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________________ ११०४ भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ शस्त्रातीत आदि दोष उदगम के सोलह दोष अहाकम्मुद्देसिय, पूइकम्मे य मीसजाए य। ठवणा पाहुडियाए, पाओयर कीय पामिच्चे ॥१॥ परियट्टिए अभिहडे, उनिभन्ने मालोहडे इय । अच्छिज्जे अणिसिळे, अज्झोयरए य सोलसमे ॥ २ ॥ अर्थ-(१) आधाकर्म-साधु के निमित्त से सचित्त वस्तु को अचित्त करना या . अचित्त को पकाना आदि 'आधाकर्म' कहलाता है। यह दोष चार प्रकार से लगता है। प्रतिसेवन-आधाकर्मी आहार का सेवन करना । प्रतिश्रवण-आधाकर्मी आहार के लिये निमन्त्रण स्वीकार करना । संवसन-आधाकर्मी आहार भोगने वालों के साथ रहना। अनुमोदन-आधाकर्मी आहार भोगने वालों की प्रशंसा करना। (२) औद्देशिक-सामान्य याचकों को देने की बुद्धि से जो आहारादि तैयार किये जाते हैं, उन्हें भी औद्देशिक कहते हैं । इनके दो भेद हैं-ओघ और विभाग । भिक्षुकों के लिये अलग तैयार न करते हुए अपने लिये बनते हुए आहारादि में ही कुछ और मिला देना 'ओघ' है । विवाहादि में याचकों के लिये अलग निकाल कर रख छोड़ना 'विभाग' है। यह उद्दिष्ट, कृत और कर्म के भेद से तीन प्रकार का है। फिर प्रत्येक के उद्देश, समुद्देश, आदेश और समादेश इस तरह चार चार भेद बतलाये गये हैं, किन्तु यहाँ यह अर्थ विवक्षित है । यथा-किसी खास साधु के लिये बनाया गया आहार, यदि वही साधु ले, तो आधाकर्म, दूसरा ले तो औद्देशिक है। (३) पूतिकर्म-शुद्ध आहार में आधाकर्मादि का अंश मिल जाना 'पूतिकर्म' है। आधाकर्मी आदि आहार का थोड़ा-सा अंश भी शुद्ध और निर्दोष आहार को सदोष बना देता है । शुद्ध चारित्र पालने वाले संयमी के लिए वह अकल्पनीय है । जिसमें ऐसे आहार का अंश लगा हो ऐसे बर्तन को भी टालना चाहिए। (४) मिश्रजात-अपने और साधु के लिये एक साथ पकाया हुआ आहार मिश्रजात' कहलाता है। इसके तीन भेद हैं-यावर्थिक, पाखंडीमिश्र और साधुमिश्र । जो आहार अपने लिये और सभी याचकों के लिये इकट्ठा बनाया जाय वह 'यावदर्थिक' है। जो अपने और साधु सन्यासियों के लिये इकट्ठा बनाया जाय, वह 'पाखंडीमिश्र' है । जो केवल अपने लिये और साधुओं के लिये इकट्ठा बनाया जाय, वह 'साधु-मिथ' है। . (५) स्थापन-साधु को देने की इच्छा से कुछ काल के लिये आहार को अलग Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004088
Book TitleBhagvati Sutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2008
Total Pages506
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size9 MB
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