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भगवती सूत्र-श. ८ उ. ६ श्रमण-अश्रमण के प्रतिलाभ का फल
जो मुख को स्वाद युक्त करने के लिये, भोजन के बाद खाने लायक स्वादिष्ट पदार्थ । जैसे-लोंग, चूर्ण, गोली, खटाई आदि ।
___ऊपर तीनों सूत्रों में 'तहारूवं समगं.....पाठ आया है । उसका अर्थ है-'तथारूप के साधु अर्थात् साधु का रूप' । जो बाह्य और आभ्यन्तर रूप से साधु है, साधु के योग्य वस्त्र-पात्रादि धारण किये हुए हैं और चारित्रादि गुणयुक्त है।
___ पहले और दूसरे सूत्र में 'तथारूप' का अर्थ है-'जैनागमों में वर्णित साधु के वेश तथा गुणों से युक्त ।' तीसरे सूत्र में जो 'तथारूप' शब्द आया है, उसके साथ 'असंयत, 'अविरत' आदि विशेषण लगे हुए हैं। इसलिये वहाँ इसका अर्थ है-'मिथ्यामत को दीपानेवाले बाबा, जोगी, सन्यासी आदि । इसको जो गुरु-बुद्धि से दान दे, उसका यहाँ कथन है।
तीनों ही पाठ में 'पडिलाभेमाणस्स'-पाठ आया है । यह पाठ गुरु-बुद्धि से दान देने का सूचक है । साधारण भीखमंगों आदि को देने में पडिलाभे' पाठ नहीं आता । जहाँ भी से भिखारियों आदि को देने का वर्णन आया है, वहां-'इलयइ' या 'दलेज्जा' आदि पाठ आया है।
'तथारूप' के अर्थात् साधु के वेष प्रवृत्ति और गुणों से युक्त साधु को प्रासुक, एषणीय (मुनि के कल्प योग्य निर्दोष ) अशनादि देने से दाता को एकान्त निर्जरा होती है।
दूसरे सूत्र में यह बतलाया गया है कि 'तथारूप' (साधु के गुणों से युक्त) साधु को अप्रासुक, अनेषणीय अशनादि देने से अल्प पाप और बहुत निर्जरा होती है अर्थात् पापकर्म की अपेक्षा. बहुत अधिक निर्जरा होती है और निर्जरा की अपेक्षा पाप बहुत थोड़ा होता है।
प्रासुक और एषणीय शब्दों का अर्थ अनेक स्थानों पर इस प्रकार किया है। यथा'प्रासुक' अर्थात् 'निर्जीव' और 'एषणीय' अर्थात् 'निर्दोष' । इस व्याख्या के अनुसार 'अप्रासुक' का अर्थ 'सजीव' और 'अनेषणीय' का अर्थ 'सदोष' होता है। किन्तु यहां बहुत निर्जरा अल्प पाप के प्रकरण में यह अर्थ घटित नहीं होता। क्योंकि तथारूप के श्रमण (शुद्ध साधु) को जानबूझकर सचित्त वस्तु तथा महादोपयुक्त अनेषणीय वस्तु बहराकर, दाता क्या कभी बहुत निर्जरा का भागी हो सकता है ? नहीं । दूसरी बात यह है कि आत्मार्थी मुनि ऐसा सचित्त और अनेषणीय (महादोषयुक्त) आहार लेंगे ही कैसे ? अतः 'अप्रासुक और अनेषणीय' का जो अर्थ आचारांग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध में अनेक
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