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भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ जान दर्शनादि लब्धि
यदि कोई यहां गंका करे कि इत्वरिक सामायिक वाले साधु ने यावज्जीवन के लिये सावध योग का त्याग किया है, फिर छेदोपस्थापनीय चारित्र को अंगीकार करने पर पूर्व चारित्र का त्याग हो जाने से पूर्व गृहीत प्रतिज्ञा का भंग क्यों नहीं होगा?
समाधान-छेदोपस्थापनीय चारित्र में भी सावध योगों का त्याग होता है । इसलिये इत्वर-कालिक सामायिक के समय गृहीत सर्व सावध योग त्यागरूप प्रतिज्ञा का भंग नहीं होता, अपितु चारित्र की विशेष शुद्धि होने के नाम मात्र का भेद होता है ।
(२) छंदोपस्थापनीय चारित्र-जिम चारित्र में पूर्व पर्याय का छेद एवं महावतों में उपस्थान-आरोपण होता है. उसे 'छेदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं।
, अथवा-पूर्व पर्याय का छेद करके जो महावत दिये जाते हैं, उसे 'छदोपस्थापनीय चारित्र' कहते हैं।
___ यह चारित्र भरतक्षेत्र और ऐरावत क्षेत्र के प्रथम और चरम तीर्थंकरों के तीर्थ में ही होता है, शेष तीर्थंकरों के तीर्थ में नहीं होता । छेदोपस्थापनीय चारित्र के दो भंद हैं
१ निरतिचार छंदोपस्थापनीय-इत्वर सामायिक वाले शिष्य के एवं एक तीर्थ से दूसरे तीर्थ में जाने वाले (तेईसवें तीर्थङ्कर के शासन से चौवीसवें तीर्थङ्कर के शासन में जाने वाले) माधुओं के जो व्रतों का आरोपण होता है, वह-निरतिचार छेदोपस्थापनीय चारित्र' है।
- २ सातिबार छेदोपस्थापपनीय-मूल गुणों का घात करने वाले साधु के जो पुनः महाव्रतों का आरोपण होता है, वह-'सातिचार छंदोपस्थापनीय चारित्र' है।
.(३) परिहार-विशुद्धि चारित्र-जिस चारित्र में परिहार (तप विशेष) से कर्म निर्जरा रूप शुद्धि होती है, उसे-'परिहार-विशुद्धि चारित्र' कहते हैं । अथवा-जिस चारित्र में अनेषणीयादि का परित्याग विशेषरूप से शुद्ध होता है, वह 'परिहार-विशुद्धि चारित्र' है।
स्वयं तीर्थंकर भगवान् के पास, या जिसने तीर्थंकर भगवान के पास रहकर पहले परिहार विशुद्धि चारित्र अंगीकार किया है, उसके पास यह चारित्र अंगीकार किया जाता है । नौ साधुओं का गण, परिहार तप अंगीकार करता है । इनमें से चार साधु पहले तप करते हैं, वे 'पारिहारिक' कहलाते हैं, चार वयावृत्य करते हैं, वे 'आनुपारिहारिक' कहलाते हैं और एक साधु कल्पस्थित अर्थात् गुरु रूप में वाचनाचार्य रहता है, जिसके पास पारि
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