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भगवती सूत्र - श. ८ उ. १० लोकाकाश और जीव के प्रदेश
कठिन शब्दार्थ - जावइया - जितने एवइया-उतने ।
भावार्थ - २२ प्रश्न - हे भगवन् ! लोकाकाश के प्रदेश कितने कहे गये
२२ उत्तर - हे गौतम! असंख्य प्रदेश कहे गये हैं ।
२३ प्रश्न - हे भगवन् ! प्रत्येक जीव के प्रदेश कितने कहे गये हैं ?
२३ उत्तर - हे गौतम ! लोकाकाश के जितने प्रदेश कहे गये है, उतने ही प्रत्येक जीव के प्रदेश कहे गये हैं ?
विवेचन - इस सूत्र में पुद्गलास्तिकाय के एक प्रदेश के विषय में प्रश्न किये गये हैं । जिनमें द्रव्य और द्रव्य देश के एक वचन और बहुवचन सम्बन्धी चार भंग हैं और इसी प्रकार द्विक-संयोगी चार भंग हैं। इन आठ भंगों में से एक प्रदेश में दो भंग पाये जाते हैं। जब दूसरे द्रव्य के साथ उस का सम्बन्ध नहीं होता, तब वह 'द्रव्य' है और जब दूसरे द्रव्य के साथ उसका सम्बन्ध होता है तब वह - ' द्रव्यदेश' है । प्रदेश एक है, इसलिये उसमें बहुवचन सम्बन्धी दो भंग और द्विक संयोगी चार भंग - यं छह भंग नहीं पाये जाते ।
पुद्गलास्तिकाय के दो प्रदेशों में उपर्युक्त आठ भंगों में से पहले के पांच भंग पाये जाते । तीन प्रदेशों में पहले के सात भंग पाये जाते हैं। इनकी घटना स्वयं करलेनी चाहिये । चार प्रदेशों में आठों भंग पाये जाते हैं। चार प्रदेशी से यावत् अनन्त प्रदेशी तक दस बोलों में प्रत्येक में आठ-आठ भंग पाये जाते हैं ।
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लोक असंख्य प्रदेशी है, इसलिये उसके प्रदेश असंख्याता है। जितने लोक के प्रदेश हैं, उतने ही एक जीव के प्रदेश हैं, जब जोव, केवली- समुद्घात करता है, तब वह अपने आत्म-प्रदेशों से सम्पूर्ण लोक की व्याप्त कर देता है, अर्थात् लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर एक-एक जीव- प्रदेश अवस्थित हो जाते हैं ।
कर्म - वर्गणाओं से आबद्ध जीव
२४ प्रश्न - कह णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ? २४ उत्तर—गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा
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