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________________ भगवती सूत्र--श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि चारित्रलब्धि--चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से होने वाले विरति परिणाम को 'चारित्र' कहते हैं। अथवा अन्य जन्म में ग्रहण किये हुए कममल को दूर करने के लिये मोक्षाभिलाषी आत्मा का सर्व-सावध योग से निवृत्त होना-. चारित्र' कहलाता है । चारित्र के पांच भेद हैं । उनका अर्थ इस प्रकार है-- (१) सामायिक चारित्र-'सम' अर्थात् राग-द्वेष रहित आत्मा के प्रतिक्षण अपूर्व निर्जरा से होने वाली आत्मविशुद्धि का प्राप्त होना--'सामायिक' है। भवाटवी के भ्रमण से पैदा होने वाले क्लेश को प्रतिक्षण नाश करने वाले, चिन्तामणि, कामधेनु और कल्पवृक्ष के सुखों से भी बढ़कर निरुपम सुख देने वाले, ऐसे ज्ञान, दर्शन, चारित्ररूप पर्यायो को प्राप्त कराने वाले, राग-द्वेष रहित आत्मा के क्रियानुष्ठान को-'सामायिक चारित्र' कहते हैं। सर्वसावध व्यापार का त्याग करना एवं निरवद्य व्यापार का सेवन करना-- 'सामायिक चारित्र' है। यों तो चारित्र के सभी भेद सावद्ययोग विरति रूप हैं । इसलिये सामान्यतः सभी चारित्र सामायिक ही हैं, किन्तु चारित्र के दूसरे भेदों के साथ छेद आदि विशेषण लगे हुए होने से नाम और अर्थ से भिन्न-भिन्न बताये गये हैं । छेद आदि विशेषणों के न होने से पहले चारित्र का नाम सामान्य रूप से सामायिक ही दिया गया है। सामायिक के दो भेद-१ इत्वरकालिक सामायिक और २ यावत्कथिक सामायिक। इत्वरकालिक सामायिक-इत्वर काल का अर्थ है-अल्पकाल अर्थात् भविष्य में दूसरी बार फिर सामायिक व्रत का व्यपदेश होने से जो अल्पकाल की सामायिक हो, उसे इत्वरकालिक सामायिक कहते हैं। पहले एवं अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान् के तीर्थ में जब तक शिष्य में महाव्रत का आरोपण नहीं किया जाता, तब तक उस शिष्य के 'इत्वर कालिक सामायिक' समझनी चाहिये। . यावत्कथिक सामायिक-यावज्जीवन की सामायिक को 'यावत्कथिक सामायिक' कहते हैं। प्रथम और अन्तिम तीर्थङ्कर के सिवाय शेष वाईस तीर्थकर भगवान् एवं महाविदेह क्षेत्र के तीर्थङ्करों के साधुओं के यावत्कर्थिक सामायिक होती है । क्योंकि इन तीर्षङ्करों के शिष्यों को दूसरी बार सामायिक व्रत नहीं दिया जाता। वे ऋतु और प्राज्ञ होने से उनके चारित्र में दोष का संभव नहीं है। इसलिये उनके प्रारंभ से ही यावत्कषिक सामायिक चारित्र होता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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