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________________ भगवती सूत्र-श. ८. उ. ६ दूसरों के लिए प्राप्त पिण्ड का उपभोग १३९५ स्थानों पर दिया है, वही अर्थ यहाँ भी घटित होता है । यथा- .. बहुत परिमाण में बहरा देने से जिस आहार को परठना पड़े, जो आहार बहुत उसित धर्मवाला हो (जिसमें खाने लायक अंश थोड़ा और परठने योग्य अंश बहुत अधिक हो, ऐसा आहार अचित्त तथा अन्य दोषों से रहित होते हुए भी उसमें से बहुत अंश परठना पड़ता हैं, इस कारण उसे 'अप्रासुक अनेषणीय कहा है) । मालोहड (मालापहृत) आहारादि, शय्यातरपिण्ड, स्वामी की आज्ञा बिना दिया हुआ आहारादि, जो वस्त्र-पात्रादि टिकाऊ न हो तथा काम में आने लायक न हो, मंगते-भिखारी को देने का आहारादि, इत्यादि पदार्थ निर्जीव एवं ततद्गत दोष के अतिरिक्त अन्य दोषों से रहित होते हुए भी उनको 'अप्रासुक अनेषणीय' बतलाया है । अतः 'अप्रासुक अनेषणीय' का यही अर्थ यहां भी लेना चाहिये । अर्थात् यहाँ 'अप्रासुक अनेवणीय' का अर्थ है-साधु के लिये अकल्पनीय । इस प्रकार का 'अप्रासुक अनेषणोय' आहारादि बहराने से बहुत निर्जरा और अल्प पाप होता है । यथा __किसी पुष्ट कारण के उपस्थित होने पर साधारण संघट्टा आदि (परम्परा से बीजादि का संघट्टा लगता हो, स्वयं की जेब में इलायची आदि कोई सचित्त पदार्थ हो) दोष को गौण करके दाता ने जो आहारादि बहराया हो, उससे भी बहुत निर्जरा और अल्प पाप होता है । जैसे-कोई सन्त महात्मा, गर्मी के मौसम में विहार करके किसी गांव में पधारे। विलम्ब से पधारने के कारण दिन बहुत चढ़ गया हो। ऐसे समय में धोवन-पानी का कहीं भी योग नहीं मिला । प्यास के मारे प्राण जाने तक की नौबत आगई, उस वक्त एक श्रावक के घर में स्वाभाविक धोवन पानी पड़ा था, किन्तु साधारण संघट्टा आदि लगता था। उसे गौण करके श्रावक ने वह धोवन पानी मुनि को बहरा दिया। उस श्रावक को संघट्टा सम्बन्धी अल्प पाप लगा और उस सन्त महात्मा के प्राण बच गये । उससे निर्ज। रूप महालाभ मिला । इसी तरह किसी खास औषध आदि के सम्बन्ध में भी जानना चाहिये। दूसरों के लिए प्राप्त पिण्ड का उपभोग ४-णिग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविट्ठ केह दोहिं पिंडेहिं उवणिमंतेजा-एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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