________________
• भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ एषणा के दोष
११०७
दाना की प्रशंसा करना ।
(१२)विद्या-स्त्रीरूप देवता से अधिष्ठित या जप, होम आदि से सिद्ध होने वाली अक्षरों की रचना विशेष को विद्या' कहते हैं । विद्या का प्रयोग करके आहारादि लेना 'विद्यापिण्ड' है।
(१३) मन्त्र-पुरुषरूप देव के द्वारा अधिष्ठित ऐसी अक्षर रचना, जो केवल पाठ मात्र से सिद्ध हो जाय, उसे 'मन्त्र' कहते हैं । मन्त्र के प्रयोग से लिया जाने, वाला आहा
रादि 'मन्त्रपिण्ड' है। . (१४) चूर्ण-अदृश्य करने वाले सुरमे आदि का प्रयोग करके जो आहारादि लिया जाय, उसे 'चूर्णपिण्ड' कहते हैं।
. (१५)योग-पादलेप वशीकरण आदि सिद्धियां बताकर जो आहारादि लिया जाय, उसे 'योगपिण्ड' कहते हैं।
(१६) मूलकम-गर्भ-स्तम्भन, गर्भाधान, गर्भपात आदि संसार सागर में भ्रमण कराने वाली सावद्य-क्रिया करना।
उत्पादना के दोष साधु से लगते हैं अर्थात् इन दोषों के लगने का निमित्त साधु ही लेता है।
एषणा के दस दोष संकिय-मक्खिय-णिक्खित्त, पिहिय-साहरिय-बाय-गुम्मीसे ।
अपरिणय-लित्त-छड्डिय, एसण-दोसा बस हवंति ॥१॥ (१) संकिय (शंकित)-आहार में आधाकर्मादि दोषों की शंका होने पर भी उसे लेना।
(२) मक्खिय (म्रक्षित)-देते समय आहार, चमचा या हाथ आदि किसी अंग का सचित्त वस्तु से छू जाना या सचित्त वस्तु से लगे हुए हाथ या बर्तन आदि से देना।
(३) णिक्खित्त (निक्षिप्त)-दी जाने वाली वस्तु, सचित्त के ऊपर रखी उसे लेना। इसके पृथ्वीकायादि छह भेद हैं।
.. (४) पिहिय (पिहित)-देय वस्तु, सचित्त के द्वारा ढंकी हुई हो । इसके भी पृथ्वीकायादि छह भेद हैं
(५) साहरिय (संहृत्य)-जिस बर्तन में असूझती वस्तु पड़ी हो, उसमें से असूझती वस्तु निकाल कर उसी बर्तन से आहारादि देना।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org