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भगवती सूत्र-श. ७ उ. ६ रथमूसल संग्राम
णवरं भूयाणंदे हत्थिराया जाव रहमुसलं संगामं ओयाए । पुरओ य से सक्के, देविंदे देवराया, एवं तहेव जाव चिट्ठइ, मग्गओ य से चमरे अमरिंदे असुरकुमारराया एगं महं आयसं किढिणपडिरूवगं विरब्वित्ता णं चिट्ठइ । एवं खलु तओ इंदा संगामं संगाति, तं जहा-देविंदे य, मणुइंदे य, असुरिंदे य। एग हत्थिणा वि णं पभू कूणिए राया जहत्तए, तहेव जाव दिसोदिसिं पडिसेहित्था ।।
कठिन शम्वार्थ-मग्गओ-पीछे, आयसं-लोह का बना हुआ, किढिणपडिरूवर्गकिठिन नामक बांस से बने हुए तापसपात्र के समान, पडिसेहित्था-भगा दिए ।
- भावार्थ-८ प्रश्न-हे भगवन् ! अरिहन्त भगवान ने जाना है, प्रत्यक्ष किया है और विशेष रूप से जाना है कि रथमूसल नामक संग्राम है । हे भगवन ! जब रथमूसल संग्राम हो रहा था, तब कौन जीता था और कौन हारा था ?
८ उत्तर-हे गौतम ! वज्री (इन्द्र), विदेह पुत्र (कोणिक) और असुरेन्द्र, असुरकुमार-राज चमर जोता था और नवमल्लि तथा नवलच्छि राजा हारे थे। रथमूसल संग्राम को उपस्थित हुआ जानकर कोणिक राजा ने अपने कौटुम्बिक (सेवक) पुरुषों को बुलाया। यावत् महाशिलाकण्टक संग्राम में कहा हुआ सारा वर्णन यहां कहना चाहिये । इसमें इतनी विशेषता है कि यहां भूतामन्द नामक पट्टहस्ती है यावत् वह कोणिक रथमूसल संग्राम में उतरा । उसके आगे देवेन्द्र देवराज शक है यावत् पूर्ववत् सारा वर्णन कहना चाहिये । पीछे असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर ने, लोह के बने हुए किठिन (बांस का बना हुआ एक तापस पात्र) के समान कवच की विकुर्वणा की। इस प्रकार तीन इन्द्र युद्ध करने लगे। यथा-देवेन्द्र, मनुजेन्द्र और असुरेन्द्र । अब कोणिक एक हाथी के द्वारा भी शत्रुओं को पराजय करने में समर्थ है, यावत् उसने पूर्व कथित वर्णन के अनुसार शत्रुओं को चारों दिशाओं में भगा दिया।
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