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________________ १२९६. भगवती सूत्र-श..८ उ. २ छमस्थ द्वारा अज्ञेय विवेचन-आशीविष-'आशी' का अर्थ है-'दाढ़' (दंष्ट्रा) । जिन जीवों की दाढ़ में विष होता है, उनको 'आशीविष' कहते हैं । आशीविष प्राणियों के दो भेद हैं-१ जातिआशीविष और २ कम-आशीविष । सांप, विच्छ आदि प्राणी जाति (जन्म) से ही आशीविष होते हैं । इसलिये उन्हें 'जाति-आशीविष' कहते हैं । जो कर्म अर्थात् शाप (श्राप) आदि द्वारा प्राणियों का नाश करते हैं, उन्हें 'कर्म-आशीविष' कहते हैं। पर्याप्त तियंच पंचें. द्रिय और मनुष्य को तपश्चर्या आदि से अथवा अन्य किसी गुणों के कारण 'आशीविष लब्धि उत्पन्न हो जाती है। इसलिये वे शाप देकर दूसरे का नाश करने की शक्तिवाले होते हैं। ये जीव आशीविष लब्धि के स्वभाव से आठवें देवलोक से आगे उत्पन्न नहीं हो सकते। उन्होंने पूर्व-भव में आशीविष-लब्धि का अनुभव किया था। अतः वे देव, अपर्याप्त अवस्था में आशीविष युक्त होते हैं । इन विषों का जो विषय परिमाण बतलाया गया है, उसका आशय यह है कि असत्कल्पना से जैसे किसी मनुष्य ने अपना शरीर अर्द्ध भरत प्रमाण बनाया हो, उसके पर में बिच्छू डंक दे, तो उसके मस्तक तक उसका जहर चढ़ जाता है । इसी प्रकार भरत प्रमाण, जम्बूद्वीप प्रमाण और ढाई द्वीप प्रमाण का अर्थ समझना चाहिये । यह इनका सामर्थ्यमात्र है, परन्तु इन्होंने ऐसा कभी किया नहीं, करते नहीं और करेंगे भी नहीं । छद्मस्थ द्वारा अज्ञेय १६ दस ठाणाइं छउमत्थे सवभावेणं ण जाणइ ण पासइ, तं जहा-१ धम्मत्थिकायं, २ अधम्मत्थिकायं, ३ आगासत्थिकायं, ४ जीवं असरीरपडिवळू, ५ परमाणुपोग्गलं, ६ सदं, ७ गंध, ८ वायं, ९ अयं जिणे भविस्सइ वा ण वा भविस्सइ, १० अयं सव्वदुक्खाणं अंतं करेस्सइ वा ण वा करेस्सइ । एयाणि चेव उप्पण्णणाण-दसणधरे अरहा जिणे केवली सव्वभावेणं जाणइ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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