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भगवती सूत्र-श. ८ उ. ७ अन्य-तौर्थिक और स्थविर संवाद
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अम्हे देसं देमेणं वयमाणा पएमं पएमेणं वयमाणा णो पुढविं पेञ्चेमो अभिहणामो, जाव उवद्दवेमो; तएणं अम्हे पुढविं अपेच्चेमाणा, अणभिहणेमाणा, जाव अणुबद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं संजय० जाव एगंतपंडिया या वि भवामो । तुम्भे णं अजो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय० जाव वाला या वि भवह ।
कठिन शब्दार्थ--रोयं रीयमाणा--गति करते हुए पेच्चेह-दवाते हो, वत्तेहआघात करते हो, लेसेह-भूमि में संश्लिष्ट करते हो, संघट्टेह-स्पर्श करते हो, जोयं-योग ।
भावार्थ-१४ यह सुनकर उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवंतों से इस प्रकार कहा-'हे आर्यों ! तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत यावत् एकांत बाल हो।'
१५-तब उन स्थविर भगवंतों ने अन्यतीथिकों से इस प्रकार पूछा-'हे आर्यों ! हम किस कारण से त्रिविध-त्रिविध असंयत यावत् एकांत बाल हैं ?'
१६-तब उन अन्यतीथिकों ने उन स्थविर भगवन्तों से इस प्रकार कहा-'हे आर्यों ! चलते हुए तुम पृथ्वोकायिक जीवों को दबाते हो, मारते हो, पादाभिघात करते हो, भूमि के साथ उन्हें श्लिष्ट करते हो, संहत (एकत्रित। करते हो, संघट्टित करते हो, परितापित करते हो, क्लान्त करते हो, मारणान्तिक कष्ट देते हो, उपद्रवित करते हो (मार देते हो) इस प्रकार पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते हुए यावत् मारते हुए तुम त्रिविध-त्रिविध असंयत, अविरत यावत् एकान्त बाल हो। .
१७-तब उन स्थविर भगवन्तों ने उन अन्यतीथिकों से इस प्रकार कहा'हे आर्यों ! चलते हुए हम पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते नहीं, हनते नहीं, यावत् मारते नहीं । हे आर्यों ! चलते हुए हम काय अर्थात् शरीर के लघु-नीत, बडी. नीत आदि कार्य के लिये, योग के लिये अर्थात् ग्लानादिक को सेवा
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