________________
१११२
भगवती सूत्र - श. ७ उ २ सुप्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान
भाषा बोलता है । इस प्रकार वह मृषावादी सर्वप्राण यावत् सर्व सत्वों में तीन करण तीन योग से असंयत, (संयम रहित) अविरत (विरति रहित ) पापकर्म का अत्यागी एवं अप्रत्याख्यानी ( जिसने पापकर्म का त्याग और प्रत्याख्यान नहीं किया है) सक्रिय ( कायिकी आदि कर्म-बन्ध की क्रियाओं से युक्त ) संवर रहित, एकान्तदण्ड ( हिंसा करने वाला) और एकान्त अज्ञानी है ।
गौतम ! जो पुरुष जीव, अजीव, त्रस और स्थावर को जानता है, उसको ऐसा ज्ञान है, तो उसका कहना कि 'मैने सर्व प्राण यावत् सर्व सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है'- सत्य है। उसका प्रत्याख्यान, सुप्रत्याख्यान है, किंतु दुष्प्रत्याख्यान नहीं । 'मैने सर्व प्राण यावत् सब सत्त्वों की हिंसा का प्रत्याख्यान किया है' - इस प्रकार बोलने वाला वह सुप्रत्याख्यानी, सत्य भाषा बोलता है, मृषा भाषा नहीं बोलता । इस प्रकार वह सुप्रत्याख्यानी सत्यभाषी, सर्वप्राण यावत् सर्व सत्वों में तीन करण तीन योग से संयत, विरत, पाप-कर्म का त्यागी, प्रत्यायानी, अक्रिय (कर्म-बन्ध की क्रियाओं से रहित ) संवरयुक्त और एकान्त पंडित है । इसलिये हे गौतम ! ऐसा कहा जाता हूं कि यावत् कदाचित् सुप्रत्याख्यान होता है और कदाचित् दुष्प्रत्याख्यान होता है ।
विवेचन - प्रथम उद्देशक में प्रत्याख्यानी जीव का वर्णन किया गया है । अब इस दूसरे उद्देशक में प्रत्याख्यान का वर्णन किया जाता है ।
किस जीव का प्रत्याख्यान, सुप्रत्याख्यान होता है और किस का दुष्प्रत्याख्यान होता है, इस प्रश्न के उत्तर में बतलाया गया है कि सभी प्राण, भूत, जीव. सत्त्व की हिंसा का प्रत्याख्यान करने वाले जीव को यदि जीव, अजीव, त्रस और स्थावर का ज्ञान है, तो उसका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है और जिसको इनका ज्ञान नहीं, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है । क्योंकि ज्ञान के अभाव में उसे यथावत् बोध नहीं हो सकता ।
--
आगे के प्रश्न का उत्तर देते हुए दुष्प्रत्याख्यान का कथन पहले किया गया और सुप्रत्याख्यान का पीछे, इसका कारण यह है कि यहाँ 'यथा संख्य' न्याय को छोड़कर 'यथासन्न' न्याय स्वीकार किया गया है +।
+ जो शब्द पहले माया है, उसको व्याख्या पहले करना और जो शब्द पीछे जाया है, उसकी
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org