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________________ भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञ.न अजान के पर्याय १३६५ अनन्त अंश होते हैं । इस अपेक्षा से भी मतिनान के अनन्त पर्याय कहे जाते हैं। मतिज्ञान के सिवाय दूसरे पदार्थों के जो पर्याय हैं, वे पर-पर्याय' कहलाते हैं, ऐसे पर-पर्याय, स्वपर्याय से अनन्त गुण हैं। शङ्का-यदि वे परपर्याय हैं, तो 'व मतिज्ञान के हैं'-एसा कसे कहा जा सकता है ? यदि वे मनिज्ञान के हैं, तो पर -पर्याय कैसे कहे जा सकते हैं ? समाधान-पर-पदार्थों के पर्यायों का मतिज्ञान के विषय से सम्बन्ध नहीं है । इसलिये वे पर-पर्याय कहे जा सकते हैं । परन्तु मतिज्ञान के स्व-पर्यायों का बोध कराने में तथा परपर्यायों से उन्हें भिन्न बतलाने में प्रतियोगी रूप से उनका उपयोग है । इसलिये वे मतिज्ञान के 'पर-पर्याय' कहलाते हैं। श्रुतज्ञान के भी स्व-पर्याय और पर-पर्याय अनन्त हैं। उनमें से श्रुतज्ञान के अक्षरश्रुत और अनक्षर-श्रुत आदि जो भेद हैं, वे 'स्व-पर्याय' कहलाते हैं और वे अनन्त हैं। क्योंकि श्रुतज्ञान के क्षयोपशम की विचित्रता से तथा श्रुतज्ञान के विषयभूत ज्ञेय-पदार्थ अनन्त होने से श्रुतज्ञान के (श्रुतानुसारीबोध के) भी अनन्त भेद हो जाते हैं । अथवा केवलज्ञान के द्वारा श्रुतज्ञान के अनन्त अंश होते हैं और वे उसके स्व-पर्याय कहलाते हैं । उनसे भिन्न पदार्थों के . विशेष धर्म, श्रुतज्ञान के परपर्याय कहलाते हैं। अवधिज्ञान के स्व-पर्याय अनन्त हैं । क्योंकि उसके भव-प्रत्यय और क्षायोपशमिक-इन दो भेदों के कारण उनके स्वामी देव और नरयिक तथा मनुष्य और तिर्यञ्च के भेद से, असंख्य क्षेत्र और काल के भेद से, अनन्त द्रव्य-पर्याय के भेद से और उसके केवलज्ञान द्वारा अनन्त अंश होने से अवधिज्ञान के अनन्त भेद होते हैं । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान के विषयभूत अनन्तपदार्थ होने से तथा उनके अनन्त अशों की कल्पना से अनन्त पर्याय होते है। यहां जो पर्यायों का अल्पबहुत्व बतलाया गया है, वह स्वपर्यायों की अपेक्षा से समझना चाहिये । क्योंकि सभी ज्ञानों के स्व-पर्याय और पर-पर्याय परस्पर तुल्य हैं। सब से थोड़े मनःपर्ययज्ञान के पर्याय हैं। क्योंकि उसका विषय केवल मन ही हैं। उससे अवधिज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं । क्योंकि मनःपर्ययज्ञान की अपेक्षा अवधिज्ञान का विषय द्रव्य और पर्यायों से अनन्त गुण है । उनसे श्रुतज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं। क्योंकि उसका विषय, रूपी और अरूपी द्रव्य होने से वे उनसे अनन्तगुण हैं । उनसे आभिनिबोधिकज्ञान के पर्याय अनन्त गुण हैं । क्योंकि उनका विषय अभिलाप्य और अनभिलाप्य पदार्थ होने से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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