्थी गाहा. वई । तए णं तेर्सि अण्णउत्थियाणं अण्णया कयाइं एगयओ ममु. वागयाणं, सण्णिविट्टाणं, सण्णिसण्णाणं अयमेयारूवे मिहोकहासमुल्लावे समुप्पजित्था-एवं खलु समणे णायपुत्ते पंच अस्थिकाए पण्णवेइ, तं जहा-धम्मत्थिकायं, जाव पोग्गलस्थिकायं । तत्थ णं समणे णायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अजीवकाए पण्णवेइ, तं जहाधम्मस्थिकायं, अधम्मस्थिकायं, आगासस्थिकायं, पोग्गलस्थिकाय; एगं च णं समणे णायपुत्ते जीवस्थिकायं अरूविकायं जीवकायं पण्णवेह । तत्थ णं समणे णायपुत्ते चत्तारि अस्थिकाए अरूविकाए पण्णवेइ तं जहा-धम्मस्थिकायं अधम्मस्थिकार्य, आगासत्थिकाय, जीवस्थिकार्य; एगं च णं समणे णायपुत्ते पोग्गलस्थिकायं रूविकाय, अजीवकायं For Personal & Private Use Only Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ७ उ १० कालोदायी की तत्त्वचर्चा और प्रव्रज्या पण्णवे । से कहमेयं मण्णे एवं ? कठिन शब्दार्थ -- एगयाओ समुवागयाणं - एक स्थान पर आये, सण्णिविद्वाणं-बैठे, सणसण्णाणं - मुख पूर्वक बैठे, मिहोकहासमुल्लावे- ऐसी बातचीत हुई, समणे नायपुत्ते - -श्रमण ज्ञात पुत्र - भ. महावीर, अस्थिकाए - अस्तिकाय । १२१५ भावार्थ - १ उस काल उस समय में राजगृह नामक नगर था, वर्णक । गुणशील नामक चंत्य ( बगीचा ) था, वर्णक । यावत् उसमें पृथ्वी- शिलापट था । उस गुण-शील चैत्य के पाप थोडी दूर पर बहुत से अन्यतीर्थी रहते थे । यथा- कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अन्यपालक, शैलपालक, " पालक और सुहस्ती गृहपति । किसी समय वे सब एक जगह आये और सुखपूर्वक बेठे । उन अन्यतीथिकों में इस प्रकार का वार्तालाप हुआ'श्रमण- ज्ञातपुत्र ( महावीर ) पाँच अस्तिकायों की प्ररूपणा करते हैं, यथाधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलारितकाय । इन में से श्रवण ज्ञातपुत्र चार अस्तिकाय को 'अजीब काय' कहते हैं । यथा-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय । एक जीवास्तिकाय को श्रमण- ज्ञातपुत्र 'अरूपी जीवकाय' बतलाते हैं । उन पांच अस्तिकायों में श्रमण - ज्ञातपुत्र, चार अस्तिकायों को 'अरूपी' बताते हैं । यथाधर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय । एक पुद्गलास्तिकाय को ही श्रमण-ज्ञातपुत्र रूपीकाय और 'अजीवकाय' कहते हैं । उनकी यह बात किस प्रकार मानी जा सकती है ?" ते काणं तेणं समरणं समणे भगवं महावीरे जाव गुणसिलए चेइए समोसढे | जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समरणं समणस्स भगवओ महावीररस For Personal & Private Use Only Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१६ भगवती मूत्र-ग. ७ उ. १० कालोदायो को नन्वचर्चा और प्रत्रज्या जेटे अंतेवासी इंदभूई णामं अणगारे गोयमगोत्ते णं, एवं जहा वितियसए नियंठुद्देसए जाव भिक्खायरियाए अडमाणे अहापजत्तं भत्त-पाणं पडिग्गाहित्ता रायगिहाओ णगराओ जाव अतुरियं, अचवलं, असंभंतं जाव रियं सोहेमाणे सोहेमाणे तेमि अण्णउत्थियाणं अदूरसामंतेणं वीइवयइ । तए णं ते अण्णउत्थिया भगवं गोयमं अदूरसामंतेणं वीइवयमाणं पासंति, पासेत्ता अण्णमण्णं सदावेंति, अण्णमण्णं सदावेत्ता एवं वयासी-"एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हे इमा कहा अविप्पकडा, अयं च णं गोयमे अम्हं अदूरसामंतेणं वीईवयइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं गोयमं एयमढे पुच्छित्तए" त्ति कटु अण्णमण्णस्स अंतिए एयमढें पडिमुणंति, एयं अटुं पडिसुणिता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयामी कठिन शब्दार्थ-बीइवयमाणं-जाते हुए, अविप्पकडा-अप्रकट (अज्ञात) । भावार्य-उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी गुणशील चंत्य (उदयान) में यावत् पधारे । यावत् परिषद् वापिस चली गई। उस काल उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गौत्री इन्द्र भूति नामक अनगार, दूसरे शतक के निर्ग्रन्योद्देशक में कहे अनुमार भिसाचर्या के लिये घूमते हुए यथा-पर्याप्त आहार-पानी ग्रहण करके राजगृह नगर से त्वरा रहित, चपलता रहित, संभ्रान्तता रहित, ईर्या समिति का शोधन करते हुए, अन्यतीथिकों से थोडी दूर होकर निकले । तब अन्यतीथिकों ने भगवान गौतम को थोरी दूरी से जाते हुए देखा और एक दूसरे से परस्पर For Personal & Private Use Only Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग ७ उ १० कालोदायी की तत्त्वचर्चा और प्रव्रज्या इस प्रकार कहा 'हे देवानुप्रियों ! पञ्चास्तिकाय सम्बन्धी यह बात हम नहीं जानते । यह गौतम अपने से थोडी दूरी पर ही जा रहे हैं, इसलिये गौतम से यह अर्थ पूछना श्रेयस्कर है।' इस प्रकार परस्पर परामर्श करके वे भगवान् गौतम के पास आये और उन्होंने भगवान् गौतम से इम प्रकार पूछा- प्रश्न - एवं खलु गोयमा ! तव धम्मायरिए, धम्मोवएसए, समणे णायपुत्ते पंच अत्थिकाए पण्णवेइ, तं जहा - धम्मत्थिकार्य, जाव पोग्गलत्थिकार्यः तं चैव जाव रूविकार्य अजीवकार्य पण्णवेड से कहमेयं गोयमा ! एवं ? उत्तर - तर णं से भगवं गोयमे ते अण्णउत्थिए एवं क्यासी" णो खलु वयं देवाणुप्रिया ! अस्थिभावं णत्थि त्ति वयामो, णस्थिभावं अस्थि त्ति वयामो; अम्हे णं देवाणुप्पिया ! सव्वं अस्थिभावं अस्थि त्ति वयामो, सव्वं णत्थिभावं णत्थि त्ति वयामो; तं चेयसा (वेदसा खलु तुभे देवाणुप्पिया ! एयमहं सयमेव पच्चुवेक्खह " त्ति कट्टु ते अण्णउत्थिए एवं वयासी - एवं, एवं । जेणेव गुणसिलए चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, एवं जहा णियंठुद्देसए जाव भत्त-पाणं पडिमेड, भत्त-पाणं पडिदंसित्ता समणं भगवं महावीरं वंदs, णमंसइ, वंदित्ता, णमंसित्ता णच्चासपणे जाव पज्जुवासइ । कठिन शब्दार्थ - अत्थिभावं सद्भाव-अस्तित्व, नत्थिभावं - नास्तित्वभाव-अविद्य तं चेयसः - अपने ज्ञान से मन से, सयमेव-खुद, पच्चुवेक्लह - विचार करो । मान भाव, १२१७ - For Personal & Private Use Only Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१८ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १० कालोदायी की तत्त्वचर्चा और प्रव्रज्या . प्रश्न-'हे गौतम ! तुम्हारे धर्माचार्य धर्मोपदेशक श्रमण-ज्ञातपुत्र पांच अस्तिकाय को प्ररूपणा करते हैं, यथा-धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय यावत् उन्होंने अपनी सारी चर्चा गौतम से कही। फिर पूछा हे गौतम ! यह किस प्रकार है ? . उत्तर--तब भगवान् गौतम ने अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा-"हे देवानुप्रियों ! हम अस्तिभाव (विद्यमान)को नास्तिभाव (अविद्यमान) नहीं कहते, इसी प्रकार नास्तिभाव को अस्तिभाव नहीं कहते । हे देवानप्रियों ! हम सभी अस्तिभावों को अस्तिभाव कहते हैं और नास्तिभावों को नास्तिमाव कहते हैं, इसलिये हे देवानुप्रियों ! आप स्वयं ज्ञान द्वारा इस बात का विचार करो," इस प्रकार कहकर गौतम स्वामी ने उन अन्यतीथिकों से कहा कि जैसा भगवान ने कहा है वैसा ही है । गौतमस्वामी गुणशीलक चंत्य में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास आये और दूसरे शतक के पांचवें निग्रंन्योद्देशक में कहे अनुसार यावत् भगवान् को भक्तपान दिखलाया। भक्तपान. दिखलाकर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन नमस्कार किया। वन्दन नमस्कार करके न बहुत दूर न बहुत निकट रह कर यावत् उपासना करने लगे। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे महाकहापडिवण्णे या वि होत्था, कालोदाई य तं देसं हवं आगए । 'कालोदाइ' त्ति समणे भगवं महावीरे कालोदाई एवं वयासी-“से गृणं ते कालोदाई ! अण्णया कयाइ एगयओ सहियाणं, समुवागयाणं, मंणिवि. ट्ठाणं तहेव जाव से कहमेयं मण्णे एवं ? से णूणं कालोदाई ! अट्टे सम? ?” "हंता अत्थि।” "तं सच्चे णं एसमढे कालोदाई ! अहं पंच For Personal & Private Use Only Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ७ उ. १० कालोदायी की तत्त्वचर्चा और प्रव्रज्या १२१९ स्थिकायं पण्णधेमि, तं जहा-धम्मस्थिकायं, जाव पोग्गलत्थिकायं, तत्थ णं अहं चत्तारि अस्थिकाए अजीवत्थिकाए अजीवताए पण्णवेमि, तहेव जाव एगं च णं अहं पोग्गलस्थिकायं रूविकायं पण्णवेमि। ३ प्रश्न-तए णं मे कालोदाई समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-एयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकायंसि, अधम्मस्थिकायंसि, आगामत्थिकायंमि अरू विकायंमि अजीवकायंसि चकिया केई आसइत्तए वा, सइत्तए वा. चिट्टइत्तए वा. णिसीइत्तए वा, तुयट्टि त्तए वा ? ३ उत्तर-णो इणटे समठे, कालोदाई ! एगंसि णं पोग्गलस्थिकायंसि रूविकायंसि अजीवकायंसि चकिया केई आमइत्तए वा, सइत्तए वा. जाव तुयट्टित्तए वा।। ४ प्रश्न-एयंसि णं भंते ! पोग्गलत्थिकायंसि रूविकायंसि, अजीवकायंसि जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कति ? ___४ उत्तर-णो इणटे समटे, कालोदाई ! एयंसि णं जीवत्थिकायंसि अरूविकायंसि जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसंजुत्ता कजति । एत्थ णं से कालोदाई संयुद्धे, समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसड़; वंदित्ता. णमंसित्ता एवं वयासी-"इच्छामि णं भंते ! तुम्भं For Personal & Private Use Only Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२० भगवती सूत्र-श. ७ उ. १० कालोदायी की तत्त्वचर्चा और प्रव्रज्या अंतियं धम्मं णिसामेत्तए, एवं जहा खंदए तहेव पव्वइए, तहेव एक्कारस अंगाई जाव विहरइ । कठिन शब्दार्थ --महाकहा पडिवण्णे--महाकथा प्रतिपत्र--विशाल जनसमूह में धर्मोपदेश देने में प्रवृत, चक्किया--कर सकता है, आसइत्तए सइत्तए--बैठने सोने । २ उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी महाकथाप्रतिपन्न थे अर्थात बहुत से मनुष्यों को धर्मोपदेश देने में प्रवत थे। उसी समय कालोदायो वहाँ शीघ्र आया। 'हे कालोदायिन् !' इस प्रकार सम्बोधित करके श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने कालोदायो से इस प्रकार कहा-- .: . "हे कालोदायी ! किसी समय एकत्र बैठे हुए तुम सब में पंचास्तिकाय के सम्बन्ध में इस प्रकार विचार हुआ था कि यावत् यह बात किस प्रकार मानी जा सकती है ? हे कालोदायिन् ! क्या यह बात यथार्थ है ?" ___ "हां, यथार्थ है।" "हे कालोदायिन् ! पंचास्तिकाय सम्बन्धी बात सत्य है। में धर्मास्तिकाय यावत् पुद्गलास्तिकाय पर्यन्त पांच अस्तिकाय की प्ररूपणा करता हूँ। उनमें से चार अस्तिकायों को अजीवास्तिकाय अजीव रूप कहता हूँ। यावत् पूर्व कथितानुसार एक पुद्गलास्तिकाय को रूपी अजीवकाय कहता हूँ। ३ प्रश्न-तब कालोदायी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी से कहा कि "हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन अरूपी अजीवकायों के ऊपर क्या कोई बैठना, सोना, खडे रहना, नीचे बैठना और इधर उधर आलोटने इत्यादि क्रियाएँ कर सकता है ? ३ उतर-हे कालोदायिन् ! यह अर्थ योग्य नहीं है। केवल पुद्गलास्तिकाय ही रूपी अजीवकाय है, उस पर बैठना, सोना आदि क्रियाएँ करने में कोई भी समर्थ है। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! इस रूपी अजीव पुद्गलास्तिकाय में क्या जीवों For Personal & Private Use Only Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र - ग. ७ उ. १० पाप और पुण्य कर्म और फल १२२१ को पापफल-विपाक सहित अर्थात् अशुभ फल देने वाले पाप कर्म लगते हैं ? ४ उत्तर-हे कालोदायिन् ! यह अर्थ योग्य नहीं है, किन्तु अरूपी जौवास्तिकाय में ही जीवों को पापफलविपाक सहित पापकर्म लगते हैं, अर्थात् जीव ही पापकर्म संयुक्त होते हैं। भगवान् के उत्तर को सुनकर कालोदायी बोध को प्राप्त हुआ। फिर उसने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके उसने इस प्रकार कहा ___"हे भगवन् ! मैं आपके पास धर्म सुनना चाहता हूँ। भगवान् ने उसको धर्म सुनाया। फिर स्कन्दक की तरह उसने भगवान के पास प्रवज्या अंगीकार की । ग्यारह अंगों का ज्ञान पढ़ा यावत् कालोदायी अनगार विचरते हैं। ___ विवेचन--अन्यतीथिकों में पञ्चास्तिकाय के सम्बन्ध में परस्पर वार्तालाप हुआ, उन्होंने भिक्षा लेकर जाते हुए गौतम स्वामी ने पूछा । गौतम स्वामी ने कहा कि वही ठीक है जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी प्ररूपणा करते हैं । गौतम स्वामी इतना कहकर भगवान् की सेवा में पधार गये । इसके बाद उन अन्यतीथिकों में से कालोदायी भगवान् के पास आया और उसने इस विषयक प्रश्न किया । भगवान् का उत्तर सुनकर उसे पूर्ण सन्तोष हुआ। फिर भगवान् से धर्म मुनकर बोध को प्राप्त हुआ और स्कन्धक की तरह प्रव्रज्या अंगीकार की। पाप और पुण्य कर्म और फल ५-तए णं ममणे भगवं महावीरे अण्णया कयाइ रायगिहाओ णयराओ, गुणसिलाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णामं णयरे गुणमिलए चेहए होत्था । तए णं समणे भगवं महा For Personal & Private Use Only Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२२ भगवती सूत्र - श. ७ उ. १• पाप और पुण्य कर्म और फल पपासा वीरे अण्णया कयाइ जाव समोसढे, परिसा जाव पडिगया । तए णं मे कालोदाई अणगारे अण्णया कयाइ जेणेव समणे भगवं महावीरे. तेणेव उवागच्छइ, तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी प्रश्न-अत्थि णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवाग. मंजुत्ता कति ? __उत्तर-हंता, अस्थि । .६ प्रश्न-कहं णं भंते ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागसं त्ता कति ? ६ उत्तर-कालोदाई ! से जहाणामए केड़ पुरिमे मणुण्णं थालीपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाउलं विससंमिस्सं भोयणं भुजेज्जा, तरस णं भोयणस्स आवाए भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे दुरूवत्ताए, दुगंधत्ताए जहा महासवए, जाव भुजो भुजो परिणमइ; एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्ले, तस्म णं आवाए भदए भवइ, तओ पच्छा विपरिणममाणे विपरिणममाणे दुरूवताए जाव भुजो भुजो परिणमइ; एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं पावा कम्मा पावफलविवागमंजुत्ता कजंति । कठिन शब्दार्थ-पावफलविवागसं जुत्ता-पाप के फल भोग से युक्त,थालीपागसुद्धं For Personal & Private Use Only Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ७ उ १० पाप और पुण्य कर्म और फल स्वाली (हाण्डी) में पकाने से शुद्ध पका हुआ, विससंमिस्सं-- विष मिला हुआ, आवाए भद्दए- आपात ( तत्काल ) अच्छा, परिणममागे - ( शरीर में - ) रंजने पर । १२२३ भावार्थ - ५ किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी राजगृह नगर के गुणशील उद्यान से निकलकर बाहर जनपद (देश) में विचरने लगे । उस काल उस समय में राजगृह नगर के बाहर गुणशील नामक चंत्य था । किसी समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पुनः वहाँ पधारे यावत् धर्मोपदेश सुनकर परिषद् लौट गई । कालोदायी अनगार किसी समय श्रमण भगवान् महावीर के पास आये और भगवान् महावीर स्वामी को वन्दन नमस्कार करके इस प्रकार पूछा- 1 प्रश्न - हे भगवन् ! क्या जीवों को पापफल-विपाक सहित पापकर्म लगते हैं ? -हाँ, कालोदायिन् ! लगते हैं । उत्तर ६ प्रश्न -- हे भगवन् ! पापफल-विपाक सहित पापकर्म कैसे होते है ? ६ उत्तर- - हे कालोदायिन् ! जैसे कोई पुरुष, सुन्दर भाण्ड में पकाने से शुद्ध पका हुआ, अठार प्रकार के दाल-शाकादि व्यञ्जनों से युक्त विष मिश्रित • भोजन करता है, तो वह भोजन प्रारंभ में अच्छा लगता है, परन्तु उसके बाद उसका परिणाम खराब रूपपने, दुर्गन्धपने यावत् छठे शतक के महाश्रव नामक तीसरे उद्देश में कहे अनुसार अशुभ होता है । इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीव के लिये प्राणांतिवान यावत् मिथ्यादर्शनशल्य तक अठारह पाप-स्थान का सेवन तो अच्छा लगता है, किन्तु उनके द्वारा बंधे हुए पापकर्म जब उदय में आते हैं, तब उनका परिणाम अशुभ होता है । इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के लिये अशुभ फल- विपाक सहित पापकर्म होते हैं । ७ प्रश्न - अस्थि णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा कल्लाणफलविवागमंजुता कजंति ? For Personal & Private Use Only Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२४ भगवती मूत्र-श. ७ उ. १० पाप और पुण्य कर्म और फल ७ उत्तर-हंता, अत्थि। ८ प्रश्न-कहं णं भंते ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कजति ? ८ उत्तर-कालोदाई ! से जहाणामए केई पुरिसे मणुण्णं थालीपागसुधं अट्ठारसवंजणाउलं ओसहमिस्सं भोयणं भुंजेज्जा, तस्स णं भोयणस्स आवाए णो भद्दए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे परिणम माणे सुरूवत्ताए, सुवण्णत्ताए, जाव सुहत्ताए, णो दुवखत्ताए, भुजो भुजो परिणमइ, एवामेव कालोदाई ! जीवाणं पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे, जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे, तस्स णं आवाए णो भदए भवइ, तओ पच्छा परिणममाणे परिणममाणे मुरूवत्ताए जाव णो दुक्खत्ताए भुजो भुजो परिणमइ, एवं खलु कालोदाई ! जीवाणं कल्लाणा कम्मा जाव कति । कठिन शब्दार्थ-कल्लाणाकम्मा-शुभ कर्म । भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या जीवों के कल्याण फल-विपाक सहित कल्याण (शुभ) कर्म होते हैं ? ७ उत्तर-हाँ, कालोदायिन् ! होते हैं। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! जीवों के कल्याण फल-विपाक सहित कल्याणकर्म कैसे होते हैं ? ८ उत्तर-हे कालोदायिन् ! जैसे कोई एक पुरुष, सुन्दर भाण्ड में रांधने से शुद्ध पका हुआ और अठारह प्रकार के दाल-शाकादि व्यञ्जनों से युक्त औषध मिश्रित भोजन करता है, तो वह भोजन प्रारंभ में अच्छा नहीं लगता, परन्तु उसके For Personal & Private Use Only Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १० अग्नि के जलाने की क्रिया १२२५ बाद जब उसका परिणमन होता है, तब वह सुरूपपने, सुवर्णपने यावत् सुखपने बारंबार परिणत होता है, वह दुःखपने परिणत नहीं होता। इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के लिये प्राणातिपात-विरमण यावत् परिग्रह-विरमण, क्रोधविवेक (क्रोध का त्याग) यावत् मिथ्यादर्शनशल्य का त्याग, प्रारंभ में कठिन लगता है, किन्तु उसका परिणाम सुखरूप यावत् नो दुःखरूप होता है। इसी प्रकार हे कालोदायिन् ! जीवों के कल्याणफल-विपाक संयुक्त कल्याण-कर्म होते हैं। विवेचन-कालोदायी ने पाप पुण्य विषयक प्रश्न भगवान् से पूछे । भगवान् ने फरमाया कि जिस प्रकार सभी तरह से सुसंस्कृत विषमिश्रित भोजन खाते समय तो अच्छा लगता है, किन्तु जब उसका परिणमन होता है, तब बड़ा भयङ्कर होता है और यहाँ तक कि प्राणों से हाथ धोना पड़ता है। यही बात प्राणातिपातादि पापकर्मों के लिये है । पापकर्म करते समय तो जीव को अच्छे लगते हैं, किन्तु भोगते समय महा दुःखदायी होते हैं । औषधि युक्त भोजन करने में बड़ी कठिनाई होती है । उस समय उसका स्वाद अच्छा नहीं लगता, किन्तु उसका परिणमन बड़ा अच्छा, सुखकारी और हितकारी होता है । इसी प्रकार प्राणातिपातादि पापों से निवृत्ति बड़ी कठिन लगती है, किन्तु उनका परि. णाम बड़ा हितकारी और सुखकारी होता है। अग्नि के जलाने बझाने की क्रिया .९ प्रश्न-दो भंते ! पुरिसा सरिसया जाव सरिसभंडमत्तोवगरणा अण्णमण्णेणं सदधि अगणिकायं समारंभंति, तत्थ णं एगे पुरिसे अगणिकायं उन्नालेइ, एगे पुरिसे अगणिकायं णिवावेह, एएसि णं भंते ! दोण्हं पुरिसाणं कयरे पुरिसे महाकम्मतराए चेव, महाकिरियतराए चेव, महासवतराए चेव, महावेयणतराए चेव ? कयरे वा पुरिसे अप्पकम्मतराए चेव, जाव अप्पवेयणतराए चेव ? For Personal & Private Use Only Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२६ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १० अग्नि के जलाने बुझाने की क्रिया जे वा से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेह, जे वा से पुरिसे अगणिकायं णिवावेइ ? ९ उत्तर-कालोदाई ! तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं उज्जालेइ से णं पुरिसे महाकम्मतराए चेव, जाव महावेयणतराए चेव । तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं णिब्बावेइ से णं पुरिसे अप्पकम्मतसए चेव जाव अप्पवेयणतराए चेव । प्रश्न-से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-तत्थ णं जे से पुरिमे जाव अप्पवेयणतराए चेव ? उत्तर-कालोदाई ! तत्थ णं जे पुरिने अगणिकायं उज्जालेइ से णं पुरिले वहुतरायं पुढविकायं समारंभइ, बहुतर.यं आउक्कायं समारंभइ, अप्पतरायं तेउकायं समारंभइ, बहुतरायं वाउकायं समा. रंभइ, बहुतरायं वणस्सइकायं समारंभइ, बहुतरायं तसकायं समारंभइ । तत्थ णं जे से पुरिसे अगणिकायं णिवावेड, मे णं पुरिने अप्पतरायं पुढविश्कायं समारंभइ, अप्पतरायं आउक्कायं समारंभइ, बहुतरायं तेउक्कायं समारंभइ, अप्पतरायं वाउकायं ममारंभइ, अप्पतरायं वगस्सइकार्य समारंभइ, अप्पतरायं तमकायं समारंभइ, से तेणटेणं कालोदाई ! जाव अप्पवेयणतराए चेव । कठिन शब्दार्थ-उज्जालेइ-जलाता है, णिव्वावेइ-बुझाता है, बहुतरायं-बहुत । भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! समान उम्र के यावत् समान भाण्ड For Personal & Private Use Only Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो मूत्र-स. ७ उ. १० अग्नि के जलाने वुझाने की क्रिया १२२७ पात्रादि उपकरण वाले दो पुरुष, परस्पर एक दूसरे के साथ, अग्निकाय का समारम्भ करें। उनमें से एक पुरुष अग्निकाय को जलावे और एक पुरुष अग्निकाय को बुझावे, तो हे भगवन् ! उन दोनों पुरुषों में से कौनसा पुरुष महाकर्म वाला, महाक्रिया वाला, महाआश्रव वाला और महावेदना वाला होता है और कौनसा पुरुष अल्प कर्मवाला, अल्प क्रियावाला, अल्प आश्रव वाला और अल्प वेदना वाला होता है ? अर्थात् जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह महाकर्मवाला आदि होता है, या जो पुरुष अग्नि काय को बुझाता है, वह महाकर्म वाला आदि होता है ? ९ उत्तर-हे कालोदायी ! उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पुरुष महाकर्म वाला यावत् महावेदना वाला होता है और जो पुरुष, अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्प कर्म वाला यावत् अल्प वेदना वाला होता है। . प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष, अग्निकाय को जलाता है, वह महाकर्म वाला आदि होता है और जो अग्निकाय को वुझाता है, वह अल्प कर्म वाला आदि होता है ? ___ उत्तर-हे कालोदायिन् ! उन दोनों पुरुषों में से जो पुरुष, अग्निकाय को जलाता है, वह पृथ्वीकाय का बहुत समारम्भ करता है, अप्काय का बहुत समारम्भ करता है, अग्निकाय का अल्प समारंभ करता है, वायुकाय का बहुत समारम्भ करता है, वनस्पतिकाय का बहुत समारम्भ करता है और सकाय का बहुत समारम्भ करता है । और जो पुरुष, अग्निकाय को बुझाता है, वह पृथ्वीकाय का अल्प समारम्भ करता है, अप्काय का अल्प समारम्भ करता है, वायुकाय का अल्प समारम्भ करता है, वनस्पतिकाय का अल्प समारम्भ करता है, एवं प्रसकाय का अल्प समारंभ करता है। किन्तु अग्निकाय का बहुत समारम्भ करता है। इसलिये हे कालीदायी ! जो पुरुष अग्निकाय को जलाता है, वह पुरुष महाकर्म वाला आदि है और जो पुरुष अग्निकाय को बुझाता है, वह अल्पकर्म वाला आदि है। For Personal & Private Use Only Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२८ भगवती सूत्र-श. 3 उ. १० अचित्त पुद्गलों का प्रकाश विवेचन-दो पुरुष अग्निकाय का आरम्भ करते हैं, उनमें से एक पुरुष जलाने का आरम्भ करता है और दूसरा 'बुझाने' का आरम्भ करता है। अग्नि जलाने से बहुत से अग्निकायिक जीवों की उत्पत्ति होती है, परन्तु उनमें से कुछ जीवों का विनाश भी होता है, अग्नि को जलाने वाला पुरुष, अग्नि काय के अतिरिक्त अन्य सभी कार्यो का महासभ करता है । इसलिए जलाने वाला पुरुष, ज्ञानावरणीय आदि महाकर्म उपार्जन करता है दाहरूप महाक्रिया करता है, कर्मबन्ध का हेतुभूत महा आश्रय करता है और जीवों को महावेदना उत्पन्न करता है । बुझाने वाला पुरुष, अग्निकाय के अतिरिक्त अन्य सब कार्यो का अल्प आरम्भ करता है । इसलिये वह जलाने वाले पुरुष की अपेक्षा अल्प कर्म वाला, अल्प क्रिया वाला, अल्प आश्रव वाला और अल्प वेदना वाला होता है । अचित्त पुद्गलों का प्रकाश १० प्रश्न-अस्थि णं भंते ! अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, उजाति, तति, पभासेंति ? १० उत्तर-हंता, अस्थि । ११ प्रश्न-कयरे णं भंते ! अचित्ता वि पोग्गला ओभासंति, जाव पभाति ? ११ उतर-कालोदाई ! कुद्वस्स अणगारस्स तेयलेस्सा णिमट्ठा ममाणी दूरं गया, दूरं णिपतह, देसं गया देसं णिपतइ, जहिं जहिं च णं मा णिातह, तहिं तहिं णं ते अचिता वि पोग्गला ओभासंति, जाव पभामेंति, एएणं कालोदाई ! ते अचित्ता वि पोग्गला ओभामंति जाव पभासंति । तए णं से कालोदाई अण For Personal & Private Use Only Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १० अचित्त पुद्गलों का प्रकाश १२२९ गारे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता वहूहिं चउत्थ-छ?-ऽट्टम-जाव अप्पाणं भावभाणे जहा पढमसए कालासवेसियपुत्ते जाव सव्वदुक्खप्पहीणे । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ सत्तमसयस्स दसमो उद्देसओ समत्तो॥ ॥ सत्तमं सयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ--ओभासंति-प्रकाशित हो है, उज्जोति--वस्तु को उद्योतित(प्रकाशित) करते हैं, तवेति-पदार्थ को तप्त करते हैं, पभासंति--वस्तु को जला देने वाले होने से प्रभाव को प्राप्त करते हैं. निसट्टा-निकलकर, णिपतइ-गिरती हैं। . भावार्थ--१० प्रश्न-हे भगवन् ! क्या अचित्त पुद्गल भी अवभासित होते हैं, उद्योत करते हैं, तपते हैं और प्रकाश करते हैं ? १० उत्तर-हां, कालोदायी ! करते हैं। ... ११ प्रश्न-हे भगवन् ! कौन-से अचित्त पुद्गल अवभास करते हैं यावत् प्रकाश करते हैं? ११ उत्तर-हे कालोदायिन् ! कुपित हुए साधु की तेजोलेश्या निकलकर दूर जाकर गिरती है, जाने योग्य देश (स्थान) में जाकर उस देश में गिरती है । जहाँ जहाँ वह गिरती है, वहां वहां अचित्त पुद्गल भी अवभास करते हैं यावत् प्रकाश करते हैं । इस कारण है कालोदायिन् ! अचित्त पुद्गल भी अवभास करते है यावत् प्रकाश करते हैं। इसके बाद कालोदायी अनगार श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार करते हैं और बहुत चतुर्थ (उपवास), षष्ठ (दो उपवास), अष्टम (तीन उपवास) इत्यादि तप द्वारा अपनी आत्मा For Personal & Private Use Only Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३० __ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १० अचित्त पुद्गलों का प्रकाश को भावित करते हुए विचरने लगे। यावत् प्रथम शतक के नौवें उद्देशक में वर्णित कालास्यवेसी पुत्र की तरह सिद्ध, बुद्ध, मुक्त यावत् समस्त दुःखों से मुक्त हुए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। विवेचन-कुपित हुए अनगार से जो तेजोलेश्या निकलती है, उसके पुद्गल अचित्त होते है । सचित्त तेजस्काय के पुद्गल तो अवभासित यावत् प्रकाशित होते ही हैं, परन्तु क्या अचित्त पुद्गल मी अवभासित यावत् प्रकाशित होते हैं ? इस शंका के समाधान के लिये उपरोक्त प्रश्न किये गये । जिनका उत्तर भगवान् ने 'हाँ' में दिया है । कुपित अनगार की तेजोलेश्या दूर जाकर गिरती है अथवा गन्तव्य देश के भाग में जाकर गिरती है । तेजोलेश्या के पुद्गल अचित्त होते हैं । ॥ इति सातवें शतक का दसवाँ उद्देशक संपूर्ण ॥ ॥ इति सातवाँ शतक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८ १-१ पोग्गल २ आसीविस ३ रुक्ख ४ किरिय ५ आजीव ६ फासुय ७ मदत्ते । ८ पडिणीय ९ बंध १० आराहणा य दम अट्टमंमि सए॥ भावार्थ-१ पुद्गल २ आशीविष ३ वृक्ष ४ क्रिया ५ आजीविक ६ प्रासुक ७ अदत्त ८ प्रत्यनीक ९ बन्ध और १० आराधना । आठवें शतक के ये दस उद्देशक है। विवेचन--(१) पुद्गल के परिणाम के विषय में प्रथम उद्देशक है । (२)आशीविष आदि के सम्बन्ध में दूसरा उद्देशक है । (३) वृक्षादि के सम्बन्ध में तीसरा उद्देशक है। (४) कायिकी आदि क्रियाओं के सम्बन्ध में चौथा उद्देशक है । (५) आजीविक के विषय में पांचवा उद्देशक है। (६) प्रासुक दान आदि के विषय में छठा उद्देशक है । (७) अदत्तादान आदि के विषय में सातवाँ उद्देशक है। (८) प्रत्यनीक-गुर्वादि के द्वेषी विषयक आठवां उद्देशक है। (२) बन्ध-प्रयोग वन्ध आदि के विषय में नौवां उद्देशक है। (१०) आराधना आदि के विषय में दसवां उद्देशक है । यह संग्रह-गाथा का अर्थ है । For Personal & Private Use Only Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप उद्देशक १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप २ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-कइविहा णं भंते ! पोग्गला पण्णता ? २ उत्तर-गोयमा ! तिविहा पोग्गला पण्णत्ता, तं जहा-पओगपरिणया, मीससापरिणया, वीससापरिणया य । ... कठिन शब्दार्थ--पओगपरिणया--प्रयोग परिणत, मीससा परिणया--मिश्र परिणत, बीससा--विस्रसा (स्वाभाविक)। भावार्थ-२ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् गौतम, स्वामी ने इस प्रकार पूछा-'हे भगवन् ! पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ?' ... २ उत्तर-हे. गौतम ! पुद्गल तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा-प्रयोगपरिणत, मिश्र-परिणत, और विस्रसा-परिणतं । विवेचन--जीव के व्यापार (क्रिया) से शरीर आदि रूप में परिणत पुद्गल'प्रयोगपरिणत' कहलाते हैं। प्रयोग और विस्रसा (स्वभाव) इन दोनों द्वारा परिणत पद्गल-'मिश्रपरिणत' कहलाते हैं । विसमा अर्थात् स्वभाव से परिणत पुद्गल-'विस्रसा परिणत' कहलाते हैं । प्रयोगपरिणाम को छोड़े विना स्वभाव से परिणामान्तर को प्राप्त हुए, मृत-कलेवरादि पुद्गल ‘मिश्र-परिणत' कहलाते हैं । अथवा विस्रसा (स्वभाव) से परिणत औदारिक आदि वर्गणाएँ, जब जीव के व्यापार प्रयोग (क्रिया) से औदारिकादि शरीर रूप में परिणत होती हैं, तब वे 'मिश्रपरिणत' कहलाती हैं । यद्यपि औदारिकादि गरीर रूप से परिणत औदारिकादि वर्गणाएँ 'प्रयोगपरिणत' कहलाती हैं क्योंकि उस समय उन में वित्र सा परिणाम की विवक्षा नहीं की गई है, परन्तु जब प्रयोग और विनसा इन दोनों परिणामों की विवक्षा की जाती है, तब वे 'मिश्रपरिणत' कहलाती हैं। For Personal & Private Use Only Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप १२६३ प्रथम दण्डक ३ प्रश्न-पओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला काविहा पण्णता ?. ३ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगिदियपओगपरिणया, वेइंदियपओगपरिणया, जाव पंचिंदियपओगपरिणया। ४ प्रश्न-एगिदियपओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णता ? ___४ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविवकाइअएगिदियपओगपरिणया, जाव वणस्सइकाइअएगिदिअपओगपरिगया। ५ प्रश्न-पुढविक्काइअएगिदियपओगपरिणयाणं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णता ? ५ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुमपुढविक्काइअ-एगिदियपओग-परिणया, वादरपुढविक्काइअएगिदियपओगपरिणया य । आउक्काइअएगिदिअपयोगपरिणया एवं चेव, एवं दुयओ भेदो जाव वणस्सइकाइआ य । ६ प्रश्न-इंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा। ६ उत्तर-गोयमा ! अणेगविहा पण्णत्ता, एवं तेइंदियपओगपरिणया, चरिंदियपओगपरिणया वि । For Personal & Private Use Only Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप ७ प्रश्न-पंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा। ७ उत्तर-गोयमा ! चउन्विहा पण्णत्ता । तं जहा-णेरइयपंचिं. दियपयोगपरिणया, तिरिक्खजोणियपंचिंदियपयोगपरिणया. एवं मणुस्सपंचिंदियपयोगपरिणया, देवपंचिंदियपयोगपरिणया य। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ___३ उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार के कहे गये है । यथा-एकेन्द्रिय प्रयोग परिगत, बेइन्द्रिय प्रयोग परिणत यावत् पञ्चेन्द्रिय प्रयोग-परिणत । - ४ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ___ ४ उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार के कहे गये है । यथा-पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल। ५ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ___५ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल और बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोगपरिणत पुद्गल । इसी प्रकार अप्कायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल दो प्रकार के जानने चाहिये । यावत् इसी तरह वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पद्गल दो प्रकार के जानने चाहिये। ६ प्रश्न-हे भगवन् ! बेइन्द्रिय प्रयोग-परिणत पद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ६ उत्तर-हे गौतम ! वे अनेक प्रकार के कहे गये हैं। इसी प्रकार तेह For Personal & Private Use Only Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र ८ . १लों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप न्द्रिय, चउरिन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल भी जान लेने चाहिये । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! पञ्चेन्द्रियं प्रयोग - परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ७ उत्तर - हे गौतम! वे चार प्रकार के कहे गये । यथा - नारक पञ्चेन्द्रिय प्रयोग- परिणत पुद्गल, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय प्रयोग- परिणत पुद्गल, मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल और देव पंचेन्द्रिय प्रयोग- परिणत पुद्गल । १९३५ ८ प्रश्न - णेरड्यापचंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा | ८ उत्तर - गोयमा ! सत्तविद्या पण्णत्ता, तं जहा - रयणप्पभापुढविणेरइयपंचिंदियपयोगपरिणया वि, जाव अहेसत्तमपुढविणेरइअयोगपरिणया वि । भावार्थ - ८ प्रश्न हे भगवन् ! नैरयिक पंचेन्द्रिय प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ८ उत्तर - हे गौतम! नैरयिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल सात प्रकार के कहे गये हैं । यथा - रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल यावत् अधःसप्तम पृथ्वी नैरयिक पंचेन्द्रिय प्रयोग- परिणत पुद्गल । ९ प्रश्न - तिरिक्खजोणिय पंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । ९ उत्तर - गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा- जलयरपंचिंदिय तिरिक्ख जोणियपयोगपरिणया, थलयरपंचिंदिय० खहयरपंचिंदिय० । १० प्रश्न - जलयर तिरिक्खजोणियपयोगपरिणयाणं पुच्छा । १० उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संमुच्छिमजल For Personal & Private Use Only Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३६ भगवती सूत्र - श. = उ. १ पुद्गलों का प्रयोग- परिणतादि स्वरूप यर०, गव्भवक्कंतियजलयरः । ११ प्रश्न – थलयतिरिक्ख० पुच्छा । ११ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - चउप्पयथलयर०, परिसप्पथलयर० । १२ प्रश्न - चउप्पयथलयर० पुच्छा । १२ उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संमुच्छिमच उप्पयथलयर०, गव्भवक्कंतियच उप्पयथलयर ० । एवं एएणं अभिलावेर्ण परिसप्पा, दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - उरपरिसप्पा य भुयपरिसप्पा य । उरपरिसप्पा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संमुच्छिमा य गभवक्कंतिया य। एवं भुयपरिसप्पा वि, एवं खहयरा वि । कठिन शब्दार्थ- परिसप्पा - परिसर्प ( रेंग कर चलने वाले प्राणी), सम्मुच्छिमा सम्पूच्छिम माता-पिता के संयोग के बिना उत्पन्न होने वाले तिर्यञ्च और मनुष्य, गव्भवक्कंतिया –गर्भव्युत्क्रान्त - गर्भ से उत्पन्न होने वाले, थलयर - पृथ्वी पर चलने वाले, च उप्पय - -चार पाँवों वाले, अभिलावेणं - अभिलाप - (पाठ), उरपरिसप्प - पेट से रेंगकर चलने वाले, भुयपरिसप्प - भुजा से से चलने वाले, खहयरा - खेचर ( उड़ने वाले पक्षी ) । भावार्थ - ९ प्रश्न - हे भगवन् ! तिथंच-योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग- परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ९ उत्तर - हे गौतम ! तिर्यंच-योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोगपरिणत पुद्गल तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-जलचर - तिर्यंच-योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग- परिणतपुद्गल, स्थलचर तियंचयोनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग- परिणत पुद्गल और खेचरतिर्यंच-योनिक पंचेन्द्रिय-प्रयोग- परिणत पुद्गल । १० प्रश्न - हे भगवन् ! जलचर - तिथंच योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग - परिणत For Personal & Private Use Only Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-म. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप १२३७ पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १० उत्तर-हे गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-सम्मूच्छिमजलचर-तियंचयोनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल और गर्भज-जलचर-तिर्यच योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल । ११ प्रश्न-हे भगवन् ! स्थलचर-तिर्यंच-योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा-चतुष्पद-स्थलचर-तियं च योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिण पुद्गलत और परिसर्प-स्थलचर-तिर्यच योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल । १२ प्रश्न-हे भगवन् ! चतुष्पद-स्थलचर तियँच-योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १२ उत्तर-हे गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-सम्मच्छिमचतुष्पद स्थलचर तिर्यंच योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल और गर्भजचतुष्पद-स्थलचर तियंच-योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुदगल । इसी अभिलाप (पाठ) द्वारा परिसर्प दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा-उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प। उरपरिसर्प दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-सम्मच्छिम और गर्भज । इसी प्रकार भुजपरिसर्प और खेचर के भी दो दो भेद कहे गये हैं। ... १३ प्रश्न-मणुस्सपंचिंदियपओग० पुच्छा। १३ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-समुच्छिममणुस्स०, गम्भवक्कंतिय मणुस्स० । भावार्थ-१३ प्रश्न-हे भगवन् ! मनुष्य-पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? - १३ उत्तर-हे गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा-सम्मच्छिम For Personal & Private Use Only Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल और गर्भज-मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल । १४ प्रश्न-देवपंचिंदियपओग० पुच्छा । १४ उत्तर-गोयमा ! चरविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवासि- . देवपंचिंदियपओग०, एवं जाव वेमाणिया। .. . १५ प्रश्न-भवणवासिदेवपंचिंदिय० पुच्छा। १५ उत्तर-गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तं जहा-असुरकुमार०, जाव थणियकुमार० । एवं एएणं अभिलावेणं अट्ठविहा वाणमंतरा, पिसाया जाव गंधव्वा । जोइसिया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहाचंदविमाणजोइसिया, जाव ताराविमाणजोइसिया देवा । वेमाणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-कप्पोरग० कप्पाईयगवेमाणिया । कप्पोवगा दुवालसविहा पण्णत्ता, तं जहा-सोहम्मकप्पोवग० जाव अच्चुयकप्पोवगवेमाणिया । कप्पाईयग० दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-गेवेजगकप्पाईयग० अणुत्तरोववाईयकप्पायग० । गेवेजकप्पाईयग० णवविहा पण्णत्ता, तं जहा-हेट्ठिमहेट्ठिमगेवेजगकप्पाईयग०, जाव उपरिमउवरिमगेवेजगकप्पाईयग। १६ प्रश्न-अणुत्तरोक्वाइयकप्पाईयगवेमाणियदेवपंचिंदियपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ? १६ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-विजयअणु For Personal & Private Use Only Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ८ उ. ५ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप . १२३९ त्तरोववाइय० जाव परिणया, जाव सवसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदिय जाव परिणया । (द. १) कठिन शब्दार्थ-गेवेज्ज-ग्रेवेयक, कप्पोवगा-कल्पोत्पन्न (जहां इन्द्रादि अधिकारी और छोटे बड़े, ऊँच, नीच आदि का व्यवहार है, जहां अधिकारी व अधीनस्थ हैं, और जिनके पारस्परिक व्यवहार नियमानुसार होने हैं) कप्पातीत-कल्पोत्पन्न देवों जैसे व्यवहार से सर्वथा मुक्त, सभी देव समान रूप से इन्द्र की तरह हैं, हेटिमहेट्ठिम-नीचे की त्रिक में नीचे, उरिमउवरिम-ऊपर की त्रिक में ऊपर, अणुत्तरोववाइय-सर्वोत्तम (जिससे उत्तम कोई स्थान नहीं है-ऐसे) देवलोक में उत्पन्न । ___ भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! देव-पंचेन्द्रिय-प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! वे चार प्रकार के कहे गये हैं। यथा-भवनवासी देव पंचेंद्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल यावत् वैमानिक देव-पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! भवनवासी देव-पंचेंद्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! वे दस प्रकार के कहे गये हैं। यथा-असुरकुमारदेव प्रयोग परिणत पुद्गल यावत् स्तनितकुमार प्रयोग परिणत पुद्गल। इसी प्रकार इसी अभिलाप द्वारा आठ प्रकार के वाणव्यन्तर कहने चाहिये । यथा-पिशाच यावत् गन्धर्व । इसी प्रकार इसी अमिलाप द्वारा ज्योतिषी देवों के पाँच भेद कहने चाहिये। यथा-चन्द्र विमान ज्योतिष्क देव यावत् तारा-विमान ज्योतिष्क देव । वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गये हैं। यया-कल्पोपपन्न वैमानिक देव और कल्पातीत वैमानिक देव । कल्पोपपन्न वैमानिक देवों के बारह भेद कहे गये हैं । यथासौधर्म-कल्पोपपन्नक यावत अच्यत-कल्पोपपन्नक । कल्पातीत वैमानिक देव दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा-प्रवेयक-कल्पातीत वैमानिक और अनुत्तरोपपातिक कल्पा. तीत वैमानिक देव । ग्रेवेयक कल्पातीत वैमानिक देवों के नौ भेद कहे गये हैं। For Personal & Private Use Only Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४० भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप यथा-अधस्तन-अधस्तन (नीचे की त्रिक का नीचे का विमान प्रस्तट) ग्रेवेयक कल्पातीत वैमानिक देव यावत् उपरितन-उपरितन (ऊपर की त्रिक का ऊपर का विमान प्रस्तट) ग्रेवेयक-कल्पातीत वैमानिक देव । १६ प्रश्न-हे भगवन् ! अनत्तरौपपातिक-कल्पातीत वैमानिकदेव पंचेंद्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! वे पांच प्रकार के कहे गये हैं । यथा-विजय अनुत्तरौपपातिक-वैमानिक देव पचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल यावत् सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक वैमानिक देव पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल । (दण्डक १) विवेचन-अब नवदण्डक द्वारा प्रयोग-परिणत पुद्गलों का निरूपण किया जाता है। यहाँ विवक्षा विशेष से नव दण्डक (विभाग) किये गये हैं । यथा-सूक्ष्म एकेन्द्रिय से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक जीवों की विशेषता से प्रयोग-परिणत पुद्गलों का प्रथम दण्डक है। २ इस तरह सूक्ष्म पृथ्वी-कायिक जीवों से लेकर सर्वार्थसिद्ध देवों तक पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दूसरा दण्डक है। ३ औदारिक आदि पांच शरीरों की अपेक्षा से तीसरा दण्डक कहा गया है । ४ पांच इन्द्रियों की अपेक्षा से चौथा दण्डक कहा गया है । ५ औदारिक आदि पांच शरीर और स्पर्शन आदि पांच इन्द्रियाँ, इन दोनों की सम्मिलित विवक्षा से पाँचवाँ दण्डक कहा गया है । ६ वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से छठा दण्ड क कहा गया है । ७ औदारिक आदि गरीर और वर्गादि की अपेक्षा से सांतवाँ दण्डक कहा गया है। ८ इन्द्रिय और वर्णादि की अपेक्षा से आठवाँ दण्डक कहा गया है। ९ शरीर, इन्द्रिय और वर्णादि की अपेक्षा से नौवां दण्डक कहा गया है । इन नौ दण्डकों में से यहाँ प्रथम दण्डक का वर्णन किया गया है। सर्व प्रथम एकेन्द्रिय जीवों का कथन किया गया है। उनमें पृथ्वीकाय, अकाय आदि पांचों स्थावरों के सूक्ष्म और बादर ये दो दो भेद किये गये हैं। वे इन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं । यथा-लट, गिण्डोला, शंख, शीप, कीड़ा, कृमि आदि । इसी प्रकार तेइन्द्रिय जीवों के भी अनेक भेद हैं । यथा-कुन्थु, पिपीलिका (चींटी) जू, लीख, चांचड़ (गाय, भैस आदि के चिपटने वाले जीव चिचड़) माकड़ (खटमल) आदि । चतुरिन्द्रिय जीव भी अनेक प्रकार के हैं । यथा-मक्खी, मच्छर आदि । पंचेन्द्रिय जीवों के ने रयिक, तियंच, मनुष्य और देव, ये मुख्य चार भेद हैं। विवक्षा विशेष से इनके अवान्तर अनेक भेद हैं । सामान्यरूप से उनका कथन ऊपर किया गया है। For Personal & Private Use Only Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-स. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप १०४१ . दूसरा दण्डक १७ प्रश्न-मुहमपुढविकाइअएगिदिअपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ? ___१७ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-(केया अपज्जत्तगं पढमं भगति पच्छा पजत्तगं*) पजतगसुहुमपुढविकाइअ० जाव परिणया य अपजत्तगसुहमपुढविकाइअ० जाव परिणया य । वादरपुढविकाइअएगिंदिय० एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइया । एक्केका दुविहा सुहुमा य बायरा य पजत्तगा अपजत्तगा य भाणियव्वा । १८ प्रश्न-वेइंदियपओगपरिणयाणं पुच्छा । १८ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तगवेइं. दियपओगपरिणया य अपजत्तग० जाव परिणया य । एवं तेइंदिया वि एवं चरिंदिया वि। ... १९ प्रश्न-रयणप्पभापुढविणेरड्अ० पुच्छा। १९ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तगरयणप्पभा० जाव परिणया य अपजत्तग० जाव परिणया य, एवं जाव अहेसत्तमा। - २० प्रश्न-समुच्छिमजलयरतिरिक्ख० पुच्छा। " यह पाठ वाचनबर से सम्बन्धित है-डोशी। For Personal & Private Use Only Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४२ भगवती सूत्र - ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग परिणतादि स्वरूप २० उत्तर - गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पजत्तग० अपजत्तगः । एवं गव्भवक्कंतिया वि । संमुच्छिम चउप्पयथलयरा एवं चैव एवं गव्भवक्कंतिया वि । एवं जाव संमुच्छिमखहयर Torariतिया य, एक्क्के पजत्तगा अपज्जत्तगा य भाणियव्वा । २१ प्रश्न - संमुच्छिममणुस्सपंचिंदिय० पुच्छा । २१ उत्तर - गोयमा ! एगविहा पण्णत्ता, अपजत्तगा चैव । २२ प्रश्न - गव्भवक्कंतियमणुस्सपंचिंदिय० पुच्छा । २२ उत्तर - गोयमा ! दुविद्या पण्णत्ता, तं जहा -पजत्तगगभवक्कंतिया वि. अपजत्तगगव्भवक्कतिया वि । , कठिन शब्दार्थ -- अपज्जत्तगं-- अपर्याप्तक । भावार्थ - - १७ प्रश्न - हे भगवन् ! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १७ उत्तर - हे गौतम ! दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-पर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोगपरिणत पुद्गल और अपर्याप्त सूक्ष्मपृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोगपरिणत पुद्गल । (कोई कोई आचार्य अपर्याप्त को पहले और पर्याप्त को पीछे कहते हैं ।) इस प्रकार बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय के मी दो भेद कहना चाहिये । यावत् वनस्पतिकायिक तक सबके सूक्ष्म और बादर, इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद कहने चाहिये । १८ प्रश्न - हे भगवन् ! बेइन्द्रिय प्रयोग- परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १८ उत्तर - हे गौतम! दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा- पर्याप्त बेइन्द्रियप्रयोग- परिणत पुद्गल और अपर्याप्त बेइन्द्रिय प्रयोग- परिणत पुद्गल । इसी For Personal & Private Use Only Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र - श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि म्वरूप १२४३ प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गलों के विषय में भी जानना चाहिये। - १९ प्रश्न--हे भगवन् ! रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १९ उत्तर-हे गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा-पर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक प्रयोग-परिणत और अपर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी नरयिक प्रयोग-परिणत । इसी प्रकार यावत् अधः सप्तम पृथ्वी नरयिक प्रयोग-परिणत तक कहना चाहिये। २० प्रश्न-हे भगवन् ! समूच्छिम जलचर तिर्यंच-योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? २० उत्तर-हे गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं । यथा--पर्याप्त सम्मूच्छिम जलचर तिर्य चं-योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्त सम्मच्छिम जलचर तिर्यंच-योनिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल । इसी प्रकार गर्भज जलचरों के विषय में भी जानना चाहिये । इसी प्रकार सम्मच्छिम और गर्भज चतुष्पद स्थलचर जीवों के विषय में यावत् खेचर जीवों तक के विषय में भी जानना चाहिये । इन प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो दो भेद कहने चाहिये। . २१ प्रश्न-हे भगवन् ! सम्मूच्छिम मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ... २१ उत्तर-हे गौतम ! वे एक प्रकार के कहे गये हैं। यथा--अपर्याप्त. सम्मच्छिम मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल । २२ प्रश्न- हे भगवन् ! गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? . २२ उत्तर-हे गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा--पर्याप्त गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्त गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल । For Personal & Private Use Only Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४४ भगवता सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप २३ प्रश्न-असुरकुमारभवणवासिदेवाणं पुच्छा । २३ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तगअसुरकुमार० अपजत्तगअसुरकुमार०, एवं जाव थणियकुमारा पन्जत्तगा अपजत्तगा य । एवं एएणं अभिलावेणं दुयएणं भेएणं पिसाया, जाव गंधव्वा, चंदा, जाव ताराविमाणा, सोहम्मकप्पोवगा, जाव अच्चुओ; हेट्ठिमहेट्ठिमगेविजकप्पातीत० जाव उवरिमउवरिमगेविज; विजयअणुत्तरोववाइअ०, जाव अपराजिअ०। ... २४ प्रश्न-सम्वट्ठसिद्धकप्पाईय० पुच्छा। २४ उत्तर-गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तासवट्टसिद्धअणुत्तरोववाइअ०, अपजत्तासम्वट्ठ० जाव परिणया वि (दं.२) कठिन शब्दार्थ-एएणं-इस । भावार्थ--२३ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार भवनवासी देव प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? २३ उत्तर-हे गौतम! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-पर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव प्रयोग-परिणत पुद्गल। इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमारों तक पर्याप्त और अपर्याप्त ऐसे दो दो भेद कहने चाहिये । इसी प्रकार पिशाच से लेकर • गन्धर्व तक आठ प्रकार के वाणव्यन्तर देवों के तथा चन्द्र से लेकर तारा विमान पर्यन्त पांच प्रकार के ज्योतिषी देवों के एवं सौधर्म कल्पोपपन्नक यावत् अच्युत कल्पोपत्रक तक और अधस्तन-अधस्तन ग्रंवेयक कल्पातीत से लेकर उपरितनउपरितन प्रवेयक कल्पातीत देव प्रयोग-परिणत पुद्गल के एवं विजय अनुत्तरीपपातिक कल्पातीत यावत् अपराजित अनुत्तरोपपातिक देवों के प्रत्येक के पर्याप्त For Personal & Private Use Only Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ८ . १ पृद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप ८५ और अपर्याप्त ये दो दो भेद कहने चाहिये। २४ प्रश्न-हे भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीत देव प्रयोगपरिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ... २४ उत्तर-हे गौतम ! वे दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-पर्याप्त सर्वार्थ. सिद्ध-अनुत्तरौपपातिक-कल्पातीत देव प्रयोग-परिणत पुद्गल और अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध प्रयोग-परिणत पुद्गल । ( दण्डक २ ) विवेचन-प्रथम दण्डक में पृथ्वीकाय मे लेकर सर्वार्थसिद्ध तक जीवों का कथन किया गया है। उन्हीं जीवों में एकेन्द्रिय जीवों में के प्रत्येक के सूक्ष्म और बादर के भेद से दो दो भंट कहे गये हैं और फिर सूक्ष्म और वादर, इनके पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद मे दो दो भद कहे गये हैं । इसके आगे के नव जीवों के प्रत्येक के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो दो भेद कहे गये हैं । सम्मूच्छिम मनुष्य का केवल एक अपर्याप्त भेद ही है । तीसरा दण्डक - जे अपजत्तामुहमपुढविक्काइयएगिदियपयोगपरिणया ते ओरालिय-तेयाकम्मगसरीरप्पयोगपरिणया । जे पजत्तमुहम० जाव परिणया ते ओरालिय-तेयाकम्मगसरीरप्पयोगपरिणया, एवं जाव चरिदिया पन्जता; णवरं जे पजतावायरवाउकाइअएगिदियप्पयोगपरिणया ते ओरालिय-वेरब्बिय-तेया-कम्मसरीर० जाव परिणया; मेमं तं चेव । जे अपजत्तरयणप्पभापुढविणेरड्यपंचिंदियपयोगपरिणया ते वेउब्वियतेया-कम्ममरीरप्पयोगपरिणया; एवं पजत्तगा वि, एवं जाव अहेमत्तमा । जे अपजत्तासमुच्छिमजलयर० जाव परिणया ते ओरालियन्तेयाकम्मासरीर० जाव परिणया, एवं पन्ज For Personal & Private Use Only Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - दा. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग- परिणतादि स्वरूप तगा वि । गभवक्कं तियअपज्जत्तगा एवं चैव, पज्जत्तगा णं एवं चेव । वरं मरीरगाणि चत्तारि जहा वायरवा उक्काइआणं पज्जत्तगाणं; एवं जहा जलयरेसु चत्तारि आलावगा भणिया एवं चउप्पयउरपरिसप्प भुयपरिसप्प - खहयरेसु वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा । जे संमुच्छिममणुस्सपंचिंदियपओगपरिणया ते ओरालिय-तेयाकम्मसरीर० जाव परिणया । एवं गव्भवक्कंतिया वि; अपजत्तग पजत्तगा वि एवं चैव, णवरं सरीरगाणि पंच भाणियव्वाणि । जे अपजत्ता असुरकुमारभवणवासि० जहा णेरइया तव एवं पज्जत्तगा वि; एवं दुयएणं भेrणं जाव थणियकुमारा । एवं पिसाया, जाव गंधव्वा, चंदा, जाव ताराविमाणा, सोहम्मकप्पो०, जाव अच्चुओ: हेमिट्रिम वेज्जग०, जाव उवरिमउवरिमगेवेज्जग०, विजयअणुत्तरोववाइए, जाव सव्वट्टसिद्ध अणुत्तरोववाइए; एक्वेक्के णं दुयओ भेओ भाणियव्वो, जाव जे य पज्जत्तासव्वट्टसिद्ध अणुत्तरोववाड्अ०, जाव परिणया ते वेउब्विय तेया- कम्मासरीरपओगपरिणया । ( दं. ३ ) १२४६ कठिन शब्दार्थ - ओरालिय-औदारिक शरीर, तेथा- तेजस् शरीर, कम्मग - कार्मण शरीर, वेडव्यि- वैक्रिय शरीर । भावार्थ- जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय प्रयोग- परिणत हैं, वे औदारिक, तेज और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीका एकेन्द्रिय प्रयोग- परिणत हैं, वे औदारिक, तेजस् और कार्मण शरीर प्रयोग - परिणत हैं । इसी प्रकार यावत् चतुरिन्द्रिय पर्याप्त तक जानना For Personal & Private Use Only Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ . १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप १२४७ चाहिये । परन्तु विशेषता यह है कि जो पुद्गल पर्याप्त बादर वायुकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, वैक्रिय, तेजस और कार्मण शरीर प्रयोग परिणत हैं। शेष सब पूर्वोक्त कथनानुसार जानना चाहिये। जो पुद्गल अपर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी नरयिक पंचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे वैक्रिय तेजस और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त नरयिकों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम पृथ्वी नरयिक तक जानना चाहिये। जो पुद्गल अपर्याप्त सम्मूच्छिम जलचर प्रयोग परिणत हैं, वे औदारिक, तेजस और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त सम्मच्छिम जलचर के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये । गर्भज अपर्याप्त जलचर में इसी तरह जानना चाहिये । गर्भज पर्याप्त जलचर के विषय में भी इसी तरह जानना चाहिये, परंतु विशेषता यह है कि उनमें पर्याप्त बादर वाय की तरह चार शरीर होते हैं। जिस प्रकार जलचरों में चार आलापक कहे गये है, उसी प्रकार चतुष्पद, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और खेचरों में भी चार चार आलापक कहना चाहिये । जो पुद्गल सम्मच्छिम मनुष्य पचेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे औदारिक, तंजस् और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार गर्भज के अपर्याप्त में कहना चाहिये। पर्याप्त के विषय में भी इसी तरह कहना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि कि इनमें पांच शरीर होते हैं। जिस प्रकार नरयिकों के विषय में कहा, उसी तरह असुरकुमारों से लेकर स्तनितकुमारों तक पर्याप्त और अपर्याप्त में इसी तरह कहना चाहिये । इसी तरह पिशाच से लेकर गन्धर्व पर्यन्त वाणव्यन्तर, चन्द्र से लेकर तारा पर्यन्त ज्योतिषी देव और सौधर्मकल्प से लेकर यावत सर्वार्थसिद्ध कल्पातीत वैमानिक देवों तक पर्याप्त और अपर्याप्त में वैक्रिय, तंजस और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत पुद्गल कहना चाहिये। . विवेचन-पृथ्वी काय से लेकर सर्वार्थसिद्ध . पर्यन्त सभी जीवों के प्रयोग-परिणत पुदगलों में औदारिक आदि यथायोग्य शरीरों का कथन किया गया है। शरीर पांच हैंऔदारिक, वैकिय, आहारक, तंजस् और कार्मण । इस प्रकार शरीरों का वर्णन करने रूप यह तीसरा दण्डक हुआ। For Personal & Private Use Only Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप चौथा दण्डक जे अपजत्तामुहुमपुढविक्काइय-एगिदिय-पयोग-परिणया ते फासिदियप्पयोगपरिणया । जे पन्जतासुहुमपुढविक्काइय० एवं चेव । जे अपज ताबायरपुढविस्काइय० एवं चेव, एवं पजत्तगा वि । एवं चउक्कएणं भेएणं जाव वणस्सइकाइया । जे अपजत्तावेइंदियपयोगपरिणया ते जिभिदियफासिंदियपयोगपरिणया, जे पजत्ताबेइंदिय० एवं चेव, एवं जाव चरिंदिया; णवरं एक्केक्कं इंदियं वड्ढेयध्वं, जाव अपजत्तरयणप्पभापुढविणेरइयपंचिंदियपयोगपरिणया ते सोइंदिय-चक्विदिय-घाणिंदिय-जिभिदिय-फासिंदियपओगपरिणया । एवं पजत्तगा वि, एवं सब्वे भाणियव्या तिरिक्खजोणिय-मणुस्स-देवा, जाव जे पजतासम्वमिद्धअणुत्तरोववाइअ० जाव परिणया ते सोइंदिय-वक्खिदिय० जाव परिणया । (दं. ४) कठिन शब्दार्थ - वड्यन्वं-बढ़ानी चाहिये। भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं । जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे भो स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार अपर्याप्त बादर पथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत और पर्याप्त बादर पथ्वी. कायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे भी स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक तक सूक्ष्म, वादर, पर्याप्त और अपर्याप्त, ये चारों भेद कहना चाहिये। ये सभी स्पर्शनेंद्रिय प्रयोग-परिणत हैं । जो पुद्गल अपर्याप्त बेइंद्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे जिव्हेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। इसी For Personal & Private Use Only Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप १२४९ प्रकार पर्याप्त बेइन्द्रिय प्रयोग-परिणत पुद्गल भी जिव्हा-इन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार चतुरिन्द्रिय जीवों तक कहना चाहिये, किन्तु एकएक इन्द्रिय बढ़ानी चाहिये । अर्थात् त्रीन्द्रिय जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, और घ्राणेन्द्रिय हैं तथा चतुरिन्द्रिय जीवों के स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। यावत् जो पुद्गल अपर्याप्त रत्नप्रभा पृथ्वी नरयिक पञ्चेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिव्हेंद्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। इसी प्रकार पर्याप्त नरयिक प्रयोग-परिणत पुद्गलों के विषय में भी जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च. योनिक, मनुष्य और देव, इन सब के विषय में भी जानना चाहिये । इस प्रकार यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरॊपपातिक देव प्रयोग-परिणत हैं वे श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। विवेचन--इम चौथे दण्डक में इन्द्रियों की अपेक्षा कथन किया है । पांचवां दण्डक जे अप्पजत्तामुहमपुढविकाइयएगिंदियओरालिय-तेया कम्मसरीरपयोगपरिणया ते फासिंदियप्पयोगपरिणया। जे पजत्तासुहम० एवं चेव, बायरअपजत्ता एवं चेव, एवं पजत्तगा वि । एवं एएणं अभिलावेणं जस्स जइ इंदियाणि सरीराणि य ताणि भाणियवाणि, जाव जे पज तासबसिद्धअणुत्तरोववाइअ० जाव देवपंचिंदियवेउब्विय-तेया-कम्मासरीरप्पओगपरिणया ते सोइंदिय-चक्खिदियजाव फासिदियप्पयोगपरिणया । (दं. ५) .. कठिन शब्दार्थ – भाणियव्वाणि-कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५० भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक, तेजस् और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक, तेजस् और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे भी स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं। इसी प्रकार अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक और पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक के विषय में भी कहना चाहिये । इसी प्रकार के अभिलाप द्वारा जिस जीव के जितनी इन्द्रियाँ और जितने शरीर हों, उसके उतनी इन्द्रियों और उतने शरीरों का कथन करना चाहिये । यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक देव पंचेन्द्रिय वैक्रिय, तेजस् और कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। . विवेचन--पांचवें दण्डक में शरीर और इन्द्रिय, इन दोनों की अपेक्षा कथन किया गया है। छठा दण्डक ____जे अपज्जत्तासुहम-पुढविक्काइय-एगिदिय-पओग-परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि, णील-लोहिय-हालिह-सुकिल०, गंधओ मुभिगंधपरिणया वि; दुन्भिगंधपरिणया वि; रसओ तित्तरसपरिणया वि, कायरसपरिणया वि, कसायरसपरिणया वि, अंबिलरसपरिणया वि, महुररसपरिणया वि; फासओ कवखडफासपरिणया वि, जाव लुक्खफासपरिणया वि; संठाणओ परिमण्डलसंठाणपरिणया वि, वट्ट-तम-चउरंस-आयय-मंठाणपरिणया वि । जे पजत्तमुहुमपुढवि० एवं चेव; एवं जहाणुपुब्बीए णेयब्वं, जाव जे पजत्ता For Personal & Private Use Only Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ८ उ १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप सव्वट्टसिद्ध अणुत्तरोववाहअ० जाव परिणया ते वण्णओ काल वण्णपरिणया वि, जाव आययमंठाणपरिणया वि । (दं. ६) कठिन शब्दार्थ - - वट्ट -- वृत्त (गोल) तंस - - त्र्यत्र (त्रिकोण) चउरंस --: - चतुरस्र ( चतुष्कोण) तित्तरस - तिक्तरस, कडुक - कटुक, कसाय – कपैला, अबिल - - आम्ल (खट्टा ) महर -- मधुर (मीठा ) कक्खड - कर्कश, लक्ख- रूक्ष, जहाणुपुब्बीए - यथानुपूर्वी (अनुकम से ) । भावार्थ- जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय प्रयोग परिणत हैं, वे वर्ण से काला, नीला, लाल, पीला और श्वेत, इन पाँचों वर्णपने परिणत हैं । गन्ध से सुरभिगन्ध और दुरभिगन्धपने परिणत हैं। रस से तीखा, कड़वा, कला, खट्टा और मीठा, इन पांचों रसपने परिणत हैं। स्पर्श से कर्कश, कोमल, शीत, उष्ण, हलका, भारी, स्निग्ध और रूक्ष. इन आठों स्पर्शपने परिणत हैं । संस्थान से परिमण्डल, वृत्त, ज्यत्र चतुरस्र और आयत, इन पाँचों संस्थापने परिणत हैं। जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे इसी प्रकार जानने चाहिये और इसी प्रकार यावत् सभी के विषय में क्रमपूर्वक जानना चाहिये यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक देव प्रयोग- परिणत हैं, वे वर्ण से, काला वर्णपने यावत् संस्थान से आयत संस्थान तक परिणत हैं । विवेचन-- छठे दण्डक में वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा कथन किया गया है। सातवाँ दण्डक जे अपज्जता मुहुम पुढविकाइयए गिंदियओरा लिय-तेया-कम्मासरीरप्पओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि, जाव, आययसंठाणपरिणया वि । जे पज्जत्तासुहुमपुढविकाइय० एवं देव । एवं जहाणुपुव्वीए णेयव्वं, जस्स जड़ सरीराणि, जाव जे १२५१ For Personal & Private Use Only Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५२ भगवती मूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप पजत्ता-सबट्टसिद्ध- अणुत्तरोववाइय-देवपंचिंदियवेउब्विय-तेया-कम्मासरीर-जाव परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि, जाव आययसंठाणपरिणया वि । (दं. ७) कठिन शब्दार्थ-- णेयवा--जानना चाहिये । भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक तैजस् कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने भी परिणत हैं, यावत् आयत संस्थान रूप से भी परिणत हैं। इस प्रकार पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक तेजस कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत भी जानना चाहिये । इस प्रकार यथानुक्रम से जानना चाहिये । जिसके जितने शरीर हों उतने कहना चाहिये। यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव पञ्चेन्द्रिय वक्रिय तेजस कार्मण शरीर प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने यावत् संस्थान से आयत संस्थान रूप परिणत हैं। विवेचन-औदारिक आदि शरीर और वर्णादि सहित यह सातवाँ दण्डक कहा गया है। आठवाँ दण्डक जे अपजत्तासुहुमपुढविकाइयएगिदिय-फासिंदियपयोग-परिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया, जाव आययसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तामुहुमपुढविकाइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुब्बीए जस्स जइ इंद्रियाणिं तस्स तइ भाणियवाणि, जाव जे पजत्तासम्वसिद्धअणुत्तरोववाइअ-जाव देवपंचिंदियसोइंदिय जाव-फासिदियपयोगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया, जाव आययमंठाणपरिणया वि (दं. ८)। For Personal & Private Use Only Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ पुद्गलों का प्रयोग-परिणतादि स्वरूप १२५३ भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने यावत् आयत संस्थानपने भी परिणत हैं। जो पुद्गल पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं। वे भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इसी प्रकार अनुक्रम से सभी जानना चाहिये। जिसके जितनी इन्द्रियां हों, उसके उतनी कहनी चाहिये। यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक देव पंचेन्द्रिय श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने यावत् आयत संस्थानपने परिणत हैं। विवेचन-इन्द्रिय वर्णादि विशिष्ट यह आठवाँ दण्डक कहा गया है । नौवां दण्डक . जे अपजत्तासुहमपुढविक्काइयएगिदियओरालिय-तेया-कम्माफासिदियपयोगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया वि, जाव आययसंठाणपरिणया वि । जे पजत्तासुहमपुढविक्काइय० एवं चेव । एवं जहाणुपुवीए जस्स जइ सरीराणि इंदियाणि य तस्स तइ भाणियवाणि, जाव जे पजत्तासवट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देव पंचिंदियवेउब्वियं-तेया कम्मा-सोइंदिय-जाव फासिंदियपओगपरिणया ते वण्णओ कालवण्णपरिणया, जाव आययसंठाणपरिणया वि । एवं एए णव दंडगा। भावार्थ-जो पुद्गल अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वोकायिक एकेन्द्रिय औदारिक तेजस् कार्मण तया स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने भी यावत् आयत संस्थानपने भी परिणत हैं। वे जो पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेंद्रिय औदारिक तेजस् कार्मण तथा स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे भी इसी प्रकार For Personal & Private Use Only Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५४ भगवती सूत्र - रा. ८. १ मिश्रपरिणत पुद्गल विषयक नौ दण्डक जानना चाहिये । इस प्रकार अनुक्रम से सभी जानना चाहिये। जिसके जितने शरीर और इन्द्रियाँ हों, उसके उतने शरीर और उतनो इन्द्रियाँ कहनी चाहिये । यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक देव पंचेन्द्रिय वक्रिय तेजस् कार्मण तथा श्रोत्रेन्द्रिय यावत् स्पर्शनेन्द्रिय प्रयोग-परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णने यावत् संस्थान से आयत संस्थानपने परिणत हैं। इस प्रकार ये नव. ause कहे गये हैं । विवेचन - शरीर, इन्द्रिय, वर्णादि विशिष्ट यह नौवां दण्डक कहा गया है । मिश्रपरिणत पुद्गल विषयक नौ दण्डक २५ प्रश्न - मीसापरिणया णं भंते ! पोग्गला कड़विहा पण्णत्ता ? २५ उत्तर - गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - एगिंदिय मीसापरिणया, जाव पंचिंदियमीमा परिणया । २६ प्रश्न - एगिंदियमीसा परिणया णं भंते ! पोग्गला कड़विहा पण्णत्ता ? २६ उत्तर - गोयमा ! एवं जहा पओगपरिणएहिं णव दंडगा भणिया, एवं मीसा परिणएहिं वि णव दंडगा भाणियव्वा, तहेव सव्वं णिरवसेसं णवरं अभिलावो 'मीसापरिणया' भाणियध्वं मेसं तं चेव, जाव जे पज्जत्ता सव्व सिद्ध - अणुत्तरोववाहअ जाव आययमाणपरिणया वि । १, कठिन शब्दार्थ - - निरवसेसं - - सम्पूर्ण, नवरं - विशेषता । For Personal & Private Use Only Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ८ उ. १ विस्रमा परिणत पुद्गल भावार्थ - २५ प्रश्न - हे भगवन् ! मिश्र-परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? २५ उत्तर - हे गौतम! पांच प्रकार के कहे गये है । यथा - एकेन्द्रियमिश्रपरिणत यावत् पंचेन्द्रिय मिश्रपरिणत । १२५५ २६ प्रश्न - हे भगवन् ! एकेन्द्रिय मिश्र परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? २६ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार प्रयोग-परिणत पुद्गलों के विषय में नौ दण्डक कहे गये हैं, उसी प्रकार मिश्र-परिणत पुद्गलों के विषय में भी नौ दण्ड कहना चाहिये और उसी प्रकार सारा वर्णन कहना चाहिये । पूर्वोक्त वर्णन से इसमें अन्तर यह है कि- 'प्रयोग-परिणत' के स्थान पर 'मिश्र परिणत - कहना चाहिये । शेष सभी उसी प्रकार कहना चाहिये । यावत् जो पुद्गल पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक मिश्र-परिणत हैं, वे यावत् आयत संस्थान रूप से भी परिणत हैं । विससा - परिणत पुद्गल २७ प्रश्न - वीससापरिणया णं भंते ! पोग्गला कड़विहा पण्णत्ता ? २७ उत्तर - गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - वण्णपरिणया गंधपरिणया, रसपरिणया, फासपरिणया, संठाणपरिणया । जे वष्णपरिणया ते पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - कालवण्णपरिणया, जाव सुकिल्लवण्णपरिणया । जे गंधपरिणया ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - भिगंधपरिणया वि, दुब्भिगंधपरिणया वि एवं जहा For Personal & Private Use Only Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम पण्णवणाए तहेव निरवसेसं जाव जे संठाणओ आययसंठाणपरिया ते वणओ कालवण्णपरिणया वि, जाव लक्खफा सपरिणया 2 वि । १२५६ भावार्थ - २७ प्रश्न - हे भगवन् ! विस्रसा परिणत पुद्गल कितने प्रकार के कहे गये हैं ? २७ उत्तर - हे गौतम ! वे पांच प्रकार के कहे गये हैं। यथा- वर्ण परिणत, गंध- परिणत, रस- परिणत, स्पर्श-परिणत और संस्थान- परिणत। वर्ण- परिणत पुद्गल पांच प्रकार के कहे गये हैं। यथा-काला वर्णपने परिणत यावत् शुक्ल वर्णपने परिणत | जो गन्ध परिणत हैं, वे दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सुरभिगंध परिणत और दुरभिगन्ध- परिणत। जिस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के पहले पद में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । यावत् जो पुद्गल संस्थान से आयत संस्थान रूप परिणत हैं, वे वर्ण से काला वर्णपने भी परिणत हैं यावत् रूक्ष स्पर्शपने भी परिणत हैं । विवेचन - स्वभाव से परिणाम को प्राप्त पुद्गल 'विस्रसापरिणत' कहलाते हैं । उनके वर्ण की अपेक्षा पांच, गन्ध की अपेक्षा दो, रस की अपेक्षा पांच, स्पर्श की अपेक्षा आठ और संस्थान की अपेक्षा पांच भेद होते हैं। इनका विशेष विवरण प्रजापना सूत्र के पहले पद में है । एक द्रव्य परिणाम २८ प्रश्न - एगे भंते! दव्वे किं पओगपरिणए, मीसा परिणए, वीससा परिणए ? २८ उत्तर - गोयमा ! पओगपरिणए वा, मीसा परिणए वा, For Personal & Private Use Only Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम १२५७ वीससापरिणए वा। ___ २९ प्रश्न-जइ पयोगपरिणए कि मणप्पयोगपरिणए, वयप्पयोगपरिणए, कायप्पयोगपरिणए ? २९ उत्तर-गोयमा ! मणप्पओगपरिणए वा, वयप्पयोगपरिणए वा, कायप्पओगपरिणए वा। _____३० प्रश्न-जइ मणप्पओगपरिणए कि सच्चमणप्पयोगपरिणए, मोसमणप्पयोगपरिणए, सच्चामोसमणप्पयोगपरिणए, असच्चामोसमणप्पओगपरिणए ? .३० उत्तर-गोयमा ! सचमणप्पयोगपरिणए वा, मोसमणप्पयोगपरिणए वा, सचामोसमणप्पओगपरिणए वा, असच्चामोसमणप्पओगपरिणए वा। ____३१ प्रश्न-जह सच्चमणप्पओगपरिणए किं आरंभसच्चमणप्पयोगपरिणए, अणारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए, सारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए, असारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए,समारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए,असमारंभसचमणप्पयोगपरिणए ? ३१ उत्तर-गोयमा ! आरंभसच्चमणप्पयोगपरिणए वा, जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए वा। ३२ प्रश्न-जइ मोसमणप्पयोगपरिणए किं आरंभमोसमणप्पओगपरिणए वा ? For Personal & Private Use Only Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम ३२ उत्तर-एवं जहा सच्चेणं तहा मोसेण वि, एवं सच्चामोसमणप्पयोगेण वि, एवं असचामोसमणप्पयोगेण वि। ३३ प्रश्न-जइ वइप्पयोगपरिणए कि सचवइप्पयोगपरिणए, मोसवहप्पयोगपरिणए ? ३३ उत्तर-एवं जहा मणप्पयोगपरिणए तहा वइप्पयोगपरिणए वि, जाव असमारंभवइप्पयोगपरिणए वा। कठिन शब्दार्थ-दवे-द्रव्य, जइ – यदि, आरंभ-हिंसा, अणारंभ-अहिंसा, सारंभ-हिंसा का संकल्प, समारंभ-परिताप उत्पन्न करना, सच्चमणप्पयोग-सत्य मन प्रयोग। भावार्थ-२८ प्रश्न-हे भगवन् ! एक द्रव्य क्या प्रयोग-परिणत होता है, मिश्र-परिणत होता है, अथवा विस्रसा-परिणत होता है ? २८ उत्तर-हे गौतम ! एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता है, अथवा मिश्रपरिणत होता है, अथवा विस्त्रसा-परिणत होता है। . २९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता है, तो क्या मन प्रयोग-परिणत होता है, वचन प्रयोग-परिणत होता है, या काय प्रयोगपरिणत होता है ? ..:२९ उत्तर--हे गौतम ! वह मन प्रयोग-परिणत होता है, या वचन प्रयोग-परिणत होता है, या काय प्रयोग-परिणत होता है। ३० प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य मन प्रयोग परिणत होता है, तो क्या सत्य-मन प्रयोग-परिणत होता है, मषा-मन प्रयोग-परिणत होता है, सत्यमृषा-मन प्रयोग-परिणत होता है, या असत्यामषा-मन प्रयोग-परिणत होता है ? . ३० उत्तर--हे गौतम! वह सत्य मन प्रयोग-परिणत होता है, या मृषामन प्रयोग-परिणत होता है, या सत्यमृषा-मन प्रयोग-परिणत होता है, या असत्यामषा-मन प्रयोग-परिणत होता है । For Personal & Private Use Only Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम ३१ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य, सत्य-मन प्रयोग-परिणत होता है, तो क्या आरम्भ सत्य-मन प्रयोग- परिणत होता है, अनारम्भ सत्य-मन प्रयोगपरिणत होता है, सारम्भ सत्य-मन प्रयोग-परिणत होता है, असारम्भ सत्यमन प्रयोग-परिणत होता है, समारम्भ सत्य-मन प्रयोग- परिणत होता है, या असमारम्भ सत्य-मन प्रयोग- परिणत होता है ? ३१ उत्तर - हे गौतम ! वह आरम्भ सत्य-मन प्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् असमारम्भ सत्य मन प्रयोग- परिणत होता है । ३२ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य, मृषा मन प्रयोग-परिणत होता है, तो क्या आरंभमृषा-मन प्रयोग- परिणत होता है, यावत् असमारम्भ- मृषा मन प्रयोग- परिणत होता है ? ३२ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार सत्य मन प्रयोग- परिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार मृषा-मन प्रयोग परिणत के विषय में भी कहना चाहिये, तथा सत्य- मृषा मन प्रयोग- परिणत के विषय में एवं असत्या मृषा-मन प्रयोगपरिणत के विषय में भी कहना चाहिये । ३३ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य, वचन प्रयोग- परिणत होता है, तो क्या सत्य वचन प्रयोग-परिणत होता है, मृषा-वचन प्रयोग परिणत होता है, सत्य मृषा-वचन प्रयोग- परिणत होता है, या असत्यामृषा वचन प्रयोगपरिणत होता है ? ३३ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार मन प्रयोग परिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार वचन प्रयोग- परिणत के विषय में भी कहना चाहिये । यावत् वह असमारम्भ वचन प्रयोग- परिणत होता है -- यहाँ तक कहना चाहिये । १२५९ विवेचन- - मन, वचन और काया के व्यापार को 'योग' कहते हैं। वीर्यान्तराय के क्षय, या क्षयोपशम से मनोवर्गणा, वचनवर्गणा और कायवगंणा के पुद्गलों का आलम्बन लेकर आत्म-प्रदेशों में होने वाले परिस्पन्द – कम्पन या हलन चलन को भी 'योग' कहते हैं । इसी योग को 'प्रयोग' भी कहते हैं। आलम्बन के भेद से इसके तीन भेद हैं, मन, For Personal & Private Use Only Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम वचन और काया । इनमें मन के चार, वचन के चार और काया के सात, इस प्रकार कुल पन्द्रह भेद हो जाते हैं । मन के चार भेद ये हैं- ( १ ) सत्यमनोयोग - मन का जो व्यापार सत् अर्थात् सज्जन पुरुष या साधुओं के लिये हितकारी हो, उन्हें मोक्ष की तरफ ले जाने वाला हो, उसे 'सत्यमनोयोग' कहते हैं, अथवा सत्यपदार्थों के अर्थात् जीवादि पदार्थों के अनेकान्त रूप यथार्थ विचार को 'सत्यमनोयोग' कहते हैं । १२६० (२) असत्य मनोयोग - सत्य से विपरीत अर्थात् संसार की तरफ ले जाने वाले मन के व्यापार को -- 'असत्यमनोयोग' कहते हैं, अथवा 'जीवादि पदार्थ नहीं हैं, इत्यादि मिथ्या विचार को 'असत्य मनोयोग' कहते हैं । (३) सत्यमृषा (मिश्र) मनोयोग - व्यवहार नय से ठीक होने पर भी जो विचार निश्चय नय से पूर्ण सत्य न हो, जैसे- किसी उपवन में धव, खैर, पलाश आदि के कुछ पेड़ होने पर भी अशोक वृक्ष अधिक होने से उसे 'अशोकवन' कहना । वन में अशोक वृक्षों के होने से यह बात सत्य है और धव आदि के वृक्ष होने से यह बात मृषा (असत्य) भी है । (४) असत्यामृषा मनोयोग -- जो विचार सत्य भी नहीं है और असत्य भी नहीं है, उसे 'असत्यामृषा (व्यवहार) मनोयोग' कहते हैं । किसी प्रकार का विवाद खड़ा होने पर वीतराग सर्वज्ञ के बताये हुए सिद्धान्त के अनुसार विचार करने वाला 'आराधक' कहा जाता है । उसका विचार सत्य है । जो व्यक्ति सर्वज्ञ के सिद्धान्त से विपरीत विचारता है, जीवादि पदार्थों को एकान्त नित्य आदि बताता है, वह 'विराधक' है। उसका विचार अमत्य है । जहाँ वस्तु को सत्य या असत्य किसी प्रकार सिद्ध करने की इच्छा नहीं हो, केवल वस्तु का स्वरूप मात्र दिखाया जाय। जैसे— देवदत्त ! घड़ा लाओ । इत्यादि चिन्तन में वहाँ सत्य या असत्य कुछ नहीं होता, आराधक, विराधक की कल्पना भी वहीं नहीं होती । इस प्रकार के विचार को 'असत्यामृषा मनोयोग' कहते हैं । यह भी व्यवहार नय की अपेक्षा से है । निश्चय नय से तो इसका सत्य या असत्य में समावेश हो जाता है । वचन योग के भी मनोयोग की तरह चार भेद हैं । यथा - ( १ ) सत्य वचन योग, ( २ ) असत्य वचन योग, (३) सत्य - मृषा वचन योग और ( ४ ) असत्यामृषा वचन योग। इनका स्वरूप मनोयोग के समान ही समझना चाहिये । मनोयोग में केवल विचार मात्र का ग्रहण है और वचन योग में वाणी का ग्रहण है, अर्थात् मनोगत भावों को वचन द्वारा प्रकट करना । औदारिक आदि काय-योग द्वारा मनोवगंणा के द्रव्यों को ग्रहण करके उन्हें मनोयोग द्वारा मनपने परिणमाए हुए पुद्गल ' मनःप्रयोगपरिणत' कहलाते हैं । औदारिक आदि For Personal & Private Use Only Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम १२६१ । काय-योग द्वारा भाषा-द्रव्य को ग्रहण करके वचन-योग द्वारा भाषारूप में परिणत करके बाहर निकाले जाने वाले पुद्गल 'वचन प्रयोग-परिणन' कहलाते हैं । औदारिक आदि काय-योग द्वारा ग्रहण किये हुए औदारिकादि वर्गणाद्रव्य को औदारिकादि शरीररूप से परिणमाए हुए पुद्गल 'काय-योग परिणत' कहलाते हैं । जीव हिंसा को 'आरम्भ' कहते हैं । हिंसा में मनःप्रयोग द्वारा परिणत पुद्गल 'आरम्म सत्य-मनः प्रयोग-परिणत' कहलाते हैं । इसी तरह दूसरों के स्वरूप को भी समझलेना चाहिये, परन्तु इतनी विशेषता है कि जीव हिंसा के अभाव को 'अनारम्भ' कहते हैं । किसी जीव को मारने के लिये मानसिक संकल्प करना 'सारम्भ' (संरम्भ) कहलाता है । जीवों को परिताप उपजाना 'समारम्म' कहालाता है। जीवों को प्राण से रहित कर देना 'आरम्भ' कहलाता है। ३४ प्रश्न-जई कायप्पयोगपरिणए कि ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए, ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए, वेब्विय सरीरकायप्पयोगपरिणए वेउब्बियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए, आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए, आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए, कम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए ? _____३४ उत्तर-गोयमा ! ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए वा, जाव कम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए वा।। ३५ प्रश्न-जइ ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिदिय ओरालियसरीरकायापयोगपरिणए, एवं जाव पंचिंदियओरालिय जाव परिणए ? . ३५ उत्तर-गोयमा ! एगिदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरि For Personal & Private Use Only Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम णए वा, वेइंदिय जाव परिणए वा, जाव पंचिंदियओरालियकायप्पयोगपरिणए वा। ___ ३६ प्रश्न-जइ एगिंदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए कि पुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए वा, जाव वणस्सइकाइयएगिदियओरालियकायप्पओगपरिणए वा ? . ३६ उत्तर-गोयमा ! पुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए वा, जाव वणस्सइकाइयएगिदिय जाव परिणए वा । ३७ प्रश्न-जइ पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीर जाव परिणए, किं सुहंमपुढविस्काइय जाव परिणए, बायरपुढविक्काइय जाव परिणए ?" ३७ उत्तर-गोयमा ! सुहुमपुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए वा, बायरयुढविक्काइय जाव परिणए वा । ___ ३८ प्रश्न-जइ सुहुमपुढविक्काइय जाव परिणए किं पज्जत्त सुहमपुढविक्काइय जाव परिणए, अपजत्तसुहुमपुढविक्काइय जाव परिणए ? . ३८ उत्तर-गोयमा ! पजत्तसुहमपुढविक्काइय जाव परिणए वा, अपजत्तसुहुमंपुढविस्काइय जाव परिणए वा; एवं बायरा वि, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं चउक्कओ भेओ, बेईदिय तेइंदियचरिंदियाणं दुयओ भेओ-पजत्तगाय अपजत्तगा य । For Personal & Private Use Only Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम १२६३ भावार्य-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य काय प्रयोग-परिणत होता है, तो क्या औदारिक-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, औदारिकमिश्रशरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, वैक्रिय-शरीर काप-प्रयोग-परिणत होता है, वैक्रिय मिश्र शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है, आहारक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, आहारक-मिश्र शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, या कार्मणशरीर काय प्रयोग-परिणत होता है ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! वह एक द्रव्य औदारिक-शरीर काय-प्रयोगपरिणत होता है, अथवा याक्त् कार्मणशरीर काय-प्रयोगपरिणत होता है। ३५ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य औदारिक-शरीर काय-प्रयोगपरिणत होता है, तो क्या एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् पंवेन्द्रिय औदारिक-शरीर-काय-प्रयोग परिणत होता है ? ३५ उत्तर-हे गौतम ! वह एक द्रव्य एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, या बेइंद्रिय औदारिक शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है अथवा यावत् पंचेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है। ३६ प्रश्न-हे भगवन् ! जो एक द्रव्य एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग परिणत होता है, अयवा यावत् वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय प्रयोग परिणत होता है ? .. ३६ उत्तर-हे गौतम ! वह पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग परिणत होता है अथवा यावत् वनस्पति कायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है। ....३७ प्रश्न-हे भगवन् ! जो एक द्रव्य पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिकशरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, तो क्या वह सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा बादर पृथ्वीकायिक एकेंद्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है ? For Personal & Private Use Only Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२६४ भगवती सू-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम ३७ उत्तर-हे गौतम ! वह सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग परिणत होता है । अथवा बादर पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक. शरीर काय-प्रयोग परिणत होता है। ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! जो एक द्रव्य सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग परिणत होता है, तो क्या पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेद्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, या अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी. कायिक एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! वह पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है, या अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेंद्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है । इसी प्रकार बादर पृथ्वीकायिक के विषय में भी जानना चाहिये । इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक तक सभी के चार चार भेद (सूक्ष्म, बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त) के विषय में जानना चाहिये । इसी प्रकार बेइंद्रिय तेइंद्रिय और चौइंद्रिय के दो दो भेद (पर्याप्त और अपर्याप्त) के विषय में कहना चाहिये। ___३९ प्रश्न-जइ पंचिंदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए किं तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए, मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए ? . ३९ उत्तर-गोयमा ! तिरिक्खजोणिय जाव परिणए वा, मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए वा। ४० प्रश्न-जइ तिरिक्खजोणिय जाव परिणए किं जलयरतिरिक्खजोणिय जाव परिणए वा, थलयर-खहयर जाव परिणए वा? . For Personal & Private Use Only Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम ४० उत्तर-एवं चउक्कओ भेओ, जाव खहयराणं । ४१ प्रश्न-जइ मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए किं समुच्छिममणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए, गम्भवक्कंतियमणुस्स जाव परिणए ? - ४१ उत्तर-गोयमा ! दोसु वि । • ४२ प्रश्न-जइ गम्भवक्कंतियमणुस्स जाव परिणए किं पजत्त. गम्भववकंतिय जाव परिणए, अपज्जत्तगम्भवक्कंतियमणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए ? - ४२ उत्तर-गोयमा ! पजत्तगब्भववतिय जाव परिणए वा, अपजत्तगब्भवक्कंतिय जाव परिणए वा । ४३ प्रश्न-जइ ओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए किं. एगिदियओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए, बेइंदिय जाव परिगए, जाव पंचिंदियओरालिय जाव परिणए ? ४३ उत्तर-गोयमा ! एगिदियओरोलिय एवं जहा ओरालियसरोरकायप्पयोगपरिणएणं आलावगो भणिओ, तहा ओरालियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणएण वि आलावगो भाणियव्वो; णवर बायरवाउकाइय-गम्भवक्कंतिय-पंचिंदिय-तिरिक्खजोणिय गम्भवतियमणुस्साणं एएसिणं पजत्तापजत्तगाणं, सेसाणं अपजत्तगाणं । . भावार्थ-३९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य पञ्चेन्द्रिय औदारिक शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, तो क्या तिथंच योनि पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर For Personal & Private Use Only Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम M काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा मनुष्य पञ्चेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! वह तिर्यंचयोनिक पञ्चेन्द्रिय औदारिक-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा मनुष्य पञ्चेन्द्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है। ४० प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य तिर्यञ्चयोनिक पञ्चेन्द्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या जलचर तिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा स्थलचर तिर्यंचयोनिक पञ्चेन्द्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा खेचर तिर्यंचयोनिक पंचेंद्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है ? - ४० उत्तर-हे गौतम ! यावत् खेचरों तक चार चार भेदों (सम्मच्छिम, गर्भज, पर्याप्त, अपर्याप्त) के विषय में पहले कहे अनुसार जानना चाहिये। ४१ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य मनुष्य पञ्चेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग परिणत होता है, तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्य पञ्चेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा गर्भज मनुष्य पञ्चेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है ? ____ ४१ उत्तर-हे गौतम ! वह सम्मच्छिम, अथवा गर्मज मनुष्य पञ्चेन्द्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है। ४२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, तो क्या पर्याप्त गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त गर्भज मनुष्य पञ्चेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है ? . ४२ उत्तर-हे गौतम ! वह पर्याप्त गर्भज मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिक शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त गर्भज मनुष्य पंचेंन्द्रिय औदारिक-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है। For Personal & Private Use Only Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम ४३ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य औदारिक-मिश्र शरीर काय प्रयोगपरिणत होता है, तो क्या एकेंद्रिय औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग- परिणत होता है, बे इंद्रिय औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है, या यावत् पंचेन्द्रिय औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग- परिणत होता है । ४३ उत्तर - हे गौतम ! वह एकेन्द्रिय औदारिक मिश्र शरीर काय प्रयोग परिणत होता है, अथवा बेइंद्रिय औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग परिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय औदारिक-मिश्र शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है। जिस प्रकार औदारिक- शरीर काय प्रयोग-परिणत के आलापक कहे हैं, उसी प्रकार औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग- परिणत के भी आलापक कहना चाहिये । किंतु इतनी विशेषता है कि औदारिक- मिश्र शरीर काय प्रयोग- परिणत का आलापक बादर बायुकायिक, गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और गर्भज मनुष्य के पर्याप्त और अपर्याप्त के विषय में कहना चाहिये और इसके सिवाय शेष सभी जीवों के अपर्याप्त के विषय में कहना चाहिये । विवेचन काया की प्रवृत्ति को 'काय योग' कहते हैं। इसके सात भेद हैं (१) औदारिक काय योग — काय का अर्थ है 'समूह' । औदारिक- शरीर, पुद्गलस्कन्धों का समूह है, इसलिये काय है । इमसे होने वाले व्यापार को 'औदारिक- शरीर . काय-योग' कहते हैं । यह योग मनुष्य और तिर्यञ्चों के होता है । १२६७ (२) औदारिक-मिश्र काय-योग - औदारिक के साथ कार्मण, वंक्रिय या आहारक की सहायता से होने वाले वीर्य शक्ति के व्यापार को 'ओदारिक- मिश्र काय- योग' कहते हैं । यह योग उत्पत्ति के समय से लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तक सभी औदारिक शरीरधारी जीवों के होता है । वैक्रिय-लब्धिधारी मनुष्य और तिर्यञ्च जब वैक्रिय शरीर का त्याग करते हैं, तब भी औदारिक- मिश्र होता है । वैक्रिय बनाते समय तो वैक्रिय-मिश्रकाय - योग होता है । इसी प्रकार लब्धिधारी मुनिराज जब आहारक शरीर बनाते है, तब तो आहारक-मिश्र-काय-योग का प्रयोग होता है, किन्तु आहारक शरीर से निवृत्त होते समय अर्थात् वापिस स्वशरीर में प्रवेश करते समय 'औदारिक-मिश्र काय योग' का प्रयोग होता है । केवली भगवान् जब केवली समुद्घात करते हैं, तब केवली समुद्घात के आठ समयों में से दूसरे, छठे और सातवें समय में 'औदारिक-मिश्र काय-योग' का प्रयोग होता हैं । For Personal & Private Use Only Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६८ . भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम ४४ प्रश्न-जइ वेउब्वियसरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिदियवेउब्वियसरीरकायप्पयोगपरिणए, जाव पत्रिंदियवेउब्वियसरीर जाव परिणए ? ____४४ उत्तर–गोयमा ! एगिदिय जाव परिणए वा, पंचिंदिय जाव परिणए वा। ४५ प्रश्न-जइ एगिंदिय जाव परिणए, किं वाउकाइयएगिदिय जाव परिणए, अवाउकाइयएगिदिय जाव परिणए ? __४५ उत्तर-गोयमा ! वाउकाइयएगिदिय जाव परिणए, णो अवाउकाइय जाव परिणए; एवं एएणं अभिलावेणं जहा 'ओगा. हणमंठाणे' वेउब्वियसरीरं भणियं तहा इह विभाणियव्वं, जाव पज्जतसम्वट्ठसिद्धअणुत्तरोक्वाइयकप्पाईयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउवियसरीरकायप्पओगपरिणए वा, अपजत्तसव्वट्ठसिद्ध अणुत्तरोववाईय जाव परिणए वा। ४६ प्रश्न--जइ वेब्वियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए जाव पंचिंदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए ? ___४६ उत्तर-एवं जहा वेरग्वियं तहा वेरब्बियमीसगं वि, णवरं देव-णेरड्याणं अपज्जत्तगाणं, सेसाणं पजत्तगाणं तहेव, जाव णो पन्जत्तसवट्टसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव परिणए, अपज्जत्तसव्वट्ठसिद्ध For Personal & Private Use Only Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम अणुतरोववाइयदेवपंचिंदियवेउब्वियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए । भावार्थ-४४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य वैक्रिय-शरीर काय-प्रयोगपरिणत होता है, तो क्या एकेन्द्रिय वक्रिय-शरीर काय प्रयोग परिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय वैक्रिय-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है ? . ____४४ उत्तर-हे गौतम ! वह एकेन्द्रिय वक्रिय-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा पंचेंद्रिय वैक्रिय-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है। ४५ प्रश्न- हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य एकेंद्रिय वैक्रिय-शरीर काय प्रयोगपरिणत होता है, तो क्या वायुकायिक एकेंद्रिय वैक्रिय शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा अवायुकायिक (वायुकायिक जीवों के सिवाय) एकेंद्रिय वक्रियशरीर काय प्रयोग-परिणत होता है ? ४५ उत्तर-हे गौतम! वह एक द्रव्य वायुकायिक एकेंद्रिय वैक्रिय-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है। परंतु अवायुकायिक एकेंद्रिय वैक्रिय-शरीर काय-प्रयोग परिणत नहीं होता। इसी प्रकार इस अभिलाप द्वारा प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें 'अवगाहना संस्थान' पद में वैक्रिय शरीर के सम्बन्ध में कथित वर्णन के अनुसार यहाँ भी कहना चाहिये । यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध-अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेंद्रिय वैक्रिय-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, या अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेंद्रिय वैक्रिय-शरीर कायप्रयोग-परिणत होता है। ४६ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य वैक्रिय-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग परिणत होता है, तो क्या एकेंद्रिय वैक्रिय मिश्र-शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है, अयवा यावत् पंचेंद्रिय वैक्रिय-मिश्र-शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है ? . ४६ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार वैक्रिय-शरीर काय-प्रयोग-परिणत के विषय में कहा है, उसी प्रकार वैक्रिय-मिश्र-शरीर काय प्रयोग-परिणत के विषय में भी कहना चाहिये। परन्तु विशेषता यह है कि वैक्रिय-मिश्र-शरीर काय-प्रयोगदेव और नैरयिक के अपर्याप्त के विषय में और शेष सभी जीवों के पर्याप्त के For Personal & Private Use Only Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७० भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम विषय में कहना चाहिये, यावत् पर्याप्त सर्वार्थ सिद्ध-अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वैक्रिय-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत नहीं होता, किंतु अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वक्रियमिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है। विवेचन-(३) वैक्रिय-काय-योग, वक्रिय-शरीर द्वारा होने वाले वीर्यशक्ति के व्यापार को 'वैक्रिय काय-योग' कहते हैं । यह मनुष्यों के और तियंचों के वैक्रिय लन्धि के बल से वैक्रिय-शरीर धारण कर लेने पर होता है । देव और नैरयिक जीवों के क्रियकाय-योग 'भव प्रत्यय' होता है। . (४) वैक्रिय-मिश्र-काय-योग, वैक्रिय और कार्मण अथवा वैक्रिय और औदारिक, इन दो शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्य-शक्ति के व्यापार को वैक्रिय-मिश्र काय-योग' कहते हैं। वैक्रिय और कार्मण सम्बन्धी वैक्रिय-मिश्र-काय-योग, देवों तथा नारकों को उत्पत्ति के समय से लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तब तक रहता हैं । वैक्रिय और औदारिक, इन दो शरीरों सम्बन्धी वक्रिय मिश्र-काय-योग, मनुष्यों और तियंचों में तभी पाया जाता है जब कि वे लब्धि के बल से वैक्रिय शरीर का आरम्भ करते हैं । बैंक्रियशरीर का त्याग करने में वैक्रिय-मिश्र नहीं होता, किन्तु औदारिक-मिश्र होता है। यहां पर कार्मण तथा औदारिक के सहयोग से ही वैक्रिय मिश्र काययोग माना है। भवधारणीय वैक्रिय शरीर के साथ उत्तर वैक्रिय शरीर के पुद्गलों के सम्मिश्रण को वैक्रियमिश्र काय योग नहीं माना है । इसीलिए देव नरक के पर्याप्तों में वैक्रिय मिश्र काय योग नहीं बताया है । प्रज्ञापना सूत्र के १६ वें प्रयोग पद में वैक्रिय का वैक्रिय के साथ ही मिश्रण होने के कारण देव नरक के पर्याप्त अवस्था में भी वैक्रिय मिश्र काय योग माना है। . ४७ प्रश्न-जइ आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए किं मणुस्साहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए, अमणुस्साहारग जाव परिणए ? ___४७ उत्तर-एवं जहा "ओगाहणसंठाणे" जाव इड्ढिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तगसंखेजवासाउय जाव परिणए, णो अणिड्ढिपतपमत्तसंजयसम्मदिट्ठिपजत्तसंखेजवासाउय जाव परिणए । For Personal & Private Use Only Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम १२७१ ४८ प्रश्न-जइ आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए किं मणुस्साहारगमीसासरीर० ? ४८ उत्तर-एवं जहा आहारगं तहेव मीसगं पि गिरवसेसं भाणियव्वं । कठिन शब्दार्थ-इडिपत्तपमत्तसंजय-ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत, अणिपित्त-ऋद्धि अप्राप्त। भावार्थ-४७ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य आहारक-शरीर काय प्रयोगपरिणत होता है, तो क्या मनुष्य आहारक-शरीर काय-परिणत होता है, अथवा अमनुष्याहारक शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है ? __ ४७ उत्तर-हे गौतम ! इस विषय में प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें 'अवगाहना संस्थान' पद में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । यावत् ऋद्धि प्राप्त प्रमत-संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येय-वर्षायुष्क मनुध्याहारक-शरीर काय प्रयोग-परिणत होता है, परन्तु अनृद्धि प्राप्त प्रमत्तसंयत • सम्यग्दृष्टि पर्याप्त संख्येय वर्षायुष्क मनुष्याहारक-शरीर काय प्रयोग-परिणत नहीं होता। ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य आहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोगपरिणत होता है, तो क्या मनुष्याहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा. अमनुष्याहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है ? ४८ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार आहारक-शरीर काय-योग-परिणत के विषय में कहा गया है, उसी प्रकार आहारक-मिश्र-शरीर काय-प्रयोग-परिणत के विषय में भी कहना चाहिये। . विवेचन-(५) आहारक-काय-योग = केवल आहारक शरीर की सहायता से होने वाला वीर्यशक्ति का व्यापार 'आहारक काय-योग' होता है। (६) आहारक-मिश्र-काययोग = आहारक और औदारिक इन दोनों शरीरों के द्वारा होने वाले वीर्य-शक्ति के व्यापार को आहारक-मिश्र काय-योग कहते हैं । आहारक शरीर के धारण करने के समय अर्थात् उसको प्रारम्भ करने के समय तो आहारक-मिश्र-काय-योग For Personal & Private Use Only Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रम्य परिणाम होता है और उसके त्याग के समय औदारिक-मिश्र-काय-योग होता है । ४९ प्रश्न-जइ कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, जाव पंचिंदियकम्मासरीर जाव परिणए? ४९ उत्तर-गोयमा ! एगिदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, एवं जहा 'ओगाहणसंठाणे, कम्मगस्स भेओ तहेव इहावि, जाव पज्जत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए, अपजत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव परिणए वा। ___ भावार्थ-४९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य कार्मण-शरीर कायप्रयोग परिणत होता है, तो क्या एकेन्द्रिय कार्मण-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा यावत् पंचेन्द्रिय कार्मण-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है ? : ४९ उत्तर-हे गौतम ! वह एकेन्द्रिय कार्मण-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है । इस विषय में जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें.. 'अवगाहना संस्थान' पद में कार्मण के भेद कहे गये हैं, उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये। यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेंद्रिय कार्मणशरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है, अथवा अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेंद्रिय कार्मण-शरीर काय-प्रयोग-परिणत होता है। विवेचन-(७) कार्मण काय-योग-केवल कार्मण-शरीर की सहायता से वीर्यशक्ति की जो प्रवृत्ति होती है, उसे 'कार्मण काय-योग' कहते हैं । यह योग विग्रहगति में अनाहारक अवस्था में सभी जीवों में होता है । केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में केवली भगवान् के होता है। शंका-कार्मण काय-योग के समान तेजस्-काय-योग क्यों नहीं कहा गया ? समाधान-कार्मण काय-योग के समान तेजस्-काय-योग इसलिये अलग नहीं माना कि तेजस् और कामण का सदा साहचर्य रहता है, अर्थात् औदारिक आदि अन्य शरीर, कभी कमी कार्मण-शरीर को छोड़ भी देते हैं, किंतु तेजस् शरीर उसे कभी नहीं छोड़ता । इसलिये For Personal & Private Use Only Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम १२७३ वीर्यशक्ति का जो व्यापार कार्मण-शरीर द्वारा होता है, वही निश्चय से (नियमा) तेजस्शरीर द्वारा भी होता रहता है । अतः कार्मण-काय-योग में ही तेजस्-काय-योग का समावेश हो जाता है । इसलिये उसको पृथक् नहीं गिना गया है। ५० प्रश्न-जइ मीसापरिणए किं मणमीसापरिणए, वयमीसापरिणए, कायमीसापरिणए ? ___५० उत्तर-गोयमा ! मणमीसापरिणए वा, वयमीसापरिणए वा, कायमीसापरिणए वा। - ५१ प्रश्न-जइ मणमीसापरिणए किं सचमणमीसापरिणए वा, मोसमणमीसापरिणए-वा? ५१ उत्तर-जहा पओगपरिणए तहा मीसापरिणए वि भाणियव्वं गिरवसेसं, जाव पजत्तसव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरगमीसापरिणए वा, अपजत्तसब्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव कम्मासरीरमीसापरिणए वा । भावार्थ-५० प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य मिश्र परिणत होता है, तो क्या मनोमिश्र-परिणत होता है, या वचनमिश्र-परिणत होता है, या कायमिश्र-परिणत होता है ? ५० उत्तर-हे गौतम ! वह मनोमिश्र-परिणत होता है, या वचन-मिश्रपरिणत होता है, या कायमिश्र-परिणत होता है। .५१ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य मनोमिश्र-परिणत होता है, तो क्या सत्यमनोमिश्र-परिणत होता है, मषामनोमिश्र-परिणत होता है, सत्यमृषामनोमिश्र-परिणत होता है, या असत्यामृषामनोमिश्र-परिणत होता है ? For Personal & Private Use Only Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. १ एक द्रव्य परिणाम ५१ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार प्रयोग-परिणत पुद्गल के विषय में कहा है, उसी प्रकार मिश्र परिणत पुद्गल के विषय में भी सभी कहना चाहिये, यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेंद्रिय कार्मण शरीर काय - मिश्र-परिणत होता है, या अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरौपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेंद्रिय कार्मण शरीर काय-मिश्र-परिणत होता है । १२७४ ५२ प्रश्न - जइ वीससा परिणए किं वण्णपरिणए, गंधपरिणए, रसपरिणए, फासपरिणए, संठाणपरिणए ? ५२ उत्तर - गोयमा ! वष्णपरिणए वा, गंधपरिणए वा, रसपरिणए वा, फासपरिणए वा, संठाणपरिणए वा । ५३ प्रश्न - जइ वण्णपरिणए किं कालवण्णपरिणए, णील जाव सुकिल्लवण्णपरिणए ? ५३ उत्तर - गोयमा ! कालवण्णपरिणए, जाव सुकिल्लवण्णपरिणए । ५४ प्रश्न - जइ गंधपरिणए किं सुभिगंधपरिणए, दुभिगंधपरिणए ? ५४ उत्तर - गोयमा ! सुभिगंधपरिणए वा, दुब्भिगंधपरिणए वा । ५५ प्रश्न - जड़ रसपरिणए किं तित्तरसपरिणए - पुच्छा | ५५ उत्तर-गोयमा ! तित्तरसपरिणए वा, जाव महुररसपरिणए वा । ५६ प्रश्न - जइ फासपरिणए किं कक्खडफासपरिणए, जाव For Personal & Private Use Only Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ एक द्रव्य पारणाम . - - लुक्खफासपरिणए ? ५६ उत्तर-गोयमा ! काखडफासपरिणए वा, जाव लुक्खफासपरिणए वा। ५७ प्रश्न-जइ संठाणपरिणए-पुच्छा । ५७ उत्तर-गोयमा ! परिमंडलसंठाणपरिणए वा, जाव आययसंठाणपरिणए वा। भावार्थ-५२ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य विस्रसा (स्वभात्र) परिणत होता है, तो क्या वह-वर्ण-परिणत होता है, गन्ध-परिणत होता है, रसपरिणत होता है, स्पर्श परिणत होता है, या संस्थान-परिणत होता है। ५२ उत्तर-हे गौतम ! वह वर्ण-परिणत होता है, या गन्ध-परिणत होता है, या रस-परिणत होता है, या स्पर्श-परिणत होता है, या संस्थान-परिणत . होता है। ५३ प्रश्न--हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य वर्ण-परिणत होता है, तो क्या काला वर्णपने परिणत होता हैं, नीलवर्णपने परिणत होता है, अथवा यावत् शुक्ल वर्णपने परिणत होता है ? ५३ उत्तर-हे गौतम! वह काला वर्णपने परिणत होता है अथवा यावत् शुक्ल वर्णपने परिणत होता है। ५४ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य' गन्धपने परिणत होता है, तो क्या सुरमि-गन्ध (सुगन्ध) पने परिणत होता है, या दुरभिगन्ध (दुर्गन्ध) पने परिणत होता है ? ५४ उत्तर-हे गौतम ! वह सुरभि-गन्धपने परिणत होता है, अथवा दुरभि-गन्धपने परिणत होता है। . ५५ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य रसपने परिणत होता है, तो क्या For Personal & Private Use Only Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७६ भगवती सूत्र - श. ८ उ. १ दो द्रव्यों के परिणाम तोले रसपने परिणत होता है, अथवा यावत् मीठे रसपने परिणत होता है ? ५५ उत्तर-हे गौतम ! वह तीखे रसपने परिणत होता है, अथवा यावत् मीठे रसपने परिणत होता है। ____ ५६ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य स्पर्श परिणत होता है, तो क्या कर्कश-स्पर्शपने परिणत होता है, अथवा यावत् रुक्ष-स्पर्शपने परिणत होता है ? ५६ उत्तर-हे गौतम ! वह कर्कश-स्पर्शपने परिणत होता है, अथवा यावत् रुक्षस्-पर्शपने परिणत होता है। ५७ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि एक द्रव्य संस्थान-परिणत होता है, तो क्या परिमण्डल संस्थानपने परिणत होता है, अथवा यावत् आयत संस्थानपने परिणत होता है ? .. ५७ उत्तर-हे गौतम ! वह परिमण्डल संस्थानपने परिणत होता है, अथवा यावत् आयत संस्थानपने परिणत होता है । दो द्रव्यों के परिणाम ५८ प्रश्न-दो भंते ! दव्या किं पओगपरिणया, मीसापरिणया, वीससापरिणया ? ५८ उत्तर-गोयमा ! पओगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, वीससापरिणया वा; अहवा एगे पओगपरिणए एगे मीसापरिणए; अहवा एगे पओगपरिणए एगे वीससापरिणए; अहवा एगे मीसापरिणए एगे वीससापरिणए एवं (६)। ५९ प्रश्न-जइ पओगपरिणया किं मणप्पयोगपरिणया, वहप्पयोगपरिणया, कायप्पयोगपरिणया ? For Personal & Private Use Only Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ८ उ. १ दो द्रव्यों के परिणाम १२७७ ५९ उत्तर-गोयमा ! मणप्पयोगपरिणया, वइप्पयोगपरिणया कायप्पओगपरिणया वा; अहवा एगे मणप्पयोगपरिणए एगे वयप्पयोगपरिणए; अहवा एगे मणप्पयोगपरिणए एगे कायप्पयोगपरिणए; अहवा एगे वयप्पयोगपरिणए एगे कायप्पयोगपरिणए। ६० प्रश्न-जइ मणप्पओगपरिणया किं सचमणप्पयोगपरिणया, अमञ्चमणप्पयोगपरिणया, सच्चमोसमणप्पयोगपरिणया, असचा. मोसमणप्पयोगपरिणया ? ६० उत्तर-गोयमा ! सचमणप्पओगपरिणया वा, जाव असच्चामोसमणप्पओगपरिणया; अहवा एगे सञ्चमणप्पओगपरिणए एगे मोसमणप्पयोगपरिणए, अहवा एगे सच्चमणप्पओगपरिणए एगे सचमोसमणप्पओगपरिणए अहवा एगे सचमणप्पओगपरिणए एगे असचमोसमणप्पओगपरिणए; अहवा एगे मोसमणप्प ओगपरिणए एगे सचमोसमणप्पओगपरिणए अहवा एगे मोस. मणप्पओगपरिणए एगे असचमोसमणप्पओगपरिणए, अहवा एगे सचामोसमणपओगपरिणए एगे असचामोसमणप्पओगपरिणए । भावार्थ-५८ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या दो द्रव्य प्रयोग परिणत होते हैं, या मिश्र-परि गत होते हैं, या विनसा परिणत होते हैं ? . ५८ उत्तर-हे गौतम ! वे प्रयोग-परिणत होते हैं, या मिश्र परिणत होते हैं, या विनसा-परिणत होते हैं । अथवा एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता हैं और दूसरा मिश्र-परिणत होता हैं अथवा एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता है । और For Personal & Private Use Only Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७८ भगवती सूत्र-श. ८ उ..१ दो द्रव्यों के परिणाम दूसरा द्रव्य विनसा परिणत होता है। अथवा एक द्रव्य मिश्र परिणत होता है। और दूसरा विनसा परिणत होता है। ५९ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे दो द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं, तो क्या मनःप्रयोग-परिणत होते है, या वचन प्रयोग-परिणत होते हैं, या काय-प्रयोग परिणत होते है ? . ५९ उत्तर-हे गौतम ! (१) वे दो द्रव्य मनःप्रयोग-परिणत होते हैं, (२) या वचन-प्रयोग परिणत होते है, (३) या काय-प्रयोग-परिणत होते हैं, अथवा उनमें से एक द्रव्य (४) मनःप्रयोग-परिणत होता है और दूसरा वचनप्रयोग-परिणत होता है । अथवा (५) एक द्रव्य मनःप्रयोग-परिणत होता है और दूसरा काय-प्रयोग-परिणत होता है । अथवा (६) एक द्रव्य वचन-प्रयोग-परिणत होता है और दूसरा काय-प्रयोग-परिणत होता है। - ६० प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वे दो द्रव्य मनःप्रयोग-परिणत होते हैं, तो क्या सत्य मनःप्रयोग-परिणत होते हैं, या असत्य मनःप्रयोग-परिणत होते हैं, या सत्यमषा मनःप्रयोग-परिणत होते हैं, या असत्यामृषा मनःप्रयोग-परिणत होते हैं। ६० उत्तर-हे गौतम ! (१-४) वे सत्य मनःप्रयोग-परिणत होते हैं. अथवा यावत् असत्यामृषा मनःप्रयोग-परिणत होते है । अथवा (५) उनमें से एक द्रव्य सत्य मनःप्रयोग-परिणत होता हैं और दूसरा मृषा मनःप्रयोग-परिणत होता है । अथवा (६) एक द्रव्य सत्य मनःप्रयोग-परिणत होता है और दूसरा सत्यमषा मनःप्रयोग-परिणत होता है । अथवा (७) एक द्रव्य सत्य मनःप्रयोग-परिणत होता है और दूसरा असत्यामृषा मनःप्रयोग-परिणत होता है । अथवा (८) एक द्रव्य मृषा मनःप्रयोग-परिणत होता है और दूसरा सत्यमृषा मनःप्रयोग-परिणत होता है । अथवा (९) एक द्रव्य मषा मनःप्रयोग-परिणत होता है और दूसरा असत्यामषा मनःप्रयोग-परिणत होता है । अथवा (१०) एक द्रव्य सत्यमषा मनःप्रयोगपरिणत होता है और दूसरा असत्यामृषा मनःप्रयोग-परिणत होता है। . For Personal & Private Use Only Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... ........भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ दो द्रव्यों के परिणाम १२७९ ६१ प्रश्न-जइ सच्चमणप्पओगपरिणया किं आरंभसचमणप्पओगपरिणया, जाव असमारंभमन्चमणप्पओगपरिणया ? ६१ उत्तर-गोयमा ! आरंभसच्चमणप्पओगपरिणया वा, जाव असमारंभमचमणप्पओगपरिणया वा; अहवा एगे आरंभसञ्चमणप्पओगपरिणए एगे. अणारंभसचमणप्पओगपरिणए । एवं एएणं गमेणं दुयासंजोएणं णेयव्वं, सब्वे संजोगा जत्थ जत्तिया उठेति ते भाणियव्वा, जाव सम्वट्ठसिद्धगत्ति। , ६२ प्रश्न-जइ मीसापरिणया कि मणमोसोपरिणया० ? ___६२ उत्तर-एवं मीसापरिणया वि। ६३ प्रश्न-जइ वीससापरिणया किं वण्णपरिणया गंधपरिणया०? ६३ उत्तर-एवं वीससापरिणया वि, जाव अहवा एगे चउरंससंठाणपरिणए, एगे आययमंठाणपरिणए वा । .. कठिन शब्दार्थ-जत्तिया-जितने, उर्केति-उठते हैं-पैदा होते हैं । भावार्थ-६१ प्रश्न हे भगवन् ! यदि वे दो द्रव्य सत्यमनःप्रयोग-परिणत होते हैं तो क्या आरंभ सत्यमनः प्रयोग-परिणत होते हैं, या अनारम्भ सत्यमनः प्रयोग-परिणत होते हैं या सारम्भ (संरम्भ) सत्यमनः प्रयोग-परिणत होते हैं, या असारम्भ सत्यमनःप्रयोग-परिणत होते हैं, या समारम्भ सत्यमनः प्रयोग-परिणत होते है, या असमारम्भ सत्यमनः प्रयोग-परिणत होते है ? ६१ उत्तर-हे गौतम ! (१-६) वे दो द्रव्य आरम्भ सत्यमनः प्रयोग-परिणत होते हैं, अथवा यावत् असमारम्भ सत्यमनः प्रयोग-परिणत होते हैं, अथवा एक द्रव्य आरम्म सत्यमनःप्रयोग-परिणत होता है और दूसरा अनारम्भ सत्यमनः For Personal & Private Use Only Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८० भगवती सूत्र - श. ८ उ. १ दो द्रव्यों के परिणाम प्रयोग परिणत होता है । इस प्रकार द्विक संयोगी भांगे करने चाहिये। जहां जितने द्विक संयोगी भांगे होते हैं, वहाँ उतने सभी कहना चाहिये । यावत् सर्वार्थसिद्ध वैमानिक देव पर्यंत कहना चाहिये । ६२ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वे दो द्रव्य, मिश्र-परिणत होते हैं, तो क्या वे मनोमिश्र - परिणत होते हैं ? इत्यादि प्रश्न । ६२ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार प्रयोग- परिणत के विषय में कहा उसी प्रकार मिश्र परिणत के सम्बन्ध में भी कहना चाहिये । ६३ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि दो द्रव्य, विस्रसा परिणत होते हैं, तो क्या वर्णपने परिणत होते हैं, अथवा यावत् संस्थानपने परिणत होते हैं ? ६३ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार पहले कहा है, उसी प्रकार वित्रतापरिणत के विषय में भी कहना चाहिए। यावत् एक द्रव्य, चतुरस्रं संस्थानपने परिणत होता है और दूसरा आयत संस्थानपने परिणत होता है । विवेचन - दो द्रव्यों के विषय में प्रयोग- परिणत, मिश्र-परिणत और विस्त्रमा परिणत इन तीन पदों के असंयोगी (एक) तीन भंग होते है और द्विक संयोगो भी तीन भंग होते हैं। इस प्रकार ये छह भंग होते हैं । सत्यमनः प्रयोग- परिणत, मृषामनः प्रयोग- परिणत, सत्य- मूषामनः प्रयोग- परिणत और असत्या मृषामनः प्रयोग- परिणत, इन चार पदों के असंयोगी चार भंग होते हैं और द्विक-संयोगी छह भंग होते हैं। इस प्रकार इनके कुल दस भंग होते हैं । 'आरम्भ सत्यमनः प्रयोग- परिणत' आदि छह पद हैं। इनमें असंयोगी छह भंग होते हैं. और द्विक-संयोगी पन्द्रह भंग होते हैं । ये आरम्भ सत्यमनः प्रयोग-परिणत के कुल इक्कीस भंग होते हैं । इसी प्रकार अनारम्भ सत्यमनः प्रयोग- परिणत आदि पांच पदों के भी प्रत्येक के इक्कीस इक्कीस मंग होते हैं । इस प्रकार सत्यमनः प्रयोग-परिणत के आरम्भ, अनारम्भ आदि छह पदों के साथ कुल एक सौ छब्वीस भंग होते हैं। मृपामनः प्रयोग- परिणत, सत्यमृषामनः प्रयोग-परिणत, और असत्या - मृषामनः प्रयोग- परिणत, इन तीन पदों के आरम्भ आदि छह पदों के साथ प्रत्येक के एक सौ छब्बीस, एक सौ छब्वीस भंग होते हैं । इस प्रकार सत्य- मनः प्रयोग - परिणत के कुल ५०४ भंग होते हैं । जिस प्रकार मनःप्रयोग - परिणत के पाँच सो चार भंग कहे गये हैं, उसी प्रकार वचन प्रयोग- परिणत के भी पांच सौ चार भंग होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. १ तीन द्रव्यों के परिणाम दारिक शरीर का प्रयोग-परिणत आदि सात पद हैं इनके असंयोगी सात मंग होते हैं और द्विक संयोगी इक्कीस मंग होते हैं । इस प्रकार एक पद के अट्ठाईस भंग होते हैं । सातों पदों के कुल १९६ ( २८७ = १९६ ) भंग होते हैं । प्रयोग-परिणत के दो द्रव्यों के कुल बारह सौ चार भंग होते हैं । १२८१ जिस प्रकार प्रयोग- परिणत दो द्रव्यों के भंग कहे गये हैं, उसी प्रकार मिश्र-परिणत दो द्रव्यों के भी कहना चाहिये । · जिस रीति से प्रयोग - परिणत दो द्रव्यों के भंग कहे गये हैं, उसी रीति से विस्रसापरिणत दो द्रव्यों के वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान के असंयोगी और द्विक संयोगी भंग भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए । तीन द्रव्यों के परिणाम ६४ प्रश्न - तिणि भंते ! दव्वा किं पओगपरिणया, मीसापरिणया, वीससापरिणया ? ६४ उत्तर - गोयमा ! ओगपरिणया वा, मीसापरिणया वा वीससापरिणया वा; अहवा एगे पओगपरिणए दो मीसापरिणया, अहवा एगे पओगपरिणए दो वीससापरिणया, अहवा दो पओगपरिणया एगे मीससापरिणए, अहवा दो पओगपरिणया एगे वीससा - परिणए, अहवा एगे मीसापरिणए दो वीससापरिणया, अहवा दो मीससापरिणया एगे वीससापरिणए, अहवा एगे पओगपरिणए एगे मीसा परिणए एगे वीससापरिणए । ६५ प्रश्न - जइ पओगपरिणया किं मणप्पओगपरिणया, वयप्प For Personal & Private Use Only Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८२ भगवती सूत्र--श.८ उ. १ तीन द्रव्यों के परिणाम ओगपरिणया, कायप्पओगपरिणया ? ६५ उत्तर-गोयमा! मणप्पओगपरिणया वा, एवं एकगसंयोगो, दुयासंजोगो, तियासंजोगो भाणियन्यो । - ६६ प्रश्न-जइ मणप्पओगपरिणया कि सच्चमणप्पओगपरिणया, असच्चमणप्पओगपरिणया, सच्चामोसमणप्पओगपरिणया, असच्चामोसमणप्पओगपरिणया ? ६६ उतर-गोयमा ! सचमणप्पओगपरिणया वा, जाव असञ्चामोसमणप्पओगपरिणया वा; अहवा एगे सच्चमगप्पओगपरिणए दो मोसमणप्पओगपरिणया वा । एवं दुयासंजोगो, तियासंजोगो भाणियब्बो एत्थ वि तहेव; जाव अहवा एगे तं तसंठाणपरिणए एगे चउरंससंठाणपरिणए एगे आययसंठाणपरिणए वा । ... कठिन शब्दार्थ-दुयासंजोगो-द्विकसंयोगी। भावार्थ-६४ प्रश्न-हे भगवन् ! क्या तीन द्रव्य, प्रयोग-परिणत होते हैं, मिश्र-परिणत होते हैं, या विस्रसा-परिणत होते हैं ? . ६४ उत्तर-हे गौतम ! तीनों द्रव्य प्रयोग परिणत होते हैं, या मिश्रपरिणत होते हैं, या विस्त्रसा-परिणत होते हैं । अथवा एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता है और दो द्रव्य मिश्र-परिणत होते हैं । अथवा एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता है और दो द्रव्य विस्रसा-परिणत होते हैं । अथवा दो द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं और एक द्रव्य मिश्र परिणत होता है । अथवा दो द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं और एक द्रव्य विस्रसा-परिणत होता है। अथवा एक द्रव्य मिश्र-परि· णत होता है और दो द्रव्य विस्त्रसा-परिणत होते हैं। अथवा दो द्रव्य मिश्र For Personal & Private Use Only Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ तीन द्रव्यों के परिणाम १२८३ परिणत होते हैं। और एक द्रव्य विस्त्रसा-परिणत होता है । अथवा एक द्रव्य प्रयोग-परिणत होता है, एक द्रव्य मिश्र-परिणत होता है और एक द्रव्य विस्रसापरिणत होता है। ६५ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि तीन द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं, तो क्या मनः प्रयोग-परिणत होते हैं, या वचन प्रयोग-परिणत होते हैं, या काय प्रयोगपरिणत होते हैं ? ६५ उत्तर-हे गौतम ! वे मनः प्रयोग-परिणत होते हैं, या वचन प्रयोगपरिणत होते हैं, या काय प्रयोग-परिणत होते है। इस प्रकार एक संयोगी, द्विक संयोगी और त्रिक संयोगी भंग कहना चाहिये। ६६ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि तीन द्रव्य मनः प्रयोग-परिणत होते हैं, तो क्या सत्यमन प्रयोग-परिणत होते हैं, इत्यादि प्रश्न ? ' ६६ उत्तर-हे गौतम ! वे तीनों द्रव्य सत्यमनः प्रयोग-परिणत होते हैं, अथवा यावत् असत्या-मृषामनः प्रयोग-परिणत होते हैं । अथवा उनमें से एक द्रव्य सत्यमनः प्रयोग-परिणत होता है और दो द्रव्य मृषामनः प्रयोग-परिणत होते . हैं। इसी प्रकार यहाँ भी द्विक संयोगी और त्रिक संयोगी भंग कहना चाहिये, संस्थान भी इसी प्रकार यावत् एक व्यत्र संस्थापने परिणत होता हैं, एक चतुरस्त्र संस्थानपने परिणत होता है और एक आयत संस्थानपने परिणत होता हैं। विवेचन-प्रयोग-परिणत आदि तीन पदों के असंयोगी तीन भंग होते हैं और द्विकसंयोगी छह भंग होते हैं, तथा विक-संयोगी एक भंग होता है । इस प्रकार कुल दस भंग होते हैं। सत्यमनः प्रयोग-परिणत आदि चार पद हैं । इनके असंयोगी (एक-एक) चार भंग होते हैं । द्विक संयोगी बारह भंग होते हैं और त्रिक संयोगी चार भंग होते हैं। ये सभी बीस भंग होते हैं। इसी प्रकार मृषामनः प्रयोग-परिणत के भी कहना चाहिये। इसी प्रकार मृषामनः प्रयोग-परिणत के भी कहना चाहिये । इसी प्रकार वचन प्रयोगपरिणत और काय प्रयोग-परिणत के भी कहना चाहिये। प्रयोग-परिणत की तरह मिश्र-परिणत के भी भंग कहना चाहिये और इसी रीति से वर्णादि के भेद से विस्रसा-परिणत के भी भंग कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ चार आदि द्रध्यो के परिणाम चार आदि द्रव्यों के परिणाम ६७ प्रश्न-चत्तारि भंते ! दव्वा किं पओगपरिणया, मीसापरिणया, वीससापरिणया ? ६७ उत्तर-गोयमा ! पओगपरिणया वा, मीसापरिणया वा, वीससापरिणया वा । अहवा एगे पओगपरिणए तिणि मीसापरिणया; अहवा एगे पओगपरिणए तिण्णि वीससापरिणया; अहवा दो पओगपरिणया दो मीसापरिणया, अहवा दो पओगपरिणया दो वीससापरिणया; अहवा तिण्णि पओगपरिणया एगे मीसापरिणए, अहवा तिण्णि पओगपरिणया एगे वीससापरिणए, अहवा एगे मीससापरिणए तिण्णि वीससापरिणया; अहवा दो मीससापरिणया दो वीससापरिणया; अहवा तिण्णि मीसापरिणया एगे वीससापरिणए; अहवा एगे पओगपरिणए एगे मीसापरिणए दो वीससापरिणया; अहवा एगे पओगपरिगए दो मीसापरिणया एगे वीससापरिणए; अहवा दो पओगपरिणया एगे मीसापरिणए एगे वीससापरिणए। ६८ प्रश्न-जइ पओगपरिणया कि मणप्पओगपरिणया, वयप्पओगपरिणया, कायप्पओगपरिणया ? ६८ उत्तर-एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त जाव दस संखेजा For Personal & Private Use Only Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. उ. १ चार आदि द्रव्यों के परिणाम असंखेज्जा अनंता य दव्वा भाणियव्वा दुयामंजोएणं, तियासंजोएणं, जाव दससंजोएणं, वारससंजोएणं उवजुंजिऊणं जत्थ जत्तिया संजोगा उट्ठेति ते सव्वे भाणियव्वा, एए पुण जहा णवमer uaere भणिहामो तहा उवजुंजिऊण भाणियव्वा, जाव असंखेज्जा अनंता एवं चेव, णवरं एवकं पदं अन्भहियं, जाव अहवा अनंता परिमंडलसंठाणपरिणया, जाव अनंता आययसंठाणपरि ४२८५ गया । कठिन शब्दार्थ - उवजुं जिऊणं - उपयोग लगाकर, मणिहाम - कहेंगे । भावार्थ - ६७ प्रश्न - हे भगवन् ! क्या चार द्रव्य प्रयोग-परिणत होते हैं, या मिश्र-परिणत होते हैं, या वित्रसा परिणत होते हैं ? ६७ उत्तर - हे गौतम ! चार द्रव्य प्रयोग- परिणत होते हैं, या मिश्रपरिणत होते हैं, या विस्रसा परिणत होते हैं । अथवा ( १ ) एक प्रयोग- परिणत होता है और तीन मिश्र-परिणत होते हैं । अथवा (२) एक प्रयोग- परिणत होता है और तीन वित्रसा परिणत होते हैं । अथवा (३) दो द्रव्य प्रयोग- परिणत होते हैं और दो मिश्र-परिणत होते हैं । अथवा (४) दो द्रव्य प्रयोग- परिणत होते हैं और दो वित्रसा परिणत होते हैं । अथवा (५) तीन द्रव्य प्रयोग- परिणत होते हैं और एक मिश्र-परिणत होता है । अथवा (६) तीन द्रव्य प्रयोग- परिणत होते हैं और एक विस्रसा परिणत होता है । अथवा (७) एक मिश्र-परिणत होता है और तीन वित्रसा परिणत होते हैं। अथवा (८) दो द्रव्य मिश्र-परिणत होते हैं और दो द्रव्य वित्रसा परिणत होते हैं । अथवा (९) तीन द्रव्य मिश्रपरिणत होते हैं और एक द्रव्य विलसा-परिणत होता है । अथवा (१०) एक द्रव्य प्रयोग- परिणत होता है, एक द्रव्य मिश्र-परिणत होता है और दो द्रव्य विसा- परिणत होते हैं । अथवा ( ११ ) एक द्रव्य प्रयोग- परिणत होता है, बो For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८६ भगवती सूत्र - शं. ८ उ. १ चार आदि द्रव्यों के परिणाम द्रव्य मिश्र परिणत होते हैं और एक द्रव्य विस्त्रसा परिणत होता है । अथवा (१२) दो द्रव्य प्रयोग- परिणत होते हैं, एक मिश्र - परिणत होता है और एक विसा परिणत होता है । ६८ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि चार द्रव्य प्रयोग- परिणत होते हैं, तो क्या मनः प्रयोग- परिणत होते हैं, या वचन प्रयोग- परिणत होते हैं, या काय प्रयोगपरिणत होते हैं ? ६८ उत्तर - हे गौतम! ये सब पहले की तरह कहना चाहिये। इसी क्रम द्वारा पाँच, छह, सात, आठ, नव, दस, संख्यात, असंख्यात और अनन्त द्रव्यों के द्वि-संयोगी, त्रिक-संयोगी यावत् दस-संयोगी, बारह-संयोगी आदि सभी भंग उपयोग पूर्वक कहना चाहिये। जहां जितने संयोग होते हैं, वहां उतने सभी संयोग कहना चाहिये । ये सभी संयोग नौवें शतक के प्रवेशनक नामक बत्तीसवें उद्देशक में जिस प्रकार आगे कहे जायेंगे, उसी प्रकार उपयोग पूर्वक यहाँ पर भी कहना चाहिये । यावत् असंख्यात और अनन्त द्रव्यों के परिणाम कहना चाहिये, परंतु एक पद अधिक करके कहना चाहिये । यावत् अथवा अनंत द्रव्य परिमण्डल संस्थानपने परिणत होते हैं, यावत् अनंत द्रव्य आयत संस्थानपने परिणत होते हैं। विवेचन - चार आदि द्रव्यों के परिणाम के विषय में कथन किया जा रहा है। चार द्रव्यों के प्रयोग-परिणत आदि तीन के असंयोगी तीन भंग होते हैं और द्विक संयोगी नग होते हैं । त्रिक संयोगी तीन भंग होते हैं। इस तरह ये सभी पन्द्रह भंग होते हैं। आगे के भंगों के कथन के लिये पूर्वोक्त कथनानुसार संस्थान पर्यन्त यथायोग्य भंग कहना चाहिये । पांच द्रव्यों के असंयोगी तीन भंग होते हैं और द्विक संयोगी वारह भंग होते हैं और त्रिक संयोगी छह भंग होते हैं । इस तरह ये इक्कीस भंग होते हैं । इस प्रकार पांच, छह, आदि यावत् अनन्त द्रव्यों के भी यथायोग्य भंग कहन चाहिये। सूत्र के मूलपाठ में ग्यारह संयोगी भंग नहीं बतलाया है। इसका कारण यह कि पूर्वोक्त पदों में ग्यारह संयोगी भंग नहीं बनता । नौवें शतक के बत्तीसवें उद्देशक में गांगेय अनगार के प्रवेशनक सम्बन्धी भंग क जावेंगे, तदनुसार यहाँ भी उपयोग लगाकर भंग कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ परिणामों का अल्प वहुत्व १२८७ परिणामों का अल्प बहुत्व ६९ प्रश्न-एएसिणं भंते ! पोग्गलाणं पओगपरिणयाणं मीमापरिणयाणं, वीसंसापरिणयाण य कयरे कयरेहितोजाव विसेसाहिया वा ? ६९ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा पोग्गला पओगपरिणया, मीसापरिणया अणंतगुणा, वीससापरिणया अणंतगुणा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॐ ॥ अट्ठमसए पढमो उद्देसो समत्तो ॥, भावार्थ-६९ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रयोग-परिणत, मिश्र-परिणत और वित्रसापरिणत, इन तीनों प्रकार के पुद्गलों में कौन किस से अल्प, बहुत, तुल्य और विशेषाधिक है ? ६९ उत्तर-हे गौतम ! सब से थोडे पुद्गल प्रयोग-परिणत है, उनसे मिश्रपरिणत पुद्गल अनन्तगुणे है और उनसे विस्रसा-परिणत पुद्गल अनन्त गुणे हैं। हे भगवन् ! यह इस प्रकार है । हे भगवन् ! यह इस प्रकार है । ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते है। विवेलन-सबं से थोड़े पुद्गल प्रयोग-परिणत हैं । अर्थात् मन, वचन और कायारूप योगों से परिणत पुद्गल सबसे थोड़े हैं, क्योंकि जीव और पुद्गल का सम्बन्ध अल्पकालीन हैं । प्रयोग-परिणत पुद्गलों से मिश्र-परिणत पुद्गल अनन्त गुण हैं। क्योकि प्रयोग-परिणाम द्वारा कृत आकार को न छोड़ते हुए विस्रसा-परिणाम द्वारा परिणामान्तर को प्राप्त हुए मृतकलेवर आदि अवयवरूप पुद्गल अनन्तानत हैं। विस्रसा-परिणत पुद्गल तो उनसे भी अनन्त गुणे हैं । क्योंकि जीव के द्वारा ग्रहण न किये जा सकने योग्य परमाणु आदि पुद्गल भी अनन्त गुणे हैं। ॥ इति आठवें शतक का प्रथम उद्देशक समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक उद्देशक २ आशीविष १ प्रश्न – कइविहा णं भंते! आसीविसां पण्णत्ता ? १ उत्तर - गोयमा ! दुविहा आसीविसा पण्णत्ता, तं जहा जाइ आसीविसा य कम्मआसीविसा य । २ प्रश्न - जाइआसीविसा णं भंते! कइ विहा पण्णत्ता ? २ उत्तर - गोयमा ! चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा - विच्छुयजाइआसीविसे, मंडुवकजाइआसीविसे, उरगजाइ आसीविसे, मणुस्सजाइआसीविसे । ३ प्रश्न- विच्छुयजाइआसीविसस्स णं भंते! केवइए विसए पण्णत्ते ? ३ उत्तर - गोयमा ! पभू णं विच्छुयजाइआसीविसे अद्धभरहप्रमाणमेत्तं बोंदिं विसेणं विसपरिगयं विसट्टमाणं पकरेत्तए, विसए से विसट्टयाए, णो चेव णं संपत्तीए करेंसु वा, करेंति, वा, करिस्संति वा । ४ प्रश्न - मंडुवकजाइआ सीविस - पुच्छा | ४ उत्तर - गोयमा ! पभू णं मंडुक्कजाइआसीविसे भरहप्प - माणमेत्तं बोंदिं विसेणं विसपरिगयं, सेसं तं चैव जाव करिस्संति वा । एवं उरगजाइआसी विसस्स वि, नवरं जंबुद्दीवप्पमाणमेचं बोदिं For Personal & Private Use Only Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ८ उ. २ आशीविष विसेणं विसपरिगयं, सेसं तं चैव जाव करिस्संति वा । मणुस्सजाइआसी विसस्स वि एवं चेव, णवरं समयखेत्तप्पमाणमेत्तं बादिं विसेणं विसपरिगयं, सेसं तं चैव जाव करिस्संति वा । १२८९ कठिन शब्दार्थ - - आसोविस -- आशीविष (प्राणियों की दाढ़ा में होने वाला विष) बोंदि --शरीर को, पभू --समर्थ, विसेणं-- विष से, विसपरिगथं - विष से व्याप्त, विसट्टमाण - विकसित होता हुआ, संपत्तीए - सम्प्राप्ति से । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! आशीविष कितने प्रकार का कहा गया है ? १ उत्तर - हे गौतम ! आशीविष दो प्रकार का कहा गया है । यथाजाति- आशीविष और कर्म आशीविष । २ प्रश्न - हे भगवन् ! जाति आशीविष कितने प्रकार का कहा गया है ? २ उत्तरर-- हे गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है । यथा१ वृश्चिक - जाति आशीविष, २ मण्डूक-जाति- आशीविष, ३ उरग-जाति-आशी• विष और ४ मनुष्य जाति आशीविष । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! वृश्चिक-जाति- आशीविष का कितना विषय कहा गया है, अर्थात् वृश्चिकजाति आशीविष का सामर्थ्य कितना है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! वृश्चिक जाति आशीविष अर्द्ध भरत क्षेत्र प्रमाण शरीर को विषयुक्त एवं विष से व्याप्त करने में समर्थ है। यह उस विष का सामर्थ्य मात्र है, परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा अर्थात् क्रियात्मक प्रयोग द्वारा उसने ऐसा कभी किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! मण्डूकजाति - आशीविष का विषय कितना है ? ४ उत्तर - हे गौतम! मण्डूकजाति - आशीविष अपने विष द्वारा भरतक्षेत्र प्रमाण शरीर को व्याप्त कर सकता है । यह उसका सामर्थ्य मात्र है, परन्तु सम्प्राप्ति द्वारा उसने ऐसा कभी किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं । उरगजाति- आशीविष जम्बूद्वीप प्रमाण शरीर को अपने विष द्वारा व्याप्त For Personal & Private Use Only Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९० भगवती सूत्र श. ८ उ. २ आशीविष कर सकता है । यह उसका सामर्थ्य मात्र है, किन्तु सम्प्राप्ति द्वारा उसने ऐसा कभी किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं । मनुष्य जाति - आशीविष, समय क्षेत्र प्रमाण ( मनुष्य-क्षेत्र प्रमाण - अढ़ाई द्वीप प्रमाण ) शरीर को अपने विष द्वारा व्याप्त कर सकता है । किन्तु यह उसका सामर्थ्य मात्र है । सम्प्राप्ति द्वारा उसने कभी ऐसा किया नहीं, करता नहीं और करेगा भी नहीं । ५ प्रश्न – जड़ कम्मआसीविसे किं णेरहयकम्मआसी विसे, तिरिक्खजोणिय कम्मआसीविसे, मणुस्तकम्मआसीविसे, देवकम्मासीविसे ? ५ उत्तर - गोयमा ! णो णेरइयकम्मासीविसे, तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे वि, मणुस्तकम्मासीवि से वि, देवकम्मासीविसे वि । ६ प्रश्न - जइतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं एगिंदियतिरिक्खजोणिय कम्मासीविसे, जाव पंचिंदियतिरिक्ख जोणियकम्मासीविने ? ६ उत्तर - गोयमा ! णो एगिंदियतिरिक्खजोणिय कम्मासी विसे, 'जाव णो चउरिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, पंचिंदियतिरिक्खजोणिय कम्मासीविसे | ७ प्रश्न - जइ पंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिय कम्मासीविसे, गव्भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्ख'जोणियकम्मासीविसे ? For Personal & Private Use Only Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ आशीविष ७ उत्तर - एवं जहा वेउव्वियसरीरस्स भेओ, जाव पज्जत्तसंखेजवासाउयगन्भवक्कंतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, णो अप ज्जत संखेजवा साउय - जाव कम्मासीविसे । ८ प्रश्न - जइ मणुस्सकम्मासीविसे किं संमुच्छिममणुस्तकम्मासीविसे, गन्भवक्कंतियमणुस्सकम्मासीविसे ? ८ उत्तर - गोयमा ! णो संमुच्छिममणुस्तकम्मासीविसे, गव्भवक्कं तियमणुस्मकम्मासीविसे, एवं जहा वेउव्वियसरीरं, जाव पजत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भववकंतियमणुस्सकम्मा सी विसे, णो अपज्जत्त जाव कम्मासीविसे । १२९१ ५ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि कर्म- आशीविष है, तो क्या नैरयिक कर्मआशीविष है, या तियंच-योनिक कर्म - आशीविष है, या मनुष्य कर्म - आशीविष है, या देव कर्म- आशीविष है ? ५ उत्तर - हे गौतम! नैरयिक कर्म आशीविष नहीं, किन्तु तिथंच योनिक कर्म अशीविष है, मनुष्य कर्म-आशीविष हे और देव कर्म - आशीविष है । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि तियंचयोनिक कर्म-आशीविष है, तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कर्म आशीविष है, अथवा यावत् पंचेंन्द्रिय तिर्यंच योनिक कर्म - आशीविष है ? ६ उत्तर - हे गौतम! एकेन्द्रिय, बेइंद्रिय, तेइन्द्रिय और चउरिन्द्रिय तियंचयोनिक कर्म - आशीविष नहीं, परन्तु पंचेंद्रिय तियंचयोनिक कर्म-आशीविष है । ७ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि पंचेंद्रिय तिर्यंचयोनिक कर्म - आशीविष हैं, तो क्या सम्मूच्छिम पंचेंद्रिय तियंचयोनिक कर्म आशीविष है, या गर्भज पंचेंद्रिय For Personal & Private Use Only Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९२ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ आशीविष तिर्यंचयोनिक कर्म - आशीविष है ? ७ उत्तर - हे गौतम ! प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें शरीर पद में वैक्रियशरीर के सम्बन्ध में जिस प्रकार कहा है, उसी प्रकार कहना चाहिये । यावत् पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाला गर्भज कर्मभूमिज पंचेन्द्रिय तियंचयोनिक कर्म - आशीविष होता है, परन्तु अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य बाला यावत् कर्म - आशीविष नहीं होता । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि मनुष्य कर्म - आशीविष है, तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्य कर्म - आशीविष है, या गर्भज मनुष्य कर्म-आशीविष है ? ८ उत्तर - हे गौतम! सम्मूच्छिम मनुष्य कर्म-आशीविष नहीं होता, किन्तु गर्भज मनुष्य कर्म आशीविष होता है प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें शरीर पद में वैक्रिय शरीर के सम्बन्ध में जिस प्रकार जीव के भेद कहे गये है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । यावत् पर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्य कर्म-आशीविष होते है, परन्तु अपर्याप्त संख्यात वर्ष की आयुवाले यावत् कर्म - आशीविष नहीं होते । ९ प्रश्न - जड़ देवकम्मासीविसे किं भवणवासिदेवकम्मासीविसे, जाव वेमाणियदेवकम्मासीविसे ? ९ उत्तर - गोयमा ! भवणवासिदेवकम्मासीविसे, वाणमंतरजोड़सिय-वेमाणियदेवकम्मासीविसे वि । १० प्रश्न- जइ भवणवासिदेवकम्मासीविसे, किं असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसे, जाव थणियकुमार जाव कम्मासीविसे ? १० उत्तर - गोयमा ! असुरकुमार भवणवासिदेवकम्मासीविसे For Personal & Private Use Only Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ आशीविष १२९३ वि, जाव थणियकुमार जाव कम्मासीविसे कि । ___११ प्रश्न-जइ असुरकुमार जाव कम्मासीविसे, किं पजत्त. असुरकुमार-भवणवासि-देवकम्मासीविसे, अपजत्तअसुरकुमार जाव कम्मासीविसे ? __ ११ उत्तर-गोयमा ! णो पजत्तअसुरकुमार-जाव कम्मासीविसे, अपजत्तअसुरकुमार जाव कम्मासीविसे, एवं जाव थणियकुमाराणं । ___ १२ प्रश्न-जइ वाणमंतरदेवकम्मासीविसे किं पिसायवाणमंतरदेवकम्मासीविसे ? १२ उत्तर-एवं सब्वेसि पि अपजत्तगाणं, जोइसियाणं सव्वेसि अपजत्तगाणं । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि देव कर्म-आशीविष होते हैं, तो क्या भवनवासी देव कर्म-आशीविष होते हैं, अथवा यावत् वैमानिक देव कर्म-आशीविष होते हैं। ९. उत्तर-हे गौतम ! भवनवासी, वाणव्यस्तर, ज्योतिषी और वैमानिक देव, ये चारों प्रकार के देव कर्म-आशीविष होते हैं। . १० प्रश्न-हे भगवन् ! यदि भवनवासी देव कर्म-आशीविष होते हैं, तो क्या असुरकुमार भवनवासी देव कर्म आशीविष होते हैं, अथवा यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देव कर्म-आशीविष होते हैं ? । १० उत्तर-हे गौतम ! असुरकुमार भवनवासी देव भी कर्म-आशीविष होते हैं, यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देव भी कर्म-आशीविष होते हैं। . ११ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि असुरकुमार यावत् स्तनितकुमार भवनवासी देव कर्म-आशीविष हैं तो क्या पर्याप्त असुरकुमारादि भवनवासी देव कर्म-आशी For Personal & Private Use Only Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९४ भगवती सूत्र - -श. ८ उ. २ आशीविष विष हैं, अथवा अपर्याप्त असुरकुमारादि भवनवासी देव कर्म आशीविष है? ११ उत्तर - हे गौतम ! पर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव कर्म- आशीविष नहीं, परन्तु अपर्याप्त असुरकुमार भवनवासी देव कर्म- आशीविष हैं । इस प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक जानना चाहिये । १२ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वाणव्यन्तर देव कर्म आशीविष हैं, तो क्या पिशाच वाणव्यन्तर देव कर्म-आशीविष हैं इत्यादि प्रश्न ? १२ उत्तर - हे गौतम ! वे सभी अपर्याप्त अवस्था में कर्म - आशीविष हैं । इस प्रकार सभी ज्योतिषी देव भी अपर्याप्त अवस्था में कर्म-आशीविष हैं । १३ प्रश्न - जइ वेमाणियदेवकम्मासीविसे किं कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, कप्पाईयवेमाणियदेवकम्मासीविसे ? १३ उत्तर - गोयमा ! कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, णो कप्पामाणि देवकम्मासीविसे । १४ प्रश्न - जइ कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे किं सोहम्मकप्पोवग जाव कम्मासीविसे, जाव अच्चुयकप्पोवग जाव कम्मा - सीविसे ? १४ उत्तर - गोयमा ! सोहम्म कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि, जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे वि णो आणय 9 कपोवग, जाव णो अच्चुयकष्पोव गरेमा णिय देवकम्मासीविसे । १५ प्रश्न - जइ सोहम्मकप्पोवग जाव कम्मासीविसे किं पज्जतसोहम्मक पोवगवेमाणिय, अपज्जत्त-सोहम्म कप्पोवग- वेमाणियदेव For Personal & Private Use Only Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ आशीविष कम्मासीविसे ? १५ उत्तर - गोयमा ! णो पज्जत्तसोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, अपज्जतसोहम्मकप्पोवगवेमाणियदे व कम्मासीविसे, एवं जाव णो पज्जत्तसहस्सारकप्पोवगवेमाणिय जाव कम्मासीविसे, अपज्जतसहस्सारकप्पोवग जाव कग्मासीविसे । १२६५ भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वैमानिक देव कर्म-आशीविष हैं, तो कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष हैं, या कल्पातीत वैमानिक देव कर्मआशीविष हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम ! कल्पोपपत्रक वैमानिक देव कर्म- आशीविष हैं । परन्तु कल्पातीत वैमानिक देव कर्म-आशीविष नहीं हैं । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि कल्पोपपत्रक वैमानिक देव कर्म-आशीविष हैं, तो क्या सौधर्म- कल्पोपपत्रक वैमानिक देव कर्म- आशीविष हैं, अथवा यावत् अच्युत - कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष हैं ? १४ उत्तर - हे गौतम! सौधर्म - कल्पोपपन्नक वैमानिक देव यावत् सहस्रारredtures वैमानिक देव कर्म आशीविष हैं । परन्तु आणत, प्राणत, आरण और अच्युत कल्पोपपन्नक वैमानिक देव, कर्म-आशीविष नहीं हैं । १५ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि सौधर्म कल्पोपपत्रक वैमानिक देव कर्मआशीविष हैं, तो तो क्या पर्याप्त सौधर्म- कल्पोपन्नक वैमानिक देव कर्म-आशीविष हैं, अथवा अपर्याप्त सौधर्म - कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म आशीविष हैं ? .१५ उत्तर - हे गौतम ! पर्याप्त सौधर्म- कल्पोपपत्रक देव कर्म-आशीविष नहीं, परन्तु अपर्याप्त सौधर्म कल्पोपपन्नक वैमानिक देव कर्म आशीविष हैं । इस प्रकार यावत् पर्याप्त सहस्रार-कल्पोपन्नक वैमानिक देव कर्म आशीविष नहीं । परन्तु अपर्याप्त सहस्रार कल्पोपपक वैमानिक देव कर्म-आशीविष हैं । For Personal & Private Use Only Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९६. भगवती सूत्र-श..८ उ. २ छमस्थ द्वारा अज्ञेय विवेचन-आशीविष-'आशी' का अर्थ है-'दाढ़' (दंष्ट्रा) । जिन जीवों की दाढ़ में विष होता है, उनको 'आशीविष' कहते हैं । आशीविष प्राणियों के दो भेद हैं-१ जातिआशीविष और २ कम-आशीविष । सांप, विच्छ आदि प्राणी जाति (जन्म) से ही आशीविष होते हैं । इसलिये उन्हें 'जाति-आशीविष' कहते हैं । जो कर्म अर्थात् शाप (श्राप) आदि द्वारा प्राणियों का नाश करते हैं, उन्हें 'कर्म-आशीविष' कहते हैं। पर्याप्त तियंच पंचें. द्रिय और मनुष्य को तपश्चर्या आदि से अथवा अन्य किसी गुणों के कारण 'आशीविष लब्धि उत्पन्न हो जाती है। इसलिये वे शाप देकर दूसरे का नाश करने की शक्तिवाले होते हैं। ये जीव आशीविष लब्धि के स्वभाव से आठवें देवलोक से आगे उत्पन्न नहीं हो सकते। उन्होंने पूर्व-भव में आशीविष-लब्धि का अनुभव किया था। अतः वे देव, अपर्याप्त अवस्था में आशीविष युक्त होते हैं । इन विषों का जो विषय परिमाण बतलाया गया है, उसका आशय यह है कि असत्कल्पना से जैसे किसी मनुष्य ने अपना शरीर अर्द्ध भरत प्रमाण बनाया हो, उसके पर में बिच्छू डंक दे, तो उसके मस्तक तक उसका जहर चढ़ जाता है । इसी प्रकार भरत प्रमाण, जम्बूद्वीप प्रमाण और ढाई द्वीप प्रमाण का अर्थ समझना चाहिये । यह इनका सामर्थ्यमात्र है, परन्तु इन्होंने ऐसा कभी किया नहीं, करते नहीं और करेंगे भी नहीं । छद्मस्थ द्वारा अज्ञेय १६ दस ठाणाइं छउमत्थे सवभावेणं ण जाणइ ण पासइ, तं जहा-१ धम्मत्थिकायं, २ अधम्मत्थिकायं, ३ आगासत्थिकायं, ४ जीवं असरीरपडिवळू, ५ परमाणुपोग्गलं, ६ सदं, ७ गंध, ८ वायं, ९ अयं जिणे भविस्सइ वा ण वा भविस्सइ, १० अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा ण वा करेस्सइ । एयाणि चेव उप्पण्णणाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ For Personal & Private Use Only Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ छद्द्मस्य द्वारा अज्ञेय पास, तं जहा - धम्मत्थिकार्य, जाव करेस्सह वा ण वा करेस्सह । कठिन शब्दार्थ - छउमत्थे – छद्मस्थ ( जो सर्वज्ञ नहीं = अपूर्ण ज्ञानी) सब्वभावेणंसभी भावों से अर्थात् अनन्त पर्यायों से । भावार्थ - - १६ छद्मस्थ पुरुष इन दस वस्तुओं को सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता । यथा-- १ धर्मास्तिकाय २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ शरीर रहित जीव, ५ परमाणु पुद्गल, ६ शब्द, ७ गन्ध ८ वायु, ९ यह जीव जिन होगा या नहीं, १० यह जीव सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं। इन दस बातों को उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक, अरिहन्त - जिनकेवल ही सर्वभाव से जानते और देखते है । यथा-धर्मास्तिकाय यावत् यह जीव समस्त दुःखों का अन्त करेगा या नहीं । १२६७ विवेचन- - छमस्थ का सामान्यतया अर्थ है- 'केवलज्ञान रहित' । किन्तु यहाँ पर छद्मस्थ का अर्थ है- 'अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञान रहित ।' क्योंकि विशिष्ट अवधिज्ञानी अमूर्त होने से धर्मास्तिकाय आदि को नहीं जानता नहीं देखता, किन्तु परमाणु आदि मूर्त हैं, उनको वह जानता है। क्योंकि विशिष्ट अवधिज्ञान का विषय सर्वमूर्त द्रव्य है । यहाँ यदि कोई यह शंका करे कि छद्मस्थ, परमाणु आदि को कथंचित् जानता है, परन्तु समस्त पर्यायों से नहीं जानता, इसलिये मूलपाठ में - 'सव्व भावेणं ण जाणइ ण पास '-- कहा है, अर्थात् ' वह सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता।' इसका उत्तर यह है कि यदि इसका ऐसा अर्थ किया जायेगा, तो छद्मस्थ के लिये अज्ञेय दस संख्या का नियम नहीं रहेगा। क्योंकि घटादि बहुत पदार्थों को छद्मस्थ, अनन्त पर्याय रूप से जानने में असमर्थ है । इसलिये 'सव्वभावेणं' अर्थात् सर्व-भाव का अर्थ है - 'साक्षात् ' ( प्रत्यक्ष ) 1 यह अर्थ करने से ही इस सूत्र का अर्थ संगत होगा कि 'अवध्यादि विशिष्ट ज्ञान रहित छद्मस्थ, धर्मास्तिकाय आदि दस वस्तुओं को प्रत्यक्ष रूप से नहीं जानता और नहीं देखता । इन दस बातों को जानने वाले का कथन करते हुए कहा है कि उत्पन्न केवलज्ञान-दर्शन के धारक अरिहन्त - जिन के वली, केवलज्ञान के द्वारा इन दस बातों को सर्वभाव से अर्थात् साक्षात् रूप से जानते हैं और देखते हैं । For Personal & Private Use Only Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२९८ भगवती सूत्र--श. ८ उ. २ ज्ञान के भेद ज्ञान के भेद १७ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! णाणे पण्णत्ते ? १७ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे णाणे पण्णत्ते, तं जहा-आभिणिबोहियणाणे, सुयणाणे, ओहिणाणे, मणपज्जवणाणे, केवलणाणे। ___१८ प्रश्न-से किं तं आभिणिबोहियणाणे ? १८ उत्तर-आभिणिवोहियणाणे चउविहे पण्णत्ते, तं जहाउग्गहो, ईहा, अवाओ, धारणा; एवं जहा 'रायप्पसेणइजे' णाणाणं भेओ तहेव इह भाणियव्वो; जाव सेतं केवलणाणे। कठिन शब्दार्थ--उग्गहो-अवग्रह (सम्बन्ध मात्र होने वाला एक समय मात्र के लिए संबंध से होने वाला, आभास) ईहा--विचार करना, अवाओ--विचार कर निश्चित करना, धारणा--स्मृति में रखना। भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! ज्ञान पांच प्रकार का कहा गया है । यथाआभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । .. १८ प्रश्न-हे भगवन् ! आमिनिबोधिकज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! आभिनिबोधिक ज्ञान चार प्रकार का कहा गया है । यथा-अवग्रह, ईहा, अवाय (अपाय) और धारणा । जिस प्रकार राजप्रश्नीय सूत्र में ज्ञान के भेद कहे गये हैं, उसी प्रकार यावत् केवलज्ञान पर्यन्त कहना चाहिये। . . .. १९ प्रश्न-अण्णाणे णं भंते ! काविहे पण्णते ? For Personal & Private Use Only Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श. ८ उ. २ ज्ञान के भेद १९ उत्तर - गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - महअण्णाणे, सुयअण्णाणे, विभंगणाणे । १२९९ २० प्रश्न - से किं तं महअण्णाणे ? २० उत्तर - महअण्णाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा - उग्गहे जाव धारणा । २१ प्रश्न - से किं तं उग्गहे ? २१ उत्तर - उग्गहे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - अत्थोग्गहे य वंजगोग्गहे य, एवं जहेव आभिणिबोहियणाणं तहेव, णवरं एगट्टिय जाव नोइंदियधारणा । सेत्तं धारणा, सेत्तं मइअण्णाणे । २२ प्रश्न - से किं तं सुयअण्णाणे ? २२ उत्तर - जं इमं अण्णाणिएहिं मिच्छादिट्टिएहिं जहा गंदीए जाव चत्तारि वेया संगोवंगा, सेत्तं सुयअण्णाणे । २३ प्रश्न - से किं तं विभंगणाणे ? २३ उत्तर-विभंगणाणे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - गामसंठिए, णयरसंठिए, जाव सण्णिवेससंठिए, दीवसंठिए समुद्दसंठिए, वाससंठिए, वासहरसंठिए, पव्वयसंठिए, रुक्खसंठिए, थूभसंठिए, हयसंठिए, गयसंठिए णरसंठिए, किण्णरसंठिए, किंपुरिससंठिए महोरगसंठिए, गंधव्वसंठिए, उसभसंठिए, पसु-पसय-विहग- वाणर-णाणासंठा णसंठिए पण्णत्ते । For Personal & Private Use Only Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान के मंद कठिन शब्दार्थ - संगोवंगा - सांगोपांग-अंग उपांग सहित, अत्थोग्गहे - अर्थ अवग्रह वंजणोग्गहे - -- व्यञ्जन अवग्रह, एगट्ठियवज्जं - एकाधिक छोड़कर, नोइंदिय--मन, वाससंठिए -- वर्ष के आकार का, वासहरसंठिए — वर्षधर पर्वत के आकार, थूभसंठिए - - स्तूप के आकार का, हयसंठिए - घोड़े के आकार का, गय--- हाथी, पसु -- पशु, पसय-- पशुविशेष (दो खुरवाला पशु), विहग -- पक्षी । भावार्थ - १९ प्रश्न - हे भगवन् ! अज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? १९ उत्तर - हे गौतम ! अज्ञान तीन प्रकार का कहा गया है । यथा-मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान । १३०० २० प्रश्न - हे भगवन् ! मतिअज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? २० उत्तर - हे गौतम! मतिअज्ञान चार प्रकार का कहा गया है । यथा"अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । २१ प्रश्न - हे भगवन् ! अवग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? २१ उत्तर - हे गौतम ! अवग्रह दो प्रकार का कहा गया है । यथा-अर्थावग्रह और व्यंजनावग्रह। जिस प्रकार नन्दोसूत्र में आभिनिबोधिक ज्ञान के विषय में कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी जान लेना चाहिये । किन्तु वहां अभिनिबधिक ज्ञान के प्रकरण में अवग्रह आदि के एकाधिक (समानार्थक ) शब्द कहे है । उनको छोड़कर यावत् नोइन्द्रिय धारणा तक कहना चाहिये । इस प्रकार धारणा का और मतिअज्ञान का यह कथन किया गया है । • २२ प्रश्न - हे भगवन् ! श्रुतअज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? २२ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार नन्दी सूत्र में कहा है- 'जो अज्ञानी 'मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्ररूपित है,' इत्यादि यावत् सांगोपांग चार वेद तक श्रुत: अज्ञान है । इस प्रकार यह श्रुतअज्ञान का वर्णन किया गया है । : २३ प्रश्न - हे भगवन् ! विभंगज्ञान कितने प्रकार का कहा गया है ? २३ उत्तर - हे गौतम ! विभंगज्ञान अनेक प्रकार का कहा गया है । - यथा - ग्रामसंस्थित अर्थात् ग्राम के आकार, नगर संस्थित अर्थात् नगर के आकार यावत् सन्निवेश संस्थित, द्वीप संस्थित, समुद्र संस्थित, वर्ष संस्थित ( भरतादि क्षेत्र For Personal & Private Use Only Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान के भेद १३०१ के आकार), वर्षधर संस्थित (क्षेत्र की मर्यादा करने वाले पर्वतों के आकार), सामान्य पर्वताकार, वृक्ष के आकार, स्तूप के आकार, घोडे के आकार, हाथी के आकार, मनुष्य के आकार, किन्नर के आकार, किम्पुरुष के आकार, महोरग के आकार, गन्धर्व के आकार, वृषभ (बैल) के आकार, पशु के आकार, पशय अर्थात् दो खुर वाले एक प्रकार के जंगली जानवर के आकार, विहग अर्थात् पक्षी के आकार और वानर के आकार, इस प्रकार विभंगज्ञान, नाना संस्थान संस्थित कहा गया है। २४ प्रश्न-जीवाणं भंते ! किं पाणी अण्णाणी ? २४ उत्तर-गोयमा ! जीवा गाणी वि अण्णाणी वि; जे णाणी ते अत्थेगइया दुण्णाणी अत्थेगइया तिण्णाणी, अत्थेगइया चउणाणी, अत्थेगइया एगणाणी । जे दुण्णाणी ते आभिणिबोहियणाणी य सुयणाणी य । जे तिण्णाणी ते आणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी: अहवा आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी,मणपजवणाणी। जे चउणाणी ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी, जे एगणाणी ते णियमा केवलणाणी। जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दुअण्णाणी, अत्थेगइया तिअण्णाणी । जे दुअण्णाणी ते मइअण्णाणी सुयअण्णाणी य । जे तिअण्णाणी ते मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी विभंगणाणी। कठिन शब्दार्थ-- अत्यंगइया-कुछ लोग (कितने ही)। भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव ज्ञानी है, या अज्ञानी है ? २४ उत्तर-हे गौतम ! जीव ज्ञानी भी है और अज्ञानी भी है । जो जीव For Personal & Private Use Only Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान के भेद ज्ञानी हैं, उनमें से कुछ जीव, दो ज्ञान वाले हैं, कुछ जीव तीन ज्ञान वाले हैं, कितनेक जीव चार ज्ञान वाले हैं और कुछ जीव एक ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञान और श्रुतज्ञान वाले है । जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं, अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मनःपर्ययज्ञान वाले हैं। जो जीव चार ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान वाले हैं। जो जीव, एक ज्ञान वाले हैं, वे अवश्य ही केवलज्ञान वाले हैं । जो जीव अज्ञानी हैं, उनमें कुछ जीव दो अज्ञान वाले हैं और कुछ जीव तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं, वे मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान वाले हैं । जो तीन अज्ञान वाले हैं, वे मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान और विभंगज्ञान वाले हैं। विवेचन-आभिनिबोधिक ज्ञानं (मतिज्ञान) इन्द्रिय और मन की सहायता से, योन्य देश में रही हुई वस्तु को जानने वाला ज्ञान 'आभिनिबोधिक ज्ञान' कहलाता है। श्रुतज्ञान-वाच्य वाचक भाव सम्बन्ध द्वारा शब्द से सम्बद्ध अर्थ को ग्रहण कराने वाला, इन्द्रिय मन कारणक ज्ञान श्रुतज्ञान है । जैसे-इस प्रकार कम्बुग्रीवादि आकार वाली वस्तु जलधारणादि क्रिया में समर्थ है और 'घट' शब्द से कही जाती है, इत्यादि रूप से शब्दार्थ की पर्यालोचना के बाद होने वाले कालिक सामान्य परिणाम को प्रधानता देने वाला ज्ञान, श्रुतज्ञान है। अथवामतिज्ञान के अनन्तर होने वाला और शब्द तथा अर्थ की पर्यालोचना जिसमें हो ऐसा ज्ञान 'श्रुतज्ञान' कहलाता है । जैसे कि-घट शब्द के सुनने पर अथवा आँख से घड़े के देखने पर उसके बनाने वाले का, उसके रंग का और इसी प्रकार तत् सम्बन्धी भिन्न-भिन्न विषयों का विचार करना 'श्रुतज्ञान' है। _अवधिज्ञान-इन्द्रिय तथा मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिये हुए रूपी द्रव्य का ज्ञान करना-'अवधिज्ञान' कहलाता है। मनःपर्ययज्ञान-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना मर्यादा को लिये हुए, संज्ञी जीवों के मनोगत भावों को जानना-'मनःपर्यय ज्ञान' है। केवलज्ञान-मति आदि ज्ञान की अपेक्षा विना त्रिकाल एवं त्रिलोकवर्ती समस्त पदार्थों का युगपत् हस्तामलकवत् जानना 'केवलज्ञान' है। मतिज्ञान के चार भेद-१ अवग्रह, २ ईहा, ३ अवाय, और ४ धारणा। For Personal & Private Use Only Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान के भेद अवग्रह - इन्द्रिय और पदार्थों के योग्य स्थान में रहने पर सामान्य प्रतिभास रूप दर्शन के बाद होने वाला, अवान्तर सत्ता सहित वस्तु के सर्व प्रथम ज्ञान को 'अवग्रह' कहते हैं । जैसे -दूर से किसी चीज का ज्ञान होना । 1 - ईहा- अवग्रह से जाने हुए पदार्थ के विषय में उत्पन्न हुए संशय को दूर करते हुए विशेष की जिज्ञासा को 'ईहा' कहते हैं। जैसे- अवग्रह से किसी दूरस्थ वस्तु का ज्ञान होने पर संशय होता है कि 'यह दूरस्थ वस्तु मनुष्य है, या स्थाणु ।' ईहा ज्ञानवान् व्यक्ति, विशेष धर्म विषयक विचारणा द्वारा इस संशय को दूर करता है और यह जान लेता हैं कि यह मनुष्य होना चाहिये । यह ज्ञान, दोनों पक्षों में रहने वाले संशय को दूर कर एक ओर झुकता है । परन्तु यह इतना कमजोर होता है कि ज्ञाता को इससे पूर्ण निश्चय नही होता और उसको तद्विषयक निश्चयात्मक ज्ञान की आकांक्षा वनी ही रहती है । १३०३ अवाय - ईहा से जाने हुए पदार्थों में ' यह वही है, अन्य नहीं हैं," ऐसे निश्चयात्मक ज्ञान को 'अवाय' कहते हैं । जैसे - यह मनुष्य है, स्थाणु (ठूंठ ) नहीं । धारणा — अवाय से जाना हुआ पदार्थों का ज्ञान, इतना दृढ़ हो जाय कि कालान्तर में भी उसका विस्मरण न हो, तो उसे 'धारणा' कहते हैं । अवग्रह के दो भेद हैं । १ अर्थावग्रह और २ व्यञ्जनावग्रह | अर्थावग्रह-पदार्थ के अव्यक्त ज्ञान को अर्थावग्रह कहते हैं । अर्थावग्रह में पदार्थ के वर्ण, गन्ध आदि का अव्यक्त ज्ञान होता है। इसकी स्थिति एक समय की है । व्यञ्जनावग्रह - अर्थावग्रह से पहले होने वाला अत्यन्त अव्यक्त ज्ञान 'व्यञ्जनावग्रह' हैं । तात्पर्य यह है कि इन्द्रियों का पदार्थ के साथ जब सम्बन्ध होता हैं, तब 'किमपीदम्' ( यह कुछ है ) । ऐसा अस्पष्ट ज्ञान होता है । यही ज्ञान अर्थावग्रह है । इससे पहले होने वाला अत्यन्त अस्पष्ट ज्ञान. व्यञ्जनावग्रह कहलाता है। दर्शन के बाद व्यंजनावग्रह होता है । यह चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों से ही होता है । इसकी जघन्य स्थिति आवलिका के असंख्यातवें भाग की है और उत्कृष्ट 'से नव श्वासोच्छ्वास की है । नन्दीसूत्र में अवग्रह आदि के पांच पांच एकार्थक नाम दिये गये हैं । यथा - अवग्रह के पांच नाम-१ अवग्रहणता, २ उपाधारणता, ३ श्रवणता, ४ अवलम्बनता, ५ मेघा । ईहा के पांच नाम- १ आभोगनता, २ मार्गणता, ३ गवेषणता, ४ चिन्ता, ५ विमर्श । अवाय के पांच नाम- १ आवर्तनता, २ प्रत्यावर्तनता, ३ अवाय, ४ बुद्धि, ५ विज्ञान । धारणा के पांच नाम- १ धरणा, २ धारणा, ३ स्थापना, ४ प्रतिष्ठा, ५ कोष्ठ । ये सब मिलाकर बीस भेद For Personal & Private Use Only Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०४ भगवती सूत्र - उ. २ ज्ञानो अज्ञानी होते हैं । इन की स्थिति इस प्रकार बतलाई गई है । उग्गहे इक्कसमइए, अंतोमुहुत्तिया ईहा । अंतोमुहुत्तिए अवाए, धारणा संखेज्जं वा कालं असंखेज्जं वा कालं । अर्थ - अवग्रह की स्थिति एक समय की है। ईहा की अन्तर्मुहूर्त की अवाय की अन्तर्मुहूर्त की और धारणा की स्थिति संख्यात वर्ष की आयुष्य वालों की अपेक्षा संख्यात काल की है और असंख्यात वर्ष की आयुष्य वालों की अपेक्षा असंख्यात काल की है। श्रुतज्ञान के अक्षरश्रुत, अनक्षरश्रुत आदि चौदह भेद हैं । अवधिज्ञान के भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय - ये दो भेद हैं । मनः पर्यवज्ञान के ऋजुमति और विपुलमति — ये दो भेद हैं । केवलज्ञान का दूसरा कोई भेद नहीं है । यह एक ही भेद वाला है । मतिज्ञान से विपरीत ज्ञान को 'मतिअज्ञान' कहते हैं । अर्थात् अविशेषित मति, सम्यग् - दृष्टि के लिये मतिज्ञान है और मिथ्यादृष्टि के लिये मतिअज्ञान है । इसी तरह अविशेषित श्रुत, सम्यग्दृष्टि के लिये श्रुतज्ञान है और मिथ्यादृष्टि के लिये 'श्रुतअज्ञान' है । अवधिज्ञान से विपरीत ज्ञान को 'विभंगज्ञान' कहते हैं । ज्ञान में अवग्रह आदि के एकार्थक नाम कहे गये हैं, वे यहाँ अज्ञान के प्रकरण में नहीं कहने चाहिये । ज्ञानी अज्ञानी २५ प्रश्न - रइया णं भंते! किं णाणी, अण्णाणी ? २५ उत्तर - गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि । जे गाणी ते णियमा तिष्णाणी, तं जहा - आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी | जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दुअण्णाणी, अत्थेगइया तिअण्णाणी; एवं तिणि अण्णाणाणि भयणाए । २६ प्रश्न - असुरकुमारा णं भंते ! किं णाणी, अण्णाणी ? For Personal & Private Use Only Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञानी अज्ञानी १३०५ २६ उत्तर-जहेव णेरड्या तहेव, तिण्णि गाणाणि णियमा, तिण्णि य अण्णाणाणि भयणाए, एवं जाव थणियकुमारा । कठिन शब्दार्थ--मयणाए-मजना से (विकल्प से)। भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ___२५ उत्तर-हे गौतम ! नरयिक जीव ज्ञानी भी है और अज्ञानी भी हैं। उनमें जो ज्ञानी हैं, वे नियमा (अवश्य) तीन ज्ञान वाले होते हैं । यथा-मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी। उनमें जो अज्ञानी हैं, उनमें से कुछ दो अज्ञान वाले हैं, और कुछ तीन अज्ञान वाले हैं। इस प्रकार तीन अज्ञान भजना (विकल्प) से होते हैं। २६ प्रश्न-हे भगवन् ! असुरकुमार ज्ञानी हैं या अज्ञान है ? २६ उत्तर-है गौतम ! जिस प्रकार नरयिकों का कथन किया गया है, उसी प्रकार असुरकुमारों का भी कथन करना चाहिये । अर्थात् जो ज्ञानी हैं, वे . अवश्य ही तीन ज्ञान गले हैं और जो अज्ञानी हैं, वे भजना से तीन अज्ञान वाले हैं। इस प्रकार स्तनितकुमारों तक कहना चाहिये। २७ प्रश्न-पुढविकाइया णं भंते ! किं णाणी, अण्णाणी ? २७ उत्तर-गोयमा ! णो णाणी, अण्णाणी । जे अण्णाणी ते णियमा दुअण्णाणी-मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य। एवं जाव वणस्सइकाइया। २८ प्रश्न-बेइंदियाणं पुच्छा। २८ उत्तर-गोयमा ! गाणी वि अण्णाणी वि । जे णाणी ते णियमा दुग्णाणी, तं जहा-आभिणिबोहियणाणी य सुयणाणी य । For Personal & Private Use Only Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १३०६ भगवती सूत्र-शः ८ उ. २ नरयिक आदि में ज्ञानी अज्ञानी जे अण्णाणी ते णियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य । एवं तेइंदिय-चउरिंदिया वि । ___२९ प्रश्न-पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। २९ उत्तर-गोयमा ! गाणी वि अण्णाणी वि । जे णाणी ते अत्थेगइया दुण्णाणी,. अत्थेगइया तिण्णाणी । एवं तिण्णि णाणाणि तिण्णि अण्णाणाणि य भयणाए। मणुस्सा जहा जीवा, तहेव पंच णाणाई तिण्णि अण्णाणाणि य भयणाए। वाणमंतरा जहा गैरइया । जोइसिय-वेमाणियाणं तिण्णि णाणाणि तिण्णि अण्णाणाणि णियमा । ३० प्रश्न-सिद्धाणं भंते ! पुच्छा ? ३० उत्तर-गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी, णियमा एगणाणी केवलणाणी । भावार्थ-२७ प्रश्न-हे भगवन ! पृथ्वीकायिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? २७ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी नहीं, किन्तु अज्ञानी हैं । वे नियमा दो अज्ञान वाले हैं। यथा-मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान । इस प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक पर्यन्त कहना चाहिये। २८ प्रश्न-हे भगवन् ! बेइंद्रिय जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी है ?. २८ उत्तर--हे गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियमा दो ज्ञान वाले हैं। यथा-मतिज्ञान और श्रुतज्ञान । जो अज्ञानी है, वे नियमा दो अज्ञान (मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान) वाले हैं। इस प्रकार तेइंद्रिय और चौइन्द्रिय जीवों के विषय में भी कहना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार १३०७ २९ प्रश्न - हे भगवन् ! पञ्चाद्रय तिर्यञ्च योनिक जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? २९ उत्तर-- हे गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी है। जो ज्ञानी हैं उनमें से कितने ही दो ज्ञान वाले हैं और कितने ही तीन ज्ञान वाले हैं । इस प्रकार तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से जानने चाहिये । औधिक जीवों के समान मनुष्यों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं । वाणव्यन्तरों का कथन नैरयिकों के समान जानना चाहिए। ज्योतिषो और वैमानिकों में नियमा तीन ज्ञान और तीन अज्ञान होते हैं । ३० प्रश्न - हे भगवन् ! सिद्ध भगवान् ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ३० उत्तर - हे गौतम! सिद्ध भगवान् ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं । वे नियमा एक केवलज्ञान वाले हैं ।, विवेचन - - सम्यग्दृष्टि नैरयिक जीवों को भवप्रत्यय अवधिज्ञान होता है । इसलिये वे नियमा ( अवश्य ) तीन ज्ञान वाले होते हैं । जो अज्ञानी होते हैं, उनमें कितने ही दो अज्ञान वाले होते हैं । जब कोई असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, नरक में उत्पन्न होता है, तब उसको अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता । इसलिये दो अज्ञान ही होते हैं । जो मिथ्यादृष्टि संज्ञौ पञ्चेन्द्रिय, नरक में उत्पन्न होता है, तो उसको अपर्याप्त अवस्था में भी विभंगज्ञान होता है । इसलिये उसकी अपेक्षा तीन अज्ञान कहे गये हैं । इन्द्रिय, इन्द्रिय और चौइन्द्रिय जीवों में जिस औपशमिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य ने अथवा तिर्यञ्च ने, विकलेन्द्रिय का आयुष्य पहले बांध लिया है, वह उपशम समकित का वमन करता हुआ उनमें उत्पन्न होता है । उस जीव को अपर्याप्त अवस्था में सास्वादन सम्यग्दर्शन होता है । वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह आवलिका तक रहता है, तबतक वह ज्ञानी कहलाता है। इसके बाद वह मिथ्यात्व को प्राप्त होकर अज्ञानी बन जाता है । इसलिये विकलेन्द्रियों में ज्ञान का कथन किया गया है । ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार ३१ प्रश्न - णिरयगइया णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? For Personal & Private Use Only Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०८ भगवती सूत्र---श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार ___३१ उत्तर-गोयमा ! णाणी वि अण्णाणी वि; तिण्णि णाणाई णियमा, तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए । ३२ प्रश्न-तिरियगइया णं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? ३२ उत्तर-गोयमा ! दो णाणा, दो अण्णाणा णियमा । ३३ प्रश्न-मणुस्सगइया णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? ३३ उत्तर-गोयमा ! तिण्णि णाणाई भयणाए, दो अण्णाणाई णियमा । देवगइया जहा णिरयगइया । ३४ प्रश्न-सिद्धगइया णं भंते ! ३४ उत्तर-जहा सिद्धा। कठिन शब्दार्थ--णिरयगइया--नरक गति में जाते हुए। भावार्थ-३१ प्रश्न-हे भगवन् ! निरयगतिक (नरक में जाते हए) जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ___३१ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी है । जा जानी हैं, वे नियमा तीन ज्ञान वाले हैं और जो अताती हैं, वे भजना से जीन अज्ञान वाले हैं। ३२ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यञ्चगतिक (तियंञ्चगति में जाते हुए) जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! उनको नियमा दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं। ३३ प्रश्न-हे भगवन् ! मनुष्यगतिक जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ३३ उत्तर-हे गौतम! उनको भजना से तीन ज्ञान होते हैं और नियमा दो अज्ञान होते है । देवगतिक जीवों का वर्णन, निरयगतिक जीवों के समान जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार १३०९ ३४ प्रश्न-हे भगवन् ! सिद्धगतिक जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ?! ३४ उत्तर-हे गौतम ! उनका कथन सिद्धों की तरह करना चाहिये अर्थात् वे नियमा एक केवलज्ञान वाले होते हैं। ३५ प्रश्न-सइंदिया णं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? ३५ उत्तर-गोयमा ! चत्तारि णाणाई, तिणि अण्णाणाई भयणाए। ३६ प्रश्न-एगिदिया णं भंते ! जीवा किं णाणी० ? ३६ उत्तर-जहा पुढविक्काइया, बेइंदिय तेइंदिय-चउरिंदिया । दो णाणा, दो अण्णाणा णियमा । पंचिंदिया जहा सइंदिया । . ३७ प्रश्न-अणिदिया णं भंते ! जीवा किं णाणी० ? - ३७ उत्तर-जहा सिद्धा। ३८ प्रश्न-सकाइया णं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? ३८ उत्तर-गोयमा ! पंच णाणाणि तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया णो णाणी, अण्णाणी, णियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य । तसकाइया जहा सकाइया । ३९ प्रश्न-अकाइया णं भंते ! जीवा किं णाणी ? ३९ उत्तर-जहा सिद्धा। . कठिन शब्दार्थ-अकाइया-(जिनके काया-शरीर नहीं, ऐसे सिद्ध)। भावार्थ-३५ प्रश्न-हे भगवन् ! सेन्द्रिय (इन्द्रिय वाले) जीव ज्ञानी हैं, For Personal & Private Use Only Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१० भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान को भजना. के बीस द्वार या अज्ञानी हैं ? ..३५ उत्तर-हे गौतम ! उनको भजना से चार ज्ञान और तीन अज्ञान होते हैं। ३६ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेन्द्रिय जीव, ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? .३६ उत्तर-हे गौतम ! एकेन्द्रिय जीवों का कथन (सत्ताईसवें सूत्र में कथित) पृथ्वीकायिक जीवों की तरह कहना चाहिये । बेइंद्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों में नियमा दो ज्ञान या दो अज्ञान होते हैं । पञ्चेन्द्रिय जीवों का कथन सइन्द्रिय जीवों की तरह जानना चाहिये । ३७ प्रश्न-हे भगवन् ! अनिन्द्रिय (इन्द्रिय रहित) जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! उनका कथन सिद्ध जीवों (३० वें सूत्र) की तरह जानना चाहिये। ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! सकायिक जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! सकायिक जीवों को पांच ज्ञान' और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं। वे नियना दो अज्ञान (मति-अज्ञान और श्रुतअज्ञान) वाले हैं। सकाधिक जीवों का कयन सकायिक जीवों की तरह जानना चाहिये। ३९ प्रश्न-हे भगवन् ! अकायिक (काया रहित) जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ३९ उत्तर-हे गौतम ! इनका कथन सिद्धों की तरह जानना चाहिये ? ४० प्रश्न-सुहमा णं भंते ! जीवा किं णाणी ? ४० उत्तर-जहा पुढविक्काइया । ४१ प्रश्न-बायरा णं भंते ! जीवा किं णाणी०? .. ४१ उत्तर-जहा सकाइया । For Personal & Private Use Only Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार १६११ ४२ प्रश्न-णोसुहमा णोवायरा णं भंते ! जीवा० ? ४२ उत्तर-जहा सिद्धा। कठिन शब्दार्थ-णोसुहमा णोबायरा-जो न तो सूक्ष्म हैं और न बादर हैं (सिद्ध) । भावार्थ-४० प्रश्न-हे भगवन् ! सूक्ष्म जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ४० उत्तर-हे गौतम ! इनका कथन पथ्वीकायिक जीवों के समान जानना चाहिये। ४१ प्रश्न-है भगवन् ! बादर जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ४१ उत्तर-हे गौतम ! इनका कथन सकायिक जीवों के समान जानना चाहिये। ४२ प्रश्न-हे भगवन् ! नोसूक्षन नोबादर जीव, ज्ञानी है, या अज्ञानी ? ४२ उत्तर-हे गौतम । इनका कथन सिद्ध जीवों की तरह जानना चाहिये। ४३ प्रश्न-पजत्ता णं भंते ! जीवा किं णाणी ? ४३ उत्तर-जहा सकाइया । ४४ प्रश्न-पजत्ता णं भंते ! णेरड्या किं णाणी ? ४४ उत्तर-तिण्णि णाणा, तिण्णि अण्णाणा णियमा, जहा रइआ, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया जहा एगिदिया । एवं जाव चउरिदिया । ४५ प्रश्न-पजत्ता णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं णाणी अण्णाणी ? ४५ उत्तर-तिण्णि णाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए। मणुस्सा For Personal & Private Use Only Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार जहा मकाइया । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा णेरइया । ४६ प्रश्न-अपजत्ता णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? ४६ उत्तर-तिण्णि णाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए । ४७ प्रश्न-अपजत्ता णं भंते ! णेरड्या किं णाणी, अण्णाणी ? ४७ उत्तर-तिणि णाणा णियमा, तिणि अण्णाणा भय. णाए । एवं जाव थणियकुमारा । पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया जहा एगिदिया। भावार्थ-४३ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं? ४३ उत्तर--हे गौतम ! इनका कथन सकायिक जीवों के समान जानना चाहिये। ४४ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त नरयिक जीव ज्ञानी है; या अज्ञानी है ? ४४ उत्तर-हे गौतम ! इनको नियमा तीन ज्ञान या तीन अज्ञान होते हैं। नरयिक जीवों के कथन के समान यावत् स्तनितकुमार देवों तक जानना चाहिये । पृथ्वीकायिक जीवों का कथन और बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय तक के जीवों का कथन एकेन्द्रिय (सू. ३६ में कथित) जीवों के समान जानना चाहिये। ४५ प्रश्न-हे भगवन् ! पर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ४५ उत्तर-हे गौतम ! इनके तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। मनुष्यों का कथन सकायिक (सू. ३८) की तरह जानना चाहिये । बाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों का कथन नरयिक जीवों (सु. २५) की तरह जानना चाहिए। ४६ प्रश्न हे भगवन् ! अपर्याप्त जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? For Personal & Private Use Only Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • भगवती सूत्र -श ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार ४६ उत्तर - हे गौतम! इनके तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं । ४७ प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्त नैरयिक ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ४७ उत्तर - हे गौतम! इनमें तीन ज्ञान नियम से और तीन अज्ञान भजना से होते हैं । इसी प्रकार यावत् स्तनित कुमार देवों तक जानना चाहिये । अपर्याप्त पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक तक के जीवों का कथन एकेन्द्रिय (सू. ३६) जीवों के समान जानना चाहिये । १३१३ ४८ प्रश्न - बेइंदियाणं पुच्छा । ४८ उत्तर - दो णाणा, दो अण्णाणा णियमा । एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । ४९ प्रश्न - अपज्जत्तगा णं भंते ! मणुरता किं णाणी, अण्णाणी ? ४९ उत्तर - तिष्णि णाणाई भयणाए, दो अण्णाणाई णियमा । वाणमंतरा जहा णेरइया । अपजत्तगाणं जोइसिय- वेमाणियाणं तिष्णि णाणा, तिष्णि अण्णाणा णियमा । ५० प्रश्न - गोपजत्तगा णोअपज्जत्तगा भंते! जीवा किं णाणी० ? ५० उत्तर - जहा सिद्धा । भावार्थ - ४८ प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्त बेइन्द्रिय जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ४८ उत्तर - हे गौतम! इन्हें दो ज्ञान या दो अज्ञान नियमा होते है । इसी प्रकार यावत् पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक तक जानना चाहिये । ४९ प्रश्न - हे भगवन् ! अपर्याप्त मनुष्य ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? For Personal & Private Use Only Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार ४९ उत्तर-हे गौतम ! उनमें तीन ज्ञान भजना से और दो अज्ञान नियमा होते है । वाणव्यन्तरों का कथन नरयिक (सूत्र ४७) जीवों की तरह जानना चाहिये । अपर्याप्त ज्योतिषी और वैमानिकों में तीन ज्ञान और तीन अज्ञान नियमा होते है। ५० प्रश्न-हे भगवन् ! नोपर्याप्त नोअपर्याप्त जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ५० उत्तर-हे गौतम ! उनका कथन सिद्ध जीवों के समान (सूत्र ३०) जानना चाहिये। ५१ प्रश्न-णिरयभवत्था णं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? ५१ उत्तर-जहा णिरयगइया । ५२ प्रश्न-तिरयभवत्था णं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? ५२ उत्तर-तिणि णाणा, तिण्णि अण्णाणा, भयणाए । ५३ प्रश्न-मणुस्सभवत्था ण ? ५३ उत्तर-जहा सकाइया । ५४ प्रश्न-देवभवत्था णं भंते !० ? ५४ उत्तर-जहा णिरयभवत्था । अभवत्था जहा सिद्धा। कठिन शब्दार्थ-तिरयमवत्था--तियंच भव में रहे हुए। भावार्थ-५१ प्रश्न-हे भगवन् ! निरय-भवस्थ-नरकगति में रहे हुए जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ५१ उत्तर-हे गौतम ! इनका कथन निरयगतिक जीवों (सू. ३१) के समान जानना चाहिये। ५२ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यग्भवस्थ जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ५२ उत्तर-हे गौतम ! उनके तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से For Personal & Private Use Only Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार १३१५ होते हैं। ५३ प्रश्न-हे भगवन् । मनुष्य-मवस्थ जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ... ५३ उत्तर-हे गौतम ! इनका कथन सकायिक जीवों (स. ३८) के समान जानना चाहिये। ५४ प्रश्न-हे भगवन् ! देव-भवस्थ जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ५४ उत्तर-हे गौतम ! इनका कथन निरयभवस्थ जीवों (सू. ५१) के समान जानना चाहिये । अभवस्य जीवों का कथन सिद्धों (सू. ३०) के समान जानना चाहिये। ५५ प्रश्न-भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं णाणी० ? ५५ उत्तर-जहा सकाइया। ५६ प्रश्न-अभवसिद्धियाणं पुच्छा। ५६ उत्तर-गोयमा ! णो णाणी, अण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। ____५७ प्रश्न-णोभवसिद्धिया णोअभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा० ? ५७ उत्तर-जहा सिद्धा। ५८ प्रश्न-सण्णीणं पुच्छा। ५८ उत्तर-जहा सइंदिया। असण्णी जहा बेइंदिया। णोसण्णी णोअसण्णी जहा सिद्धा। कठिन शब्दार्थ--सण्णी- मन वाले जीव । भावार्थ-५५ प्रश्न-हे भगवन् ! भवसिद्धिक(भव्य जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? For Personal & Private Use Only Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञानी अज्ञानी की भजना के बीस द्वार ५५ उत्तर-हे गौतम ! उनका कथन सकायिक जीवों (सू. ३८) के समान जानना चाहिये। ५६ प्रश्न-हे भगवन् ! अभवसिद्धिक जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी हैं ? ५६ उत्तर-हे गौतम ! ये ज्ञानी नहीं, किन्तु अज्ञानी है। इनमें तीन अज्ञान भजना से होते हैं। ५७ प्रश्न-हे भगवन् ! नोमवसिद्धिक-नोअभवसिद्धिक जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ५७ उत्तर-हे गौतम ! उनका कथन सिद्ध जीवों (सू. ३०) के समान जानना चाहिये। ५८ प्रश्न-हे भगवन् ! संज्ञो जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ५८ उत्तर-हे गौतम ! इनका कथन सेन्द्रिय जीवों (सू. ३५) के समान जानना चाहिये । असंज्ञी जीवों का कथन बेइन्द्रिय जीवों (सू. २८) के समान जानना चाहिये । मोसंजी-नोअसंजो जीवों का कथन सिद्ध जीवों (सू. ३०) के समान जानना चाहिये। विवेचन-कौन-से जीव, कितने ज्ञान वाले और कितने अज्ञान वाले होते हैं, यह बात यहां वतलाई गई है। इसे 'ज्ञानलब्धि' भी कहते हैं । इसका कथन बीस द्वारों से किया गया है । द्वार गाथा यह है गइइंदिए य काए, सुहमे पज्जत्तए भवत्ये य । भवसिद्धिए य सण्णी, लद्धि उवओग जोगे य ॥१॥ लेस्सा कसाय वेए आहारे, गाणगोयरे काले। अंतर अप्पाबहुयं च, पज्जवा चेव दाराई ॥२॥ अर्थ-१ गति, २ इन्द्रिय, ३ काय, ४ सूक्ष्म, ५ पर्याप्त, ६ भवस्थ, ७ भवसिद्धिक, ८ संज्ञी, ९ लन्धि, १० उपयोग, ११ योग, १२ लेश्या, १३ पाय, १४ वेद, १५ आहार, १६ ज्ञान गोचर (विषय), १७ काल, १८ अन्तर, १९ अल्पवहुत्व और २० पर्याय । १ गतिद्वार-गतिद्वार में सबसे प्रथम निरयगति का कथन किया गया है। निरय For Personal & Private Use Only Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ जान अजान की भजना के वीस द्वार १३१७ अर्थात् नरक में गति अर्थात् गमन जिन जीवों का हो, वे 'निरयगतिक' कहलाते हैं । तात्पर्य यह है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य, वे सम्यग्दृष्टि हों अथवा मिथ्यादृष्टि, ज्ञानी हों अथवा अज्ञानी, जो नरकगति में उत्पन्न होने वाले हैं, अर्थात् यहाँ से मर कर नरक में जाने के लिये विग्रह गति में (अन्तराल गति में) चल रहे हैं। वे जीव यहाँ 'निरयगति' शब्द से लिये गये हैं। इसी अर्थ को बतलाने के लिये निरय' शब्द के माथ-- 'गनि' शब्द का प्रयोग किया गया है । निरयगतिक जीव यदि ज्ञानी हों, तो नियम मे तीन मानवाले होते हैं। क्योंकि उन्हें अवधिज्ञान भवप्रत्यय होने के कारण विग्रह गति में भी होता है । यदि वे अज्ञानी हों, तो तीन अज्ञान भजना से होते हैं। क्योंकि जब अमंजा पञ्चेन्द्रिय तियंच, नरक में जाता है, तो अपर्याप्त अवस्था तक उसे विभंगज्ञान नहीं होता । उस मम । उसके दो अज्ञान ही होते हैं । मिथ्यादृष्टि संजो को अन्तराल अवस्था से ही तीन अज्ञान होते हैं। क्योंकि उसको भवप्रत्यय विभंगज्ञान होता है । इसलिय तीन अज्ञान भजना से कहे गये हैं। तिर्यचगति में जाते हुए बीच में विग्रह-गति में रहा हुआ जीव तिर्यञ्च-गतिक' कहलाता है। उसे नियम से दो ज्ञान या दो अनान होते हैं। क्योकि सम्यग्दृष्टि जीव अवधिज्ञान से गिरने के बाद ही मनि-ध्रुत ज्ञान महित तिर्यचगति में जाता है । इसलिये उसे निय मा दो ज्ञान होते हैं । मिथ्यादष्टि जीव, विभगनान में गिरने के बाद मनि अनान, श्रुत अज्ञान सहित तिर्यंच गति में जाता है । इसलिये नियम में वह दो अज्ञान वाला होता है। ___ मनुष्यगति में जाते हुए विग्रहांत में चरता हुआ जीव--'मनुप्यगतिक' कहलाता है । उस में भजना से तीन ज्ञान होते हैं अथवा दो अनान नियम से होते हैं । मनुष्यगति में जाते हुए जीव जो ज्ञानी होते हैं, उनमें से कितने ही तीर्थकर की तरह अवधिजान सहित मनुष्य-गति में जाते हैं, उन्हें तीन ज्ञान होते हैं । कितने ही जीव अवधिनान हित मनुष्य गति में जाते हैं, उन्हें दो ज्ञान होते हैं । इसलिये यहां तीन ज्ञान भजना से कहे गये हैं । जो मिथ्यादृष्टि हैं, वे विभंगज्ञान रहित ही मनुष्य गति में उत्पन्न होते हैं, इसलिये उन्हें दो अज्ञान नियम से होते हैं। . देवगति में जाते हुए विग्रहगति में वर्तता हुआ जीव-'देव-गतिक' कहलाता है । उनका कथन नरकगतिक जीवों की तरह जानना चाहिये। क्योंकि देवगति में जाने वालों में जो ज्ञानी हैं, उन्हें देवायु के प्रथम समय में ही भवप्रत्यय अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इसलिये नैरयिकों की तरह उनके तीन ज्ञान नियम से होते हैं । जो. अज्ञानी हैं और For Personal & Private Use Only Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के बीस द्वार असंज्ञी से देव गति में उत्पन्न होते हैं, उन्हें अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता, इसलिये उनमें दो अज्ञान होते हैं । जो अज्ञानी संज्ञी से आकर देवगति में उत्पन्न होते हैं, उन्हें भवप्रत्यय विभंगज्ञान होता है, इसलिए वे तीन अज्ञान वाले होते हैं । अतएव तीन अज्ञान भजना से कहे गये हैं। सिद्ध और सिद्धगतिक जीवों में कोई भेद नहीं हैं, तथापि यहाँ गति-द्वार का प्रकरण चल रहा है, इस क्रम के कारण सिद्धगतिक जीवों का पृथक् निर्देश कर दिया गया है। २ इन्द्रिय द्वार-सन्द्रिय का अर्थ है-'इन्द्रिय वाले जीव' अर्थात् इन्द्रियों के उपयोग से काम लेने वाले जीव। ये ज्ञानी और अज्ञानी दोनों प्रकार के होते हैं। इनमें से ज्ञानी जीवों को चार ज्ञान भजना से होते हैं अर्थात् किन्हीं को दो, कुछ को तीन और कुछ को चार ज्ञान होते हैं, उन्हें केवलज्ञान नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञान तो अतीन्द्रिय ज्ञान है । यहाँ दो, तीन आदि ज्ञानों का कथन किया गया है, वह लब्धि की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि उपयोग की अपेक्षा तो सभी जीवों को एक समय में एक ही ज्ञान होता है । अज्ञानो सेन्द्रिय जीवों को तीन अज्ञान भजना से होते हैं, अर्थात् किन्हीं जीवों को दो और किन्हीं जीवों को तीन अज्ञान होते हैं। एकेन्द्रिय जीव मिथ्यादृष्टि होते हैं, अतएव वे अज्ञानी ही होते हैं । उन में नियम से दो अज्ञान होते हैं । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौरिन्द्रिय में दो ज्ञान या दो अज्ञान नियम से होते हैं, क्योंकि उनमें सास्वादन गुणस्थान होना सम्भव है । उस अवस्था में दो ज्ञान पाये जाते हैं । इसकी स्थिति उत्कृष्ट छह आवलिका की है । इसके अतिरिक्त दो अज्ञान होते हैं। ___ अनिन्द्रिय अर्थात् इन्द्रियों के उपयोग से रहित जीव केवलज्ञानी होते हैं । उनका कथन सिद्ध जीवों के समान है अर्थात् उनमें एक मात्र केवलज्ञान पाया जाता है। ३ काय द्वार-काया अर्थात् औदारिकादि शरीर, अथवा पृथ्वीकायिक आदि छह काय । काय सहित को 'सकायिक' जीव कहते हैं । वे केवली भी होते हैं, इसलिये सका. यिक सम्यग्दृष्टि जीव में पांच ज्ञान भजना से होते हैं और मिथ्यादृष्टि जीवों में तीन अज्ञान भजना से होते हैं । जिनके औदारिक आदि काय नहीं है, अथवा जो पृथ्वीकाय आदि छहों काय में से किसी भी काय में नहीं हैं, वे 'अकायिक' कहलाते हैं । अकायिक जीव सिद्ध होते हैं, उनमें एक केवलज्ञान होता है। ४ सूक्ष्म द्वार-सूक्ष्म जीव, पृथ्वीकायिक के समान मिथ्यादृष्टि होते हैं । मतः उनमें For Personal & Private Use Only Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान की भजना के वीस द्वार १३१९ दो अज्ञान होते हैं । सकायिक जीवों की तरह वादर जीव केवलज्ञानी भी होते हैं । अतः सकायिक की तरह उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। ... ५ पर्याप्त द्वार-पर्याप्त जीव केवलज्ञानी भी होते हैं । इसलिये उनमें सकायिक जीवों की तरह पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । पर्याप्त नरयिकों में तीन ज्ञान या तीन अनान नियमा होते हैं। क्योकि असंजी जीवों से आये हुए नरयिकों में अपर्याप्त अवस्था में विमंगज्ञान का अभाव होता है, किन्तु पर्याप्त अवस्था में तो उन्हें तीन अज्ञान नियम से होते हैं। इसी प्रकार भवन पति और वाणव्यन्तर देवों में भी जानना चाहिये । पर्याप्त विकलेन्द्रियों में नियम से दो अज्ञान होते हैं । पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों में कितने ही जीवों को अवधिज्ञान होता है और कितने ही जीवों को नहीं होता । तथा कितने ही जीवों को विमंगज्ञान होता है और कितने ही जीवों को नहीं होता। इसलिये उनमें तीन ज्ञान तीन अजान भजना से पाये जाते हैं । नरयिक और भवनपति देवों के अपर्याप्त में तीन ज्ञान नियम से और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । अपर्याप्त वेइन्द्रिय आदि जीवों में से कितने ही जीवों को सास्वादन सम्यग्दर्शन का सम्भव होने से उनमें दो ज्ञान पाये जाते हैं, शेष में दो अज्ञान पाये जाते हैं । . सम्यग्दृष्टि मनुष्यों में अपर्याप्त अवस्था में तीर्थङ्कर आदि के समान अवधिज्ञान होना सम्भव है । इसलिये उनमें तीन ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवों को अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता । इसलिये उनमें नियम से दो अज्ञान पाये जाते हैं । अपर्याप्त वाणव्यन्तर देव, नरयिकों के समान नियम से तीन ज्ञान वाले, दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञान वाले होते हैं । क्योंकि असंज्ञी जीवों में से आकर जो उनमें उत्पन्न होता है, उस में अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान का अभाव होता है, शेष में अवधिज्ञान अथवा विभंगज्ञान नियम से होता है। ज्योतिषी और वैमानिक देवों में संज्ञी जीवों में से ही आकर उत्पन्न होते हैं, इस. लिये उनमें अपर्याप्त अवस्था में भी भवप्रत्यय अवधिज्ञान अथवा विभंगज्ञान अवश्य होता है । इसलिये उनमें नियम से तीन ज्ञान, या तीन अज्ञान होते हैं। नोपर्याप्त नोअपर्याप्त अर्थात् पर्याप्त और अपर्याप्त भाव से रहित जीव सिद्ध होते हैं । क्योंकि वे अपर्याप्त और नाम कर्म से रहित हैं। उनमें एक मात्र केवलज्ञान पाया जाता है । . . ६ भवस्थ द्वार-निरयभवस्थ का अर्थ है-नरकगति में उत्पत्ति स्थान को प्राप्त हुए। For Personal & Private Use Only Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२० - - भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि ... उनका कथन निरयगतिक जीवों के समान जानना चाहिये । अर्थात् वे नियम से तीन ज्ञान वाले या भजना से तीन अज्ञान वाले होते हैं, शेष कथन ऊपर आ चुका है। ७ भवसिद्धिक द्वार-भवसिद्धिक (भव्य) जीव सकायिक जीवों के समान पांच ज्ञान वाले अथवा तीन अज्ञान वाले भजना से होते हैं । अर्थात् सम्यग्दृष्टि जीवों में पांच ज्ञान की भजना है और मिथ्यादृष्टि जीवों में तीन अज्ञान की भजना है। ... - अभवसिद्धिक जीवों में तीन अज्ञान की भजना है, उनमें ज्ञान नहीं होता। क्योंकि वे सदा मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं। ८ संज्ञी द्वार-संज्ञी जीवों का कथन सइन्द्रिय जीवों के समान है। अर्थात् उनमें चार जान अथवा तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । असंज्ञी जीवों का कथन बंइन्द्रिय जीवों के समान है अर्थात् अपर्याप्त अवस्था में उनमें सास्वादन सम्यग्दर्शन का सम्भव होने से दो जान भी पाये जाते हैं । पर्याप्त अवस्था में तो उनमें नियम से दो अज्ञान ही होते हैं । . इससे आगे ज्ञानादि लब्धि द्वार का कथन किया जाता है। ज्ञान-दर्शनादि लब्धि . - : ५९ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! लद्धी पण्णता ? ५९ उत्तर-गोयमा ! दसविहा लद्धी पण्णत्ता, तं जहा-१णाणलद्धी, २ सणलद्धी, ३ चरित्तलद्धी, ४ चरित्ताचरित्तलद्धी, ५ दाणलद्धी, ६ लाभलद्धी, ७ भोगलद्धी, ८ उवभोगलद्धी, ९ वीरियलद्धी१० इंदियलद्धी। ६० प्रश्न-णाणलद्धी णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? _ ६० उत्तर-गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-आभिणिवोहियणाणलद्धी, जाव केवलणाणलद्धी । For Personal & Private Use Only Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि ६१ प्रश्न - अण्णाणली णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? ६१ उत्तर - गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा मइअण्णाणलद्धी, सुयअण्णाणलद्वी, विभंगणाणलद्वी । कठिन शब्दार्थ-लद्धी - लब्धि- प्राप्ति । १३२१ भावार्थ - ५९ प्रश्न - हे भगवन् ! लब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? ५९ उत्तर- हे गौतम ! दस प्रकार की कही गई है । यथा-१ ज्ञानलब्धि, २ दर्शनलब्धि, ३ चारित्रलब्धि, ४ चारित्राचारित्रलब्धि, ५ दानलब्धि, ६ लाभलब्धि, ७ भोगलब्धि, ८ उपभोगलब्धि, ९ वीर्यलब्धि और १० इन्द्रियलब्धि | 315 ६० प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञान-लब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? ६० उत्तर - हे गौतम ! ज्ञानलब्धि पाँच प्रकार की कही गई है । यथाआभिनिबोधिकज्ञान लब्धि यावत् केवलज्ञान लब्धि । ६१ प्रश्न - हे भगवन् ! अज्ञान-लब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? ६१ उत्तर - हे गौतम! अज्ञान-लब्धि तीन प्रकार की कही गई है । यथा - मतिअज्ञान लब्धि, श्रुतअज्ञान लब्धि और विभंगज्ञान लब्धि । ६२ प्रश्न - दंसणद्धी णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? ६२ उत्तर - गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा सम्मदंसणलदी, मिच्छादंसणलद्धी, सम्मामिच्छादंसणलद्वी । भावार्थ - ६२ प्रश्न - हे भगवन् ! दर्शन- लब्धि, कितने प्रकार की कही गई है ? ६२ उत्तर-हे गौतम ! दर्शन-लब्धि तीन प्रकार की कही गई है। यथा-. १ सम्यग्दर्शन लब्धि, २ मिथ्यादर्शन लब्धि और ३ सम्यग्मिथ्यादर्शन लब्धि । For Personal & Private Use Only Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२२ भगवती सूत्र - . ८. उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि ६३ प्रश्न - चरित्तलद्धी णं भंते! कइविहा पण्णत्ता ? ६३ उत्तर - गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा - सामाइयचरित्त लद्धी, छेओवट्ठावणियचरित्तद्वी, परिहारविसुद्धिचरित्तलद्धी, सुहुमसंपरायचरित्तलद्धी, अहक्खायचरित्तलद्धी । कठिन शब्दार्थ - अहरवायचरितलद्वी - यथाख्यात चारित्र लब्धि. । भावार्थ - ६३ प्रश्न - हे भगवन् ! चारित्र-लब्धि कितने प्रकार की कही गई है। ६३ उत्तर - हे गौतम ! चारित्र-लब्धि पांच प्रकार की कही गई है । यथा - १ सामायिक चारित्र लब्धि, २ छेदोपस्थापनीय चारित्र-लब्धि ३ परिहारविशुद्धि चारित्र लब्धि ४ सूक्ष्म सम्पराय चारित्र-लब्धि और ५ यथाख्यात चारित्र-लब्धि | ६४ प्रश्न - चरित्ताचरित्तलद्धी णं भंते! कइविहा पण्णत्ता । ६४ उत्तर - गोयमा ! एगागारा पण्णत्ता, एवं जाव उवभोगली एगागारा पण्णत्ता । कठिन शब्दार्थ –एगागारा - एक प्रकार की । भावार्थ -- ६४ प्रश्न - - हे भगवन् ! चारित्राचारित्र लब्धि कितने प्रकार की कही गई हैं ? ६४ उत्तर - हे गौतम ! वह एक ही प्रकार की कही गई है । इसी प्रकार दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि और उपभोगलब्धि, ये सब एक एक प्रकार की कही गई है । ६५ प्रश्न - वीरियलद्धी णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? ६५ उत्तर - गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - बालवी रियलद्धी, For Personal & Private Use Only Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि १३२३ पंडियबीरियलद्धी, बालपंडियबीरियलद्धी । भावार्थ-६५ प्रश्न-हे भगवन् ! वीर्य-लब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? ६५ उत्तर-हे गौतम! वीर्य-लब्धि तीन प्रकार की कही गई है । यथा१ बालवीर्य लब्धि, २ पण्डितवीर्य लब्धि और ३ बालपण्डितवीर्य लब्धि । ६६ प्रश्न-इंदियलद्धी णं भंते ! कइविहा पणत्ता ? ६६ उत्तर-गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-सोइंदियलद्धी, जाव फासिंदियलद्धी। ___भावार्थ--६६ प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्रिय-लब्धि कितने प्रकार की कही गई है ? .: ६६ उत्तर-हे गौतम ! इन्द्रिय-लब्धि पांच प्रकार की कही गई है। यथा-श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि यावत् स्पर्शनेन्द्रिय लब्धि । ६७ प्रश्न-णाणलद्धिया णं भंते! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? ६७ उत्तर-गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी । अत्थेगइया दुण्णाणी एवं पंच णाणाई भयणाए । ६८ प्रश्न-तस्स अलद्धीया णं भंते ! जीवा किंणाणी, अण्णाणी? ६८ उत्तर-गोयमा ! णो णाणी, अण्णाणी । अत्थेगइया दुअण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए । ६९ प्रश्न-आभिणिवोहियणाणलद्धीया णं भंते ! जीवा कि णाणी, अण्णाणी? For Personal & Private Use Only Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२४ भगवती सूत्र--श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि ६९ उत्तर-गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी। अत्गइया दुण्णाणी, तिण्णाणी, चत्तारि णाणाई भयणाए। ७० प्रश्न-तस्स अलद्धिया णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? ___७० उत्तर-गोयमा ! णाणी वि अण्णाणी वि । जे णाणी ते णियमा एगणाणी-केवलणाणी । जे अण्णाणी ते अत्थेगइया . दुअण्णाणी, तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए । एवं सुयणाणलद्धीया वि। तस्स अलद्धीया वि जहा आभिणिबोहियणाणस्स अलद्धीया । ७१ प्रश्न-ओहिणाणलद्धीयाणं पुच्छा। ७१ उत्तर-गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी । अत्थेगइया तिण्णाणी,अत्थेगइया चउणाणी। जे तिण्णाणी ते आभिणिवोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, जे चउणाणी ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपज्जवणाणी। ___ ७२ प्रश्न-तस्स अलद्धियाण पुच्छा। । ७२ उत्तर-गोयमा ! गाणी वि अण्णाणी वि । एवं ओहिणाणवजाइं चत्तारि णाणाइं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। ७३ प्रश्न-मणपजवणाणलद्धियाणं पुच्छा। ७३ उत्तर-गोयमा ! गाणी, णो अण्णाणी । अत्यंगइया तिण्णाणी, अत्यंगइया चउणाणी। जे तिण्णाणी ते आभिणिबो. For Personal & Private Use Only Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि १३२५ हियणाणी, सुयणाणी, मणपजवणाणी । जे चउणाणी ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी, मणपजवणाणी। ७४ प्रश्न तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। ७४ उत्तर-गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि; मणपज्जवणाणवजाइं चत्तारि णाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । ७५ प्रश्न-केवलणाणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी। ७५ उत्तर-गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी। णियमा एगणाणी-केवलणाणी। ७६ प्रश्न-तस्स अलद्धियाणं पुच्छा । ७६ उत्तर-गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि । केवलणाणवजाइं चत्तारि णाणाई, तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए । ७७ प्रश्न-अण्णाणलद्धियाणं पुच्छ। ७७ उत्तर-गोयमा ! णो णाणी, अण्णाणी । तिण्णि अण्णापाइं भयणाए। ७८ प्रश्न-तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। ७८ उत्तर-गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी । पंच णाणाई भयणाए, जहा अण्णाणस्स लद्धिया अलद्धिया य भणिया एवं मइअण्णाणस्स सुयअण्णाणस्स य लद्धियो अलद्धिया य भाणियव्वा । For Personal & Private Use Only Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२६ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि ... विभंगणाणलद्धीयाणं तिणि अण्णाणाई णियमा । तस्स अलद्धीयाणं पंच णाणाइं भयणाए, दो अण्णाणाइं णियमा । कठिन शब्दार्थ-अत्थेगइया-कुछ, अलद्धिया-अप्राप्ति वाले। भावार्थ-६७ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ६७ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें से कितने ही दो ज्ञान वाले होते हैं । इस प्रकार उनमें पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। __६८ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानलब्धि रहित जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ___६८ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी है । उनमें से कितने ही दो अज्ञान वाले होते हैं और कितने ही जीव तीन अज्ञान वाले होते हैं। इस प्रकार उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। ६९ प्रश्न-हे भगवन् ! आभिनिबोधिक ज्ञान-लब्धि वाले जीव ज्ञानी है, या अज्ञानी ? ६९ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें से कितने ही जीव दो ज्ञान वाले होते हैं, कितने ही तीन ज्ञान वाले और कितनेक चार ज्ञान वाले होते हैं। इस तरह उनमें चार ज्ञान भजना से पाये जाते है। प्रश्न-हे भगवन् ! आभिनिबोधिक ज्ञान-लब्धि रहित जीव, ज्ञानी है, या अज्ञानी ? उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी । जो ज्ञानी हैं, वे नियम से एक केवलज्ञान वाले है और जो अज्ञानी हैं, उनमें कितने ही दो अज्ञान वाले हैं और कितनेक तीन अज्ञान वाले हैं। अर्थात् उनमें तीन अज्ञान मजना से पाये जाते हैं। इस प्रकार श्रुतज्ञान लब्धिवाले जीवों का कथन आभिनिबोधिक ज्ञान लब्धिवाले जीवों के समान कहना चाहिये और श्रुतज्ञान-लब्धि रहित जीवों का कथन आमिनिबोधिक ज्ञान-लब्धि रहित जीवों के समान For Personal & Private Use Only Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानना चाहिये । अज्ञानी ? भगवती सूत्र श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि ७१ प्रश्न - हे भगवन् ! अवधिज्ञान-लब्धि वाले जीव, ज्ञानी हैं, या १३२७ ७१ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें से कितने ही तीन ज्ञान वाले हैं और कई चार ज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं और जो चार ज्ञानवाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान बाले हैं । ७२ प्रश्न - हे भगवन् ! अवधिज्ञान-लब्धि रहित जीव, ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ७२ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी भी हं और अज्ञानी भी हैं। इस प्रकार उनमें अवधिज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं । ७३ प्रश्न - हे भगवन् ! मन:पर्ययज्ञान-लब्धि वाले जीव, ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ७३ उत्तर - हे गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें से कितने ही तीन ज्ञानवाले हैं और कितने ही चार ज्ञानवाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे • आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान वाले हैं। जो चार ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान वाले हैं । ७४ प्रश्न - हे भगवन् ! मन:पर्ययज्ञान लब्धि रहित जीव, ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ७४ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी । उनमें मन:पर्ययज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । ७५ प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञान-लब्धि वाले जीव, ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ७५ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं । वे नियम से एक केवलज्ञान वाले हैं । For Personal & Private Use Only Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२८ भगवती सूत्र--श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि ७६ प्रश्न - हे भगवन् ! केवलज्ञान - लब्धि रहित जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ७६ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी । उनमें केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । २७७ प्रश्न - हे भगवन् ! अज्ञानलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? २०७७ उत्तर- हे गौतम! वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं । उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । / ७८ प्रश्न - हे भगवन् ! अज्ञान-लब्धि रहित जोव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? - ७८ उत्तर- हे गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । जिस प्रकार अज्ञान-लब्धि वाले और अज्ञान-लब्धि रहित जीवों का कथन किया है, उसी प्रकार मतिज्ञान, श्रुतज्ञान लब्धि वाले तथा इन लब्धि से रहित जीवों का कथन करना चाहिये । अर्थात् सूत्र ७७ में कथित अज्ञान-लब्धि वाले जीवों की तरह मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान लब्धि वाले जीवों का कथन करना चाहिये । और सूत्र ७८ में कथित अज्ञान -लब्धि रहित जीवों की तरह मतिअज्ञान लब्धि रहित और श्रुतअज्ञान लब्धि रहित जीवों का कथन करना चाहिये । विभंगज्ञान लब्धि वाले जीवों में नियम से तीन अज्ञान होते हैं और विभंगज्ञान लब्धि रहित जीवों में पांच ज्ञान भजना से और दो अज्ञान नियमा पाये जाते हैं । ७९ प्रश्न - दंसणलद्धिया णं भंते! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? ७९ उत्तर -गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि; पंच णाणाई तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । ८० प्रश्न - तस्स अलडिया णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? For Personal & Private Use Only Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ८ उ. २ जान दर्शनादि लब्धि १३२६ ८० उत्तर-गोयमा ! तस्म अलद्धिया णस्थि । सम्मादसणलद्धियाणं पंच णाणाई भयणाए । तम्स अलदियाणं तिण्णि अण्णाणाई भयणाए। ८१ प्रश्न-मिच्छादसणलद्धीया णं भंते ! पुच्छा। ___८१ उत्तर-तिण्णि अण्णाणाई भंयणाए । तस्स अलद्धीयाणं पंच णाणाई, तिण्णि य अण्णाणाई भयणाए । सम्मामिच्छादसणलद्धिया, अलद्धिया य जहा मिच्छदंसणलवीया अलद्धीया तहेव भाणियवा। __ भावार्थ-७९ प्रश्न-हे भगवन् ! दर्शन लब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ७९ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी । जो ज्ञानी हैं, वे भजना से पांच ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे भजना से तीन अज्ञान वाले हैं। ८० प्रश्न-हे भगवन् ! दर्शनलब्धि रहित जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? ८० उत्तर-हे गौतम ! दर्शनलब्धि रहित कोई भी जीव नहीं होता । सम्यग्दर्शन-लब्धि वाले जीवों में पांच ज्ञान भजना से होते हैं। सम्यग्दर्शन-लब्धि रहित जीवों में तीन अज्ञान भजना से होते हैं । . ८१ प्रश्न-हे भगवन् ! मिथ्यादर्शन-लब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी? ८१ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं। उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । मिथ्यादर्शन-लब्धि रहित जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं । सम्यमिथ्यादर्शन लब्धि (मिश्रदृष्टि) वाले जीवों का कथन मिथ्यादर्शन लन्धि वाले जीवों के समान जानना चाहिये और सम्यगमिथ्यादर्शन लब्धि रहित जीवों का कथन मिथ्यादर्शन लब्धि रहित जीवों की तरह जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि ८२ प्रश्न - चरित्तलडिया णं भंते! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? ८२ उत्तर - गोयमा ! पंच णाणाई भयणाए । तस्स अलद्वीयाणं मणपज्जवणाणवज्जाहूं चत्तारि णाणाई, तिष्णि य अण्णाणाई भयणाए । ८३ प्रश्न - सामाइयचरित्तलद्विया णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? १३३० ८३ उत्तर - गोयमा ! णाणी, केवलवज्जाई चत्तारि णाणाई भणा । तस्स अलद्वियाणं पंच णाणाई, तिष्णि य अण्णाणाई भयणाए । एवं जहा सामाइयचरित्तदीया अल्द्वीया य भणिया, एवं जाव अहक्खायचरित्तलद्वीया अलद्वीया य भाणियव्वा णवरं अहक्खायचरित्तलद्वीयाणं पंच णाणाई भयणाए । ८४ प्रश्न - चरित्ता चरित्तलद्वीया णं भंते! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? ८४ उत्तर - गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी । अत्थेगइया दुष्णाणी, अत्येगइया तिष्णाणी । जे दुष्णाणी ते आभिणिबोहियणाणी य सुयणाणी य । जे तिष्णाणी ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी । तस्स अलद्वियाणं पंच णाणाई तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । दालधियाणं पंच णाणाई, तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । ८५ प्रश्न - तस्स अलद्वीयाणं पुच्छा । For Personal & Private Use Only Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि : • ८५ उत्तर - गोयमा ! णाणी, णो अण्णाणी । णियमा एगणाणी केवलणाणी । एवं जाव वीरियस्स लदी अलद्धी य भाणियव्वा । बालवी रियलद्वियाणं तिष्णि णाणाई, तिष्णि अण्णाणाई भयगाए । तस्स अलद्धियाणं पंत्र णाणाई भयणाए । पंडियवीरियलद्वीयाणं पंच णाणाई भयणाए । तस्स अलद्धीयाणं मणपज्जवणाणजाई णाणाई, अण्णाणाणि तिष्णि य भयणाए । बालपंडियवी रियलद्भियाणं तिणिण णाणाई भयणाए । तस्स अलद्वीया पंच णाणाई, तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । कठिन शब्दार्थ-चरित्ताचरित - कुछ चारित्र और कुछ अचारित्र (देश- चारित्र ) । भावार्थ - ८२ प्रश्न - हे भगवन् ! चारित्रलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ८२ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी होते हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं | चारित्रलब्धि रहित जीवों में मन:पर्यय ज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अंज्ञान भजना से पाये जाते हैं । १३३१ : ८३ प्रश्न - हे भगवन् ! सामायिक चारित्रलब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञांनी ? ८३ उत्तर- - हे गौतम वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं । उनमें केवलज्ञान के सिवाय चार ज्ञान की भजना है। सामायिक चारित्रलब्धि रहित जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान को भजना है। इस प्रकार सामायिक चारित्र लब्धि वाले जीवों के समान यावत् यथाख्यातचारित्र वाले जीवों का कथन करना चाहिये, किन्तु यथाख्यात चारित्र वाले जीवों में पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । सामायिक चारित्र-लब्धि रहित जीवों की तरह यावत् यथाख्यात चारित्र लब्धि रहित जीवों का कथन करना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३२ भगवती सूत्र--श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि ८४ प्रश्न - हे भगवन् ! चारित्राचारित्र ( देशचारित्र) लब्धि वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ८४ उत्तर- हे गौतम! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें से कितने ही दो ज्ञान वाले हैं और कितने ही तीन ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे afभfनबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिक ज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानवाले हैं। चारित्राचारित्र (देशचारित्र ) लब्धि रहित जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। दानलब्धि वाले जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । ८५ प्रश्न - हे भगवन् ! दानलब्धि रहित जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ८५ उत्तर - हे गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें नियम से एक केवलज्ञान होता है। इस प्रकार यावत् वीर्यलब्धि वाले और वीर्यलब्धि रहित जीवों का कथन करना चाहिये । बालवीर्य-लब्धि वाले जीवों में तीन ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । बालवीर्यलब्धि रहित जीवों में पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। पण्डितवीर्यलब्धि वाले जीवों में पांच ज्ञान भजना से होते हैं। पण्डितवीर्यलब्धि रहित जीवों में मन:पर्ययज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं । बालपण्डितवीर्यलब्धि वाले जीवों में तीन ज्ञान भजना से होते हैं और बालपण्डितवीर्यलब्धि रहित जीवों में पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । ८६ प्रश्न - इंदियलद्धिया णं भंते! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? ८६ उत्तर - गोयमा ! चत्तारि णाणाई, तिष्णि य अण्णाणाई भयणाए । ८७ प्रश्न- तस्स अलद्वीयाणं पुच्छा । ८७ उत्तर - गोयमा ! गाणी, णो अण्णाणी । णियमा एग For Personal & Private Use Only Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लन्धि गाणी-केवलणाणी । सोइंदियलद्धिया णं जहा इंदियलद्धिया। ८८ प्रश्न-तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। .८८ उत्तर-गोयमा ! गाणी वि अण्णाणी वि । जे णाणी ते अत्थेगइया दुग्णाणी, अत्थेगइया एगणाणी। जे दुण्णाणी ते आभिणिवोहियणाणी, सुयणाणी। जे एगणाणी ते केवलणाणी। जे अण्णाणी ते णियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य । चक्विंदिय-घाणिदियाणं लद्धी अलद्धी य जहेब सोइंदियस्स । जिभिदियलद्धियाणं चत्वारि णाणाई, तिण्णि य अण्णाणाणि भयणाए। तर, ८९ प्रश्न-तस्स अलद्धियाणं पुच्छा। ८९ उत्तर-गोयमा ! गाणी वि अण्णाणी वि । जे णाणी ते णियमा एगणाणी केवलणाणी।जे अण्णाणी ते णियमा दुअण्णाणी, तं जहा-मइअण्णाणी य सुयअण्णाणी य । फासिंदियलद्धिया अलदिया जहा इंदियलद्धिया य अलद्धिया य। ___भावार्थ-८६ प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्रिय-लन्धि वाले जीव ज्ञानी है, या भज्ञानी ? ८६ उत्तर-हे गौतम ! उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना सेपाये जाते हैं। ८७ प्रश्न-हे भगवन् ! इन्द्रिय लब्धि रहित जीव ज्ञानी है, या अज्ञानी ? ८७ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी है, अज्ञानी नहीं। वे नियम से For Personal & Private Use Only Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३४ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि एक केवलज्ञान वाले हैं । श्रोत्रेन्द्रिय-लब्धि वाले जीवों का कथन इन्द्रिय-लब्धि वाले जीवों (सु. ८६ ) के समान जानना चाहिये । ८८ प्रश्न - हे भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय-लब्धि रहित जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ८८ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, उनमें कितने ही दो ज्ञान वाले हैं और कितने ही एक ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे आभिनिबोधिकज्ञान और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो एक ज्ञान वालें हैं वे एक केवलज्ञान वाले हैं। जो अज्ञानी हैं, वे नियमा दो अज्ञान वाले हैं। यथामतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान । चक्षुरिन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय लब्धि वाले जीवों का कथन श्रोत्रेन्द्रिय-लब्धि वाले जीवों (सू. ८७ ) के समान करना चाहिये। उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। चक्षुरिन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय लब्धि रहित जीवों का कथन श्रोत्रेन्द्रिय-लब्धि रहित जीवों की तरह कहना चाहिये । अर्थात् उनमें ज्ञान दो तथा एक और अज्ञान दो पाये जाते हैं । जिव्हेन्द्रिय लब्धि वाले जीवों में चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । ८९ प्रश्न - हे भगवन् ! जिव्हेन्द्रिय लब्धि रहित जीव, ज्ञानी होते हैं, या अज्ञानी ? ८९ उत्तर - हे गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं, वे नियम से एक केवलज्ञानी हैं। जो अज्ञानी हैं, वे नियम से दो अज्ञान ( मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान) वाले हैं । स्पर्शनेन्द्रिय लब्धि वाले जीवों का कथन, इन्द्रिय लब्धिवाले जीवों (सू. ८६ ) के समान कहना चाहिये। उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । स्पर्शनेन्द्रियलब्धि रहित जीवों का कथन इन्द्रिय-लब्धि रहित जीवों (सू. ८७) के समान कहना चाहिये। उनमें एक केवलज्ञान होता है । विवेचन - लब्धि - ज्ञानादि के प्रतिबन्धक ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से आत्मा में ज्ञानादि गुणों का प्रकट होना- 'लब्धि' है। इसके दस भेद हैं। यथा(१) ज्ञानलब्धि - ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम आदि से आत्मा में माभिनि For Personal & Private Use Only Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि १३३५ बोधिक ज्ञान (मतिजान) आदि का प्रकट होना। (२) दर्शनलब्धि-सम्यक, मिथ्या या मिश्र-श्रद्धानरूप आत्मा का परिणाम'दर्शनलब्धि ' है। (३) चारित्र लब्धि-चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से होने वाला आत्मा का परिणाम चारित्र-लब्धि' है। (४) चारित्राचारित्र लब्धि-अप्रत्याख्यानी कर्म के क्षयोपशम से होने वाले आत्मा के देशविरति रूप परिणाम को 'चारित्राचारित्र लब्धि' कहते हैं । (५) दान लब्धि-दानान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि । (६) लाभ लब्धि-लाभान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि । (७) भोग लब्धि-भोगान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि । (८) उपभोग लब्धि-उपभोगान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि । (९) वीर्य लब्धि-वीर्यान्त राय के क्षयादि से होने वाली लब्धि । (१०) इन्द्रिय लब्धि-मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भावेन्द्रियों का होना तथा जातिनामकर्म और पर्याप्तनामकर्म के उदय से द्रव्येन्द्रियों का होना-- 'इन्द्रियलब्धि' कहलाती है। ज्ञानलब्धि के विपरीत अज्ञान-लब्धि होती है। उसके तीन भेद हैं । यथा-१ मतिअज्ञानलब्धि, २ श्रुतअज्ञानलब्धि और ३ विभंगज्ञानलब्धि । दर्शनलब्धि के तीन भेद कहे गये हैं। यथा-सम्यग्दर्शनलब्धि-मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से आत्मा में जो परिणाम होता है, उसे- सम्यग्दर्शनलब्धि' कहते हैं । सम्यग्दर्शन हो जाने पर मति आदि अज्ञान भी सम्यग्ज्ञान रूप में परिणत हो जाते हैं। मिथ्यादर्शनलब्धि-मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के उदय से--अदेव में देव बुद्धि, अधर्म में धर्म बुद्धि और अगुरु (कुगुरु) में गुरुबुद्धि रूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान को'मिथ्यादर्शनलब्धि' कहते हैं । अर्थात् मिथ्यात्व के अशुद्ध पुद्गल के वेदन से उत्पन्न विपर्यास रूप जीव-परिणाम को मिथ्यादर्शन लब्धि कहते हैं । सम्यमिथ्या (मिश्र) दर्शन-लब्धि--मिथ्यात्व के अर्द्धविशुद्ध पुद्गल के वेदन रूप मिश्र-मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न मिश्ररुचि मिश्र-रूप (कुछ अयथार्य तत्व श्रद्धान रूप) जीव के परिणाम को 'सम्यगमिथ्यादर्शन-लब्धि' कहते हैं । For Personal & Private Use Only Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि चारित्रलब्धि--चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होने वाले विरति परिणाम को 'चारित्र' कहते हैं। अथवा अन्य जन्म में ग्रहण किये हुए कममल को दूर करने के लिये मोक्षाभिलाषी आत्मा का सर्व-सावध योग से निवृत्त होना-. चारित्र' कहलाता है । चारित्र के पांच भेद हैं । उनका अर्थ इस प्रकार है-- (१) सामायिक चारित्र-'सम' अर्थात् राग-द्वेष रहित आत्मा के प्रतिक्षण अपूर्व निर्जरा से होने वाली आत्मविशुद्धि का प्राप्त होना--'सामायिक' है। भवाटवी के भ्रमण से पैदा होने वाले क्लेश को प्रतिक्षण नाश करने वाले, चिन्तामणि, कामधेनु और कल्पवृक्ष के सुखों से भी बढ़कर निरुपम सुख देने वाले, ऐसे ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप पर्यायो को प्राप्त कराने वाले, राग-द्वेष रहित आत्मा के क्रियानुष्ठान को-'सामायिक चारित्र' कहते हैं। सर्वसावध व्यापार का त्याग करना एवं निरवद्य व्यापार का सेवन करना-- 'सामायिक चारित्र' है। यों तो चारित्र के सभी भेद सावद्ययोग विरति रूप हैं । इसलिये सामान्यतः सभी चारित्र सामायिक ही हैं, किन्तु चारित्र के दूसरे भेदों के साथ छेद आदि विशेषण लगे हुए होने से नाम और अर्थ से भिन्न-भिन्न बताये गये हैं । छेद आदि विशेषणों के न होने से पहले चारित्र का नाम सामान्य रूप से सामायिक ही दिया गया है। सामायिक के दो भेद-१ इत्वरकालिक सामायिक और २ यावत्कथिक सामायिक। इत्वरकालिक सामायिक-इत्वर काल का अर्थ है-अल्पकाल अर्थात् भविष्य में दूसरी बार फिर सामायिक व्रत का व्यपदेश होने से जो अल्पकाल की सामायिक हो, उसे इत्वरकालिक सामायिक कहते हैं। पहले एवं अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् के तीर्थ में जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता, तब तक उस शिष्य के 'इत्वर कालिक सामायिक' समझनी चाहिये। . यावत्कथिक सामायिक-यावज्जीवन की सामायिक को 'यावत्कथिक सामायिक' कहते हैं। प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के सिवाय शेष वाईस तीर्थकर भगवान् एवं महाविदेह क्षेत्र के तीर्थङ्करों के साधुओं के यावत्कर्थिक सामायिक होती है । क्योंकि इन तीर्षङ्करों के शिष्यों को दूसरी बार सामायिक व्रत नहीं दिया जाता। वे ऋतु और प्राज्ञ होने से उनके चारित्र में दोष का संभव नहीं है। इसलिये उनके प्रारंभ से ही यावत्कषिक सामायिक चारित्र होता है। For Personal & Private Use Only Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ जान दर्शनादि लब्धि यदि कोई यहां गंका करे कि इत्वरिक सामायिक वाले साधु ने यावज्जीवन के लिये सावध योग का त्याग किया है, फिर छेदोपस्थापनीय चारित्र को अंगीकार करने पर पूर्व चारित्र का त्याग हो जाने से पूर्व गृहीत प्रतिज्ञा का भंग क्यों नहीं होगा? समाधान-छेदोपस्थापनीय चारित्र में भी सावध योगों का त्याग होता है । इसलिये इत्वर-कालिक सामायिक के समय गृहीत सर्व सावध योग त्यागरूप प्रतिज्ञा का भंग नहीं होता, अपितु चारित्र की विशेष शुद्धि होने के नाम मात्र का भेद होता है । (२) छंदोपस्थापनीय चारित्र-जिम चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद एवं महावतों में उपस्थान-आरोपण होता है. उसे 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं। , अथवा-पूर्व पर्याय का छेद करके जो महावत दिये जाते हैं, उसे 'छदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं। ___ यह चारित्र भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के प्रथम और चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है, शेष तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता । छेदोपस्थापनीय चारित्र के दो भंद हैं १ निरतिचार छंदोपस्थापनीय-इत्वर सामायिक वाले शिष्य के एवं एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले (तेईसवें तीर्थङ्कर के शासन से चौवीसवें तीर्थङ्कर के शासन में जाने वाले) माधुओं के जो व्रतों का आरोपण होता है, वह-निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' है। - २ सातिबार छेदोपस्थापपनीय-मूल गुणों का घात करने वाले साधु के जो पुनः महाव्रतों का आरोपण होता है, वह-'सातिचार छंदोपस्थापनीय चारित्र' है। .(३) परिहार-विशुद्धि चारित्र-जिस चारित्र में परिहार (तप विशेष) से कर्म निर्जरा रूप शुद्धि होती है, उसे-'परिहार-विशुद्धि चारित्र' कहते हैं । अथवा-जिस चारित्र में अनेषणीयादि का परित्याग विशेषरूप से शुद्ध होता है, वह 'परिहार-विशुद्धि चारित्र' है। स्वयं तीर्थंकर भगवान् के पास, या जिसने तीर्थंकर भगवान के पास रहकर पहले परिहार विशुद्धि चारित्र अंगीकार किया है, उसके पास यह चारित्र अंगीकार किया जाता है । नौ साधुओं का गण, परिहार तप अंगीकार करता है । इनमें से चार साधु पहले तप करते हैं, वे 'पारिहारिक' कहलाते हैं, चार वयावृत्य करते हैं, वे 'आनुपारिहारिक' कहलाते हैं और एक साधु कल्पस्थित अर्थात् गुरु रूप में वाचनाचार्य रहता है, जिसके पास पारि For Personal & Private Use Only Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३३८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि हारिक और आनुपारिवारिक साधु आलोचना प्रत्याख्यान आदि करते हैं। पारिवारिक साध ग्रीष्म ऋतु में जघन्य एक उपवास, मध्यम दो उपवास और उत्कृष्ट तीन उपवास का तप करते हैं । शिशिर काल में जघन्य बेला, मध्यम तेला और उत्कृष्ट चोला का तप करते हैं । वर्षाकाल में जघन्य तेला, मध्यम चोला और उत्कृष्ट पचोला तप करते हैं । ये पारण में आयंबिल करते हैं । शेष चार आनुपारिहारिक और कल्पस्थित (गुरु रूप में स्थित वाच नाचार्य) ये पांच साधु, सदा आयंबिल करते हैं। इस प्रकार पारिहारिक साधु छह माम तक तप करते हैं । छह मास तक नप कर लेने के बाद वे आनुपारिहारिक अर्थात वैयावृत्य करने वाले हो जाते हैं और वैयावृत्य करने वाले (आनुपारिहारिक) साधु, पारिहारिक बन जाते हैं अर्थात् तप करने लग जाते हैं। यह क्रम भी छह मास तक तक पूर्ववत् चलता है। इस प्रकार आठ साधुओं के तप कर लेने पर उनमें से एक गुरुपद पर स्थापित किया जाता है और गंष सात साधु वैयावृत्य करते हैं और गुरुपद पर रहा हुआ साधु, तप करना प्रारम्भ करता है। यह भी छह मास तक तप करता है । इस प्रकार अठारह माम में यह परिहार तप का कल्प पूरा होता है । परिहार तप पूर्ण होने पर वे साधु, या तो इमी कल्प को पुनः प्रारम्भ करते हैं, या जिनकल्प धारण कर लेते हैं अथवा पुनः गच्छ में आ जाते हैं । यह चारित्र, छेदो. पस्थापनीय चारित्र वालों के ही होता है, दूसरों के नहीं। . निविश्यमानक और निविष्टकायिक के भेद से परिहारविशुद्धि चारित्र दो प्रकार का तप करने वाले पारिहारिक साधु-निविश्यमानक' कहलाते हैं। उनका चारित्र 'निविश्यमानक परिहार-विशुद्धि चारित्र' कहलाता है । तप करके वैयावृत्य करने वाले आनुपारिहारिक साधु तथा तप करने के बाद गुरुपद पर रहा साधु-निविष्टकायिक' कहलाता है । इनका चारित्र 'निविष्ट-कायिक परिहार-विशुद्धि चारित्र' कहलाता है । ___ जघन्य नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु तक और उत्कृष्ट किञ्चिन्यून दस पूर्व तक का ज्ञान, सूत्र और अर्थ रूप से जिन्हें हो तथा जिनके द्रव्यादि का अभिग्रह हो और रत्नावली आदि तप किये हुए हों, वे ही परिहार तप अंगीकार कर सकते हैं । इससे कम ज्ञान वाला, परिहार तप अंगीकार नहीं कर सकता और जिसके दस पूर्व पूरे हो गये हों, उनको भी परिहार-विशुद्धि तप करने की आवश्यता नहीं रहती। (४) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र-सम्पराय का अर्थ है-'कषाय' । जिस चारित्र में सूक्ष्म सम्पराय अर्थात् मंज्वलन लोभ का सूक्ष्म अंश रहता है, उस-'सूक्ष्मसम्पराय चारित्र For Personal & Private Use Only Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--ग. ८ उ. ज्ञान दर्शनादि लब्धि कहते हैं। विशुद्धयमान और संक्लिग्यमान के भेद से सूक्ष्म-सम्पराय चारित्र के दो भेद हैं। क्षपक-श्रेणी और उपशम-श्रेणी पर चढ़ने वाले साध के परिणाम उत्तरोत्तर शुद्ध रहने के कारण उनका सूक्ष्म सम्पराय चारित्र-विशुद्धचमान' कहलाता है। उपशम श्रेणी से गिरते हुए साधु के परिणाम संक्लेश युक्त होते हैं, इसलिये उनका मूक्ष्म-सम्पराय चारित्र ‘संक्लिश्यमान' कहलाता है। (५) यथाख्यात चारित्र-कषाय का सर्वथा उदय न होने से अतिचार रहित, पारमार्थिक रूप से प्रसिद्ध चारित्र-'यथाख्यात चारित्र' कहलाता है, अथवा अकषायी साधु का (जो निरनिचार एवं यथार्थ होता है) चारित्र-'यथाख्यान चारित्र' कहलाता है । छद्मस्थ और केवली के भद से यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं, अथवा उपयांतमोह और क्षीण-मोह. या प्रतिपाती और अप्रतिपाती के भेद में इसके दो भेद हैं। मयोगी केवली और अयोगी केवली के भेद से-केवली यथाख्यात चारित्र के दो भेद हैं। (४-८) चारित्राचारित्र लब्धि अर्थात् देश-विरति लब्धि । यहां मूल गुण और उत्तरग तथा उनके भेदों को विवक्षा नहीं की है, किन्तु अप्रत्याख्यान कषाय के क्षयोपशमजन्य परिणाम मात्र की विवक्षा की गई है । इसलिये यह लब्धि एक ही प्रकार की कही गई है। इसी प्रकार दानलब्धि, लाभलब्धि, भोगलब्धि और उपभोगलब्धि के भी भेदों की विवक्षा न करने से ये लब्धियाँ भी एक एक प्रकार की हा कही गई हैं। .. (९) वीर्यलब्धि के तीन भद कहे गये हैं। उनका अर्थ इस प्रकार है-बालवीर्य लब्धि-बाल अर्थात् संयम रहित जीव की असंयमरूप जो प्रवृत्ति होती है, उसे-'बालवीर्य लब्धि' कहते हैं । यह लब्धि, चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से और वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्रकट होती है। पण्डितवीर्य लब्धि -जिससे संयम के विषय में प्रवृत्ति होती है, उसे-'पण्डित वार्यलब्धि' कहते हैं और जिससे देश-विरति में प्रवृत्ति होती है, उसे 'बाल पण्डित वीर्यलन्धि' कहते हैं । (१०) इन्द्रियलब्धि के श्रोत्रेन्द्रियादि पांच भेद हैं, जो ऊपर बतला दिये गये हैं। . · ज्ञानलब्धि वाले जीव ज्ञानी होते हैं और ज्ञान के अलब्धि वाले (ज्ञान लब्धि रहित) जीव अज्ञानी होते हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान लब्धिवाले जीवों में चार ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । क्योंकि केवली के आभिनिवोधिक ज्ञान नहीं होता । मतिज्ञान की अलब्धिवाले . For Personal & Private Use Only Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४० भगवती सूत्र -दा. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि जो ज्ञानी हैं, वे एक मात्र केवलज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं, वे दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञान वाले हैं। इसी प्रकार श्रुतज्ञान की लब्धि और अलब्धिवाले जीवों के विषय में भी जानना चाहिये । अवधिज्ञान लब्धिवाले तीन ज्ञान वाले ( मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान ) अथवा चार ज्ञान वाले (केवलज्ञान के सिवाय) होते हैं । अवधिज्ञान की अलब्धिवाले जो ज्ञानी हैं, दो ज्ञान वाले ( मतिज्ञान, श्रुनज्ञान ) हैं अथवा तीन ज्ञान ( मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और मनः पर्यवज्ञान) वाले हैं। अथवा एक ज्ञान (केवलज्ञान ) वाले । जो अज्ञानी हैं, वे दो अज्ञान (मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान ) अथवा तीन अज्ञान वाले हैं । मन:पर्ययज्ञान लब्धिवाले तीन ज्ञान (मति, श्रुत और मनःपर्याय) वाले अथवा चार ज्ञान ( केवलज्ञान के सिवाय) वाले हैं । मन:पर्यय ज्ञान की अलब्धिवाले जो ज्ञानी हैं, वे दो ज्ञान वाले ( मनि और श्रुत) या तीन ज्ञान वाले (प्रथम के तीन ज्ञान । है, अथवा एक केवलज्ञान वाले है । इनमें जो अज्ञानी हैं, वे दो अज्ञान अथवा तीन अज्ञान वाले हैं । केवलज्ञान लब्धिवाले तो एक मात्र केवलज्ञान वाले हैं । केवलज्ञान की अलब्धि वाले जो ज्ञानी हैं, उनमें पहले के दो ज्ञान, अथवा पहले केतन ज्ञान, अथवा मनि, थुन और मनःपर्यत्र, ये तीन ज्ञान अथवा चार ज्ञान पाये जाते हैं । जो अज्ञानी हैं, उनमें पहले के दो अज्ञान अथवा तीन अज्ञान होते हैं । अज्ञानलब्धि वाले जीव अज्ञानी ही होते हैं, ज्ञानी नहीं होते। उन में भजना से तान अज्ञान होते हैं, अर्थात् कितने ही में पहले के दो अज्ञान और कितने ही में तीन अज्ञान होते हैं । ज्ञानलब्धि वाले जीव, जानी ही होते हैं। उनमें भजना से पांच ज्ञान पाये जाते हैं । मति अज्ञान और श्रुत अज्ञान की लविधवाले जीवों में भजना से तीन अज्ञान पाये जाते हैं। मति अज्ञान, श्रुत अज्ञान की अलब्धि वाले जीवों में पूर्वोक्त रीति से पाँच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । विभंगज्ञान लब्धिवाले जीवों में नियमा तीन अज्ञान पाये जाते हैं । विभंगज्ञान अलब्धि वाले ज्ञानी जीवों में पाँच ज्ञान भजना मे और अज्ञानी जीवों में नियम से दो अज्ञान पाये जाते हैं । दर्शन अर्थात् श्रद्धान । ज्ञानपूर्वक जो श्रद्धा होती है, वह 'सम्यश्रद्धान' है और जो अज्ञानपूर्वक होती है, वह 'मिथ्यावद्धान' है । सम्यक्थद्वान वाले जानी हा होते हैं । उनमें पाँच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। मिय्याश्रद्वान वाले अज्ञानी ही होते है। उन में तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । दर्शन-लब्धि से रहित कोई भी जीव नहीं होता । क्योंकि सम्यग् मिथ्या, मिश्र इन तीनों में से कोई न कोई दर्शन सभी जीवों में पाया ही For Personal & Private Use Only Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि जाता है। क्योंकि दर्शन तो रुचि (श्रद्धा) रूप है और रुचि सभी जीवों में होती है । सम्यग्दर्शन लब्धि वालों में पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । सम्यग्दर्शन लब्धि रहित जीव, या तो मिथ्यादृष्टि होते हैं, या मिश्रदृष्टि । उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। मिश्र दृष्टि में भी तात्त्विक सद्बोध नहीं होने के कारण अज्ञान ही होता है । १३४१ मिथ्यादर्शन लब्धि वाले जीव अज्ञानी ही होते हैं । उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । मिथ्यादर्शन लब्धि रहित जीव, या तो सम्यग्दृष्टि होते हैं, या मिश्र-दृष्टि होते हैं । सम्यग्दृष्टि जीवों में पांच ज्ञान भजना से और मिश्र दृष्टि जोवों में तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । सम्यग् मिथ्यादर्शन लब्धि वाले तथा अलब्धि वाले जीवों का कथन मिथ्यादर्शन लब्धि वाले और अलब्धि वालें जीवों के समान कहना चाहिये । चारित्र लब्धि वाले जीव ज्ञानी ही होते हैं । उनमें पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। क्योंकि केवली भगवान् भी चारित्री ही हैं। चारित्र अलब्धि वाले जीव, ज्ञानी और अज्ञानी दोनों तरह के होते हैं । जो ज्ञानी हैं, उनमें भजना से चार ज्ञान (मनः पर्यव ज्ञान के सिवाय) होते हैं । क्योकि असंयती जीवों में पहले के दो अथवा तीन ज्ञान होते हैं और सिद्ध भगवान् में केवलज्ञान होता है। सिद्धों में चारित्रलब्धि नहीं है, वे 'नोचारित्री नोअचारित्री' हैं | चारित्र लब्धि रहित जो अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । चारित्र के सामायिक चारित्र आदि पांच भेद कहे गये हैं। उनके स्वरूप का वर्णन पहले कर दिया गया है । सामायिक चारित्र लब्धि वाले जीव ज्ञानी ही होते हैं। उनमें चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय) भजना से पाये जाते हैं । सामायिक चारित्र अलब्धि वाले जीवों में से जो ज्ञानी हैं, उनमें पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। क्योंकि उनमें छेदोपस्थापनीय आदि चारित्र पाये जाते हैं, तथा सिद्ध भगवान् में भी सामायिक चारित्र नहीं है । सामायिक चारित्र अलब्धि वाले जो अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । जिस प्रकार सामायिक चारित्र लब्धि और अलब्धि वाले जीवों का कथन किया गया है, उसी प्रकार छेदोपस्थापनीय, परिहार- विशुद्धि, सूक्ष्म- सम्पराय और यथाख्यात चारित्र • लब्धि वाले और अलब्धिवाले जीवों का भी कथन करना चाहिये। विशेषता यह है कि यथाख्यात चारित्र लब्धि वाले जीवों में पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । तात्पर्य यह है कि सामा For Personal & Private Use Only Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४२ मनयनः मूत्र---श. ८ उ. २ जान दर्शनादि लब्धि यिक आदि चार चारित्रलब्धि वाले जीव, छद्मस्थ ही होते हैं । इसलिये उन में चार ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । यथाख्यात चारित्र ग्यारहवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के जीवों में होता है। इनमें से ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान वर्ती जीव छगस्थ है। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवी जीव केवली है। इसलिय यथाख्यात चारित्रलब्धि वाले जीवों में पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। ___ चारित्राचारित्र लब्धि वाले जीव ज्ञानी ही होते हैं। उनमें तीन ज्ञान भजना मे पाये जाते हैं। चारित्राचारित्र लब्धि रहित जीव जो ज्ञानी हैं, उनमें पांच ज्ञान भजना से और अज्ञानी में तीन अजान भजना से पाये जाते हैं। दानान्तराय कर्म के क्षय और क्षयोपशम स दान लब्धि प्राप्त होती है । इस लब्धि वाले जीव जो ज्ञानी हैं, उन में पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। क्योंकि केवल ज्ञानियों में भी दान-लब्धि पाई जाती है । दानलब्धि वाले ना अज्ञानी जीव हैं. उन में तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। दान-लब्धि रहित जीव सिद्ध होते हैं । यद्यपि उनके दानान्त राय कर्म का क्षय हो चका है, तथापि वहाँ दानव्य पदार्थ का अभाव होने से तथा दान ग्रहण करने वाले जीवों के न होने से, और कृतकृत्य हो जाने के कारण किसी प्रकार का प्रयोजन न होने से उन में दान-लब्धि नहीं मानी गई। उन में नियमा एक केवलजान पाया जाता है। जिस प्रकार दान-लब्धि और अलब्धि वाले जीवों का कथन किया गया है, उसी प्रकार लाभ-लब्धि, भोग-लब्धि, उपभोग-लब्धि और वय-लब्धि तथा इनकी अलब्धि वाले जीवों का कथन करना चाहिये । इन सबकी अलब्धिदाले जीव, पूर्वोवत न्याय से 'सिद्ध' ही हैं । यद्यपि उनमें दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य, इन पांचों तरह के अन्तराय कर्म का सर्वथा क्षय हो चुका है, तथापि वे भगवान् सर्वथा कृतकृत्य हो चुके हैं । इसलिय उनको दान लाभादि किमी प्रकार का प्रयोजन नहीं है अर्थात् कृतकृत्य हो जाने से तथा प्रयाजन के अभाव से दानादि में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती। वीर्यलब्धि के तीन भेद हैं । उनका स्वरूप बतला दिया गया है । बालवीयलब्धि वाले जीव असंयत (अविरत) कहलाते हैं। उनमें से जानी जीवों में पहले के तीन ज्ञान भजना से और अज्ञानी जीवों में तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । बालवीर्य लम्धि रहित जीव सर्वविरत, देशविरत और सिद्ध होते हैं । इन में पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । पण्डितवीर्य लब्धि वाले जीव जानी ही होते हैं। उन में पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। पण्डितबीयं लब्धि रहित जीव असंयत, देशसंयत और सिद्ध होते हैं । इनमें से असंयत जीवों For Personal & Private Use Only Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि में पहले के तीन ज्ञान या तीन अजान भजना से पाये जाते हैं । देशसंयत में पहले के तीन ज्ञान भजना से होते हैं । सिद्ध जीवों में एकमात्र केवलज्ञान ही होता है । मनःपर्ययज्ञान केवल पण्डितवीयं लब्धिवाले जीवों में ही होता है। सिद्ध जीव पण्डितवीर्य लब्धि रहित हैं, क्योंकि अहिंसादि धर्म कार्यों में सर्वथा प्रवृत्ति करना पण्डितवीर्य कहलाता है और यह प्रवृत्ति मिद्ध जीवों में नहीं है। बालपण्डितवीर्य लब्धि वाले जीवों में अर्थात् देशसंयत जीवों में पहले के तीन ज्ञान भजना से होते हैं । बालपण्डितवीर्य लब्धि रहित जीव असंयत, सर्वविरत और सिद्ध जोव होते हैं। इन में पांच ज्ञान तथा तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। इन्द्रिय-लब्धि के पांच भेद पहले कहे गये हैं। इन्द्रिय-लब्धि वाले ज्ञानी जीवों में पहले के चार ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। इनमें केवलज्ञान नहीं होता, क्योंकि केवलज्ञानी जीवों में इन्द्रियों का उपयोग नहीं होता। इन्द्रिय-लब्धि वाले अज्ञानी जीवों में तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । इन्द्रिय-लब्धि से रहित एक केवलज्ञानी जीव ही होते हैं, उनमें एक केवलज्ञान ही पाया जाता है। जिस प्रकार इन्द्रिय-लब्धि वाले जीवों का कथन किया गया, उसी प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि वाले जीवों का कथन करना चाहिए। श्रोत्रन्द्रिय-लब्धि रहित जीवों में जो ज्ञानी हैं, वे दो ज्ञान वाले या एक ज्ञान वाले होते हैं। जो दो ज्ञान वाले होते हैं, वे अपर्याप्त अवस्था में सास्वादन सम्यगदृष्टि विकलेन्द्रिय जीव हैं, और जो एक ज्ञान वाले हैं, वे एक केवलजान वाले है । क्योंकि वे इन्द्रियोपयोग रहित होने से श्रोवेन्द्रिय-लब्धि रहित हैं । श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि रहित अज्ञानी जीवों में पहले के दो अज्ञान पाये जाते हैं। जिस प्रकार श्रोत्रेन्द्रिय-लब्धि वाले तथा अलब्धि वाले जीवों का कथन किया गया, उसी प्रकार चक्षुरिन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय लब्धि वाले तथा इनकी अलब्धि वाले जीवों का कथन करना चाहिये। चक्षुरिन्द्रिय और घ्राणन्द्रिय लब्धि वाले जो पञ्चेन्द्रिय जीव हैं, उनमें चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय) और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। तथा जो विकलेन्द्रिय जीव है, उनमें सास्वादन सम्यग्दर्शन के सद्भाव में पहले के दो ज्ञान और सास्वादन सम्यग्दर्शन के अभाव में पहले के दो अज्ञान पाये जाते हैं । चक्षुरिन्द्रिय लब्धि से रहित जीव एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय और ते इन्द्रिय तथा केवली होते हैं। घ्राणेन्द्रिय-लब्धि से रहित जोव-एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय और केवली होते हैं। उनमें से बेइन्द्रिथ और तेइन्द्रिय जीवों में सास्वादन सम्यग्दर्शन के सद्भाव में पहले के दो ज्ञान होते हैं और सास्वादन सम्यग्दर्शन के अभाव में पहले के दो अज्ञान होते हैं। केवलियों में एक केवलज्ञान होता है । जिव्हेन्द्रिय For Personal & Private Use Only Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४४ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ योग उपयोगादि में ज्ञान अज्ञान लब्धि वाले जीवों में चार ज्ञान, या तीन अज्ञान भजना से पाये जाने हैं। जिव्हेन्द्रिय लब्धि रहित जीव ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं । जो ज्ञानी हैं, वे केवलज्ञानी हैं । उनमें एक केवलज्ञान पाया जाता है। जो अज्ञानी हैं, वे एकेन्द्रिय हैं । उनमें दो अज्ञान नियम से पाये जाते हैं । विभंगज्ञान का उनमें अभाव है । एकेन्द्रिय जीवों में सास्वादन सम्यग्दर्शन का अभाव होने से ज्ञान का अभाव है । जिस प्रकार इन्द्रिय-लब्धि वाले और अलब्धि वाले जीवों का कथन किया गया है, उसी प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय लब्धि और अलब्धिवाले जीवों का कथन करना चाहिये अर्थात् स्पर्शनेन्द्रिय लब्धि वालों में चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय ) और तीन अंज्ञान भजना से पाये जाते हैं । स्पर्शनेन्द्रिय लब्धि रहित केवली ही होते हैं, उनमें एक कंवलज्ञान ही होता है । योग उपयोगादि में ज्ञान अज्ञान ९० प्रश्न - सागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी ? ९० उत्तर - पंच णाणाई तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । ९१ प्रश्न - आभिणिवोहियणाण-सागारोवउत्ता णं भंते !० ? ९१ उत्तर - चत्तारि णाणाई भयणाए । एवं सुयणाण-सागारोवि । ओहिणा- सागारोवउत्ता जहा ओहिणाणलद्वीया | मणपज्जवणाण-सागारोवउत्ता जहा मणपज्जवणाणलद्वीया । केवलणाणसागरोत्ता जहा केवलणाणलदीया | म अण्णाण-सागारोवउत्ताणं तिष्णि अण्णाणाई भयणाए । एवं सुयअण्णाण -सागारोवउत्ता वि विभंगणाण-सागारोवउत्ताणं तिष्णि अण्णाणाइं णियमा । For Personal & Private Use Only Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-शं. ६ उ. २ योग उपयोगादि में ज्ञान अज्ञान ९२ प्रश्न-अणागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी ? . ९२ उत्तर-पंच णाणाई तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । एवं चक्खुदंसण-अचखुदंसण-अणागारोवउत्ता वि; णवरं चत्तारि णाणाई तिण्णि अण्णाणाई भयणाए । - ९३ प्रश्न-ओहिदंसण-अणागारोवउत्ताणं पुच्छा। ९३ उत्तर-गोयमा ! णाणी वि अण्णाणी वि । जे गाणी ते अत्थेगइया तिण्णाणी अत्थेगइया चउणाणी। जे तिण्णाणि ते आभिणिवोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी । जे चउणाणी ते आभिणिबोहियणाणी, जाव मणपजवणाणी। जे अण्णाणी ते णियमा तिअण्णाणी, तं जहा-मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगणाणी। केवलदसण-अणागारोवउत्ता जहा केवलणाणलद्धीया । कठिन शब्दार्थ-सागारोवउत्ता- साकारोपयुक्त (ज्ञानोपयोग वाले) अणागारोवउत्ता-अनाकारोपयुक्त-दर्शनोपयोग वाले । . भावार्थ-९० प्रश्न-हे भगवन् ! साकारोपयोगवाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ९. उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी। जो ज्ञानी हैं उनमें पांव ज्ञान भजना से हैं, और जो अज्ञानी हैं, उनमें तीन अज्ञान भजना से हैं। - ९१ प्रश्न-हे भगवन् ! आभिनिबोधिक ज्ञान साकारोपयोग वाले जीव, ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? .. ९१ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं। उनमें चार ज्ञान For Personal & Private Use Only Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४६ भगवती सूत्र - ८ उ. २ योग उपयोगादि में ज्ञान अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । श्रुतज्ञान साकारीपयोगवाले जौव भी इसी प्रकार हैं । अवधिज्ञान साकारोपयोग वाले जीवों का कथन अवधिज्ञान लब्धिवाले जीवों (सू. ७१ ) के समान जानना चाहिये अर्थात् उनमें तीन या चार ज्ञान पाये जाते हैं | मनः पर्यवज्ञान साकारोपयोग वाले जीवों का कथन, मनः पर्यवज्ञान लब्धि वाले जीवों (सू. ७३) के समान जानना चाहिये अर्थात् उनमें मति, श्रुत और मनःपर्याय, तीन ज्ञान, अथवा अवधि सहित चार ज्ञान पाये जाते हैं । केवलज्ञान साकारोपयोग वाले जीवों का कथन केवलज्ञान लब्धि वाले जीवों (सू. ७५) के समान जानना चाहिये, अर्थात् उनमें एक केवलज्ञान हो पाया जाता है । मतिअज्ञान साकारोपयोगवाले और श्रुतअज्ञान साकारोपयोग वाले जीवों में तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । विभंगज्ञान साकारोपयोगवाले जीवों में नियम से तीन अज्ञान पाये जाते हैं । ९२ प्रश्न - हे भगवन् ! अनाकारोपयोगवाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ९२ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी । उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञात भजना से होते हैं । इस प्रकार 'चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन अनाकारोंपयोगवाले जीवों के विषय में भी जान लेना चाहिये । परन्तु उनमें चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं । ९३ प्रश्न - हे भगवन् ! अवधिदर्शन अनाकारोपयोग वाले जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ९३ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी। उनमें जो ज्ञानी हैं, उनमें से कितने ही तीन ज्ञानवाले ( पहले के तीन ज्ञान वाले) और कितने ही चार ज्ञानवाले होते हैं । जो अज्ञानी हैं, उनमें नियम से तीन अज्ञान पाये जाते हैं । यथा-मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान । केवलदर्शन अनाकारोपयोगवाले जीवों का कथन केवलज्ञान लब्धि वाले जीवों (सूत्र ७५ ) की तरह जानना चाहिये । वे मात्र एक केवलज्ञान वाले होते हैं । ९४ प्रश्न - सजोगी र्ण भंते! जीवा किं णाणी ० १ For Personal & Private Use Only Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र-श: ८ उ. २ योग उपयोगादि में ज्ञान अज्ञान १३४७ ९४ उत्तर-जहा सकाइया । एवं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी वि । अजोगी जहा सिद्धा। . ९५ प्रश्न-सलेस्सा णं भंते ! ०? ९५ उत्तर-जहा सकाइया । ९६ प्रश्न-कण्हलेस्सा णं भंते ! • ? ९६ उत्तर-जहा सइंदिया । एवं जाव पम्हलेस्सा, सुक्कलेस्सा जहा सलेस्सा । अलेस्सा जहा सिद्धा। ९७ प्रश्न-सकमाई णं भंते ! • ? ९७ उत्तर-जहा सइंदिया ! एवं जाव लोभकसाई । ९८ प्रश्न-अकसाई णं भंते ! किं णाणी . ? ९८ उत्तर-पंव णाणाई भयणाए । ९९ प्रश्न-सवेयगा णं भंते ! • ? ९९ उत्तर-जहा सइंदिया । एवं इत्थिवेयगा वि, एवं पुरिसवेयगा वि, एवं णपुंसग वेयगा वि । अवेयगा जहा अकसाई । - १०० प्रश्न-आहारगा णं भंते ! जीवा . ? १०० उत्तर-जहा सकसाई, णवरं केवलणाणं वि । १०१ प्रश्न-अणाहारगा णं भंते ! जीवा किं णाणी, अण्णाणी? १०१ उत्तर-मणपजवणाणवजाई णाणाई अण्णाणाणि य तिण्णि भयणाए। For Personal & Private Use Only Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ योग उपयोगादि में ज्ञान अज्ञान कठिन शब्दार्थ सलेस्सा-जिसमें कृष्णादि छह लेश्या में की कोई लेझ्या हो, अलेस्सा-लेश्या रहित, सकसाई-क्रोधादि चार कषाय युक्त, सवेयगा-स्त्री, पुरुष और नपुंसक वेद-भावयुक्त । भावार्थ-९४ प्रश्न-हे भगवन् ! सयोगी जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ९४ उत्तर-हे गौतम ! उनका कथन सकायिक जीवों (सूत्र ३८) के समान जानना चाहिये । मनयोगी, वचनयोगों और काययोगी जीवों का कथन भी इसी तरह जानना चाहिये । अयोगी अर्थात् योग रहित जीवों का कथन सिद्धों (सूत्र ३०) के समान जानना चाहिये । ९५ प्रश्न-हे भगवन् ! सलेशी जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ९५ उत्तर-हे गौतम ! उनका कथन सकायिक जीवों (सूत्र ३८) के समान जानना चाहिये। ९६ प्रश्न-हे भगवन् ! कृष्णलेशी जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ९६ उत्तर-हे गौतम ! उनका कथन सेन्द्रिय-जीवों (सूत्र ३५) के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या और पदम लेश्या वाले जीवों का कथन जानना चाहिये । शुक्ललेश्या वाले जीवों का कथन सलेशी जीवों (सूत्र ९५) के समान जानना चाहिये । और अलेशी जीवों का कथन (सूत्र ३०) को तरह जानना चाहिये । • ९७ प्रश्न-हे भगवन् ! सकषायी जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? ९७ उत्तर-हे गौतम ! उनका कथन सेन्द्रिय जीवों (सूत्र ३५) के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार क्रोध-कषायी, मान-कषायी, मायाकषायी और लोमकषायी जीवों के विषय में भी जान लेना चाहिये । ९८ प्रश्न-हे भगवन् ! अकषायो जीव ज्ञानी हैं, अज्ञानी हैं ? ९८ उत्तर-हे गौतम ! वे ज्ञानी हैं, अज्ञानी नहीं । उनमें पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। ____ ९९ प्रश्न-हे भगवन् ! सवेदक (वेद सहित) जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? For Personal & Private Use Only Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ योग उपयोगादि में ज्ञान अज्ञान ९९ उत्तर - हे गौतम! वे भी सेन्द्रिय जीवों (सूत्र ३५ ) की तरह हैं । इसी प्रकार स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवों के विषय में भी जानना चाहिये । अवेदक जीवों का वर्णन अकषायी जीवों (सूत्र ९८ ) के समान है । १०० प्रश्न - हे भगवन् ! आहारक जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? १०० उत्तर - हे गौतम! आहारक जीव, सकषायी जीवों ( सूत्र ९७ ) के समान है । परन्तु इतनी विशेषता है कि उनमें केवलज्ञान भी पाया जाता है । १३४९ १०१ प्रश्न - हे भगवन् ! अनाहारक जीव ज्ञानी हैं, या अज्ञानी ? १०१ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी । उनमें चार ज्ञान ( मन:पर्यय के सिवाय) और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । विवेचन — उपयोग द्वार - आकार का अर्थ है- ' विशेषता सहित बोध होना' अर्थात् विशेष ग्राहक को 'साकार उपयोग' कहते हैं। साकारोपयोग वाले जीव ज्ञानी और अज्ञानी दोनों तरह के होते हैं । उनमें से ज्ञानी जीवों में पांच ज्ञान भजना से होते हैं, अर्थात् कुछ जीवों में दो, कुछ जीवों में तीन, कुछ जीवों में चार और कुछ जीवों में एक केवलज्ञान होता है । इनका कथन ज्ञान-लब्धि की अपेक्षा है। उपयोग की अपेक्षा तो एक समय में एक हीं ज्ञान अथवा एक ही अज्ञान होता है। अज्ञानी जीवों में तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। अभिविधिक (मति) ज्ञानादि साकारोपयोग के भेद हैं । आभिनिबोधिक मदि साकारोपयोग वाले जीवों में ज्ञान, अज्ञान आदि का कथन ऊपर किया गया है। इनका वर्णन तत्तद् लब्धि वाले जीवों के समान जानना चाहिये । जिस ज्ञान में आकार अर्थात् जाति, गुण, क्रिया आदि स्वरूप विशेष का प्रतिभास (बोध) न हो, उसे 'अनाकारोपयोग' (दर्शनोपयोग ) कहते हैं। अनाकारोपयोग वाले जीव ज्ञानी और अज्ञांनी दोनों प्रकार के होते हैं । ज्ञानी जीवों में लब्धि की अपेक्षा पांच ज्ञान भजना से और अज्ञानी जीवों में तीन अज्ञात भजना से पाये जाते हैं। अनाकारोपयोग वालों की तरह चक्षु दर्शन और अचक्षुदर्शन, अनाकारोपयोग वालों के विषय में भी जानना चाहिये । किन्तु चक्षुदर्शन और अचक्षु-दर्शन वाले जीव केवली नहीं होते। इसलिये उनमें चार ज्ञान तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । अवधिदर्शन अनाकारोपयोग वाले जीव, ज्ञानी और अज्ञानी दोनों तरह के होते हैं। क्योंकि दर्शन का विषय सामान्य है । सामान्य अभिन्नरूप होने से दर्शन में ज्ञानी और For Personal & Private Use Only Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५० भगवती सूत्र - ग. ८ उ. २ योग उपयोगादि में ज्ञान अज्ञान अज्ञानी भेद नहीं होना । योग द्वार--सयोगी जीव, सकायिक जीवों के समान है । उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से होते हैं। इसी प्रकार मन योगी, वचन योगी और काय योगी जीवों के विषय में भी जानना चाहिये । क्योंकि केवली में भी मनयोगादि होते हैं । मिथ्यादृष्टि जीवों में तीन अज्ञान भजना से होते हैं। अयोगी जावों में एक केवलज्ञान ही होता है । लेश्या द्वार - सलेशी जीवों का वर्णन सकायिक जीवों के समान है। उनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। क्योंकि केवली में भी शुक्ल लेश्या होने के . कारण वे सलेशी हैं । कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या और पद्म लेश्या वाले जीवों का कथन, सेन्द्रिय जीवों के समान है। उनमें चार ज्ञान, तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । शुक्ल लेश्या वाले जीवों का कथन सलेशी जीवों के समान है । अ जीवों में एक केवलज्ञान ही होता है । कषाय द्वार - सकषायी, क्रोध कषायी, मान कषायी, माया कषायी और लोभ कषायी जीवों का कथन, सेन्द्रिय जीवों के समान है। उनमें चार ज्ञान (केवलज्ञान के सिवाय ) और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं। अकषायी जीवों में पांच ज्ञान भजना से पाये जाते हैं । अकषायी, छद्मस्थ वीतराग और केवली होते हैं । उनमें से छदमस्थ वीतराग में पहले के चार ज्ञान भजना से पाये जाते हैं और केवली में एक केवलज्ञान ही पाया जाता है । वेद द्वार-संवेदक का कथन, सेन्द्रिय के समान है । उनमें चार ज्ञान ( केवलज्ञान के सिवाय) और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते हैं । अवेदक- वेद रहित जीवों का कथन अकपायी के समान है । उनमें पांच ज्ञान भजना से पाये जाते | क्योंकि 'अनिवृत्ति बादर' नामक नौवें गुणस्थान से चौदहवें गुणस्थान तक के जीव अवेदक होते हैं। उनमें से बारहवें गुणस्थान तक के जीव छद्यस्थ होते हैं और उनमें चार ज्ञान भजना से पाये जाते हैं। तेरहवें चौदहवें गुणस्थानवर्ती अवेदक, केवली होते हैं और उनमें एक केवलज्ञान पाया जाता है । आहारक द्वार - आहारक जीवों का कथन सकषायी जीवों के समान है । कषाय जीवों में चार ज्ञान और तीन अज्ञान कहे गये हैं, परन्तु आहारक जीवों में केवलज्ञान भी होता है । क्योंकि केवलज्ञानी आहारक भी होते हैं । अनाहारक जीवों में मन:पर्यय ज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान भजना से पाये जाते है । विग्रह गति, केवलीसमुद्घात और अयोगी दशा में जीव अनाहारक होते हैं। शेष अवस्था में जीव आहारक होते हैं । मन:पर्ययज्ञान, आहारक जीवों को ही होता है। अनाहारक जीवो को पहले के For Personal & Private Use Only Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान की व्यापकता ( विषय द्वार ) तीन ज्ञान या तीन अज्ञान विग्रह गति में होते हैं । अनाहारक केवलज्ञानी को केवलीसमुद्घात और अयोगी अवस्था में एक केवलज्ञान ही होता है । इस कारण अनाहारक जीवों में मन:पर्यय ज्ञान के सिवाय चार ज्ञान और तीन अज्ञान कहे गये हैं । ज्ञान की व्यापकता ( विषय द्वार ) १०२ प्रश्न - आभिणिवोहियणाणस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? १०२ उत्तर - गोयमा ! से समासओ चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा दव्वओ, खेत्तओ, कालओ भावओ । दव्वओ णं आभिणिबोहियगाणी आएसेणं सव्वदव्वाई जाणइ पासइ, खेत्तओ णं. आभिणिबोहियणाणी, आपसेणं सव्वखेत्तं जाणइ पासइ, एवं कालओ वि, एवं भावओ विं । १०३ प्रश्न - सुयणाणस्स णं भंते ! केवइए विसर पण्णत्ते ? १०३ उत्तर - गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहादव्वओ, खेतओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं सुयणाणी उवउत्ते सव्वदव्वाई जाणइ, पासइ, एवं खेत्तओ वि, कालओ वि । भावओ णं सुयणाणी उवउते सव्वभावे जाणइ, पासह । १०४ प्रश्न - ओहिणाणस्स णं भंते! केवइए विसए पण्णत्ते ? १०४ उत्तर - गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं . १३५१ For Personal & Private Use Only Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५२ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञान की व्यापकता ( विषय द्वार ) जहा - दव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं ओहिणाणी रूविदव्वाई जाणइ पासइ, जहा गंदीए, जाव भावओ । १०५ प्रश्न -मणपजवणाणस्स णं भंते! केवइए विसए पण्णत्ते ? १०५ उत्तर - गोयमा ! से समासओ चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहादव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं उज्जुम अनंते अनंत एसिए, जहा गंदीए, जाव भावओ । १०६ प्रश्न - केवलणाणस्स णं भंते! केवइए विसए पण्णत्ते ? १०६ उत्तर - गोयमा ! से समासओ चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहादव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं केवलणाणी सव्वदव्वाई जाणइ पासड़, एवं जाव भावओ । कठिन शब्दार्थ - आए सेणं-- आदेश से - ओघरूप से अर्थात् सामान्य विशेष की विवक्षा किये विना मात्र द्रव्य रूप से, समासओ --संक्षेप से, उवउत्ते - उपयुक्त । --हे भगवन् ! आभिनिबोधिक ज्ञान का विषय भावार्थ - - १०२ प्रश्न- कितना कहा गया है ? १०२ उत्तर - हे गौतम! आभिनिबोधिक ज्ञान का विषय संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है । यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से काल से और भाव से । द्रव्य से आभिनिबधिक ज्ञानी, सामान्य रूप से सभी द्रव्यों को जानता देखता है। क्षेत्र से आभिनिबोधिक ज्ञानी आदेश से ( सामान्य से ) सभी क्षेत्र को जानता और देखता है । इसी प्रकार काल और भाव से भी जानना चाहिये । १०३ प्रश्न - हे भगवन् ! श्रुतज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? १०३ उत्तर - हे गौतम ! वह संक्षेप से चार प्रकार का कहा है । यथा For Personal & Private Use Only Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान की व्यापकना (विषय द्वार) १३५३ द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य से उपयुक्त (उपयोग सहित) श्रुतज्ञानी, सभी द्रव्यों को जानता और देखता है । इस प्रकार क्षेत्र से, काल से भी जानना चाहिये । भाव से उपयुक्त श्रुतज्ञानी सभी भावों को जानता और देखता है। १०४ प्रश्न-हे भगवन् ! अवधिज्ञान का विषय कितना कहा है ? १०४ उत्तर-हे गौतम ! संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है। यथाद्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य से अवधिज्ञानी रूपी द्रव्यों को जानता ओर देखता है । इत्यादि जिस प्रकार नन्दी सूत्र में कहा है, उसी प्रकार यावत् भाव पर्यन्त कहना चाहिये। १०५ प्रश्न-हे भगवन् ! मनःपर्यय ज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? १०५ उत्तर-हे गौतम ! वह संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है। यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य से ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानी, मनपने परिणत अनन्त प्रादेशिक अनन्त स्कंधों को जानता और देखता है । इत्यादि जिस प्रकार नन्दो सूत्र में कहा है उसी प्रकार यावत् भाव तक जानना चाहिये। १०६ प्रश्न-हे भगवन् ! केवलज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? १०६ उत्तर-हे गौतम ! संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है। यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य से केवलज्ञानी सभी द्रव्यों को जानता और देखता है। इस प्रकार यावत् भाव से केवलज्ञानी समस्त भावों को जानता और देखता है। १०७ प्रश्न-मइअण्णाणस्स णं भंते ! केवइए विसए पण्णत्ते ? १०७ उत्तर-गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तं जहादव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ। दवओ णं मइअण्णाणी मइ For Personal & Private Use Only Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५४ भगवती सूत्र - ८ उ. २ ज्ञान की व्यापकता ( विषय द्वार ) अण्णाण परियाई दव्वाइं जाणड़ पासइ, एवं जाव भावओ णं मड़अण्णाणी मइअण्णाणपरिगए भावे जाणइ पासइ | १०८ प्रश्न - सुखअण्णाणस्स णं भंते ! केवइए विसर पण्णत्ते ? १०८ उत्तर - गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तं जहादव्वओ, खेत्तओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं सुयअष्णाणी सुयअण्णाणपरिगयाई दव्वाई आघवेइ, पण्णवेइ, परूवेइ । एवं खेत्तओ, कालओ, भावओ णं सुयअण्णाणी सुयअण्णाणपरिगए भावे आघवेह तं चैव । १०९ प्रश्न - विभंगणाणस्स णं भंते ! केवइए विसर पण्णत्ते ? १०९ उत्तर - गोयमा ! से समासओ चउव्विहे. पण्णत्ते, तं जहादव्वओ, खेतओ, कालओ, भावओ । दव्वओ णं विभंगणाणी विभंगणाणपरिगयाई ब्वाई जाणइ पास एवं जाव भावओ णं विभंगणाणी विभंगणाणपरिगए भावे जाणइ पासइ | कठिन शब्दार्थ - आघवेइ-कहता है, पण्णवेइ - बतलाता है, परूवेइ - प्ररूपित करता है । भावार्थ - १०७ प्रश्न - हे भगवन् ! मतिअज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? १०७ उत्तर - हे गौतम! वह संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है । यथा - द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य से मतिअज्ञानी, मतिअज्ञान के विषयभूत द्रव्यों को जानता और देखता है। इस प्रकार यावत् भाव से मतिअज्ञानी मतिअज्ञान के विषयभूत भावों को जानता और देखता है । For Personal & Private Use Only Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान की व्यापकता (विषय द्वार) १३५५ १०८ प्रश्न-हे भगवन् ! श्रुतअज्ञान का विषय कितना कहा गया है ? १०८ उत्तर-हे गौतम ! वह संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है। यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से । द्रव्य से श्रुतअज्ञानी, श्रुतअज्ञान के विषयभूत द्रव्यों को कहता है, बतलाता है और प्ररूपित करता है । इस प्रकार क्षेत्र से और काल से भी जानना चाहिये। भाव की अपेक्षा श्रुतअज्ञानी, श्रुतअज्ञान के विषयभूत भावों को कहता है, बतलाता है और प्ररूपित करता है। १०९ प्रश्न-हे भगवन् ! विमंगज्ञान का विषय कितना कहा गया हैं ? १०९ उत्तर-हे गौतम ! वह संक्षेप से चार प्रकार का कहा गया है, यथाद्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य की अपेक्षा विभंगज्ञानी, विभंगज्ञान के विषयभूत द्रव्यों को जानता और देखता है। यावत् भाव से विमंगज्ञानी विभंगज्ञान के विषयभूत भावों को जानता और देखता है। - विवेचन-ज्ञान विषयद्वार-आभिनिबोधिक ज्ञान का विषय चार प्रकार का बतलाया गया है । यथा-द्रव्य से, क्षेत्र से, काल से और भाव से। द्रव्य का अर्थ है-धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य । क्षेत्र का अर्थ है-द्रव्यों का आधारभूत आकाश । काल का अर्थ है-द्रव्यों के पर्यायों की स्थिति । भाव का अर्थ है-औदयिक आदि भाव अथवा द्रव्य के पर्याय । इनमें से द्रव्य की अपेक्षा जो आभिनिबोधिक ज्ञान हो, वह धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों को आदेश से अर्थात् ओघरूप से (सामान्यतया) द्रव्य-मात्र जानता है। परन्तु उसमें रही हुई सभी विशेषताओं से नहीं जानता। अथवा आदेश का अर्थ-'श्रुतज्ञान जनित संस्कार,' इसके द्वारा अवाय और धारणा को अपेक्षा जानता है । क्योंकि अवाय और धारणा ज्ञान रूप है। तथा अवग्रह और ईहा से देखता है । क्योंकि अवग्रह और ईहा-दर्शनरूप है। श्रुतज्ञान जन्य संस्कार द्वारा लोकालोक रूप सर्व-क्षेत्र को जानता है । इस प्रकार काल से सभी काल को और भाव से औदयिक आदि पांच भावों को जानता है। शंका-मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद कहे गये हैं । किन्तु अवाय और धारणा को ही ज्ञानरूप मानने से श्रोत्रादि के भेद से मतिज्ञान के बारह ही भेद रह जायेंगे । तथा श्रोत्रादि के भेद से अवग्रह और ईहा के बारह भेद तथा भ्यञ्जनावग्रह के चार भेद ये कुल सोलह भेद वक्षु आदि दर्शन के होंगे ? फिर मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद किस प्रकार घटित होंगे? समाधान-शंका ठीक है, किन्तु यहां मतिज्ञान और चक्षुआदि दर्शन इन दोनों के For Personal & Private Use Only Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५६. भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान की व्यापकता (विषय द्वार) भेद की विवक्षा नहीं करने से मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद कहे गये हैं। उपयोग सहित श्रुतज्ञानी (सम्पूर्ण दसपूर्वधर आदि श्रुतकेवली) धर्मास्तिकाय आदि सभी द्रव्यों को विशेष रूप से जानता है और श्रुतानुसारी मानस-अचक्षु दर्शन द्वारा सभी अभिलाप्य द्रव्यों को देखता है । इस प्रकार क्षेत्रादि के विषय में भी जानना चाहिये । भाव से उपयुक्त श्रुतज्ञानी, औदयिक आदि समस्त भावों को अथवा सभी अभिलाप्य भावों को जानता है । यद्यपि अभिलाप्य भावों का अनन्तवां भाग ही श्रुत प्रतिपादित है, तथापि प्रसंगानुप्रसंग से सभी अभिलाप्य भाव श्रुतज्ञान के विषय हैं । इसलिये उनकी अपेक्षा सर्व भावों को जानता है'-ऐसा कहा गया है। द्रव्य से अवधिज्ञानी जघन्य तेजस् और भाषा द्रव्यों के अन्तरालवर्ती सूक्ष्म अनन्त पुद्गल द्रव्यों को जानता है। उत्कृष्ट बादर और मूक्ष्म, सभी द्रव्यों को जानता है । अवधिदर्शन से देखता है । क्षेत्र से अवधिज्ञानी जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को जानता और देवता है। उत्कृष्ट समस्त लोक और लोक सरीखे असंख्यात खण्ड अलोक में हों, तो उनको भी जानने और देखने की शक्ति है । काल से अवधिज्ञानी, जघन्य आवलिका के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट असंख्यात उत्सपिणी, अवसर्पिणी अतीत, अनागत काल को जानता पौर देखता है । अर्थात् इतने काल में रहे हुए रूपी द्रव्यों को जानता और देवता है । भाव मे अवधिज्ञानी, जघन्य अनन्त भावों को जानता और देखता है। परन्तु प्रत्येक द्रव्य के अनन्त भावों को नहीं जानता, नहीं देखता । उत्कृष्ट से भी अनन्त भावों को जानता और देखता है । परन्तु वे भाव समस्त पर्यायों के अनन्तवें भाग रूप जानने चाहिये । मनःपर्यय ज्ञान के दो भेद हैं । ऋजुमति और विपुलमति । सामान्यग्राही मति को 'ऋजमति मनःपर्याय ज्ञान' कहते हैं । जैसे कि 'इसने घट का चिन्तन किया है।' इस प्रकार का सामान्य कितनीक पर्याय विशिष्ट मनोद्रव्य का ज्ञान । द्रव्य से ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी ढाई द्वीप में रहे हुए संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मन रूप से परिणत मनोवगंणा के अनल स्कन्धों को साक्षात् जानता, देखता है। परन्तु उसके द्वारा चिन्तित घटादि रूप पदार्थ को (इस प्रकार के आकार वाला मनोद्रव्य का परिणाम, इस प्रकार के चिन्तन के विना घटित नहीं हो सकता-इस प्रकार की अन्यथानुपपत्ति रूप अनुमान से) जानता है। इसलिय 'पासइ-पश्यति-देखता है '--ऐसा कहा गया है। विपुलमति मनःपर्ययज्ञान--विपुल का अर्थ है-'अनेक विशेषग्राही' अर्थात् अनेक विशेषता युक्त मनोद्रव्य के ज्ञान को विपुलमति मनःपर्यय जान कहते हैं । जैसे कि--'इसने For Personal & Private Use Only Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञानादि का काल १३५७ जिस घट का चिन्तन किया. वह द्रव्य से मिट्टी का बना हुआ है, क्षेत्र से पाटलीपुत्र (पटना) में है । काल से वसन्त-ऋतु का है और भाव से पीले रंग का है । इत्यादि विशेषताओं को जानता है। - ऋजुमति मनःपर्ययज्ञानी क्षेत्र से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट निर्यग्मनुष्यलोक (ढाई द्वाप और दो समुद्र) में रहे हुए संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगत भावों की जानता देखता है । विपुलमति उससे ढ़ाई अंगुल अधिक क्षेत्र में रहे हुए जीवों के मनोगत भावों को विशेष प्रकार से, विशुद्ध रूप से जानता देखता है । तात्पर्य यह है कि ऋजुमति मनःपर्यय ज्ञानी, क्षेत्र से जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट अधोदिशा में रत्नप्रभा पृथ्वी के उपरितन तल के नीचे के क्षुल्लक प्रतरों को जानता-देखता है । ऊर्ध्व दिशा में ज्योतिषी के उपरितल को जानता देखता है । तिर्यक दिशा में ढ़ाई अंगुल कम ढाई द्वीप और दो समुद्र के संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीवों के मनोगतभावों को जानता देखता है । विपुलमति, क्षेत्र की अपेक्षा सम्पूर्ण ढाई द्वीप और दो समुद्र को जानता-देखता है । काल से ऋजुपति जवन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग को और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग जितने अतीत अनागत काल को जानता-देखता है। विपुलमति मनःपर्ययज्ञानी भी इसी को स्पष्ट रूप से जानता देखता है। भाव से ऋजुमति सभी भावों के अनन्तवें भाग में रहे हुए अनन्त भावों को जानता-देखता है । विपुलमति इन्हें विशुद्ध और स्पष्ट रूप से जानता-देखता है। केवलज्ञान के दो भेद हैं । भवस्थ केवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान । केवलज्ञानी सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानता-देखता है। ___ मंति अज्ञानी, मतिअज्ञान द्वारा गृहीत द्रव्यों को-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जानतादेखता है । श्रुत अज्ञानी, श्रुतअज्ञान द्वारा गृहीत द्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से कहता है। उनके भेद-प्रभेद करके बतलाता है । और हेतु, युक्ति द्वारा प्ररूपणा करता है विभंगज्ञानी विभंगज्ञान द्वारा गृहीत द्रव्यों को द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से जानता देखता है। ज्ञानादि का काल ११० प्रश्न-णाणी णं भंते ! 'णाणी' त्ति कालओ केवच्चिरं For Personal & Private Use Only Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५८ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ ज्ञानादि का काल हो ? ११० उत्तर - गोयमा ! णाणी दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - साइए वा अपज्जवसिए, साइए वा सपज्जवसिए । तत्थ णं जे से साइए सपज्जवसिए से जहणेणं अंतोमुहुत्तं, उनकोसेणं छावहिं सागरोव - माझं सातिरेगाई । १११ प्रश्न - आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! ० ? १११ उत्तर - आभिणिबोहिय० एवं णाणी, आभिणिबोहिय. णाणी, जाव केवलणाणी । अण्णाणी, मइअण्णाणी, सुयअण्णाणी, विभंगणाणी - एएसिं दसह वि संचिटुणा जहा कार्यट्टिईए । अंतरं सब्वं जहा जीवाभिगमे अप्पाबहुगाणि तिष्णि जहा बहुवत्तव्वयाए । कठिन शब्दार्थ - केवच्चिरं-कहां तक साइए - आदि सहित, अपज्जवसिए - पर्यवसान (अंत) रहित, सपज्जबसिए - अंतसहित, संचिणां अवस्थिति काल । भावार्थ - ११० प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञानी, ज्ञानीपने कितने काल तक रहता है ? ११० उत्तर - हे गौतम! ज्ञानी दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-सादिअपर्यवसित और सादि सपर्यवसित । सादि- सपर्यवसित ज्ञानी जघन्य अन्तर्मुहूर्त • और उत्कृष्ट कुछ अधिक छासठ सागरोपम तक ज्ञानीपने रहते हैं । १११ प्रश्न - हे भगवन् ! आभिनिबोधिक ज्ञानी, आभिनिबोधिक ज्ञानीकितने काल तक रहता है ? १११ उत्तर - हे गौतम! ज्ञानी, अभिनिवोधिकज्ञानी यात्रत्. केवली For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६० भगवती सूत्र--श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान के पर्याय ११३ प्रश्न-हे भगवन् ! श्रुतज्ञान के कितने पर्याय कहे गये हैं ? ११३ उत्तर-हे गौतम ! श्रुतज्ञान के अनन्त पर्याय कहे गये हैं। इसी प्रकार अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान के भी अनन्त पर्याय कहे गये हैं। इसी प्रकार मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान के भी अनन्त पर्याय कहे गये हैं। ११४ प्रश्न-हे भगवन् ! विमंगज्ञान के कितने पर्याय कहे गये है ? ११४ उत्तर--हे गौतम ! विभंगज्ञान के अनन्त पर्याय कहे गये हैं। ११५ प्रश्न-एएसिणं भंते ! आभिणिबोहियणाणपजवाणं, सुयणाणपजवाणं, ओहिणाणपज्जवाणं, मणपजवणाणपजवाणं, केवलणाणपजवाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? : ११५ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा मणपजवणाणपजवा, ओहिणाणपजवा अणंतगुणा, मुयणाणपज्जवा अणंतगुणा, आभिणिबोहियणाणपजवा अणंतगुणा, केवलणाणपजवा अणंतगुणा । _. ११६ प्रश्न-एएसि णं भंते ! मइअण्णाणपजवाणं सुयअण्णाणपजवाणं विभंगणाणपज्जवाण य कयरे कयरहितो जाव विसेसाहिया वा ? ११६ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा विभंगणाणपज्जवा, सुयअण्णाणपजवा अणंतगुणा, मइअण्णाणपजवा अणंतगुणा । ११७ प्रश्न-एएमि णं भंते ! आभिणिवोहियणाणपजवाणं, जाव केवलगाणपजवाणं, मडअण्णाणपजवाणं सुयअण्णाण For Personal & Private Use Only Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान के पर्याय ११३ प्रश्न-हे भगवन् ! श्रुतज्ञान के कितने पर्याय कहे गये हैं ? .... ११३ उत्तर-हे गौतम ! श्रुतज्ञान के अनन्त पर्याय कहे गये हैं। इसी प्रकार अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान के भी अनन्त पर्याय कहे गये हैं। इसी प्रकार मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान के भी अनन्त पर्याय कहे गये हैं। ११४ प्रश्न-हे भगवन् ! विमंगज्ञान के कितने पर्याय कहे गये है ? ११४ उत्तर--हे गौतम ! विभंगज्ञान के अनन्त पर्याय कहे गये हैं। ११५ प्रश्न-एएसिणं भंते ! आभिणिबोहियणाणपजवाणं, सुयणाणपजवाणं, ओहिणाणपजवाणं, मणपजवणाणपजवाणं, केवलणाणपजवाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? : ११५ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा मणपज्जवणाणपजवा, ओहिणाणपज्जवा अणंतगुणा, मुयणाणपजवा अणंतगुणा, आभिणिवोहियणाणपजवा अणंतगुमा, केवलणाणपजवा अणंतगुणा । ___११६ प्रश्न-एएसि णं भंते ! मइअण्णाणपजवाणं सुयअण्णाणपजवाणं विभंगणाणपजवाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? ___११६ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा विभंगणाणपज्जवा, सुयअण्णाणपजवा अणंतगुणा, मइअण्णाणपजवा अणंतगुणा । ___ ११७ प्रश्न-एएमि णं भंते ! आभिणिवोहियणाणपज्जवाणं, जाव केवलगाणपजवाणं, महअण्णाणपजवाणं सुयअण्णाण For Personal & Private Use Only Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. उ. २ ज्ञान अज्ञान के पर्याय पज्जवाणं, विभंगगाणपज्जवाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसा हिया वा ? ११७ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा मणपजवणाणपजवा, विभंगणाणपज्जवा अनंतगुणा, ओहिणाणपज्जवा अनंतगुणा, सुयअण्णाणपजवाअनंतगुणा, सुयणाणपज्जवा विसेसाहिया, मइअण्णाण - पजवा अनंतगुणा, आभिणिवोहियणाणपज्जवा विसेसाहिया, केवलणाणपजवा अनंतगुणा । १३६१ • सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ अटुमसए बीओ उसो समत्तो ॥ भावार्थ - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! पूर्व कथित आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान के पर्यायों में किसके पर्याय किससे अल्प, बहुत, तुल्य, या विशेषाधिक हैं ? ११५ उत्तर - हे गौतम! मन:पर्ययज्ञान के पर्याय सब से थोडे हैं, उनसे अवधिज्ञान के पर्याय अनन्त गुणा हैं। उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। उनसे आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। उनसे केवलज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं । ११६ प्रश्न- न-हे भगवन् ! मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान के पर्यायों में किसके पर्याय, किसके पर्यायों से यावत् विशेषाधिक हैं ? ११६ उत्तर - हे गौतम ! सबसे थोडे विभंगज्ञान के पर्याय हैं। उनसे श्रुतअज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। उनसे मतिअज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं । ११७ प्रश्न- न हे भगवन् ! इन आभिनिबोधिकज्ञान यावत् केवलज्ञान, For Personal & Private Use Only Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान-अज्ञान के पर्याय तथा मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभंगज्ञान के पर्यायों में किसके पर्याय किसके पर्यायों से यावत् विशेषाधिक हैं ? ११७ उत्तर-हे गौतम ! सबसे थोडे मनःपर्ययज्ञान के पर्याय है। उनसे विभंगज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। उनसे अवधिज्ञान के पर्याय अनन्त गण हैं। उनसे श्रुतअज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय विशेषाधिक हैं। उनसे मतिअज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। उनसे मतिज्ञान के पर्याय विशेषाधिक हैं । उनसे केवलज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। ... हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-काल द्वार-यहाँ ज्ञानी के दो भेद कहे गये हैं। यथा-'सादि अपर्यवसितजिसको आदि तो है, किन्तु अन्त नहीं, ऐसा ज्ञानो तो केवलज्ञानी होता है । दूसरा भेद है- सारि सपर्यवसित'-जिसके ज्ञान की आदि भी है और अन्त भी है । ऐसा ज्ञानी, मति आदि ज्ञान वाला होता है । इनमें से केवलज्ञान का काल सादि अपर्यवसित है, शेष मति आदि चार ज्ञानों का काल सादि सपर्यवसित है । इनमें से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । अवधिज्ञान और मनःपर्यय ज्ञान का जघन्य काल एक समय है । आदि के तीन ज्ञानों का उत्कृष्ट काल साधिक छासठ सागरोपम है। मनःपर्यय ज्ञान का उत्कृष्ट काल देशोन करोड़ पूर्व का है। केवलज्ञान का तो सादि अपर्यवसित है । भर्थात् केवलज्ञान उत्पन्न होकर फिर कभी नष्ट नहीं होता। ज्ञानी-आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और केवलज्ञानी; अज्ञानी-मति अज्ञानी, श्रुत अज्ञानी और विभंगज्ञानी- इन का स्थिति काल प्रज्ञापना सूत्र के अठारहवें कायस्थितिपद में कहे अनुसार जानना चाहिये । यद्यपि ज्ञानी का स्थिति काल पूर्वोक्त (सू. ११०) सूत्र में कहा गया है, तथापि यहां प्रकरण से सम्बन्धित होने के कारण फिर कहा गया है । आमिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान का काल जघन्य अन्तर्मुहूतं, उत्कृष्ट साधिक छासठ सागरोपम है। अवधिज्ञान का उत्कृप्ट काल भी इतना ही है, किन्तु जघन्य काल एक समय का है । जब किसी विभंगज्ञानी को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होती है. तब सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के प्रथम समय में ही विमंगज्ञान, अवधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है । इसके बाद तुरन्त ही दूसरे समय में वह अवधिज्ञान से गिरजाता है, तब केवल For Personal & Private Use Only Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श८ उ. २ ज्ञान अज्ञान के पर्याय एक समय ही अवधिज्ञान रहता है । मन:पर्ययज्ञानी का अवस्थिति काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट कुछ कम कोटि-पूर्व होता है । अप्रमत्त गुणस्थान में रहे हुए किसी संयत (मुनि) को मन:पर्यय ज्ञान उत्पन्न होता है और तुरन्त ही दूसरे समय में नष्ट हो जाता है । उत्कृष्ट न्यून पूर्व-कोटि वर्ष का अवस्थिति काल है । किसी पूर्व-कोटि वर्ष की आयुष्य ' वाले मनुष्य ने चारित्र अंगीकार किया । चारित्र अंगीकार करने के पश्चात् उसे शीघ्र ही मन:पर्ययज्ञान उत्पन्न हो जाय और यावज्जीवन रहे. उसका स्थिति काल उत्कृष्ट किञ्चिन्न्यून कोटि वर्ष होता है । केवलज्ञान का स्थिति काल सादि अनन्त है । अर्थात् केवलज्ञान की उत्पत्ति की आदि तो है, किन्तु वह उत्पन्न होने के बाद वापिस कभी नहीं जाता । इसलिये उसका कभी अन्त नहीं होता । अज्ञान - मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान का स्थिति-काल तीन प्रकार का है । यथा१ अनादिअनन्त ( अभव्य जीवों की अपेक्षा ) २ अनादि- सान्त ( भव्य जीवों की अपेक्षा ) ३ सादि- सान्त (सम्यग्दर्शन से गिरे हुए जीवों की अपेक्षा ) । इनमें से सादि- सान्त का काल जघन्य अन्तर्मुहुर्त है, क्योंकि कोई जीव, सम्यग्दर्शन से गिरकर अन्तर्मुहूर्त के बाद ही पुनः सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेता है । उत्कृष्ट अनन्तकाल है, क्योंकि कोई जीव, सम्यक्त्व से गिरकर फिर अनन्त काल बाद पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । विभंगज्ञान का स्थिति काल जघन्य एक समय है, क्योंकि उत्पन्न होने के बाद दूसरे समय में ही वह विनष्ट जाता है। उत्कृष्ट किचिन्न्यून पूर्व-कोटि अधिक तेतीस मागरोपम है, क्योंकि कोई मनुष्य किंचिन्न्यून पूर्व-कोटि वर्ष विभंगज्ञानी पने रहकर सातवीं नरक में उत्पन्न हो जाता है । अन्तर द्वार - यहाँ पाँच ज्ञान और तीन अज्ञान के अन्तर के लिये जीवाभिगम सूत्र की भलामण ( अतिदेश) दी गई है। वहाँ इस प्रकार बतलाया गया है-आभिनिंबोधिक ज्ञान का पारस्परिक अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम अर्द्ध पुद्गल - परावर्तन है । इस प्रकार श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान और मन:पर्यय ज्ञान के विषय में भी जानना चाहिये । केवलज्ञान का अन्तर नहीं होता । मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक छासठ सागरोपम है । विभंगज्ञान का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल ( वनस्पति काल जितना ) है | १३६३ अल्पबहुत्व द्वार-पाँच ज्ञान का अल्पबहुत्व इस प्रकार है - सबसे थोड़े मन:पर्ययज्ञानी । उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुण हैं। उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी दोनों विशेषाधिक हैं और परस्पर तुल्य हैं। उनसे केवलज्ञानी अनन्त गुण हैं । For Personal & Private Use Only Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान-अज्ञान के पर्याय शानी जीवों के अल्प-बहुत्व में मनःपर्ययज्ञानी सबसे थोड़े बतलाये गये हैं। इसका कारण यह है कि मनःपर्यय ज्ञान, संयत जीवों के ही होता है । अवधिज्ञानी जीव चारों गति में पाये जाते हैं । इसलिये वे उनसे असंख्यात गुण हैं। उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं । इसका कारण यह है कि अवधि आदि ज्ञान से रहित होने पर भी कितने ही पंचेन्द्रिय जीव और कितने ही विकलेन्द्रिय जीव (जिन्हें सास्वादन सम्यगदर्शन हो) भी आमिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी होते हैं । आभिनिबोधिक ज्ञान और श्रुतज्ञान का परस्पर साहचर्य होने से ये दोनों तुल्य हैं । इन सभी से सिद्ध अनन्त गुण होने से केवलज्ञानी जीव अनन्त गुण हैं । तीन अज्ञान का अल्प-बहुत्व-सबसे थोड़े विभंगज्ञानी हैं । उन से मतिअज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी अनन्त गुण हैं और ये दोनों परस्पर तुल्य हैं । ____ अज्ञानी जीवों की अल्प-बहुत्व में विभंगज्ञानी सबसे थोड़े बतलाये गये हैं । क्योंकि विभंगज्ञान पंचेन्द्रिय जीवों को हा होता है और वे सबसे थोड़े हैं। उनसे मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी अनन्त गुण बतलाये हैं । इसका कारण यह है कि एकेंद्रिय जीव भी मतिअज्ञानी श्रुत अज्ञानी होते हैं और वे अनन्न हैं । ये परस्पर तुल्य हैं । क्योंकि मतिअज्ञान और श्रुतअज्ञान का परस्पर साहचर्य है। ज्ञानी और अज्ञानी जीवों का सम्मिलित अल्प-बहुत्व-सवसे थोड़े मनःपर्ययज्ञानी हैं । उनसे अवधिज्ञानी असंख्यात गुण हैं । उनसे आभिनिबोधिक ज्ञानी और श्रुतज्ञानी विशेषाधिक हैं और वे परस्पर तुल्य हैं । उनसे विभंगज्ञानी असंख्यात गुण हैं, क्योंकि सम्यग्दृष्टि देव और नारक जीवों से मिथ्यादृष्टि असंख्यात गुण हैं । उनसे केवलज्ञानी अनन्त गुण हैं । क्योंकि एकेंद्रिय जीवों के सिवाय शेष सभी जीवों से सिद्ध अनन्त गुण हैं। उनसे मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी अनन्त गुण हैं और वे परस्पर तुल्य हैं । क्योंकि साधा. रण वनस्पतिकायिक जीव भी मति अज्ञानी और श्रुतअज्ञानी होते हैं और वे सिद्धों से अनन्त गुण हैं। पर्यायों का अल्प-बहुत्व-भिन्न-भिन्न अवस्थाओ के भेदों को 'पर्याय' कहते हैं। उसके दो भेद हैं । यथा-स्वपर्याप और पर-पर्याय । क्षयोपशम की विचित्रता से मतिज्ञान के अवग्रहादिक के अनन्त भेद होते है । वे स्वपर्याय कहलाते हैं । अथवा मतिज्ञान के विषयभूत ज्ञेय पदार्थ अनन्त हैं और ज्ञेय के भेद से ज्ञान के भी अनन्त भेद हो जाते हैं । इस प्रकार मतिज्ञान के अनन्त पर्याय हैं अथवा केवलज्ञान द्वारा मतिज्ञान के अंश किये जायें, तो For Personal & Private Use Only Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञ.न अजान के पर्याय १३६५ अनन्त अंश होते हैं । इस अपेक्षा से भी मतिनान के अनन्त पर्याय कहे जाते हैं। मतिज्ञान के सिवाय दूसरे पदार्थों के जो पर्याय हैं, वे पर-पर्याय' कहलाते हैं, ऐसे पर-पर्याय, स्वपर्याय से अनन्त गुण हैं। शङ्का-यदि वे परपर्याय हैं, तो 'व मतिज्ञान के हैं'-एसा कसे कहा जा सकता है ? यदि वे मनिज्ञान के हैं, तो पर -पर्याय कैसे कहे जा सकते हैं ? समाधान-पर-पदार्थों के पर्यायों का मतिज्ञान के विषय से सम्बन्ध नहीं है । इसलिये वे पर-पर्याय कहे जा सकते हैं । परन्तु मतिज्ञान के स्व-पर्यायों का बोध कराने में तथा परपर्यायों से उन्हें भिन्न बतलाने में प्रतियोगी रूप से उनका उपयोग है । इसलिये वे मतिज्ञान के 'पर-पर्याय' कहलाते हैं। श्रुतज्ञान के भी स्व-पर्याय और पर-पर्याय अनन्त हैं। उनमें से श्रुतज्ञान के अक्षरश्रुत और अनक्षर-श्रुत आदि जो भेद हैं, वे 'स्व-पर्याय' कहलाते हैं और वे अनन्त हैं। क्योंकि श्रुतज्ञान के क्षयोपशम की विचित्रता से तथा श्रुतज्ञान के विषयभूत ज्ञेय-पदार्थ अनन्त होने से श्रुतज्ञान के (श्रुतानुसारीबोध के) भी अनन्त भेद हो जाते हैं । अथवा केवलज्ञान के द्वारा श्रुतज्ञान के अनन्त अंश होते हैं और वे उसके स्व-पर्याय कहलाते हैं । उनसे भिन्न पदार्थों के . विशेष धर्म, श्रुतज्ञान के परपर्याय कहलाते हैं। अवधिज्ञान के स्व-पर्याय अनन्त हैं । क्योंकि उसके भव-प्रत्यय और क्षायोपशमिक-इन दो भेदों के कारण उनके स्वामी देव और नरयिक तथा मनुष्य और तिर्यञ्च के भेद से, असंख्य क्षेत्र और काल के भेद से, अनन्त द्रव्य-पर्याय के भेद से और उसके केवलज्ञान द्वारा अनन्त अंश होने से अवधिज्ञान के अनन्त भेद होते हैं । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान के विषयभूत अनन्तपदार्थ होने से तथा उनके अनन्त अशों की कल्पना से अनन्त पर्याय होते है। यहां जो पर्यायों का अल्पबहुत्व बतलाया गया है, वह स्वपर्यायों की अपेक्षा से समझना चाहिये । क्योंकि सभी ज्ञानों के स्व-पर्याय और पर-पर्याय परस्पर तुल्य हैं। सब से थोड़े मनःपर्ययज्ञान के पर्याय हैं। क्योंकि उसका विषय केवल मन ही हैं। उससे अवधिज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं । क्योंकि मनःपर्ययज्ञान की अपेक्षा अवधिज्ञान का विषय द्रव्य और पर्यायों से अनन्त गुण है । उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। क्योंकि उसका विषय, रूपी और अरूपी द्रव्य होने से वे उनसे अनन्तगुण हैं । उनसे आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं । क्योंकि उनका विषय अभिलाप्य और अनभिलाप्य पदार्थ होने से For Personal & Private Use Only Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६६ भगवत -श. ८ उ. २ ज्ञान अज्ञान के पर्याय . . वे उनसे अनन्त गुण हैं । उनसे केवलज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं, क्योंकि उसका विषय समस्त द्रव्य और समस्त पर्याय होने से वे उनसे अनन्त गुण हैं। इसी प्रकार अज्ञानों के भी अल्प-बहुत्व का कारण जान लेना चाहिये। ज्ञान और अज्ञान के पर्यायों के सम्मिलित अल्प बहुत्व में बतलाया गया है कि सब से थोड़े मनःपर्यायज्ञान के पर्याय हैं। उनसे विमंगज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। क्योंकि उपरिम (नवम) ग्रेवेयक से लेकर सातवीं नरक तक में और तिर्यक् असंख्यात द्वीप समुद्रों में रहे हुए कितने ही रूपी द्रव्य और उनके कितने ही पर्याय, विभंगज्ञान का विषय है और वे मनःपर्ययज्ञान के विषय की अपेक्षा अनन्त गुण हैं। विभंगज्ञान के पर्यायों से अवधिज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं । क्योंकि अवधिज्ञान का विषय सम्पूर्ण रूपी द्रव्य और प्रत्येक द्रव्य के असंख्यात पर्याय हैं । वे विभंगज्ञान की अपेक्षा अनन्त गुण हैं । उनसे श्रुतअज्ञान के पर्याय अनन्त गुण है । क्योंकि श्रुतअज्ञान का विषय, श्रुतज्ञान की तरह सामान्यादेश से सभी मूर्त और अमूर्त द्रव्यं तथा सभी पर्याय होने से अवधिज्ञान की अपेक्षा अनन्त गुण हैं। उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय विशेषाधिक हैं. क्योंकि श्रुतअज्ञान के अगोचर (अविषयभूत ) कितने. ही पर्यायों को श्रुतज्ञान जानता है । उनसे मतिअज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं, क्योंकि श्रुतज्ञान तो अभिलाप्य वस्तु विषयक होता है और मतिअज्ञान उनसे अनंत गुण अनभिलाप्य वस्तु विषयक भी होता है। उनसे मतिजान के पर्याय विशेषाधिक हैं, क्योंकि मतिअज्ञान के अगोचर कितने ही पर्यायों को मतिजान जानता है । उनसे केवलज्ञान के पर्याय अनंत गुण हैं, क्योंकि वह सभी काल में रहे हुए समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है। ॥ इति आठवें शतक का दूसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८ उद्देशक ३ वृक्ष के भेद १ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! रुक्खा पण्णता ? १ उत्तर-गोयमा ! तिविहा रुक्खा पण्णत्ता, तं जहा-संखेज जीविया, असंखेजजीविया, अणंतजीविया । २ प्रश्न-से किं तं संखेजजीविया ? २ उत्तर-संखेजजीविया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-ताले, तमाले, तकलि, तेतलि-जहा पण्णवणाए जाव णालिएरी। जे यावण्णे तहप्पगारा । सेत्तं संखेजजीविया । .. ३ प्रश्न-से किं तं असंखेजजीविया ? ३ उत्तर-असंखेजजीविया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगट्ठिया य बहुवीयगा य। ४ प्रश्न-से किं तं एगठिया ? ४ उत्तर-एगट्ठिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-णिबंब-जंबु०एवं जहा पण्णवणापए जाव फला बहुबीयगा । सेत्तं बहुबीयगा । सेत्तं असंखेजजीविया। ५ प्रश्न-से किं तं अणंतजीविया ? ५ उत्तर-अणंतजीविया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-आलुए, मूलए, सिंगबेरे-एवं जहा सत्तमसए जाव सिउंढी मुसुंढी जे यावण्णे For Personal & Private Use Only Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६८ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ३ वृक्ष के भेद तहप्पगारा । सेत्तं अनंतजीविया । कठिन शब्दार्थ -- एगट्टिया -- एकास्थिक ( एक बीज वाले) बहुबीयगा -- बहुबीजक ( बहुत बीजों वाले फल ) । भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! वृक्ष कितने प्रकार के कहे गये हैं ? १ उत्तर - हे गौतम ! वृक्ष तीन प्रकार के कहे गये हैं। यथा-संख्यात जीव वाले, असंख्यात जीव वाले और अनन्त जीव वाले । २ प्रश्न - हे भगवन् ! संख्यात जीव वाले वृक्ष कितने प्रकार के कहे गये हैं ? २ उत्तर - हे गौतम ! संख्यात जीव वाले वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गये हैं । यथा ताड़, तमाल, तक्कलि, तेतलि इत्यादि प्रज्ञापना सूत्र के पहले पद में कहे अनुसार यावत् नालिकेर पर्यन्त जानना चाहिये । इसके अतिरिक्त इस प्रकार के जितने भी वृक्ष विशेष हैं, वे सब संख्यात जीव वाले हैं । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! असंख्यात जीव वाले वृक्ष कितने प्रकार के कहे हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम! असंख्यात जीव वाले वृक्ष दो प्रकार के कहे गये हैं। यथा-1 - एकास्थिक अर्थात् एक बीज वाले और बहुबीजक -बहुत बीजों वाले । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! एकास्थिक वृक्ष कितने प्रकार के कहे गये हैं ? ४ उत्तर- हे गौतम! एकास्थिक वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गये हैं । यथा-- नीम, आम, जामुन आदि । प्रज्ञापना सूत्र के पहले पद में कहे अनुसार यावत् बहुबीज वाले फलों तक कहना चाहिये । इस प्रकार असंख्यात जीविक वृक्ष कहे गये हैं । ५ प्रश्न--हे भगवन् ! अनन्तं जीव वाले वृक्ष कितने प्रकार के कहे गये ? ५ उत्तर--हे गौतम ! अनन्त जीव वाले वृक्ष अनेक प्रकार के कहे गये हैं । यथा--आलू, मूला, श्रृंगबेर ( अदरख ) आदि । भगवती सूत्र के सातवें शतक के तीसरे उद्देशक में कहे अनुसार यावत् सिउंढी, मुसुंडी तक जानना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवनी मूकता . चे जीव देशों पर शस्त्रादि कार्ग १३६८ इसके अतिरिक्त इस प्रकार के दूसरे दक्ष भी जान लेने चाहिये। इस प्रकार अनन्त जीव वाले वृक्षों का कथन किया गया ह OMETHIEFi विन-विसमें संभातरजी वे सात महिलाले हैं। इसी तरह जिनमें असंख्यात जीव होते हैं 'असंख्यात. जीविक' वृक्ष और जिनमें अनन्त जीव पाये जाते हैं, वे 'अनन्त जीतिक वृक्ष कहलाते हैं। जिनमें एक बीज होता है, वे एकास्थिक फल कहलाते हैं और जिन में बहुत जीव पाये हैं, वेला अनेक स्था'-बड़ बीजक फल कहलाते हैं। इन वृक्ष और फल सम्बन्धी विस्तन कपन प्रज्ञापना सत्र के पहले पद में है । वहां इनके उदाहरण रूप नाम भी बतलाये गये हैं. : wिippers जीव प्रदेशों पर शस्त्रादि की स्पर्श पण जतरा ESSETTE दा अन मैले कुम्मे कुम्मालिया, गोहा, गोहाबलिया, गोणा, गोणावलिया, मणुम्मे, मणुस्सावलिया, महिस, महिसावलियाएएसि णं हा वा तिहा वा संखेंजहां वा छिणाणे जे अतरा ते वि | तेहिं जीवपएसेहिं फुड्डा काउचर-संना फुडhilm प्रश्नपुरिमेय भत नीअरे हत्थे वा पाएंगधा, अगुलि. raun Soek FE IP 156 TELP Blk 18 fent for me MEAN कालपणा आमसमाणं वा, संमुसमाणे वा, आलिहमाणे वा, विलिद्रमाणे वा अण्णासोमा वा तिखेणं सत्थजाएणं आदिमाणे वा, विछिंदमाणे याअगणि कारणं वा समोइहमाणे तेसिं जीवपाएमाणं किं लगाए । TRENT For Personal & Private Use Only Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७. भगवती सूत्र-श. ८ उ. ३ जीव प्रदेशों पर शस्त्रादि का स्पर्श विवाहं वा उप्पाएइ, छविच्छेयं वा करेइ ? ___७ उत्तर-णो इणटे समढे, णो खलु तत्थ सत्थं कमइ । . कठिन शम्दार्थ-कुम्मे-कूर्म-कछुआ, गोणा-गाय, महिसे-महिष (भंसा) छिण्णाणखंडित (टुकड़े किये हुए) अंतरा-धीच का, फूडा-स्पणित-स्पर्श किया हुआ, सलागाए-सलाई से, कठेग-काष्ट से, किलिचेण-छोटी लकड़ी से, आमसमाणे-स्पर्शता हुआ संमुसमाणेविशेष स्पर्श करती हुमा, आलिहमाणे विलिहमाणे-अल्प या विशेष आकर्षित करता हुभा, अन्नपरेग-कोई अन्य, तिकोण-तीक्ष्ण, सत्यजाएणं-शस्त्र समूह से, आछिवमाणे-काटता हुआ, समोरहमाणे-जलाता हुआ, किवि-कुछ भो, आवाहं विवाह-पोड़ा करता है, विशेष पोड़ा करता है, विच्छेयं-अवयवछेदन । भावार्थ-६ प्रश्न-हे भगवन् ! कछुआ, कछुए को श्रेणि, गोधा (गोह) गोधा की पंक्ति, गाय,गाय की पंक्ति,मनुष्य, मनुष्य की पंक्ति, भैंसा, भैंसों की पंक्ति, इन सबके दो, तीन या संख्यात खण्ड किये जाय, तो उनके बीच का भाग या जीव प्रदेशों से स्पष्ट है ? ६ उत्तर-हाँ, गौतम ! स्पष्ट है। ७ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई पुरुष, उन कछुए आदि के खण्डों के बीच के भाग को हाथ से, अंगुलि से, शलाका से, काष्ठ से और लकडी के छोटे ट्रकडे से स्पर्श करे, विशेष स्पर्श करे, थोड़ा या विशेष खींचे अथवा किसी तीक्ष्ण शस्त्र समूह से छेदे, विशेष रूप से छेदे, अग्नि से जलावे, तो क्या उन जीव प्रदेशों को थोडी, या अधिक पीडा होती है, या उनके किसी अवयव का छेद होता है ? ७ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं। क्योंकि जीव प्रदेशों पर शस्त्र आदि का प्रभाव नहीं होता। विवेचन-किसी जीव के शरीर का खण्ड हो जाने पर भी तत्काल उसका कोई भी अवयव, जीव प्रदेशों से स्पृष्ट रहता है । उन जीव प्रदेशों पर कोई पुरुष शस्त्रादि से प्रहार करे या हस्तादि से स्पर्शादि करे तो उन जीव प्रदेशों पर उसका प्रभाव नहीं होता। For Personal & Private Use Only Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. ८ उ. ५ आट पध्वियों का उल्लेख १३७१ आठ पृथ्वियों का उल्लेख ८ प्रश्न-कह णं भंते ! पुढवीओ पण्णताओ ? ८ उत्तर-गोयमा ! अट्ट पुढवीओ पण्णताओ, तं जहा-यणप्पभा, जाव अहे सत्तमा, इसीपन्भारा । ९ प्रश्न-इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा अचरिमा ? . ९ उत्तर-चरिमपदं निरवसेसं भाणियव्वं । जाव वेमाणिया गं भंते ! फासचरिमेणं किं चरिमा, अचरिमा ? गोयमा ! चरिमा वि अचरिमा वि। . मेवं भंते ! सेवं भंते ! ति* ॥ अट्टमसए तइओ उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-धरिम-अंतिम, फासचरिमेणं-स्पर्श चरम द्वारा, अपरिम-मध्यवर्ती। .. भावार्य-८.प्रश्न-हे भगवन् ! पश्वियां कितनी कही गई हैं ? • ८ उत्तर-हे गौतम ! पृथ्वियां आठ कही गई हैं। यथा-रत्नप्रभा, यावत् अधः सप्तम पृथ्वी और ईषत्प्राग्भारा (सिद्ध शिला)। प्रश्न-हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी क्या चरम (अन्तिम) है, या अचरम (मध्यवर्ती) है? .. ९ उत्तर-यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का चरम नामक दसवा पद कहना चाहिये। यावत्-हे भगवन् ! वैमानिक स्पर्श चरम द्वारा क्या चरम है, या अचरम है ? हे गौतम ! वे चरम भी है और अबरम भी है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। For Personal & Private Use Only Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३५२ मावती सूत्र.उ. ३ आठ पृश्वियों का उल्लेख ऐसा कहकर गौतमसाला पावत विधाने हे का ‘विवेचन-चरम का अर्थ है अन्तवर्ती । वह अन्तवर्तीपना अन्य द्रव्य की अपेक्षा समझना चाहिये । जैसे-पूर्व शरीर की अपेक्षा चरम शरीरी । अचरम का अर्थ हैं मध्यवर्ती। यह अचरः पना भी आपति का है अर्थात् अन्य तस्य की अपेक्षा से हैं। जैसे अन्तिम शरीर को माध्यम PTETTE ARTE रत्नप्रभा पृथ्वी के सम्बन्ध में एकवचनान्त और बहुवचनान्त चरम और अचरम के चार प्रश्न किये गये हैं । इसी प्रकार यात्मात प्रदेश और चरमान्त प्रदेश के दो प्रश्न किसे पोह। ये मत मिल्सार छह सदन हुम भगवान ने उत्तर दिया कि- 'हे मौतम ! रत्नप्रभा पृथ्वी चरम भी नहीं है और अचरम भी नहीं है ।' चरम का अर्थ है-'पर्यन्तवर्ती' औरणवर की अह-मध्यमवरमपना और अचरमपना अन्य वस्तु सापेक्ष है। यहाँ अन्य वस्तु का मन नहीं किया गया है। अतः रत्नप्रभा पृथ्वी जाम. या अचरम नहीं कही जा सकती और इसी कारण बहुवचनान्त 'चरम, अचरम, चरमान्ति प्रदेश, अचरमन्ति प्रदेश भी नहीं कहे जा सकते । रत्नप्रभा पृथ्वी असंन्यात प्रदेशावगाढ़ है। इसलिये उसके अनेक अवयवों की अपेक्षा वे बरमरूप कहे जा सकते हैं । इसी प्रकार अन्यवर्ती अवयवों की अपेक्षा वे अचरम रूप भी कहे जा सकते हैं । इसी प्रकार बहुवचनान्त चरम रूप, अचरम रूप, चरमान्त प्रदेश रूप और अचूरमान्त प्रदेशाप कहे जा सकते हैं, क्योंकि रत्मप्रभा के अन्त-भाग में अवस्थित खण्डों को बहुत्व रूप से विवक्षा की जाय, तो 'बहुवचनान्त' बाधाहाणा सकता है और मध्यवर्ती मण्ड़ों का प्रकता विभिन्न किया जाया तब एक वचनान्त भरमा बामकता है इसी प्रकार देश की विवक्षा से चरमान्त प्रदेश मेरबारमात प्रदेश से भी कहे जा सकते हैं। इसका विस्तृत कथन प्रज्ञापना सूत्र के दसवें 'चरमपद' में है, INDINPHESTERNAL ॥ इति आठवें शतक का तीसरा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक ८ उद्देशक ४ पांच क्रिया १ प्रश्न-रायगिहे जाव एवं वयासी-कड़ णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ? १ उत्तर-गोयमा ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तं जहाकाइया, अहिगरणिया; एवं किरियापदं णिरवसेसं भाणियव्वं, जाव मायावत्तियाओ किरियाओ विसेमाहियाओ। * मेवं भंते ! सेवं भंते ! ति* ॥ अट्ठमसए चउत्था उद्देसो समत्तो ॥ कठिन शब्दार्य-किरियाओ-क्रिया (मन, वचन और काया की वह प्रवृत्ति कि जिससे कर्मों का बंध हो) काइया--गरीर मम्बंधी, अहिंगरणिया--अधिकरण (शस्त्र से होने वाली) निरवसेसं--परिपूर्ण. मायावत्तिया--कषाय प्रत्ययक। . भावार्थ-५ प्रश्न-राजगह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार पूछा कि-हे भगवन ! क्रियाएं कितनी कही गई हैं ? १ उत्तर-हे गौतम ! क्रियाएं पांच कही गई हैं । यथा- कायिकी, अधि. करणिकी, प्रादेषिकी, पारितापनिकी और प्राणातिपातिकी। यहां प्रज्ञापना सूत्र का बाईसवां सम्पूर्ण क्रियापद कहना चाहिए यावत् 'मायाप्रत्यायिक क्रियाएँ विशेषाधिक हैं'--यहां तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टा को अथवा दुष्ट व्यापार विशेष को 'क्रिया कहते हैं । अथवा-कर्म बन्ध के कारणरूप कायिकी आदि पाँच-पाँच करके पच्चोस क्रियाएँ For Personal & Private Use Only Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७४ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ५ श्रावक के भाण्ड हैं। वे जैनागमों में 'क्रिया' शब्द से कही गई हैं । यहाँ कायिकी आदि पांच क्रियाओं का वर्णन किया गया है । उनका सामान्यतः अर्थ इस प्रकार है; afrat क्रिया के दो भेद हैं- अनुपरतकायिकी और दुष्प्रयुक्त कायिकी । हिंसादि सावद्य योग से देशतः अथवा सर्वतः अनिवृत्त जीवों को अनुपश्तकायिकी क्रिया लगती है । यह क्रिया सभी अविरत जीवों को लगती है । कायादि के दुष्प्रयोग द्वारा होने वाली क्रिया. को 'दुष्प्रयुक्त कायिकी' क्रिया कहते हैं। यह क्रिया प्रमत्त संयत को भी लगती है । अधिकरणिकी क्रिया के दो भेद हैं- संयोजनाधिकरणिकी और निर्वत्तनाधिकरणिकी । पहले से बने हुए अस्त्र शस्त्र आदि हिंसा के साधनों को एकत्रित कर तैयार रखना संयोजनाधिकरणिकी क्रिया है । नवीन अस्त्र शस्त्रादि बनवाना निर्वत्तनाधिकरणिकी क्रिया है । अपने स्वयं का, दूसरों का और उभय ( स्व और पर दोनों) का अशुभ चिन्तन करना-'प्राद्वेषिकी क्रिया' है। अपने आपको, दूसरों को अथवा उभय को परिताप उपजाना, दुःख देना --' पारितापनिकी क्रिया' है। अपने आपको, दूसरों को अथवा उभय को जीवन रहित करना - 'प्राणातिपातिकी क्रिया' है। इन क्रियाओं के अतिरिक्त आरम्भिकी आदि क्रियाओं का स्वरूप और उनका पारस्परिक अल्पबहुत्व इत्यादि बातों का विस्तृत कथन प्रज्ञापना सूत्र २२ वें क्रियाप में है । ॥ इति आठवें शतक का चौथा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक उद्देशक ५ श्रावक के भाण्ड १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी - आजीविया णं भंते ! थेरे भगवंते एवं वयासी - समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स के भंड अवहरेज्जा, सेणं भंते For Personal & Private Use Only Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ श्रावक के भाण्ड १३७५ तं भंडं अणुगवेसमाणे किं सयं भंडं अणुगवेसइ, परायगं भंड अणुगवेसइ ? १ उत्तर-गोयमा ! मयं भंड अणुगवेसइ, णो परायगं भंड अणुगवेसइ । २ प्रश्न-तस्स णं भंते ! तेहिं सीलब्वय-गुण-वेरमण-पचवखाणपोसहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवइ ? . २ उत्तर-हंता भवइ । प्रश्न-से केणं खाइ णं अटेणं भंते ! एवं वुबई-सयं भंडं अणुगवेसइ णो परायगं भंडं अणुगवेसइ ? । . उत्तर-गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-णो मे हिरण्णे, णो मे सुवण्णे, णो मे कंसे, णो मे दूसे, णो मे विपुलधण-कणगरयण-मणिमोत्तिय संख-सिल-प्पवाल रत्तरयणमाईए संतसारसावएजे, ममत्तभावे पुण से अपरिग्णाए भवइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुचइ सयं भंड अणुगवेसइ, णो परायगं भंडं अणुगवेसइ । कठिन शनार्थ - आजीविया--आजीविक अर्थात् गोशालक के मतानुयायी, समणो. बासग :-श्रमण की उपासना करने वाला (जैन), सामाइयकउस्स-सामायिक किया हुआ, अच्छमाणस्स- रहा हुआ, भंड-वस्तु, अवहरेज्जा-अपहरण करे, अणुगवेसमाणे-खोज करते हुए, परायगं--दूसरे के, संतसारसाबएज्जे-विद्यमान प्रधान (सारभूत द्रव्य) अपरिग्णाए-त्याग नहीं किया। भावार्थ-१ प्रश्न-राजगृह नगर में यावत् गौतमस्वामी ने इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-क्ष..८.४.५ श्रावक के भाण्ड पूछा । हे भगवन् ! आजीविक अर्थात् गोशालक के शिष्यों ने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार पूछा कि कोई श्रावक, सामायिक करके उपाश्रय में बैठा है। उस श्रावक के वस्त्र आदि कोई चुरा ले जाय और (सामायिक पूर्ण होने पर उसे पार कर) वह उन वस्तुओं का अन्वेषण करे, तो क्या वह श्रावक अपनी वस्तु का अन्वेषण करता है, या दूसरों की वस्तु का अन्वेषण करता है ? ....१ उत्तर-हे गौतम ! वह श्रावक अपनी वस्तु का अन्वेषण करता है, दूसरों की वस्तु का अन्वेषण नहीं करता। २ प्रश्न-हे भगवन् ! शीलवत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास अंगीकार किये हुए श्रावक के वे अपहृत (चुराये हुए) भाण्ड क्या उसके लिए अभाण्ड हो जाते हैं ? २ उत्तर-हां, गौतम ! वे उसके लिये अभाण्ड हो जाते हैं। प्रश्न-हे भगवन ! यदि उसके लिये वे अभाण्ड हो जाते हैं, तो आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह श्रावक अपने भाण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरे के भाण्ड का अन्वेषण नहीं करता? . उत्तर-हे गौतम,! सामायिक करने वाले उस श्रावक के मन में ऐसे परिणाम होते हैं कि 'हिरण्य (चांदी) मेरा नहीं है, स्वर्ण मेरा नहीं है, कांस्य (कांसी के बर्तन) मेरे नहीं हैं, वस्त्र मेरे नहीं हैं, विपुल धन, कनक, रत्न, मणि, मोती, शंख, शिलाप्रवाल (विद्रुम मणि) तथा रक्तरत्न अर्थात पद्मरागादि मणि इत्यादि विद्यमान सारभूत द्रव्य मेरे नहीं हैं।' परन्तु उसने ममत्वभाव का प्रत्याख्यान नहीं किया है, इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहता हूँ कि वह श्रावक अपने माण्ड का अन्वेषण करता है, दूसरों के भाण्ड का अन्वेषण नहीं करता। ३ प्रश्न-समणोवासगस्स णं भंते ! सामाइयकडस्स समणो. वस्सए अच्छमाणस्म केह जायं चरेजा, से णं भंते ! किं जायं चरइ, For Personal & Private Use Only Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श.८ उ.५ श्रावक के माड १३७७ अजायं चरह ? .३ उत्तर-गोयमा ! जायं चरह, णो अजायं चरइ । ४ प्रश्न-तस्स णं भंते ! तेहिं सीलब्धय गुण-वेरमण-पच्चरखाणपोसहोववासेहिं सा जाया अजाया भवइ ? ४ उत्तर-गोयमा ! हंता भवइ । प्रश्न-से केणं खाइणं अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जायं चरइ णो अजायं चरइ ? उत्तर-गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-णो मे माया, णो मे पिया, णो मे भाया, णो मे भगिणी, णो मे भज्जा, णो मे पुत्ता, णो मे धूया णो मे सुण्हा: पेज्ज बंधणे पुण से अवोच्छिण्णे भवइ, से तेणटेणं गोयमा ! जाव णो अजायं चरइ । कठिन शब्दार्थ-जायं चरेज्जा-स्त्री का सेवन करे, अजायं-अपत्नी को, अबोच्छिण्णे-टूटा नहीं। भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई एक श्रावक सामायिक करके श्रमणो. पाश्रय में बैठा है । उस समय यदि कोई व्यभिचारी लम्पट पुरुष, उस श्रावक की जाया (स्त्री) को भोगता है, तो क्या वह जाया (श्रावक को स्त्री) को भोगता है, या अजाया (श्रावक की स्त्री नहीं दूसरों की स्त्री) को भोगता है? ३ उत्तर-हे गौतम ! वह पुरुष उस श्रावक की जाया को भोगता है, अनाया को नहीं भोगता। ४ प्रश्न-हे भगवन् ! शीलवत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान और पौषधोपवास कर लेने से उस श्रावक की जाया क्या 'अजाया' हो जाती है ? For Personal & Private Use Only Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७८ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ५ श्रावक व्रत के भंग ४ उत्तर - हाँ, गौतम ! अजाया हो जाती है । प्रश्न - हे भगवन् ! जब वह उस श्रावक के लिये अजाया हो जाती है, तो आप ऐसा क्यों कहते हैं कि वह लम्पट उसकी जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता ? उत्तर - हे गौतम ! शीलव्रतादि को अंगीकार करने वाले उस श्रावक के मन में ऐसे परिणाम होते हैं कि 'माता मेरी नहीं है, पिता मेरे नहीं है, भाई मेरे नहीं हैं, बहन मेरी नहीं है, स्त्री मेरी नहीं है, पुत्र मेरे नहीं है, पुत्री मेरी नहीं हैं और स्नुषा ( पुत्रवधु) मेरी नहीं है।' ऐसा होते हुए भी उनके साथ उसका प्रेम बन्धन टूटा नहीं, इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहता हूँ कि वह पुरुष उस श्रावक की जाया को भोगता है, अजाया को नहीं भोगता । विवेचन - सामायिक, पोषघोपवास आदि किये हुए श्रावक ने यद्यपि भाण्ड ( बस्त्रादि) का त्याग कर दिया है, तथा सोना, चांदी तथा माता, पिता, पुत्र, स्त्री आदि के प्रति भी उसके मन में यही परिणाम होता है कि ये सब मेरे नहीं हैं, किंतु अभी उसने उनके प्रति ममत्व का त्याग नहीं किया, अपितु उनके प्रति उसका प्रेम बन्धन रहा हुआ है । इसलिये वे वस्त्रादि तथा स्त्री आदि उसी के कहलाते हैं । श्रावक व्रत के भंग ५ प्रश्न - समणोवासगस्स णं भंते! पुव्वामेव थूलए पाणाइवाए अपञ्चखाए भवह, से णं भंते! पच्छा पञ्चाहम्खमाणे किं करे ? ५ उत्तर - गोयमा ! तीयं पडिक्कमह, पडुप्पण्णं संवरेह, अणा गयं पञ्चखाइ ॥ For Personal & Private Use Only Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतr सूत्र-श.. उ. ५ श्रावक व्रत के भंग . १३७९ ६ प्रश्न-तीयं पडिकममाणे किं-१ तिविहं तिविहेण पडिकमइ, २ तिविहं दुविहेणं पडिकमइ, ३ तिविहं एगविहेणं पडिकमइ;; ४ दुविहं तिविहेणं. पडिकमइ, ५. दुविहं दुविहेणं पडिकमइ, ६ दुविहं एगविहेणं पडिकमइ; ७ एगविहं तिविहेणं पडिकमइ, ८ एगविहं दुविहेणं पडिकमइ, ९ एगविहं एगविहेणं. पडिकमह ?... ६ उत्तर-गोयमा ! तिविहं तिविहेणं पडिकमइ, तिविहं वा दुविहेणं पडिक्कमइ, एवं चेव जाव एगविहं वा एगविहेणं. पडिक्कमइ । १ तिविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे ण करेइ, ण कारवेइ, करेंतं णाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा । २ तिविहं दुविहेणं. पडिकममाणे ण करेइ, ण कारवेइ, करेंतं णाणुजाणइ मणसा वयसा; ३ अहवा ण करेइ, ण कारवेइ, करेंतं णाणुजाणइ मणसा कायसा; ४ अहवा ण करेइ, ण कारवेइ, करेंतं गाणुजाणइ वयसा कायसा । तिविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे ५ ण करेइ, ण कारवेइ, करेंतं णाणुजाणइ मणसाः ६ अहवा ण करेइ, ण कारवेइ, करेंतं णाणुजाणइ वयसा; ७ अहवा ण करेइ, ण कारवेइ, करेंतं णाणुजाणइ कायसा । दुविहं तिविहेणं पडिकममाणे ८ ण करेइ, ण कास्वेइ मणसा वयसा कायसा; ९ अहवा ण करेइ, करेंत णाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा; १० अहवा ण कारवेड़, करेंतं णाणुजाणइ. मणसा For Personal & Private Use Only Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८० भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ धावक व्रत के भंग': . वयसा कायसा । दुविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे ११. ण करेइ, ण कारवेइ मणसा वयसा, १२ अहवा ण करेड़, ण कारवेइ मणसा कायसा; १३ अहवा ण करेइ, ण कारवेइ वयसा कायसा; १४ अहवा ण करेइ, करेंतं गाणुजाणइ मणसा वयसा; १५ अहवा ण करेइ, करेंतं णाणुजाणइ मणसा कायसा; १६ अहवा ण करेइ, करेंतं णाणु जाणइ वयसा कायसा; १७ अहवा ण कारवेइ, करेंतं णाणुजाणइ मणसा वयसा; १८ अहवा ण कारवेइ, करेंतं गाणुजाणइ मणसा कायसा; १९ अहवा ण कारवेइ, करेंतं णाणुजाणइ वयसा कायसा। दुविहं एगविहेणं पडिक्कममाणे २० ण करेइ ण कारवेइ मणसा; २१ अहवा ण करेइ ण कारवेइ वयसा; २२ अहवा ण करेइ, ण कारवेइ कायसा; २३ अहवा ण करेइ, करेंतं गाणुजाणइ मणसा; २४ अहवा ण करेइ, करेंतं गाणुजाणइ वयसा; २५ अहवा ण करेइ, करेंतं गाणुजाणइ कायसा; २६ अहवा ण कारवेइ, करें। णाणुजाणइ मणसा; २७ अहवा ण कारवेइ करेंतं णाणुजाणइ वयसा; २८ अहवा ण कारवेइ, करेंतं णाणुजाणइ कायसा । एगविहं तिवि. हेणं पडिक्कममाणे २९ ण करेइ मणसा वयसा कायसा; ३० अहका ण कारवेइ मणसा वयसा कायसा; ३१ अहवा करेंतं गाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा। एगविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे ३२ ण करे। For Personal & Private Use Only Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र . ४ ऊ ५ श्रावक खन के मंस मणसा वयसा; ३३ अहवा ण करेइ मणसा कायमा ३४ अहवा ण करेइ वयमा कायसा; ३५ अहवा ण कारवैइ मणसा वयसा; ३६ अहवाण कारवेइ मणमा- कायसाः ३७ अहवाण, कारखे घसा कायसा; ३८ अहवा करेंत णाणुजाणइ. मणमा वयसा; ३९ अहवा करतं णाणूजाणइ मुणसा कायसा; ४१. अहवा. करत समुजामा क्या कापसासगविहं रामविहेणं -पडिबक्रममाणे ४१ ण करई मणसी, ४२ अहवाण करई वयसो ४३. अहवाण FFFEER- T HESfErs in arry TREETER. करेइ कायमाः ४४ अहवाण काखेड मणमा १५ अहवा, ण कारबेह वयसा ४६ अहंबा कारखे कायसा अहवा करेंत जाणूजाणई मणमा ४८ अहवीं करत जिणि वयमा ४९ अहवा करत भाजाणाद कायसा AfSTREAT FIFkya tha FTEYENEF मारता- प्रति थलए-स्थल (माटपाणाडा . .कठिन शब्दार्थ पटवामेव ETHERHILE (हिसा), अपच्चक्खाए-प्रत्याख्यान (त्याग) नहीं है, तोयं-अतीत (भतकालीन), पडिक्क NEEDSEXRESTETRETREETETTERY मइ-प्रतिक्रमण करता है, पापण्ण-प्रत्युत्पन्न (वर्तमान-कालीन), अणागये-अनागत (भविष्य कालीम), अणुजाणा-अनुमोदन करता है, तिविह"तिविहंग-तीने करण तीन योग से। प्रश्न-हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले स्थल प्राणा तिपात का नहीं किया, वह पछि उसका प्रत्याख्यान करता हआ क्या करता है? RT (finire TOTE E ntri garaat ; उत्तर है गौतम ! वह अतीतकाल में किये हुए प्राणातिपात का प्रतिक्रमण करता है अर्थात् उस पाप की निन्दा करके उससे निवृत्त होता है। प्रत्युत्पन्न अथात् वर्तमानकालीन प्राणातिपति की सवर (निरोध करता है । अनागत (भविष्यत्कालीन) प्राणातिपात का प्रत्यास्यान करती है अर्थात् उसे न करने For Personal & Private Use Only Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ श्रावक व्रत के मंग की प्रतिज्ञा करता है। प्रश्न-हे भगवन् ! अतीतकाल के प्राणातिपातादि का प्रतिक्रमण करता हुमा श्रमणोपासक-१ क्या त्रिविध त्रिविध (तीन करण, तीन योग से) या : विविध विविध, ३ विविध एकविध, ४ द्विविध त्रिविध, ५ द्विविध विविध या ६ द्विविध एकविध, ७ एकविध विविध, ८ एकविध द्विविध अथवा ९ एकविध एकविध प्रतिक्रमण करता है ? ६ उतर-हे गौतम ! त्रिविध विविध प्रतिक्रमण करता है, या त्रिविध विविध प्रतिक्रमण करता है, अथवा धावत् एकविध एकविध भी प्रतिक्रमण करता है। १ जब त्रिविध त्रिविध प्रतिक्रमण करता है, तब स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं और करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करता-मन से, वचन से और काया से । २ जब त्रिविध विविध प्रतिक्रमण करता है, तब स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं, करने वाले का अनुमोदन करता नहीं-मन और वचन से । ३ अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं और करने वाले का अनुमोदन करता नहीं, मन और काया से । ४ अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरे से करवाता नहीं और करनेवाले का अनुमोदन भी नहीं करता-वचन और काया से। जब त्रिविध एकविध (तीन करण एक योग से) प्रतिक्रमण करता है, तब ५ स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-मन से । ६ अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-वचन से । ७ अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरों से कर. वाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-काया से। ___ जब द्विविध त्रिविध (दो करण तीन योग से) प्रतिक्रमण करता है, तब ८ स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं-मन, वचन और काया से । ९ अथवा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-मन, वचन और काया से । १० अपवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-मन, वचन और काया से । For Personal & Private Use Only Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ८ उ. ५ श्रावक व्रत के भंग -4-444++++4 जब द्विविध द्विविधं प्रतिक्रमण करता है, तब-११ स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं-मन और वचन से । १२ अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं-मन और काया से । १३ अथवा-स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं-वचन और काया से । १४ अथवा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-मन और वचन से। १५ अथवा-स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-मन और काया से। १६ अथवा-स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहींवचन और काया से । १७ अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-मन और वचन से । १८ अथवा-दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-मन और काया से । १९ अथवादूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-वचन और काया से । ___ जब द्विविध एकविध प्रतिक्रमण करता है, तब २० स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं-मन से । २१ अथवा स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं-वचन से । २२ अथवा--स्वयं करता नहीं, दूसरों से करवाता नहीं--काया से । २३ अथवा-स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-मन से । २४ अथवा-स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनु. मोदन करता नहीं-बचन से । २५ अथवा स्वयं करता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-काया से । २६ अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-मन से । २७ अथवा दूसरों से करवाता नहीं करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-वचन से । २८ अथवा दूसरों से करवाता नहीं, करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-काया से । जब एकविध त्रिविध प्रतिक्रमण करता है, तब २९ स्वयं करता नहीं--मन, वचन और काया से। ३० अथवा दूसरों से करवाता नहीं मन, वचन और काया से । ३१ अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं मन, वचन For Personal & Private Use Only Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-स. ८ उ. ५ श्रावक व्रत के भंग जब एकविध विविध प्रतिक्रमण करता है, तब ३२ स्वयं करता नहींमन और वचन से । ३,३ अथवा स्वयं करता नहीं, मन और कायाले । ३४ अथवा स्वयं करता नहीं-बान और काया से । ३५ अथवा टूसा से करवाता नहीं मन और वचन से । ३६ अथवा दूसरों से करवाता नहीं-मन और काया से । ३४ अथवा दूसरों से करवाता नहीं वचन और काया से । अथवा करते हुए का अनुमोक्त कस्ता नहीं मन और वचन से । ३९ अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं सन और काया से । X अथवा करते हए का अनुमोदन करता नहीं वचत और काया से f r istings - जब एकविध एकविध अतिक्रमण करता है, तब स्वयं करना नहीं:मन से । ४२ अथवा स्वयं करता नहीं-वचन से ४३ अथवा स्वयं करता नहीं:काया से । ४४ अथवा दूसरों से करवाता नहीं--मन से । ४५ अथवा दूसरों से करवात न स ।४६ अथवा दसरों में करवाता ai. ४७ अथवा करते हए का अनमोदन करता नहीं-मन से। ४८ अथवा अन करता नहीं--वचन से । ४९ अथवा अनुमोदन करता नहीं-काया से। AR छप-पडुपणं संचरेमाणे किं तिविहं तिविहेण संवरेइ ? 73 EFLEISOS EN LEBEE 16 र-एव जहा पाडक्कममाणणगणपण्ण भगा भाणया एवं संवरमाणेप वि एणमां भंगा भाणियत्वा । TREES प्रभ अणांगणं पञ्चक्खमाणे "किं तिविहं तिविहेणे पञ्चक्खाइ ? + wer र-एवं तं चन - - - भगा एगृणपण्ण भाण करेंत माणुजाणइ वनयमा For Personal & Private Use Only Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ श्रावक व्रत के भंग . १३८५ ९ प्रश्न-समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव थूलए मुसावाए अपवाखाए भवइ, से णं भंते ! पच्छा पञ्चाइक्खमाणे० ? ९ उत्तर-एवं जहा पाणाइवायस्स सीयालं भंगसयं भणिय, तहा मुसावायस्स वि भाणियव्वं । एवं अदिण्णादाणस्स वि, एवं थूलगस्स मेहुणस्स वि, थूलगस्स परिग्गहस्स वि, जाव अहवा करेंतं णाणुजाणइ कायसा । एवं खलु एरिसगा समणोवासगा भवंति, णो खलु एरिसगा आजीविओवासगा भवंति।। कठिन शब्दार्थ-एगूणपण्णं--उनपचास, मुसावाए -मृषावाद ।। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रत्युत्पन्न (वर्तमान काल) का संवर करता हुआ श्रावक क्या विविध त्रिविध संवर करता है ? इत्यादि प्रश्न ।। ७ उत्तर-हे गौतम ! पहले कहे अनुसार उनपचास भंग कहने चाहिये अर्थात् प्रतिक्रमण के विषय में जो उनपवास भंग कहे हैं, वे ही संवर के विषय में जानना चाहिये। ८ प्रश्न-हे भगवन् ! अनागत (भविष्यत्) काल के प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हआ श्रावक क्या विविध विविध प्रत्याख्यान करता है? इत्यादि प्रश्न ? . . . . . . ८ उत्तर-हे गौतम ! पहले कहे अनुसार यहां भी उनपचास भंग कहना चाहिये यावत् 'अथवा करते हुए का अनुमोदन करता नहीं-काया से'-यहां तक कहना चाहिये। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस श्रमणोपासक ने पहले स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान नहीं किया, किंतु बाद में वह स्थूल मृषावाद का प्रत्याख्यान करता है, तो क्या करता है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार प्राणातिपात के विषय में एक सौ For Personal & Private Use Only Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८६ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ आजीविकोपासक और श्रमणोपासक. संतालीस (अतीत काल के पाप से निवृत्त, वर्तमान में संवर करने और आगामी काल के प्रत्याख्यान करने रूप तीन काल सम्बन्धी ४९४३ = १४७) भंग कहे गये हैं। उसी प्रकार मृषावाद के विषय में भी एक सौ संतालीस भंग कहना चाहिये। इसी प्रकार स्थूल अदत्तादान, स्थूल मैथुन और स्थूल परिग्रह के विषय में भी एक सौ सेंतालीस, एक सौ सेंतालीस भंग जानना चाहिये । यावत् 'अथवा पाप करते हुए का अनुमोदन करता नहीं, काया से' वहाँ तक जानना चाहिये। इस प्रकार के श्रमणोपासक होते हैं, किन्तु आजीविकोपासक (गोशालक के उपासक) इस प्रकार के नहीं होते। विवेचन-श्रावक ४९ भंगों में से किसी भी भंग से प्रतिक्रमण आदि कर सकता है। उनका विवरण इस प्रकार है-करना, कराना, अनुमोदना-ये तीन 'करण' हैं । मन, वचन और काया-ये तीन 'योग' हैं । इनके संयोग से विकल्प नौ और भंग उनपचास होते हैं । नौ विकल्प ये हैं-१ तीन करण, तीन योग । २ ते न करण, दो योग । ३ तीन करण, एक योग। ४ दो करण, तीन योग । ५ दो करण, दो योग ६ दो करण, एक योग । ७ एक करण, तीच योग । ८ एक करण, दो योग । ९ एक करण, एक योग । इन नौ विकल्पों के ४९ भंग होते हैं। इनमें से किसी भी भंग से श्रावक भूतकाल का प्रतिक्रमण करता हैं, वर्तमान काल में संवर करता है और भविष्य के लिये प्रत्याख्यान (पाप नहीं करने की प्रतिज्ञा) करता है । इस प्रकार तीनों काल की अपेक्षा उन पचास भंगों को तीन से गुणा करने से एक सौ सेंतालीस भंग होते हैं। ये प्राणातिपात विषयक हैं । स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्तादान, स्थूल मथुन और स्थूल परिग्रह-इन प्रत्येक के भी एक सो संतालीस-एकसौ सेंतालीम भंग होते हैं । पाँचों अणुव्रतों के मिलाकर कुल ७३५ भंग होते है हैं । आजीविकोपासक और श्रमणोपासक १०-आजीवियसमयस्म णं अयमढे-अक्खीणपडिभोइणो मब्वे सत्ता से हंता, छेत्ता, भेत्ता, लुपित्ता, विलंपित्ता, उद्दवइत्ता For Personal & Private Use Only Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ आजीविकोपासक और श्रमणोपासक १३८७ आहार आहारैति । तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवंति, तं जहा-१ ताले, २ तालपलंबे, ३ उबिहे, ४ संविहे, ५ अवविहे, ६ उदए, ७ णामुदए, ८ णम्मुदए, ९ अणुवालए १० संखवालए, ११ अयंपुले १२ कायरए-इच्चेए दुवालस आजीवियोवासगा अरिहंतदेवतागा, अम्मा-पिउसुस्सूसगा, पंचफलपडिक्कता, तं जहा-उंबरेहि, वडेहि, बोरेहि, सतरेहि, पिलखूहि, पलंङ्क-लहसुणकंदमूलविवजगा, अणिलंछिएहिं अणकभिण्णेहिं गोणेहिं तसपाणविवजिएहिं वित्तेहिं वित्तिं कप्पेमाणा विहरति । एए वि ताव एवं इच्छंति किमंग ! पुण जे इमे समणोवासगा भवंति, जेसिं णो कप्पंति इमाइं पण्णरस कम्मादाणाई सयं करेत्तए वा, कारवेत्तए वा, करेंतं वा अण्णं समणुजाणेत्तए । तं जहा-इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिजे, लक्खवाणिज्जे, केसवाणिज्जे, रसवाणिज्जे, विसवाणिज्जे, जंतपीलणकम्मे, जिल्लंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सर-दह-तलागपरिसोसणया, असईपोसणया । इच्चेए समणोवासगा सुका, सुक्काभिजाइया भवित्ता कालमासे कालं किचा अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। ११ प्रश्न-कहविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. उ. ५ आजीविकोपासक और श्रमणोपासक ११ उत्तर - गोयमा ! चव्विहा देवलोगा पण्णत्ता, तं जहाभवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया । सेवं भंते! सेवं भंते । त्ति ॥ अट्टमस पंचमओ उद्देसओ समत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ -- अयमट्ठे - यह अर्थ अक्खीणपडिमोइणो-- अक्षीणपरिभोगी - सचित्ताहारी सचित्त का आहार करने वाले हंता - हननकर ( मारकर ) छेत्ता - छेदनकर (टुकड़ेकर ) भेता - भेदकर (शूलादि भोंककर ) लुंपित्ता-- लोपकर (पंख आदि तोड़कर ) विलुं - पित्ता- विलोपकर ( चमड़ी उधड़कर) उद्दवइत्ता अपद्रव्य - विनाश करके, अम्मापि सुस्सूसगामाता-पिता की सेवा करने वाले, पंचफलपडिक्कंता- पांच प्रकार के फल के त्यागी, उंबरेहिगूलर के, वह बड़ के, बोरेहि बेर के, सतरोहि- सतर ( शहतूत ) के, पिलखहि - पीपल के पलंडू – प्याज- कान्दा, अणिल्लंछिएहि - अनिलछित बधिये खसी नहीं किये हुए) अणक्कभिण्र्णोह- ह - नाक में नाथ नहीं डाले हुए, गोणेह - बैल से, वित्तहि - वृत्ति (व्यापार) से वित्त कप्पेमाणे- आजीविका चलाते हुए, किमंगपुण - क्या कहना ( अथवा उनका तो कहना ही क्या ? ) सुक्का, सुक्काभिजाइया - पवित्र और पवित्रता प्रधान । १३८८ भावार्थ - १० प्रश्न - आजीविक ( गोशालक ) के सिद्धांत का यह अर्थ है कि- ' प्रत्येक जीव अक्षीणपरिभोगी अर्थात् सचित्ताहारी है।' इसलिये वे Mast आदि से पीटकर, तलवार आदि से काट कर, शूलादि से भेदन कर, पांख आदि को कतरकर, चमडी आदि को उतार कर और विनाश करके खाते हैं, अर्थात् संसार के दूसरे प्राणी इस प्रकार जीवों को हनने में तत्पर हैं, परंतु आजीविक के मत में ये बारह आजीविकोपासक कहे गये हैं। यथा-१ ताल, २ तालप्रलम्ब, ३ उद्विध, ४ संविध, ५ अवविध ६ उदय, ७ नामोदय, ८ नर्मोदय ९ अनुपालक, १० शंखपालक, ११ अयम्पुल और १२ कातर । ये बारह आजीविक के उपासक हैं । इनका देव गोशालक है। वे माता पिता की सेवा करनेवाले होते हैं । वे पांच प्रकार के फल नहीं खाते, यथा-१ उम्बर के फल, २ बड़ के फल, 1 ३ बोर, ४ सत्तर ( शहतूत ) का फल और ५ पीपल का फल । वे प्याज, लहसून 1 For Personal & Private Use Only Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ आजीविकोपासक और श्रमणोपासक १३८९ और कन्दमूल के विवर्जक (त्यागी) होते हैं। वे अनिाञ्छित (खसी नहीं किये हुए) और नहीं नाथे हुए (जिनका नाक बिंधा हुआ नहीं) ऐसे बलों द्वारा त्रस प्राणी की हिंसा रहित व्यापार से आजीविका करते हैं। जब गोशालक के उपासक भी इस प्रकार से हिंसा रहित व्यापार द्वारा आजीविका करते हैं, तो जो श्रमणोपासक हैं, उनका तो कहना ही क्या ? क्योंकि उन्होंने तो विशिष्टतर देव-गुरु-धर्म का आश्रय लिया है। जो श्रमणोपासक होते हैं, उन्हें ये पन्द्रह कर्मादान स्वयं करना, दूसरों से करवाना और करते हुए का अनुमोदन करना नहीं कल्पता । वे कर्मादान इस प्रकार हैं-- १ अंगारकर्म २ वनकर्म ३ शाकटिक कर्म ४ भाटी कर्म ५ स्फोटक कर्म ६ दन्तवाणिज्य ७ लाक्षावाणिज्य ८ केशवाणिज्य ९ रसवाणिज्य १० विषवाणिज्य ११ यन्त्रपीडनकर्म १२ निर्लाञ्छनकर्म १३ दावाग्निदापनता १४ सरोहृदतड़ाग-शोषणता और १५ असतीपोषणता । ये श्रमणोपासक शुक्ल (पवित्र) शुक्लाभिजात (पवित्रता प्रधान) होकर काल के समय काल करके किसी एक . देवलोक में देव रूप से उत्पन्न होते हैं। .११ प्रश्न-हे भगवन् ! कितने प्रकार के देवलोक कहे गये हैं ? ११ उत्तर-हे गौतम ! चार प्रकार के देवलोक कहे गये हैं । यथाभवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक । - 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचनयहाँ गोशालक के शिष्यों का वर्णन दिया गया है। उनके मुख्यरूप से ताल, तालप्रलम्ब आदि बारह आजीविकोपासकों के नाम दिये गये हैं । वे उदुम्बर आदि पाँच प्रकार के फल नहीं खाते।अनिाञ्छित और नाक न छिदे हुए बलों से, त्रस प्राणियों की हिंसा रहित व्यापार से अपनी आजीविका करते हैं । विशिष्ट योग्यता से रहित होने पर भी जब कि वे इस प्रकार से धर्म की इच्छा करते हैं, तो फिर जीवाजीवादि तत्त्वों के ज्ञाता श्रमणोपासक तो धर्म की इच्छा करें, इसमें कहना ही क्या है ? अर्थात् वे तो धर्म की इच्छा करते ही हैं । क्योंकि उन्हें तो विशिष्ट देव, गुरु और धर्म की प्राप्ति हुई है। For Personal & Private Use Only Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९० भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ आजीविकोपासक और श्रमणोपासक जिन धन्धों और कार्यों से ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का विशेषरूप से ग्रहण (बन्ध) होता है, उन्हें-'कर्मादान' कहते हैं । अथवा कर्मों के हेतुओं को 'कर्मादान' कहते हैं । उन कर्मादानों का आचरण स्वयं करना, दूसरों से कराना और अनुमोदन करना नहीं कल्पता। कमांदान पन्द्रह हैं। उनके नाम और अर्थ इस प्रकार है १ इंगालकम्मे (अंगारकर्म)-अंगार अर्थात् अग्नि विषयक कार्य को 'अंगारकर्म' कहते हैं । अग्नि से कोयला बनाने और बेचने का धन्धा करना । इसी प्रकार अग्नि के . प्रयोग से होने वाले दूसरे कर्मों का भी इसमें ग्रहण हो जाता है। जैसे कि- ईटों के भट्टे (पजावा) पकाना आदि। २ वणकम्मे (वनकर्म)-वन विषयक कर्म को 'वन कर्म' कहते हैं। जंगल को खरीद कर वृक्षों और पत्तों आदि को काटकर बेचना और उससे आजीविका करना'वनकर्म' है । इसी प्रकार (वनोत्पन्न) बीजों का पीसना (आटे आदि की चक्की आदि) भी वनकर्म है। - ३ साडीकम्मे (शाकटिक कर्म)-गाड़ी, तांगा, इक्का आदि तथा उनके अवयवों (पहिया आदि) को बनाने और बेचने आदि का धन्धा करके आजीविका करना 'शाकटिक कर्म' है। ४ भाडीकम्मे (माटी कर्म)-गाड़ी आदि से दूसरों का सामान एक जगह से दूसरी जगह भाड़े से ले जाना । बैल, घोड़े आदि किराये पर देना और मकान आदि बना बना कर भाड़े पर देना, इत्यादि धन्धे कर के आजीविका करना 'माटोकर्म' है। ५ फोडीकम्मे (स्फोटिक कर्म)-हल कुदाली आदि से भूमि को फोड़ना। इस प्रकार का धन्धा करके आजीविका करना 'स्फोटिक कर्म' है। ६ दंतवाणिज्जे (दन्तवाणिज्य)-हाथी दांत, मृग आदि का चर्म (मृगछाला आदि) चमरी गाय के केशों से बने हुए चामर और पूतिकेश (भेड़ के केश-ऊन) आदि को खरीदने और बेचने का धन्धा करके आजीविका करना 'दंतवाणिज्य' है। ७ लक्खवाणिज्जे (लाक्षाषाणिज्य)-लाख का क्रय-विक्रय करके आजीविका करना 'लाक्षावाणिज्य' है । इसमें त्रस जीवों की महाहिंसा होती है । इसी प्रकार त्रस जीवों की उत्पत्ति के कारणभूत तिलादि द्रव्यों का व्यापार करना भी इसी में सम्मिलित है। . ८ केसवाणिज्जे (केशवाणिज्य)-केशवाले जीवों का अर्थात् गाय, भैस आदि पशु तथा दासी मादि को बेचने का व्यापार करना 'केशवाणिज्य' है। ९ रसवाणिज्जे (रसवाणिज्य)-मदिरा आदि रसों को बेचने का धन्धा करना, For Personal & Private Use Only Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ आजीविकोपासक और श्रमणोपासक १३९१ www 'रसवाणिज्य' है। १० विसवाणिज्जे (विषवाणिज्य)-विष (अफीम, शंखिया आदि जहर) को बेचने का धन्धा करना 'विषवाणिज्य' है । जीवघातक तलवार आदि शस्त्रों का व्यापार करना भी इसी में सम्मिलित है। . ११ जंतपीलणकम्मे (यन्त्रपीडनकर्म)-तिल, ईख आदि पीलने के यन्त्र-कोल्हू, चरखी आदि से तिल ईख आदि पीलने का धन्धा करना 'यन्त्रपीडनव मं' है । उसी प्रकार महारम्भपोषक जितने भी यन्त्र हैं. उन सबका समावेश-यन्त्रपीडनकर्म में होता है । तथा अग्नि सम्बन्धी महारम्भ पोषक यन्त्रों का समावेश-अंगारकर्म में होता है। १२ निल्लंछणकम्मे (निर्लाछनकर्म)-बैल, घोड़े आदि को खसी (नपुंसक) बनाने का धन्धा करना 'निलांछनकर्म' है। १३ दवग्गिदावणया (दावाग्निदापनता)-खेत आदि साफ करने के लिये जंगल में किसी से आग लगवा देना अथवा स्वयं लगाना 'दावाग्निदापनता' है। इसमें असंख्य त्रस और अनन्त स्थावर जीवों की हिंसा होती है। . १४ सर-दह-तलायपरिसोसणया (सरोहृदतडाग परिशोषणता)-स्वत: बना हुआ जलाशय 'सरोवर' कहलाता है। नदी आदि में जो अधिक ऊँडा प्रदेश होता है उसे 'हृद' कहते हैं । जो खोदकर जलाशय बनाया जाता है, उसे 'तड़ाग' (तालाब) कहते हैं । इन (सरोवर, हृद, तालाब आदि) को सूखाना-'सरोहृदतड़ागपरिशोषणता' है। १५ असईपोसणया (असतीपोषणता)-दुष्चरित स्त्रियों से व्यभिचार करवा कर उनसे भाड़ा ग्रहण करने के लिये उनका पोषण करना अर्थात् आजीविका कमाने के लिये दुश्चरित्रः स्त्रियों का पोषण करना-'असतीपोषणता' है। इसी प्रकार पापबुद्धि पूर्वक कुकर्कुट, मार्जार (बिल्ली) आदि हिंसक जानवरों का पोषण करना भी इसी में सम्मिलित है। - इस प्रकार व्रतों का पालन करने वाले, मत्सरभाव से रहित, कृतज्ञ (उपकारी के उपकार को मानने वाले) अल्पारम्भ से आजीविका करने वाले, प्राणियों के हितचिन्तक शुक्लाभिजात (धार्मिक वृत्ति वाले) श्रमणोपासक, काल के अवसर काल करके किसी देवलोक में उत्पन्न होते हैं। ...भवनवासी, वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक-ये चार प्रकार के देवलोक कहे गये हैं। ॥ इति आठवें शतक का पांचवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ For Personal & Private Use Only Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शतक उद्देशक ६ श्रमण- अश्रमण के प्रतिलाभ का फल १ प्रश्न - समणोवासगस्स णं भंते! तहारूवं समणं वा माहणं वा फास - एसणिज्जेणं असण- पाणखाइम साइमेणं पडिला भेमाणरंस किं कज्जइ ? १ उत्तर - गोयमा ! एगंतसो से णिज्जरा कज्जइ, णत्थि य से पावे कम्मे कज्जइ । २ प्रश्न - समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफामुपणं अणेसणिज्जेणं असण-पाण जाव पडिला भेमाणस्स किं कज्जइ ? २ उत्तर - गोयमा ! बहुतरिया से णिज्जरा कज्जह, अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ । ३ प्रश्न - समणोषासगस्स णं भंते! तहारूवं असंजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मं फासुएण वा, अफासुएण वा, एसणिज्जेण वा, असणिज्जेण वा असण-पाण जाव किं कज्जइ ? ३ उत्तर - गोयमा ! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जह, णत्थि से काइ णिज्जरा कज्जइ । कठिन शब्दार्थ - तहारूबं - - तथारूप के ( वेश के अनुसार ही गुण और आचरण से युक्त) माहणं - - ब्राह्मण ( साधु अथवा श्रावक ) फासुएसणिज्जेणं - प्रासुक और एषणीय For Personal & Private Use Only Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - . ८ उ ६ श्रमण- अश्रमण के प्रतिलाभ का फल निर्जीव एवं निर्दोष ( ग्राह्य), पडिला मेमाणस्स - प्रतिलाभता हुआ ( उत्तमता के साथ देकर लाभान्वित होना), कि कज्जइ - क्या करता है ?, एगंतसो-एकांत, णिज्जरा - कर्म तोड़ना. अफासुए - जीव सहित, अणेसणिज्जेणं - अनिच्छनीय ( अग्राह्य), बहुतरिया - अधिकतर अप्पतराए - अल्पतर । १३९३ भावार्थ - १ प्रश्न - हे भगवन् ! तथारूप के ( साधु के वेष और तदनुकूल प्रवृत्ति तथा गुणों से युक्त ) श्रमण या माहन को प्रासुक एवं एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? १ उत्तर - हे गौतम ! उसके एकांतरूप में निर्जरा होती है, किन्तु पाप कर्म नहीं होता । २ प्रश्न - हे भगवन् ! तथारूप के श्रमण माहन को अप्रामुक और अनेषft अशनादि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? २ उत्तर - हे गौतम ! उसके बहुत निर्जरा और अल्प पाप होता है । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! तथारूप के असंयत, अविरत, जिसने पाप कर्मों को नहीं रोका और पाप का प्रत्याख्यान भी नहीं किया, उसे प्राक या अप्राक, एषणीय या अनेषणीय अशन पानादि द्वारा प्रतिलाभित करते हुए श्रमणोपासक को किस फल की प्राप्ति होती है ? ३ उत्तर - हे गौतम! उसे एकान्त पापकर्म होता है, निर्जरा कुछ भी नहीं होती । विवेचन - अशनादि शब्दों का अर्थ इस प्रकार है -१ अशन - जिससे भूख शांत हो । जैसे - दाल, भात, रोटी आदि । २ पान - जिससे प्यास शांत हो। जैसे- जल, धोवन आदि । ३ खादिम (खाद्य) – जिससे भूख और प्यास दोनों की शांति हो । जैसे – दूध, छाछ, मेवा, मिष्टान्न आदि । ४ स्वादिम ( स्वाद्य ) – जिससे न तो भूख शांत हो और न प्यास शांत हो । For Personal & Private Use Only Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ श्रमण-अश्रमण के प्रतिलाभ का फल जो मुख को स्वाद युक्त करने के लिये, भोजन के बाद खाने लायक स्वादिष्ट पदार्थ । जैसे-लोंग, चूर्ण, गोली, खटाई आदि । ___ऊपर तीनों सूत्रों में 'तहारूवं समगं.....पाठ आया है । उसका अर्थ है-'तथारूप के साधु अर्थात् साधु का रूप' । जो बाह्य और आभ्यन्तर रूप से साधु है, साधु के योग्य वस्त्र-पात्रादि धारण किये हुए हैं और चारित्रादि गुणयुक्त है। ___ पहले और दूसरे सूत्र में 'तथारूप' का अर्थ है-'जैनागमों में वर्णित साधु के वेश तथा गुणों से युक्त ।' तीसरे सूत्र में जो 'तथारूप' शब्द आया है, उसके साथ 'असंयत, 'अविरत' आदि विशेषण लगे हुए हैं। इसलिये वहाँ इसका अर्थ है-'मिथ्यामत को दीपानेवाले बाबा, जोगी, सन्यासी आदि । इसको जो गुरु-बुद्धि से दान दे, उसका यहाँ कथन है। तीनों ही पाठ में 'पडिलाभेमाणस्स'-पाठ आया है । यह पाठ गुरु-बुद्धि से दान देने का सूचक है । साधारण भीखमंगों आदि को देने में पडिलाभे' पाठ नहीं आता । जहाँ भी से भिखारियों आदि को देने का वर्णन आया है, वहां-'इलयइ' या 'दलेज्जा' आदि पाठ आया है। 'तथारूप' के अर्थात् साधु के वेष प्रवृत्ति और गुणों से युक्त साधु को प्रासुक, एषणीय (मुनि के कल्प योग्य निर्दोष ) अशनादि देने से दाता को एकान्त निर्जरा होती है। दूसरे सूत्र में यह बतलाया गया है कि 'तथारूप' (साधु के गुणों से युक्त) साधु को अप्रासुक, अनेषणीय अशनादि देने से अल्प पाप और बहुत निर्जरा होती है अर्थात् पापकर्म की अपेक्षा. बहुत अधिक निर्जरा होती है और निर्जरा की अपेक्षा पाप बहुत थोड़ा होता है। प्रासुक और एषणीय शब्दों का अर्थ अनेक स्थानों पर इस प्रकार किया है। यथा'प्रासुक' अर्थात् 'निर्जीव' और 'एषणीय' अर्थात् 'निर्दोष' । इस व्याख्या के अनुसार 'अप्रासुक' का अर्थ 'सजीव' और 'अनेषणीय' का अर्थ 'सदोष' होता है। किन्तु यहां बहुत निर्जरा अल्प पाप के प्रकरण में यह अर्थ घटित नहीं होता। क्योंकि तथारूप के श्रमण (शुद्ध साधु) को जानबूझकर सचित्त वस्तु तथा महादोपयुक्त अनेषणीय वस्तु बहराकर, दाता क्या कभी बहुत निर्जरा का भागी हो सकता है ? नहीं । दूसरी बात यह है कि आत्मार्थी मुनि ऐसा सचित्त और अनेषणीय (महादोषयुक्त) आहार लेंगे ही कैसे ? अतः 'अप्रासुक और अनेषणीय' का जो अर्थ आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध में अनेक For Personal & Private Use Only Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८. उ. ६ दूसरों के लिए प्राप्त पिण्ड का उपभोग १३९५ स्थानों पर दिया है, वही अर्थ यहाँ भी घटित होता है । यथा- .. बहुत परिमाण में बहरा देने से जिस आहार को परठना पड़े, जो आहार बहुत उसित धर्मवाला हो (जिसमें खाने लायक अंश थोड़ा और परठने योग्य अंश बहुत अधिक हो, ऐसा आहार अचित्त तथा अन्य दोषों से रहित होते हुए भी उसमें से बहुत अंश परठना पड़ता हैं, इस कारण उसे 'अप्रासुक अनेषणीय कहा है) । मालोहड (मालापहृत) आहारादि, शय्यातरपिण्ड, स्वामी की आज्ञा बिना दिया हुआ आहारादि, जो वस्त्र-पात्रादि टिकाऊ न हो तथा काम में आने लायक न हो, मंगते-भिखारी को देने का आहारादि, इत्यादि पदार्थ निर्जीव एवं ततद्गत दोष के अतिरिक्त अन्य दोषों से रहित होते हुए भी उनको 'अप्रासुक अनेषणीय' बतलाया है । अतः 'अप्रासुक अनेषणीय' का यही अर्थ यहां भी लेना चाहिये । अर्थात् यहाँ 'अप्रासुक अनेवणीय' का अर्थ है-साधु के लिये अकल्पनीय । इस प्रकार का 'अप्रासुक अनेषणोय' आहारादि बहराने से बहुत निर्जरा और अल्प पाप होता है । यथा __किसी पुष्ट कारण के उपस्थित होने पर साधारण संघट्टा आदि (परम्परा से बीजादि का संघट्टा लगता हो, स्वयं की जेब में इलायची आदि कोई सचित्त पदार्थ हो) दोष को गौण करके दाता ने जो आहारादि बहराया हो, उससे भी बहुत निर्जरा और अल्प पाप होता है । जैसे-कोई सन्त महात्मा, गर्मी के मौसम में विहार करके किसी गांव में पधारे। विलम्ब से पधारने के कारण दिन बहुत चढ़ गया हो। ऐसे समय में धोवन-पानी का कहीं भी योग नहीं मिला । प्यास के मारे प्राण जाने तक की नौबत आगई, उस वक्त एक श्रावक के घर में स्वाभाविक धोवन पानी पड़ा था, किन्तु साधारण संघट्टा आदि लगता था। उसे गौण करके श्रावक ने वह धोवन पानी मुनि को बहरा दिया। उस श्रावक को संघट्टा सम्बन्धी अल्प पाप लगा और उस सन्त महात्मा के प्राण बच गये । उससे निर्ज। रूप महालाभ मिला । इसी तरह किसी खास औषध आदि के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। दूसरों के लिए प्राप्त पिण्ड का उपभोग ४-णिग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठ केह दोहिं पिंडेहिं उवणिमंतेजा-एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, For Personal & Private Use Only Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६६ भगवती सूत्र - श. ८ उ ६ दूसरों के लिए प्राप्त पिण्ड का उपभोग एगं थेराणं दलयाहि, से य तं पडिग्गाहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसि - यव्वा सिया, जत्थेव अणुगवेसमा थेरे पासिज्जा तत्थेव अणुप्प - दायव्वे सिया णो चेव णं अणुगवेसमाणे थेरे पासिजा तं णो अप्पणा भुंजेज्जा, णो अण्णेसिं दावए; एगंते अणावाए अचित्ते बहुफा सुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमजित्ता परिडावेयव्वे सिया ।.. " ५- णिग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविनं के तिहिं पिंडेहिं वणिमंतेजा - एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, दो थेराणं दलयाहि; से य ते पडिग्गाहेज्जा थेरा य से अणुगवेसियव्वा, सेसं तं चेत्र जाव परिद्वावेवे सिया, एवं जाव दसहि पिंडेहिं उवणिमंतेजा; णवरं एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, णव थेराणं दलयाहि; सेसं तं चेत्र जाव परिवेयव्वे सिया । कठिन शब्दार्थ-गाहाबइकुलं - गृहस्थ के यहाँ, पिडवायपडियाए - आहार ग्रहण करने प्रवेश करे, पिडेहि - पिण्ड (आहार), उवणिमंतेज्जा - उपनिमन्त्रण करे, अपणा जाहि-तुम खाना, थेरे- स्थविर मुनि, पडिग्गाहेज्जा ग्रहण करे, अणुगवेसियच्यागवेषणा करे (खोज करे ), जत्थेव - जहां, पासिज्जा-दिखाई दे, तत्थेव वहां, अणुप्पदायन्येदे देवे, अणावाए-जहां कोई नहीं आवे, थंडिल्ले - स्थंडिल भूमि ( परठने की जगह ) पडिलेहित्ता - प्रतिलेखना करके, पमज्जित्ता-पूंजकर, परिट्ठावेयध्वे - परठे ( डाल दे ) । - भावार्थ - ४ कोई साधु, गृहस्थ के घर आहार लेने के लिये जाय, वहाँ वह गृहस्थ, दो पिण्ड ( दो रोटी या दो लड्डू आदि पदार्थ) बहरावे और ऐसा कहे कि - ' हे आयुष्मन् श्रमण ! इन दो पिण्डों में से एक पिण्ड अप खाना और दूसरा पिण्ड स्थविर मुनियों को देना ।' वह मुनि दोनों पिण्ड ग्रहण करके अपने स्थान पर आवे । वहाँ आकर स्थविर मुनियों को गवेषणा करे । For Personal & Private Use Only Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ८ उ. ६ दूसरों के लिए प्राप्त पिण्ड का उपभोग १३९७ गवेषणा करने पर वे स्थविर मुनि मिल जाय, , तो वह पिण्ड उन्हें दे दे । गवेषणा करने पर भी यदि वे नहीं मिलें, तो उस पिण्ड को न तो आप खावे न दूसरों को देवे । किन्तु एकान्त और अनापात, अचित्त, बहुप्रासुक स्थण्डिल स्थान को प्रतिलेखना और प्रमार्जना करके वहाँ परठ दे । ५- कोई साधु, गृहस्थ के घर गोचरी जाय । वहाँ गृहस्थ उसे तीन पिण्ड ( तीन रोटी अथवा तीन लड्डू आदि कोई वस्तु ) देवे और ऐसा कहे कि 'हे आयुष्मन् श्रमण ! इन तीन पिण्डों में से एक पिंड तो आप खाना और दो पिंड स्थविर मुनियों को देना ।' फिर वह मुनि उन पिंडों को लेकर अपने स्थान पर आवे । वहाँ आकर स्थविर मुनियों की गवेषणा करे। यदि वे मिल जाय, तो वे दो पिंड उन्हें दे दे । यदि वे नहीं मिलें, तो उन दो पिंडों को आप स्वयं नहीं खावे और न दूसरों को दे, किंतु पूर्वोक्त विशेषण युक्त स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना व प्रमार्जना करके परठ दे। इसी प्रकार चार, पांच, छह यावत् दस पिंड तक के विषय में कहना चाहिये। उनमें से एक पिंड स्वयं ग्रहण करने के लिये तथा शेष पिंड स्थविर मुनियों को देने के लिये कहे, इत्यादि कथन करना चाहिये । शेष सारा वर्णन पूर्वोक्त प्रकार से कहना चाहिये । ६ णिग्गंथं च णं गाहावइ० जाव के दोहिं पडिग्गहे हिं उवणिमंतेजा - एगं आउसो ! अप्पणा परिभुंजाहि, एगं थेराणं दलयाहि । से य तं पडिग्गाहेज्जा, तहेव जाव तं णो अप्पणा परिभुंजेजा, णो अण्णेसिं दावए; सेसं तं चेव, जाव परिट्ठावेयव्वे सिया । एवं जाव दसहिं पडिग्गा हेहिं, एवं जहा पडिग्गहवत्तव्वया भणिया, एवं गोच्छयरयहरण- चोलपट्टग- कंबल लट्ठि- संथारगवत्तव्वया य भाणियव्वा, जाव दसहिं संथारएहिं उवणिमंतेज्जा, जाव परिट्ठावेयव्वे सिया । For Personal & Private Use Only Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३९८ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ६ दूसरों के लिए प्राप्त पिण्ड का उपभोग कठिन शब्दार्थ - पडिग्गह — पात्र, गोच्छय-- गुच्छक ( पात्र पोंछने का कपड़ा) रथहरण -- रजोहरण (ओघा) चोलपट्टक - - चोलपट्टा, संथारंग - संस्तारक ( बिछौना) । भावार्थ - ६ कोई साधु, गृहस्थ के घर गोचरी के लिये जाय । वहाँ वह गृहस्थ, दो पात्र बहरावे और ऐसा कहे कि - ' हे आयुष्मन् श्रमण ! इन दो पात्रों में से एक पात्र का उपयोग आप स्वयं करना और दूसरा पात्र, स्थविर मुनियों को देना ।' तो उन दोनों पात्रों को ग्रहण कर अपने स्थान पर आवे यावत् सारा वर्णन पूर्वोक्त रूप से कहना । उस दूसरे पात्र का उपयोग आप स्वयं न करे और न वह दूसरों को बे, किंतु यावत् उसको परठ दे। इसी प्रकार तीन, चार यावत् दस पात्र तक का कथन पूर्वोक्त पिंड के समान कहना चाहिये। जिस प्रकार पात्र की वक्तव्यता कही, उसी प्रकार गुच्छक, रजोहरण, चोलपट्ट, कम्बल, दण्ड और संस्तारक की वक्तव्यता कहनी चाहिये । यावत् परठ दे- यहां तक कहना चाहिये । विवेचन -- यहाँ यह कथन किया गया है कि जो पिण्ड, पात्र आदि स्थविर मुनियों के निमित्त से दिये गये हैं, उनका उपयोग वह मुनि स्वयं नहीं करे और न वह दूसरों को दे, क्योंकि गृहस्थ ने स्थविर मुनियों का नाम लेकर दिया है। इसलिये उस पिण्ड पात्रादि का उपयोग स्वयं करे, या दूसरों को दे, तो उस मुनि को अदत्तादान लगता है । इसलिये वह उसे अचित्तादि विशेषण विशिष्ट स्थण्डिल भूमि की प्रतिलेखना और प्रमार्जना करके वहाँ परठ दे | कैसे स्थण्डिल में परठे, इसके लिये कहा गया है कि ; -- अणावायमसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए, आवाए चेव होइ संलोए ।। १ ॥ अणावामसंलोए, परस्सऽणुवधाइए । समे असिरे यावि, अचिरकालकयम्भि य ॥ २ ॥ वित्थिष्णे दूरमोगाढे, नासणे बिलवज्जिए । तसपाण बीयरहिए, उच्चाराईणि वोसिरे ॥ ३ ॥ अर्थ- स्थण्डिल के दस विशेषणों में से प्रथम विशेषण के चार भंग करके बतलाये जाते हैं - १ जहां कोई आता भी न हो और देखता भी न हो, २ जहाँ आता तो कोइ नहीं, For Personal & Private Use Only Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ अकृत्य से बी आराधक ? १३९९ + किन्तु दूर खड़ा देखता हो, : जहां कोई आता तो है, परन्तु उसकी ओर देखता नहीं, ४ जहां कोई आता भी है और देखता भी है-ये चार भंग हैं। इनमें से पहला भंग शुद्ध है बाकी तीन अशुद्ध हैं। - अव स्थण्डिल के दम विशेषण कहे जाते हैं। यथा-१ अनापात असंलोक- जहाँ स्वपक्ष और परपक्ष वाले लोगों में से किसी का आना जाना नहीं हो और दृष्टि भी नहीं पड़ती हो । २ अनुपघातक-जहां संयम और छह काय जीवों की एवं आत्मा की विराधना नहीं हो। ३ मम-जहां ऊँची जगह नहीं होकर समतल-भूमि हो । ४ अशुषिरजहां पोलार नहीं हो और घास तथा पत्तों आदि से ढकी हुई भी नहीं हो अर्थात् साफ खुली हुई भूमि हो। ५ अचिरकाल कृत-जो स्थान दाह आदि से थोड़े काल पहले अचित्त हुई हो। ६ विस्तीर्ण-जो भूमि विस्तृत हो अर्थात् कम से कम एक हाथ लम्बी चौड़ी हो। ७ दूरावगाढ-जहाँ कम से कम चार अंगुल नीचे तक भूमि अचित्त हो। ८ न आसन्न-जहाँ गांव तथा बाग बगीचा आदि अति निकट नहीं हो । ९ बिलवर्जित-जहाँ चूहे आदि का बिल नहीं हो । १० बम-प्राण-बीज रहित-जहाँ बेइन्द्रियादि त्रस जीव तथा शाली आदि बीज नहीं हों । इन दम विशेपणों युक्त स्थण्डिल भूमि में उच्चार आदि (मलमूत्रादि) परठे । अकृत्यसेवी आराधक ७ प्रश्न-णिग्गंथेण य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए पविटेणं अण्णयरे अकिचट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि, पडिकमामि, जिंदामि, गरिहामि, विउट्टामि, विसोहेमि, अकरणयाए अन्भुटेमि, अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवजामि; तओ पच्छा थेराणं अंतिअं आलोएस्सामि, जाव तवोकम्म पडिवजिस्सामि । से य संपट्ठिए, असंपत्ते थेरा य पुवामेव अमुहा सिया, से णं भंते ! किं आराहए, विराहए ? For Personal & Private Use Only Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०० भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ अकृत्यसेवी आराधक ? ७ उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए । ८ प्रश्न-से य संपट्ठिए असंपत्ते अप्पणा य पुवामेव अमुहे सिया, से णं भंते ! किं आराहए, विराहए ? ८ उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए। ९ प्रश्न-से य संपट्ठिए असंपत्ते थेरा य कालं करेजा, से णं भंते ! किं आराहए, विराहए ? ९ उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए। १० प्रश्न-से य संपट्ठिए असंपत्ते अप्पणा य पुव्वामेव कालं करेजा, से णं भंते ! किं आराहए, विराहए ? १० उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए। . ११ प्रश्न-से य संपट्ठिए संपत्ते, थेरा य अमुहा सिया से णं. भंते ! किं आराहए, विराहए ? ११ उत्तर-गोयमा ! आराहए, णो विराहए । से य संपद्विए संपत्ते, अप्पणा य०-एवं संपत्तेण वि चत्तारि आलावगा भाणियव्वा जहेव असंपत्तेणं। कठिन शब्दार्थ-अकिञ्चट्ठाणे-अकृत्य स्थान ( मूल गुणादि में दोष सेवन रूप अकार्य विशेष )पडिसेविए-प्रतिसेवन किया, विउट्टामि--तोड़ दूं ( उसके अनुबन्ध का छेदन कर दूं) विसोहेमि-मैं विशुद्ध करूं, अन्मठेमि-तत्पर वनूं, अहारिहं-यथार्ह-यथोचित, पतिवज्जामिस्वीकार करूं, संपट्ठिए-पहुंचने, अमुहा-अमुखा अर्थात् जिनकी जिव्हा बन्द हो गई हो । . भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई साधु, गाथापति (गृहस्थ) के घर For Personal & Private Use Only Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ अकृत्य सेवी आराधक ? १४०१ में गोचरी गया, वहां उस साधु द्वारा (मल गुणादि में दोष रूप) कृत्य का सेवन हो गया हो और तत्क्षण उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हो कि-'प्रथम में यहीं पर इस कृत्य स्थान की आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा और गर्दा करूं, उसके अनुबन्ध का छेदन करूँ, इससे विशुद्ध बनूं, भविष्य में ऐसा कार्य न करने की प्रतिज्ञा करूं तथा यथोचित प्रायश्चित और तपःकर्म स्वीकार करलू। फिर मैं यहाँ से जाकर स्थविर मनियों के पास आलोचना करूंगा यावत् यथोचित तपः-कर्म स्वीकार करूंगा।' ऐसा विचार कर वह मुनि, स्थविर मुनियों के पास जाने के लिये निकला । उन स्थविर मुनियों के पास पहुँचने के पूर्व ही वे स्थविर मुनि वात आदि दोष के प्रकोप से मक हो जाय (वे बोल नहीं सकें) और इसी कारण वे प्रायश्चित्त न दे सकें, तो हे भगवन् ! वह मुनि आराधक है या विराधक ? ७ उत्तर-हे गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं। ८ प्रश्न-उपर्युक्त अकार्य का सेवन करनेवाले मुनि ने स्वयं आलोचनादि करली, फिर स्थविर मनियों के पास आलोचना करने के लिये निकला, किंतु वहाँ पहुचने के पूर्व ही वह स्वयं वात आदि दोष के कारण मूक हो जाय, तो हे भगवन् ! वह मुनि आराधक है, या विराधक ? ८ उत्तर-हे गौतम ! वह मुनि आराधक है, विराधक नहीं। ____९ प्रश्न-उपर्युक्त अकार्य सेवन करनेवाला मुनि, स्वयं आलोचनादि करके स्थविर मुनियों के पास आलोचना करने को निकला, किन्तु वहाँ पहुँचने के पूर्व ही वे स्थविर मुनि काल कर गये, तो हे भगवन् ! वह मुनि आराधक है, या विराधक ? ६ उत्तर-हे गौतम ! वह मुनि आराधक है, विराधक नहीं। १० प्रश्न-उपर्युक्त अकार्य का सेवन करनेवाला मुनि, स्वयं आलोचनादि करके स्थविर मुनियों के पास आलोचना करने के लिये निकला, किन्तु वहां पहुंचने के पूर्व ही वह स्वयं काल कर जाय, तो हे भगवन् ! वह मुनि आराधक है, या विराधक ? For Personal & Private Use Only Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०२ भगवता सूत्र-श. ८ उ. ६ अकृत्यसेवी आराधक ? १० उत्तर-हे गौतम ! वह मुनि आराधक है, विराधक नहीं। ११ प्रश्न-उपर्युक्त अकार्य का सेवन करने वाला मुनि स्वयं आलोच. नादि करके स्थविर मुनियों के पास आलोचना करने के लिये निकला और वह वहां पहुंच गया, तत्पश्चात् वे स्थविर मुनि वात आदि दोष के कारण मक हो गये, तो हे भगवन् ! वह मुनि आराधक है, या विराधक ? ११ उत्तर-हे गौतम ! वह आराधक है, विराधक नहीं। जिस प्रकार असंप्राप्त (स्थविरों के पास न पहुंचे हुए) मुनि के चार आलापक कहे गये, उसी प्रकार सम्प्राप्त (स्थविरों की सेवा में पहुंचे हुए) मनि के चार आलापक कहना चाहिये। १२-णिग्गंथेण य बहिया वियारभूमि वा विहारभूमि वा णिक्खतेणं अण्णयरे अकिचट्टाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइइहेव ताव अहं०-एवं एत्थ वि ते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्या; जाव णो विराहए । णिग्गंथेण य गामाणुगाम दुइजमाणेणं अण्णयरे अकिचट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं०, एत्थ वि ते चेव अट्ठ आलावगा भाणियव्वा, जाव णो विराहए। ___ १३ प्रश्न-णिग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुपविट्ठाए अण्णयरे अकिच्चट्टाणे पडिसेविए; तीसे णं एवं भवइइहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि, जाव तमोकम्मं पडिवज्जामि, तओ पच्छा पवत्तिणीए अंतियं आलोएस्सामि, जाव पडिवज्जिस्सामि । सा य संपट्टिया असंपत्ता पवत्तिणी य अमुहा For Personal & Private Use Only Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ अकृत्यमेवी आराधक ? १४०३ सिया, सा णं भंते ! किं आराहिया, विराहिया ? . १३ उत्तर-गोयमा ! आराहिया, णो विराहिया। सा य संपट्ठिया जहा णिग्गंथस्स तिण्णि गमा भणिया एवं णिग्गंथीए वि तिण्णि आलावगा भाणियव्वा, जाव आराहिया, णो विराहिया । ____कठिन शब्दार्थ-वियारभूमि-नीहारभूमि (स्थंडिलभूमि) विहारभूमि-स्वाध्याय भूमि, णिक्खंतेणं-जाते हुए, पत्तिणिए-प्रवर्तिनी के पास । ___-भावार्थ-१२-कोई मुनि बाहर विचारभूमि (नोहार भूमि) अथवा विहारभूमि की ओर जाते हुए, उसके द्वारा किसी अकार्य का सेवन हो गया हो, फिर उसके मन में इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ हो कि 'प्रथम में स्वयं यहाँ इस अकार्य की आलोचना आदि करूं,' इत्यादि पूर्ववत् सारा वर्णन कहना चाहिये । पूर्वोक्त प्रकार से संप्राप्त और असम्प्राप्त दोनों के आठ आलापक कहना चाहिये यावत् वह मुनि आराधक है, विराधक नहीं, यहाँ तक कहना चाहिये । ग्रामानुग्राम विचरते हुए किसी मुनि द्वारा अकार्य का सेवन हो जाय, तो उसके भी इसी प्रकार आठ आलापक जानना चाहिये। यावत् वह मुनि आराधक है, विराधक नहीं-यहां तक कहना चाहिए । .१३ प्रश्न-कोई साध्वी गोचरी के लिये गृहस्थ के घर गई । वहां उसके द्वारा किसी अकार्य का सेवन हो गया। तत्पश्चात् उसके मन में ऐसा विचार उत्पन्न हुआ कि 'पहले मैं यहीं अकृत्य स्थान की आलोचना करूं, यावत् तपकर्म को स्वीकार करूं, इसके बाद प्रवर्तिनी के पास आलोचना करूंगी यावत् तपकर्म को स्वीकार करूंगी,-ऐसा विचार कर वह साध्वी, प्रतिनी के पास जाने के लिये निकली । प्रवर्तिनी के पास पहुंचने के पहले ही वह प्रवर्तिनी, वात आदि दोष के कारण मक हो गई (जिव्हा बन्द हो गई-बोल न सकी)। तो हे भगवन् ! क्या वह साध्वी आराधक है, या विराधक ? १३ उत्तर-हे गौतम ! वह साध्वी आराधक है, विराधक नहीं। जिस For Personal & Private Use Only Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०४ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ६ अकृत्य सेवी आराधक ? प्रकार साधु के तीन आलापक कहे है, उसी प्रकार साध्वी के भी तीन आलापक कहना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि 'स्थविर' शब्द के स्थान पर 'प्रवर्तिनी' शब्द का प्रयोग करना चाहिये । १४ प्रश्न - से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ - आराहए, णो विरा हए ? १४ उत्तर - गोयमा ! से जहा णामए - केइ पुरिसे एगं महं उष्णालोमं वा, गयलोमं वा, सणलोमं वा, कप्पासलोमं वा, तणसूयं वा दुहा वातिहा वा संखेनहावा छिंदित्ता अगणिकायंसि पक्खिवेज्जा, से णूणं गोयमा ! छिजमाणे छिण्णे, पक्खिप्पमाणे पविखत्ते, डज्झमाणे दड्ढेत्ति वत्तव्वं सिया ? हंता भगवं ! छिज्जमाणे छिण्णे, जाव दड्ढेत्ति वत्तव्वं सिया । से जहा वा केइ पुरिसे वत्थं अहयं वा धोयं वा, तंतुग्गयं वा मंजिट्ठादोणीए पक्खिवेज्जा, से णूणं गोयमा ! उक्खिप्पमाणे उक्खिते, पक्खिप्पमाणे पखित्ते, रज्जमाणे रत्तेत्ति वत्तव्वं सिया ? हंता भगवं ! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते जाव रत्तेत्ति वत्तव्वं सिया । से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ - आराहए णो विराहए । कठिन शब्दार्थ - उण्णालोमं - ऊन के रोम, गयलोमं - हाथी के रोम, अहयं - अक्षत - ( अखंड – नया ) । भावार्थ - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया कि - ' वे आराधक है, विराधक नहीं ?' For Personal & Private Use Only Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ अकृत्यसेवी आराधक ? १४०५ १४ उत्तर-हे गौतम ! जैसे कोई पुरुष ऊन (भेड) के बाल, हाथी के बाल, या सण के रेसे (तन्तु)कपास के रेसे तथा तण, इन सब के एक, दो तीन यावत् संख्येय टुकडे करके अग्नि में डाले,तो काटते हुए वे काटे गये और अग्नि में डालते हुए 'डाले गये,' जलते हुए 'जले'-इस प्रकार कहलाता है ? (गौतम स्वामी कहते हैं) हां, भगवन् ! काटे जाते हुए-काटे गये' डाले जाते हुए-'डाले गये' और जलते हुए-'जले' इस प्रकार कहलाते है। (भगवान् फिर फरमाते हैं। अथवा कोई पुरुष, नवीन अथवा धोये हुए अथवा यन्त्र से तुरन्त उतरे हुए वस्त्र को मजीठ के द्रोण (पात्र) में डाले, तो हे गौतम ! क्या उठाते हुए वह कपड़ा उठाया गया, डालते हुए वह डाला गया और रंगते हुए वह 'रंगा गया-ऐसा कहा जाता है ? (गौतम स्वामी कहते है ।) हां, भगवन् ! उठाते हुए उठाया गया, डालते हुए 'डाला गया और रंगते हुए 'रंगा गया'-ऐसा कहा जाता है। (भगवान् फरमाते हैं) हे गौतम ! इसी प्रकार जो साधु या साध्वी, आराधना करने के लिये तैयार हुआ है, वह 'आराधक है, विराधक नहीं'-ऐसा कहा जाता है । . विवेचन-प्रथम शतक के प्रारम्भ में ही 'चलमाणे चलिए' यावत् "णिज्जरिज्जमाणे णिज्जिणे' का सिद्धान्त प्रतिपादन किया गया है। यही बात यहाँ ऊन, सण, कपास आदि के तन्तुओं को काटने, अग्नि में डालने और जलाने का कथन करके तथा नवीन एवं धोये हुए सफेद कपड़े को मजीठ के रंग में डालने और रंगने का कथन करके, एवं इनका दृष्टान्त देकर आराधकता की बात को पुष्ट किया गया है । तात्पर्य यह है कि किसी साधु या साध्वी से मूलगुणादि में दोषरूप अकार्य का सेवन हो गया हो, उसके बाद तत्काल ही वह स्वयं ही आलोचना आदि कर लेता है और बाद में गुरुजनों के पास आलोचना करने के लिये चल देता है, किन्तु वहां पहुंचने के पहले ही गुरुजन मूक हो जायँ, अथवा काल कर जाय, या स्वयं मूक हो जाय अथवा काल कर जाय, इसी प्रकार वहां पहुंचने पर आलोचना करने से पहले गुरुजन मूक हो जाये या काल कर जाय अथवा आप स्वयं मूक हो जाय, या काल कर जाय, तो वह साधु या साध्वी, आराधक है, विराधक नहीं। क्योंकि उसके परिणाम आलोचना करने के हो गये थे और वह आलोचना करने के लिये उद्यत भी हो गया था। उपरोक्त परिस्थिति के कारण वह आलोचना नहीं कर सका, ऐसी अवस्था में भी वह पूर्वोक्त सिद्धान्तानुसार आराधक ही है, विराधक नहीं। For Personal & Private Use Only Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०६ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ६ दीपक जलता है या बत्ती ? दीपक जलता है या बत्ती ? १५ प्रश्न - पईवस्स णं भंते! झियायमाणस्स किं पईवे झियाइ, लट्ठी झियाइ, वत्ती झियाइ, तेल्ले झियाह, दीवचंपए झियाइ, जोई झियाह ? १५ उत्तर - गोयमा ! णो पईवे झियाइ, जाव णो दी चंपए झियाइ, जोई झियाइ । १६ प्रश्न - अगारस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं अगारे झियाइ, कुड्डा झियाइ, कडणा झियाइ, धारणा झियाइ, बलहरणे झियाइ, वंसा झियाइ, मल्ला झियाइ, वग्गा झियाइ, छित्तरा झिया, छाणे झियाइ, जोई झियाइ ? १६ उत्तर - गोयमा ! णो अगारे झियाइ, णो कुड्डा झियाइ, जाव णो छाणे झियाइ, जोई झियाइ । कठिन शब्दार्थ -पईव - प्रदीप (दीपक), सियाह - जलता है, लट्ठी - - यष्टि, ataiye -- दीप- चम्पक ( दीप का ढक्कन ), अगार - घर, कुड्डा--मींत, कडणा-- टाटी, धारणा -- नीचे के स्तंभ | भावार्थ - १५ प्रश्न - हे भगवन् ! जलते हुए दीपक में क्या जलता है ? क्या दीपक जलता है, दीपयष्टि (दीवी - दीवट ) जलती है, बत्ती जलती है, तेल जलता है, दीप-चम्पक अर्थात् दीपक का ढक्कन जलता है, या ज्योति ( दीपशिखा ) जलती है ? १५ उत्तर - हे गौतम! दीप नहीं जलता, यावत् दीपक का ढक्कन भी For Personal & Private Use Only Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ६ क्रियाएँ कितनी लगती हैं ? नहीं जलता, परन्तु ज्योति ( दीपशिखा ) जलती है । १६ प्रश्न - हे भगवन् ! जलते हुए घर में क्या जलता है ? क्या घर जलता है, भींत जलती है, टट्टी (खसखस आदि की टाटो या पतली दीवार) जलती है, धारण ( मुख्य स्तम्भ) जलता है, बलहरण ( मुख्य स्तम्भ के ऊपर रहनेवाली लकडी - लम्बा काष्ठ) जलता है, क्या बांस जलते हैं, मल्ल ( भींत के आधार भूत स्तम्भ ) जलते हैं, वर्ग ( बांस आदि के बन्धनभूत छाल) जलते हैं, छित्वर ( बांस आदि को ढकने के लिये डाली हुई चटाई) जलते हैं, छादन ( दर्भादि युक्त पटल) जलता है, या अग्नि जलती है ? १६ उत्तर - हे गौतम ! घर नहीं जलता, भींत नहीं जलती, यावत् छादन नहीं जलता, किन्तु अग्नि जलती है । विवेचन – यहां दीप और घर का उदाहरण देकर यह बतलाया गया है कि जलते हुए दीप में दीपशिखा जलती है और जलते हुए घर में घर, भींत आदि नहीं जलते, किन्तु अग्नि जलती है । १४०७ क्रियाएँ कितनी लगती हैं ? १७ प्रश्न - जीवे णं भंते ! ओरालियस राओ कइ किरिए ? १७ उत्तर - गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंच किरिए, सिय अकिरिए । १८ प्रश्न - णेरइए णं भंते ! ओरालियसरीराओ कइकिरिए ? १८ उत्तर - गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय पंचकरिए । १९ प्रश्न - असुरकुमारे णं भंते ! ओरालियसरीराओ कह For Personal & Private Use Only Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ क्रिया + किरिए ? ___ १९ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव वेमाणिए, णवरं मणुस्से जहा जीवे । ___२० प्रश्न-जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरेहितो कइकिरिए ? २० उत्तर-गोयमा ! सिय तिकिरिए, जाव सिय अकिरिए । २१ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! ओरालियसरीरोहितो कइकिरिए ? २१ उत्तर-एवं एसो जहा पढमो दंडओ तहा इमो वि अपरिसेसो भाणियबो जाव वेमाणिए, णवरं मणुस्से जहा जीवे । । कठिन शब्दार्थ--अपरिसेसो--अपरिशेष (सम्पूर्ण) । भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! एक जीव, एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? १७ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है । तथा कदाचित् अक्रिय (क्रिया रहित) भी होता है। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! एक नरयिक जीव, दूसरे के एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? १८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है। १९ प्रश्न-हे भगवन् ! एक असुरकुमार दूसरे के एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! पूर्व कथितानुसार कदाचित् तीन क्रिया काला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है । इसी For Personal & Private Use Only Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ८ उ. ६ क्रिया १४०९ प्रकार यावत् वैमानिक देवों तक जानना चाहिये । परन्तु मनुष्य का कथन औधिक जीव की तरह जानना चाहिये। . २० प्रश्न-हे भगवन् ! एक जीव बहुत औदारिक शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? २० उत्तर-हे गौतम ! कदाचित तीन क्रिया वाला, कदाचित् चार क्रिया वाला और कदाचित् पांच क्रिया वाला होता है । तथा कदाचित् अक्रिय (क्रिया रहित) भी होता है । - २१ प्रश्न-हे भगवन् ! एक नरयिक जीव, दूसरे जीवों के औदारिक शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? . २१ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार प्रथम दण्डक (सूत्र १८ में) कहा गया है, उसी प्रकार सभी दण्डक कहना चाहिये, यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये । परन्तु मनुष्यों का कथन औधिक जीवों की तरह जानना चाहिये। २२ प्रश्न-जीवा णं भंते ! ओरालियसरीराओ कइकिरिया ? २२ उत्तर-गोयमा ! सिय तिकिरिया, जाव सिय अकिरिया । २३ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! ओरालियसरीराओ कइकिरिया ? २३ उत्तर-एवं एसो वि जहा पढमो दंडओ तहा भाणियव्वो, जाव वेमाणिया, णवरं मणुस्सा जहा जीवा । २४ प्रश्न-जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरेहिंतो कइकिरिया ? २४ उत्तर-गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि, अकिरिया वि। __२५ प्रश्न-णेरइया णं भंते ! ओरालियसरीरेहितो कइकिरिया ? For Personal & Private Use Only Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१० भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ क्रियाएँ कितनी हैं ? २५ उत्तर-गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि, पंचकिरिया वि । एवं जाव वेमाणिया, णवरं मणुस्सा जहा जीवा । भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! बहुत से जीव, एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? २२ उतर-हे गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाले, कदाचित् चार क्रिया वाले और कदाचित् पांच क्रिया वाले होते है, तथा कदाचित् अक्रिय होते हैं। २३ प्रश्न-हे भगवन ! बहुत से नरयिक जीव, दूसरे के एक औदारिक शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? २३ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार प्रथम दण्डक (सूत्र १८) कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये । परन्तु मनुष्यों का कथन औधिक जीवों की तरह कहना चाहिये। २४ प्रश्न-हे भगवन् ! बहुत जीव, बहुत औदारिक शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? . २४ उत्तर-हे गौतम ! तीन क्रिया वाले भी, चार क्रिया वाले भी और पांच क्रिया वाले भी होते हैं तथा अक्रिय भी होते है। २५ प्रश्न-हे भगवन् ! बहुत नरयिक जीव, दूसरे जीवों के औदारिक शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? २५ उत्तर-हे गौतम ! तीन क्रिया वाले भी चार क्रिया वाले भी और पांच क्रिया वाले भी होते हैं। इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त जानना चाहिये। परन्तु मनुष्यों का कथन इसी के औधिक जीवों की तरह जानना चाहिये। २६ प्रश्न-जीवे णं भंते ! वेउब्वियसरीराओ कइकिरिए ? २६ उत्तर-गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए, सिय अकिरिए। For Personal & Private Use Only Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श८ उ. ६ क्रिया २७ प्रश्न - रइए णं भंते ! वेडव्वियसरीराओ कह किरिए ? २७ उत्तर - गोयमा ! सिय तिकिरिए, सिय चउकिरिए; एवं जाव वेमाणिए, णवरं मणुस्से जहा जीवे । एवं जहा ओरालिय सरीरेणं चत्तारि दंडगा भणिया तहा वेउव्वियसरीरेण वि चत्तारि दंडगा भाणियव्वा णवरं पंचमकिरिया ण भण्णs, सेसं तं चैव । एवं जहा वेउब्वियं तहा आहारगं पि, तेयगं पि, कम्मगं पि भाणि - यव्वं: एक्के+के चत्तारि दंडगा भाणियव्वा, जाव वेमाणिया णं भंते ! कम्मगसरीरेहिंतो कइ किरिया ? गोयमा ! तिकिरिया वि, चउकिरिया वि । * सेवं भंते! सेवं भंते! त्ति ॥ अट्ठमस छट्टो उद्देसो समत्तो ॥ २६ प्रश्न - हे भगवन् ! एक जीव, दूसरे एक जीव के वैक्रिय शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला है ? १४११ २६ उत्तर - हे गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाला, और कदाचित् चार क्रिया वाला होता है । तथा कदाचित् अक्रिय होता है । २७ प्रश्न- - हे भगवन् ! एक नैरयिक जीव, दूसरे एक जीव के क्रिय शरीर की अपेक्षा कितनी क्रिया वाला होता है ? २७ उत्तर - हे गौतम ! कदाचित् तीन क्रिया वाला और कदाचित् चार क्रिया वाला होता है । इस प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये । किन्तु मनुष्य का कथन औधिक जीव की तरह कहना चाहिये। जिस तरह औदारिक शरीर के चार दंडक कहे, उसी प्रकार वैक्रिय शरीर के भी चार दण्डक कहना For Personal & Private Use Only Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ६ क्रियाएँ कितनी लगती है ? चाहिये । परन्तु उसमें पांचवीं क्रिया का कथन नहीं करना चाहिये । शेष सभी पूर्व की तरह कहना चाहिये। जिस प्रकार वैक्रिय शरीर का कथन किया गया है, उसी प्रकार आहारक, तेजस् और कार्मण शरीर का भी कथन करना चाहिये । प्रत्येक के चार चार दण्डक कहना चाहिये। ' यावत् ( प्रश्न ) हे भगवन् ! वैमानिक देव, कार्मण शरीरों की अपेक्षा कितनी क्रिया वाले होते हैं ? (उत्तर) हे गौतम ! तीन क्रिया वाले भी और चार क्रिया वाले भी होते हैं ।' यहां तक कहना चाहिये । १४१२ हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । विवेचन - कर्मबन्ध की कारणभूत चेष्टा अथवा दुष्ट व्यापार विशेष को 'क्रिया' कहते हैं । अथवा कर्मबन्ध के कारणभूत कायिकी आदि पाँच पाँच करके पच्चीस क्रियाएँ हैं । वे जैनागमों में 'क्रिया' शब्द से कही गई हैं । यहाँ कायिकी आदि पाँच क्रियाओं का कथन है । उनका स्वरूप इस प्रकार है १ कायिकी - काया से होने वाली क्रिया 'कायिकी क्रिया' कहलाती है । २ अधिकरणिकी - जिस अनुष्ठान विशेष से अथवा बाह्य खड्गादि शस्त्र से आत्मा, नरकादि गति का अधिकारी होता है, वह 'अधिकरण' कहलाता है । उस अधिकरण से होने वाली क्रिया 'आधिकरणिकी' कहलाती है । ३ प्राद्वेषिकी - कर्मबंध के कारणभूत जीव के मत्सर भाव अर्थात् ईर्षा रूप अकुशल परिणाम को 'प्रद्वेष' कहते हैं । प्रद्वष से होने वाली क्रिया प्राद्वषिकी क्रिया कहलाती है । ४ पारितानिकी - ताड़नादि से दुःख देना अर्थात् पीड़ा पहुँचाना 'परिताप' है । इसे होने वाली क्रिया 'पारितापनिकी' कहलाती है । ५ प्राणातिपातिकी - इन्द्रिय आदि दस प्राण हैं । उनके अतिपात ( विनाश ) से लगने वाली क्रिया 'प्राणातिपातिकी' क्रिया है । ये पांच क्रियाएँ हैं । जब एक जीव, अन्य पृथ्वीकायिकादि जीव के शरीर की अपेक्षा काया का व्यापार करता है, तब उसके कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी ये तीन क्रियाएँ लगती हैं। क्योंकि सराग जीव को कायिकी क्रिया के सद्भाव में आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी क्रिया अवश्य होती है । पारितापनिकी और प्राणातिपातिको क्रिया में भजना (विकल्प) है । क्योंकि जीव, जब दूसरे जीव को परिताप उत्पन्न करता है, तब For Personal & Private Use Only Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ८ उ. ६ क्रियाएं कितनी लगती हैं ? १४१३ उसे पारितापनिकी क्रिया लगती है और जब उसके प्राणों का घात करता है, तब प्राणातिपातिकी क्रिया लगती है। कायिकी, आधिकरणिकी और प्राद्वेषिकी इन तीन क्रियाओं का परम्पर अविनाभाव सम्बन्ध है । इसलिये सराग जीव कदाचित् एक क्रिया और दो क्रिया वाला नहीं होता, वह नियम से तीन क्रिया वाला ही होता है। क्योंकि सराग जीव की काया अधिकरणरूप तथा प्रद्वेष युक्त होने से कायिकी क्रिया के सद्भाव में ये दोनों क्रियाएँ अवश्य ही होती है । आधिकरणिकी और प्रादेषिकी-इन दो क्रियाओं के सद्भाव में कायिकी क्रिया अवश्य होती है । इस प्रकार इनका परस्पर अधिनाभाव सम्बन्ध है । यही बात प्रज्ञापनासूत्र में भी कही गई है । यथा "जस्सणं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स अहिगरणिया किरिया नियमा कज्जा, जस्स अहिगणिया किरिया कज्जइ तस्स वि काइया किरिया नियमा कज्जई"...इत्यादि। अर्थ-जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, उस जीव के आधिकरणिकी क्रिया अवश्य होती है । जिस जीव के आधिकरणिको क्रिया होती है, उस जीव के कायिकी क्रिया अवश्य होती है। इसी प्रकार जिस जीव के कायिकी क्रिया होती है, उसके प्राद्वैषिकी क्रिया अवश्य होती है और जिस जीव के प्राद्वेषिकी क्रिया होती है, उस जोव के कायिकी क्रिया अवश्य होती है। पारितापनि की और प्राणातिपातिकी क्रियाओं के विषय में भजना है । अर्थात् ये कदाचित लगती हैं और कदाचित नहीं भी लगती। जब काय-ध्यापार द्वारा पहले की तीन क्रियाओं में प्रवृत्ति करता है, किन्तु उन्हें परिताप नहीं उपजाता और उनका विनाश भी नहीं करता, तब तक जीव को तीन क्रियाएँ लगती हैं । जब परिताप उत्पन्न करता है, तब जीव को चार क्रियाएँ लगती हैं। क्योंकि पारितापनिकी क्रिया में पहले की तीन क्रियाओं का अवश्य सद्भाव है । जब जीव के प्राणों का विनाश करता है, तब उसे पांच क्रियाएँ लगती हैं, क्योंकि प्राणातिपातकी की क्रिया में पूर्व की चार क्रियाओं का अवश्य सद्भाव है । इसीलिये मूल में कहा गया हैं कि जीव को कदाचित् तीन क्रियाएं लगती हैं, कदाचित् चार क्रियाएँ लगती हैं और कदाचित् पाँच क्रियाएँ लगती हैं । कदाचित् जीव अक्रिय भी होता है । यह बात अप्रमत्त अवस्था की अपेक्षा कही गई है, क्योंकि अप्रमत्त को इन पांचों क्रियाओं में कोई भी क्रिया नहीं लगती। For Personal & Private Use Only Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ कितनी क्रिया लगती है ? ' नैरयिक जीव, जब औदारिक शरीरधारी पृथ्वीकायिकादि जीवों का स्पर्श करता है, तब उसे तीन क्रियाएँ लगती हैं । जब परितापना उपजाता है, तब चार क्रियाएँ लगती हैं और जब प्राणों का विनाश करता है, तब पांच क्रियाएँ लगती हैं । नरयिक जीव में अप्रमतता नहीं हो सकती, इसलिये वह अक्रिय नहीं हो सकता। इसी प्रकार मनुष्य को छोड़कर शेष तेईस दण्डक के जीव भी अक्रिय नहीं हो सकते। मनुष्य अक्रिय हो सकता है। एक जीव को एक शरीर की अपेक्षा, एक जीव को बहुत जीवों के शरीरों की अपेक्षा, बहुत जीवों को एक शरीर की अपेक्षा और बहुत जीवों को बहुत जीवों के शरीरों की अपेक्षा. ये चार दण्डक (आलापक) औदारिक शरीर को अपेक्षा होते हैं । इसी प्रकार शेष चार शरीरों के भी प्रत्येक के चार चार दण्डक (आलापक) कहना चाहिये । औदारिक शरीर को छोड़कर शेष चार शरीरों का विनाश नहीं हो सकता । इसलिये वैक्रिय, आहारक, तेजम् और कार्मण, इन चार शरीरों की अपेक्षा जीव कदाचित् तीन क्रिया वाला और कदाचित् चार क्रिया वाला होता है, किन्तु पांच क्रिया वाला नहीं होता। प्रत्येक के चौथे दण्डक में 'कदाचित्' शब्द नहीं कहना चाहिये। शंका-नरयिक जीव अधोलोक में रहते हैं। आहारक शरीर मनुष्य लोक में होता है । तब उस नरयिक जीव को आहारक शरीर का अपेक्षा तीन क्रिया या चार क्रिया कैसे लग सकती है ? समाधान--नरयिक जीव ने अपने पूर्व भव के शरीर को विवेक (विरति) के अभाव से वोसिराया (त्यागा) नहीं । इसलिये उस जीव द्वारा बनाया हुआ वह शरीर, जब तक शरीर परिणाम का सर्वथा त्याग नहीं कर देता, तब तक अंश रूप से भी शरीर परिणाम को प्राप्त वह पूर्व भव प्रज्ञापना की अपेक्षा 'घृत घट' के न्याय से वह शरीर उसी का कहलाता है । जैसे-जिस घड़े में पहले घी रखा था, उसमें से घी निकाल लेने पर भी लोग उसे 'घतघट' (घी का घड़ा) कहते हैं। इसी प्रकार वह शरीर उस जीव द्वारा बनाया हुआ होने से वह शरीर उसी का कहलाता है । उस मनुष्य लोकवर्ती शरीर के अंश रूप अस्थि (हड्डा) आदि से जब आहारक शरीर का स्पर्श होता है अथवा उसे परिताप उत्पन्न होता है, इस कारण नैरयिक जीव को आहारक शरीर की अपेक्षा तीन क्रिया या चार क्रिया लगती है । इसी प्रकार देव आदि के विषय में एवं बेइन्द्रिय आदि जीवों के विषय में भी जान लेना चाहिये। .. तेजस् कार्मण शरीर की अपेक्षा भी जीवों को तीन क्रिया और चार क्रिया का For Personal & Private Use Only Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद 4 . . लगना बतलाया गया है, वह औदारिकादि शरीराश्रित तेजस्-कार्मण की अपेक्षा समझना चाहिये । क्योंकि स्वयं तेजस्-कार्मण शरीर को तो परिताप नहीं पहुंचाया जा सकता। ॥ इति आठवें शतक का छठा उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ८ उद्देशक ७ अन्य-तीर्थिक और स्थविर संवाद . १-तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे णयरे, वण्णओ, गुणसिलए चेइए, वण्णओ, जाव पुढविसिलावट्टओ। तस्स णं गुणसिलस्स चेइयस्म अदूरसामंते वहवे अण्णउत्थिया परिवसंति । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव समोसढे; जाव परिसा पडिंगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइसंपण्णा, कुलसंपण्णा, जहा बिइयसए जाव जीवियास-मरणभय-विप्पमुक्का, समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उड्ढंजाणू अहोसिरा, झाणकोट्ठोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा जाव विहरति । कठिन शब्दार्थ--जीवियास--जीने की आशा, मरणभयविप्पमुका--मरने के भय से विमुक्त, अदूरसामंते--निकट (आसपास), उड्ढूजाणू--ऊध्र्व जानु, अहोसिरानीचा मस्तक, माणकोट्ठोवगया--ध्यान रूपी कोठे में रहे हुए। For Personal & Private Use Only Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१६ - भगवती सूत्र-श. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद भावार्थ-१-उस काल उस समय में राजगृह नामका नगर था। (वर्णन करना चाहिये ।) वहां गुणशीलक नामक उद्यान था (वर्णन)। यावत् पृथ्वी. शिलापट्टक था । उस गुणशीलक बगीचे के आसपास-न बहुत दूर, न बहुत निकट, बहुत से अन्यतीर्थिक रहते थे। उस काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी, धर्मतीर्थ की स्थापना करनेवाले यावत् वहां समवसरे (पधारे) यावत् धर्मोपदेश सुनकर परिषद् वापिस चली गई। उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के बहुत-से शिष्य स्थविर भगवन्त जाति-संपन्न कुलसम्पन्न इत्यादि दूसरे शतक में वर्णित गुणों से युक्त यावत् जीवन को आशा और मरण के भय से रहित थे । वे श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास न अति दूर न बहुत निकट, ऊर्ध्व-जानु (घुटने खडे रखकर) अधो-सिर (मस्तक को कुछ झुकाकर) ध्यान-कोष्ठोपगत होकर संयम और तप द्वारा अपनी आत्मा को भावित करते हुए यावत् विचरते थे। २-तएणं ते अण्णउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति उवागच्छित्ता ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे णं अजो! तिविहं तिविहेणं असंजय-विरय-प्पडिहय० जहा सत्तमसए बिइए उद्देसए जाव एगंतबाला या वि भवह । - ३-तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजय विरय० जाव एगंतवाला यावि भवामो ? । . ४-तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्भे णं अजो ! अदिण्णं गेण्हह, अदिण्णं भुंजह, अदिणं साइजह; For Personal & Private Use Only Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद १४१७ तएणं ते तुम्भे अदिणं गेण्हमाणा, अदिणं भुंजमाणा, अदिण्णं माइजमाणा तिविहं तिविहेणं असंजय-विरय० जाव एगंतवाला यावि भवह। ५-तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउस्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अजो : अम्हे अदिण्णं गेण्हामो, अदिण्णं भुंजामो, अदिग्णं माइजामो ? जए णं अम्हे अदिण्णं गेण्हमाणा, जाव अदिग्णं माइजमाणा तिविहं तिविहेणं असंजय० जाव एगंतबाला यावि भवामा ? -तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्हाणं अजो ! दिजमाणे अदिण्णे, पडिग्गहेजमाणे अपडिग्गहिए, णिस्सरिजमाणे अणिसिद्धे, तुम्भं णं अजो ! दिजमाणं पडिग्गहगं असं. पत्तं एत्य गं अंतरा केह अवहरिजा, गाहावइस्स णं तं, णो खलु तं तुम्भ, तएणं तुम्भे अदिण्णं गेण्हह, जाव अदिण्णं साइजह, तएणं तुम्भे अदिण्णं गेण्हमाणा जाव एगंतबाला यावि भवह । . कठिन शम्वार्थ-एगंतबाला-एकान्त बाल (अत्यागी), अदिणं-बिना दिया, साइजह-स्वाद लेते हैं, अनुमति देते हैं, विज्जमाणे अविण्णे-देते हुए नहीं दिया, णिस्सरि जमाने अमिसिडे-डालते हुए नहीं डाला, असंपत्तं-प्राप्त नहीं हुआ, अंतरा-बीच में से, अवहरिज्जा-अपहरण करले। भावार्थ--२-तब वे अन्यतीथिक, जहाँ स्थविर भगवन्त थे वहां आये। यहां आकर उन्होंने स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा-'हे आर्यों ! तुम त्रिविध For Personal & Private Use Only Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१८ भगबती सूत्र-श. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद - त्रिविध (तीन करण तीन योग से) असंयत, अविरत, अप्रतिहत, अप्रत्याख्यातपाप-कर्म वाले हो।' इत्यादि । सातवें शतक के दूसरे उद्देशक में कहे अनुसार कहा । 'यावत् तुम एकांत बाल हो।' ३-यह सुनकर उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार पूछा-'हे आर्यों । हम किस कारण त्रिविध-त्रिविध असंयत अविरत यावत् एकांत बाल हैं ?' ४-तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा'हे आर्यों ! तुम अदत्त पदार्थ ग्रहण करते हो, अदत्त खाते हो और अदत्त की अनुमति देते हो। इस प्रकार अदत का ग्रहण करते हुए, अदत्त खाते हुए और अदत्त की अनुमति देते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकांत बाल हो।' ५-तब उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार पूछा-- 'हे आर्यों ! हम किस प्रकार अदत्त का ग्रहण करते हैं, अदत्त का भोजन करते है और अदत्त को अनुमति देते हैं, जिससे कि अदत्त का ग्रहण करते हुए अदत्त खाते हुए और अदत्त की अनुमति देते हुए हम त्रिविध-त्रिविध मसंयत, अविरत बावत् एकान्त बाल हैं ?' ६--उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा'हे आर्यो ! आपके मत में दिया जाता हुआ पदार्थ नहीं दिया गया,' ग्रहण किया जाता हुआ 'ग्रहण नहीं किया गया और पात्र में डाली जाती हुई वस्तु 'नहीं डाली गई'--ऐसा कथन है, इसलिए हे आर्यों ! भापको दिया जाता हुआ पदार्थ जब तक पात्र में नहीं पड़ा, तब तक बीच में से ही कोई उसका अपहरण करले, तो वह उस गृहपति के पदार्थ का अपहरण हुआ'--ऐसा आप कहते हैं, परन्तु 'आपके पदार्थ का अपहरण हुआ'-ऐसा नहीं कहते । इसलिये आप अदत्त का ग्रहण करते हो यावत् अदत्त की अनुमति देते हो और अवत्त का ग्रहण करते हुए यावत् एकान्त बाल हो। For Personal & Private Use Only Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद १४१९ ७-तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउथिए एवं वयासी-णो खलु अजो ! अम्हे अदिग्णं गेण्हामो, अदिण्णं भुंजामो, अदिण्णं माइजामो; अम्हे णं अजो ! दिणं गेण्हामो, दिणं भुंजामो, दिण्णं साइजामा । तएणं अम्हे दिण्णं गेण्हमाणा, दिण्णं मुंजमाणा, दिणं साइजमाणा तिविहं तिविहेणं मंजय-विरय-पडिहय० जहा सतममए जाव एमतपंडिया या वि भवामो। ८-तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अजो ! तुम्हे दिण्णं गेण्हह, जाव दिण्णं साइजह, जए णं तुन्भे दिण्णं गेण्हमाणा, जाव एगंतपंडिया या वि भवह ? . ९-तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी-अम्हे (म्हं) णं अजो ! दिजमाणे दिण्णे, पडिग्गाहिजमाणे पडिग्गहिए गिस्सरिजमाणे णिमिटे, अम्हं णं अजो ! दिजमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ अवहरेजा, अम्हं णं तं, णो खलु तं गाहावइस्स; तएणं अम्हे दिण्णं गेण्डामो, दिण्णं भुंजामो, दिगणं साइजामो, तए णं अम्हे दिण्णं गेण्हमाणा, जाव दिण्णं साइजमाणा तिविहं तिविहेणं संजय० जाव एगंतपंडिया वि भवामो। तुम्भे णं अजो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय० जाव एगंतवाला यावि भवह। भावार्थ-७-यह सुनकर उन स्थविर भगवंतों ने उन अन्यतीथिकों से इस For Personal & Private Use Only Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२० भras -.८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद प्रकार कहा कि-हे आर्यों ! हम अदत्त का ग्रहण नहीं करते, अदत्त आहार नहीं करते और अदत्त को अनुमति भी नहीं देते ।' 'हे आर्यों ! हम दत्त (स्वामी द्वारा दिये हुए)-ार्थ को ग्रहण करते हैं, दत्त का आहार करते हैं और दत्त की अनुमति देते हैं। इसलिए दत्त का ग्रहण करते हुए, दत्त का आहार करते हुए और दत्त की अनुमति देते हुए हम त्रिविध-विविध संयत, विरत, प्रतिहत-प्रत्याख्यातपापकर्म वाले हैं। इस प्रकार सातवें शतक के दूसरे उद्देशक में कहे अनुसार यावत् हम एकांत पंडित है।' ८-तब उन अन्यतोथिकों ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार कहा'हे आर्यों ! तुम किस प्रकार दत्त का ग्रहण करते हो, यावत् दत्त की अनुमति देते हो, जिससे दत्त का ग्रहण करते हुए यावत् तुम एकांत पण्डित हो ?' ९-तब उन स्थविर भगवंतों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा'हे आर्यो ! हमारे सिद्धान्त में-दिया जाता हा पदार्थ 'दिया गया,' ग्रहण किया जाता हुआ 'ग्रहण किया गया' और पात्र में डाला जाता हुआ 'डाला गया' कहलाता है । इसलिये हे आर्यों ! हमको दिया जाता हुआ पदार्थ जब तक हमारे पात्र में नहीं पड़ा है, तब तक बीच में ही कोई व्यक्ति उसका अपहरण करले, तो वह पदार्थ हमारा अपहृत हुमा कहलाता है, किन्तु बह गृहस्थ का पदार्थ अपहृत हुआ-ऐसा नहीं कहलाता । इमलिये हम दत्त का ग्रहण करते हैं, दत्त का आहार करते है और दत्त की अनुमति देते हैं। इस प्रकार दत्त का ग्रहण करते हुए यावत् दत्त की अनुमति देते हुए हम त्रिविध, त्रिविध संयत यावत् एकांत पंडित हैं । हे आर्यो ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत यावत् एकांत बाल हो। १०-तएणं ते अण्णउत्थिया ने धेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं जाव एगंतवाला यावि भवामो ? For Personal & Private Use Only Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ७ अन्य-तीयिक र स्थविर संवाद १०२१ ११-तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीतुम्भे गं अजो! अदिण्णं गेण्हह, अदिण्णं भुंजह, अदिण्णं साइजह, तएणं तुम्भे अदिणं गेण्हामो, जाव एगंतवाला यावि भवह। १२-तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अजो ! अम्हे अदिण्णं गेण्हामो, जाव एगंतबाला यावि भवामो ? - १३ तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासो-तुम्भे (भं) णं अज्जो ! दिजमाणे अदिण्णे, तं चेव जाव गाहावइस्स णं तं, णो खलु तं तु , तएणं तुझे अदिणं गेण्हह, तं चेव जाव एगंतवाला यावि भवह । भावार्थ-१० इसके बाद उन अन्यतौथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा कि-'हे आर्यों ! हम किस कारण त्रिविध त्रिविध असंयत यावत् एकांत बाल हैं ?'... .. ११-उन स्थविर भगवंतों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा कि 'हे आर्यों ! तुम अदत्त का ग्रहण करते हो, अदत्त का आहार करते हो और अदत्त की अनुमति देते हो। इसलिये अदत्त का ग्रहण करते हुए तुम यावत् एकांत बाल हो।' - १२-तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार पूछा'हे आर्यों ! हम किस कारण अदत का ग्रहण करते हैं यावत् एकांत बाल हैं ?' १३-उन स्थविर भगवंतों ने उन अन्यतीधिकों से इस प्रकार कहा For Personal & Private Use Only Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२२ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ७ अन्य तीर्थिक और स्थविर संवाद 'हे आर्यो ! तुम्हारे मत में दिया जाता हुआ पदार्थ 'नहीं दिया गया,' इत्यादि पूर्वोक्त सारा वर्णन कहना चाहिये । यावत् वह पदार्थ गृहस्थ का है, तुम्हारा नहीं । इसलिये तुम अदत्त का ग्रहण करते हो यावत् पूर्वोक्त प्रकार से तुम एकांत बाल हो । १४ - तरणं ते अण्णउत्थिया ते धेरे भगवंते एवं वयासी तुम्भे णं अजो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबाला यावि भवह । १५ - तणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासीकेण कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो ? १६- तरणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी - तुभे णं अजो ! रीयं रीयमाणा पुढविं पेच्चेह, अभिहणह, वत्तेह, लेसेह, संघा एह, संघट्टेह, परितावेह, किलामेह, उवद्दवेह, तरणं तुभे पुढवि पेच्चमाणा, अभिहणमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं असंजयविरय० जाव एगंतबाला यावि भवह । १७ – तरणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयासी - णो खलु अजो ! अम्हे रीयं रीयमाणा पुढविं पेच्चेमो, अभिहणामो, जाव उवदवेमो; अम्हे णं अजो ! रीयं रीयमाणा कार्य वा, जोयं वा, रियं वा पडुच्च देतं देसेणं वयामो, पएसं परसेणं वयामो; तेणं For Personal & Private Use Only Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ७ अन्य-तौर्थिक और स्थविर संवाद १४२३ अम्हे देसं देमेणं वयमाणा पएमं पएमेणं वयमाणा णो पुढविं पेञ्चेमो अभिहणामो, जाव उवद्दवेमो; तएणं अम्हे पुढविं अपेच्चेमाणा, अणभिहणेमाणा, जाव अणुबद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं संजय० जाव एगंतपंडिया या वि भवामो । तुम्भे णं अजो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय० जाव वाला या वि भवह । कठिन शब्दार्थ--रोयं रीयमाणा--गति करते हुए पेच्चेह-दवाते हो, वत्तेहआघात करते हो, लेसेह-भूमि में संश्लिष्ट करते हो, संघट्टेह-स्पर्श करते हो, जोयं-योग । भावार्थ-१४ यह सुनकर उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार कहा-'हे आर्यों ! तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत यावत् एकांत बाल हो।' १५-तब उन स्थविर भगवंतों ने अन्यतीथिकों से इस प्रकार पूछा-'हे आर्यों ! हम किस कारण से त्रिविध-त्रिविध असंयत यावत् एकांत बाल हैं ?' १६-तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा-'हे आर्यों ! चलते हुए तुम पृथ्वोकायिक जीवों को दबाते हो, मारते हो, पादाभिघात करते हो, भूमि के साथ उन्हें श्लिष्ट करते हो, संहत (एकत्रित। करते हो, संघट्टित करते हो, परितापित करते हो, क्लान्त करते हो, मारणान्तिक कष्ट देते हो, उपद्रवित करते हो (मार देते हो) इस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो। . १७-तब उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा'हे आर्यों ! चलते हुए हम पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते नहीं, हनते नहीं, यावत् मारते नहीं । हे आर्यों ! चलते हुए हम काय अर्थात् शरीर के लघु-नीत, बडी. नीत आदि कार्य के लिये, योग के लिये अर्थात् ग्लानादिक को सेवा For Personal & Private Use Only Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और विर संवाद के लिये और कृत (सत्य) के लिये अर्थात् अप्कायादि जीव-रक्षण रूप संयम के लिये एक स्थल से दूसरे स्थल पर जाते हैं, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने इस प्रकार एक स्थल से दूसरे स्थल पर और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने हए हम पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते नहीं, उनका हनन नहीं करते पावन उनको मारते नहीं, अतः पृथ्वोकायिक जीवों को नहीं दबाते हुए, नहीं हनने हुए यासत नहीं मारते हुए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत यावत एकांत परित। किंतु हे आर्यों ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत अभिरत पावन काल बाल हो।' १८-तएणं ते अण्णउत्थिया ते धेरै भगवन नवं वयामी-कण कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव पगंनवाला या वि भवामो ? १९-तएणं ते तेरा भगवंतो ते अण्णन्धित एवं वयामा-तम्भ णं अनो! रीयं रीयमाणा पुढवि पन्चेह, जाव ववहः नाणं तुम्भे पुढविं पेच्चमाणा, जाव बहवेमाणा निविहं निविणं जाव एगंतवाला यावि भवह। २०-तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयामा-तुमे (भं) णं अजो! गम्ममाणे अगए. बीडकमिन्त्रमाण अवीइक्कने. रायगिहं णयरं संपाविउकामे अमंपन । ___२१-तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयामीणों खलु अजो ! अम्हं गम्ममाणे अगए, बीइकमिन्जमाणे अवीइक्कते. For Personal & Private Use Only Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद १४२५ रायगिहं णयरं जाव असंपत्ते; अम्हं णं अजो ! गम्ममाणे गए, वोइक्कमिजमाणे वीइक्कते, रायगिहं णयरं संपाविउकामे संपत्ते; तुम्भं णं अप्पणा चेव गम्ममाणे अगए, वीइक्कमिजमाणे अवीइसकते, रायगिहं णयरं जाव असंपत्ते । तएणं ते थेरा भगवंतो अण्णउथिए एवं पडिहणंति, पडिहणित्ता गइप्पवायं णाम अज्झयणं पण्णवइंसु । कठिन शब्दार्थ-गम्ममाणे अगए-गम्यमान अगत (जाते हुए को नहीं गया) वोइक्कमिन्जमाणे अवाहकते-उल्लंघन करते हुए अनुलंधित, पडिहणंति-निरुत्तर किये, गइप्पवायं-गति-प्रवाद-जिसमें गति के सम्बन्ध में वर्णन किया गया हो, पण्णवइंसु-प्ररूपणा की। भावार्थ-१८-तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार कहा-'हे आर्यो ! किस कारण हम विविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकांत बाल है?' १९-तब उन स्थविर भगवंतों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा'हे आर्यों ! चलते हुए तुम पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हो यावत् मारते हो। इसलिये पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए यावत् मारते हुए तुम त्रिविधत्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकांत बाल हो। २०-तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार कहा-'हे आर्यो! तुम्हारे मत में 'गच्छन्' (जाता हुआ) 'अगत' (नहीं गया) कहलाता है । जो उल्लंघन किया जाता हो, वह 'उल्लंघन नहीं किया गया'-ऐसा कहलाता है और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छावाला पुरुष 'असंप्राप्त' (प्राप्त नहीं किया हुआ) कहलाता है।' - २१-तब उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा-'हे आर्यों ! हमारे मत में गच्छन्, अगत नहीं कहलाता । व्यतिक्रम्यमाण (उल्लंघन किया जाता हुआ) 'अव्यतिक्रान्त' (उल्लंघन नहीं किया) नहीं कहलाता For Personal & Private Use Only Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२६ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और स्थविर संवाद और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति असंप्राप्त नहीं कहलाता, किन्तु हे आर्यों ! हमारे मत में 'गच्छन्' गत, व्यतिक्रम्यमाण 'व्यतिक्रान्त' और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला व्यक्ति 'संप्राप्त' कहलाता है । हे आर्यों ! तुम्हारे ही मत में 'गच्छन्' 'अगत,' व्यतिक्रम्यमाण 'अव्यतिक्रान्त' और राजगृह नगर को प्राप्त करने की इच्छा वाला 'असंप्राप्त' कहलाता इस प्रकार उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों को निरुत्तर किया, निरुतर करके उन्होंने 'गति-प्रपात' नामक अध्ययन प्ररूपित किया। २२ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! गइप्पवाए पण्णत्ते ? २२ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते, तं जहापयोगगई, ततगई, बंधण-छेयणगई, उववायगई, विहायगई; एत्तो आरब्भ पयोगपयं गिरवसेसं भाणियव्वं, जाव सेत्तं विहायगई । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति * ॥ अट्ठमसए सत्तमो उद्देसो समत्तो॥ कठिन शब्दार्य-पयोगगई-प्रयोग गति, ततगई-विस्तीर्ण गति, बंधण-छेयणगईबन्धन छेदन गति, उबवायगई-उत्पाद गति, बिहायगई-आकाश में गमन करना, आरम्भप्रारम्भ करके। भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! गति-प्रपात कितने प्रकार का कहा गया है ? . २२ उत्तर-हे गौतम ! गति-प्रपात पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-१ प्रयोग गति, २ तत गति, ३ बन्धन छेदन गति, ४ उपपात गति और For Personal & Private Use Only Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ग. ८ उ. ७ अन्य तीर्थिक और स्थविर संवाद. ५ विहायोगति । यहां से प्रारम्भ करके प्रज्ञापना सूत्र का सोलहवां प्रयोग पद सम्पूर्ण कहना चाहिये । यावत् 'यह विहायोगति का वर्णन हुआ' - यहां तक कहना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते है । १८२७ विवेचन - राजगृह नगर के बाहर बहुत से अन्यतीर्थिक रहते थे। एक समय वे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के स्थविर मुनियों के पास आये और उनसे कहा कि तुम तीन करण तीन योग से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो, क्योंकि तुम अदत्त को ग्रहण करते हो, अदत्त खाते हो और अदत्त की अनुमति देते हो, तब स्थविर मुनियों ने उनको युक्तिपूर्वक समझाया कि हम ( जैन मुनि) अदत्त ग्रहण नहीं करते, अदत्त नहीं खाते और अदत्त की अनुमति भी नहीं देते । अपितु तुम ही अदत्त ग्रहण करते हो यावत् अदत्त की अनुमति देते हो । अतः तुम ही तीन करण तीन योग से असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो । इसके बाद अन्यतीर्थिकों के प्रश्न के उत्तर में स्थविर भगवन्तों ने उन्हें यह भी समझाया कि हम शारीरिक कारण के लिये, ग्लानादि की सेवा के लिये तथा जीवरक्षा रूप संयम के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान पर यतनापूर्वक गमनागमन करते हैं । इसलिये हम पृथ्वीकायिकादि किसी भी जीव को नहीं दबाते, यावत् नहीं मारते । अतएव हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत यावत् एकान्त पण्डित हैं । किन्तु हे आर्यों ! तुम एक स्थान से दूसरे स्थान पर अयतनापूर्वक गमनागमन करते हो। इस प्रकार तुम पृथ्वीकायिक आदि जीवों को दबाते हो यावत् मारते हो । अतएव तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो । स्थविर भगवन्तों ने इस प्रकार उत्तर देकर अन्यतीर्थिकों को निरुत्तर किया। इसके बाद उन्हें 'गतिप्रपास' नामक अध्ययन कहा। गतिप्रपात के पांच भेद हैं। यथा- प्रयोग गति, ततगति, बन्धनछेदन गति, उपपात गति और विहायोगति । संक्षेप में इनका अर्थ इस प्रकार है । १ प्रयोग गति - जीव के व्यापार से अर्थात् पन्द्रह प्रकार के योगों से जो गति हो, वह 'प्रयोगगति' कहलाती है । यहाँ क्षेत्रान्तर या पर्यायान्तर प्राप्ति रूप गति समझनी चाहिये, क्योंकि जीव के द्वारा व्यावृत सत्यमनोयोग आदि के पुद्गल अल्प मात्रा में अथवा अधिक मात्रा में क्षेत्रान्तर गमन करते हैं । For Personal & Private Use Only Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श ८ उ. ८ प्रत्यनीक २ ततगति-तत अर्थात् विस्तार वाली गति को 'ततगति' कहते हैं। जैसे- कोई व्यक्ति दूसरे गांव जाने के लिये रवाना हुआ, परन्तु अभी उस ग्रामादि में पहुँचा नहीं, उसकी एक एक पैर रखते हुए जो क्षेत्रान्तर प्राप्ति रूप गति होती है, वह 'ततर्गत ' कहलाती है । इस गति का विषय विस्तृत होने से इसके साथ 'तत' यह विशेषण लगाया गया है, अतएव इसका कथन पृथक् किया गया है । अन्यथा पैरों से चलना' यह कायव्यापार रूप है, अतः इसका प्रयोग गति में ही समावेश हो जाता है । १४२८ ३ बन्धनछदन गति-बन्धन के छेदन से होने वाली गति-' बन्धन छेदनगति' कहलाती है । जैसे-जीव से मुक्त शरीर की अथवा शरीर से मुक्त जीव की गति होती है । ४ उपपात गति - उत्पन्न होने रूप गति को 'उपपात गति' कहते हैं। इसके तीन भेद हैं। क्षेत्र उपपात, भव उपपात और नोभवोपपात । जहाँ नारकादि जीव और सिद्ध जीव रहते हैं वह आकाश क्षेत्रोपपान' कहलाता है । कर्मों के वश होकर जीव, जिस नारकादि पर्याय में उत्पन्न होते हैं, वह 'भोपान' कहलाता है। कर्म सम्बन्ध से रहित अर्थात् नारकादि पर्याय से रहित उत्पन्न होने रूप गति 'नोभवोपपात' गति कहलाती है। इस प्रकार की गति सिद्ध जीव और पुद्गलों में पाई जानी है ! ५ विहायोगति - आकाश में होने वाली गति को 'विहायोगति' कहते हैं । इन गतियों के भेद, प्रभेद, उनका स्वरूप एवं विस्तृत वर्णन प्रज्ञापना सूत्र के सोलहवें प्रयोगपद में है । ॥ इति आठवें शतक का सातवाँ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक उद्देशक प्रत्यनीक १ प्रश्न - रायगिहे जाव एवं वयासी-गुरू णं भंते ! पडुच्च कड़ परिणीया पण्णत्ता ? For Personal & Private Use Only Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र - श. ८ उ. ८ प्रत्यनीक . १ उत्तर-गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा-आयरियपडिणीए, उवज्झायपडिणीए, थेरपडिणीए । २ प्रश्न-गई णं भंते ! पडुच्च कइ पडिणीया पण्णत्ता ? २ उत्तर-गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा-इहलोगपडिणीए, परलोगपडिणीए, दुहओलोगपडिणीए। ३ प्रश्न-समूहं णं भंते ! पडुन कइ पडिणीया पण्णता ? - ३ उत्तर-गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा-कुलपडिणीए, गणपडिणीए, संघपडिणीए । ४ प्रश्न-अणुकंपं पडुच्च पुच्छा ? - ४ उत्तर-गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा-तवस्सिपडिणीए, गिलाणपडिणीए, सेहपडिणीए । ५ प्रश्न-सुयं णं भंते ! पडुच्च पुच्छा ? ५ उत्तर-गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा-सुत्त. पडिणीए, अत्थपडिणीए, तदुभयपडिणीए । ६ प्रश्न-भावं णं भंते ! पडुच्च पुच्छ ? ६ उत्तर-गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तं जहा-णाणपडिणीए, देसणपडिणीए, चरित्तपडिणीए । कठिन शब्दार्थ-पडुच्च-अपेक्षा, पडिणीए-प्रत्यनीक (द्वेषी, विरोधी)कुल-एक आचार्य के शिष्य, गण-कुलों का समूह, संघ-समस्त साधु समुदाय, गिला-रोगी, सेहपरिणीए For Personal & Private Use Only Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३० भगवती सूत्र - श. ८ उ. ८ प्रत्यनीक क्ष (नवदीक्षित ) प्रत्यनीक, सूर्य-श्रुन, तदुभय-दोनों । भावार्थ - १ प्रश्न - राजगृह नगर में गौतमस्वामी ने यावत् इस प्रकार पूछा- हे भगवन् ! गुरु महाराज की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक (द्वेषी ) कहे गये हैं ? १ उत्तर - हे गौतम! तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं। यथा-१ आचार्य प्रत्यनीक, २ उपाध्याय प्रत्यनीक और ३ स्थविर प्रत्यनीक | २ प्रश्न - हे भगवन् ! गति की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गये हैं ? २ उत्तर - हे गौतम! तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं । यथा - १ इहलोक प्रत्यनीक, २ परलोक प्रत्यनीक और ३ उभयलोक प्रत्यनीक | ३ प्रश्न - हे भगवन् ! समूह की अपेक्षा कितने प्रत्यनौक कहे गये हैं ? ३ उत्तर - हे गौतम! तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं। यथा-१ कुल प्रत्यनीक, २ गण प्रत्यनीक और ३ संघ प्रत्यनीक । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! अनुकम्पा की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गये हैं ? ४ उत्तर - हे गौतम! तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं। यथा-१ तपस्वी प्रत्यनीक, २ ग्लान प्रत्यनीक और ३ शैक्ष प्रत्यनीक । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! श्रुत की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गये है ? ५ उत्तर - हे गौतम! तीन प्रत्यनीक कहे गये है। यथा-१ सूत्र प्रत्यनीक, २ अर्थ प्रत्यनीक और ३ तदुभय प्रत्यनीक | ६ प्रश्न - हे भगवन् ! भाव की अपेक्षा कितने प्रत्यनीक कहे गये हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम ! तीन प्रत्यनीक कहे गये हैं। यथा-१ ज्ञान प्रत्यनीक, २ दर्शन प्रत्यनीक और ३ चारित्र प्रत्यनीक । विवेचन - प्रतिकूल आचरण करने वाले को 'प्रत्यनीक' कहते हैं। अर्थ के व्याख्याता आचार्य और सूत्र के दाता उपाध्याय कहलाते हैं । स्थविर के तीन भेद हैं। यथा-१ वयस्थविर, २ श्रुतस्थविर और ३ प्रव्रज्या स्थविर । साठ वर्ष की उम्र वाले साधु 'वयस्थविर,' स्थानांग और समवायांग सूत्र के ज्ञाता साधु 'श्रुतस्थविर' और बीस वर्ष की दीक्षा पर्याय वाले माधु 'प्रव्रज्या स्थविर' कहलाते हैं । आचार्य, उपाध्याय और स्थविर मुनियों का जाति आदि से अवर्णवाद बोलना, दोष देखना, अहित करना, उनके वचनों का अपमान करना, उनके For Personal & Private Use Only Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ८ प्रत्यनीक समीप न रहना, उनके उपदेश का उपहास करना, वैयावृत्य न करना आदि प्रतिकूल व्यव हार करने वाले इनके 'प्रत्यनीक' कहलाते हैं । मनुष्य आदि गति की अपेक्षा प्रतिकूल आचरण करने वाले 'गति प्रत्यनीक' कहलाते हैं। पंचाग्नि तप करने वाले की तरह अज्ञानवश इन्द्रियों के प्रतिकूल आचरण करनेवाला 'इहलोक - प्रत्यनीक' है । ऐसा करने वाला व्यर्थ ही इन्द्रिय और शरीर को दुःख पहुंचाता है। और अपना वर्तमान भव बिगाड़ना है । इन्द्रियों के विषयों में आसक्त रहने वाला - 'परलोक प्रत्यनीक' है । वह आसक्ति भाव से अशुभ कर्म उपार्जित करता है और परलोक में दुःख भोगता है । चोरी आदि करने वाला 'उभय-लोक प्रत्यनीक' है। वह व्यक्ति अपने कुकृत्यों से यहाँ दण्डित होता है और परभव में दुर्गति पाता है । ममूह ( साधु समुदाय) के विरुद्ध आचरण करने वाला 'समूह प्रत्यनीक' है । कुलप्रत्यनीक, गण प्रत्यनीक और संघ प्रत्यनीक के भेद से समूह प्रत्यनीक तीन प्रकार का है । एक आचार्य की संतति 'कुल' हैं, जैसे-चान्द्र आदि । आपस में संबंध रखने वाले तीन कुलों का समूह 'गण' कहलाता है। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के गुणों से अलंकृत मकल साधुओं का समुदाय 'संघ' है । कुल, गण और संघ के विरुद्ध आचरण करने वाले क्रमश: कुलप्रत्यनीक, गण प्रत्यनीक और संघ प्रत्यनीक कहलाते हैं । १४३ अनुकम्पा करने योग्य साधुओं की आहारादि द्वारा सेवा नहीं करके उनके प्रतिकूल आचरण करने वाला साधु 'अनुकम्पा प्रत्यनीक' है। तपस्वी, ग्लान और शैक्ष ( नव दीक्षित ) ये तीन अनुकम्पा योग्य हैं। इनके भेद से अनुकंपा प्रत्यनीक के भी तीन भेद हैं। यथातपस्वी - प्रत्यनीक, ग्लान- प्रत्यनीक और शैक्षप्रत्यनीक । प्रत्यनीक - श्रुत के विरुद्ध कथन आदि करने वाला 'श्रुत प्रत्यनीक' है। सूत्र अर्थ और तदुभय के भेद से श्रुत तीन प्रकार का है। श्रुत के भेद से श्रुतप्रत्यनीक के भी सूत्र- प्रत्यनीक, अर्थ- प्रत्यनीक और तदुभय-प्रत्यनीक, ये तीन भेद हैं । शरीर, व्रत, प्रमाद, अप्रमाद आदि बातें लोक में प्रसिद्ध ही हैं । फिर शास्त्रों के अध्ययन से क्या लाभ ? निगोद, देव, नारकी आदि का ज्ञान भी व्यर्थ है । इस प्रकार शास्त्रज्ञान को निष्प्रयोजन अथवा उसमें दोष बताने वाला 'श्रुत प्रत्यनीक' है । भावप्रत्यनीक - क्षायिकादि भावों के प्रतिकूल आचरण करने वाला 'भाव - प्रत्यनीक' है । ज्ञान, दर्शन और चारित्र के भेद से भाव प्रत्यनीक के तीन भेद हैं। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विरुद्ध आचरण करना अथवा इनमें दोष आदि दिखाना 'भावप्रत्यनीकता' है। For Personal & Private Use Only Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३२ भयवती सूत्र-श. ८ उ. ८ व्यवहार के भेद . व्यवहार के भेद ७ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! ववहारे पण्णते ? ७ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे ववहारे पण्णत्ते, तं जहा-आगमे, सुयं, आणा, धारणा, जीए । जहा से तत्य आगमे सिया आगमेणं ववहार पट्टवेजा; णो य से तत्य आगम मिया, जहा मे तत्थ सुए सिया, सुएणं ववहारं पट्टवेजा णो य मे नत्य मुए सिया, जहा मे तत्थ आणा सिया, आणाए ववहारं पट्टवेबा; णो य से तत्थ आणा सिया, जहा से तत्थ धारणा मिया, धारणाए ववहार पट्टवेजा; णो य से तत्थ धारणा सिया; जहा से तत्य जीए मिया, जीएणं ववहारं पट्टवेजा, इच्चेएहिं पंचहिं ववहार पट्टवेबा; जहा-आगमणं, मुएणं आणाए, धारणाए, जीएणं; जहा जहा मे आगमे सुए आणा धारणा जीए तहा तहा ववहार पट्टवेजा। ८ प्रश्न-से किमाहु भंते ! आगमवलिया समणा णिग्गंथा ? ८ उत्तर-इच्चेयं पंचविहं ववहारं जया जया जहिं जहिं तया तया तहिं तहिं अणिस्सिओवसियं सम्मं ववहरमाणे समणे णिग्गंथे आणाए आराहए भवइ। कठिन शम्दार्थ-बहारे-व्यवहार(प्रवृत्ति), पटुवेज्जा-प्रवृत्ति करे, आगमबलियाविशेप बलवान जानी (आगम के बल बारे) इएहि-इस प्रकार, जया जया-जब जव, जहि जहि-जहाँ जहाँ, तया तया तहिं ताहि-तब तब वहाँ वहाँ, अनिस्सिमोवसियं For Personal & Private Use Only Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र - श. ८ उ ८ व्यवहार के भेद अनिश्रपश्रित ( राग-द्वेष के त्यागपूर्वक ) | भावार्थ - ७ प्रश्न - हे भगवन् ! व्यवहार कितने प्रकार के कहे गये है ? ७ उत्तर - हे गौतम ! व्यवहार पांच प्रकार के कहे गये हैं । यथा१ आगम व्यवहार, २ श्रुत व्यवहार, ३ आज्ञा व्यवहार, ४ धारणा व्यवहार, और ५ जीत व्यवहार । इन पांच प्रकार के व्यवहारों में से जिसके पास आगम- ज्यव हार हो, उसे आगम-व्यवहार से कार्य चलाना चाहिये। जिसके पास आगम व्यवहार न हो, उसे श्रुत व्यवहार से कार्य चलाना चाहिये। जिसके पास श्रुत व्यवहार न हो, उसे आज्ञा-व्यवहार से कार्य चलाना चाहिये। जिसके पास आज्ञाव्यवहार न हो, उसे धारणा व्यवहार से कार्य चलाना चाहिये। जिसके पास धारणा न हो, उसे जीत व्यवहार से कार्य चलाना चाहिये। इस प्रकार इन पांच व्यवहारों से कार्य चलाना चाहिये । उपरोक्त रीति के अनुसार आगम, श्रुत, आज्ञा, धारणा और जीत, इन व्यवहारों में से जिसके पास जो व्यवहार हो, उससे कार्य चलाना चाहिये । १४३३ ८ प्रश्न - हे भगवन् ! आगम-बलिक श्रमण निर्ग्रन्थ क्या कहते हैं ? ८ उत्तर - हे गौतम ! इन पांच प्रकार के व्यवहारों में से जिस समय जो व्यवहार हो, उससे अनिश्रपश्रित ( रागद्वेष के त्यागपूर्वक) भली प्रकार से व्यवहार चलाता हुआ श्रमण-निर्ग्रन्थ, आज्ञा का आराधक होता है । विवेचन - मोक्षाभिलाषी आत्माओं की प्रवृत्ति, निवृत्ति एवं तत्कारणक ज्ञान विशेष को 'व्यवहार' कहते हैं । उसके उपरोक्त पाँच भेद हैं । उनका स्वरूप इस प्रकार है१ आगम व्यवहार- केवल ज्ञान, मन:पर्यय ज्ञान, अवधि ज्ञान, चौदह पूर्व, दस पूर्व और नव पूर्व का ज्ञान 'आगम' कहलाता है । आगम ज्ञान से प्रवर्तित प्रवृत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार - 'आगम व्यवहार' कहलाता है । २ श्रुत व्यवहार-आचार प्रकल्प आदि ज्ञान श्रुत है। इससे प्रवर्ताया जाने वाला व्यवहार 'श्रुत-व्यवहार' कहलाता है। नव, दस और चौदह पूर्व का ज्ञान भी श्रुतरूप है, परन्तु अतीन्द्रिय अर्थ विषयक विशिष्ट ज्ञान का कारण होने से उक्त ज्ञान अतिशय वाला है । इसलिये वह 'आगमरूप' माना गया 1 For Personal & Private Use Only Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३४ . भगवती सूत्र-श. ८ उ ८ व्यवहार के भेद ३ आज्ञा व्यवहार-दो गीतार्थ साधु, दूसरे से अलग दूर देश में रहे हुए हों और जंघाबल क्षीण हो जाने से वे विहार करने में असमर्थ हों। उनमें से किसी एक को प्रायश्चित आने पर वह मुनि, अगीतार्थ शिष्य को, आगम का सांकेतिक गूढ़ भाषा में अपने अतिचार दोष कहकर या लिखकर उसे अन्य गीतार्थ मुनि के पास भेजता है और उसके द्वारा आलोचना करता है । गूढ़ भाषा में कही हुई आलोचना सुनकर वे गीतार्थमुनि, आलोचना का संदेश लाने वाले के द्वारा ही गूढ़ भाषा में अतिचार की शुद्धि अर्थात् प्रायश्चित्त देते हैं । यह आज्ञा-व्यवहार है। ४ धारणा व्यवहार-किमी गीतार्थ संविग्न मुनि ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा जिस अपराध में जो प्रायश्चित दिया है, उसकी धारणा से, वैसे अपराध में उसी प्रायश्चित्त का प्रयोग करना 'धारणा व्यवहार' है । वैयावृत्य करने आदि से जो साधु गच्छ का उपकारी हो, वह यदि सम्पूर्ण छेद सूत्र सीखाने योग्य न हो. तो उसे गुरु महाराज कृपापुवक उचित प्रायश्चित्त पदों का कथन करते हैं । उक्त माधु ‘का गुरु महाराज से कहे हुए उन प्रायश्चित्त का धारण करना 'धारणा व्यवहार' है। ५ जीत म्यवहार-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, पुरुष, प्रतिसेवना का और संहनन धनि आदि की हानि का विचार कर जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह 'जीत व्यवहार' है। अथवा-किसी गच्छ में कारण विशप से सूत्र से अतिरिक्त प्रायश्चित्त की प्रवृति हुई हो और दूसरों ने उसका अनुसरण कर लिया, तो वह प्रायश्चित्त ‘जीत व्यवहार' कहा जाता है। __अथवा-अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा की हुई मर्यादा 'जीत व्यवहार' कहलाता है । जो कि अनेक गीतार्थ मुनियों द्वारा आचरित हो, असावदय हो और आगम से अबाधित हो। - इन पांच व्यवहारों में से यदि व्यवहर्ता के पास आगम हो, तो उसे आगम से व्यवहार चलाना चाहिये । आगम में भी केवलज्ञान, मनःपर्यय नान, अवधिज्ञान, चौदह पूर्व, दस पूर्व और नव पूर्व, ये छह भेद हैं । इनमें पहले केवलज्ञान आदि के होते हुए उन्हीं से व्यवहार चलाया जाना चाहिये । पिछले मनःपर्याय आदि से नहीं । इसी प्रकार उत्तरोत्तर समझना चाहिये । आगम-व्यवहार के अभाव में श्रुत-व्यवहार से, श्रुत व्यवहार के अभाव में आज्ञा से, आज्ञा के अभाव में धारणा मे और धारणा के अभाव में जीत-व्यवहार से प्रत्ति निवृत्ति रूप व्यवहार का प्रयोग होना चाहिये । - ऊपर कहे अनुसार सम्यग्रूपेण, पक्षपात रहित व्यवहारों का प्रयोग करता हुआ माधु, भगवान् की आज्ञा का आराधक होता है । For Personal & Private Use Only Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ एपिथिक और सापरायिक बन्ध ऐर्यापथिक और साम्परायिक बन्ध ९ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! बंधे पण्णत्ते ? ९ उत्तर-गोयमा ! दुविहे वंधे पण्णत्ते, तं जहा-इरियावहियवंधे य संपराइयबंधे य। ___१० प्रश्न-इरियावहियं णं भंते ! कम्मं किं णेरइओ बंधइ, तिरिक्वजोणिओ बंधइ, तिरिक्खजोणिणी बंधइ, मणुस्सो बंधइ, मणुस्मी बंधइ, देवो बंधइ, देवी बंधइ ? ___१० उत्तर-गोयमा ! णो णेरइओ बंधइ, णो तिरिवखजोणिओ बंधइ, णो तिरिक्खजोणिणी बंधइ, णो देवो बंधइ, णो देवी बंधइ । पुवपडियण्णए पडुच्च मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधंति, पडिवजमाणए पडुच्च-१ मणुस्सो वा बंधइ, २ मणुस्सी वा बंधंड, ३ मणुस्सा वा बंधंति, ४ मणुस्सीओ वा बंधंति ५ अहवा मणुस्सो य मणुस्सी य वंधइ, ६ अहवा मणुस्सो य मणुस्सीओ य बंधंति, ७ अहवा मणुस्सा य मणुस्सीय बंधंति, ८ अहवा मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधंति । ___११ प्रश्न-तं भंते ! किं इत्थी बंधइ, पुरिसो बंधइ, णपुंसगो बंधइ, इत्थीओ बंधंति, पुरिसा बंधंति, णपुंसगा बंधति; णोइत्थी णोपुरिसो णोणपुंसगो बंधइ ? ११ उत्तर-गोयमा ! णोइत्थी बंधइ, णोपुरिसों बंधइ, जाव For Personal & Private Use Only Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३६ . भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ ऐपिथिक और साम्परायिक बन्ध गोणपुंसगो बंधइ, पुव्वपडिवण्णए पडुच अवगयवेदा वा बंधति, पडिवजमाणए पडुच अवगयवेदो वा बंधइ, अवगयवेदा वा बंधति । कठिन शब्दार्थ-बंधे-आस्मा का कर्म वर्गणाओं से बंधना, इरियावहिया-ऐपिथिक (वीतराग को योग के कारण होने वाला), साम्पराइय-कषायजन्य, पुश्वपडिवण्णए-पूर्व प्रतिपन्न (पहले के), पडिवज्जमाण-प्रतिपद्यमान (वर्तमान), बंधइ-बांधता है, अवगयवेदावेदरहित (स्त्री, पुरुष और नपुंसक संबंधी भोग संस्कार नष्ट हो गए हों)। .. भावार्थ-९ प्रश्न-हे भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? ९ उत्तर-हे गौतम ! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है । यथा-ऐपिथिक बन्ध और साम्परायिक बंध। १० प्रश्न-हे भगवन् ! ऐर्यापथिक बन्ध क्या नरयिक बांधता है, तिर्यच बांधता है, तियंचणी (तियंच स्त्री) बाँधती है, मनुष्य बांधता है, मनुष्यणी बांधती है, देव बांधता है, या देवी बांधती है ? १० उत्तर-हे गौतम ! नरयिक नहीं बांधता, तिर्यच नहीं बांधता, तियचणी नहीं बांधती, देव नहीं बाँधता और देवी भी नहीं बाँधती । किन्तु पूर्व प्रतिपन्न की अपेक्षा मनुष्य और मनुष्यस्त्रियाँ बांधती है । प्रतिपद्यमान की अपेक्षा (१) मनुष्य बांधता है, अथवा (२) मनुष्य-स्त्री बांधती है, अथवा (३) मनुष्य बांधते हैं, अथवा (४) मनुष्य-स्त्रियां बांधती हैं, अथवा (५) मनुष्य और मनुष्य-स्त्री बांधती है, अथवा (६) मनुष्य और मनुष्य-स्त्रियाँ बांधती है, अथवा (७) मनुष्य (बहुत मनुष्य) और मनुष्य-स्त्री बांधती है, अथवा(८) मनुष्य और मनुष्य-स्त्रियां बांधती हैं। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! ऐर्यापथिक कर्म क्या (१) स्त्री बांधती है, (२) पुरुष बांधता है, (३) नपुंसक बांधता है, (४) स्त्रियां बांधती हैं, (५) पुरुष बांधते हैं, (६) नपुंसक बांधते हैं, (७) या नोस्त्री-नोपुरुषनोनपुंसक बांधता है? For Personal & Private Use Only Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ ऐपिथिक और साम्परायिक बन्ध १४३७ ११ उत्तर-हे गौतम ! स्त्री नहीं बांधती, पुरुष नहीं बांधता, नपुंसक नहीं बांधता, स्त्रियां नहीं बांधती, पुरुष नहीं बांधते और नपुंसक भी नहीं बांधते, किन्तु पूर्व-प्रतिपन्न की अपेक्षा वेद रहित जीव बांधते हैं । अथवा प्रतिपद्यमान की अपेक्षा वेद रहित जीव बांधता है अथवा वेद रहित जीव बांधते है । १२ प्रश्न-जड़ भंते ! अवगयवेदो वा वन्धइ, अवगयवेदा वा वन्धन्ति तं भंते ! किं १ इत्थीपच्छाकडो वन्धइ, २ पुरिसपच्छाकडो वन्धइ, ३ णपुंसगपच्छाकडो बन्धइ, ४ इत्थीपच्छाकडा बंधन्ति, ५ पुरिसपच्छाकडा बन्धन्ति, ६णपुंसगपच्छाकडा वधन्ति; उदाहु इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य वन्धन्ति ४, इत्थीपच्छा कडो य पुरिसपच्छाकडा य वन्धन्ति ४, उदाहु इस्थिपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य वन्धड ४, उदाहु पुरिसपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य बन्धइ ४, उदाहु इस्थिपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य वन्धड़ ८; एवं एए छव्वीसं भंगा, जाव उदाहु इत्थीपच्छाकड़ा य पुरिसपच्छाकडा य णपुंसगपच्छाकडा य बन्धन्ति ? __१२ उत्तर-गोयमा ! १ इत्थीपच्छाकडो वि बंधइ, २ पुरिसपच्छाकडो वि बंधइ, ३ णपुंसगपच्छाकडो वि बंधड़; ४ इत्थीपच्छाकडा वि बंधन्ति, ५ पुरिसपच्छाकडा वि बंधन्ति, ६ णपुंसगपच्छाकडा वि बंधन्ति; ७ अहवा इत्थीपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधइ, एवं एए चेव छव्वीसं भंगा भाणियव्वा, जाव अहवा इत्थी For Personal & Private Use Only Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४३८ - भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ ऐपिथिक और सांपरायिक बंध पच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य णपुंसगपच्छाकडा य बंधंति । कठिन शब्दार्थ-जइ-यदि, इत्थिपच्छाकडो-स्त्री-पश्चात्कृत (जो पहले स्त्री वेदी हो) उदाहु-अथवा। __भावार्थ-१२ हे भगवन् ! यदि वेद रहित एक जीव, या वेद रहित बहुत जीव, ऐर्यापथिक कर्म बांधते हैं, तो क्या (१) स्त्रीपश्चात्कृत (जो जीव गत काल में स्त्री था, अब वर्तमान काल में अवेदी हो गया है) जीव बांधता है, (२) पुरुषपश्चात्कृत (जो पहले पुरुष वेदी था किन्तु अब अवेदो है) जीव बांधता है, (३) नपुंसकपश्चातकृत (जो पहले नपुंसक वेदी था, किंतु अब अवेदी है।) जीव बांधता है, (४) स्त्रीपश्चात्कृत जीव वांधते हैं, (५) पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, या (६) नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, (७) अथवा एक स्त्री-पश्चात्कृत और एक पुरुष-पश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा (८) एक स्त्री-पश्चात्कृत जीव और बहुत पुरुष-पश्चात्कृत जोव बांधते हैं, अथवा (९) बहुत स्त्री-पश्चात्कृत जीव और एक पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा (१०) बहुत स्त्री-पश्चात्कृत जीव और बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा (११) एक स्त्री-पश्चात्कृत जीव और एक नपुंसक-पश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा (१२) एक स्त्री-पश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा (१३) बहुत स्त्री-पश्चात्कृत जीव और एक नपुंमकपश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा (१४) बहुत स्त्री-पश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा (१५) एक पुरुषपश्चातकत जीव और एक नपुंसक-पश्चातकृत जीव बांधता है, अथवा (१६) एक पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसकपश्चात्कत जीव बांधते हैं, अथवा (१७) बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और एक नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा (१८) बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा (१९) एक स्त्री पश्चात्कृत जीव, एक पुरुषपश्चात्कृत जीव और एक नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधता है अथवा (२०) एक स्त्रीपश्चात्कृत For Personal & Private Use Only Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ ८ ऐर्यापथिक और सांपरायिक बन्ध जीव, एक पुरुष - पश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसक - पश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा (२१) एक स्त्री- पश्चात्कृत जीव, बहुत- पुरुषपश्चात्कृत जीव और एक नपुंसक - पश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा (२२) एक स्त्री पश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुष - पश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसक पश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा (२३) बहुत स्त्री- पश्चात्कृत जीव, एक पुरुष पश्चात्कृत जीव और एक नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा ( २४ ) बहुत स्त्री पश्चात्कृत जीव, एक पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, अथवा (२५) बहुत स्त्री-पश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और एक नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधता है, अथवा (२६) बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुष - पश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसकपश्चात्कृत जीव बांधते हैं ? १४३९ १२ उत्तर - हे, गौतम ! ( १ ) स्त्रीपश्चात्कृत जीव भी बांधता है, (२) पुरुषपश्चात्कृत जीव भी बांधता है, (३) नपुंसक - पश्चात्कृत जीव भी बांधता है, (४) स्त्री पश्चात्कृत जीव भी बांधते हैं, (५) पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधते हैं, (६) नपुंसकपश्चात्कृत् जीव भी बांधते हैं, अथवा (७) एक स्त्रीपश्चात्कृत जीव और एक पुरुष - पश्चात्कृत जीव भी बांधता है, अथवा यावत् बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुषपश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसक - पश्चात्कृत जीव भी बांधते हैं, इस प्रकार प्रश्न में जो छब्बीस भंग कहे गये हैं, उत्तर में भी वे छब्बीस भंग ज्यों के त्यों कहना चाहिये । १३ प्रश्न - तं भंते! किं . १ बंधी बंध बंधिस्सह, २ बंधी ass u बन्धिस, ३ बन्धीण बन्धइ बन्धिस्सइ, ४ बन्धी ण बन्धड़ ण वन्धिस्सइ, ५ ण बन्धी बन्धइ बन्धिस्स, ६ ण बन्धी बन्धइण वन्धिस्सर, ७ ण बन्धी ण बन्धइ बन्धिस्सर, ८ ण बन्धी णबन्ध ण For Personal & Private Use Only Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४० भगवती सूत्र - श. ८ उ ८ ऐर्यापथिक और सांपरायिक बंध बन्धिस्सइ ? १३ उत्तर - गोयमा ! भवागरिसं पडुच्च अथेगइए बन्धी बन्धइ बन्धस्सह, अत्थेiइए बन्धी बन्धइ ण बन्धिस्सर, एवं तं चैव सव्वं जाव अत्थे णबन्धी ण बन्धइ ण बन्धिस्स । गहणा गरिसं पहुच अत्थेगइए बन्धी बन्धइ बन्धिस्सर, एवं जाव अत्थेगइए ण बन्धी बन्ध बन्धिस्स, णो चेव णं ण बन्धी बन्धइ ण बन्धिरसह, अत्थेगइए ण बन्धी ण बन्धइ बन्धिस्सह, अत्थेगइए ण बन्धी ण बन्धइ ण बन्धिस्स । १४ प्रश्न - तं भंते ! किं साइयं सपज्जवसियं बन्धइ, साइयं अपज्जवसियं बन्धइ, अणाइयं सपज्जवसियं बन्धइ, अणाइयं अपज - वसियं बन्धइ ? १४ उत्तर - गोयमा ! साइयं सपज्जवसियं बन्धइ, णो साइयं अपज्जवसियं बन्धइ, णो अणाइयं सपज्जवसियं बन्धइ, णो अणाइयं अपजवसियं बन्ध । १५ प्रश्न- तं भंते ! किं देसेणं देतं बन्धड़, देसेणं सव्वं बन्धड़, सव्वेणं देतं बन्धइ, सव्वेणं सव्वं बन्धइ ? १५ उत्तर - गोयमा ! णो देसेणं देसं वन्ध, णो देसेणं सव्वं बन्ध, णो सव्वेणं देतं बन्धइ, सव्वेणं सव्वं बन्ध । कठिन शब्दार्थ-बंधी - बाँधा, बंधिस्सइ - बाँधेगा, भवागरि - भवावर्ष ( अनेक भवों में), अत्येगइए- किसी एक ने, गहनागरिसं ग्रहणाकर्ष ( कर्म - दलिक का ग्रहण करना ), For Personal & Private Use Only Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ८ ऐर्यापथिक और साम्परायिक वन्ध पुञ्च - अपेक्षा, साइयं सपज्जवसियं आदि और अंत सहित साइयं अपज्जबसियं आदि सहित अंत रहित, अणाइयं सपज्जवसियं आदि रहित और अंत सहित, अणाइयं अपज्ज. वसिय आदि और अंत रहित । भावार्थ - १३ प्रश्न - हे भगवन् ! ( १ ) क्या जीव ने ऐर्याथिक कर्म ध, बाँधता है और बाँधेगा, (२) बांधा, बाँधना है, नहीं बाँधेगा, (३) बाँधा, नहीं बाँधता है, बाँधेगा, (४) बाँधा, नहीं बाँधता है, नहीं बाँधे गा, (५) नहीं बांधा, बाँधता है, बांधेगा, (६) नहीं बाँधा, बाँधता है, नहीं बांधेगा और (७) नहीं बांधा नहीं बाँधता है, नहीं बाँधेगा ? १३ उत्तर - हे गौतम ! भवाकर्ष की अपेक्षा किसी एक जीव ने बाँधा, NET है और बाँधेगा। किसी एक जीव ने बाँधा, बांधता है, नहीं बांधेगा । यावत् किसी एक जीव ने नहीं बांधा, नहीं बांधता है, नहीं बांधेगा । इस प्रकार उपरोक्त आठों भंग यहां कहना चाहिये । ग्रहणाकर्ष की अपेक्षा किसी एक जीव बांधा, बांधता है, बांधेगा । यावत् किसी एक जीव ने नहीं बांधा, बांधता है, बांधेगा । किन्तु यहां छठा भंग (नहीं बांधा, बांधता है, नहीं बांधेगा ।) नहीं कहना चाहिये । किसी एक जीव ने नहीं बांधा, नहीं बांधता है, बांधेगा । किसी एक जीव ने नहीं बांधा, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा । १४ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव ऐर्यापथिक कर्म क्या सादि सपर्यवसित बांधता है, या सादि - अपर्यवसित बांधता है, या अनादि सपर्यवसित बांधता है, या अनादि - अपर्यवसित बांधता है ? १४ उत्तर - हे गौतम ! सादि सपर्यवसित बांधता है, किन्तु सादि- अपर्यवसित नहीं बांधता, अनादि - सपर्यवसित नहीं बांधता और अनादि - अपर्यवसित भी नहीं बांधता । - १४ प्रश्न - हे भगवन् ! जीव ऐर्यापथिक कर्म देश से आत्मा के देश को बांधता है, देश से सर्व को बांधता है, सर्व से देश को बांधता है, या सर्व से सर्व को बांधता है ? १५ उत्तर - हे गौतम ! देश से देश को नहीं बांधता, देश से सर्व को १४४१ For Personal & Private Use Only Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४२ भगवती सूत्र - श. ८ उ ८ एर्यापथिक और साम्परायिक बन्ध नहीं बांधता, सर्व से देश को नहीं बांधता, किन्तु सर्व से सर्व को बाँधता है । १६ प्रश्न - संपराइयं णं भंते ! कम्मं किं णेरहओ बंधह, तिरिक्खजोणिओ बंधइ, जाव देवी बंधइ ? १६ उत्तर - गोयमा ! रइओ वि बंधह, तिरिक्खजोणिओ वि बंध, तिरिक्खजोणिणी व बंधइ, मणुस्सो वि बंधइ, मणुरसी वि बंध, देवो विबंध, देवी विबंध | १७ प्रश्न - तं भंते! किं इत्थी बंधर, पुरिसो बंध; तहेव जाव णोइत्थी णोपुरिसो गोणपुंसगो बंधइ ? १७ उत्तर - गोयमा ! इत्थी वि बंधइ, पुरिसो वि बंधइ, जाव पुंगा वि बंधंति, अहवेए य अवगयवेओ य बंधड़, अहवेए य अवयवेया य बन्धति । १० प्रश्न - जइ भंते! अवगयवेओ य बंधइ अवगयवेया य बंधंति तं भंते! किं इत्थीपच्छाकडो बंधह, पुरिसपच्छाकडो बंधइ० ? १८ उत्तर - एवं जहेव इरियावहियाबंधगस्स तहेव णिरवसेसं, जाव अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य णपुंसगपच्छाकडा य बंधति । १९ प्रश्न- तं भंते ! किं १ बंधी बंधइ बंधिस्सइ, २ बंधी बंध ण बंधिस्सर, ३ बंधी ण वंध बंधिस्सइ, ४ बन्धी ण बन्धड़ For Personal & Private Use Only Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ८ ऐर्यापथिक और साम्परायिक वन्ध बंधिस्स ? १९ उत्तर - गोयमा ! १ अत्येगइए बंधी बंधड़ बंधिस्सह, २ अत्थेगइए बंधी बंध ण बंधिस्सर, ३ अत्थेगइए बंधी ण बंधइ afras ४ अत्थेiइए बंधी ण बंधइ ण बंधिस्सह । २० प्रश्न- तं भंते! किं साइयं सपज्जवसियं बंधड़ १ पुच्छा तव । २० उत्तर - गोयमा ! साइयं वा सपज्जवसियं बंधड़, अणाइयं वा सपज्जवसियं वंधइ, अणाइयं वा अपज्जवसियं बंधइ, णो चेव णं सायं अपज्जवसियं बंध | २१ प्रश्न- तं भंते! किं देसेणं देसं बंधन ? २१ उत्तर - एवं जहेव इरियावहियाबंधगस्स, जाव सव्वेणं सव्वं बंधइ । १४४३ भावार्थ- - १६ प्रश्न - हे भगवन् ! साम्परायिक कर्म नैरयिक बाँधता है, तिर्यञ्च बांधता है, तियंचणी बांधती है, मनुष्य बांधता है, मनुष्यणी बांधती है, देव बांधता है, या देवी बांधती है ? १६ उत्तर - हे गौतम! नैरथिक भी बांधता है, तिथंच भी बांधता है, तियंचिनी भी बांधती है, मनुष्य भी बांधता है, मानुषी भी बांधती है, देव भी बांधता है और देवी भी बांधती है । १७ प्रश्न - हे भगवन् ! साम्परायिक कर्म क्या स्त्री बांधती है, पुरुष बांधता है, यावत् नोस्त्री-नोपुरुष - नोनपुंसक बांधता है ? १७ उत्तर - हे गौतम ! स्त्री भी बांधती है, पुरुष भी बांधता है, नपुंसक For Personal & Private Use Only Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ ऐपिथिक और साम्परायिक बन्ध भी बांधता है, अथवा बहुत स्त्रियां भी बांधती है, बहुत पुरुष भी बांधते हैं और बहुत नपुंसक भी बांधते हैं । अथवा ये सब और अवेदी एक जीव भी बांधता है अथवा ये सब और अवेदी बहुत जीव भी बांधते हैं। १८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वेद रहित एक जीव और वेद रहित बहुत जीव, साम्परायिककर्म बांधते हैं, तो क्या स्त्री-पश्चात्कृत जीव बांधता है, पुरुषपश्चात्कृत जीव बांधता है, इत्यादि प्रश्न ? १८ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार ऐर्यापथिक कर्मबन्ध के विषय में छब्बीस भंग कहे हैं, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये । यावत् 'बहुत स्त्रीपश्चात्कृत जीव, बहुत पुरुष-पश्चात्कृत जीव और बहुत नपुंसक-पश्चात्कृत जीव बांधते हैं,-यहां तक कहता चाहिये। .... १९ प्रश्न-हे भगवन् ! १ क्या जीव ने साम्परायिक कर्म बांधा, बांधता है और बांधेगा? २ बांधा, बांधता है और नहीं बांधेगा ? ३ बांधा, नहीं बांधता है और बांधेगा और ४ बांधा, नहीं बांधता है और नहीं बांधेगा? . १९ उत्तर-हे गौतम ! १ कितने ही जीवों ने बांधा है, बांधते हैं और बांधेगे, २ कितने ही जीवों ने बांधा है, बांधते हैं और नहीं बांधेगे, ३ कितने ही जीवों ने बांधा है, नहीं बांधरहे और बांधेगे, ४ कितने ही जीवों ने बांधा है, नहीं बांधरहे. और नहीं बांधेगे। ___२० प्रश्न-हे भगवन् ! साम्परायिक कर्म सादि-सपर्यवसित बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न । २० उत्तर-हे गौतम ! सादि-सपर्यवसित बांधते हैं, अनादि-सपर्यवसित बांधते हैं, अनादि-अपर्यवसित बांधते हैं, परन्तु सादि-अपर्यवसित नहीं बांधते। २१ प्रश्न-हे भगवन् ! साम्परायिक कर्म, देश से आत्म-देश को बांधते हैं ? इत्यादि प्रश्न ? २१ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार ऐर्यापथिक कर्म के सम्बन्ध में कहा गया है, उसी प्रकार साम्परायिक कर्म के विषय में भी जान लेना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ ऐयपिथिक और साम्परायिक बन्ध यावत् सर्व से सर्व को बांधते हैं। विवेचन-बन्ध-जिस प्रकार कोई व्यक्ति, अपने शरीर पर तेल लगाकर धूली में लेटे, तो धूली उसके शरीर पर चिपक जाती है। उसी प्रकार मिथ्यात्व, कषाय, योग आदि से जीव के प्रदेशों में जब हलचल होती है, तब जिम आकाश में आत्मा के प्रदेश है, वहीं के अनन्त अनन्त कम योग्य पुद्गल जीव के प्रत्येक प्रदेश के साथ बन्ध जाते हैं । कर्म और आत्म-प्रदेश इस प्रकार मिल जाते हैं, जैसे-दूध और पानी तथा आग और लोहपिण्ड परस्पर एक होकर मिल जाते हैं। इमी प्रकार आत्मा के साथ कर्मों का जो सम्बन्ध होता है, वही 'बन्ध' कहलाता है । यद्यपि बन्ध के द्रव्य-बन्ध और भाव-बन्ध-ऐसे दो भेद भी हैं । खोड़ा-बेड़ी आदि का बन्ध-'द्रव्य-बन्ध' कहलाता है और कर्म-बन्ध 'भाव-बन्ध' कहलाता है। यहाँ भाव-बन्ध रूप कर्मबन्ध का प्रकरण है। विवक्षा विशेष से यहाँ कर्म बन्ध के दो भेद कहे गये हैं। यथा-ऐर्यापथिक कर्म-बन्ध और साम्परायिक कर्म-बन्ध । योगों के निमित्त से होने वाले बन्ध को ऐपिथिक बन्ध कहते हैं । यह केवल सातावेदनीय कर्म का होता है। . सम्पराय-जिनसे जीव संसार में परिभ्रमण करे, उनको 'सम्पराय' कहते हैं। सम्पराय का अर्थ है-कषाय' । कषायों के निमित्त से होने वाले कर्म-बन्ध को 'साम्परायिक कर्म-बन्ध' कहते हैं। यह पहले गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान. तक होता है। ऐपिथिक कर्म का बन्ध-नरयिक, तिर्यञ्च और देव को नहीं होता, केवल मनुष्य के ही होता है। मनुष्यों में भी ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवी मनुष्यों के ही होता है। जिसने पहले. ऐर्यापथिक कर्म का बन्ध किया हो, उसे 'पूर्व प्रतिपन्न' कहते हैं। अर्थात् जो ऐर्यापथिक कर्म-बन्ध के दूसरे, तीसरे आदि समय में वर्तमान हो. ऐसे पुरुष और स्त्रियां बहुत होती हैं, इसलिये इसका भंग नहीं बनता, क्योंकि दोनों प्रकार के केवली (पुरुष केवली और स्त्री केवली) सदा पाये जाते हैं । ऐर्यापथिक कर्म के बन्धक वीतराग उपशान्तमोह, क्षीण-मोह और सयोग-केवली गुणस्थान में रहने से होते हैं । जो जीव. एर्यापथिक कर्म-बन्ध के प्रथम समय में वर्तमान होते हैं. उनको 'प्रति. पदधमान' कहते हैं । इनका विरह हो सकता है । इसलिये इनके असंयोगी चार भंग और द्वि-संयोगी चार भंग-ये.आठ भंग होते हैं। ... ऐर्यापथिक कर्म-बन्ध के विषय में जो स्त्री पुरुष आदि का कथन किया गया है, For Personal & Private Use Only Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४६ भगवती सूत्र - श. ८ उ८ ऐर्यापथिक और साम्परायिक बन्ध वह लिंग की अपेक्षा समझना चाहिये, वेद की अपेक्षा नहीं। क्योंकि ऐर्यापथिक कर्म-बंधक जीव, उपशान्तवेदी या क्षोणवेदी ही होते हैं । पूर्व प्रतिपन्नक वेद रहित जीव, सदा बहुत ही होते हैं। इसलिये उनके विषय में बहुवचन का उत्तर ही दिया गया है। प्रतिपदयमान वेद रहित जीवों में विरह पाया जाता है । अतः उनमें एकत्व आदि का सम्भव होने से एकवचन और बहुवचन को लेकर यहाँ दो विकल्प कहे गये हैं । जो जीव, गत-काल में स्त्री था, अब वर्तमान काल में अवेदी हो गया है, उसे 'स्त्री पच्छाकडा' (स्त्री पश्चात्कृत ) कहते हैं । इसी तरह 'पुरुषपच्छाकडा' और 'नपुंसकपच्छा'कडा' का अर्थ भी जानलेना चाहिये । वेद रहित जीवों की अपेक्षा यहाँ प्रश्न किया गया है, जिनमें एकवचन और बहुवचन की अपेक्षा असंयोगी छह भंग हैं, द्विक-संयोगी बारह भंग है, और त्रिक-संयोगी आठ भंग हैं । ये कुल २६ भंग हैं। इनसे प्रश्न किया गया है और इन २६ भंगों द्वारा ही उत्तर दिया गया है। 1 इसके पश्चात् पथिक कर्म-बन्ध को लेकर ही भूत, भविष्यत् और वर्तमान काल सम्बन्धी आठ भंगों द्वारा प्रश्न किया गया है। उसका उत्तर 'भवाकर्ष' और 'ग्रहणाकर्ष' की अपेक्षा दिया गया है । अनेक भवों में उपशम श्रेण्यादि की प्राप्ति द्वारा एग्रपथिक कर्म पुद्गलों का आकर्ष अर्थात् ग्रहण करना 'भवाकर्ष' कहलाता है । और एक भव में ऐर्यापथिक कर्म पुद्गलों का ग्रहण करना 'ग्रहणाकर्ष' कहलाता है । भवाकर्ष में आठों भंग पाये जाते हैं । उनमें से पहला भंग है - 'वाँधा था, बाँधता है, बांधेगा' - यह भंग उस जीव में पाया जाता है जिसने गत काल ( पूर्व भव) में उपशम श्रेणी की थी। उस समय ऐर्यापथिक कर्म बाँधा था । वर्तमान में उपशम श्रेणी करता है उस समय बाँधता है और आगामी भव में श्रेणी करेगा उस समय बांधेगा । (२) दूसरा भंग है - बाँधा था, बाँधता है, नहीं बांधेगा। यह उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में उपशम श्रेणी की थी, उसमें ऐर्यापथिक कर्म वाँधा था। वर्तमान में क्षपक श्रेणी में बाँधता है और फिर उसी भव में मोक्ष चला जायेगा, इसलिये आगामी काल में नहीं बाधेगा । (३) तीसरा भंग है – बांधा था, नहीं बांधता है और बांधेगा । यह उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में उपशम श्रेणी की थी उसमें बांधा था । वर्तमान भव में श्रेणी नहीं करता, इसलिये ऐर्यापथिक कर्म नहीं बांघता, किंतु आगामी भव में उपशम-श्रेणी For Personal & Private Use Only Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र -श. ८. उ.८ ऐर्यापथिक और सांपरायिक बंध या क्षपक श्रेणी करेगा, उसमें बांधेगा । (४) चौथा भंग है - बांधा था, नहीं बांधता, नहीं बांधेगा। यह उस जीव में पाया जाता है, जो वर्तमान में चौदहवें गुणस्थान में विद्यमान है। उसने पूर्व काल में बांधा था, वर्तमान में नहीं बांधता और आगामी काल में भी नहीं बांधेगा । १४४७ (५) पांचवां भंग है- नहीं बांधा था, बांधता है, बांधेगा। यह उस जीव में पाया जाता है, जिसने पूर्वभव में उपशम-श्रेणी नहीं की थी, इसलिये ऐर्यापथिक कर्म नहीं बांधा था, वर्तमान भव में उपशम-श्रेणी में बांधता है । आगामी भव में उपशप-श्रेणी या क्षपकश्रेणी में बांधेगा । (६) छठा भंग है- नहीं बांधा था, बांधता है, नहीं बांधेगा । यह भंग उस जीव में पाया जाता है, जिस जीव ने पूर्व भव में उपशम-श्रेणी नहीं की थी, इसलिये ऐर्यापथिक कर्म नहीं बांधा था । वर्तमान भव में क्षपक श्रेणी में बांधता है । फिर उसी भव में मोक्ष चला जावेगा इसलिये आगामी काल में नहीं बांधेगा । (७) सातवां भंग है - नहीं बांधा था, नहीं बांधता है, बांधेगा। यह भंग उस जीव में पाया जाता है जो जीव भव्य है, किंतु भूतकाल में उपशम श्रेणी नहीं की, इसलिये नहीं था। वर्तमान काल में भी उपशम-श्रेणी आदि नहीं करता, इसलिये नहीं बांधता, किंतु आगामी काल में उपशम श्रेणी या क्षपकश्रेणी करेगा, उसमें बांधेगा | ( ८ ) आठवां भंग है - नहीं बांधा था, नहीं बांधता और नहीं बांधेगा। यह भंग अभव्य जीव में पाया जाता है । अभव्य जीव ने पूर्वभव में ऐर्यापथिक कर्म नहीं बांधा था, . वह वर्तमान भव में नहीं बांधता और आगामी भव में भी नहीं बांधेगा । क्योकि अभव्य जीव ने उपशम या क्षपक श्रेणी नहीं की, नहीं करता और नहीं करेगा । 'ग्रहणाकर्ष' अर्थात् एक ही भव में ऐर्यापथिक कर्म पुद्गलों का ग्रहणरूप आकर्ष जिसमें हो, उसे 'ग्रहणाकर्ष' कहते हैं। उसकी अपेक्षा प्रथम भंग उस जीव में पाया जाता है जिसने भूतकाल में उपगम श्रेणी या क्षपक श्रेणी के समय ऐर्यापथिक कर्म बांधा था । वर्तमान काल में श्रेणी में बांधता है और आगामी काल में बांधेगा। दूसरा भंग तेरहवें गुणस्थान में एक समय शेष रहते समय पाया जाता है, क्योंकि उसने भूतकाल में बांधा था, वर्तमान काल में बांधता है और आगामी काल में शैलेशी अवस्था में नहीं बांधेगा । तीसरा अंग उस जीव में पाया जाता है जो उपशम-श्रेणी करके उससे गिर गया है । उसने उपशमश्रेणी के समय ऐर्यापथिक कर्म बांधा था। अब वर्तमान में नहीं बांधता और उसी भव For Personal & Private Use Only Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ ऐर्यापथिक और सांपरॉयिक बन्ध में फिर उपशम श्रेणी करने पर.ऐर्यापथिक कर्म बांधेगा। क्योंकि एक भव में एक जीव, दो बार उपशम श्रेणी कर सकता है । चौथा भंग चौदहवें गुणस्थान के प्रथम समय में पाया जाता है । सयोगी अवस्था में उसने ऐर्यापथिक कर्म बांधा था, किन्तु एक समय पश्चात् ही चौदहवें गुणस्थान की प्राप्ति हो जाने पर शैलेशी अवस्था में नहीं बांधता और वह आगामी काल में भी नहीं बांधेगा। पांचवां भंग उस जीव में पाया जाता है जिसने आयुष्य के पूर्वभाग में उपशम-श्रेणी आदि नहीं की, इसलिये नहीं बांधा, वर्तमान समय में श्रेणी प्राप्त की है इसलिये बांधता है और भविष्य में भी बांधेगा । छठा भंग शून्य है । यह किसी भी जीव में नहीं पाया जाता । क्योंकि 'नहीं बांधा था और बांधता है,' ये दो बातें तो पाई जा सकती है, किन्तु 'नहीं बांधेगा'-यह बात नहीं पाई जा सकती, अर्थात् छठा भंग है-नहीं बांधा था, बांधता है, नहीं बांधेगा। किसी जीव ने आयुष्य के पूर्वभाग में उपशम-श्रेणी आदि प्राप्त नहीं की थी, इसलिये ऐर्यापथिक कर्म नहीं बांधा था । वर्तमान समय में श्रेणी प्राप्त की है इसलिये बांधता है, किन्तु उसके बाद के समयों में नहीं बांधेगा'-यह बात घटित नहीं होती। क्योंकि ऐपिथिक कर्म-बन्ध एक समय मात्र का नहीं है । यद्यपि उपशम श्रेणी को प्राप्त हुआ कोई जीव, एक समय के पश्चात् ही काल कर जाता है, उसकी अपेक्षा ऐर्यापथिक कर्म-बन्ध एक समय मात्र का होता है, किन्तु वह छठे विकल्प का कारण नहीं बन सकता । क्योंकि उसके पश्चात् ऐर्यापथिक कर्मबन्ध का अभाव उसी भव में नहीं होता, भवान्तर में होता है और यहां पर ग्रहणाकर्ष रूप एक भव आश्रयी प्रकरण चल रहा है । यदि यह कहा जाय कि सयोगी-केवली गुणस्थान के अन्तिम समय की अपेक्षा यह भंग घटित हो जायगा । क्योंकि वह उस समय ऐपिथिक कर्म बांधता है और आगामी काल में नहीं बांधेगा, तो यह कहना भी ठीक नहीं है । क्योंकि जो जीव सयोगी-केवली गुणस्थान के अन्तिम समय में ऐपिथिक कर्म बांधता है। उसने उसके पूर्व समय में निश्चित रूप से ऐर्यापथिक कर्म बांधा था। इस तरह उपर्युक्त कथन का समावेश दूसरे भंग में होता है, किन्तु इससे छठा भंग नहीं बन सकता । सातवा भंग भव्य विशेष की अपेक्षा से है और आठवां भंग अभव्य की अपेक्षा से है। (१) सादि सपर्यवसित-आदि और अन्त सहित । (२) सादि अपर्यवसित-जिसकी आदि तो है, किन्तु अन्त नहीं। (३) अनादि सपर्यवसित-जिसकी आदि तो नहीं, किन्तु अन्त हैं। (४) अनादि अपर्यवसित-आदि और अन्त रहित । इन चार विकल्पों में से प्रथम For Personal & Private Use Only Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ ऐपिथिक और सांपरायिक बंध विकल्प में ऐपिथिक कम का बन्ध होता है। शेष तीन में नहीं। जीव के साथ ऐर्यापथिक कर्म-वन्ध के चार विकल्पों सम्बन्धी प्रश्न । यथा(१) देश से देश-बन्ध-जीव के एक देश से कर्म के एक देश का बन्ध । (२) देश से सर्वबन्ध-जीव के एक देश से सम्पूर्ण कर्म का बन्ध । (३) सर्व से देशबन्ध-सम्पूर्ण जीव से कर्म के एक देश का बन्ध । (४) सर्व से सर्व-बन्ध-सम्पूर्ण जीव से सम्पूर्ण कर्म का बन्ध । इनमें से चाये विकल्प में कर्म का वन्ध होता है, क्योंकि जीव का ऐसा ही स्वभाव है । शेष तीन विकल्पों से जीव के माथ कर्म का बन्ध नहीं होता। . सम्पराय का अर्थ है-कषाय' । कषाय के निमित्त से बन्धने वाले कर्म-बन्ध को 'साम्परायिक बन्ध' कहते हैं । साम्परायिक बन्ध के विषय में यहाँ सात प्रश्न किये गये हैं और उनका उत्तर भी दिया गया है। उन सात में से नैरयिक, तिर्यञ्च, तिर्यञ्चिनी, देव और देवी, ये पांच तो सकपायर्या होने से सदा साम्परायिक बंधक होते हैं। मनुष्य और मनुष्यिनी, सकपायी अवस्था में साम्परायिक बन्धक होते हैं और जब ये अकषायी हो जाते हैं तब माम्पगयिक बन्धक नहीं होते। इसके पश्चात् स्त्री, पुरुष और नपुंसक इनकी अपेक्षा एक वचन और बहुवचन आश्रयी प्रश्न किया गया है । जिसके उत्तर में कहा गया है कि एकत्व विवक्षित और बहुत्व विवक्षित स्त्री, पुरुष और नमक । ये छह सदा साम्परायिक कर्म बान्धते है। क्योंकि ये सब सवदी हैं । अवेदी कादाचित्क (कभी कभी) पाया जाता है, इसलिये वह कदाचित् साम्परायिक कर्म बाँधता है । अतः स्त्र्यादिक छह साम्परायिक कर्म बांधते हैं । अथवा स्त्र्यादिक छह और वेद रहित एक जीव साम्परायिक कर्म बांधते हैं। क्योंकि वेद रहित जोव एक भी पाया जा सकता है । अथवा स्त्र्यादिक छह और वेद रहित बहुत जीव साम्परायिक कर्म बांधते हैं । क्योंकि वेद रहित जीव, बहुत भी पाये जा सकते हैं । तीनों वेदों के उपशान्त या भय हो जाने पर जबतक जीव, यथाख्यात चारित्र को प्राप्त नहीं करता, तबतक वह वेद रहित जीव, सांपयिक बन्धक होता है। यहाँ पूर्व-प्रतिपन्न और प्रतिपद्यमान की विवक्षा नहीं की गई । क्योंकि दोनों में भी एकत्व और बहुत्व पाया जा सकता है. इसलिये विशेषता का अभाव है। जैसे कि-वंद रहित हो जाने पर साम्परायिक बंध अल्पकालीन होता है । इसलिये पूर्व-प्रतिपन्न वेद रहित जीव सांपरायिक कर्म को बांधने वाले एक या अनेक भी हो सकते हैं । इसी प्रकार प्रतिपद्यमान जीव भी एक या अनेक हो For Personal & Private Use Only Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५० भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ एपिथिक और साम्परायिक बन्ध सकते हैं। ऐर्यापथिक कर्म-बन्ध के विषय में काल की अपेक्षा जो आठ भंग कहे थे, उन में से साम्परायिक कर्म-बन्ध के विषय में चार भंग ही पाये जाते हैं। क्योंकि जीवों के साम्परायिक कर्म-बन्ध अनादिकाल से हैं। इसलिये भूतकाल सम्बन्धी ‘ण बन्धी-नहीं बान्धा था।' ये चार भंग नहीं बन सकते । जो चार भंग बन सकते हैं. वे ये हैं-(१) बांधा था बाँधता है, बाँधेगा। (२) बाँधा था, बांधता है, नहीं बाँधेगा। (३) बांधा था, नहीं बांध रहा, बाँधेगा। (४) बांधा था, नहीं बांधता है, नहीं बाँधेगा। प्रथम भंग यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति से दो समय पहले तक सर्व संसारी जीवों में पाया जाता है, क्योंकि भूतकाल में उन्होने साम्परायिक कर्म वाँधा था, वर्तमान. में बाँधते हैं और भविष्यत् काल में यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति के पहले तक बाँधेगे। अथवा यह प्रथम भंग अभव्य जीव की अपेक्षा भी घटित हो सकता है । दूसरा भंग भव्य जीव की अपेक्षा से है । मोहनीय कर्म के भय से पहले उसने . साम्परायिक कर्म बाँधा था, वर्तमान में बांधता है और आगामी काल में मोह-क्षय की अपेक्षा नहीं बाँधेगा। तीसरा भंग उपशम-श्रेणी प्राप्त जीव की अपेक्षा है। उपशम-श्रणी करने के पूर्व उसने साम्परायिक कर्म बांधा था, वर्तमान में उपशान्त-मोह होने से नहीं बांधता और उपशम श्रेणी से गिर जाने पर आगामी काल में फिर बाँधेगा। चौथा भंग क्षपक-श्रेणी प्राप्त क्षीणमोह जीव की अपेक्षा है। मोहनीय कर्म का क्षय करने के पूर्व उसने साम्परायिक कर्म वांधा था, वर्तमान में मोहनीय कर्म का क्षय हो जाने से नहीं बाँधता और बाद में मोक्ष चला जायगा, इसलिये आगामी काल में नहीं बाँधेगा। ___माम्परायिक कर्म बन्ध के विषय में आदि अन्त की अपेक्षा चार प्रश्न किये गये हैं। यथा-(१) सादि सपर्यवसित (२) सादि अपर्यवसित (३) अनादि सपर्यवसित (४) अनादि अपर्यवसित । इन चार भंगों में से-सादि-अपयंवसित भंग को छोड़कर शेष तीन भंगों से जीव साम्परायिक कर्म बांधता है । इनमें से जो जीव उपशम-श्रेणी कर के गिर गया है और आगामी काल में फिर उपशम-श्रेणी या क्षपक-श्रेणी को अंगीकार करेगा, उसकी अपेक्षा 'सादि-सपर्यवसित'-यह प्रथम भंग घटित होता है । जो जीव प्रारम्भ में ही क्षपकश्रेणी करने वाला है, उसकी अपेक्षा 'अनादि-सपर्यवसित' यह तृतीय भंग घटित होता है। For Personal & Private Use Only Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--1. ८ उ. ८ कर्म-प्रकृति और परीपद १४५१ अभव्य जीव की अपेक्षा 'अनादि-अपर्यवमित' यह चौथा भंग घटित होता है । 'सादिअपर्यवसित' यह दूसरा भंग किसी भी जीव में घटित नहीं होता। क्योंकि उपशम-श्रेणी में गिरा हुआ जीव ही सादि-साम्परायिक बन्धक होता है और वह कालान्तर में अवश्य मोक्षगामी होता है । उस समय साम्परायिक बन्ध का व्यवच्छेद हो जाता है । इस प्रकार 'सादि-अपर्यवसित' माम्परायिक बन्धक नहीं होता । कर्म-प्रकति और परीषह . २२ प्रश्न- कइ णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? . २२ उत्तर-गोयमा ! अट्ट कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहाणाणावरणिज्जं, जाव अंतराइयं । . - २३ प्रश्न-कइ णं भंते ! परिसहा पण्णत्ता ? २३ उत्तर-गोयमा ! बावीसं परिसहा पण्णत्ता, तं जहादिगिंापरिसहे, पिवासापरिसहे, जाव, देसणपरिसहे । ____ २४ प्रश्न-एए णं भंते ! वावीसं परिसहा कइसु कम्मपयडीसु समोयरंति ? - - २४ उत्तर-गोयमा ! चउसु कम्मपयडीसु समोयरंति, तं जहा णाणावरणिजे, वेयणिजे, मोहणिजे, अंतराइए। - कठिन शब्दार्थ-समोयरंति--समावेश होता है। भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! कर्म प्रकतियां कितनी कही गई हैं ? २२ उत्तर-हे गौतम ! कर्म प्रकृतियां आठ कही गई हैं । यथा-ज्ञाना. धरणीय, यावत् अन्तराय । For Personal & Private Use Only Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५२ भगवती सूत्र - श८ उ. ८ कर्म प्रकृति और परीवह २३ प्रश्न - हे भगवन् ! परीषह कितने कहे गये हैं ? २३ उत्तर - हे गौतम ! परीषह बाईस कहे गये हैं। यथा-१ क्षुधा परीबह, २ पिपासा परीषह यावत् (३ शीत परीषह, ४ उष्ण परोषह ५ दंशमशक परीषह, ६ अचेल परीषह, ७ अरति परीषह, ८ स्त्री परीषह, ९ चर्या परीषह, १० निसीहिया (निषदचा ) परीषह, ११ शय्या परीषह, १२ आक्रोश परीषह, १३ वध परीषह, १४ याचना परीषह, १५ अलाभ परीषह, १६ रोग परीषह, १७ तृणस्पर्श परीषह, १८ जल्ल परीषह, १९ सत्कारपुरस्कार परीषह, २० प्रज्ञा परीषह २१ अज्ञान परीषह) २२ दर्शनपरीषह । २४ प्रश्न - हे भगवन् ! कितनी कर्मप्रकृतियों में इन वाईस परीषहों का समवतार ( समावेश) होता है ? २४ उत्तर - हे गौतम! चार कर्म प्रकृतियों में बाईस परीषहों का समवतार होता है । यथा-ज्ञानावरणीय, वेदनीय, मोहनीय और अन्तराय । २५ प्रश्न - णाणावरणिजे णं भंते ! कम्मे कह परीसहा रुमोय रंति ? २५ उत्तर - गोयमा ! दो परीसहा समोयरंति, तं जहा - पण्णापरीस णाणपरीस य । २६ प्रश्न - वेयणि णं भंते! कम्मे कह परीसहा समोयरंति ? २६ उत्तर - गोयमा ! एक्कारस परीसहा समोयरंति, तं जहा 66 "पंचेव आणुपुव्वी चरिया सेज्जा वहे य रोगे य । तणकास- जल्लमेव य एक्कारस वेयणिज्जम्मि || " २७ प्रश्न - दंसणमोहणिजे णं भंते ! कम्मे कह परीसहा For Personal & Private Use Only Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समोयरति ? भगवती सूत्र - शं. ८ उ. ८ कर्म प्रकृति और परीषह् २७ उत्तर - गोयमा ! एगे दंसणपरीस हे समोर | २८ प्रश्न - चरित्तमोहणिज्जे गं भंते ! कम्मे कह परीसहा समोयरंति ? १४५३ २८ उत्तर - गोयमा ! सत्त परीसहा समोयरंति, तं जहा"अरई अचेल इत्थी णिसीहिया जायणा य अकोसे | सकार - पुरकारे चरितमोहम्मि सत्तेते ॥” २९ प्रश्न - अंतराइए णं भंते ! कम्मे कह परीसहा समोयरंति ? २९ उत्तर - गोयमा ! एगे अलाभपरीसहे समोयरह | कठिन शब्दार्थ - आणुपुथ्वी -- क्रमानुसार । भावार्थ - २५ प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? २५ उत्तर - हे गौतम ! दो परीषहों का समवतार होता है । यथा-प्रज्ञा परीषह और ज्ञान परीषह । २६ प्रश्न - हे भगवन् ! वेदनीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? २६ उत्तर - हे गौतम ! वेदनीय कर्म में ग्यारह परीषहों का समवतार होता है । यथा - अनुक्रम से पहले के पांच परीषह ( क्षुधा परीषह, पिपासा परीवह, शीत परीषह, उष्ण परीषह और दंशमशक परीषह) चर्या परीषह, शय्या परीषह, वध परीषह, रोग परीषह, तृणस्पर्श परीषह और जल्ल ( मैल) परीषह । इन ग्यारह परीषहों का समवतार वेदनीय कर्म में होता है । २७ प्रश्न - हे भगवन् ! दर्शन- मोहनीय कर्म में कितने परीषहों का For Personal & Private Use Only Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪:૪ भगवती सूत्र श. उ. ८ कर्म प्रकृति और परीषह् समवतार होता है ? २७ उत्तर - हे गौतम ! इसमें एक दर्शन परीषह का समवतार होता है । २८ प्रश्न - हे भगवन् ! चारित्र मोहनीय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? २८ उत्तर - हे गौतम ! उसमें सात परीषहों का समवतार होता है । यथा-अरति परीषह, अवेल परीषह, स्त्री परीषह, निषदचा परीषह, याचना परीषह, आक्रोश परीषह और सत्कार पुरस्कार परीषह । इन सात परीषहों का समवतार चारित्र मोहनीय कर्म में होता है । २९ प्रश्न - हे भगवन् ! अन्तराय कर्म में कितने परीषहों का समवतार होता है ? २९ उत्तर - हे गौतम! एक अलाभ परीषह का समवतार होता है । ३० प्रश्न - सत्तविहबन्धगस्स णं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता ? ३० उत्तर - गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता, वीसं पुण वेएइ । जं समयं सीयपरीसहं वेएइ णो तं समयं उसिणपरीसहं वेएड, जं समयं उसिणपरीसहं वेएड णो तं समयं सीयपरीसहं वेएड, जं समयं चरियापरीसहं वेएइ णो तं समयं णिसीहियापरीसहं वेएइ, जं समयं णिसीहिया परीसहं वेण्ड णो तं समयं चरियापरीसहं वेएइ । ३१ प्रश्न - अट्ठविहबन्धगस्स णं भंते ! कइ परीसहा पण्णत्ता ? ३१ उत्तर - गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता, तं जहाछुहापरीसहे, पिवासापरीसहे, सीयपरीसहे, दंस-मसग परीसहे, जाव अलाभपरीसहे । For Personal & Private Use Only Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ८ कर्म प्रकृति और परीबह ३२ प्रश्न - छव्विहबंधगस्स णं भंते! सरागछउमत्थरस कह परीसहा पण्णत्ता ? ३२ उत्तर - गोयमा ! चोइस परीसहा पण्णत्ता, बारस पुण वेrs, जं समयं सीयपरीसहं वेण्ड णो तं समयं उसिणपरीसहं वेus, जं समयं उसिणपरीसहं वेण्ड णो तं समयं सीयपरीसहं des, जं समयं चरियापरीसहं वेएइ णो तं समयं सेज्जापरीसहं वेrs, जं समयं सेना परीसहं वेएइ, णो तं समयं चरियापरीसहं वेड़ । ३३ प्रश्न - एक विबन्धगस्स णं भंते ! वीयरागछउमत्थस्स कह परीसहा पण्णत्ता ? ३३ उत्तर - गोयमा ! एवं चेव जहेव छव्विहबन्धगस्स । ३४ प्रश्न - एगविहबन्धगस्स णं भंते! सजोगिभवत्थ केवलिरस कह परीसहा पण्णत्ता ? १४५५ ३४ उत्तर - गोयमा ! एक्कारसपरीसहा पण्णत्ता, णव पुण वेएह, सेसं जहा छव्विबन्धगस्स । ३५ प्रश्न - अबन्धगस्स णं भंते! अजोगि भवत्थ केवलिस्स कह परीसहा पण्णत्ता ? ३५ उत्तर - गोयमा ! एकारस परीसहा पण्णत्ता, णव पुण वेus । जं समयं सीयपरीसहं वेण्ड णो तं समयं उसिणपरीसहं For Personal & Private Use Only Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ कर्म-प्रकृति और परीषह वेएइ, जं समयं उसिणपरीसहं वेएइ णो तं समयं सीयपरीसहं वेएइ, जं समयं चरीयापरिसहं वेएइ णो तं समयं सेजापरीसहं वेएइ, जं समयं सेजापरीसहं वेएइ णो तं समयं चरियापरीसहं वेएइ । __भावार्थ-३० प्रश्न-हे भगवन् ! सात प्रकार के कर्म बांधने वाले जीव के कितने परीषह होते हैं ? | ३० उतर-हे गौतम ! उसके बाईम परीषह होते हैं, परन्तु वह जीव एक साथ बीस परीषहों को वेदता है। क्योंकि जिस समय शीत परीषह वेदता है, उस समय उष्ण परीषह नहीं वेदता और जिस समय उष्ण परीषह वेदता है, उस समय शीत परीषह नहीं देदता। जिस समय चर्या परीषह वेदता है, उस समय निषदया परोषह नहीं वेदता और जिस समय निषदया परीषह वेदता है, . उस समय चर्या परीषह नहीं वेदता । ३१ प्रश्न-हे भगवन् ! आठ प्रकार के कर्मों को बांधने वाले जीव के कितने परीषह कहे गये हैं ? ३१ उत्तर-हे गौतम ! बाईस परीषह कहे गये हैं। यथा-क्षुधा परीषह, पिपासा परोषह, शीत परीषह, दंशमशक परीषह यावत् अलाभ परीषह। किन्तु वह एक साथ बीस परीषहों को वेदता है। ३२ प्रश्न-हे भगवन् ! षड्-विध बन्धक सराग छद्मस्थ के कितने परीषह कहे गये हैं ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! चौदह परीषह कहे गये हैं, किंतु वह एक. साथ बारह परीषह वेदता है । जिस समय शीत परीषह वेदता है, उस समय उष्ण परीषह नहीं वेदता और जिस समय उष्ण परीषह वेदता है, उस समय शीत परीषह नहीं वेदता। जिस समय चर्या परीषह वेदता है, उस समय शय्या परीवह नहीं वेदता और जिस समय शय्या परीषह वेदता है, उस समय चर्या परीषह नहीं वेदता। ३३ प्रश्न-हे भगवन् ! एक-विध बन्धक वीतराग छपस्थ जीव के For Personal & Private Use Only Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ कर्म प्रकृति और परीषह १४५७ कितने परीषह कहे गये हैं ? ३३ उत्तर-हे गौतम ! षड्-विध बन्धक के समान चौदह परीषह कहे गये हैं, किन्तु वह एक साथ बारह परोषह वेदता है। जिस प्रकार षड् विध बन्धक के विषय में कहा है, उसी प्रकार एक-विध बन्धक वीतराग छद्मस्थ के विषय में भी कहना चाहिये। - ३४ प्रश्न-हे भगवन् ! एक-विध बंधक सयोगी भवस्थ केवली के कितने परीषह कहे गये है ? .. ३४ उत्तर-हे गौतम ! ग्यारह परीषह कहे गये हैं, किंतु एक साथ नौ परीषह वेदता है । शेष सारा कथन षड् विध बंधक के समान जानना चाहिये। __३५ प्रश्न-हे भगवन् ! अबन्धक अयोगी भवस्थ केवली के कितने परीषह कहे गये हैं ? ___३५ उत्तर-हे गौतम ! ग्यारह परीषह कहे गये हैं। किन्तु वह एक साथ नौ परीषह वेदता है। क्योंकि जिस समय शीत परीषह वेदता है, उस समय उष्ण परीषह नहीं वेदता और जिस समय उष्ण परीषह वेदता है, उस . समय शीत परीषह नहीं वेदता । जिस समय चर्या परीषह वेदता हैं, उस समय शय्या परीषह नहीं वेदता और जिस समय शय्या परीषह वेदता है, उस समय चय परीषह नहीं वेदता। विवेचन-बाईम परोषहों का किन-किन कर्म-प्रकृतियों में समावेश होता है, इस बात को बतलाने के लिये पहले आठ कर्मों के नाम बतलाये हैं। . . __ परीषह-आपत्ति आने पर भी संयम में स्थिर रहने के लिये तथा कर्मों की निर्जरा के लिये जो शारीरिक और मानसिक कष्ट साधु-साध्वियों को सहने चाहिये, उन्हें 'परीषह' कहते हैं । वे बाईम हैं । उनके नाम और अर्थ इस प्रकार हैं . १ क्षुधा परीपह-भूख का परीषह । संयम की मर्यादानुसार निर्दोष आहार न मिलने पर मुनियों को भूख का कष्ट होता है । इस कष्ट को सहना चाहिये, किन्तु मर्यादा का उल्लंघन नहीं करना चाहिये । इसी प्रकार दूसरे परीषहों के विषय में भी जानना चाहिये। . २ पिपासा परीषह-प्यास का परोषह । For Personal & Private Use Only Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ कर्म-प्रकृति और परीषह । • शीत परीषह-ठण्ड का परीषह । ४ उष्ण परीषह-गर्मी का परीषह । ५ दंशमशक परीषह-डांस, मच्छर, खटमल, जू , चिटी आदि का परीषह। .. ६ अचेल परीषह-नग्नता का परीषह । जीर्ण, अपूर्ण और मलीन आदि वस्त्रों के सद्भाव में भी यह परीषह होता है। ___७ अरति परीषह-मन में अरति अर्थात् उदासी से होने वाला कष्ट । संयम मार्ग में कठिनाइयों के आने पर, उसमें मन न लगे और उसके प्रति अरति (अरुचि) उत्पन्न हो, तो धैर्यपूर्वक उसमें मन लगाते हए अरति को दूर करना चाहिये। ८ स्त्री परीषह-स्त्रियों से होने वाला कष्ट तथा पुरुषों की तरफ से साध्वियों को होने वाला कप्ट । (यह अनुकूल परीषह है) ९ चर्या परीषद-ग्राम, नगर आदि के विहार में एवं चलने-फिरने से होने वाला कष्ट । १. निसीहिया परीषह-(निषद्या परीषह = नषेधिकी परीषह) स्वाध्याय आदि करने की भूमि में तथा सूने घर आदि में किसी प्रकार का उपद्रव होने से होने वाला कष्ट । ११ शय्या परीषह-रहने के स्थान की प्रतिकूलता से होने वाला कष्ट । १२ आक्रोश परीषह-कठोर वचन सुनने से होने वाला कष्ट । अर्थात् किसी के द्वारा धमकाया या फटकारा जाने पर होने वाला कष्ट । १३ वध परीषह-लकड़ी आदि से पीटा जाने पर होने वाला कष्ट । १४ याचना परीषह-भिक्षा मांगने में होने वाला कष्ट । १५ अलाभ परीषह-भिक्षा आदि के न मिलने पर होने वाला कष्ट । १६ रोग परीषह-रोग के कारण होने वाला कष्ट । १७ तॄणस्पर्श परीषह-घास के विछौने पर सोते समय शरीर में चुभने से या मार्ग में चलते समय तृणादि पैर में चुभने से होने वाला कष्ट । १८ जल्ल परीपह-शरीर और वस्त्र आदि में चाहे जितना मैल लगे, किन्तु उद्वेग को प्राप्त नहीं होना तथा स्नान की इच्छा नहीं करना। - १५ सत्कार-पुरस्कार परीषह-जनता द्वारा मान-पूजा होने पर हर्षित नहीं होना, और मान-पूजा न होने पर ग्वेदित न होना (यह अनुकूल परीषह है)। २० प्रज्ञा परीषह-प्रज्ञा अर्थात् बुद्धि की मंदता से होने वाला कष्ट । २१ अज्ञान परीषह-तप संयम की आराधना करते हुए भी अवधि आदि प्रत्यक्ष For Personal & Private Use Only Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श.८ उ. ८ कर्म-प्रकृति और परोपह १४५९ ज्ञानों के नहीं होने से होने वाला खेद । २२ दर्शन परीषह-तीर्थकर भगवान् में और तीर्थंकर भाषित सूक्ष्म तत्त्वों में अश्रद्धा (शंका)होना 'दर्शन परीषह' है । शंका आदि का त्याग करना 'दर्शन परीषह' का विजय है । तथा दूसरे मतवालों की ऋद्धि तथा आडम्बर को देखकर भी अपने मत में दृढ़ रहना-दर्शन परीषह का विजय है। इसके पश्चात् यह बतलाया गया है कि किस परीपह का समवतार किस कर्म में होता है अर्थात् किस कर्म के उदय से कौनसा परीषह होता है, प्रज्ञा परीषह और अज्ञान परीषह ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होते हैं अर्थात् प्रज्ञा (बुद्धि) का अभाव मति-ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है। इसी प्रकार अज्ञान परीषह अवधि आदि ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से होता है। वेदनीय कर्म के उदय से ग्यारह परीपह होते हैं । यथा-क्षुधा परीषह, पिपासा परीषह, शीत परीषह, उष्ण परीषह, दंशमशक परीषह, चर्या परीषह, शय्या परीषह, वध परीषह, रोग परीषह, तृणस्पर्श परीषह और जल्ल (मैल) परीषह । इन परीषहों के द्वारा पीड़ा (वेदना) उत्पन्न होना-वेदनीय कर्म का उदय है और उसे सम्यक् प्रकार से सहन करना चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षयोपशमादि से होता है। . सामान्यतः मोहनीय कर्म के उदय से आठ परीषह होते हैं। उनमें से दर्शन-मोहनीय कर्म के उदय से एक दर्शन परीपह होता है। चारित्र-मोहनीय के उदय से सात परीषह होते हैं । यद्यपि ये सातों परीषह चारित्र-मोहनीय कर्म की भिन्न-भिन्न प्रकृतियों के उदय से होते हैं, किन्तु यहां सामान्यतः कथन किया गया है कि ये सब चारित्र-मोहनीय कर्म के उदय से होते हैं। अन्तराय कर्म (लाभान्तराय कर्म) के उदय से एक अलाभ परीषह होता है । आयु कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों का बन्ध करने वाले जीव के बाईस परीपह होते हैं । इसी प्रकार आठ कर्मों को बाँधने वाले जीव के भी बाईस परीषह होते हैं, किन्तु वह जीव एक समय में बीस परीषह वेदता है। शीत और उष्ण-इन दोनों परीषहों में से एक समय में एक वेदता है, क्योंकि ये दोनों परस्पर विरोधी हैं, इसलिये एक ही समय में एक जीव में ये दोनों नहीं हो सकते । चर्या और निसीहिया (निपदया)परीषह-इन दोनों में से एक समय में एक वेदता है। चर्या का अर्थ है-विहार करना और निषद्या का अर्थ है-स्वाध्याय आदि के निमित्त विविक्त (स्त्री, पशु, नपुंसक से रहित) उपाश्रय में बैठना । इस प्रकार विहार और अवस्थान रूप परस्पर विरोधी हैं। For Personal & Private Use Only Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६० भगवती सूत्र-ग. ८ उ. ८ कर्म-प्रकृति और परीषह शंका-निषद्या के समान शय्या परीषह भी चर्या परीषह का विरोधी है, क्योंकि शय्या और चर्या-ये दोनों एक समय में संभवित नहीं है । इसलिये एक समय में उत्कृष्ट • उन्नीस परोषह ही हो सकते हैं, फिर यहाँ बीस कैसे बतलाये हैं• ? ____समाधान-उपर्युक्त शंका का समाधान यह है कि कोई मुनि विहार करते हुए किसी ग्राम में पहुंचे । वहाँ स्वल्प काल के लिये विश्राम और आहारादि के लिये ठहरने पर भी उत्सुकता के कारण, विहार के परिणाम निवृत्त नहीं हुए, (विहार करने की उत्सुकता एवं चंचलता चित्त में बनी हुई है। इस कारण चर्या परीषह और शय्या परीषंह दोनों अविरुद्ध हैं । तात्पर्य यह है कि अभी चर्या की आकुलता समाप्त नहीं होने के कारण स्वल्प काल के लिये स्थान में ठहरने पर भी एक साथ दोनों परीषहों को वेदते हैं। ___शंका-यदि इस प्रकार शय्या और चर्या परीषह में युगपत् अविरुद्धता बतलाई जा रही है, तो पड़-विध बन्धक की अपेक्षा-जो आगे कहा गया है कि-'जिस समय वह चर्या परीपह वेदता है, उस समय शय्या परीषह नहीं वेदता और जिस समय शय्या परीषह वेदता है, उस समय चर्या परीषह नहीं वेदता'-यह कैसे संभव होगा? . समाधान-षड्-विध बन्धक जीव मोहनीय कर्म के असद्भाव तुल्य होता है । इसलिये उसमें उत्सुकता और चञ्चलता का अभाव है। इसलिये शय्या के समय में उनका चित्त शय्या में ही रहता है, चर्या में नहीं । इस अपेक्षा मे उस समय शय्या और चर्याइन दोनों परीषहों में परस्पर विरोध है । इसलिये दोनों का युगपत् (एक साथ) असद्भाव है । आयु कर्म और मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष छह कर्मों के बन्धक सरागी छद्मस्थ (दसवें गुणस्थानवर्ती) जीव के तथा केवल एक वेदनीय कर्म के बन्धक छद्मस्थ वीतरागी (ग्यारहवें बारहवें गुणस्थानवर्ती) जीव के चौदह परीषह (बाईस परीषहों में से मोहनीय कर्म के आठ परी ग्रहों को छोड़कर) होते है, किन्तु एक साथ वारह परीषह वेदते हैं, अर्थात् शीत और उष्ण में से एक तथा चर्या और शय्या में से एक वेदते हैं । तेरहवें गुणस्थानवर्ती एक कर्म के बन्धक जीव के और चौदहवें गुणस्थानवर्ती अवन्धक जीव के वेदनीय के ग्यारह परीपह होते हैं। उनमें से एक साथ नौ वेदते हैं अर्थात् शीत और उप्ण में से एक तथा चर्या और शय्या में से एक वेदते हैं। . शंका-दसवें गुणस्थानवर्ती सराग छदस्थ जीव के चौदह परीषह बतलाये गये हैं। और मोहनीयकर्म के उदय से होने वाले आठ परीषहों का अभाव बतलाया गया है, इसमें पंच-संग्रह' में १९ बतलाये है-डोशी । For Personal & Private Use Only Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. उ. ८ कर्म-प्रकृति और परीपद - १४६१ प्रश्न यह उपस्थित होता है कि जब मूक्ष्म-सम्पराय वाले जीव के मोहनीय में होने वाले आठ परीषहों का अभाव बतलाया गया है, इससे अापत्ति द्वारा यह अर्थ स्वतः ध्वनित हो जाता है कि अनिवृति-वादर-सम्पराय (नववें गुणस्थानवर्ती) वाले जीव के मोहनीय सम्भव आठों परीपद होते हैं, किन्तु यह किम प्रकार संगत हो मकता है ? क्योंकि दर्शन-सप्तक (चार अनन्तानुबन्धी कषाय, सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्या व मोहनीय और सम्यमिथ्यात्व मोहनीय) का उपशम हो जाने पर बादर कपाय वाले जीव के भी दर्शन-मोहनीय का उदय नहीं होने से दर्शनपरीपह का अभाव है। इसलिये उसके मोहनीय सम्बन्धी सात परीषह ही हो सकते हैं. आठ नहीं। यदि इस विषय में यह कहा जाय कि उसके दर्शन मोहनीय सत्ता में रहा हुआ है, इमलिये दर्शन परीषह का सद्भाव है, इस तरह मोहनीय सम्बन्धी आठ ही परीषह उसके होते हैं, तो यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि इस तरह तो उपशम-श्रेणी प्राप्त मूक्ष्मसंपराय (दमवें गुणस्थानवर्ती) वाले जीव के भी मोहनीय कर्म सत्ता में है. फिर उसके भी मानाय कम संवन्धी आठों परीषह मानने पड़ेंगे, क्योंकि दोनों जगह न्याय की समानता है? ममाधान-दर्शन-सप्तक का उपशम करने के पश्चात् नपुंसक वेदादि के उपशम के समय में अनिवृत्ति बादर-संपगय होता है । उस समय आवश्यक आदि ग्रंथों के सिवाय . ग्रंथों के मत से दर्शन-त्रिक का बहुत भाग उपशान्त हो जाता है और कुछ भाग अनुपशान्त रहता है, उस कुछ भाग को उपशम करने के साथ ही नपुंसकवेद को उपशांत करने के लिये उपक्रम करता है । इसलिये नपुंसक-वेद के उपशम के समय अनिवृत्ति-बादर-संपराय वाले जीव के केवल दर्शन-मोहनीय की सत्ता ही नहीं है, किन्तु दर्शनमोहनीय का प्रदेशतः उदय भी है । उस उदय की अपेक्षा उस जीव के दर्शन परीषह भी है । इस प्रकार उसके मोहनीय संबंधी आठों परीषह होते हैं । सूक्ष्मसंपराय (दसवें गुणस्थानवर्ती) वाले जीव के यद्यपि मोहनीयकर्म सत्ता में है तथापि वह परीषह का कारण नहीं हैं, क्योंकि उस में मोहनीय का सूक्ष्म उदय भी नहीं है । इमलिय मोहनीयकर्म संबंधी भी परीषह उसके नहीं होता। सूक्ष्म-संपराय वाले जीव के सूक्ष्म-लोम-किट्टिकाओं का उदय है, किन्तु वह परीषह का कारण वहीं होता । क्योंकि लोभनिमित्तक कोई परीषह नहीं बतलाया गया। यदि कोई कथञ्चित् इसका आग्रह करे, तो वह अत्यन्त अल्प होने के कारण उसकी यहां विवक्षा नहीं की गई। आगम में तो समुच्चय रूप से बादर संपराय में मोहनीय के आठों परीषह बतलाये है। नौवें गुणस्थान में आठ परीषह अलग नहीं बतलाये है । बादर संपराय में छठा, सातवा For Personal & Private Use Only Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४.६२ भगवती सूत्र-श. ८-3. ८ सूर्य और उसका प्रकाश . - आदि गुणस्थान भी सम्मिलित होने से बादर-संपराय मोहनीय के आठ परीषह बतलाना उचित ही है। सूर्य और उसका प्रकाश ३६ प्रश्न-जबुद्दीवे णं भंते ! दोवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तसि दूरे य मूले य दीसंति, मज्झतियमुहुत्तसि मूले य दूरे य दीसंति, अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति। ____३६ उत्तर-हंता, गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमण. मुहुत्तंसि दूरे य, तं चेव जाव अस्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीमंति। ३७ प्रश्न-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि . मज्झंतियमुहत्तंसि य अस्थमणमुहत्तंसि य सव्वत्थ समा उच्चत्तेणं ? . ३७ उत्तर-हंता, गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमण. जाव उच्चत्तेणं । ३८ प्रश्न-जइ णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे सूरिया उग्गमणमुहत्तसि, मज्झतियमुहुर्तसि, अस्थमणमुहुत्तंसि य जाव उच्चत्तेणं, से केणं खाइ अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तसि दूरे य मूले य दीसंति, जाव अस्थमणमुहत्तंसि, दूरे य मूले य दीसंति ? ३८ उत्तर-गोयमा ! लेस्सापडिघाएणं उग्गमणमुहत्तंसि दूरे For Personal & Private Use Only Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. ८ उ. ८ सूर्य और उसका प्रकाश १४६३ य मूले य दीसंति. लेस्साभितावेणं मज्झतियमुहुत्तसि मूले य दूरे य दीसंति, लेम्मापडिघाएणं अस्थमणमुहत्तंसि दूर य मूले य दीसंति; से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति; जाव अस्थमण जाव दीसंति । कठिन शब्दार्थ- सूरिया- सूर्य, उग्गमणमहत्तंसि- उदय होने के समय, मज्झतियमहत्तंसि--मध्यान्ह के समय, मूले--निकट, दीसंति-दिखाई देता है, अस्थमणमुहुतंसि-अस्त होत समय, सव्वत्य--सर्वत्र, समाउच्चत्तेणं--समान ऊंचाई पर है, लेस्सापडिघाएणं--तेज के प्रतिघात से, लेस्साभितावेणं-तेज के अभिताप से । . भावार्थ-३६ प्रश्न-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दो सूर्य, उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं ? मध्यान्ह के समय निकट होते हुए भी दूर दिखाई देते हैं ? और अस्त होने के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं ? . ३६ उत्तर-हां, गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दो सूर्य, उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं, इत्यादि । यावत् अस्त समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं । .३७ प्रश्न-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, उदय के समय, मध्यान्ह के समय और अस्त के समय सभी स्थानों पर ऊंचाई में बराबर हैं ? ३७ उत्तर-हां गौतम ! जम्बूद्वीप में रहे हुए दो सूर्य, उदय के समय यावत् सभी स्थानों पर ऊंचाई में बरावर हैं । - ३८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि जम्बूद्वीप में दो सूर्य उदय के समय मध्यान्ह के समय और अस्त के समय, सभी स्थानों पर ऊंचाई में बराबर है, तो ऐसा किस कारण कहते हैं कि जम्बूद्वीप में दो सूर्य उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं, यावत् अस्त के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६४ भगवती सूत्र श. ८ उ. ८ सूर्य और उसका प्रकाश ३८ उत्तर - हे गौतम! लेश्या ( तेज) के प्रतिघात से सूर्य उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं । मध्यान्ह में तेज के अभिताप से पास होते हुए भी दूर दिखाई देते हैं और अस्त के समय तेज के प्रतिघात से दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते हैं । इसलिये हे गौतम ! मैं कहता हूं कि जम्बूद्वीप में दो सूर्य, उदय के समय दूर होते हुए भी निकट दिखाई देते है, यावत् अस्त के समय दूर होते भी निकट दिखाई देते हैं । ३९ प्रश्न - जंबुद्दोवे णं भंते! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं गच्छेति, पडुप्पण्णं खेतं गच्छति, अणागयं खेतं गच्छति ? ३९ उत्तर - गोयमा ! णो तीयं खेत्तं गच्छंति, पडुप्पण्णं खेत्तं गच्छति, णो अणागयं खेत्तं गच्छति । ४० प्रश्न - जंबुद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं ओभासंति, पडुप्पण्णं खेतं ओभासंति, अणागयं खेत्तं ओभासंति ? ४० उत्तर - गोयमा ! णो तीयं खेत्तं ओभासंति, पडुप्पण्णं खेत्तं ओभासंति, णो अणागयं खेत्तं ओभासंति । कठिन शब्दार्थ-तीयं - अतीत ( बीता हुआ), पडुप्पण्णं - प्रत्युत्पन्न ( वर्त्तमान), अणायं - अनागत ( भविष्य ), ओभासंति - प्रकाशित करता है । भावार्थ - ३९ प्रश्न हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, क्या अतीत क्षेत्र की ओर जाते हैं, वर्तमान क्षेत्र की ओर जाते हैं, या अनागत क्षेत्र की ओर जाते हैं ? ३९ उत्तर - हे गौतम ! अतीत क्षेत्र की ओर नहीं जाते, अनागत क्षेत्र की ओर भी नहीं जाते, वर्तमान क्षेत्र की ओर जाते हैं । For Personal & Private Use Only Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ सूर्य और उसका प्रकाश १४६५ ४० प्रश्न-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, अतीत क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, वर्तमान क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, या अनागत क्षेत्र को प्रकाशित करते है ? - ४० उत्तर-हे गौतम ! अतीत क्षेत्र को प्रकाशित नहीं करते और न अनागत क्षेत्र को ही प्रकाशित करते है, वर्तमान क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं । ४१ प्रश्न-तं भंते ! किं पुढे ओभासंति, अपुष्टुं ओभासंति ? ४१ उत्तर--गोयमा ! पुटुं ओभासंति, णो अपुटुं ओभासंति, जाव णियमा छदिसिं। ४२ प्रश्न-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं उज्जोति ? .. ४२ उत्तर-एवं चेव, जाव णियमा छद्दिर्सि, एवं तवेंति, एवं भासंति, जाव णियमा छदिसि । __४३ प्रश्न-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरियाणं किं तीए खेते किरिया कजइ, पडुप्पण्णे खेत्ते किरिया कजइ, अणागए खेत्ते किरिया कजइ ? - ४३ उत्तर-गोयमा ! णो तीए खेत्ते किरिया कजइ, पडुप्पण्णे खेते किरिया कजइ, णो अणागए खेत्ते किरिया कजइ । ... ४४ प्रश्न-सा भंते ! किं पुट्ठा कजइ, अपुट्ठा कजह ? .. ४४ उत्तर-गोयमा ! पुट्ठा कजइ, णो अपुट्ठा कजइ, जाव णियमा छदिसिं। For Personal & Private Use Only Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६६ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ८ सूर्य और उसका प्रकाश कठिन शब्दार्थ-पुट्ठ-स्पर्श हुए, उज्जोवेंति-उद्योतित करता है, तवेंति-तपाता है, किरिया कन्जंति-क्रिया की जाती हैं। ४१ प्रश्न-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, स्पृष्ट क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, या अस्पृष्ट क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं ? ४१ उत्तर-हे गौतम ! वे स्पृष्ट क्षेत्र को प्रकाशित करते हैं, अस्पृष्ट क्षेत्र को प्रकाशित नहीं करते, यावत् नियमा छह दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। ४२ प्रश्न-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में दो सूर्य, अतीत क्षेत्र को उदयोतित करते हैं, इत्यादि प्रश्न । ४२ उत्तर-हे गीतम ! पूर्वोक्त प्रकार से जानना चाहिये । यावत् नियम से छह दिशा को उदयोतित करते हैं । इसी प्रकार ताते हैं । यावत् छह दिशा को नियम से शोभित करते हैं । . ___४३ प्रश्न-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्यों की क्रिया,, क्या अतीत क्षेत्र में की जाती हैं, वर्तमान क्षेत्र में की जाती है अथवा अनागत क्षेत्र में की जाती है ? ४३ उत्तर-हे गौतम ! अतीत क्षेत्र में क्रिया नहीं की जाती और न अनागत क्षेत्र में की जाती है, वर्तमान क्षेत्र में क्रिया की जाती है। .४४ प्रश्न-हे भगवन् ! वे सूर्य स्पृष्ट क्रिया करते हैं, या अस्पृष्ट ? ४४ उत्तर-हे गौतम ! वे स्पृष्ट क्रिया करते हैं, अस्पृष्ट क्रिया नहीं करते, यावत् नियम से छह दिशा में स्पष्ट क्रिया करते हैं। १५ प्रश्न-जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया केवइयं खेतं उड्ढे तवंति, केवइयं खेतं अहे तवंति, केवइयं खेतं तिरियं तवंति ? ___४५ उत्तर-गोयमा ! एगं जोयणसयं उड्ढे तवंति; अहारस जोयणप्तयाई अहे तवंति, सीयालीसं जोयणसहस्साई दोणि तेवढे For Personal & Private Use Only Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्रन्य. ८ उ. ८ सूर्य और उसका प्रकाश १४६७ जोयणसए एक्कवीसं च सहिभाए जोयणस्स तिरियं तवंति । ४६ प्रश्न-अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरपव्ययस्स जे चंदिम-सूरियगहगण-णक्खत्त-तारारूवा ते णं भंते ! देवा किं उड्ढोववष्णगा ? ४६ उत्तर-जहा जोवाभिगमे तहेव गिरवसेसं जाव उक्कोसेणं छम्मासा। ... ४७ प्रश्न-बाहिया णं भंते ! माणुसुत्तररस ? ४७ उत्तर-जहा जीवाभिगमे, जाव इंदट्ठाणे णं भंते ! केवयं कालं उववाएणं विरहिए पण्णत्ते ? गोयमा ! जहण्णेणं एचकं समयं उक्कोमेणं छरमासा । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति.* ॥ अट्ठमसए अट्ठमो उद्देसो समत्तो ॥ ' कठिन शब्दार्थ-सीयालसं-सैतालीस, तेवढे-तिरसठ । भावार्थ-४५ प्रश्न-हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में सूर्य कितने ऊँचे क्षेत्र को तप्त करते हैं, कितने नीचे क्षेत्र को तप्त करते हैं और कितने तिर्छ क्षेत्र को तप्त करते है ? . ४५ उत्तर-हे गौतम ! सौ योजन ऊंचे क्षेत्र को तप्त करते हैं, अठारह सौ (१८००) योजन नीचे क्षेत्र को तप्त करते हैं और सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन तथा एक योजन के साठिया इक्कीस भाग (४७२६३१) तिर्छ क्षेत्र को तप्त करते हैं। . .४६ प्रश्न-हे भगवन् ! मनुष्योत्तर पर्वत के भीतर जो चन्द्र, सूर्य, ग्रह For Personal & Private Use Only Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६८ भगवती सूत्र - श. ८ उ ८ सूर्य और उसकी प्रकाश गण, नक्षत्र और तारा रूप देव हैं, क्या वे उर्ध्वलोक में उत्पन्न हुए हैं ? ४६ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति में कहा गया है, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये । यावत् उनका 'उपपात विरह काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास है,' यहां तक कहना चाहिये । ४७ प्रश्न - हे भगवन् ! मनुष्योत्तर पर्वत के बाहर जो चन्द्रादि देव हैं, वे ऊर्ध्वलोक में उत्पन्न हुए हैं ? ४७ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार जीवाभिगम सूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति में कहा गया है, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । यावत् ' ( प्रश्न ) हे भगवन् ! इन्द्रस्थान कितने काल तक उपपात विरहित कहा गया हैं ? (उत्तर) हे गौतम! जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह मास का विरह कहा गया है । अर्थात् एक इन्द्र के मरण ( च्यवन) के पश्चात् जघन्य एक समय बाद और उत्कृष्ट छह महीने बाद दूसरा इन्द्र उस स्थान पर उत्पन्न होता है। इतने काल तक इन्द्रस्थान उपपात विरहित होता है'- यहाँ तक कहना चाहिये । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं । विवेचन - सूर्य समतल भूमि से आठ सौ योजन ऊँचा है, किन्तु उदय और अस्त के समय देखने वालों को अपने स्थान की अपेक्षा निकट दिखाई देता है । इसका कारण यह है कि उस समय उसका तेज मन्द होता है । मध्यान्ह के समय देखने वालों को अपने स्थान की अपेक्षा दूर मालूम होता है। इसका कारण यह हैं कि उस समय उसका तेज तीव्र होता है । इन्हीं कारणों से सूर्य निकट और दूर दिखाई देता है। अन्यथा उदय, अस्त और मध्यान्ह के समय सूर्य तो समतल भूमि से आठ सौ योजन ही दूर रहता है। यहां पर क्षेत्र के साथ अतीत, वर्तमान और अनागत विशेषण लगाये गये हैं । जो क्षेत्र अतिक्रान्त हो गया है अर्थात् जिस क्षेत्र को सूर्य पार कर गया है, उस क्षेत्र को 'अतिकान्त क्षेत्र' कहते हैं, जिस क्षेत्र में अभी सूर्य गति कर रहा है, उसे 'वर्तमान क्षेत्र' कहते हैं। और जिस क्षेत्र में सूर्य अब गमन करेगा, उस क्षेत्र को 'अनागत क्षेत्र' कहते है। सूर्य अतीत For Personal & Private Use Only Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ प्रयोग और विनमा बन्ध क्षेत्र में गमन नहीं करता क्योंकि वह तो अतिक्रान्त हो चुका है। इसी प्रकार अनागत क्षेत्र में भी गति नहीं करता । किन्तु वर्तमान क्षेत्र में गति करता है । इसी प्रकार अतीत और अनागत तया अस्पष्ट और अनवगाह क्षेत्र को प्रकाशिन, उद्योतित और तप्त नहीं करता, किन्तु वर्तमान, स्पृष्ट और अवगाढ़ क्षेत्र को प्रकाशित, उद्यानित और तप्त करता है अर्थात् इसी क्षेत्र में क्रिया करता है, अतीत, अनागत में नहीं। सूर्य, अपने विमान से मो योजन ऊपर क्षेत्र को प्रकाशित, उद्योनिन और तप्त करते हैं । सूर्य से आठ सौ योजन नीचे समतल भूमि भाग है और वहाँ से हजार योजन नीचे अधोलोक ग्राम है। वहां तक सूर्य प्रकाशित. उद्योतित और तप्त करते हैं । सर्वोत्कृष्ट अर्थात् सबमे बड़ दिन में चक्षु-स्पर्श की अपेक्षा सूर्य ४७२६३१ योजन तक तिरछे क्षेत्र को उद्योतित. प्रकाशित और तप्त करते हैं। इसके पश्चात चन्द्र, मर्य, ग्रह, नक्षत्र, तारा आदि के विषय में प्रश्न किये गये हैं, उनके उत्तर के लिए जीवाभिगम मूत्र की तीसरी प्रतिपत्ति की भलामण दी गई है । वहाँ ज्योतिषी देवताओं का विस्तृत वर्णन है । ॥ इति आठवें शतक का आठवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ शतक ८ उद्देशक प्रयोग और विससा बन्ध १ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! बंधे पण्णत्ते ? . १ उत्तर-गोयमा ! दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा-पओगबंधे य वीससाबंधे य। २ प्रश्न-वीससाबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? २ उत्तर-गोयमा ! दुविहे पण्णते, तं जहा-साईयवीससाबंधे For Personal & Private Use Only Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७० भगवती सूत्र- श. ८ उ. ९ प्रयोग और विस्रसा बन्ध अणाईयवीससाबंधे य। ३ प्रश्न-अणाईयवीससाबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ३ उत्तर-गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-धम्मस्थिकायअण्णमण्णअणाईयवीससावंधे, अधम्मस्थिकायअण्णमण्णअणाईयवीससाबंधे, आगासस्थिकायअण्णमण्णअणाईयवीससाबंधे। ४ प्रश्न-धम्मत्थिकायअण्णमण्णअणाईयवीससाबन्धे णं भंते ! किं देसबन्धे, सव्ववन्धे ? ४ उत्तर-गोयमा ! देसवन्धे, णो सव्वबन्धे । एवं अधम्मत्थिकायअण्णमण्णअणाईयवीससावन्धे वि, एवं आगासत्थिकायअण्णमण्णअणाईयवीससाबन्धे वि। ५ प्रश्न-धम्मस्थिकायअण्णमण्णअणाईयवीससावंधे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? . ५ उत्तर-गोयमा ! सव्वधं । एवं अधम्मस्थिकाए, एवं आगासत्थिकाए वि। कठिन शब्दार्थ-पओगबंधे-जीव के प्रयोग से होने वाला बन्ध, वीससाबंधे-स्वभाव से होने वाला बन्ध, साईयवीससाबंधे-जिसकी आदि हो ऐसा स्वाभाविक बन्ध, सम्वद्धंसर्व काल । भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? १ उत्तर-हे गौतम ! बन्ध दो प्रकार का कहा गया है। यथा-प्रयोग बन्ध और विलसा बन्ध । २ प्रश्न-हे भगवन् ! विनसा बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? For Personal & Private Use Only Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ ९ प्रयोग और वित्रसा बंध २ उत्तर - हे गौतम! विस्रसा बन्ध दो प्रकार का कहा गया है । यथा-सादि विस्रसा बन्ध और अनादि विस्रसा बन्ध । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! अनादि वित्रसा बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! अनादि वित्रता बंध तीन प्रकार का कहा गया है । यथा-धर्मास्तिकाय का अन्योन्य अनादि विस्रमा बन्ध, अधर्मास्तिकाय का अन्योन्य अनादि विस्रसा बन्ध और आकाशास्तिकाय का अन्योन्य अनादि विस्रसा बन्ध । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय का अन्योन्य अनादि विस्रसा बन्ध, क्या देश बन्ध है, अथवा सर्व बन्ध है ? ४ उत्तर - हे गौतम! देश बन्ध है, सर्व बन्ध नहीं । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का अन्योन्य अनादि विस्रसा बन्ध और आकाशास्तिकाय का अन्योन्य अनादि विबन्ध के विषय में भी जानना चाहिये अर्थात् ये भी देश बन्ध हैं, सर्व बन्ध नहीं । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! धर्मास्तिकाय का अन्योन्य अनादि विस्रसा बन्ध कितने काल तक रहता है ? ५ उत्तर - हे गौतम! सर्वाद्धा अर्थात् सभी काल रहता है । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय का अन्योन्य अनादि विस्रसा बन्ध और आकाशास्तिकाय का अन्योन्य अनादि विसा बन्ध भी सर्व काल रहता है । १४७१ ६ प्रश्न - साईयवीससाबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ६ उत्तर - गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा बंधणपचइए, भायणपचइए, परिणामपचइए ७ प्रश्न - से किं तं बंधणपचइए ? ७ उत्तर - बंधणपञ्चइए जं णं परमाणु- पुग्गलदुप्पए सिय-तिप्प For Personal & Private Use Only - Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७२ भगवती सूत्र - श. ८ उ ९ प्रयोग और विस्रमा बंध एसिया जान दसपएसिय-संखे जयएसिय- असंखे जपए सिय- अनंतपएसियाणं खंधाणं वेमायणिद्वयाए, वेमायलुक्खयाए, वेमायणिद्धलुक्खयाए बंधणपञ्चइए णं बंधे समुप्पज्जइ, जहण्णेणं एक्कं समयं उक्को - से असंखेज कालं । सेत्तं बंधणपच्चइए । ८ प्रश्न - से किं तं भायणपच्चइए ? ८ उत्तर - भायणपञ्चइए जं णं जुण्णसुरा· जुण्णगुल-जुण्णतंदुलाणं भायणपच्चइए णं बंधे समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्त, उक्को सेणं संखेज्जं कालं । सेत्तं भायणपच्चइए । ९ प्रश्न - से किं तं परिणामपच्चइए ? ९ उत्तर - परिणामपचइए जं णं अम्भाणं, अम्भस्वखाणं जहा तइयसए जाव अमोहाणं परिणामपचइए णं बंधे समुप्पज्जइ, जहणणं एक्कं समयं उक्कोसेणं छम्मासा । सेत्तं परिणामपचइए । सेत्तं साईयवीससाबंधे । सेत्तं वीससाबंधे । कठिन शब्दार्थ –मायणपच्चइए - भाजन प्रत्ययिक ( आधार विषयक), परिणामपच्चइए - रूपान्तर विषयक, वेमायणिद्धयाए- विषम स्निग्धता से, जुण्णसुरा- पुरानी मदिरा, जुण्णगुल -- पुराना गुड़, अम्माण - अत्र का ( बादलों का ), अग्भरुक्खाणं- अभ्रवृक्षों का । भावार्थ - ६ प्रश्न - हे भगवन् ! सादि विस्रसा बंध कितने प्रकार कहा गया है ? ६ उत्तर - हे गौतम! तीन प्रकार का कहा गया है। यथा-बंधन प्रत्ययिक भाजन प्रत्ययिक और परिणाम प्रत्ययिक | ७ प्रश्न - हे भगवन् ! बंधन प्रत्ययिक सादि विलसा बंध किसे कहते हैं ? For Personal & Private Use Only Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवता सूत्र- श द उ ९ प्रयाग और विस्रसा बंध ७ उत्तर - हे गौतम! परमाणु, द्विप्रदेशिक, त्रिप्रदेशिक यावत् दस प्रदे शिक, संख्यात प्रदेशिक, असंख्यात प्रदेशिक और अनन्त प्रदेशिक पुद्गल स्कन्धों का विषम स्निग्धता द्वारा, विषम रूक्षता द्वारा और विषम स्निग्धरूक्षता द्वारा बंधनप्रत्ययिक बंध होता है, वह जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्य काल तक रहता है। इस प्रकार बंधनप्रत्ययिक बंध कहा गया है । ८ प्रश्न - हे भगवन् ! भाजनप्रत्ययिक सादि विस्त्रसा बंध किसे कहते हैं ? ८ उत्तर - हे गौतम! पुरानी मदिरा, पुराना गुड़ और पुराने चावलों का भाजन- प्रत्ययिक सादि-वित्रता बंध होता है । वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल तक रहता है। यह भाजन- प्रत्ययिक बंध कहा गया है । १४७३ ९ प्रश्न - हे भगवन् ! परिणाम प्रत्ययिक सादि विस्रसा बंध किसे कहते हैं? ९ उत्तर - हे गौतम ! बादलों का अभ्रवृक्षों का यावत् अमोघों ( सूर्य के उदय और अस्त के समय सूर्य की किरणों का एक प्रकार का आकार 'अमोघ' कहलाता है) आदि के नाम तीसरे शतक के सातवें उद्देशक X में कहे गये हैं, - उन सब का परिणाम प्रत्ययिक बंध होता है । वह बंध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक रहता है। इस प्रकार परिणाम प्रत्ययिक बंध कहा गया है । यह सादि-विसा बंध एवं विस्त्रसा बंध का कथन हुआ । विवेचन - जो मन, वचन और कायारूप योगों की प्रवृत्ति से बंधता है, उसे 'प्रयोग बन्ध' कहते हैं। जो स्वाभाविक रूप से बंधता है उसे 'विस्रसा बन्ध' कहते हैं । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय की अपेक्षा विस्रसा बन्ध के तीन भेद कहे गये हैं। धर्मास्तिकाय के प्रदेशों का दूसरे प्रदेशों के साथ जो सम्बन्ध होता है, वह 'देश बन्ध' होता है, किन्तु सर्व-बन्ध नहीं होता । यदि सर्व-बन्ध माना जाय तो एक प्रदेश में दूसरे सभी प्रदेशों का समावेश हो जाने से धर्नास्तिकाय एक प्रदेश रूप ही रह जायगा, किन्तु यह असंगत है । अतः इनका देश-बन्ध ही होता हैं, सर्व-बन्ध नहीं । इसी तरह अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय के विषय में भी समझना चाहिये । स्निग्धता आदि गुणों से परमाणुओं का जो बन्ध होता है, उसे 'बन्धनप्रत्ययिक बन्ध' कहते हैं । X देखो भाग २ ० ७१३ । For Personal & Private Use Only Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७४ भगवती सूत्र - शं. ८ उ ९ प्रयोग और विस्रसा बंध भाजन यानी आधार के निमित्त से जो बन्ध होता है, उसे 'भाजन प्रत्ययिक बन्ध कहते हैं । जैसे-घड़े में रखी हुई पुरानी मदिरा गाढ़ी हो जाती है, पुराना गुड़ और पुराने चावलों का पिण्ड बन्ध जाता है, यह - 'भाजन - प्रत्ययिक बन्ध' कहलाता है । परिणाम अर्थात् रूपान्तर के निमित्त से जो बन्ध होता है । उसे 'परिणाम प्रत्ययिक बन्ध' कहते हैं । .. स्निग्धता और रूक्षता इन गुणों से परमाणुओं का बन्ध होता है । यह बन्ध किस प्रकार होता है, इस विषय में नियम बतलाते हुए कहा है कि समद्धियाए बंधो ण होइ, समलुक्खयाए वि ण होइ । मायनिद्धलक्खत्तणेण, बंधो उ खंधाणं ।। १ ।। निद्धस्स निद्वेण दुयाहियेणं लुक्खस्स लुक्खेण व्याहियेणं । निद्धस्स लुकवेण उवेइ बंधो, जहण्ण वज्जो विसमो समो वा ।। २ ।। अर्थ - समान स्निग्धता में या समान रूक्षता में स्कन्धों का परस्पर बन्ध नहीं होता विषम स्निग्धता और विषम रूक्षता में बंध होता है। स्निग्ध का द्विगुणादि अधिक स्निग्ध के माथ और रूक्ष का द्विगुणादि अधिक रूक्ष के साथ बन्ध होना है । जघन्य गुण को ! छोड़कर स्निग्ध का रूक्ष के साथ सम या विषम बन्ध होता है अर्थात् एक गुण स्निग्ध या एक गुण रूक्ष रूप जघन्य गुण को छोड़कर शेष सम या विषम गुण वाले स्निग्ध अथवा रूक्ष का परस्पर बन्ध होता है । समान स्निग्ध का समान स्मिग्ध के साथ तथा समान रूक्ष का समान रूक्ष के साथ बन्ध नहीं होता । जैसे- एक गुण स्निग्ध का एक गुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता, एक गुण स्निग्ध का दो गुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु तीन गुण स्निग्ध के साथ बन्ध होता है । दो गुण स्निग्ध का दो गुण स्निग्ध के साथ बन्ध नहीं होता, दो गुण स्निग्ध का तीन गुण स्निग्ध के साथ भी बन्ध नहीं होता, किन्तु चार गुण स्निग्ध के साथ बन्ध होता है। जिस प्रकार स्निग्ध के विषय में कहा, उसी प्रकार के विषय में भी जान लेना चाहिये। एक गुण को छोड़कर पर स्थान में स्निग्ध और रूक्ष का परस्पर सम या विषम दोनों प्रकार के बन्ध होते हैं। जैसे कि एक गुण स्निग्ध का एक गुण रूक्ष के साथ बन्ध नहीं होता, किन्तु द्वयादि गुण रूक्ष के साथ बन्ध होता है । दो गुण स्निग्ध का दो गुण रूक्ष के साथ बन्ध होता है । दो गुण स्निग्ध का तीन गुण रूक्ष के साथ भी बन्ध होता है। इस प्रकार सम और विषम दोनों प्रकार के बन्ध होते हैं । For Personal & Private Use Only Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ९ प्रयोग बंध प्रयोग बन्ध १० प्रश्न - से किं तं पओगबंधे । १० उत्तर - पओगबंधे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा - अणाईए वा अपज्जवसिए, साईए वा अपज्जवसिए, साईए वा सपज्जवसिए । तत्य णं जे से अणाईए अपज्जवसिए से णं अट्ठण्हं जीवमज्झपरसाणं, तत्थ वि णं तिन्हं तिन्हं अणाईए अपज्जवसिए, सेसाणं साईए । तत्थ णं जे से साईए अपज्जवसिए से णं सिद्धाणं । तत्थ णं जे से साईए सपज्जवसिए से णं चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहाआलावणबंधे, अल्लियावणबंधे, सरीरबंधे, सरीरप्पओगबंधे । कठिन शब्दार्थ - जीवमज्झपए साणं- जीव के आत्म- प्रदेशों में मध्य के प्रदेश, सेसा - बाकी के आलावणबंधे -आलापन बन्ध ( रस्सी आदि से घास आदि को बाँधना ), अल्लिया. वणबंधे - लाख आदि से दो वस्तु को चिपकाना, सरीरप्प ओगबंधे - शरीर के प्रयोग से बंध होना । १४७५ भावार्थ - १० प्रश्न हे भगवन् ! प्रयोग-बन्ध किसे कहते हैं ? १० उत्तर - हे गौतम! प्रयोग बंध तीन प्रकार का कहा गया है । यथा१ अनादि - अपर्यवसित २ सादि - अपर्यवसित और ३ सादि सपर्यवसित । इनमें से जो अनादि - अपर्यवसित बंध है, वह जीव के मध्य के आठ प्रदेशों का होता है। उन आठ प्रदेशों में भी तीन तीन प्रदेशों का जो बंध है, वह अनादि- अपर्यवसित बंध है, शेष सभी प्रदेशों का सादि बंध है । सिद्ध जीवों के प्रदेशों का सादिअपर्यवसित बंध है। सादि सपर्यवसित बंध चार प्रकार का कहा गया है । यथाआलापन बन्ध, आलीन बन्ध, शरीर बन्ध और शरीर प्रयोग बन्ध । For Personal & Private Use Only \ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७६ भगवती सूत्र - श. ८ उ ९ प्रयोग बध ११ प्रश्न - से किं तं आलावणबंधे ? ११ उत्तर - आलावणबंधे जं णं तणभाराण वा, कटुभाराण वा, पत्तभाराण वा, पलालभाराण वा, वेल्लभाराण वा, वेत्तलया-वागंवरत-रज्जु- वल्लि कुस दव्भमाईएहिं आलावणबंधे समुप्पज्जइ; जहणेणं अतोमुहुत्तं, उक्को सेणं संखेज्जं कालं, सेत्तं आलावणबंधे । कठिन शब्दार्थ - कटुभाराण-काष्ठ का भार, वेल्लभाराण - लताओं का भार, वेतलया - बेंत की लता । भावार्थ- - ११ प्रश्न - हे भगवन् ! आलापन बन्ध किसे कहते हैं ? ११ उत्तर - हे गौतम! घास के भार, लकडी के भार, पत्तों के भार, पलाल के भार और बेल के भार, इन भारों को बेंत की लता, छाल, वरत्रा (मोटी रस्सी), रज्जु ( रस्सी), बेल, कुश और डाभ आदि से बांधना - 'आलापन बन्ध' कहलाता है । यह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल तक रहता है । यह आलापन बन्ध कहा गया है । १२ प्रश्न - से किं तं अल्लियावणबंधे ? १२ उत्तर - अल्लियावणबंधे चउब्विहे पण्णत्ते, तं जहा - लेसणाबंधे, उच्चयबंधे, समुच्चयबंधे, साहणणाबंधे । भावार्थ - १२ प्रश्न - हे भगवन् ! आलीन बंध किसे कहते हैं ? १२ उत्तर - हे गौतम! आलीन बन्ध चार प्रकार का कहा गया है । यथा - १ श्लेषणा बंध, २ उच्चय बंध, ३ समुच्चय बंध और ४ संहनन बंध । For Personal & Private Use Only Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ८ उ. ९ प्रयोग बंध १३ प्रश्न - से किं तं लेसणाबंधे ? १३ उत्तर - लेसणावंधे जं णं कुट्टाणं, कुट्टिमाणं, खंभाणं, पासायाणं, कट्टा, चम्माणं, घडाणं, पडाणं, कडाणं छुहा चिवखल्लसिलेस-लक्ख-महुसित्थमाई एहिं लेसणएहिं बंधे समुप्पज्जह, जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज कालं । सेत्तं लेसणाबंधे । कठिन शब्दार्थ - कुट्ट - शिखर, कुट्टिमा – आँगन की फरसी, खंभाणं--स्तंभ का, पासायाणं प्रासाद (महल) का, कट्ठाणं- लकड़ी का, चम्माणं- चमड़े का पडाणं - कपड़े का कडा-चटाइयों का, छुहा-चूना, चिक्खल्ल-कचरा या कीचड़, सिलेस - श्लेष ( चिकनाई ) मे, लक्ख - लाख, महसित्यसाई - मधुसिक्थ आदि ( मोम आदि चिकने द्रव्यों से ) । भावार्थ--१३ प्रश्न---हे भगवन् ! श्लेषणा बंध किसे कहते हैं ? १३ उत्तर - हे गौतम ! शिखर, कुट्टिम ( फर्श ), स्तम्भ, प्रासाद, काष्ठ, चर्म, घड़ा, कपड़ा, चटाई आदि का चूना, मिट्टी, कर्दम (कीचड़ ) श्लेष ( वज्र लेप), लाख, मोम इत्यादि श्लेषण द्रव्यों द्वारा मो बन्ध होता है, वह 'श्लेषणा बन्ध' कहलाता है । यह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात काल तक रहता है । यह श्लेषणा बंध कहा गया है। १४७७ १४ प्रश्न - से किं तं उच्चयबंधे ? १४ उत्तर - उच्चयबंधे जं णं तणरासीण वा, कट्टरासीण वा, पत्तरासीण वा, तुसरासीण वा, भुसरासीण वा, गोमयरासीण वा, अवगररासीण वा उच्चत्तेणं बंधे समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं संखेज कालं, सेत्तं उच्चयबंधे । कठिन शब्दार्थ - गोमयरासी - गोबर का ढेर, (कंडों का ढेर ) अवगररासी For Personal & Private Use Only Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ प्रयोग बध कचरे का ढेर। ____ भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! उच्चय बंध किसे कहते हैं ? १४ उत्तर-हे गौतम ! तृण राशि, काष्ठ राशि, पत्र राशि, तुष राशि, भूसे का ढेर, उपलों (छाणों) का ढेर और कचरे का ढेर, इन सभी का ऊंचे ढेर रूप से जो बंध होता है, उसको 'उच्चय बंध' कहते हैं। वह जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट संख्येय काल तक रहता है। इस प्रकार उच्चय बंध कहा गया है। १५ प्रश्न-से किं तं समुच्चयबंधे ? . . १५ उत्तर-समुच्चयबंधे ज णं अगड-तडाग-णई-दह-वावी. पुक्खरिणी-दीहियाणं गुंजालियाणं, सराणं, सरपंतियाणं सरसरपंतियाणं, बिलपंतियाणं, देवकुल-सभ-प्पव-थूम-खाइयाणं, परिहाणं, पागार-ट्टालग-चरिय-दार गोपुर-तोरणाणं, पासाय-घर-सरण-लेण-आवणाणं,सिंघाडग-तिय-चउक-चच्चर-चउमुह महापहमाईणं, छुहा-चिवखल्लसिलेससमुच्चएणं बंधे समुप्पज्जइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं । सेत्तं समुच्चयबंधे। __ कठिन शब्दार्थ-अगड-कुआँ, तडाग-तालाब, दह-द्रह, वावी-वापी (बावड़ी) पुक्खरिणी-पुष्करिणी (कमलों से युक्त बावड़ी), दीहियाणं-दीपिका, सराणं-सरोवर का, देवकुलमंदिरों, पव-प्याऊ, थूम-स्तूप, परिहा-परिखा, पागार-किला (कोट), अट्टालग-गढ़ या किले पर का कमरा या कंगूरे, चरिय-गढ़ और नगर के मध्य का मार्ग, दार-दरवाजे, गोपुरनगर द्वार या किले का फाटक, लेण-घर, आवणा-दुकान, सिंघाडग-शृंगाटकाकार मार्ग, महापह-महापथ (राजमार्ग)। भावार्थ-१५ प्रश्न-हे भगवन् ! समुच्चय बंध किसे कहते हैं ? १५ उत्तर-हे गौतम ! कुआं, तालाब, नदी, ब्रह, वापी, पुष्करिणी, दीपिका For Personal & Private Use Only Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ प्रयोग बंध . गुंजालिका, सरोवर, सरोवरों की पंक्ति, बडे सरोवरों की पंक्ति, बिलों की पंक्ति, देवकुल, सभा, प्रपा (प्याऊ) स्तूप, खाई, परिखा, दुर्ग (किला), कंगरे, चरिक, द्वार, गोपुर, तोरण, प्रासाद (महल), घर, शरणस्थान, लेण (घरविशेष), दूकान, शृंगाटकाकार मार्ग, त्रिक मार्ग, चतुष्क मार्ग, चत्वर मार्ग, चतुर्मुख मार्ग और राजमार्गादि का चूना, मिट्टी और वज्र-लेपादि के द्वारा समुच्चय रूप से जो बंध होता है, उसे 'समुच्चय बंध' कहते हैं । उसको स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येय काल की है । इस प्रकार यह समुच्चय बंध कहा गया है। . १६ प्रश्न-से किं तं साहणणाबंधे ? - १६ उत्तर-साहणणाबंधे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-देससाहणणाबंधे य, सम्बसाहणणाबंधे य। कठिन शब्दार्थ-साहणणा-संहनन । भावार्थ-१६ प्रश्न-हे भगवन् ! संहनन बंध किसे कहते हैं ? १६ उत्तर-हे गौतम ! संहनन बध दो प्रकार का कहा गया है। यथादेश संहनन बंध और सर्व संहनन बंध । · १७ प्रश्न-से किं तं देससाहणणाबंधे ? . १७ उत्तर-देससाहणणाबंधे जं णं सगड-रह-जाण-जुग्गगिल्लि-थिल्लि-सीय-संदमाणी-लोही-लोहकडाह-कडुच्छय-आसणसयणखंभ-भंडमत्तोवगरणमाईणं देससाहणणाबंधे समुप्पजइ, जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं । सेत्तं देससाहणणाबंधे । - भावार्थ-१७ प्रश्न-हे भगवन् ! देश संहनन बंध किसे कहते हैं ? - १७ उत्तर-हे गौतम ! गाडी, रथ, यान (छोटी गाडी) युग्यवाहन (दो For Personal & Private Use Only Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८० भगवती सूत्र - श. ८ उ. ९ प्रयोग बंध हाथ प्रमाण वेदिका सहित जम्पान - पालखी), गिल्लि ( हाथी की अम्बाडी), थिल्लि ( पलाण), शिविका ( पालखी), स्यन्दमानी ( वाहन विशेष ), लोढी, लोह का कड़ाह, कुड़छी ( चम्मच), आसन, शयन, स्तम्भ, मिट्टी के बर्तन, पात्र और नाना प्रकार के उपकरण इत्यादि पदार्थों के साथ जो सम्बन्ध होता हैं, उसे देश संहनन बंध कहते है । यह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्येय काल तक रहता है। इस प्रकार यह देश संहनन बंध कहा गया है । १० प्रश्न - से किं तं सव्वसाहणणाबंधे ? १८ उत्तर - सव्वसाहणणाबंधे से णं खीरोदगमाईणं । सेत्तं सव्वसाहणणाबंधे, सेतं साहणणाबंधे, सेत्तं अल्लियावणबंधे । भावार्थ - १८ प्रश्न - हे भगवन् ! सर्व संहनन बंध किसे कहते हैं ? १८ उत्तर - हे गौतम ! दूध और पानी की तरह मिल जाना सर्व संहनन बंध कहलाता है । इस प्रकार सर्व संहनन बंध कहा गया है। यह आलीन बंध का कथन पूर्ण हुआ है । विवेचन - जीव के व्यापार द्वारा जो बंध होता है, वह 'प्रयोग बंध' कहलाता है । १ अनादि-अपर्यवसित, २ अनादि सपर्यवसित, ३ सादि- अपर्यवसित और सादि - सपर्यवसित । इन चार भंगों में से दूसरे भंग में प्रयोग बंध नहीं होता, शेष तीन भंगों से होता है । जीव के असंख्यात प्रदेशों में से मध्य के जो आठ प्रदेश हैं, उनका बंध अनादि - अपर्यवसित है । क्योंकि जब जीव केवली-समुद्घात करता है, तब उसके प्रदेश सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाते हैं । उस समय भी वे आठ प्रदेश तो अपनी स्थिति में ही रहते हैं, उनमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं होता। इसलिये उनका बंध अनादि अपर्यवसित है । उनकी स्थापना इस प्रकार है-नीचे गोस्तनाकार चार प्रदेश हैं और उनके ऊपर चार प्रदेश हैं। इस प्रकार समुदाय रूप से आठ प्रदेशों का बंध । उन आठ प्रदेशों में भी प्रत्येक प्रदेश का अपने पास रहे हुए दो प्रदेशों के साथ और ऊपर या नीचे रहे हुए एक प्रदेश के साथ, इस प्रकार तीन तीन प्रदेशों के साथ अनादि- अपर्यवसित बंध है । शेष सभी प्रदेशों का For Personal & Private Use Only Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - ८ उ. ९ प्रयोग बंध योगी अवस्था तक सादि सपर्यवसित बंध है और सिद्ध जीवों के प्रदेशों का सादि - अपर्यवसित बंध है । सादि सपर्यवसित बंध के चार भेद हैं । यथा-१ आलापन बंध, २ आलीन बंध, ३ शरीर बंध और ४ शरीर प्रयोग बंध । रस्सी आदि से तृणादि को बांधना - 'आलापन बंध' है । लाख आदि के द्वारा एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ के साथ बंध होना 'आलीनबंध' हैं । समुद्घात करते समय विस्तारित और संकोचित जीव प्रदेशों के सम्बन्ध से तेजसादि शरीर प्रदेशों का संबंध होना - 'शरीर बंध' है अथवा समुद्घात करते समय संकुचित हुए आत्मप्रदेशों का सम्बन्ध 'शरीर बंध' है । औदारिकादि शरीर की प्रवृत्ति से शरीर के पुद्गलों को ग्रहण करने रूप बंध 'शरीर प्रयोग बंध' कहलाता है । आलीन बंध के चार भेद कहे गये हैं । यथा - १ श्लेषणा बंध, २ उच्चय बंध, ३ समुच्चय बंध और ४ संहननं बंध। इनका स्वरूप मूल में बतला दिया गया है और मूल पाठ में आये हुए 'गिल्लि, थिल्लि' आदि शब्दों का अर्थ पहले बतला दिया गया है । १४८१ संबंध के दो भेद कहे गये हैं । यथा- देश - संहनन बंध और सर्व संहनन बंध | विभिन्न पदार्थों के मिलने से एक आकार का बन जाना - 'संहनन बंध' है। किसी वस्तु के एक अंश द्वारा किसी अन्य वस्तु का अंशरूप से सम्बन्ध होना 'देश - संहनन बंध' कहलाता है । जैसे पहिया, जुआ आदि विभिन्न अवयव मिलकर गाड़ी का रूप धारण कर लेते हैं । दूध और पानी की तरह तादात्म्यरूप हो जाना -' - 'सर्व संहनन बंध' कहलाता है । शरीर बंध १९ प्रश्न - से किं तं सरीरबंधे ? १९ उत्तर - सरीरबंधेदुविहे पण्णत्ते, तं जहा - पुव्वपओगपच्चइए य पडुप्पण्णपओगपचहए य । २० प्रश्न - से किं तं पुव्वपओगपच्चहए ? २० उत्तर - पुव्वपओगपच्चइए जं णं णेरइयाणं संसारत्थाणं सव्व For Personal & Private Use Only Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ गरीर बंध जीवाणं तत्थ तत्थ तेसु तेसु कारणेसु समोहणमाणाणं जीवप्पएसाणं वंधे समुप्पजइ । सेत्तं पुवपओगपञ्चइए । ___ २१ प्रश्न-से किं तं पडुप्पण्णपओगपञ्चइए ? २१ उत्तर-पडुप्पण्णपओगपञ्चइए जं णं केवलणाणिस्स अण. गारस्स केवलिसमुग्धाएणं समोहयस्स ताओ समुग्घायाओ पडिणियत्तमाणस्स अंतरा मंथे वट्टमाणस्स तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जइ । किं कारणं ? ताहे से पएसा एगत्तीगया भवंति । सेत्तं पडुप्पण्णपओगपच्चड़ए । सेतं सरीरबंधे। कठिन शब्दार्थ-पुस्वप्पओगपच्चइए-पूर्व प्रयोग प्रत्यायक (पहले के प्रयोग सम्बन्धी) पडुप्पण्णपओगपच्चइए-प्रत्युत्पन्न (वर्तमान) प्रयोग प्रत्यायक, संसारत्थाणंसंसार में रहे हुए का, समोहणमाणाणं-समुद्घात करते हुए, पडिणियत्तमाणस्स-पीछे निवृत्त होते हुए, अंतरा-मध्य में, मंथे वट्टमाणस्स-मंथन में प्रवर्तते हुए, एगत्तीगया-एकत्रित । __ भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर बंध कितने प्रकार का कहा गया है ? १९ उत्तर-हे गौतम ! शरीर बंध दो प्रकार का कहा गया है । यथा१ पूर्व-प्रयोग-प्रत्ययिक और २ प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रत्ययिक। २० प्रश्न-हे भगवन् ! पूर्व-प्रयोग-प्रत्ययिक शरीर बंध किसे कहते हैं ? २०.उत्तर-हे गौतम ! जहाँ जहाँ जिन जिन कारणों से समुद्घात करते हुए नरयिक जीवों का और संसारी सभी जीवों के जीव प्रदेशों का जो बंध होता है, उसे 'पूर्व-प्रयोग-प्रत्ययिक बंध' कहते हैं। यह पूर्व-प्रयोगप्रत्ययिक बंध है। २१ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रत्युत्पन्न-प्रयोग-प्रत्ययिक बंध किसे कहते हैं ? २१ उत्तर-हे गौतम ! केवलोसमुद्घात द्वारा समुद्घात करते हुए और समुद्घात से वापिस निवृत्त होते हुए बीच में मन्थानावस्था में रहे हुए केवल For Personal & Private Use Only Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बंध १४८३ ज्ञानी अनगार के तेजस और कार्मण शरीर का जो बंध होता है, उसे 'प्रत्युत्पन्न: प्रयोग-प्रत्ययिक बंध' कहते हैं । (प्र०) तेजस और कार्मण शरीर के बंध का क्या कारण है ? (उ०) उस समय में आत्म-प्रदेशों का संघात होता है, जिससे तेजस और कार्मण शरीर का बंध होता है । इस प्रकार यह प्रत्युत्पन्न-प्रयोगप्रत्ययिक बध कहा गया है । यह शरीर बंध का कथन पूर्ण हुआ। २२ प्रश्न-से किं तं सरीरप्पओगबंधे ? २२ उत्तर-सरीरप्पओगबंधे पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-ओरालियसरीरप्पओगबंधे, वेठब्वियसरीरप्पओगबंधे, आहारगसरीरप्पओगबंधे, तेयासरीरप्पओगबंधे, कम्मासरीरप्पओगबंधे। २३ प्रश्न-ओरालियसरीरप्पओगवंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ___२३ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-एगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे, वेइंदियओरालियसरीरप्पओगबंधे, जाव पंचिं. दियओरालियसरीरप्पओगवंधे। - २४ प्रश्न-एगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कइ. विहे पण्णत्ते ? __ २४ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-पुढविक्काइयएगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे, एवं एएणं अभिलावेणं भेओ जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियसरीरस्स तहा भाणियव्यो, जाव For Personal & Private Use Only Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८४ . भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बंध पजत्तागम्भवक्कंतियमणुस्सपंचिंदिय-ओरालिय-सरीरप्पओगबंधे य, अप्पजत्तागम्भवक्कंतियमणुस्स जाव-बंधे य । कठिन शब्दार्थ-अभिलावेणं-अभिलाप (पाठ) से। भावार्थ-२२ प्रश्न-हे भगवन् ! शरीर-प्रयोग बंध कितने प्रकार का कहा गया है ? २२ उत्तर-हे गौतम ! शरीर-प्रयोग बंध पाँच प्रकार का कहा गया है। यथा-१ औदारिक शरीर प्रयोग बंध, २ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध, ३ आहारक शरीर प्रयोग बंध, ४ तेजस शरीर प्रयोग बंध और ५ कार्मण शरीर प्रयोग बंध। २३ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक शरीर प्रयोग बंध कितने प्रकार का कहा गया है ? २३ उत्तर-हे गौतम ! औदारिक शरीर प्रयोग बंध पांच प्रकार का कहा गया है । यथा-एकेंद्रिय औदारिक शरीर प्रयोग बंध, बेइन्द्रिय औदारिक शरीर प्रयोग बन्ध यावत् पञ्चेन्द्रिय औदारिक शरीर प्रयोग बन्ध । ____२४ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेंद्रिय औदारिक शरीर प्रयोग बन्ध कितने प्रकार का कहा गया है ? __ २४ उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय औदारिक-शरीर प्रयोग-बंध इत्यादि । इस प्रकार इस अभि. लाप द्वारा जिस प्रकार प्रज्ञापना सूत्र के इक्कीसवें 'अवगाहना संस्थान पद' में औदारिक शरीर के भेद कहे गये हैं, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । यावत पर्याप्त गर्भज मनुष्य पञ्चेन्द्रिय औदारिक शरीर प्रयोग-बंध और अपर्याप्त गर्भज-मनुष्य पञ्चेंद्रिय औदारिक शरीर-प्रयोग-बंध तक कहना चाहिये। २५ प्रश्न-ओरालियसरीरप्पओगवन्धे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? For Personal & Private Use Only Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरार वध . १४८५ २५ उत्तर-गोयमा ! वीरिय-सजोग-सहव्वयाए पमायपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च आउयं च पडुच्च ओरालियसरीरप्पओगणामकम्मस्स उदएणं ओरालियसरीरप्पओगबन्धे । २६ प्रश्न-एगिदियओरालियसरीरप्पओगबन्धे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? . २६ उत्तर-एवं चेव,पुढविक्काइयएगिदिय ओरालियसरीरप्पओगवन्धे एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइया, एवं बेइंदिया, एवं तेइंदिया, एवं चउरिदिया। २७ प्रश्न-तिरिक्ख -जोणिय-पंचिंदिय - ओरालिय- सरीरप्पओग. बन्धे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? २७ उत्तर-एवं चे। - २८ प्रश्न-मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पओगबन्धे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? २८ उत्तर-गोयमा ! वीरिय-सजोग-सदब्वयाए पमायपचया जाव आउयं च पडुच्च मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पओगणामकम्मस्स उदएणं० । - कठिन शब्दार्थ-वीरिय-सजोग-सव्वयाए-वीर्य (शक्ति) योग और सद्व्य से, पमायपच्चया-प्रमाद प्रत्ययिक । भावार्थ-२५ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक-शरीर-प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है ? For Personal & Private Use Only Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८६ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बंध २५ उत्तर-हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता और सद्व्यता से, प्रमाद, कर्म, योग, भाव और आयुष्य आदि हेतुओं के और औदारिक-शरीर-प्रयोग. बंध नामकर्म के उदय से औदारिक-शरीर-प्रयोग-बंध होता है। . __२६ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेंद्रिय औदारिक-शरीर-प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है ? . २६ उत्तर-हे गौतम ! पहले कहे अनुसार जानना चाहिये । इस प्रकार यह पृथ्वीकायिक एकेंद्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध है। इसी प्रकार यावत् वनस्पतिकायिक एकेंद्रिय औदारिकशरीरप्रयोगबंध तथा बेइंद्रिय, तेइंद्रिय और चौइंद्रिय औदारिक-शरीर-प्रयोग-बंध तक जानना चाहिये। २७ प्रश्न-हे भगवन् ! तिथंच पंचेन्द्रिय औदारिक-शरीर-प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है। . २७ उत्तर-हे गौतम ! पूर्व कथानुसार जानना चाहिये । २८ प्रश्न-हे भगवन् ! मनुष्य पंचेन्द्रिय औदारिकशरीर-प्रयोगबंध किस कर्म के उदय से होता है ? २८ उत्तर-हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता और सद्व्यता से तथा प्रमाद हेतु से यावत् आयुष्य आश्रित तथा मनुष्य पञ्चेंद्रिय औदारिकशरीरप्रयोग नाम कर्म के उदय से, 'मनुष्य पञ्चेंद्रिय औदारिकशरीरप्रयोग-बंध होता है। २९ प्रश्न-ओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे, सव्वबंधे ? २९ उत्तर-गोयमा ! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि।। ३० प्रश्न-एगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे, सब्वबंधे ? ___ ३० उत्तर-एवं चेव, एवं पुढविकाइया, एवं जाव (प्रश्न)मणुस्स. For Personal & Private Use Only Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ शरीर बन्ध १४८७ पंचिंदियओरालियसरीरप्पओगवंधे णं भंते ! किं देसबंधे, सव्वबंधे ? (उत्तर)गोयमा ! देसबंधे वि, सव्वबंधे वि । भावार्थ-२९ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक-शरीर प्रयोगबंध क्या देशबंध है, या सर्वबंध है ? २९ उत्तर-हे गौतम ! देशबंध भी है और सर्वबन्ध भी है। - ३० प्रश्न-हे भगवन् ! एकेंद्रिय औदारिक शरीर प्रयोग-बन्ध क्या देशबन्ध है, या सर्वबन्ध है ? ३० उत्तर-हे गौतम ! देशबन्ध भी है और सर्वबन्ध भी है। इसी प्रकार यावत् (प्रश्न ) हे भगवन् ! मनुष्य पञ्चेंद्रिय औदारिक शरीर-प्रयोगबन्ध क्या देश-बन्ध है, या सर्वबन्ध है ? (उत्तर) हे गौतम ! देशबन्ध भी है और सर्वबन्ध भी है-यहां तक कहना चाहिये । ३१ प्रश्न-ओरालियसरीरप्पओगवन्धे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? _____३१ उत्तर-गोयमा ! सव्वबन्धे एक्कं समय, देसवन्धे जहण्णेणं एक्कं समयं, उकोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं समयऊणाई। . ३२ प्रश्न-एगिंदियओरालियसरीरप्पओगवन्धे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? . ३२ उत्तर-गोयमा ! सव्ववन्धे एक्कं समयं, देसवन्धे जहण्णेषं एक्कं समयं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं समयऊणाई । ३३ प्रश्न-पुढविकाइयएगिंदियपुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ शरीर बंध ३३ उत्तर-गोयमा ! सब्वबन्धे एक्कं समयं, देसबन्धे जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयऊणाई; एवं सब्बेसि सव्वबन्धो एक्कं समयं, देसबन्धो जेसिं पत्थि वेउब्वियसरीरं तेसिं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समयऊणा कायव्वा । जेसिं पुण अत्थि वेउब्वियसरीरं तेसिं देसवन्धो जहण्णेणं एवकं समयं, उक्कोसेणं जा जस्स ठिई सा समयऊणा कायब्वा, जाव मणुस्साणं देसबन्धे जहण्णेणं एक्कं समय, उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई समयऊणाई। कठिन शब्दार्थ-खुड्डागभवग्गहणं-क्षुल्लक-भव ग्रहण, समयऊणाई-समय कम । भावार्थ-३१ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक-शरीर-प्रयोगबंध कितने काल तक रहता है ? ___३१ उत्तर-हे गौतम ! सर्वबंध एक समय तक रहता है और देशबंध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक समय कम तीन पल्योपम तक रहता है। ३२ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेंद्रिय औदारिक-शरीर-प्रयोग-बंध कितने काल तक रहता है ? ३२ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-बंध एक समय तक रहता है और देशबंध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक समय कम बाईस हजार वर्ष तक रहता है। ३३ प्रश्न-हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक एकेंद्रिय औदारिक-शरीर-प्रयोग बंध कितने काल तक रहता है ? ३३ उत्तर-हे गौतम ! सर्वबंध एक समय तक रहता है और देशबन्ध जघन्य तीन समय कम क्षुल्लक भव पर्यंत और उत्कृष्ट एक समय कम बाईस हजार For Personal & Private Use Only Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ९ शरीर वंध वर्ष तक रहता । इसी प्रकार सभी जीवों का सर्वबन्ध एक समय तक रहता है । देशबन्ध वैक्रिय शरीर वालों को छोड़कर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लकभव तक और उत्कृष्ट जिन जीवों की जितनी आयुष्य स्थिति है, उसमें से एक समय कम तक रहता है। जिनके वैक्रिय शरीर है, उनके देशबन्ध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट जिनका जितना आयुष्य है, उसमें से एक समय कम तक रहता है । इस प्रकार यावत् मनुष्यों में देशबन्ध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक समय कम तीन पल्योपम तक जानना चाहिये । १४८९ ३४ प्रश्न - ओरालियसरीरबंधंतरं णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ ? ३४ उत्तर - गोयमा ! सव्वबंधतरं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उनकोसे तेत्तीमं सागरोवमानं पुव्वकोडिसमयाहियाई; देसवन्धंतरं जहणेणं एक्कं समयं उक्कोमेणं तेत्तीसं सागरोवमाई तिसमयाहियाइं । , ३५ प्रश्न - एगिंदियओरालियपुच्छ । ३५ उत्तर - गोयमा ! सव्ववन्धंतरं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं समयाहियाई, देसवन्धंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । ३६ प्रश्न - पुढविक्काइयएगिंदियपुच्छा | ३६ उत्तर - सव्वबंधतरं जहेब एगिंदियस्स तहेव भाणियव्वं, For Personal & Private Use Only Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९० भगवती सूत्र श. उ. ९ शरीरबंध " देसबंधंतरं जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तिष्णि समया । जहा पुढविक्काइयाणं एवं जाव चउरिंदियाणं वाउचकाइयवज्जाणं, णवरं सव्वबंधंतरं उक्को सेणं जा जस्स ठिई सा समयाहिया कायव्वा । वाउक्काइयाणं सव्वबंधंतरं जहणणेणं खड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्कोसेणं तिष्णि वाससहस्साइं समयाहियाई । देसबंधंतरं जहणेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुत्तं । ३७ प्रश्न - पंचिंदियतिरिक्खजोणियओरालियपुच्छा | ३७ उत्तर - सव्वबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं, उक्को सेणं पुव्वकोडी समयाहिया । देसवंधतरं जहा एगिंदियाणं: तहा पंचिंदिय-तिरिक्खजोणियाणं, एवं मणुस्माण वि णिरवसेसं भाणियव्वं जाव उक्कोसेणं अतोमुहुत्तं । कठिन शब्दार्थ- बंधंतरं - बंध का अन्तर । भावार्थ - ३४ प्रश्न - हे भगवन् ! औदारिक शरीर के बंध का अन्तर कितने काल का होता है ? ३४ उत्तर - हे गौतम! सर्व-बंध का अन्तर जघन्य तीन समय कम क्षुल्ककभव ग्रहण पर्यंत है और उत्कृष्ट समयाधिक पूर्व कोटि और तेतीस सागर है। देश-बंध का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तीन समय अधिक तेतीस सागरोपम है । ३५ प्रश्न - हे भगवन् ! एकेंद्रिय औदारिक-शरीर-बंध का अन्तर कितने काल का है ? ३५ उत्तर - हे गौतम ! इनके सर्व-बंध का अन्तर जघन्य तीन समय For Personal & Private Use Only Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ९ शरीर बंध कम क्षुल्लकभत्र पर्यंत है और उत्कृष्ट एक समय अधिक बाईस हजार वर्ष है । देश बंध का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक है । ३६ प्रश्न - हे भगवन् ! पृथ्वीकायिक एकेंद्रिय औदारिक- शरीर बंध का अन्तर कितने काल का है ? १४९१ ३६ उत्तर - हे गौतम! इनके सर्वबंध का अन्तर जिस प्रकार एकेंद्रिय में कहा गया है, उसी प्रकार कहना चाहिये । देश बंध का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तीन समय का है। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों का कहा गया, उसी प्रकार वायुकायिक जीवों को छोड़कर चतुरिन्द्रिय तक सभी जीवों के विषय में कहना चाहिये । परन्तु उत्कृष्ट सर्व-बंध का अन्तर जिन जीवों की जितनी आयष्य स्थिति हो उससे एक समय अधिक कहनी चाहिए अर्थात् सर्व बंध का अन्तर समयाधिक आयुष्य स्थिति प्रमाण जानना चाहिए । वायुकाय जीवों के सर्व-बंध का अन्तर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लकभव ग्रहण और उत्कृष्ट समयाधिक तीन हजार वर्ष का है । इनके देश बन्ध का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक जानना चाहिए । ३७ प्रश्न - हे भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च औदारिक शरीर बन्ध का अन्तर कितने काल का कहा गया है ? ३७ उत्तर - हे गौतम ! उनके सर्व-बन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लक- भव-ग्रहण और उत्कृष्ट समयाधिक पूर्व कोटि है । देश बन्ध का अन्तर जिस प्रकार एकेन्द्रिय में कहा, उसी प्रकार सभी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इसी प्रकार मनुष्यों में भी समझना चाहिए यावत् 'उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है' - यहां तक कहना चाहिए । ३८ प्रश्न - जीवस्स णं भंते! एगिंदियत्ते, णोएगिंदियत्ते, पुणरवि एगिंदियत्ते एगिंदिय ओरालिय सरीरप्पओगबंधंतरं कालओ For Personal & Private Use Only Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ शरीर बंध . . केवच्चिरं होई। ३८ उत्तर-गोयमा ! सव्ववंधंतरं जहण्णेणं दो खुड्डाइं भवग्गहणाइं तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहरसाइं संखेजवासमभहियाई । देसबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेनवासमभहियाई । __३९ प्रश्न-जीवस्स णं भंते ! पुढविकाइयत्ते, गोपुढविकाइयत्ते, पुणरवि पुढविकाइयत्ते पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधन्तरं कालओ केवच्चिरं होइ ? . ३९ उत्तर-गोयमा ! सव्ववन्धन्तरं जहण्णेणं दो खुड्डाइं भवग्गहणाई तिसमयऊणाई उक्कोलेणं अणंतं कालं-अर्णता उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा-असंखेजा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पोग्गलपरियट्टा आवलियाए. असंखेजइभागो। देसबंधंतरं जहण्णेणं खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं, उनकोसेणं अणतं कालं जाव आवलियाए असंखेजइभागो। जहा पुढविक्काइयाणं एवं वणस्सइकाइयवजाणं जाव मणुस्साणं । वणस्सइकाइयाणं दोष्णि खुड्डाइं एवं चेव, उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं-असंखेजाओ उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेजा लोगा; एवं देसवन्धन्तरं पि उक्कोसेणं पुढविकालो। कठिन शब्दार्थ-पोग्गलपरियट्टा-पुद्गल परावर्तन । For Personal & Private Use Only Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बन्ध भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई जीव एकेंद्रिय अवस्था में है, वह एकेंद्रिय को छोड़कर किसी दूसरी जाति में चला जाय और वहां से पुनः एकेंद्रिय में आवे, तो एकेंद्रिय औदारिक शरीर-प्रयोग-बंध का अन्तर कितने काल का होता है ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-बंध का अन्तर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लक भव और उत्कृष्ट संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है । देशबंध का अन्तर जघन्य एक समय अधिक क्षुल्लकभव तक है और उत्कृष्ट संख्यात वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है। ३६ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई जीव, पृथ्वीकायिक अवस्था में हो, वहां से पृथ्वीकाय के सिवाय अन्य काय में उत्पन्न हो और वहां से वह पुनः पृथ्वीकाय में आवे, तो पश्वीकायिक एकेंद्रिय औदारिक-शरीर-प्रयोग बंध का अन्तर कितने काल का है ? .: ३९ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-बंध का अन्तर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लकभव पर्यंत और उत्कृष्ट काल की अपेक्षा अनन्त काल-अनन्त उत्सपिणी और अवसपिणी है । क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक-असंख्य पुद्गल परावर्तन है। वह पुद्गल परावर्तन आवलिका के असंख्यातवें भाग प्रमाण है अर्थात् आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गल-परावर्तन है । देश-बंध का अंतर. जघन्य समयाधिक क्षुल्लक भव और उत्कृष्ट अनन्त काल यावत् आवलिका के असंख्यातवें भाग के समयों के बराबर असंख्य पुद्गल परावर्तन है। जिस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों का अंतर कहा गया, उसी प्रकार वनस्पतिकायिक जीवों को छोड़कर मनुष्य तक सभी जीवों के विषय में जानना चाहिये । वनस्पतिकायिक जीवों के सर्व-बंध का अंतर जघन्य काल को अपेक्षा तीन समय कम दो क्षुल्लक भव और उत्कृष्ट असंख्य काल-असंख्य उत्सर्पिणी और अव. सर्पिणी तक है । क्षेत्र की अपेक्षा असंख्य लोक हैं। देश-बंध का अन्तर जघन्य समयाधिक क्षुल्लक भव तक है और उत्कृष्ट पृथ्वीकाय के स्थिति काल तक अर्थात् असंख्य उत्सपिणी अवसर्पिणी यावत् असंख्य लोक तक है। For Personal & Private Use Only Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श. ८ उ. ९ शरीर बंध ४० प्रश्न - एएसि णं भंते ! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसवंधगाणं, सव्वबंधगाणं, अबंधगाण य कयरे कपरे - जाव विसेसाहिया वा ? ४० उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सव्व बंधगा, अबन्धगा विसेसाहिया, देसबन्धगा असंखेज्जगुणा । " भावार्थ - ४० प्रश्न - हे भगवन् ! औदारिक शरीर के देश बंधक, सर्वबंधक और अबंधक जीवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक है ? ४० उत्तर - हे गौतम! सबसे थोडे जीव औदारिक- शरीर के सर्व-बंधक हैं, उनसे अबंधक जीव विशेषाधिक हैं और उनसे देश बंधक जीव असंख्यातगुण है। १८६८ विबेचन - शरीर बन्ध के दो भेद कहे गये हैं, उनमें पूर्व प्रयुक्त प्रयोग-वन्ध वेदना कषायादि समुद्घातरूप जीव के व्यापार से होने वाला जीव प्रदेशों का बन्ध होता है अथवा जीव प्रदेशाश्रित तेजस् कार्मण-शरीर का जो बन्ध होता है, उसे 'पूर्व प्रयोग प्रत्ययिक बंध' कहते हैं । वर्तमान काल में केवलीसमुद्घात रूप जीव व्यापार से होनेवाला तैजस और कार्मण शरीर का जो बन्ध है, उसे 'प्रत्युत्पन्न प्रयोग प्रत्ययिक वंध' कहते हैं । शरीर प्रयोग-बंध के औदारिक शरीर प्रयोग-बध आदि पांच भेद कहे गये हैं और औदारिक शरीर के पृथ्वीकायिकादि भेद-प्रभेद कहे गये हैं । औदारिक- शरीर प्रयोग-बन्ध सवीर्यतादि आठ कारणों से होता है । यथा१ सवीयंता - वीर्यान्तराय कर्म के क्षमोपशम से उत्पन्न शक्ति को 'सवीर्यता' कहते हैं । २ सयोगता -- मनोयोगादि का व्यापार । ३ सद्द्रव्यता -- उस प्रकार के पुद्गलादि द्रव्य | ४ प्रमाद । ५ कर्म -- एकेन्द्रियादि जाति नाम कर्म । ६ योग- काय योगादि । ७ भव-तिर्यञ्चादिभव । ८ आयुष्य तिर्यञ्चादि का आयुष्य । इन कारणों से उदय प्राप्त औदारिक शरीर प्रयोग नाम कर्म से औदारिक शरीर प्रयोग बंध होता है । इस पर पूर्वाचार्य ने हवेली का दृष्टान्त देकर समझाया है । यथा १ द्रव्य -- चूना, ईट आदि । २ वीर्य - उपरोक्त पदार्थों को खरीदने में पुरुषार्थं । ३ सयोग - उपरोक्त वस्तुओं का संयोग मिलाना । ४ योग-कारीगर आदि का व्यापार । ५ कर्म - शुभ कर्म का उदय । ६ आयुष्य - हवेली बनानेवाले का आयुष्य पूरा हो, तो हवेली For Personal & Private Use Only Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र. ८ उ. ९ शरीर बंध पूरी बने अन्यया अधूरी रह जाय । ७ भव- जिसमें जैमी शक्ति होती है, वह वैसी हवेली बनाता है, किन्तु मनुष्य के बिना हवेली नहीं बन सकती । ८ काल - तीमरे, चौथे और पांचवें आरे में हवेली बनती है । ये आठ बोल शरीर पर घटाये जाते हैं । १ वीर्य उन पुद्गलों को एकत्रित करना । २ द्रव्य शरीर बनने योग्य पुद्गल । ३ सयोग - मनोयोग के परिणाम । ४ योग- काया काव्यार । ५ कर्म - जिस जीव ने जैसे शुभाशुभ कर्म किये हैं, उसी के अनुसार शुभाशुभ शरीर बनता है । ६ आयुष्य - यदि आयुष्य लम्बा हो, तो शरीर पूरा बनता है, नहीं तो अपर्याप्त अवस्था में ही मरण हो जाता हैं । ७ भव-तियंच और मनुष्य के बिना औदारिक शरीर नहीं बनता। काल-काल के अनुसार जीवों के शरीर की अवगाहना होती है । इस प्रकार औदारिक शरीर का बन्ध उपरोक्त आठ कारणों से होता है । औदारिक शरीर का वध, देश-वन्ध भी होता है और सर्व-बन्ध भी होता है । जिम प्रकार घृतादि से भरी हुई और अग्नि से तपी हुई कड़ाही में जब अपूप ( मालपुआ ) डाला जाता है, तो डालते हो प्रथम समय में वह घृतादि को केवल खींचता है । उस के बाद दूसरे समयों में घृतादि की ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है, उसी प्रकार जीव जब पूर्व शरीर को छोड़ कर दूसरे शरीर को धारण करता है, तत्र प्रथम समय में उत्पत्ति स्थान में रहे हुए शरीर योग्य पुद्गलों को केवल ग्रहण करता है, इसलिए यह सर्व-बन्ध है । उसके बाद द्वितीयादि समयों में शरीर योग्य पुद्गलों को ग्रहण भी करता है और छोड़ता भी है, इसलिए यह देश बन्ध है । इसलिये औदारिक शरीर का सर्व-बन्ध भी होता है और देशबन्ध भी होता है । १४९५ ऊपर मालपुए का दृष्टांत देकर यह बताया है कि सर्वबन्ध एक समय का होता है। जब वायुकायिक जीव अथवा मनुष्यादि वैक्रिय शरीर करके उसे छोड़ देता है, तब छोड़ने के वाद औदारिक शरीर का देशबंध करता है। उसके पश्चात् दूसरे समय में यदि उसका मरण हो जाय तब देशबंध जघन्य एक समय का होता है । औदारिक शरीरधारी जीवों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पत्यापम की होती है । उसमें से प्रथम समय में जीव सर्वबन्धक रहता है, उसके बाद एक समय कम तीन पत्योपम तक देशबंधक रहता है । . एकेन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट स्थिति २२ हजार वर्ष की है । उसमें प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है और उसके बाद एक समय कम २२ हजार वर्ष तक देशबंधक रहता है । पृथ्वी जीव तीन समय की विग्रहगति से उत्पन्न हुआ, तो वह तीसरे For Personal & Private Use Only Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बंध समय में सर्वबंधक होता है। शेष समय में क्षुल्लक-भव प्रमाण अपनी जघन्य आयु पर्यन्त देशबंधक होता है । इसलिये पृथ्वीकायिक जीव के लिये यह कहा गया है कि तीन समय कम क्षुल्लक भव पर्यन्त वह जघन्य देशबंधक होता है । अपनी अपनी काया और जाति में जो छोटे से छोटा भव हो, उसे 'क्षुल्लक भव' कहते हैं । एक मुहूर्त में सूक्ष्म निगोद के ६५५३६ क्षुल्लक भव होते हैं। एक श्वासोच्छ्वास में सत्तरह झाझरा (कुछ अधिक) क्षुल्लक भव होते हैं। ___ पृथ्वीकाय के तो एक मुहूर्त में १२८२ ४ क्षुल्लक भव होते हैं । इत्यादि । अप्काय, तेउकाय, वनस्पतिकाय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का देशबंध जघन्य तीन समय कम क्षुल्लक भव ग्रहण पर्यन्त है । क्योंकि उनमें वैक्रिय-शरीर नहीं होता। उत्कृष्ट देशबंध अप्काय का सात हजार वर्ष, ते उकाय का तीन अहोरात्र, वनस्पतिकाय का दस हजार वर्ष, बेइन्द्रिय का बारह वर्ष. तेइन्द्रिय का ४९ दिन, चतुरिन्द्रिय का छह महीने की स्थिति है, उसमें एक समय कम शेष देशबंध होता है। इस प्रकार जिसकी जितनी स्थिति है, उसमें एक समय कम शेष देशबंध होता है। वैक्रिय-शरीर वालों में देशबध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अपनी अपनी स्थिति में एक समय कम होता है। सर्वबन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम क्षुल्लक भव ग्रहण पर्यन्त है । क्योंकि कोई जीव, तीन समय की विग्रह गति से औदारिक-शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ, तो विग्रहगति के दो समय में अनाहारक रहता है और तीसरे समय में सर्व बन्धक होता है। क्षुल्लक भव तक जीवित रहकर मृत्यु को प्राप्त हो गया और औदारिक-शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हुआ, वहाँ पहले समय में सर्वबन्धक होता है । इस प्रकार सर्वबन्धक का सर्वबन्धक के साथ अन्तर, विग्रहगति के तीन समय कम क्षुल्लक भव होता है। उत्कृष्ट समयाधिक पूर्वकोटि और तेतीस सागरोपम होता है, क्योंकि कोई जीव, अविग्रह गति द्वारा मनुष्य आदि गति में उत्पन्न हुआ, वहाँ प्रथम समय में सर्वबन्धक रहता है । फिर पूर्वकोटि तक जीवित रहकर मृत्यु को प्राप्त हुआ, वहाँ से तेतीस सागरोपम की स्थितिवाला नैरयिक हुआ अथवा अनुत्तर विमानवासी देव हुआ। वहां से च्यवकर तीन समय की विग्रहगति द्वारा औदारिकशरीरधारी जीव हुआ । वहां विग्रह गति में दो समय तक अनाहारक रहता है और तीसरे समय में औदारिक-शरीर का सर्वबन्धक रहता है । अब विग्रह गति में दो समय तक जो अनाहारक रहा था, उनमें से एक समय पूर्वकोटि के सर्वबंधक के स्थान में डाल दिया जाय, तो वह पूर्वकोटि पूर्ण हो जाती है और उसके ऊपर एक समय अधिक बचा हुआ रहता है । इस प्रकार सर्वबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर एक समयाधिक पूर्व-कोटि और For Personal & Private Use Only Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बन्ध १४९७ तेतीम सागरोपम होता है। औदारिक-शरीर के देशबन्ध का अन्तर जघन्य एक समय है, क्योंकि देशबन्धक मर कर अविग्रह गति से उत्पन्न हो गया, तो वहां वह प्रथम समय में तो सर्वबन्धक रहता है और द्वितीयादि समयों में देशबन्धक हो जाता है । इस प्रकार देशबन्धक का देशबन्धक के साथ अन्तर एक समय का है । उत्कृष्ट तीन समय अधिक तेतीस सागरोपम का है । क्योंकि देश बन्धक मर कर तेतीस सागरोपम की स्थिति में नरयिक या देवों में उत्पन्न हो गया। वहाँ से च्यवकर तीन समय की विग्रह गति से आंदारिक-शरीरधारी जीवों में उत्पन्न हो गया। इस प्रकार विग्रह गति में दो समय तक अनाहारक रहा और तीसरे समय में सर्वबन्धक हुआ और फिर देशबन्धक हो गया । इस प्रकार यह देशबन्धक का उत्कृष्ट अन्तर घटित होता है। औदारिक-शरीर बन्ध का यह सामान्य अन्तर कहा गया है। आगे तीन सूत्रों में एकेंद्रिय आदि का कथन करते हुए औदारिक-शरीर-बन्ध का अन्तर विशेष रूप से बतलाया गया है । उपरोक्त रीति मे उन सब का अन्तर घटित कर लेना चाहिये । इसके आगे प्रकारान्तर से औदारिक-शरीर बन्ध का अन्तर बतलाया गया है । कोई एकेंद्रिय जीव, तीन ममय की विग्रह-गति द्वारा उत्पन्न हुआ, तो विग्रह-गति में दो समय अनाहारक रहता है और तीसरे समय में सर्वबन्धक रहता है। फिर तीन समय कम क्षुल्लक भव प्रमाण आयुष्य पूर्ण करके.एकेन्द्रिय के सिवाय बंइन्द्रिय आदि जाति में उत्पन्न हो जाय, और वहाँ भी क्षुल्लक भव की स्थिति को पूर्ण करके अविग्रह गति द्वारा एकेंद्रिय जाति में उत्पन्न हो, तो वहां प्रथम समय में सर्व-बंधक रहता है । इस प्रकार सर्व-बंध का जघन्य अन्तर तीन समय कम दो क्षुल्लक भव होता है । कोई पृथ्वीकायिक जीव, अविग्रह गति द्वारा उत्पन्न हो, तो वहां वह प्रथम समय में सर्व बन्धक होता है। वहां बाईस हजार वर्ष की स्थिति को पूर्ण करके मरकर त्रसकायिक जीवों में उत्पन्न हो जाय। वहां भी संख्यात वर्षाधिक दो हजार सागरोपम की उत्कृष्ट कायस्थिति को पूर्ण कर के फिर एकेंद्रिय जीवों में उत्पन्न हो तो वहां प्रथम समय में वह सर्व-बंधक होता है । इस प्रकार सर्व-बन्ध का उत्कृष्ट अन्तर संख्यात वर्षाधिक दो हजार सागरोपम होता है। यहां यदि सर्व-बन्ध के एक समय कम एकेंद्रिय जीव की उत्कृष्ट भव-स्थिति को सकाय की कायस्थिति में प्रक्षिप्त कर दिया जाय, तो भी संख्यात वर्ष ही होते हैं । क्योंकि संख्यात के भी संख्यात भेद होते हैं । देश-बन्ध का अन्तरं जघन्य एक समय अधिक क्षुल्लक भव है और उत्कृष्ट संख्यात वर्षाधिक दो हजार सागरोपम है । For Personal & Private Use Only Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४९८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ शरीर बंध कोई पृथ्वीकायिक जीव मरकर पृथ्वीकायिक जीवों के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो जाय और वहाँ से मरकर पुनः पृथ्वीकाय में उत्पन्न हो, तो उसके सर्व-बन्ध का अन्तर जघन्य तीन समय कम दो क्षुल्लक भव है । उत्कृष्ट काल की अपेक्षा अनन्त कालअनन्त उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी है अर्थात् अनन्त काल के समयों में उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समयों का अपहार किया जाय अर्थात् भाग दिया जाय, तो अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल होता है । क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक है अर्थात् अनन्त काल के समयों में लोकाकाश के प्रदेशों द्वारा अपहार किया जाय तो अनन्त लोक होते हैं। बनस्पतिकाय की कास्थिति अनन्त काल की है, इस अपेक्षा सर्वबन्ध का उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है । यह अनन्त काल असंख्य पुद्गल-परावर्तन प्रमाण है । दस कोटा-कोटि अद्धा पत्योपमों का एक सागरोपम होता है । दस कोटाकोटि सागरोपमों का एक अवसर्पिणी काल होता है और इतने ही समय का एक उत्सर्पिणी काल होता है । ऐसी अनन्त अवसर्पिणी और उत्सपिणी. का एक पुद्गलपरावर्तन होता है । असंख्य समयों की एक आवलिका होती है, उस आवलिका के असंख्यात समयों का जो असंख्यातवां भाग है, उसमें जितने समय होते हैं. उतने पुद्गल-परावर्तन यहां लिय गये हैं। इनकी संख्या भी असंख्य हो जाती है । क्योंकि असंख्य के भी असंख्य भेद हैं । इसी प्रकार आगे सर्व-बन्ध और देशबन्ध का अन्तर स्वयं घटित कर लेना चाहिये। औदारिक-शरीर के बन्धकों के अल्प-बहुत्व में सब मे थोड़े सर्व-बन्धक जीव हैं, क्योंकि वे उत्पत्ति के समय ही पाये जाते हैं । उनसे अबन्धक. जीव विशेषाधिक हैं । क्योंकि विग्रह-गति में और सिद्ध-गति में जीव अबन्धक होते हैं । वे सर्व-बन्धकों की अपेक्षा विशेषाधिक हैं। उनसे देशबंधक असंख्यात गुणा हैं. क्योंकि देशबन्ध का काल असंख्यात गुणा है । वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध ४१ प्रश्न उब्वियसरीरप्पओग-बंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ४१ उत्तर-गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा-एगिदिय चेउविय For Personal & Private Use Only Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ वैक्रिय गरीर प्रयोग बंध सरीरप्पओगबंधे य पंचेंदियवेउब्वियसरीरप्पओगबंधे य। .४२ प्रश्न-जइ एगिदियवेउब्वियसरीरप्पओगवंधे किं वाउपका. इयएगिदियसरीरप्पओगबंधे, अवाउक्काइयएगिदियसरीरप्पओगबंधे ? ४२ उत्तर-एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउब्वियसरीरभेओ तहा भाणियब्बो, जाव पजत्तासव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पाइयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउव्वियसरीरप्पओगबंधे य, अपजत्तासम्वट्ठसिद्ध-जाव पओगबंधे य । _____४३ प्रश्न-वेरब्बियसरीरप्पओगवंधे णं भंते ! कस्स कम्मरस उदएणं ? ४३ उत्तर-गोयमा ! वीरिय सजोग-सहब्बयाए जाव आउयं वा लद्धि वा पडुच्च वेउब्वियसरीरप्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं वेउब्वियसरीरप्पओगबंधे। . . ४४ प्रश्न-चाउकाइयएगिंदियवेउव्वियसरीरप्पओग पुच्छा। ४४ उत्तर-गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए एवं चेव जाव लदिध पडुच्च वाउक्काइयएगिदियवेउब्विय-जाव- बंधे । भावार्थ-४१ प्रश्न-हे भगवन् ! क्रिय-शरीर प्रयोग:बंध कितने प्रकार का कहा गया है? . ४१ उत्तर-हे गौतम ! दो प्रकार का कहा गया है। यथा-१ एकेन्द्रिय बैंक्रिय-शरीर प्रयोग-बन्धं और २ पंचेन्द्रिय वैक्रिय-शरीर प्रयोग-बन्ध । For Personal & Private Use Only Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०० भगवती सूत्र -- श. ८ उ. ९ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध ४२ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग-बंध है, तो क्या वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रियशरीर प्रयोग-बंध है, अथवा अवायुकायिक एकेन्द्रिय वक्रिय- शरीर प्रयोग-बंध है ? ४२ उत्तर - हे गौतम! इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा, प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें अवगाहना संस्थान पद में बंक्रिय शरीर के भेद कहे गये हैं, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग-बन्ध और अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक बेब पंचेन्द्रिय वक्रिय- शरीर प्रयोग बंध । ४३ प्रश्न - हे भगवन् ! वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? ४३ उत्तर - हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता, सद्द्रव्यता यावत् आयुष्य और लब्धि के कारण तथा वंक्रिय शरीर प्रयोग नाम-कर्म के उदय से वैक्रियशरीर प्रयोग-बन्ध होता है । ४४ प्रश्न - हे भगवन् ! वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग-बन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? ४४ उत्तर - हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता, सद्द्रव्यता यावत् आयुष्य और लब्धि के कारण एवं वायुकायिक एकेन्द्रिय वक्रिय- शरीर प्रयोग नाम कर्म के उदय से, वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय शरीर प्रयोग-बंध होता है । ४५ प्रश्न - रयणप्पभापुढविणेरइय-पंचिंदिय - वेउब्विय सरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदपणं ? ४५ उत्तर - गोयमा ! वीरिय-सजोग-सद्दव्वयाए जाव आउयं वा पडुच्च रयणप्पभापुढवि - जाव बन्धे, एवं जाव अहे सत्तमाए । For Personal & Private Use Only Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. भगवती सूत्र-. ८ उ. ९ वक्रिय गरीर प्रयोग बंध १५०१ ४६ प्रश्न-तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउब्वियसरीर पुच्छा। .. ४६ उत्तर-गोयमा ! वीरिय० जहा वाउकाइयाणं, मणुस्सपंचिंदियवेउब्विय० एवं चेव । अमुरकुमारभवणवासिदेवपंचिंदियवेउब्विय० जहा रयणप्पभापुढविणेरइयाणं, एवं जाव थणियकुमारा, एवं वाणमंतरा, एवं जोइसिया, एवं सोहम्मकप्पोवया वेमाणिया, एवं जाव अच्चुयगेवेजकप्पाईया वेमाणिया अणुतरोववाइयकप्पाईया वेमाणिया एवं चेव । ४७ प्रश्न उब्वियसरीरप्पओगबंधे णं. भंते ! किं देसबन्धे, सव्वबंधे ? . ४७ उत्तर-गोयमा ! देसवन्धे वि, सव्वबंधे वि । वाउकाइयएगिदिय० एवं चेव, रयणप्पभापुढविणेरइया एवं चेव, एवं जाव अणुत्तरोववाइया। ४८ प्रश्न उब्वियसरीरप्पओगबन्धे - पं. भंते ! कालओ केव. चिरं होइ ? - ४८ उत्तर-गोयमा ! सव्वबन्धे जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं दो समया । देसबंधे जहण्णेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई समयऊणाई। ४९ प्रश्न-वाउकाइयएगिदियवेउब्विय पुच्छा। ४९ उत्तर-गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समय, देसबंधे जहण्णेणं For Personal & Private Use Only Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध एक्कं समय, उको सेणं अंतोमुहुत्तं । भावार्थ-४५ प्रश्न-हे भगवन् ! रत्नप्रभावी नरयिक-पंचेन्द्रिय-क्रियशरीर प्रयोगबंध किप्त कर्म के उदय से होता है ? ४५ उत्तर-हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता और सद्व्यता यावत् आयुष्य के कारण एवं रत्नप्रभा पृथ्वी नरयिकपंचेन्द्रिय-बक्रियशरीर नाम कर्म के उदय से, रत्नप्रभा पृथ्वी नरयिक-पंचेन्द्रिय वैक्रियशरीर प्रयोगबंध होता है। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम नरक पृथ्वी तक कहना चाहिये ।। ४६ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यचयोनिक पंचें द्रय-वक्रिय-शरीर प्रयोगबंध किस कर्म के उदय से होता है ? ४६ उत्तर-हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता, सद्रव्यता यावत् आयुष्य और लब्धि के कारण तथा तिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रिय वैक्रिय-शरीर प्रयोग नामकर्म के उदय से होता हैं। इसी प्रकार मनुष्य पञ्चेन्द्रिय क्रिय-शरीर प्रयोगबंध के विषय में भी जान लेना चाहिये । असुरकुमार भवनवासी देव यावत स्तनितकुपार भवनवासी देव, वागव्यन्तर, ज्योतिषी, सौधर्मकल्पोत्पन्नक वैमानिक देव यावत् अच्चुत कल्पोत्पत्रक वैमानिक देव, ग्रंवेयक कल्पातीत वैमानिक देव तथा अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव, इन सबका कथन रत्नप्रभा पृथ्वी के नरयिकों के समान जानना चाहिये। ___ ४७ प्रश्न-हे भगवन् ! क्रिय-शरीर प्रयोग-बन्ध क्या देशबन्ध है या सर्वबन्ध है ? ____४७ उत्तर-हे गौतम ! देशबन्ध भी है और सर्वबन्ध भी है । इसी प्रकार वायुकायिक एकेन्द्रिय वैक्रिय-शरीर प्रयोगवन्ध तथा रत्नप्रभा पृथ्वी नरयिक वैक्रिय-शरीर प्रयोग-बंध से लगाकर यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों तक जानना चाहिये। ४८ प्रश्न-हे भगवन् ! वैक्रिय-शरीर प्रयोगबंध कितने काल तक रहता For Personal & Private Use Only Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बगगती सूत्र-श.. ८ उ ९ शरीर प्रयोग बंध १५०३ : ४८ उत्तर-हे गौतम ! सर्वबंध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट दो समय तक और देशबंध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीस सागरोपम तक रहता है। ४९ प्रश्न-हे भगवन् ! वायुकायिक एकेन्द्रिय वक्रियशरीर प्रयोगबंध कितने काल तक रहता है ? __४९ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-बध एक समय तक और देश-बंध जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त तक रहता है। ५० प्रश्न-रयणप्पभापुढविणेरड्य पुच्छा । ५० उत्तर-गोयमा ! सव्वबंधे एक्कं समयं, देसबंधे जहण्णेणं दसवाससहस्साई तिसमयऊणाई, उनकोसेणं सागरोवमं समयऊणं, एवं जाव अहे सत्तमा, णवरं देसबंधे जस्स जा जहणिया ठिई सा तिसमयऊणा कायव्वा, जाव उक्कोमिया सा समयऊणा । पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मणुस्साण य जहा वाउकाइयाणं, असुरकुमारणागकुमार० जाव अणुत्तरोववाइयाणं जहा णेरइयाणं; णवरं जरस जाठिई सा भाणियब्वा, जाव अणुतरोववाइयाणं सव्ववंधे एक्कं समयं, देसबंधे जहण्णेणं एक्कतीमं सागरोवमाइं तिसमयऊणाई, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयऊणाई। - ५१ प्रश्न-वेउब्वियसरीरप्पओगवंधतरं णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होई। ५१ उत्तर-गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कं समयं, For Personal & Private Use Only Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०४ भगवती मूत्र-श. ८ उ. ६ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध - उक्कोसेणं अणंतं कालं-अणंताओ-जाव आवलियाए असंखेजड़भागो; एवं देसबंधंतरं पि। ५२ प्रश्न-चाउक्काइयवेउव्वियसरीर पुच्छा। ५२ उत्तर-गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अंतोमहत्तं, उपको. सेणं पलिओवमस्स असंखेजइभाग; एवं देसबंधंतरं पि । ५३ प्रश्न-तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउब्वियसरीरप्पओगबंधतरं-पुच्छ। ५३ उत्तर-गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं अतोमुहत्तं, उक्को. मेणं पुवकोडिपहुत्तं; एवं देसबंधतरं पि, एवं मणुसस्स वि। भावार्थ-५० प्रश्न--हे भगवन् ! रत्नप्रभा-पृथ्वी-नरयिक वैक्रियशरीर प्रयोग-बध कितने काल रहता है ? ५० उत्तर-हे गौतम ! सर्व-बन्ध एक समय तक रहता है । देश-बंध जघन्य तीन समय कम दस हजार वर्ष तक तथा उत्कृष्ट एक समय कम एक सागरोपम तक रहता है। इस प्रकार यावत् अधःसप्तम नरक-पृथ्वी तक जानना चाहिये, परंतु जितनी जिसकी जघन्य स्थिति हो, उसमें तीन समय कम जघन्य देश-बंध जानना चाहिये और जिसकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति हो, उसमें एक समय कम उत्कृष्ट देश-बंध जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय तियंच और मनुष्य का कथन वायुकायिक के समान जानना चाहिये। असुरकुमार, नागकुमार यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों का कथन नरयिक के समान जानना चाहिये, परन्तु जिनकी जितनी स्थिति हो, उतनी कहनी चाहिये, यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों का सर्वहंध एक समय तक रहता है और देश-बंध जघन्य तीन समय कम इकत्तीस सागरोपम और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीस सागरोपम तक का होता है। For Personal & Private Use Only Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध १५०५ ५१ प्रश्न-हे भगवन् ! वैक्रिय-शरीर-प्रयोग-बंध का अन्तर कितने काल का होता है ? ५१ उत्तर--हे गौतम ! सर्वबंध का अन्तर जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल-अनन्त उत्सपिणो अवसर्पिणी यावत् आवलिका के असंख्यातवें भाग के समयों के बराबर पुद्गलपरावर्तन तक रहता है। इसी प्रकार देश. बंध का अन्तर भी जान लेना चाहिए। . ५२ प्रश्न-हे भगवन् ! वायुकायिक वैक्रिय शरीर-प्रयोग-बंध का अन्तर कितने काल का होता है ? ५२ उत्तर-हे गौतम! सर्व-बंध का अन्तर जघन्य अंतर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग होता है। इसी प्रकार देशबंध का अन्तर भी जानना चाहिये। ५३ प्रश्न-हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिक पंचेन्द्रिय वैक्रिय-शरीर प्रयोग-बंध का अन्तर कितने काल का होता है ? ५३ उत्तर-हे गौतम! सर्वबंध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट पूर्व-कोटि पृथक्त्व का होता है। इसी प्रकार देश-बंध का अन्तर भी जानना चाहिए और इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी जानना चाहिये । .५४ प्रश्न-जीवस्स णं भंते ! वाउकाइयत्ते, णोवाउकाइयत्ते, पुणरवि वाउकाइयत्ते वाउकाइयएगिदियवेउवियपुच्छा । ५४ उत्तर-गोयमा ! सव्वबन्धन्तरं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अणतं कालं-वणस्सइकालो, एवं देसबन्धन्तरं पि । - ५५ प्रश्न-जीवस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविणेरइयत्ते, णो. रयणप्पभापुढवि०पुच्छा। For Personal & Private Use Only Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०६ भगवती सूत्र-श. = उ. ९ वे क्रिय शरीर प्रयोग बंध .. ५५ उत्तर-गोयमा ! सव्ववन्धन्तरं जहण्णेणं दसवासमहरमाई अंतोमुहुत्तमभहियाई, उक्कोसेणं वणस्सइकालो, देसवन्धन्तरं जहण्णेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो; एवं जाव अहे. सत्तमाए, णवरं जा जस्स ठिई जहणिया सा सव्ववन्धन्तरे जहण्णेणं अंतोमुहुत्तमभहिया कायव्वा, सेसं तं चेव । पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्साण य जहा वाउकाइयाणं; असुरकुमारणागकुमार० जाव सहस्सारदेवाणं एएसिं जहा रयणप्पभापुढविणेरइयाणं, णवरं सव्वबंधंतरे जस्त जा ठिई जहणिया सा अंतोमुहुत्तमभहिया कायव्वा, सेसं तं चेव । ५६ प्रश्न-जीवस्स णं भंते ! आणयदेवत्ते, णोआणय-पुच्छा । ५६ उत्तर-गोयमा! सव्वबंधतरं जहण्णेणं अट्ठारस सागरोवमाइं वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो, देसबंधतरं जहण्णेणं वास हुत्तं, उक्कोसेणं अणंतं कालं-चणस्सइकालो; एवं जाव अच्चुए । णवरं जरस जा ठिई सा सव्वबंधंतरं जहण्णेणं वासपुहत्तमभहिया कायव्वा, सेसं तं चेव । ५७ प्रश्न-गेवेजकप्पाईय-पुच्छा। ५७ उत्तर-गोयमा ! सव्वबंधतरं जहण्णेणं बावीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं अणंतं कालं-वणस्सइकालो। देसबंधतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उनकोसेणं वणस्सइकालो। For Personal & Private Use Only Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ वैक्रिय पारीर प्रयोग बंध १५०७ कठिन शब्दार्थ-वासपुहत्त-वर्षपृथक्त्व (दो वर्ष से नो वर्ष तक) मन्भहिया-अधिक । भावार्थ-५४ प्रश्न-हे भगवन ! कोई जीव, वायुकायिक अवस्था में हो, वहाँ से मरकर वह वायकायिक के सिगय दूसरे काय में उत्पन्न हो जाय और फिर वह वहां से मरकर वायुकायिक जीवों में उत्पन्न हो, तो उस वायुकायिक एकेंद्रिय वैक्रिय-शरीर प्रयोग-बंध का अन्तर कितने काल का होता है ? ५४ उत्तर-हे गौतम ! उमके सर्वबंध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल-वनस्पतिःकाल तक होता है। इसी प्रकार देशबंध का अन्तर भी जान लेना चाहिये। ५५ प्रश्न-हे भगवन् ! कोई जीव, रत्नप्रभा पृथ्वी में नैरयिकपने उत्पन्न होकर, वहां से काल करके रत्नप्रभा पृथ्वी के सिवाय दूसरे स्थानों में उत्पन्न हो और वहां से मरकर पुनः रत्नप्रभा पृथ्वी में नरयिकरूप से उत्पन्न हो, तो उस रत्नप्रभा नैरयिक वैक्रिय-शरीर प्रयोग-बंध का अन्तर कितने काल का होता है ? __ ५५ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-बन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्महर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल होता है। देश-बंध का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल-वनस्पतिकाल का होता है। इसी प्रकार यावत् अधःसप्तम नरक-पृथ्वी तक जानना चाहिये, परन्तु विशेषता यह है कि सर्व-बंध का जघन्य अन्तर जिन नरयिकों की जितनी जघन्य स्थिति हो, उतनी स्थिति से अन्तर्मुहूर्त अधिक जानना चाहिये । शेष सारा कथन पूर्व के समान जानना चाहिये । पंचेंद्रिय तिर्यञ्च योनिक और मनुष्य के सर्व-बन्ध का अन्तर वायकायिक के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार असुरकुमार, नागकुमार यावत् सहस्रार देवों तक, रत्नप्रभा के समान जानना चाहिये, परंतु विशेषता यह है कि उनके सर्व-बंध का अन्तर, जिनकी जितनी जघन्य स्थिति हो, उससे अंतर्मुहूर्त अधिक जानना चाहिये। शेष सारा कथन पूर्व के समान जानना चाहिये। ५६ प्रश्न-हे भगवन् ! आणत देवलोक में देवपने उत्पन्न हुआ कोई जीव, For Personal & Private Use Only Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५०८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध. वहाँ से चव कर आणत देवलोक के सिवाय दूसरे जीवों में उत्पन्न हो और वहां से मर कर पुनः आणत देवलोक में देवपने उत्पन्न हो, तो उस आणत देव वैक्रियशरीर प्रयोग-बंध का अन्तर कितने काल का होता है ? ५६ उत्तर-हे गौतम ! सर्व बंध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट अनन्त काल-वनस्पति काल पर्यंत होता है। देश-बन्ध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट अनंत काल-वनस्पत्तिकाल पर्यंत होता है । इसी प्रकार यावत् अच्युत देवलोक पर्यंत जानना चाहिये, परंतु सर्वबंध का अंतर जघन्य जिसकी जितनी स्थिति हो, उससे वर्ष-पृथक्त्व अधिक जानना चाहिये । शेष सारा कथन पूर्व के समान जानना चाहिये। ५७ प्रश्न-हे भगवन् ! ग्रेवेयक कल्पातीत वैक्रिय-शरीर प्रयोग-बंध का अन्तर कितने काल का होता है ? ५७ उत्तर-हे गौतम ! सर्व बंध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक बाईस सागरोपम का और उत्कृष्ट अनन्त काल-वनस्पति काल पर्यंत होता है। देश-बंध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल पर्यंत होता है। ५८ प्रश्न-जीवस्म णं भंते ! अणुत्तरोववाइय-पुच्छा । ५८ उत्तर-गोयमा ! सव्वबंधंतरं जहण्णेणं एक्कतीसं सागरोवमाइं वासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं संखेजाइं सागरोवमाइं । देसवंधतरं जहण्णेणं वासपुहत्तं, उस्कोसेणं संखेजाइं सागरोवमाई । ५९ प्रश्न-एएसि णं भंते ! जीवाणं वेउब्वियसरीरस्स देसवन्धगाणं, सब्वबन्धगाणं, अबन्धगाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? For Personal & Private Use Only Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ८ उ. ९ वैक्रिय गरीर प्रयोग बंध १५०५ ५९ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा वेउब्वियसरीरस्स सव्व. बन्धगा, देसवन्धगा असंखेजगुणा, अवन्धगा अणंतगुणा। भावार्थ-५८ प्रश्न-हे भगवन् ! अनुत्तरोपपातिक देव वक्रिय-शरीर प्रयोग-बन्ध का अन्तर कितने काल का होता है ? ५८ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-बंध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व अधिक इकत्तीस सागरोपम और उत्कृष्ट संख्यात सागरोपम का होता है । देश-बंध का अन्तर जघन्य वर्ष-पृथक्त्व और उत्कृष्ट संख्यात सागरोपम होता है। _५९ प्रश्न-हे भगवन् ! बैंक्रियशरीर के देशबंधक, सर्वबंधक और अबंधक जीवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक हैं ? ___५९ उत्तर-हे गौतम ! वैक्रिय-शरीर के सर्व-बंधक जीव, सबसे थोडे हैं, उनसे देश-बंधक असंख्यात गुणे हैं और उनसे अबंधक जीव अनन्त गणे हैं। विवेचन-वैक्रिय-शरीर, नौ कारणों से बंधता है। सवीर्यता, सयोगता आदि आठ कारण तो पहले बतला दिये गये हैं, नौवां कारण है-लन्धि । वायुकाय, पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच और मनुप्यों में-इन नौ कारणों से वैक्रिय-शरीर बँधता है । नैरयिक और देवों के आठ कारणों से ही बंधता है। उनमें 'लन्धि' कारण नहीं होती, क्योंकि उन के वैक्रिय-शरीर भवप्रत्ययिक होता है । .. वैक्रिय-शरीर-प्रयोग-बंध के भी दो भेद हैं-देशबंध और सर्वबंध । कोई औदारिक शरीरी जीव, वैक्रिय शरीर बनाते समय प्रथम समय में सर्व-बंधक होकर फिर मृत्यु को प्राप्त होकर देव या नैरयिक हो, तो प्रथम समय में वह सर्वबंध करता है । इसलिये वैक्रिय-शरीर प्रयोग-बंध का सवंबंध उत्कृष्ट दो समय का होता है । औदारिक-शरीरी कोई जीव, वैक्रिय. शरीर करते हुए प्रथम समय में सर्वबंधक होकर दूसरे समय में देश-बंधक होता है और तुरन्त हो मरण को प्राप्त हो जाय, तो देशबंध जघन्य एक समय का होता है । वैक्रिय-शरीर के दंश-बंध की स्थिति समुच्चय जीव में जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीस सागरोपम की होती है । वायुकाय, तिर्यंच-पञ्चेन्द्रिय और. . मनुष्य के देश-बंध की स्थिति जघन्य एक समय की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त की होती है। For Personal & Private Use Only Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१० भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ वैक्रिय शरीर प्रयोग बंध नैरयिक और देवों के वैक्रिय शरीर के देश-बंध की स्थिति जघन्य तीन समय कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक समय कम तेतीम सागरोपम की होती है। औदारिक-शरीरी वायुकायिक कोई जीव, वैक्रिय-गरीर का प्रारम्भ करे और प्रथम समय में सर्व-बंधक होकर मरण को प्राप्त करे, उसके बाद वायुकायिक हो, तो उसे अपर्याप्त अवस्था में वैक्रिय शक्ति उत्पन्न नहीं होती। इसलिये वह अन्तर्मुहूर्त में पर्याप्त होकर वैक्रिय-शरीर करता है, तब सर्व-बंधक होता है । इसलिय सर्व-बंध का जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त होता है । औदारिक-शरीरो वायुकायिक कोई, जीव, वैक्रिय-शरीर करे, तो उसके प्रथम समय में वह सर्वबंधक होता है । इसके बाद देशबंधक होकर मरण को प्राप्त करे और औदारिक शरीरी वायुकायिक में पल्योपम के असंख्यातवां भाग काल बिताकर अवश्य वैक्रिय शरीर करता है। उस समय प्रथम समय में सर्व-बंधक होता है। इसलिय. सर्व बंध का उत्कृष्ट अन्तर पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग होता है। रत्नप्रभा पृथ्वी का दस हजार वर्ष की स्थिति वाला नैरयिक, उत्पत्ति के प्रथम समय में सर्वबंधक होता है। उसके बाद वहां से काल करके गर्भज पंचेंद्रिय में अन्तर्मुहूर्त रहकर फिर रत्नप्रभा पृथ्वी में उत्पन्न होता है. तब प्रथम समय में सर्वबंधक होता है। इसलिये सर्वबंध का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहत अधिक दस हजार वर्ष होता है । आणत कल्प का अठारह सागरोपम की स्थिति वाला कोई देव, उत्पत्ति के प्रथम समय में सर्वबन्धक होता है । वहाँ से चव कर वर्ष-पृथक्त्व आयुष्य पर्यन्त मनुष्य में रह कर फिर उसी आणत कल्प में देव होकर प्रथम समय में सर्ववन्धक होता है । इसलिये सर्ववन्ध का जवन्य अन्तर वर्ष-पृथक्त्व अधिक अठारह सागरोपम का होता है। अनुत्तरोपपातिक देवों में सर्व-बन्ध और देशबन्ध का अन्तर मख्यात सागरोपम है, क्योंकि वहाँ से चव कर जीव, अनन्त काल तक संसार में भ्रमण नहीं करता, अर्थात् अब वह जीव, तेरह भव से अधिक नहीं करता। इसके अतिरिक्त क्रिय-शरीर के देश-बन्ध और सर्व-वन्ध का अन्तर जो ऊपर बतलाया गया है-सुगम है, इसलिये उसकी घटना स्वयं कर लेनी चाहिये । वैक्रिय-शरीर सम्बन्धी अल्प-बहुत्व में बतलाया गया है कि वैक्रिय-शरीर के सर्व बन्धक जीव, सब से थोड़े हैं, क्योंकि उनका काल अल्प है। उनसे देश-बन्धक असंख्यात गुण हैं, क्योंकि उनकी अपेक्षा उनका काल असंख्यात गुण है । उनसे अबन्धक For Personal & Private Use Only Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ६ आहारक शरीर प्रयोग बंध, अनन्तगुण हैं, क्योंकि सिद्ध जीव और वनस्पति- कायिक आदि जीव उनसे अनन्त गुण हैं । ये सव वैक्रिय शरीर के अवन्धक हैं । आहारक- शरीर प्रयोग - बंध ६० प्रश्न - आहारगसरीरप्पओगवन्धे णं भंते ! कविहे पण्णत्ते ? ६० उत्तर - गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते ? ६१ प्रश्न - जड़ एगागारे पण्णत्ते किं मणुस्साहारगसरीरप्पओगबन्धे, अमणुस्ताहारगसरीरप्पओगवन्धे ? ६१ उत्तर - गोयमा ! मणुस्साहारग- सरीर - ओगवंधे, णो अमणुस्पाहारगसरीरप्पओगबंधे । एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इडिटपत्त-पमत्त-संजय सम्मदिट्ठि-पज्जत्त-संखेज्जवासाज्यकम्मभूमियगव्भवक्कं तिय-मणुस्साहारग-सरीरप्पओगबंधे, णो अणिडिटपत्तपमत्त० जाव आहारगसरीरप्पओगबंधे । कठिन शब्दार्थ –एगागारे - एकाकार - एक प्रकार का, इड्डिपत्तपमत्त संजय - ऋद्धि प्राप्त प्रमत्त संयत । भावार्थ - - ६० प्रश्न --हे भगवन् ! आहारक शरीर प्रयोग-बंध कितने प्रकार का कहा गया है ? ६० उत्तर - हे गौतम ! एक प्रकार का कहा गया है । ६१ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि आहारक- शरीर प्रयोग-बंध एक प्रकार का कहा गया है, तो आहारक- शरीर प्रयोग बंध मनुष्यों के होता है, अथवा अमनुयों (मनुष्यों के सिवाय अन्य जीवों) के ? For Personal & Private Use Only १५११ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ आहारक शरीर प्रयोग बंध . ६१ उत्तर-हे गौतम ! मनुष्यों के आहारक-शरीर प्रयोग-बंध होता है, अमनुष्यों के नहीं होता। इस प्रकार इस अभिलाप द्वारा प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें अवगाहना-संस्थान पद में कहे अनुसार कहना चाहिये । यावत् ऋद्धिप्राप्त-प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्त-संख्यात-वर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज मनुष्य के आहारक शरीर प्रयोग-बंध होता है, परंतु अनुद्धिप्राप्त (ऋद्धि को अप्राप्त) प्रमत्तसंयत-सम्यग्दृष्टि-पर्याप्त संख्यात-वर्षायुष्क-कर्मभूमिज-गर्भज मनुष्य को नहीं होता। ६२ प्रश्न-आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्म कम्मरस उदएणं ? ६२ उत्तर-गोयमा ! वीरिय-सजोग-सहव्वयाए जाव लदिधं वा पडुच आहारगसरीरप्पओगणामाए कम्मरस उदएणं आहारगसरीरप्प ओगबंधे। .६३ प्रश्न-आहारगसरीरप्पओगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सव्वबन्धे ? ६३ उत्तर-गोयमा ! देसबन्धे वि, सव्ववन्धे वि । ६४ प्रश्न-आहारगसरीरप्पओगबन्धे णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ ? ६४ उत्तर-गोयमा ! सव्वबन्धे एक्कं समयं, देमवन्धे जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्तं । ६५ प्रश्न-आहारगसरीरप्पओगवन्धंतरं णं भंते ! कालओ For Personal & Private Use Only Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ९ आहारक शरीर प्रयोग बन्ध केवच्चिरं होइ ? ६५ उत्तर - गोयमा ! सव्वबन्धंतरं जहण्णेणं अतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं अनंतं कालं - अनंताओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अनंता लोया-अवड्ट पोग्गलपरियट्टं देणं । एवं देसबन्धंतरं पि । ६६ प्रश्न - एएसि णं भंते ! जीवाणं आहारगसरीरस्स देस बन्धगाणं, सव्वबन्धगाणं, अबन्धगाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ? ६६ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सव्वबन्धगा, देसबन्धगा संखेज्जगुणा, अवन्धगा अनंतगुणा । १५१३ कठिन शब्दार्थ - अवडपोग्गलपरिय-अपार्द्ध पुद्गल-परावर्त । भावार्थ - ६२ प्रश्न - हे भगवन् ! आहारक-शरीर प्रयोग-बंध किस कर्म उदय से होता है ? ६२ उत्तर - हे गौतम! सवीर्यता, सयोगता और सद्द्रव्यता यावत् लब्धि से तथा आहारक- शरीर प्रयोग नाम-कर्म के उदय से आहारकशरीर प्रयोग-बन्ध होता है । ६३ प्रश्न - हे भगवन् ! आहारक- शरीर प्रयोग-बन्ध क्या देश बन्ध होता है, या सर्व-बन्ध ? रहता है ? ६३ उत्तर - हे गौतम ! सर्व-बन्ध भी होता है और देश-बन्ध मी । ६४ प्रश्न - हे भगवन् ! आहारक- शरीर प्रयोग-बन्ध कितने काल तक For Personal & Private Use Only Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र--श. ८ उ. ५ आहारक शरीर प्रयोग बंध wwwww ६४ उत्तर-हे गौतम ! आहारक-शरीर प्रयोग-बन्ध का सर्वबंध एक समय तक होता है और देशबन्ध जघन्य अन्तर्मुहुर्त और उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहर्त तक होता है। ६५ प्रश्न-हे भगनन् ! आहारक-शरीर प्रयोग बन्ध का अन्तर कितने काल का है ? ६५ उत्तर-हे गौतम ! सर्व-बन्ध का अन्तर जघन्य अन्तर्महतं और उत्कृष्ट अनन्तकाल-अनन्त उत्सपिणी अबसर्पिणी होता है । क्षेत्र की अपेक्षा अनन्त लोक-देशोन अर्द्ध पुद्गल परावर्तन होता है। इसी प्रकार देशबन्ध का अन्तर भी जानना चाहिये। ६६ प्रश्न-हे भगवन ! आहारक-शरीर के देशबंधक, सर्वबंधक और अबंधक जीवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य और विशेषाधिक है ? . ६६ उत्तर हे गौतम ! सबसे थोडे जीव आहारक-शरीर के सर्व-बंधक है, उनसे देशबंधक संख्यात गुण हैं और उनपे अबंधक जीव अनन्त गुण हैं। विवेचन-आहारक-शरीर केवल मनुष्यों के ही होता है । मनुष्यों में भी ऋद्धि प्राप्त-प्रमत्त-संयत-सम्यग्दृष्टि संख्यानवर्ष की आयु वाले कर्मभूमि में उत्पन्न गर्भज-मनुष्य को ही होता है । इसका सर्वबन्ध एक समय का ही होता है। देशबन्ध जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूते मात्र ही होता है । इसके बाद वह नियम से औदारिक-शरीर को ग्रहण करता है । उस अन्तर्मुहर्त में प्रथम समय में सर्वबन्ध होता है और उसके बाद देश बन्ध होता है। आहारक-गरीर को प्राप्त हुभा जीव, प्रथम समय में सर्व-बन्धक होता है। उसके बाव अन्तर्मुहूर्त तक आहारक-शरीरी रहकर पुनः औदारिक गरीर को प्राप्त होता है, वहाँ अम्त महन रहने के बाद पुनः संशय मावि की निवृत्ति के लिये उसे आहारका दारीर बनाने का कारण उत्पन्न होने पर, पुनः भाहारक-शरीर बनाता है और उसके प्रथम समय में वह सर्व-बन्धक ही होता है। इस प्रकार सर्व-बंध का अम्मर अन्तर्मुहर्त होता है । इन दोनों अन्तर्मुहतों को एक अन्तर्मुहूत की विवक्षा करके एक अन्तर्मुहूर्त कहा गया है और उत्कृष्ट अन्तर, काल की अपेक्षा अनन्त काल-अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणी और क्षेत्र की अपेक्षा अनन्तलोक-देशोन अपार्ध पुद्गलपरावर्तन होता है । इसी प्रकार देश-बंध का भी अन्तर जानना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ८ उ. ५ आहारक गरीर प्रयोग बंध ५५१५ अल्पवहुत्व-आहारक-शरीर के सर्व-बंधक सबमे थोड़े होते हैं। क्योंकि उनका समय अल्प है । उनसे दंश-बंधक संख्यात गुण होते हैं, क्योंकि देश-बंध का काल वहुत है । वे संख्यात गुण ही होते हैं, असंख्यात गुण नहीं, क्योंकि मनुष्य ही संख्याता है, अतएव आहारक-शरीर के देश-बंधक असंख्यात गुण नहीं हो सकते । अवन्धक उनसे अनन्त गुण होते हैं, क्योंकि आहारक-शरीर मनुष्यों के ही होता है और उनमें भी किन्ही संयत जीवों के ही होता है और उनके भी कदाचित् ही होता है, सर्वदा नहीं । शेष काल में वे स्वयं और सिद्ध जीव तथा वनस्पतिकायिक आदि गंप सभी जांव, आहारक-शरीर के अबन्धक होते हैं, और वे उनसे अनन्त गुण हैं । तैजस्-शरीर प्रयोग-बंध । ६७ प्रश्न-तेयासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? ६७ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं. जहा-एगिदियतेयासरीरप्पओगवंधे, बेईदियतेयासरीरप्पओगबंधे, जाव पंचिंदियतेयासरीरप्पओगबंधे। ६८ प्रश्न-एगिदियतेयासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णते? ६८ उत्तर-एवं एएणं अभिलावेणं भेओ जहा ओगाहणसठाणे, जाप पजतासबट्टसिद्ध-अणुतरोववाइय-कप्पाईयवेमाणिय देवपंचिंदियतेयासरीरप्पभोगधंधे य, अपजत्तासम्वसिद्ध-अणुत्तरोववाइय० जाव बंधे य। ६९ प्रश्न-तेयासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स For Personal & Private Use Only Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५.६ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ तेजस् शरीर प्रयोग बंध उदएणं ? ६९ उत्तर-गोयमा ! वीरिय-सजोग-सहव्वयाए जाव आउयं च पडुच्च तेयासरीरप्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं तेयासरीरप्पओगबंधे। कठिन शब्दार्थ-ओगाहणसंठाणे-अवगाहना संस्थान (प्रज्ञापनासूत्र का इक्कीसवाँ पद)। भावार्थ-६७ प्रश्न-हे भगवन् ! तेजस्-शरीर प्रयोग-बध कितने प्रकार का कहा गया है ? ६७ उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार का कहा गया है । यथा-एकेंद्रिय तेजस्-शरीर प्रयोग-बंध, बेइन्द्रिय तेजस्-शरीर प्रयोग-बंध यावत् पंचेंद्रिय तंजस्शरीर प्रयोगबंध । . ६८ प्रश्न-हे भगवन् ! एकेन्द्रिय तेजस्-शरीर प्रयोग-बंध कितने प्रकार का कहा गया है. ? . ६८ उत्तर-हे गौतम ! इस अभिलाप द्वारा जिस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के इक्कीसवें अवगाहना-संस्थान पद में भेद कहे हैं, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये, यावत् पर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय तेजस-शरीर प्रयोग-बंध और अपर्याप्त सर्वार्थसिद्ध अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत वैमानिक देव पंचेन्द्रिय तेजस् प्रयोग-बंध । ६९ प्रश्न-हे भगवन् ! तेजस्-शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? ६९ उत्तर-हे गौतम ! सवीर्यता, सयोगता और सद्व्यता यावत् आयुष्य-इन आठ कारणों से एवं तेजस्-शरीर प्रयोग नामकर्म के उदय से तेजसशरीर प्रयोग-बन्ध होता है। For Personal & Private Use Only Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ९ तैजस् शरीर प्रयोग बंध ७० प्रश्न - तेयासरीरप्पओगवन्धे णं भंते ! किं देसबन्धे, सव्व बन्धे ? ७० उत्तर - गोयमा ! देसवन्धे, णो सव्वबन्धे । ७१ प्रश्न - तेयासरीरप्पओगबन्धे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं १५१७ होइ ? ७१ उत्तर - गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - अणाइए वा अपज्जवसिए, अणाइए वा सपज्जवसिए । ७२ प्रश्न - तेयासरीरप्पओगबन्धंतरं णं भंते! कालओ केवच्चिरं होइ ? ७२ उत्तर - गोयमा ! अणाइयस्स अपज्जवसियरस णत्थि अंतरं अणाsयस्त सपज्जवलियम्स णत्थि अंतरं । ७३ प्रश्न - एएसि णं भंते ! जीवाणं तेयासरीरस्स देसबन्धयाणं, अबन्धगाण य करे करेहिंतों जाव विसेसाहिया वा ? ७३ उत्तर - गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा तेयासरीरस्स अबन्धगा, देसवन्धगा, अनंतगुणा । भावार्थ - ७० प्रश्न - हे भगवन् ! तेजस्शरीर प्रयोग-बन्ध क्या देशबन्ध होता है, या सर्व-बन्ध होता है ? ७० उत्तर - हे गौतम ! यह देश बन्ध होता है, सर्व-बन्ध नहीं होता । ७१ प्रश्न - हे भगवन् ! तैजसशरीर प्रयोग-बन्ध कितने काल तक रहता है ? ७१ उत्तर - हे गौतम ! तंजस्शरीर प्रयोग बन्ध दो प्रकार का कहा For Personal & Private Use Only Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ तेजस् शरीर प्रयोग बंध गया है । यया-१ अनादि-अपर्यवसित और २ अनादि-सपर्यवसित । ७२ प्रश्न-हे भगवन् ! तेजस्शरीर प्रयोग-बन्ध का अन्तर कितने काल का है ? ७२ उत्तर-हे गौतम ! अनादि-अपर्यवसित और अनादि-सपर्यवसित, इन दोनों प्रकार के तेजसशरीर प्रयोग-बन्ध का अन्तर नहीं है। ७३ प्रश्न-हे भगवन् ! तेजसशरीर के देशबंधक और अबंधक जीवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ७३ उत्तर-हे गौतम ! तेजस् शरीर के अबंधक जीव सबसे थोडे है। उनसे देश-बंधक जीव अनन्त गुण हैं। विवेचन-तेजस्शरीर अनादि है, इसलिये इमका सर्व-बन्ध नहीं होता । अभव्य जीवों के यह तेजस्-शरीर बन्ध अनादिअपर्यवसित है और भव्य जीवों के अनादि-सपयंवसित है । तेजस्शरीर समस्त संसारी जीवों के सदा रहता है, इसलिये इमका अन्तर नहीं है। - अल्पयन्व - तेजस्-शरीर के अबंधक मबसे थोड़ हैं, क्योंकि सिद्ध जीव और १४ वें गुणस्थान वाले जीव ही तेजस्-शरीर के अवंधक हैं। उनसे देशबन्धक अनन्त गुण हैं । क्योंकि तेजस्-शरीर समस्त संसारी जीवों के होता है और संसारी जीव मिद्धों से अनन्तगुण हैं । कार्मण-शरीर प्रयोग बन्ध ७४ प्रश्न-कम्मासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कइविहे पण्णते ? ७४ उत्तर-गोयमा ! अट्टविहे पण्णत्ते, तं जहा-णाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगबंधे, जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पओगबंधे । ७५ प्रश्न-णाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं? For Personal & Private Use Only Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ९ कार्मण शरीर बंध ७५ उत्तर - गोयमा ! णाणपडिणीययाए, णाणणिण्हवणयाए, णाणंतरापणं, णाणप्पओसेणं, णाणञ्चासायणयाए, णाणविसंवायणाजोगेणं, णाणावर णिज्जकम्मासरीरप्पओगणामाए कम्मरस उदपणं णाणावरणिजकम्मासरीरप्पओगबंधे । कठिन शब्दार्थ - णाणपडिणीययाए- ज्ञान की प्रत्यनीकता (विरोध) से, नानजिन्ह बणयाए - ज्ञान का अपलाप करने से, गाणंतराएणं ज्ञान में वाधक बनने से, नागप्पओसेणंज्ञान का द्वेष करने से, णाणच्चासायणयाए- ज्ञान की अत्यंत आशातना करने से, णाणविसंवायणाजोगेणं-ज्ञान के विसंवाद के योग से । भावार्थ - ७४ प्रश्न - हे भगवन् ! कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध कितने प्रकार का कहा गया है ? ७४ उत्तर- हे गौतम! आठ प्रकार का कहा गया है । यथा-ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग-बंध यावत् अन्तराय-कार्पण-शरीर प्रयोग-बंध । ७५ प्रश्न- हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है ? १५१९ ७५ उत्तर - हे गौतम! ज्ञान की प्रत्यनीकता (विपरीतता ) करने से, ज्ञान का अपलाप करने, ज्ञान में अन्तराय देने, ज्ञान का द्वेष करने, ज्ञान की आशातना करने, ज्ञान के विसंवादन योग से और ज्ञानावरणीय कार्मण- शरीर. प्रयोग नामकर्म के उदय से, ज्ञानावरणीय कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध होता है । ७६ प्रश्न - दरिसणावर णिजकम्मा सरीरप्पओमधे णं भंते ! करस कम्मस्स उदपणं ? ७६ उत्तर - गोयमा ! दंसणपडिणीययाए, एवं जहा णाणावर - णिज्जं, णवरं दंसणणामं घेत्तव्वं, जाव दंसणविसंवायणाजोगेणं दंसणा For Personal & Private Use Only Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...१५२०... भगवती सूत्र-श. ८ उ. . कार्मण शरीर प्रयोग बंध वरणिजकम्मासरीरप्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं जाव पओगवंधे । कठिन शब्दार्थ-घेतट्वं - ग्रहण करना चाहिये । भावार्थ-७६ प्रश्न-हे भगवन् ! दर्शनावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है ? ७६ उत्तर-हे गौतम ! दर्शन को प्रत्यनीकता से, इत्यादि जिस प्रकार ज्ञानाबरणीय के कारण कहे हैं, उसी प्रकार दर्शनावरणीय के भी जानना चाहिये, किन्तु 'ज्ञानावरणीय' के स्थान में-'दर्शनावरणीय' कहना चाहिये यावत् दर्शनविसंवादन योग और दर्शनावरणीय कार्मण शरीर-प्रयोग नामकर्म, के उदय से दर्शनावरणीय कामण शरीर प्रयोग-बंध होता है। ७७ प्रश्न-सायावेयणिज्ज कम्मासरीरप्पओगवंधे गं भंते ! करम कम्मस्स उदएणं ? ७७ उत्तर-गोयमा ! पाणाणुकंपयाए, भूयाणुकंपयांए, एवं जहा सत्तमसए दुस्समाउद्देसए जाव अपरियावणयाए सायावेयणिज कम्मासरीरप्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं सायावेयणिजकम्मा० जाव बंधे । ७८ प्रश्न-असायावेयणिज-पुच्छा। ७८ उत्तर-गोयमा ! परदुक्खणयाए, परमोयणयाए, जहा सत्तमसए दुस्समाउद्देसए, जाव परियावणयाए असायावेयणिजकम्मा० जाव पओगवंधे। ..... कठिन शब्दार्थ-पाणाणुकंपयाए-प्राणियों पर अनुकंपा करने से, भपरियावणयाएपरिताप नहीं. उत्पन्न करने से, परसोयणयाए-दूसरे को शोक कराने से। भावार्थ-७७ प्रश्न-हे भगवन् ! साता-वेदनीय कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध For Personal & Private Use Only Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ कार्मण परीर प्रयोग बंध १५२१ किस कर्म के उदय से होता है ? __७७ उत्तर-हे गौतम ! प्राणियों पर अनुकम्पा करने से, मतों (चार स्थावरों) पर अनुकम्पा करने से इत्यादि, जिस प्रकार सातवें शतक के छठे उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये यावत् प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों को परिताप नहीं उपजाने से और साता-वेदनीय कार्मण-शरीर प्रयोग नानकर्म के उदय से साता-वेदनीय कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध होता है। . ७८ प्रश्न-हे भगवन् ! असातावेदनीय कार्मणशरीर प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है ? ७८ उत्तर-हे गौतम ! दूसरे जीवों को दुःख देने, उन्हें शोक उत्पन्न करने से, इत्यादि जिस प्रकार सातवें शतक के छठे उद्देशक में कहा है, उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये, यावत् उन्हें परिताप उपजाने और असातावेदनीय कार्मणशरीर-प्रयोग नामकर्म के उदय से असातावेदनीय कार्मण-शरीर प्रयोगबंध होता है। ७९ प्रश्न-मोहणिज्जकम्मासरीर-पुच्छा। - ७९ उत्तर-गोयमा ! तिव्वकोहयाए, तिव्वमाणयाए, तिब्वमाय. याए, तिव्वलोभयाए, तिव्वदंसणमोहणिज्जयाए, तिव्वचरित्तमोहणिजयाएं मोहणिजकम्मासरीरप्पओग० जाव पओगबंधे । . भावार्थ-७९ प्रश्न-हे भगवन् ! मोहनीय कार्मण-शरीर प्रयोग बंध किस कर्म के उदय से होता है ? | ... ७६ उत्तर-हे गौतम ! तीव्रक्रोध करने से, तीव्र मान करने से, तीव्र माया करने से, तीव्र लोभ करने से, तीव्र दर्शन-मोहनीय से, तीव चारित्र-मोहनीय से और मोहनीय कार्मण-शरीर-प्रयोग-नामकर्म के उदय से-मोहनीय-कार्मण. शरीर प्रयोग-बंध होता है । For Personal & Private Use Only Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-श. ८ उ. ९ कार्मण शरीर प्रयोग बंध ८० प्रश्न-णेरइयाउयकम्मासरीर-पुच्छा। ८० उत्तर-गोयमा ! महारंभयाए, महापरिग्गयाए, कुणिमाहारेणं, पंचिंदियवहेणं णेरड्याउयकम्मासरीरप्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं णेरइयाउयकम्मासरीर० जाव पओगवन्धे । ८१ प्रश्न-तिरिक्खजोणियाउयकम्मासरीर-पुच्छा। ८१ उत्तर-गोयमा ! माइल्लयाए, णियडिल्लयाए, अलियवयणेणं कूडतुल-कूडमाणेणं तिरिक्खजोणियाउयकम्मा० जाव पओगबन्धे। . . ८२ प्रश्न-मणुस्साउयकम्मासरीर-पुच्छा। ८२ उत्तर-गोयमा ! पगइभद्दयाए, पगइविणीययाए, साणुको. सणयाए, अमच्छरियाए मणुस्साउयकम्मा० जाव पओगबन्धे । ८३ प्रश्न-देवाउयकम्मासरीर-पुच्छा। . ८३ उत्तर-गोयमा ! सरागसंजमेणं, मंजमासंजमेणं, बालतवोकम्मेणं, अकामणिजराए देवाउयकम्मासरीर० जाव पओगबन्धे । कठिन शब्दार्थ-कुणिमाहारेणं-कुणिम अर्थात् मांस खाने से, माइल्लयाए-माया करने से, णियडिल्लयाए-गूढ़ माया (कपट) करने से, अलियवयणेणं-झूठ बोलने से, कडतुलकुडमाणेणं-खोटे तोल-नाप करने से, पगहभद्दयाए-प्रकृति की भद्रता से, पगइविणीययाए-स्वभाव से विनीत होने से, साणक्कोसणयाए-दयालता से, अमच्छरियाए-मारमर्य रहित होने से, संजमासंजमेणं-श्रावक व्रत का पालन करने से, अकामणिज्जराए-मिथ्यात्व युक्त निर्जरा से, बालतवोकम्मेणं-अज्ञान तप-कर्म से । For Personal & Private Use Only Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ कार्मण शरीर प्रयोग बन्ध १५२३ भावार्थ-८० प्रश्न-हे भगवन् ! नरकायष्य कार्मण-शरीर-प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है ? . ८. उत्तर-हे गौतम! महारम्भ से, महापरिग्रह से, मांसाहार करने से, पंचेन्द्रिय जीवों का वध करने से और नरकायुष्य कार्मण शरीर-प्रयोग नाम-कर्म के उदय से नरकायष्य कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध होता है। ८१ प्रश्न-हे भगवन ! तियंचयोनिक-आयुष्य कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है ? . ८१ उत्तर-हे गौतम ! माया करने से, गढ माया करने से, झूठ बोलने से, खोटा तोल खोटा माप करने से और तियंच-योनिक आयुष्य कार्मण-शरीर प्रयोगनाम कर्म उदय से तियंचयोनिक आयुष्य कार्मण-शरीर प्रयोगबन्ध होता है । ८२ प्रश्न-हे भगवन् ! मनुष्यायुष्य कार्मण-शरीर प्रयोगबंध किस कर्म के उदय से होता है ? ८२ उत्तर-हे गौतम ! प्रकृति की भद्रता से, प्रकृति की विनीतता से, दयालुता से, अमत्सरभाव से और मनुष्यायष्य कार्मणशरीर प्रयोग नामकर्म के उदय से मनुष्यायुष्य कार्मणशरीर प्रयोगबन्ध होता है। .८३ प्रश्न-हे भगवन् ! देव आयुष्य कार्मणशरीर प्रयोगबंध किस कर्म के उदय से होता है ? - ८३ उत्तर-हे गौतम ! सरागसंयम से, संयमासंयम (देश विरति) से, अज्ञान तप करने से, अकामनिर्जरा से और देवायुष्य कार्मण शरीर-प्रयोग नामकर्म के उदय से देवायुष्य कार्मण शरीर प्रयोगबन्ध होता है। ८४ प्रश्न-सुभणामकम्मासरीर-पुच्छा ? ... ८४ उत्तर-गोयमा काउज्जुययाए, भावुज्जुययाए, भासुज्जुययाए, अविसंवायणजोगेणं सुभणामकम्मासरीर० जाव पओगबंधे । ८५ प्रश्न-असुभणामकम्मासरीर-पुच्छ ? For Personal & Private Use Only Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ कामण शरीर प्रयोग बंध ८५ उत्तर-गोयमा ! कायअणुज्जुययाए, जाव' विसंवायणा: जोगेणं असुभणामकम्मासरीर० जाव पओगबन्धे । कठिन शब्दार्थ-काउज्जयाए-काया (शरीर) को मरलता से, कायअणुज्जुययाएकाया की वक्रता से। भावार्थ-८४ प्रश्न-हे भगवन् ! शुभनाम कार्मण शरीर प्रयोग-बंध किस . कर्म के उदय से होता है ? ८४ उत्तर-हे गौतम ! काया को सरलता से, भाव को सरलता से, भाषा को सरलता से और अविसंवादन योग से तथा शुभनाम कामण-शरीरप्रयोग नामकर्म के उदय से शुभनाम कार्मण-शरीर प्रयोग बंध होता है। ८५ प्रश्न-हे भगवन् ! अशुभ नाम कार्मण शरीर प्रयोग-बन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? ८५ उत्तर-हे गौतम ! काया की वक्रता से, भाव की वक्रता से, भाषा की वक्रता से, विसंवादन योग से और अशुभनाम कार्मण शरीर-प्रयोग नामकर्म . के उदय से अशुभनाम कार्मण शरीर प्रयोग-बंध होता है। ८६ प्रश्न-उच्चागोयकम्मासरीर-पुच्छा ? ८६ उत्तर-गोयमा ! जाइअमएणं, कुलअमएणं, बलअमएणं, रूवअमएणं, तवअमएणं, सुयअमएणं, लाभअमएणं, इस्सरियअमएणं, उच्चागोयकम्मासरीर० जाव पओगबंधे । ८७ प्रश्न–णीयागोयकम्मासरीर-पुच्छ । ८७ उत्तर-गोयमा ! जाइमएणं, कुलमएणं, बलमएणं जाव इस्सरियमएणं, णीयागोयकम्मासरीर० जाव पओगबन्धे । ____ कठिन शब्दार्थ-जाइअमएण-जानि का मद नहीं करने से, इस्सरियअमएण-ऐश्वर्य का मद नहीं करने से। For Personal & Private Use Only Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ९ कार्मण शरीर प्रयोग बंध १५२५ भावार्थ-८६ प्रश्न-हे भगवन् ! उच्च गोत्र कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है? ८६ उत्तर-हे गौतम ! जाति-मद, कुल-मद, बलमद, रूपमद, तपमद, श्रुतमद, लाभमद और ऐश्वर्यमद, ये आठ मद न करने से तथा उच्चगोत्र कार्मणशरीरप्रयोग नाम-कर्म के उदय से उच्चगोत्र कार्मणशरीर प्रयोगबन्ध होता है। ८७ प्रश्न हे भगवन् ! नीचगोत्र कार्मणशरीर प्रयोग-बन्ध किस कर्म के उदय से होता है ? ८७ उत्तर-हे गौतम ! जातिमद. कुलमद, बलमद यावत् ऐश्वर्यमद-- ये आठ मद करने से तथा नौचगोत्र कार्मण-शरीर-प्रयोग नामकर्म के उदय से नीचगोत्र कार्मण-शरीर बन्धता है। ८८ प्रश्न-अंतराइयकम्मासरीर-पुच्छा । ८८ उत्तर-गोयमा ! दाणंतराएणं, लाभंतराएणं, भोगंतराएणं, उवभोगंतराएणं वीरियंतराएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पओगणामाए कम्मस्स उदएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पओगबन्धे । . भावार्थ-८८ प्रश्न--हे भगवन् ! अन्तराय कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध किस कर्म के उदय से होता है ? ८८ उत्तर-हे गौतम ! दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय से तथा अन्तराय-कार्मण-शरीर प्रयोग नामकर्म के उदय से अन्तराय-कार्मण शरीर-प्रयोग-बन्ध होता है। ८९ प्रश्न-णाणावरणिज-कम्मा-सरीरप्पओगबन्धे णं भंते ! किं देसबन्धे, सबबन्धे ? ८९ उत्तर-गोयमा ! देसबन्धे, णो सब्वबन्धे, एवं जाव अंत For Personal & Private Use Only Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र श८ उ. ९ कार्मण शरीर प्रयोग बंध राइयं । ९० प्रश्न - णाणावर णिजकम्मासरीरप्पओगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिचरं होइ ? ९० उत्तर - गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - अणाईए एवं जहा तेयगस्स संचिणा तहेव, एवं जाव अंतराइयस्स । ९१ प्रश्न - णाणावरणिजकम्मा सरीरप्पओग बंधन्तरं णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? ९१ उत्तर - गोयमा ! अणाईयस्स एवं जहा तेयगसरीरस्स अंतरं तहेव, एवं जाव अंतराइयस्स । ९२ प्रश्न - एएसि णं भंते! जीवाणं णाणांवर णिज्जरस कम्मस्स देसबन्धगाणं, अबन्धगाण य कयरे कयरे० जाव ? ९२ उत्तर - अप्पा बहुगं जहा तेयगस्स, एवं आउयवज्जं जाव अंतराइयस्स । भावार्थ- - ८९ प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कार्मण-शरीर प्रयोग बंध देश-बंध है या सर्व-बंध ? ८९ उत्तर - हे गौतम । देशबंध है, सर्व-बंध नहीं । इसी प्रकार पावत् अन्तराय कार्मण शरीर प्रयोग-बंध तक जानना चाहिये । .९० प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध कितने काल तक रहता है ? ९० उत्तर - हे गौतम ! ज्ञानावरणीय कार्मण शरीर प्रयोग बंध दो प्रकार का कहा गया है । यथा - १ अनादिअपर्यवसित और अनादिसपर्यवसित । जिस For Personal & Private Use Only Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-ग. ८ उ. ९ कामेण शरीर प्रयोग बंध प्रकार तेजस् शरीर का स्थितिकाल कहा, उसी प्रकार यहाँ भी कहना चाहिये । यावत् अन्तराय कर्म के स्थिति काल तक कहना चाहिये । ९१ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध का अन्तर कितने काल का होता है। ___ ९१ उत्तर-हे गौतम ! अनादिअपर्यवसित और अनादिसपर्यवसित । ज्ञानावरणीय कार्मण-शरीर प्रयोगबंध का अन्तर नहीं होता। जिस प्रकार तेजस्शरीर प्रयोग-बंध के अन्तर के विषय में कहा गया, उसी प्रकार यहां भी समझना चाहिये, यावत् । अन्तराय कार्मण-शरीर प्रयोग-बंध के अन्तर तक जानना चाहिये। ९२ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञानावरणीय कर्म के देश-बंधक और अबंधक जीवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ९२ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार तेजस्-शरीर का अल्पबहुत्व कहा, उसी प्रकार कहना चाहिये। इसी प्रकार आयुष्य-कर्म के सिवाय यावत् अन्तरायकर्म तक कहना चाहिये। ९३ प्रश्न-आउयस्स पुच्छा। ९३ उत्तर-गोयमा ! सव्वत्थोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स देमबंधगा, अवंधगा संखेजगुणा । भावार्थ-९३ प्रश्न-हे भगवन् ! आयुष्यकर्म के देश-बंधक और अबंधक जीवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है। . ९३ उत्तर- गौतम ! आयुष्य-कर्म के देशबंधक जीब, सब से धोरे हैं, उससे अबंधक जीव संख्यात गुण है। विवेचन-आठ प्रकार के कर्मों के पिण्ड को कार्मणशरीर कहते हैं। उसके जानावरणीय आदि आठ भेद कहे गये हैं । ज्ञानावरगीय और दर्शनावरणीय कर्म बन्ध के For Personal & Private Use Only Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ कार्मण शरीर प्रयोग बन्ध जो कारण बतलाये गये हैं, उनमें ज्ञान और ज्ञानीपुरुष तथा दर्शन और दर्शनीपुरुष की प्रत्यनीकता (प्रतिकूलता) आदि समझना चाहिये । अर्थात् ज्ञान और ज्ञानी की प्रत्यनीकता आदि कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है । इसी प्रकार दर्शन और दर्शनी पुरुष की प्रत्यनीकता आदि से दर्शनावरणीय कर्म बंधता है । ज्ञान प्रत्यनीकता आदि छह कारणों से ज्ञानावरणीय कर्म बंधता है और दर्शन प्रत्यनीकता आदि छह कारणों से दर्शनावरणीय कर्म बँधता है। साता-वेदनीय कर्म दस प्रकार से और असातावेदनीय कर्म बारह प्रकार से बंधता है । मोहनीय कर्म, तीव्र क्रोधादि छह कारणों से बँधता है । आयुष्य कर्म के चार भेद हैं । उनमें से नरकायु महारम्भ, महापरिग्रह पंचेन्द्रिय वध और मांसाहार-इन चार कारणों से बँधता है । माया करने से, गूढ माया करने से, असन्य बोलने से और खोटा तोल-माप करने से तिर्यञ्चायु का बंध होता है। प्रकृति की भद्रता से, प्रकृति की विनीतता से, दया-भाव रखने से और अमत्सर-भाव से मनुष्याय का बन्ध होता है। सरागसंयम, देशसंयम, बालतप और अकाम-निर्जरा से देवायु का बन्ध होता है । शुभ नाम-कर्म चार कारणों से और अशुभ नाम-कर्म चार कारणों से बंधता है । जाति, कुल, बल आदि आठ बातों का मद करने से नीचगोत्र बँधता है । और इन आठ बातों का मद नहीं करने से उच्च गोत्र बंधता है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में अन्तराय डालने से अन्तराय कर्म बंधता है। ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों का देशबन्ध होता है, सर्वबन्ध नहीं । देशबन्ध के अनादि अपर्यवसित और अनादि सपर्यवसित ये दो भेद हैं । इन दोनों का अन्तर नहीं है । - अल्प-बहुत्व:-आयु कर्म को छोड़कर शेष ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के अबन्धक जीव सब से थोड़े हैं । और उनसे देशबन्धक अनन्त गुण हैं । आयुष्य कर्म के देशबन्धक सब से थोड़े हैं और अबन्धक उनसे संख्यात गुण है। क्योंकि आयुष्य बन्ध का समय बहुत थोड़ा है और अबन्ध का समय उससे बहुत गुणाधिक है। शंका-आयु-बन्ध समय की अपेक्षा अबंध का समय बहुत गुण अधिक है, तो फिर आयुष्य-कर्म के अबंधक असंख्यात गुण क्यों नहीं कहे गये ? क्योंकि अबंध का समय असंल्यात जीवितों अपेक्षा असंख्यात गुण है। . समाधान-उपरोक्त सूत्र अनन्त-कायिक जीवों की अपेक्षा है । वहाँ अनन्त-कायिक जीव संख्यातजीवित ही हैं, उनमें आयुष्य के अबंधक देश-बंधकों से संख्यात गुण ही होते For Personal & Private Use Only Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगगवथी सूत्र - श. ८ उ. ९ शरीर बंध का पारस्परिक सम्बन्ध हैं । यद्यपि सिद्ध जीव-जो आयुष्य के अबंधक हैं, को भी यदि इसमें मम्मिलित कर लिया जाय, तो भी वे देश बंधकों से संख्यात गुण ही होते | क्योंकि सिद्ध आदि अबंधक अनन्त जीव भी अनन्तकायिक आयु-बन्धक जीवों के अनन्तवें भाग ही होते हैं । शंका- जब जीव आयुष्य-कर्म के अबंधक रहते हैं और फिर जिस ममय में बंधक होते हैं, उस समय में उन्हें सर्व बन्धक क्यों न कहा जाय ? समाधान - जिस प्रकार आदारिक-शरीर को बांधते समय जीव प्रथम समय में शरीर योग्य मन्त्र पुद्गलों को एक साथ खींचता है, उस प्रकार अविद्यमान सारी आयु प्रकृति को नहीं बांधता, इसलिये आयुकर्म का सर्व-बन्ध नहीं होता । शरीर बन्ध का पारस्परिक सम्बन्ध ९४ प्रश्न - जम्स णं भंते ! ओरालियमरीरस्स सव्वबन्धे से णं भंते ! वेउव्वियसरीरस्स किं बन्धए, अवन्धए ? ९४ उत्तर - गोयमा ! णो बन्धए, अबन्धए । ९५ प्रश्न - आहारगसरीरस्स किं बन्धए अवन्धए ? ९५ उत्तर - गोयमा ! णो बन्धए अवन्धए । ९६ प्रश्न - तेयासरीरस्स किं बंधए, अबन्धए ? ९६ उत्तर - गोयमा ! बंधए, णो अबन्धए । ९७ प्रश्न - जइ बन्धए किं देसबंध सव्वबंधए ? ९७ उत्तर - गोयमा ! वन्धए, जो सबन्धए । १५२९ ९८ प्रश्न - कम्मासरीरस्स किं बंधए, अबंधए ? ९८ उत्तर - जहेव तेयगस्स, जाव देसबंधए, णो सव्वबंधए । For Personal & Private Use Only Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३० भगवती सूत्र-श ८ उ. ९ शरीर बंध का पारस्परिक सम्बन्ध ९९ प्रश्न-जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरस्स देसबंधे, से णं भंते ! वेउव्वियसरीरस्स किं बंधए, अबंधए ? ९९ उत्तर-गोयमा! णो बंधए, अबन्धए । एवं जहेव मन्वबंधेणं भणियं तहेव देसबंधेण वि भाणियव्वं जाव कम्मगस्स । ___१०० प्रश्न-जस्स णं भंते ! वेउब्वियसरीरस्म सव्वबंधे मेणं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए, अबन्धए ? ___ १०० उत्तर-गोयमा ! णो बन्धए, अवंधए। आहारगसरीरस्म एवं चेव, तेयगस्स कम्मगस्स य जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियब्बं जाव देसबन्धए, णो सब्ववन्धए । ____१०१ प्रश्न-जस्स णं भंते ! वेरब्वियसरीरस्म देसबंधे से णं भंत ! ओरालियसरीरस्म किं बन्धए, अबंधए ? १०१ उत्तर-गोयमा ! णो वन्धए. अबंधए । एवं जहेव सव्वबन्धेणं भणियं तहेव देसबन्धेण वि भाणियव्वं जाव कम्मगस्स । - १०२ प्रश्न-जस्स णं भंते ! आहारगमरीरस्स मव्वबन्धे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बन्धए, अवन्धए ? ____१०२ उत्तर-गोयमा ! णो वन्धए, अबन्धए । एवं वेउव्वियस्स वि, तेया-कम्माणं जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियब्वं । १०३ प्रश्न-जस्स णं भंते ! आहारगसरीररस देसबधे से गं For Personal & Private Use Only Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-दा. ८ उ. ५ गरार वध का पारम्परिक सम्बन्ध १५३१ भंते ! ओरालियमरीरस्स० ? - १०३ उत्तर-एवं जहा आहारगस्म सम्बवन्धेणं भगायं तहा देसबन्धेण वि भाणियव्वं, जाव कम्मगस्स । १०४ प्रश्न-जस्म णं भंते ! तेयासरीरस्स देसबन्धे मे णं भंते ! ओरालियमरीरस्म किं वन्धए, अवन्धए ? १०४ उत्तर-गोयमा ! बन्धए वा, अवन्धए वा ? १०५ प्रश्न-जइ बन्धए किं देसबन्धए, सव्वबन्धए ! १०५ उत्तर-गोयमा ! देसबन्धए वा, सव्वबन्धए वा । . १०६ प्रश्न-वेउब्वियसरीरस्स किं बंधए, अवन्धए ? १०६ उत्तर-एवं चेव, एवं आहारगसरीरस्स वि । १०७ प्रश्न-कम्मगसरीरस्स किं बन्धए, अबन्धए ? १०७ उत्तर-गोयमा ! बन्धए, णो अबन्धए ? ...१०८ प्रश्न-जइ बन्धएं किं देसवन्धए, सव्वबन्धए ? १०८ उत्तर-गोयमा ! देसवन्धए, णो सव्ववन्धए । १०९ प्रश्न-जस्स णं भंते ! कम्मगसरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स० ? ... १०९ उत्तर-जहा तेयगस्स वत्तन्वया भणिया तहा कम्मगस्स वि भाणियव्वा, जाव तेयासरीरस्स जाव देसबंधए, णो सव्वबंधए । ... कटिन शब्दार्थ-वत्तव्यया-वक्तव्यता (कधन ) जहेव-जिस प्रकार, तहेव-उसी प्रकार। For Personal & Private Use Only Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ शरीर बन्ध का पारस्परिक सम्बन्ध भावार्थ-९४ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस जीव के औदारिक शरीर का सर्व-बंध है, क्या वह जीव वैक्रिय-शरीर का बन्धक है, या अबन्धक है ? ९४ उत्तर-हे गौतम ! वह बन्धक नहीं, अबन्धक है । ९५ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक-शरीर का सर्व-बन्धक जीव, आहारकशरीर का बन्धक है, या अबन्धक ? ९५ उत्तर-हे गौतम ! वह बन्धक नहीं, अबन्धक है। . ९६ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक-शरीर का सर्वबन्धक जीव, तेजस्शरीर का बन्धक है, या अबन्धक ? ... ९६ उत्तर-हे गौतम ! वह बंधक है, अबंधक नहीं। ९७ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह तेजस्-शरीर का बन्धक है, तो क्या देश-बन्धक है, या सर्व-बन्धक है ? ९७ उत्तर-हे गौतम ! वह देश-बन्धक है, सर्व-बन्धक नहीं। ९८ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक-शरीर का सर्व-बन्धक जीव, कार्मणशरीर का बन्धक है, या अबन्धक ? ९८ उत्तर-हे गौतम ! तेजस-शरीर के समान वह यावत् कार्मण-शरीर का देश बन्धक है, सर्व-बन्धक नहीं। ९९ प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक-शरीर का देश-बन्धक जीव, वैक्रिय शरीर का बन्धक है, या अबन्धक है ? ___९९ उत्तर-हे गौतम ! वह बन्धक नहीं, अवन्धक है। जिस प्रकार सर्व-बन्धक का कहा, उसी प्रकार देश-बन्धक के विषय में भी यावत् कार्मण शरीर तक कहना चाहिये । १०० प्रश्न-हे भगवन् ! वैक्रिय-शरीर का सर्व-बन्धक जीव, औदारिकशरीर का बन्धक है, या अबन्धक ? १०० उत्तर-हे गौतम ! वह बंधक नहीं, अबंधक है। इसी प्रकार आहारक शरीर के विषय में भी जानना चाहिये । तेजस् और कार्मण For Personal & Private Use Only Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. ९ शरीर बंध का पारस्परिक सम्बन्ध शरीर के विषय में जिस प्रकार औदारिक-शरीर के साथ कथन किया है, उसी प्रकार वैक्रिय शरीर के साथ भी कहना चाहिये यावत् वह देश बन्धक है, सर्वबन्धक नहीं । १०१ प्रश्न - हे भगवन् ! वैक्रिय शरीर का देश बन्धक जीव औदारिकशरीर का बन्धक है या अबन्धक ? १०१ उत्तर - हे गौतम ! वह बन्धक नहीं, अबन्धक है। जिस प्रकार क्रिय शरीर के सर्व-बन्ध के विषय में कहा, उसी प्रकार देश बन्ध के विषय में भी यावत् कार्मण शरीर तक कहना चाहिये । १०२ प्रश्न - हे भगवन् ! आहारक शरीर का सर्व बन्धक जीव, औदारिक शरीर का बन्धक है या अबन्धक ? १५३३ १०२ उत्तर - हे गौतम! वह बन्धक नहीं, अबन्धक है । इसी प्रकार - शरीर के विषय में भी जानना चाहिये । तेजस् और कार्मण-शरीर के के विषय में औदारिक-शरीर के विषय में कहा, उसी प्रकार आहारक- शरीर के विषय में भी कहना चाहिये । १०३ प्रश्न - हे भगवन् ! आहारक- शरीर का देश बन्धक जीव, क्या औदारिक- शरीर का बन्धक है या अबन्धक ? १०३ उत्तर - हे गौतम! जिस प्रकार आहारक- शरीर के सर्व-बन्ध के विषय में कहा, उसी प्रकार देशबंधक के विषय में भी कहना चाहिये यावत् कार्मणशरीर तक कहना चाहिये । १०४ प्रश्न - हे भगवन् ! तंजस्-शरीर का देश बन्धक जीव, औदारिकशरीर का बन्धक है या अबन्धक ? १०४ उत्तर - हे गौतम ! वह बन्धक भी है और अबन्धक भी । १०५ प्रश्न - हे भगवन् ! यदि वह औदारिक-शरीर का बंधक है, तो देश -बंधक है या सर्व-बंधक ? १०५ उत्तर - हे गौतम ! वह देशबंधक भी है और सर्वबंधक भी । १०६ प्रश्न-हे भगवन् ! तेजस्- शरीर का बंधक जीव, वक्रिय- शरीर For Personal & Private Use Only Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. ५ शरीर बंध का पारस्परिक सम्बन्ध .. का बन्धक है या अबन्धक ? ... १०६ उत्तर-हे गौतम ! पूर्व कथनानुसार जानना चाहिये । इसी प्रकार आहारक-शरीर के विषय में भी जानना चाहिये । १०७ प्रश्न-हे भगवन् ! तंजस्-शरीर का बंधक जीव, कार्मण-शरीर का बंधक है या अबंधक ? १०७ उत्तर-हे गौतम ! वह बंधक है, अबंधक नहीं। १०८ प्रश्न-हे भगवन् ! यदि वह कार्मण शरीर का बंधक है, तो देश- . बंधक है या सर्व-बन्धक ? १०८ उत्तर-हे गौतम ! वह देश-बन्धक है, सर्व-बन्धक नहीं। १०९ प्रश्न-हे भगवन् ! कार्मण-शरीर का देश-बन्धक जीव, औदारिक शरीर का बन्धक है या अबन्धक ? . १०९ उत्तर-हे गौतम! जिस प्रकार तेजस-शरीर का कथन किया है, उसी प्रकार कार्मण-शरीर का भी कहना चाहिये यावत् वह तेजस शरीर का देश-बन्धक है, सर्व-बन्धक नहीं। विवेचन-औदारिक और वैक्रिय, इन दोनों शरीरों का एक साथ बंध नहीं होता, इसी प्रकार औदारिक और आहारक, इन दोनों शरीरों का भी एक साथ बंध नहीं होता। इसलिये औदारिक-शरीर-बंधक जीव, वैक्रिय और आहारक का अबंधक होता है । औदारिक-शरीर के साथ तेजस् और कार्मण का विरह कभी नहीं होता । इसलिय वह इनका देश-बंधक होता है । इन दोनों शरीरों का सर्वबंध तो होता. ही नहीं.। तेजस्-शरीर का देश-बंधक जीव, औदारिक शरीर का बंधक भी होता है और अबंधक भी । इसका तात्पर्य यह है कि विग्रह-गति में वह अबंधक होता है तथा वैक्रिय में हो या आहारक में हो तब भी वह औदारिक का अबंधक ही रहता है और शेष समय में बंधक होता है । उत्पत्ति के प्रथम समय में सर्व-बंधक होता है और द्वितीय आदि समयों में देश-बंधक होता है। इसी प्रकार कार्मण-शरीर का भी समझना चाहिये। . शेष. शरीरों के साथ बंधक, अबंधक आदि का कथन सुगम है, उसे स्वयं घटित कर लेना चाहिये। For Personal & Private Use Only Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-. ८ 3. ९ बंधकों का अल्पबहत्व बंधकों का अल्पबहुत्व ११० प्रश्न-एएसि णं भंते । तव्वजीवाणं ओरालिय-वेउव्वियआहारग-तेया-कम्मासरीरगाणं देसबंधगाणं सव्वबंधगाणं अबंधगाण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेमाहिया वा ? ११० उत्तर-गोयमा ! मबत्थोवा जीवा आहारगसरीस्स सव्वबंधगा, तस्स चेव देसबंधगा मखेजगुणा । वेउब्वियसरीरस्स सव्वबन्धगा असंखेजगुणा, तस्स चेव देसवन्धगा असंखेजगुणा । तेया-कम्मगाणं अबन्धगा अणंतगुणा दोण्ह वि तुल्ला । ओरालियसरीरस्स सव्ववन्धगा अणंतगुणा, तस्स चेव अबन्धगा विसेसाहिया, तस्स चेव देसवन्धगा असंखेजगुणा । तेया-कम्मगाणं देसबन्धगा विसेसाहिया, वेउब्बियसरीरस्स अवन्धगा विसेसाहिया, आहारगमरीरस्म अबन्धगा विमेसाहिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ अठ्ठमसए नवमो उद्देसो समत्तो ॥ • कठिन शब्दार्थ-दोह-दोनों का।। . भावार्थ-११० प्रश्न-हे भगवन् ! औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस् और कार्मण शरीर के देशबन्धक, सर्वबन्धक और अबन्धक-इन सब जीवों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है ? For Personal & Private Use Only Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र---ग. ८ उ. ५. बंधको का अल्पवहत्व ११० उत्तर-हे गौतम ! (१) सबसे थोडे जीव, आहारक-शरीर के सर्व बन्धक हैं। (२) उनसे आहारक-शरीर के देश बन्धक संख्यात गुण है। (३) उनसे वैक्रिय शरीर के सर्व बन्धक असंख्यात गुण हैं। (४) उनसे वैक्रियशरीर के देशबन्धक असंख्यात गुण है। (५) उनसे तेजस् और कार्मण-शरीर के अबन्धक जीव अनन्त गुण हैं और ये दोनों तुल्य हैं । (६) उनसे औदारिकशरीर के सर्व-बंधक जीव अनन्त गुण है। (७) उनसे औदारिक-शरीर के अबंधक जीव विशेषाधिक हैं। (८) उनसे औदारिक-शरीर के देशबंधक जीव असंख्यात गुण हैं । (९) उनसे तेजस और कार्मण-शरीर के देश-बंधक जीव विशेषाधिक हैं। (१०) उनसे वैक्रिय शरीर के अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। (११) उनसे आहारक शरीर के अबन्धक जीव विशेषाधिक है। ... हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है-ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-आहारक-शरीर के सर्व-बंधक मवमे थोड़े हैं। इसका कारण यह है कि आहारक-गरीर चौदह पूर्वधारी के ही होता है और वे भी कोई प्रयोजन उपस्थित होने पर ही आहारक-शरीर धारण करते हैं। उसमें भी सर्व-बंध का काल मात्र एक ममय है, इसलिए वे सबसे थोड़े हैं। उनसे आहारक-शरीर के देश-बधक संख्यात गुण हैं, क्योंकि उसके देशबंध का काल बहुत है। उनसे वैक्रिय-गरीर के सर्व-बंधक असंख्यात गुण हैं. क्योंकि आहारक शरीरधारी जीवों से वैक्रिय-शरीरधारी असंख्यात गुण हैं। उनसे वैक्रिय-शरीर के देश-बंधक असंख्यात गुण हैं, क्योंकि सर्व-बंध के काल को अपना देश-बंध का काल असंख्यात गुण है । अथवा प्रतिपद्यमान सर्व-बंधक होते हैं और पूर्वप्रतिपन्न देश-बंधक होते है। प्रतिपद्यमान की अपेक्षा पूर्वप्रतिपन्न असंख्यात गुण है । अतः वैक्रिय-शरीर के सर्व-बंधकों से देश-बंधक असंख्यात गुण है। उनसे तेजम् और कार्मण के अवंधक अनन्त गुण है, क्योंकि तेजस् और कार्मण के अबंधक सिद्ध भगवान हैं, वे वनस्पितिकायिक जीवों को छोड़कर शेष सभी ससारी जीवों से अनन्तगुण हैं । उनसे औदारिक-शरीर के सर्व-बंधक जीव अनन्त गुण है । क्योंकि इनमें वनस्पतिकायिक जीव भी सम्मिलित हैं। उनमे औदा. रिक-शरीर के अबंधक विशेषाधिक हैं। क्योंकि ये विग्रह-गति में रहे. हुए जीव और सिद्ध आदि जीव हैं । यहाँ सिद्धादि जीव अति अल्प होने से विवक्षा नहीं की गई। विग्रह-गति For Personal & Private Use Only Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सत्र-श. ८ उ. १० श्रत और शील के आराधक १५३७ समापन्न कजीव, सर्व-बंधकों से बहुत हैं। इसलिये अबन्धक जीव विशेषाधिक हैं। उनसे देशबंध का काल असंख्यात गुण है । उनसे तेजस् और कार्मण-शरीर के देश-बंधक विशेषाधिक हैं। क्योंकि समी संसारी जीव तेजस् और कार्मण के देशबंधक होते हैं. इनमें विग्रहगति-समापनक जीव, औदारिक सर्व-बंधक जीव और वैक्रिय आदि बंधक जीव सम्मिलित हैं । अतः औदारिक देश-बधकों से ये विशेषाधिक कहे गये हैं। उनसे वैक्रिय-शरीर के अबन्धक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वैक्रिय के बन्धक प्रायः देव और नारक जीव ही है। शेष सभी संसारी जीव और सिद्ध भगवान् वैक्रिय के अबंधक हैं, इनमें सिद्धजीव सम्मिलित हैं । अतः वे तेजसादि देशबंधकों से अधिक हैं। इसलिये वैक्रिय-शरीर के अबंधक विशेषा- . धिक कहे गये हैं। उनसे आहारक-शरीर के अबंधक विशेषाधिक हैं, क्योंकि आहारकशरीर तो केवल मनुष्यों के ही होता है और वैक्रिय-शरीर तो मनुष्यों के अतिरिक्त देव, नारक और तिर्यञ्च के भी होता है। इसलिये क्रिय-बंधकों की अपेक्षा आहारक-बन्धक जीव थोड़े हैं । इसी प्रकार वैक्रिय प्रबंधकों से आहारक अबंधक विशेषाधिक हैं। ॥ इति आठवें शतक का नौवां उद्देशक समाप्त ॥ शतक ८ उद्देशक १० शुत और शील के आराधक प्रश्न-रायगिहे गयरे जाव एवं वयासी, अण्णउत्थिया गं भंते ! एवं आइक्खंति, जाव एवं परूति-"एवं खलु-१ सीलं सेयं, २ सुयं मेयं, ३ सुयं सेयं सील सेयं;" से कहमेयं भंते ! एवं ? For Personal & Private Use Only Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३८ भगवती सूत्र - श. ८ उ. १० श्रुत और शील के आराधक १ उत्तर - गोयमा ! जं णं ते अण्णउत्थिया एवं आइक्खति, जाव जे ते एवं आहंसु, मिच्छा ते एवं आहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि, जाव परूवेमि - एवं खलु मए चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तं जहा - १ सीलसंपणे णामं एगे णो सुयसंपण्णे, २ सुयसंपणे णामं एगे णो सीलसंपणे, ३ एगे सीलसंपण्णे वि सुयसंपण्णे वि, ४ एगे.णो सीलसंपण्णे णो सुयसंपण्णे । तत्थ णं जे से पढमे पुरिसजाए से गं पुरिसे सीलवं असुयवं; उवरए, अविण्णायधम्मे एस णं गोयमा ! म पुरसे देसाराह पण्णत्ते । तत्थ णं जे से दोच्चे पुरिसजाए से गं पुरिसे असीलवं सुयवं, अणुवरए, विष्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते । तत्थ णं जे से तच्चे पुरिसजाए से गं पुरिसे सीलवं सुयवं; उवरए विष्णायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णत्ते । तत्थ णं जे से चउत्थे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं असुयवं, अणुवरए, अविण्णायधम्मे एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते । कठिन शब्दार्थ - - आइक्लंति-- कहते हैं, सीलं सेयं - गील ही श्रेय (अच्छा ) है । सुयं श्रुत, कहमेयं - किस प्रकार, आहंसु - कहते हैं, पुरिसजाए- पुरुषों के प्रकार, सीलवंशीलवान्, असुयवं - अश्रुतवान्, उवरए - उपरत (निवृत्त) अविष्णायधम्मे – धर्म नहीं जानता, बेसाराहए - देश आराधक, अणुवरए - अनुपरत ( अनिवृत्त), विष्णा यधम्मे-- धर्म का ज्ञाता, वेसविराहए - देश विराधक, सम्वाराहए - सर्व आराधक । भावार्थ -- प्रश्न - १ राजगृह नगर में यावत् गौतम स्वामी ने इस प्रकार For Personal & Private Use Only Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० श्रुत और शील आराधक १५३९ पूछा-हे भगवन् ! अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं यावत प्ररूपणा करते हैं१ शील ही श्रेष्ठ है, २ श्रुत ही श्रेष्ठ है ३ (शील निरपेक्ष) श्रुत ही श्रेष्ठ है अथवा (श्रुतनिरपेक्ष)शील ही श्रेष्ठ है । तो हे भगवन् ! यह किस प्रकार है ? १ उत्तर-हे गौतम ! अन्यतीथिकों ने जो इस प्रकार कहा है, वह मिथ्या कहा है । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूं यावत् प्ररूपणा करता हूं। मैने चार प्रकार के पुरुष कहे हैं, यथा १ कोई शील सम्पन्न है, परन्तु श्रुत सम्पन्न नहीं है । २ कोई पुरुष श्रुत सम्पत्र है, परंतु शोल सम्पन्न नहीं है। ____३ कोई पुरुष शील सम्पन्न भी है और श्रुत सम्पन्न भी है। ४ कोई पुरुष शील सम्पन्न भी नहीं और श्रुत सम्पन्न भी नहीं। (१) इनमें से जो प्रथम प्रकार का पुरुष है, वह शीलवान है, परन्तु श्रुतवान् नहीं। वह उपरत (पापादि से निवृत्त) है, परन्तु धर्म को नहीं जानता। हे गौतम ! इस पुरुष को मैंने 'देश-आराधक' कहा है। (२! जो दूसरे प्रकार का पुरुष है, वह शीलवान् नहीं परन्तु श्रुतवान् है । वह पुरुष अनुपरत (पापादि से अनिवृत्त) है, परन्तु धर्म को जानता है । हे गौतम ! उस पुरुष को मैने देश-विराधक' कहा है। (३) जो तीसरा पुरुष है, वह शीलवान् भी है और श्रुतवान् भी है। वह पुरुष उपरत है और धर्म को जानता है। हे गौतम ! उस पुरुष को मैने 'सर्वाराधक' कहा है। ... (४) जो चौथा पुरुष है, वह शील और श्रुत दोनों से रहित है । वह अनुपरत है और धर्म का भी ज्ञाता नहीं है । हे गौतम ! उस पुरुष को मैंने 'सर्वविराधक' कहा है। विवेचन-सर्वज्ञ के वचनों में एकता एवं अविरुद्धता होती है, किंतु छद्मस्थों के वचनों में ऐसी बात नहीं होती। कोई किसी प्रकार की प्ररूपणा करता है, तो कोई अन्य प्रकार की । अन्यतीथिकों की यही दशा है । कुछ अन्यतीर्थी इस प्रकार मानते हैं कि शील (प्राणातिपातादि से विरमणरूप क्रिया) ही श्रेष्ठ है, ज्ञान का कुछ भी प्रयोजन नहीं, क्योंकि ज्ञान For Personal & Private Use Only Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४. भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० श्रुत और शील के आराधक तो प्रवृत्ति रहित होता है। कुछ अन्यतीथिक इस प्रकार कहते हैं कि-ज्ञान ही श्रेष्ठ है. मात्र ज्ञान से ही फल की सिद्धि होती है । ज्ञान रहित क्रियावान् को फल की सिद्धि नहीं होती । इस प्रकार वे श्रुत (मान) को ही श्रेष्ठ मानते हैं । कितने ही अन्य-तीथिक परस्पर निरपेक्ष श्रुत और शील से अभीष्ट अर्थ की सिद्धि मानते हैं। इसलिये वे क्रिया रहित ज्ञान अथवा ज्ञान रहित क्रिया से अभीष्ट सिद्धि मानते हैं । श्रुत और शील, प्रत्येक पुरुष की पवित्रता का कारण है । इसलिये वे कहते हैं किशील श्रेष्ठ है, मथवा-श्रुत श्रेष्ठ है । इस प्रकार भिन्न-भिन्न रूप से प्ररूपणा करते हैं। श्रमण भगवान महावीर स्वामी, गौतम स्वामी से इस प्रकार कहते हैं कि-मेरा एवं समी सर्वज्ञों का सिद्धान्त इस प्रकार है-(१) कोई पुरुष शील सम्पन्न है, परन्तु श्रुत सम्पन्न नहीं (२) कोई पुरुष श्रुत सम्पन्न है, परन्तु शील सम्पन्न नहीं। (३) कोई शील सम्पन्न भी है और श्रुत सम्पन्न भी है । (४) कोई शील सम्पन्न भी नहीं और श्रुत सम्पन्न भी नहीं। इन में से प्रथम भंग का स्वामी जो शील सम्पन्न है, परन्तु श्रुत सम्पन्न नहीं है, वह 'उपरत' है । वह तत्त्वों का विशेष ज्ञाता नहीं होते हुए भी स्व बुद्धि से ही पापों से निवृत्त है । गीतार्थ मुनि की नेथाय में तप करने वाला वह अगीतार्थ पुरुष 'देशाराधक' है । अर्थात् देशतः-अंशतः मोक्ष-मार्ग की आराधना करने वाला है। यहां मूलपाठ में 'अविण्णायधम्मे' पद दिया है। जिसका अर्थ है-'न विशेषण ज्ञातः धर्मो येन स अविज्ञातधर्मा' अर्थात् जिसने विशेष रूप से धर्म को नहीं जाना, वह पुरुष 'अविज्ञातधर्मा' कहलाता है । तात्पर्य यह है कि प्रथम भंग का स्वामी देशआराधक पुरुष वह है, जो चारित्र की आराधना करता है, परन्तु विशेषरूप से ज्ञानवान नहीं है । ( उससे ज्ञान की आराधना नहीं होती) इस भंग का स्वामी मिथ्या-दृष्टि नहीं. किन्तु सम्यग्दृष्टि हैं। ___ दूसरे भंग का स्वामी जो शील सम्पन्न नहीं. परन्तु श्रुत सम्पन्न है, वह अनुपरत (पापादि से अनिवृत्त) है, फिर भी वह धर्म को जानता है। इसलिए वह देश विराधक कहा गया है । इस भंग का स्वामी अविरत सम्यग्दृष्टि ' हैं। यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय-जो मोक्षमार्ग है, उसमें से तृतीय भाग रूप चारित्र की विराधना करता है अर्थात् प्राप्त हुए चारित्र का पालन नहीं करता, अथवा चारित्र को प्राप्त ही नहीं करता । इसलिये वह देशविराधक है। For Personal & Private Use Only Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० जघन्यादि आराधना और आराधक १५४१ तीसरे भंग का स्वामी शील सम्पन्न भी है और श्रुतसम्पन्न भी है। वह उपरत है और धर्म को भी जानता है। अतः वह मर्वआराधक है। क्योंकि ज्ञान-दर्शन चारित्ररूप रत्नत्रय-जो मोक्ष का मार्ग है, उसकी वह सर्वथा आराधना करता है। श्रुत शब्द से सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन दोनों का ग्रहण किया गया है । जो मिथ्यादृष्टि पुरुष है, वह वस्तुत: विज्ञातधर्मा हो ही नहीं सकता। चतुर्थभंग का स्वामी शीलसम्पन्न भी नहीं और श्रुतसम्पन्न भी नहीं । वह अनुपरत है और धर्म को भी नहीं जानता । वही पुरुष मर्व-विराधक है । क्योंकि सम्यग्ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप रत्नत्रय में मे वह किसी की भी आराधना नहीं करता। इसलिए वह सर्वविराधक है। तात्पर्य यह है कि श्रुत अर्थात् सम्यग्दर्शन युक्त ज्ञान और शील अर्थात् क्रिया, य दोनों समुदितरूप में ही श्रेय (मोक्ष) के मार्ग हैं । सम्यग्ज्ञान युक्त क्रिया से ही अभीष्ट की सिद्धि (मोक्ष की प्राप्ति) होती है । ' जघन्यादि आराधना और आराधक २ प्रश्न-कइविहा णं भंते ! आराहणा पण्णत्ता ? .२ उत्तर-गोयमा ! तिविहा आराहणा पण्णत्ता, तं जहाणाणाराहणा, दसणाराहणा, चरिताराहणा । ३ प्रश्न-णाणाराहणा णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ? .३ उत्तर-गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-उवकोसिया, मज्झिमा, जहण्णा। ४ प्रश्न-दसणाराहणा णं भंते ! कइविहा . ? - ४ उत्तर-एवं चेव तिविहा वि, एवं चरिताराहणा वि । For Personal & Private Use Only Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० जघन्यादि आराधना और आराधक ५ प्रश्न-जस्स णं भंते ! उक्कोसिया णाणाराहणा तस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा, जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स उकोसिया णाणाराहणा ? ५ उत्तर-गोयमा ! जस्स उक्कोसिया णाणाराहणा तस्स दंसणाराहणा उकोसा वा अजहण्णुकोसा वा; जस्स पुण उकोसिया दंसणाराहणा तस्स णाणाराहणा उकोसा वा, जहण्णा वा, अजहण्णमणुः कोसा वा। ६ प्रश्न-जस्स णं भंते ! उक्कोसिया णाणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरित्ताराहणा, जस्सुस्कोसिया चरित्ताराहणा तस्मुक्कोसिया णाणाराहणा ? ६ उत्तर-जहा उक्कोसिया णाणाराहणा य दंसणाराहणा य भणिया तहा उक्कोसिया णाणाराहणा य चरिताराहणा य भाणि. यवा। ७ प्रश्न-जस्स णं भंते ! उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स उको. सिया चरित्ताराहणा, जस्सुकोसिया चरित्ताराहणा तस्मुक्कोसिया दसणाराहणा? ७ उत्तर-गोयमा ! जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स चरित्ताराहणा उक्कोसा वा, जहण्णा वा, अजहण्णमणुक्कोसा वा, जस्स पुण उकोसिया चरित्ताराहणा तस्स दंसणाराहणा णियमा For Personal & Private Use Only Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - शं. ८ उ. १० जयन्यादि आराधना और आराधक १५४३ उक्कोसा । कठिन शब्दार्थ - - उक्कोसिया - उत्कृष्ट मज्झिमा -- मध्यम, जहण्णा -- जघन्य जम्मणं -- जिसके, अजहष्णमणुक्कोसा - अजघन्यानुत्कृष्ट ( मध्यम ) | भावार्थ - २ प्रश्न - हे भगवन् ! आराधना कितने प्रकार की कही गई हैं ? २ उत्तर - हे गौतम! आराधना तीन प्रकार को कही गई है । यथा१ ज्ञान आराधना, २ दर्शन आराधना और ३ चारित्र आराधना । ३ प्रश्न - हे भगवन् ! ज्ञान आराधना कितने प्रकार की कही गई है ? ३ उत्तर - हे गौतम ! तीन प्रकार की कही गई है । यथा-१ उत्कृष्ट २ मध्यम और ३ जघन्य । ४ प्रश्न - हे भगवन् ! दर्शन आराधना कितने प्रकार की कही गई है। ? ४ उत्तर - हे गौतम ! ज्ञान आराधना के समान दर्शन आराधना भी तीन प्रकार की और चारित्र आराधना भी तीन प्रकार की कही गई है । ५ प्रश्न - हे भगवन् ! जिस जीव के उत्कृष्ट ज्ञान आराधना होती है, उसके उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है और जिस जीव के उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है, उस जीव के उत्कृष्ट ज्ञान आराधना होती है । ५ उत्तर - हे गौतम! जिस जीव के उत्कृष्ट ज्ञान आराधना होती है, उसके उत्कृष्ट या मध्यम दर्शन आराधना होती है। जिस जीव के उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है, उसके उत्कृष्ट या मध्यम या जघन्य ज्ञान आराधना होती है । ६ प्रश्न - हे भगवन् ! जिस जीव के उत्कृष्ट ज्ञान आराधना होती हैं, उसके उत्कृष्ट चारित्र आराधना होती हैं, और जिस जीव के उत्कृष्ट चारित्र आराधना होती हैं, उसके उत्कृष्ट ज्ञान आराधना होती हैं ? ६ उत्तर - हे गौतम ! जिस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञान आराधना और दर्शन आराधना के विषय में कहा, उसी प्रकार उत्कृष्ट ज्ञान आराधना और उत्कृष्ट चारित्र आराधना के विषय में भी कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. १० आराधकों के शेष भव ७ प्रश्न - हे भगवन् ! जिसके उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है, उसके उत्कृष्ट चारित्र आराधना होती है और जिसके उत्कृष्ट चारित्र आराधना होती है, उसके उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है ? ७ उत्तर - हे गौतम! जिसके उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है, उसके उत्कृष्ट या जन्य या मध्यम चारित्र आराधना होती है और जिसके उत्कृष्ट चारित्र आराधना होती है, उसके नियमा ( अवश्य ) उत्कृष्ट दर्शन आराधना होती है । आराधकों के शेष भव १५४४ ८ प्रश्न - उक्कोसियं णं भंते ! णाणाराहणं आराहंत्ता कहहिं भवग्गणेहिं सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? ८ उत्तर - गोयमा ! अत्थेगडए तेणेव भवग्ग्रहणेणं सिज्झइ, जाव अंतं करेह; अत्थेगड़ए दोच्चणं भवग्गहणेणं सिज्झह, जाव अंत करेइ; अत्येगइए कप्पोवएस वा कप्पाईएस वा उववज्जइ । ९ प्रश्न - उबको सियं णं भंते ! दंसणाराहणं आराहेत्ता कड़ हिं भवग्गहणेहिं० ? ९ उत्तर - एवं चैव । १० प्रश्न - उक्कोसियं णं भंते ! चरिताराहणं आराहेत्ता० ? १० उत्तर - एवं चेव, णवरं अत्थेगइए कप्पाईएस उववज्जड़ । ११ प्रश्न - मज्झमियं णं भंते ! णाणाराहणं आराहेत्ता कहहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ, जाव अंत करेइ ? For Personal & Private Use Only Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती मूत्र-7. ८ उ. १० आराधकों के शेष भव ११ उत्तर-गोयमा ! अस्थंगड़ए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिइइ, जाव अंतं करेइ, तच्चं पुण भषग्गहणं णाइक्कमइ। १२ प्रश्न-मज्झिमियं णं भंते ! दंसणाराहणं आराहत्ता ? १२ उत्तर-एवं चेव, एवं मज्झिमियं चरित्ताराहणं पि । १३ प्रश्न-जहणियं णं भंते ! णाणाराहणं आराहेत्ता काहिं भवग्गहणेहिं सिज्झइ, जाव अंतं करेइ ? १३ उत्तर-गोयमा ! अत्थेगइए तन्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ, जाव अंतं करेइ; सत्त-ट्ट भवग्गहणाई पुण गाइक्कमइ । एवं देसणाराहणं पि, एवं चरित्ताराहणं पि । : कटिन शब्दार्थ-अत्थेगइए-कितने ही, णाइक्कमइ-अतिक्रमण नहीं करते । भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञान की उत्कृष्ट आराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है ? ८ उत्तर-हे गौतम ! कितने ही जीव, उसी भव में सिद्ध हो जाते हैं, यावल सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं। कितने ही जीव दो भवग्रहण करके सिद्ध होते है यावत् समस्त दुःखों का अन्त करते हैं। कितने ही जीव कल्पोपपन्न देवलोकों में अथवा कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। ९ प्रश्न-हे भगवन् ! दर्शन को उत्कृष्ट आराधना करके जीव कितने भवग्रहण करके सिद्ध होता है यावत् सभी दुःखों का अन्त करता है ? . ९ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञान आराधना के विषय में कहा, उसी प्रकार उत्कृष्ट दर्शन आराधना के विषय में भी कहना चाहिए। १० प्रश्न-हे भगवन् ! उत्कृष्ट चारित्र आराधना करके जीव कितने भव For Personal & Private Use Only Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४६ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० आराधको के शेष भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् समस्त दुःखों का अन्त करता हैं ? . १० उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार उत्कृष्ट ज्ञान आराधना के विषय में कहा, उसी प्रकार उत्कृष्ट चारित्र आराधना के विषय में भी कहना चाहिये । कितने ही जीव कल्पातीत देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। ११ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञान को मध्यम आराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है ? ११ उत्तर-हे गौतम ! कितने ही जीव, दो भव ग्रहण करके सिद्ध होते । हैं यावत् सभी दुःखों का अन्त करते हैं, वे तीसरे भव का अतिक्रमण नहीं करते। १२ प्रश्न-हे भगवन् ! दर्शन की मध्यम आराधना करके जीव कितने भव ग्रहण करके सिद्ध होता है, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करता है ? १२ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार मध्यम ज्ञान आराधना के विषय में कहा हैं, उसी प्रकार मध्यम दर्शन आराधना और मध्यम चारित्र आराधना के विषय में भी कहना चाहिये । १३ प्रश्न-हे भगवन् ! ज्ञान को जघन्य आराधना करके जीव, कितने भब ग्रहण करके सिद्ध होता हैं, यावत सभी दुःखों का अन्त करता हैं ? १३ उत्तर-हे गौतम ! कितने ही जीव, तीसरे भव में सिद्ध होते हैं, यावत् सर्व दुःखों का अन्त करते हैं, परन्तु सात-आठ भव का अतिक्रमण नहीं करते । इसी प्रकार जघन्य दर्शन आराधना और जघन्य चारित्र आराधना के विषय में भी कहना चाहिये । ___ विवेचन-अतिचार न लगाते हुए आचार का शुद्ध पालन करना-'आराधना' है । इसके तीन भेद हैं । यथा-१ ज्ञान आराधना २ दर्शन आराधना ओर ३ चारित्र आराधना। ज्ञान के काल, विनय, बहुमान आदि आठ आचारों का निर्दोष रीति से पालन करना-ज्ञान आराधना है । शंका, कांक्षा आदि समकित के अतिचारों को न लगाते हुए निःशंकित आदि समकित के आचारों का शुद्धतापूर्वक पालन करना-'दर्शन आराधना' है । सामायिक आदि चारित्र में अतिचार न लगाते हुए निर्मलतापूर्वक पालन करना-'चारित्र आराधना' है। For Personal & Private Use Only Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० पुद्गल का वादि परिणाम इन तीनों की आराधना में उत्कृष्ट प्रयत्न करना- 'उत्कृष्ट आराधना' है, मध्यम प्रयल करना मध्यम आराधना है और अल्प प्रयत्न करना जघन्य आगधना है । उत्कृष्ट ज्ञान आराधना में, उत्कृष्ट और मध्यम दर्शन आराधना पाई जाती है । उत्कृष्ट दर्शन आराधना में, उत्कृष्ट, मध्यम ओर जघन्य जान आराधना पाई जाती है। उत्कृष्ट ज्ञान आराधना में उत्कृष्ट और मध्यम चारित्र आराधना पाई जाती है । उत्कृष्ट चारित्र आराधना में तीनों प्रकार की ज्ञान आराधना पाई जाती है। उत्कृष्ट दर्शन आराधना में तीनों प्रकार की चारित्र आराधना पाई जाती है । उत्कृष्ट चारित्र आराधना में नियमा उत्कृष्ट दर्शन आराधना पाई जाती है। उत्कृष्ट जान आराधना, उत्कृष्ट दर्शन आराधना और उत्कृष्ट चारित्र आराधना वाला जीव, जघन्य उसी भव में मोक्ष जाता है, उत्कृष्ट दो भव (बीच में एक देव भव करके दूसरे मनुष्य भव) में मोक्ष जाता है मध्यम ज्ञान आराधना, मध्यम दर्शन आराधना और मध्यम चारित्र आराधना वाला जीव, जघन्य दो भव से मोक्ष जाता है और उत्कृष्ट तीन भव से (बीच में दो भव देवों के करके ) मोक्ष जाता है। जघन्य ज्ञान आराधना, जघन्य दर्शन आराधना और जघन्य चारित्र आराधना वाला जीव, जघन्य तीन भव से मोक्ष जाता है और उत्कृष्ट मात-आठ भव में मोक्ष जाता है। ये सात भव देव सम्बन्धी और आठ भव चारित्र सम्बन्धी, मनुष्य के समझने चाहिये । पुद्गल का वर्णादि परिणाम ... १४ प्रश्न-कइविहे णं भंते ! पोग्गलपरिणामे पण्णते ? १४ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तं जहावण्णपरिणामे, गंधपरिणामे, रसपरिणामे, फासपरिणामे, संठाणपरिणामे । १५ प्रश्न-वण्णपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? For Personal & Private Use Only Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० पुद्गल का वर्णादि परिणाम १५ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-कालवण्णपरिणामे, जाव सुनिकल्लवण्णपरिणामे । एवं एएणं अभिलावेणं गंधपरिणामे दुविहे, रसपरिणामे पंचविहे, फासपरिणामे अविहे । १६ प्रश्न-संठाणपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ? १६ उत्तर-गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-परिमंडलसंठाणपरिणामे, जाव आययसंठाणपरिणामे । कठिन शब्दार्थ-पोग्गलपरिणामे-पुद्गल परिणाम, संठाणपरिणामे--आकार परिणाम, परिमंडल-वलयाकार, आयय--आयत । भावार्थ-१४ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गल परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है? १४ उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-१ वर्ण परिणाम २ गन्ध परिणाम ३ रस परिणाम ४ स्पर्श परिणाम और ५ संस्थान परिणाम। १५ प्रश्न-हे भगवन् ! वर्ण परिणाम कितने प्रकार का कहा गया है ? १५ उत्तर-हे गौतम ! पांच प्रकार का कहा गया है । यथा-१ काला वर्ण-परिणाम, यावत् शुक्ल (श्वेत) वर्ण-परिणाम । इसी प्रकार इस अभिलाप द्वारा दो प्रकार का गन्ध-परिणाम, पांच प्रकार का रस-परिणाम और आठ प्रकार का स्पर्श-परिणाम जानना चाहिये। . १६ प्रश्न-हे भगवन् ! संस्थान-परिणाम कितने प्रकार का कहा गया १६ उत्तर-हे गौतम! पांच प्रकार का कहा गया है। यथा-परिमण्डल संस्थान-परिणाम, यावत् आयत संस्थान-परिणाम । विवेचन-पुद्गल की एक अवस्था से दूसरी अवस्था होना 'पुद्गल-परिणाम' For Personal & Private Use Only Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-म. ८ उ. १० पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश के प्रदेश १५४९ कहलाता है । उसके मूल भेद पांच हैं और उत्तर भेद पच्चीस हैं । पुद्गलास्तिकाय के प्रदेश १७ प्रश्न-एगे भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसे किं दट्वं, दव्वदेसे, दबाई, दब्वदेसा; उदाहु दव्वं च दव्वदेसे य, उदाहु दव्वं च दव्वदेसा य, उदाहु दबाई च दव्वदेसे य, उदाहु दवाइं च दब्बदेसा य? ___ १७ उत्तर-गोयमा ! सिय दव्वं, सिय दव्वदेसे; णो दव्वाई, णो दबदेसा, णोदव्वं च दव्वदेसे य, जाव णो दव्वाइं च दव्वदेसा य । . १८ प्रश्न-दो भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा किं दव्वं, दव्व. देमे-पुच्छा। १८ उत्तर-गोयमा ! सिय दव्वं, सिय दव्वदेसे, सिय दवाई, सिय दबदेसा; सिय दव्वं च दबदेसे य, णो दव्वं च दव्वदेसा य; सेसा पडिसेहेयवा। _ १९ प्रश्न-तिण्णि भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा किं दव्वं, दव्वदेसे-पुच्छा। . १९ उत्तर-गोयमा ! सिय दव्वं, सिय दवदेसे, एवं सत्त भंगा भाणियब्वा, जाव सिय दव्वाइं च दव्वदेसे य, णो दव्वाई च दव्वदेसा य। . २० प्रश्न-चत्तारि भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा किं दवं For Personal & Private Use Only Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५० भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० पुद्गलास्तिकाय का प्रदेश पुच्छा । २० उत्तर- गोयमा ! सिय दव्वं, सिय दव्वदेसे; अटु विभंगा भाणियव्वा, जाव सिय दव्वाई च दव्वदेसा य; जहा चत्तारि भणिया एवं पंच, छ, सत्त, जाव असंखेजा । २१ प्रश्न - अनंता भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा किं दवं ? २१ उत्तर - एवं चैव, जाव सिय दव्वाई च दव्वदेमा य । कठिन शब्दार्थ - पए से -- प्रदेश, उदाहु-- अथवा, सिय-कथं चत्, पडिसे हेयव्वा-निषेध करना चाहिये । भावार्थ - १७ प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय का एक प्रदेश (१) द्रव्य हैं, (२) द्रव्य- देश हैं, (३) बहुत द्रव्य हैं, ( ४ ) बहुत द्रव्य- देश हैं, अथवा (५) एक द्रव्य और एक द्रव्य देश हैं, ( ६ ) अथवा एक द्रव्य और बहुत द्रव्य देश हैं, (७) अथवा बहुत द्रव्य और एक द्रव्य देश हैं, (८) अथवा बहुत द्रव्य और बहुत द्रव्य देश हैं ? १७ उत्तर - हे गौतम ! वह कथंचित् एक द्रव्य हैं, कथंचित् एक द्रव्य देश है, परन्तु वह बहुत द्रव्य नहीं और बहुत द्रव्य देश भी नहीं। एक द्रव्य और एक द्रव्यदेश भी नहीं । यावत् बहुत द्रव्य और बहुत द्रव्यदेश नहीं । १८ प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेश क्या एक द्रव्य है, या एक द्रव्य देश है, इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न ? १८ उत्तर - हे गौतम! १ कथंचित् द्रव्य है, २ कथंचित् द्रव्यदेश है, ३ कथंचित् बहुत द्रव्य है, ४ कथंचित् बहुत द्रव्य देश है ५ कथंचित् एक द्रव्य और एक द्रव्यदेश है, परन्तु ६ एक द्रव्य और बहुत द्रव्य देश नहीं ७ बहुत द्रव्य और एक द्रव्यदेश नहीं ८ बहुत द्रव्य और बहुत द्रव्यदेश नहीं । १९ प्रश्न - हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के तीन प्रदेश, क्या एक द्रव्य For Personal & Private Use Only Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवत। सूत्र---श. ८ उ. १० लोकाकाश और जीव के प्रदेश ५५१ है, या एक द्रव्य-देश है-इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न ? १९ उत्तर-हे गौतम ! कथंचित् एक द्रव्य है, कथंचित् एक द्रव्य-देश है, यावत् कथंचित् बहुत द्रव्य और एक द्रव्य-देश है, यहां तक सात भंग कहना चाहिये । परन्तु बहुत द्रव्य और बहुत द्रव्यदेश नहीं है । २० प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकाय के चार प्रदेश, एक द्रव्य है, या एक द्रव्य-देश है, इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न ? २० उत्तर-हे गौतम ! (१) कथंचित् एक द्रव्य है, (२) कथंचित् एक द्रव्य-देश है, इत्यादि आठ भंग कहना चाहिये । जिस प्रकार चार प्रदेशों के विषय में कहा, उसी प्रकार पांच, छह, सात, यावत् असंख्य प्रदेशों तक कहना चाहिये। २१ प्रश्न-हे भगवन् ! पुद्गलास्तिकार्य के अनन्त प्रदेश--एक द्रव्य है, या एक द्रव्य-देश है, इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न ? . २१ उत्तर-हे गौतम ! पहले कहे अनुसार इस में भी आठ भंग कहना चाहिये । लोकाकाश और जीव के प्रदेश २२ प्रश्न-केवइया णं भंते ! लोगागासपएसा पण्णत्ता ? २२ उत्तर-गोयमा ! असंखेजा लोगागासपएसा पण्णता ? .. २३ प्रश्न-एगमैगस्स णं भंते ! जीवस्स केवइया जीवपएसा पण्णता ? २३ उत्तर-गोयमा ! जावइया लोगोगासपएसा, एगमेगस्स णं जीवस्स एवइया जीवपएसा पण्णत्ता । For Personal & Private Use Only Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५२ ? भगवती सूत्र - श. ८ उ. १० लोकाकाश और जीव के प्रदेश कठिन शब्दार्थ - जावइया - जितने एवइया-उतने । भावार्थ - २२ प्रश्न - हे भगवन् ! लोकाकाश के प्रदेश कितने कहे गये २२ उत्तर - हे गौतम! असंख्य प्रदेश कहे गये हैं । २३ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्येक जीव के प्रदेश कितने कहे गये हैं ? २३ उत्तर - हे गौतम ! लोकाकाश के जितने प्रदेश कहे गये है, उतने ही प्रत्येक जीव के प्रदेश कहे गये हैं ? विवेचन - इस सूत्र में पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश के विषय में प्रश्न किये गये हैं । जिनमें द्रव्य और द्रव्य देश के एक वचन और बहुवचन सम्बन्धी चार भंग हैं और इसी प्रकार द्विक-संयोगी चार भंग हैं। इन आठ भंगों में से एक प्रदेश में दो भंग पाये जाते हैं। जब दूसरे द्रव्य के साथ उस का सम्बन्ध नहीं होता, तब वह 'द्रव्य' है और जब दूसरे द्रव्य के साथ उसका सम्बन्ध होता है तब वह - ' द्रव्यदेश' है । प्रदेश एक है, इसलिये उसमें बहुवचन सम्बन्धी दो भंग और द्विक संयोगी चार भंग - यं छह भंग नहीं पाये जाते । पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेशों में उपर्युक्त आठ भंगों में से पहले के पांच भंग पाये जाते । तीन प्रदेशों में पहले के सात भंग पाये जाते हैं। इनकी घटना स्वयं करलेनी चाहिये । चार प्रदेशों में आठों भंग पाये जाते हैं। चार प्रदेशी से यावत् अनन्त प्रदेशी तक दस बोलों में प्रत्येक में आठ-आठ भंग पाये जाते हैं । लोक असंख्य प्रदेशी है, इसलिये उसके प्रदेश असंख्याता है। जितने लोक के प्रदेश हैं, उतने ही एक जीव के प्रदेश हैं, जब जोव, केवली- समुद्घात करता है, तब वह अपने आत्म-प्रदेशों से सम्पूर्ण लोक की व्याप्त कर देता है, अर्थात् लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक जीव- प्रदेश अवस्थित हो जाते हैं । कर्म - वर्गणाओं से आबद्ध जीव २४ प्रश्न - कह णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? २४ उत्तर—गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा For Personal & Private Use Only Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवतो सूत्र-श. ८ उ. १० कर्म-वर्गणाओं से आबद्ध जीव १५५३ णाणावरणिज, जाव अंतराइयं । २५ प्रश्न-णेरइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? २५ उत्तर-गोयमा ! अट्ठ, एवं सब्वजीवाणं अट्ठ कम्मपगडीओ ठावेयबाओ जाव वेमाणियाणं । २६ प्रश्न-णाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता ? २६ उतर-गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता । २७ प्रश्न-णेरहयाणं भंते ! णाणावरणिजस्स कम्मरस केवइया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता ? २७ उत्तर--गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता; एवं सब्वजीवाणं, जाव--(प्र.) वेमाणियाणं पुच्छा । (उ.) गोयमा ! अणंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, एवं जहा णाणावरणिजस्स अविभागपलिच्छेदा भणिया तहा अट्टण्ह वि कम्मपगडीणं भाणियव्वा, जाव वेमाणियाणं जाव अंतराइयस्स। कठिन शब्दार्थ-ठावेयवाओ-स्थापित करनी चाहिये (कहनी चाहिये),अविभागपलिच्छेदा-अविभाग परिच्छेद (निरंश अंश-जिसका कोई विभाग नहीं हो सके वैसा अंश)। भावार्थ-२४ प्रश्न-हे भगवन् ! कर्म-प्रकृतियां कितनी कही गई हैं ? २४ उत्तर-हे गौतम ! कर्म-प्रकृतियाँ आठ कही गई हैं । यथा-ज्ञानावरणीय यावत् अन्तराय । ... २५ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीवों के कितनी कर्मप्रकृतियां कही हैं ? For Personal & Private Use Only Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० कर्म-वर्गणाओं से आवद्ध जीव २५ उत्तर-हे गौतम ! आठ कर्मप्रकृतियां कही गई है। इस प्रकार वैमानिक पर्यन्त सभी जीवों के आठ कर्म-प्रकृतियां कही हैं। २६ उत्तर-हे भगवन ! ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभागपरिच्छेद २६ उत्तर-हे गौतम ! अनन्त अविभागपरिच्छेद कहे है। . २७ प्रश्न-हे भगवन् ! नरयिक जीवों के ज्ञानावरणोय कर्म के कितने अविभागपरिच्छेद कहे हैं ? २७ उत्तर-हे गौतम ! अनन्त अविभागपरिच्छेद कहे हैं। इसी प्रकार सभी जीवों के विषय में कहना चाहिये । यावत् (प्रश्न.) वैमानिक देवों के विषय में प्रश्न ? (उत्तर) हे गौतम ! अनन्त अविभागपरिच्छेद कहे हैं। जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के अविभागपरिच्छेद कहे, उसी प्रकार अन्तराय तक आठों कर्म-प्रकृतियों के अविभागपरिच्छेद-वैमानिक पर्यन्त सभी जीवों के कहना चाहिये। २८ प्रश्न-एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमगे जीवपएसे णाणावरणिजस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेटियपरिवेढिए ? २८ उत्तर-गोयमा ! सिय आवेढिय-परिवेटिए, सिय णो आवे. ढिय-परिवेढिए; जइ आवेढिय-परिवेढिए णियमा अणंतेहिं । २९ प्रश्न-एगमेगस्स णं भंते ! णेरड्यम्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिजस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढियपरिवेटिए ? २९ उत्तर-गोयमा ! णियम अणतेहिं, जहा णेरइयस्स एवं For Personal & Private Use Only Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-ग. ८ उ. १० कर्म-वर्गणाओं से आबद्ध जीव जाव वैमाणियस्स; णवरं मणुस्सस्स जहा जीवस्म । ३० प्रश्न-एगमेगस्स र्ण भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे दरिसणावरणिज्जस्म कम्मस्स केवइएहिं ? ___३० उत्तर-एवं जहेव णाणावरणिज्जस्स तहेव दंडगो भाणियन्वो जाव वेमाणियस्स; एवं जाव अंतराइयस्स भाणियन्वं; णवरं वेयणिजस्म आउयस्स, णामस्स, गोयस्स-एएसिं चउण्ह वि कम्माणं मणुस्सस्स जहा णेरइयस्स तहा भाणियव्वं, सेसं तं चेव । कठिन शब्दार्थ-आवेढिय परिवेढिए—आवेष्टिन-परिवेप्टिन (अन्यन्त गाढ़ रूप से बंधे हुए) जहेव-जिम प्रकार. तहेव-उसी प्रकार । .. भावार्थ-२८ प्रश्न--हे भगवन ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीव प्रदेश, ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित है ? . २८ उत्तर-हे गौतम ! कदाचित आवेष्टित परिवेष्टित होता है और कदाचित् नहीं भी होता । यदि आवेष्टित-परिवेष्टित होता है, तो वह नियमा अनन्त अविभागपरिच्छेदों से होता है । ..२९ प्रश्न-हे भगवन् ! प्रत्येक नैयिक जीव का प्रत्येक जीव-प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग परिच्छेदों से आवेष्टित-परिवेष्टित होता है ? - २९ उत्तर-हे गौतम! वह नियमा अनन्त अविभागपरिच्छेदों से आवेष्टित परिवेष्टित होता है । जिस प्रकार नरयिक जीव के विषय में कहा, उसी प्रकार यावत् वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये। परन्तु मनुष्य का कथन औधिक (सामान्य) जीव की तरह कहना चाहिये । ३० प्रश्न-हे भगवन् ! प्रत्येक जीव का प्रत्येक जीव प्रदेश, दर्शनावरणीय कर्म के कितने अविभागपरिच्छेदों द्वारा आवेष्टित परिवेष्टित है ? ३० उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म के विषय में For Personal & Private Use Only Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५६ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० कर्मों का पारस्परिक संबंध दण्डक कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी वैमानिक पर्यन्त कहना चाहिये और यावत् अन्तराय कर्म पर्यन्त कहना चाहिये । परन्तु वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्रइन चार कर्मों के विषय में जिस प्रकार नरयिक जीवों के लिये कथन किया है, उसी प्रकार मनुष्यों के लिये कहना चाहिये । शेष सब वर्णन पहले के समान कहना चाहिये। विवेचन-केवलज्ञानी की प्रज्ञा के द्वारा भी जिसके विभाग न किये जा सकें, ऐसे सूक्ष्म अंश (निरंश अंश) को 'अविभागपरिच्छेद' कहते हैं । वे कर्म स्कन्धों की अपेक्षा, अथवा ज्ञान के जितने अविभागपरिच्छेदों का आच्छादन किया हो, उनकी अपेक्षा अनन्त हैं । औधिक जीव-सूत्र में जो यह कहा गया है कि 'उसका जीव-प्रदेश ज्ञानावरणीय द्वारा कदाचित् आवेष्टित परिवेष्टित होता है और कदाचित् नहीं होता। यह 'आवेष्टित परिवेष्टित न होने की बात केवली की अपेक्षा कही गई है। क्योंकि उनके ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय हो चुका है। इसलिये उनके आत्म-प्रदेश, ज्ञानावरणीय के अविभागपरिच्छेदों द्वारा आवेष्टित परिवेष्टित नहीं होते । इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय के विषय में भी समझना चाहिये । वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र, इन चार अघातिक कर्मों के विषय में मनुष्यपद में कोई अन्तर नहीं पड़ता। क्योंकि ये चारों कर्म छद्मस्थों के भी होते हैं और केवलियों के भी होते हैं । सिद्ध भगवान् में नहीं होते । इसलिये जीव-पद में ही इस विषयक भजना है, मनुष्य-पद में नहीं। कर्मों का पारस्परिक सम्बन्ध ३१ प्रश्न-जस्स णं भंते ! णाणावरणिजं तस्स दरिसणावरणिजं; जस्स दंसणावरणिजं तस्स णाणावरणिजं ? ३१ उत्तर--गोयमा ! जस्स णं णाणावरणिजं तस्स दंसणावरणिजं णियमं अत्थि, जस्स णं दरिसणावरणिजं तस्स वि णाणावर For Personal & Private Use Only Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -श.८3.१० कर्मों का पारस्परिक सम्बन्ध १५५७ णिजं णियमं अथि। कठिन शब्दार्थ-अत्थि-होता है, या है। भावार्थ-३१ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस जीव के ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके दर्शनावरणीय कर्म भी है और जिस के दर्शनावरणीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म भी है ? ३१ उत्तर-हाँ गौतम ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके नियम से दर्शनावरणीय कर्म भी है और जिसके दर्शनावरणीय कर्म है, उसके नियम से ज्ञानावरणीय कर्म भी है। ३२ प्रश्न-जस्म णं भंते ! णाणावरणिजं तस्स वेयणिजं, जस्स वेयणिजं तस्स णाणावरणिजं ? ३२ उत्तर-गोयमा ! जस्स णाणावरणिजं तस्स वेयणिजं णियमं अस्थि, जस्स पुण वेयणिजं तस्स णाणावरणिजं सिय अस्थि, सिय नत्थि । .कठिन शम्दार्थ-नस्थि-नहीं होता, या नहीं है। भावार्थ-३२ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके वेदनीय कर्म है, और जिसके वेदनीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म है ? ... ३२ उत्तर-हे गौतम ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके नियम से वेदनीय कर्म भी है, किंतु जिसके वेदनीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म कदाचित होता भी है और कदाचित नहीं भी होता। ३३ प्रश्न-जस्स णं भंते ! णाणावरणिजं तस्स मोहणिजं जस्स मोहणिजं तस्स णाणावरणिजं ? For Personal & Private Use Only Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५८ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १. को मारारिक सम्बन्ध ३३ उत्तर-गोयमा ! जस्स णाणावरणिज तस्स मोहणिजं सिय अस्थि, सिय नत्थि; जस्स पुण मोहणिजं तस्स णाणावरणिजं णियम अस्थि । भावार्थ-३३ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके मोहनीय कर्म है ? और जिसके मोहनीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म है ? .. ३३ उत्तर-हे गौतम ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके मोहनीय कर्म कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता। परन्तु जिसके मोहनीय कर्म है, उसके ज्ञानावरणीय कर्म नियम से है। ३४ प्रश्न-जस्स णं भंते ! णाणावरणिजं तस्स आउयं ? . ३४ उत्तर-एवं जहा वेयणिज्जेण समं भणियं तहा आउएण वि समं भाणियव्वं, एवं णामेण वि, एवं गोएण वि समं; अंतराइएण ममं जहा दरिसणावरणिज्जेण समं तहेव णियमा परोप्परं भाणियवाणि। कठिन शब्दार्थ-सम-साथ, परोप्परं-परस्पर । भावार्थ-३४ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसके ज्ञानावरणीय कर्म है, उसके आयुष्य कर्म है, इत्यादि प्रश्न ? ३४ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार वेदनीय कर्म के विषय में कहा, उसी प्रकार आयुष्य कर्म के लिए भी कहना चाहिये । इसी प्रकार नाम और गोत्र कर्म के साथ भी कहना चाहिये। जिस प्रकार दर्शनावरणीय कर्म के सम्बन्ध में कहा, उसी प्रकार अन्तराय कर्म के साथ भी परस्पर नियमा कहना चाहिये । For Personal & Private Use Only Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० कर्मों का पारस्परिक सम्बन्ध ३५ प्रश्न-जस्स णं भंते ! दरिसणावरणिजं तस्स वेयणिजं, जस्स वेयणिजं तस्स दरिसणावरणिज्जं ? ३५ उत्तर-जहा णाणावरणिज्ज उवरिमेहिं सत्तहिं कम्मेहिं समं भणियं तहा दरिसणावरणिज्जं पि उवरिमेहिं छहिं कम्मेहिं समं भाणियव्वं; जाव अंतराइएणं । कठिन शब्दार्थ--उवरिमेहि- ऊपर के । भावार्थ-३५ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस जीव के दर्शनावरणीय कर्म है, उसके वेदनीय कर्म है और जिसके वेदनीय कर्म है, उसके दर्शनावरणीय कर्म है ? __ ३५ उत्तर-हे गौतम ! जिस प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म का कथन-ऊपर के सात कर्मों के साथ कहा, उसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म का भी ऊपर के छह कर्मों के साथ कहना चाहिये । इस प्रकार यावत् अन्तराय कर्म तक कहना चाहिये। ३६ प्रश्न-जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स मोहणिजं; जस्स मोहणिज्ज तस्स वेयणिज्जं? ____३६ उत्तर-गोयमा ! जस्स वेयणिज्ज तस्स मोहणिज्ज सिय अस्थि, सिय नत्थि जस्स पुण मोहणिज्जं तस्स वेयणिज्जं णियमं अत्थि । . भावार्थ-३६ प्रश्न-हे भगवन् ! जिस जीव के वेदनीय कर्म है, उसके मोहनीय कर्म है और जिस के मोहनीय कर्म है, उस जीव के वेदनीय कर्म भी है ? For Personal & Private Use Only Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६० भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० कर्मों का पारपरिक सम्बन्ध उत्तर-हे गौतम ! जिस जीव के वेदनीय कर्म है, उसके मोहनीय कर्म कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता, परन्तु जिसके मोहनीय कर्म हैं, उसके वेदनीय कर्म नियम से होता है। ३७ प्रश्न-जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स आउयं ० ? ३७ उत्तर-एवं एयाणि परोप्परं णियमं, जहा आउएण. समं एवं णामेण वि गोएण वि समं भाणियव्वं । भावार्थ-३७ प्रश्न---हे भगवन् ! जिसके वेदनीय कर्म है, उसके आयुष्य कर्म हैं, इत्यादि प्रश्न ? ३७ उत्तर-हे गौतम ! ये दोनों कर्म परस्पर अवश्य होते हैं। जिस प्रकार आयुष्य कर्म के साथ कहा, उसी प्रकार नाम और गोत्र कर्म के साथ भी कहना चाहिये। .३८ प्रश्न-जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स अंतराइयं-पुच्छ । ३८ उत्तर-गोयमा ! जस्स वेयणिज्जं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि, सिय नत्थि; जस्स पुण अंतराइयं तस्स वेयणिज्जं णियमं अस्थि । भावार्थ-३८ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसके वेदनीय कर्म है, उसके अन्तराय कर्म है, इत्यादि प्रश्न ? ३८ उत्तर-हे गौतम ! जिसके वेदनीय कर्म है, उसके अन्तराय कर्म कदाचित् होता है, और कदाचित् नहीं भी होता । परन्तु जिसके अन्तराय कर्म For Personal & Private Use Only Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है, उसके वेदनीय कर्म नियना होता है । भगवती सूत्र - श. ८. उ. १० कर्मों का पारस्परिक सम्बन्ध होता है ? ३९ प्रश्न - जस्स णं भंते ! मोहणिज्जं तस्स आउयं, जस्स णं भंते! आउयं तस्स मोहणिज्जं ? ३९ उत्तर---गोयमा ! जस्स मोहणिज्जं तस्स आउयं नियमं अस्थि, जस्स पुण आउयं तस्स पुण मोहणिज्जं सिय अस्थि, सिय नत्थि एवं णामं गोयं अंतराइयं च भाणियव्वं । भावार्थ - ३९ प्रश्न--हे भगवन् ! जिसके मोहनीय कर्म होता है, उसके कर्म होता है और जिसके आयुष्य कर्म होता है, उसके मोहनीय कर्म ३६ उत्तर- - हे गौतम! जिसके मोहनीय कर्म होता है, उसके आयुष्य कर्म अवश्य होता है। जिसके आयुष्य कर्म होता है, उसके मोहनीय कर्म कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता । इसी प्रकार नाम, गोत्र और अन्तराय कर्म के विषय में भी कहना चाहिये । ४० प्रश्न--- जस्स णं भंते ! आज्यं तस्स णामं ४० उत्तर---गोयमा ! दो वि परोप्परं नियमं १५६१ ano " For Personal & Private Use Only पुच्छा । एवं गोत्तेण वि समं भाणियव्वं । भावार्थ - ४० प्रश्न - हे भगवन् ! जिसके आयुष्य कर्म होता है, उसके नाम कर्म भी होता है, इत्यादि प्रश्न ? ४० उत्तर - हे गौतम ! ये दोनों परस्पर नियम से होते हैं । इसी प्रकार गोत्र के साथ भी कहना चाहिये । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६२ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० कर्मों का पारस्परिक सम्बन्ध ४१ प्रश्न-जस्स णं भंते ! आउयं तस्स अंतराइयं-पुच्छा। ४१ उत्तर-गोयमा ! जस्स आउयं तस्स अंतराइयं सिय. अत्थि, सिय पत्थि; जस्स पुण अंतराइयं तस्स आउयं णियमं अत्थि । - भावार्थ-४१ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसके आयुष्य कर्म होता है, उसके अन्तराय कर्म होता है इत्यादि प्रश्न ? ४१ उत्तर-हे गौतम ! जिसके आयुष्य कर्म होता है, उसके अन्तराय कर्म कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता, परन्तु जिसके अन्तराय कर्म होता है, उसके आयुष्य कर्म अवश्य होता है। ४२ प्रश्न-जस्स णं भंते ! णामं तस्स गोयं, जस्स णं गोयं तस्स णं णाम-पुच्छा। - ४२ उत्तर-गोयमा ! जस्स णं णामं तस्स णियमा गोय, जस्स णं गोयं तस्स णियमा णाम; दो वि एए परोप्परं णियमा अस्थि । . भावार्थ-४२ प्रश्न-हे भगवन् ! जिसके नाम कर्म होता है, उसके गोत्र कर्म होता है और जिसके गोत्र कर्म होता है, उसके नाम कर्म भी होता है ? ४२ उत्तर-हे गौतम ! जिसके नामकर्म होता है, उसके गोत्र-कर्म अवश्य होता है और जिसके गौत्र कर्म होता है, उसके नामकर्म भी अवश्य होता है। ये दोनों कर्म परस्पर नियम से होते हैं। ४३ प्रश्न-जस्स णं भंते ! णामं तस्स अंतराइयं-पुच्छा ? ४३ उत्तर-गोयमा ! जस्स णामं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि, For Personal & Private Use Only Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगदती सूत्र - श. ८ उ. १० कर्मों का पारस्परिक सम्बन्ध सिय णत्थि जस्स पुण अंतराइयं तस्स णामं णियमा अस्थि । भावार्थ - ४३ प्रश्न - हे भगवन् ! जिसके नामकर्म होता है, उसके अन्तराय कर्म होता है ? और जिसके अन्तराय कर्म होता है, उसके नामकर्म होता है ? १५६३ ४३ उत्तर- हे गौतम! जिसके नामकर्म होता है, उसके अन्तराय-कर्म कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं भी होता । परन्तु जिसके अन्तराय-कर्म होता है, उसके नामकर्म अवश्य होता है । ४४ प्रश्न - जस्स णं भंते ! गोयं तस्स अंतराइयं पुच्छ । - ४४ उत्तर - गोयमा ! जस्स णं गोयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि; सिय नत्थि जस्स पुण अंतराइयं तस्म गोयं नियमं अस्थि । भावार्थ - ४४ प्रश्न - हे भगवन् ! जिसके गौत्र-कर्म होता है, उसके अन्तराय-कर्म होता है और जिसके अन्तराय कर्म होता है, उसके गोत्र कर्म होता है ? ४४ उत्तर - हे गौतम! जिसके गोत्र-कर्म होता है, उसके अन्तराय-कर्म कदाचित होता है और कदाचित् नहीं भी होता । परन्तु जिसके अन्तराय कर्म होता है, उसके गोत्र-कर्म नियम से होता है । विवेचन- ' भजना' का अर्थ है 'विकल्प' अर्थात् कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता । 'नियमा' का अर्थ है 'नियमतः ' ( अवश्य ) । चोवीस दण्डकों की अपेक्षा आठ कर्मों की नियमा और भजना बतलाई जाती है । मनुष्य में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाती कर्मों की भजना है। वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र- इन चार अघाती कर्मों की नियमा है । २३ दण्डकों में आठ कर्मों की नियमा है । सिद्ध भगवान् में कर्म नहीं होते । आठकर्मों की नियमा और भजना के २८ भंग होते हैं । यथा-ज्ञानावरणीय से ७, दर्शनावरणीय से ६, वेदनीय से ५, मोहनीय से ४, आयुष्य से ३ नाम से २, गोत्र-कर्म से १ । For Personal & Private Use Only • Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६४ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० कर्मों का पारस्परिक सम्बन्ध . १ ज्ञानावरणीय में दर्शनावरणीय की. नियमा है और दर्शनावरणीय में ज्ञानावरणीय की नियमा है। .: २ ज्ञानावरणीय में वेदनीय की नियमा है और वेदनीय में ज्ञानावरणीय की भजना ३ ज्ञानावरणीय में मोहनीय की भजना है और मोहनीय में ज्ञानावरणीय की नियमा है। ४ ज्ञानावरणीय में आयुष्य-कर्म की नियमा है और आयुष्य में ज्ञानावरणीय की भजना है। ५ ज्ञानावरणीय में नाम-कर्म की नियमा है और नामकर्म में ज्ञानावरणीय की भजना है। ६ ज्ञानावरणीय में गोत्र कर्म की नियमा है और गोत्र-कर्म में ज्ञानावरणीय की भजना है। .. ज्ञानावरणीय में अन्तराय की नियमा है और अन्तराय में ज्ञानावरणीय की नियमा है। ८ दर्शनावरणीय में वेदनीय की नियमा है और वेदनीय में दर्शनावरणीय की भजना है। ९ दर्शनावरणीय में मोहनीय की भजना है और मोहनीय में दर्शनावरणीय की नियमा है। ....१० दर्शनावरणीय में आयुप्य की नियमा है और आयुष्य में दर्शनावरणीय की भजना है। ११ दर्शनावरणीय में नामकर्म की नियमा है और नामकर्म में दर्शनावरणीय की भजना है। . १२ दर्शनावरणीय में गोत्र-कर्म की नियमा है और गोत्र-कर्म में दर्शनावरणीय की भजना है। १३ दर्शनावरणीय में अन्तराय-कर्म की नियमा है और अन्तराय में दर्शनावरणीय की नियमा है। १४ वेदनीय में मोहनीय की भजना है और मोहनीय में वेदनीय की नियमा है । १५ वेदनीय में मायुष्य की नियमा है और वायुष्य में वेदनीय की नियमा है। १६ वेदनीय में नामकर्म की नियमा है और नामकर्म में वेदनीय की नियमा है । For Personal & Private Use Only Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . भगवती सूत्र-श. ८ उ. १. जीव पुद्गल है या पुद्गली ? १५६५ १७ वेदनीय में गोत्र-कर्म की नियमा है और गोत्र-कर्म में वेदनीय की नियमा है। १८ वेदनीय में अन्तराय की भजना है और अंतराय में वेदनीय की नियमा है । १९ मोहनीय में आयुष्य की नियमा है और आयुष्य में मोहनीय की भजना है। २० मोहनीय में नामकर्म की नियमा है और नामकर्म में मोहनीय की भजना है। २१ मोहनीय में गोत्र-कर्म की नियमा है और गोत्र-कर्म में मोहनीय को भजना है। २२ मोहनीय में अन्तराय की नियमा है और अन्तराय में मोहनीय की भजना है। २३ आयुष्य में नाम-कर्म की नियमा है और नामकर्म में आयुष्य को नियमा है । २४ आयुष्य में गोत्र-कर्म की नियमा है और गोत्र-कर्म में आयुष्य की नियमा है। २५ आयुष्य में अन्तराय की भजना है और अन्तराय में आयुष्य की नियमा है । २६ नामकर्म में गोत्र-कर्म को नियमा है और गोत्रकर्म में नामकर्म की नियमा है। २७ नामकर्म में अन्तराय की भजना है और अन्तराय में नाम-कर्म की नियमा है। २८ गोत्र-कर्म में अन्तराय की भजना है और अन्तराय में गोत्र-कर्म की नियमा है। इस नियमा और भजना की घटना सुगम है। जीव पुद्गल है या पुद्गली ? ४५ प्रश्न-जीवे णं भंते ! किं पोग्गली, पोग्गले ? ४५ उत्तर-गोयमा ! जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि । (प्र.) से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-'जीवे पोग्गली वि, पोग्गले वि' ? (उ.) गोयमा ! से जहाणामए-छत्तेणं छत्ती, दंडेणं दंडी, घडेणं घडी, पडेणं पडी, करेणं करी, एवामेव गोयमा ! जीवे वि सोइंदियचक्खिदिय-पाणिदिय-जिभिदिय-फासिंदियाई पडुच्च पोग्गली, जीवं पडुच्च पोग्गले; से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'जीवे पोग्गली वि, For Personal & Private Use Only Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६६ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० जीव पुद्गल है या पुद्गली ? पोग्गले वि'। ४६ प्रश्न-णेरइए णं भंते ! किं पोग्गली० ? ४६ उत्तर-एवं चेव, एवं जाव वेमाणिए, णवरं जस्स जइ इंदियाइं तस्स तइ वि भाणियब्वाई। ४७ प्रश्न-सिदधे णं भंते ! किं पोग्गली, पोग्गले ? ४७ उत्तर-गोयमा ! णो पोग्गली, पोग्गले । (प्र.) से केणटेणं . भंते ! एवं वुच्चइ-'जाव पोग्गले' ? (उ.) गोयमा ! जीवं पडुच्च, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-'सिधे णो पोग्गली, पोग्गले ।' ® सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति के ॥ अट्ठमसए दसमो उद्देसो समत्तों ॥ ॥अट्ठमं सयं समत्तं ॥ कठिन शब्दार्थ-पोग्गली-पुद्गली (इन्द्रियों वाला) पोग्गले--पुद्गल (जीव) पडेणं पडी--पट-वस्त्र युक्त होने पर पटी (सवस्त्री) पडुच्च--अपेक्षा (आश्रय) से, करेणं करी--हाथ से हाथ वाला। भावार्थ-४५ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव पुद्गली है, अथवा पुद्गल ? ४५ उत्तर-हे गौतम ! जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी। प्रश्न-हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहते हैं कि 'जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी है? उत्तर-हे गौतम ! जिस पुरुष के पास छत्र हो उसे छत्री, दण्ड हो उसे दण्डी, घट हो उसे घटी, पट हो उसे पटी और कर हो उसे करी कहते है, उसी प्रकार जीव भी श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय जिव्हेन्द्रिय, और पत्ता समत्ता॥ For Personal & Private Use Only Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. १० जीव पुद्गल है या पुद्गली ? १५६७ स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा 'पुद्गली' कहलाता है और जीव को अपेक्षा 'पुद्गल' कहलाता है । इसलिये हे गौतम ! में ऐसा कहता हूं कि 'जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी है।' ४६ प्रश्न-हे भगवन् ! नैरयिक जीव पुद्गली है अथवा पुद्गल ? ४६ उत्तर-हे गौतम! उपरोक्त सूत्र की तरह यहां भी कहना चाहिये। अर्थात् नैरयिक जीव पुद्गली भी है और पुद्गल भी है । इसी प्रकार वैमानिक पर्यत कहना चाहिये, परन्तु जिन जीवों के जितनी इन्द्रियां हों, उनके उतनी इन्द्रियां कहनी चाहिये। ४७ प्रश्न- हे भगवन् ! सिद्ध जीव पुद्गली है या पुद्गल ? ४७ उत्तर-हे गौतम ! सिद्ध जीव, पुद्गली नहीं, किन्तु पुद्गल हैं ? (प्र.) हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा कि--'सिद्ध नीव पुद्गलों नहीं, पुद्गल है' ? (उ.) हे गौतम ! जीव की अपेक्षा सिद्ध जीव पुद्गल है, इसलिए ऐसा कहता हूँ कि सिद्ध जीव पुद्गली नहीं पुद्गल हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। इस प्रकार कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। . - विवेचन-श्रोत्र, चक्षु, आदि पुद्गल जिसके हों, उसे 'पुद्गली' कहते हैं । घट, पट, दण्ड, छत्र आदि के योग से पुरुष को--घटी, पटी, दण्डी, छत्री कहते हैं । इसी प्रकार पुद्गल (इन्द्रियों) के योग से जीव को 'पुद्गली' कहते हैं। ‘जीव को जो 'पुद्गल' कहा है, वह जीव की संज्ञा' है। अर्थात् जीव के लिये गुद्गल शब्द संज्ञावाची है। ॥ इति आठवें शतक का दसवां उद्देशक समाप्त ॥ आठवाँ शतक सम्पूर्ण । तृतीय भाग समाप्त ॥ For Personal & Private Use Only Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री भगवती सूत्र के .. प्रथम भाग मेंशतक १-२ पृ. १ से ५३२ तक । द्वितीय भाग मेंशतक ३-४-५-६ पृ. ५३३ से १०७६ तक । तृतीय भाग मेंशतक ७-८ पृ. १०७७ से १५७० तक । चतुर्थ भाग छप रहा है। For Personal & Private Use Only Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पावयणं जिग्गथं पा जो 20 PROIN सिययंत श्री अ.भा.सूधम ज्वमिज्जय संघ जोधपुर तसंघ गुण स्कृति रक्षाक संघ कात रख कृति रक्षक Aअखिक कति रक्षक संघ संघ अखिद कति रक्षक संघ अखिल रक्षक संघ अखिल कति रक्षक संघ अखिल भारत सस्कृति रक्षक संघ अखिद कति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधा जनजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिद कति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृाया भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिद कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिट कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखि कति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिद कृतिरक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्मजैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिद कति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखि कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षकसंघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल कृति रक्षक संघ अखिलभारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल कति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघ अखिल कति रक्षक संघ अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षक संघal अखिल भारतीय सुधर्म जैन संस्कृति रक्षकसंघ अखिल कति रक्षक संघ अखिल भारतीय समर्मजोन संस्कनिरक्षक संघ अस्तिलभारतीय सधर्मजैन संस