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भगवती
सूत्र - श.
७ . १ उद्गम के दोष
(६) प्राभृतिका - साधु को विशिष्ट आहार बहराने के लिये जीमणवार या निमंत्रण के समय को आगे पीछे करना ।
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(७) प्रादुष्करण - देय वस्तु के अंधेरे में होने पर अग्नि, दीपक आदि का उजाला करके या खिड़की वगैरह खोलकर वस्तु को प्रकाश में लाना अथवा आहारादि को अन्धेरी जगह से प्रकाश वाली जगह में लाना 'प्रादुष्करण' है ।
(८) क्रीत - साधु के लिये मोल लिया आहारादि ।
( ९ ) प्रामित्य ( पामिच्चे) -- साधु के लिये उधार लिया हुआ आहारादि ।
(१०) परिवर्तित - साधु के लिये बदला करके लिया हुआ ।
(११) अभिहृत - ( अभिहडे ) - साधु के लिये गृहस्थ द्वारा ग्राम या घर आदि से सामने लाया हुआ आहारादि !
(१२) उद्भिन्न- साधु को घी आदि देने के लिये कुप्पी आदि का मुंह ( छांदण) खोल कर देना ।
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(१३) मालापहृत – ऊपर, नीचे या तिरछी दिशा में जहाँ आसानी से हाथ नहीं पहुँच सके, वहाँ पंजों पर खड़े होकर या नसेनी एवं सीढ़ी आदि लगाकर आहार देना । इसके चार भेद हैं। उर्ध्व अध:, उभय और तिर्यक, इनमें से भी हर एक के जघन्य, उत्कृष्ट और. मध्यम रूप तीन-तीन भेद हैं। एड़ियाँ उठाकर हाथ फैलाते हुए छत में टंगे छींके आदि 'कुछ निकालना जघन्य ऊर्ध्व - मालापहृत है। सीढ़ी आदि लगाकर ऊपर के मंजिल से उतारी गई वस्तु उत्कृष्ट ऊर्ध्वमालापहृत है । इनके बीच की वस्तु मध्यम है। इसी तरह अधः, उभय और तिर्यक् के भी भेद जानने चाहिये ।
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. (१४) आछेद्य-निर्बल व्यक्ति या अपने आश्रित रहने वाले नौकर चाकर और पुत्र आदि से छीन कर साधु को देना, इसके भी तीन भेद हैं- स्वामीविषयक, प्रभुविषयक और स्तेनविषयक । ग्राममालिक 'स्वामी' और अपने घर का मालिक 'प्रभु' कहलाता हैं । चोर और लुटेरे को 'स्तन' कहते हैं। इन में से कोई किसी से कुछ छीन कर साधु को दे, तो क्रमशः इन तीनों से भी उपरोक्त दोष लगता है।
(१५) अनिसृष्ट - किसी वस्तु के एक से अधिक मालिक होने पर सब की इच्छा बिना देना ।
(१६) अध्यवपूरक - साधुओं का आगमन सुनकर आधण में कुछ बढ़ाना अर्थात् अपने लिये बनते हुए भोजन में साधुओं का आगमन सुनकर उनके निमित्त से और मिला देना ।
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