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भगवती मूत्र-श. 3. उ. २ सुप्रत्यान्यान दुष्प्रत्याख्यान
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पाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं . पञ्चश्वायमिति वयमाणे सच्चं भामं भासइ, णो मोसं भासं भासइ । एवं खलु से सच्चवाई सव्वपाणेहिं, जाव सव्वसत्तेहिं तिविहं तिविहेणं संजय-विरय-पडिहय-पञ्चवखायपावकम्मे, अकिरिए, संवुडे, एगंतपंडिए यावि भवइ, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-जाव सिय दुपञ्चक्खायं भवइ ।
कठिन शब्दार्थ-अभिसमण्णागयं-इस प्रकार का ज्ञान होना, सकिरिए-सक्रिय, असंवडे-असंवृत (जिसने आश्वव द्वारों को नहीं रोका) एगंतवंडे-एकान्त दण्ड (दूसरे प्राणियों की हिंसा करने वाला) एगंतबाले-एकान्तबाल (सर्वथा अज्ञानी)।
भावार्थ-१ प्रश्न-हे भगवन् ! 'मैने सभी प्राण. सभी भत. सभी जीव और सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है, इस प्रकार कहने वाले के सुप्रत्याख्यान होता है, या दुष्प्रत्याख्यान होता है ?
.१ उत्तर-हे गौतम ! 'मने सभी प्राण, सभी भूत, सभी जीव, और सभी सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है'-इस प्रकार बोलने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है। ___प्रश्न-हे भगवन् ! आप ऐसा क्यों कहते हैं कि सभी प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का त्याग करने वाले के कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है. ? ..
उत्तर-हे गौतम ! 'मैने सर्वप्राण. यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है'-इस प्रकार बोलने वाले पुरुष को यदि इस प्रकार का ज्ञान नहीं होता कि 'ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये स हैं, ये स्थावर हैं, उस पुरुष का प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान नहीं होता, किन्तु दुष्प्रत्याख्यान होता है।' 'मैने सभी प्राण यावत् सभी सत्त्वों को हिंसा का प्रत्याख्यान किया है-इस प्रकार बोलता हुआ वह दुष्प्रत्याख्यानो पुरुष, सत्यभाषा नहीं बोलता, किन्तु असत्य
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