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भगवती सूत्र-श. ८ उ. २ ज्ञान दर्शनादि लब्धि
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बोधिक ज्ञान (मतिजान) आदि का प्रकट होना।
(२) दर्शनलब्धि-सम्यक, मिथ्या या मिश्र-श्रद्धानरूप आत्मा का परिणाम'दर्शनलब्धि ' है।
(३) चारित्र लब्धि-चारित्रमोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से होने वाला आत्मा का परिणाम चारित्र-लब्धि' है।
(४) चारित्राचारित्र लब्धि-अप्रत्याख्यानी कर्म के क्षयोपशम से होने वाले आत्मा के देशविरति रूप परिणाम को 'चारित्राचारित्र लब्धि' कहते हैं ।
(५) दान लब्धि-दानान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि । (६) लाभ लब्धि-लाभान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि । (७) भोग लब्धि-भोगान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि । (८) उपभोग लब्धि-उपभोगान्तराय के क्षयादि से होने वाली लब्धि । (९) वीर्य लब्धि-वीर्यान्त राय के क्षयादि से होने वाली लब्धि ।
(१०) इन्द्रिय लब्धि-मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भावेन्द्रियों का होना तथा जातिनामकर्म और पर्याप्तनामकर्म के उदय से द्रव्येन्द्रियों का होना-- 'इन्द्रियलब्धि' कहलाती है।
ज्ञानलब्धि के विपरीत अज्ञान-लब्धि होती है। उसके तीन भेद हैं । यथा-१ मतिअज्ञानलब्धि, २ श्रुतअज्ञानलब्धि और ३ विभंगज्ञानलब्धि ।
दर्शनलब्धि के तीन भेद कहे गये हैं। यथा-सम्यग्दर्शनलब्धि-मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के क्षय, उपशम या क्षयोपशम से आत्मा में जो परिणाम होता है, उसे- सम्यग्दर्शनलब्धि' कहते हैं । सम्यग्दर्शन हो जाने पर मति आदि अज्ञान भी सम्यग्ज्ञान रूप में परिणत हो जाते हैं।
मिथ्यादर्शनलब्धि-मिथ्यात्व-मोहनीय कर्म के उदय से--अदेव में देव बुद्धि, अधर्म में धर्म बुद्धि और अगुरु (कुगुरु) में गुरुबुद्धि रूप आत्मा के विपरीत श्रद्धान को'मिथ्यादर्शनलब्धि' कहते हैं । अर्थात् मिथ्यात्व के अशुद्ध पुद्गल के वेदन से उत्पन्न विपर्यास रूप जीव-परिणाम को मिथ्यादर्शन लब्धि कहते हैं ।
सम्यमिथ्या (मिश्र) दर्शन-लब्धि--मिथ्यात्व के अर्द्धविशुद्ध पुद्गल के वेदन रूप मिश्र-मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न मिश्ररुचि मिश्र-रूप (कुछ अयथार्य तत्व श्रद्धान रूप) जीव के परिणाम को 'सम्यगमिथ्यादर्शन-लब्धि' कहते हैं ।
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