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भगवती सूत्र-श. ८ उ. ७ अन्य-तीथिक और विर संवाद
के लिये और कृत (सत्य) के लिये अर्थात् अप्कायादि जीव-रक्षण रूप संयम के लिये एक स्थल से दूसरे स्थल पर जाते हैं, एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने इस प्रकार एक स्थल से दूसरे स्थल पर और एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में जाने हए हम पृथ्वीकायिक जीवों को दबाते नहीं, उनका हनन नहीं करते पावन उनको मारते नहीं, अतः पृथ्वोकायिक जीवों को नहीं दबाते हुए, नहीं हनने हुए यासत नहीं मारते हुए हम त्रिविध-त्रिविध संयत, विरत यावत एकांत परित। किंतु हे आर्यों ! तुम स्वयं त्रिविध-त्रिविध असंयत अभिरत पावन काल बाल हो।'
१८-तएणं ते अण्णउत्थिया ते धेरै भगवन नवं वयामी-कण कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव पगंनवाला या वि भवामो ?
१९-तएणं ते तेरा भगवंतो ते अण्णन्धित एवं वयामा-तम्भ णं अनो! रीयं रीयमाणा पुढवि पन्चेह, जाव ववहः नाणं तुम्भे पुढविं पेच्चमाणा, जाव बहवेमाणा निविहं निविणं जाव एगंतवाला यावि भवह।
२०-तएणं ते अण्णउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयामा-तुमे (भं) णं अजो! गम्ममाणे अगए. बीडकमिन्त्रमाण अवीइक्कने. रायगिहं णयरं संपाविउकामे अमंपन । ___२१-तएणं ते थेरा भगवंतो ते अण्णउत्थिए एवं वयामीणों खलु अजो ! अम्हं गम्ममाणे अगए, बीइकमिन्जमाणे अवीइक्कते.
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