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________________ भगवती सूत्र - श. ८ उ. २ छद्द्मस्य द्वारा अज्ञेय पास, तं जहा - धम्मत्थिकार्य, जाव करेस्सह वा ण वा करेस्सह । कठिन शब्दार्थ - छउमत्थे – छद्मस्थ ( जो सर्वज्ञ नहीं = अपूर्ण ज्ञानी) सब्वभावेणंसभी भावों से अर्थात् अनन्त पर्यायों से । भावार्थ - - १६ छद्मस्थ पुरुष इन दस वस्तुओं को सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता । यथा-- १ धर्मास्तिकाय २ अधर्मास्तिकाय, ३ आकाशास्तिकाय, ४ शरीर रहित जीव, ५ परमाणु पुद्गल, ६ शब्द, ७ गन्ध ८ वायु, ९ यह जीव जिन होगा या नहीं, १० यह जीव सभी दुःखों का अन्त करेगा या नहीं। इन दस बातों को उत्पन्न ज्ञान दर्शन के धारक, अरिहन्त - जिनकेवल ही सर्वभाव से जानते और देखते है । यथा-धर्मास्तिकाय यावत् यह जीव समस्त दुःखों का अन्त करेगा या नहीं । १२६७ विवेचन- - छमस्थ का सामान्यतया अर्थ है- 'केवलज्ञान रहित' । किन्तु यहाँ पर छद्मस्थ का अर्थ है- 'अवधिज्ञान आदि विशिष्ट ज्ञान रहित ।' क्योंकि विशिष्ट अवधिज्ञानी अमूर्त होने से धर्मास्तिकाय आदि को नहीं जानता नहीं देखता, किन्तु परमाणु आदि मूर्त हैं, उनको वह जानता है। क्योंकि विशिष्ट अवधिज्ञान का विषय सर्वमूर्त द्रव्य है । यहाँ यदि कोई यह शंका करे कि छद्मस्थ, परमाणु आदि को कथंचित् जानता है, परन्तु समस्त पर्यायों से नहीं जानता, इसलिये मूलपाठ में - 'सव्व भावेणं ण जाणइ ण पास '-- कहा है, अर्थात् ' वह सर्वभाव से नहीं जानता और नहीं देखता।' इसका उत्तर यह है कि यदि इसका ऐसा अर्थ किया जायेगा, तो छद्मस्थ के लिये अज्ञेय दस संख्या का नियम नहीं रहेगा। क्योंकि घटादि बहुत पदार्थों को छद्मस्थ, अनन्त पर्याय रूप से जानने में असमर्थ है । इसलिये 'सव्वभावेणं' अर्थात् सर्व-भाव का अर्थ है - 'साक्षात् ' ( प्रत्यक्ष ) 1 यह अर्थ करने से ही इस सूत्र का अर्थ संगत होगा कि 'अवध्यादि विशिष्ट ज्ञान रहित छद्मस्थ, धर्मास्तिकाय आदि दस वस्तुओं को प्रत्यक्ष रूप से नहीं जानता और नहीं देखता । इन दस बातों को जानने वाले का कथन करते हुए कहा है कि उत्पन्न केवलज्ञान-दर्शन के धारक अरिहन्त - जिन के वली, केवलज्ञान के द्वारा इन दस बातों को सर्वभाव से अर्थात् साक्षात् रूप से जानते हैं और देखते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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