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भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ उत्पादन के दोष
उद्गम के सोलह दोषों का निमित्त गृहस्थ दाता होता है। अर्थात् गृहस्थ के निमित्त से ये दोष साधुओं को लगते हैं।
• उत्पादना के सोलह दोष धाई दूई निमित्ते, आनीव वाणिमगे तिगिच्छा य।" कोहे माणे माया लोहे, य, हवंति दस एए ॥१॥ पुग्विपच्छासंथव, विज्जा मंते य चुण्ण जोगे य। ...
उप्पायणाइ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे यः॥२॥ (१) धात्री-बच्चे को खिलाना, पिलाना आदि धाय का काम करके या किसी के घर में धाय की नौकरी लगवाकर आहार लेना।
(२) दूती-एक दूसरे का सन्देश गुप्त या प्रकट रूप से पहुंचा - कर, दूत का काम करके आहारादि लेना। . (३) निमित्त-भूत और भविष्यत् को जानने के शुभाशुभ निमित्त बतलाकर आहा.
रादि लेना। . (४) आजीव - स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से अपनी जाति और कुल आदि प्रकट करके। .. . (५) वनीपक-श्रमण, शाक्य, सन्यासी आदि में जो जिसका भक्त हो, उसके सामने उसी की प्रशंसाकर के या दीनता दिखाकर आहारादि लेना।
(६) चिकित्सा-औषधि करना या बताना आदि चिकित्सक का काम करके आहारादि ग्रहण करना। ...... (७) क्रोध-क्रोध करके या गृहस्थ को शापादि का भय दिखाकर भिक्षा लेना। . (८) मान-अभिमान से अपने को प्रतापी, तेजस्वी, बहुश्रुत आदि. बताते हुए अपना प्रभाव जमाकर आहारादि लेना।
(९) माया–वंचना अर्थात् ठगाई करके आहारादि लेना।
(१०) लोभ-आहार में लोभ करना अर्थात् भिक्षा के लिये जाते समय जीभ के लालच से यह निश्चय करके निकलना कि आज तो अमुक वस्तु ही खायेंगे और उसके अनायास न मिलने पर इधर-उधर ढूंढना तथा दूध आदि मिल जाने पर स्वादवश शक्कर आदि के लिये इधर-उधर भटकना 'लोमपिण्ड' है।
(११) प्रापश्चात्संस्तव (पुविपच्छा संथव)-आहार लेने के पहले या पीछे
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