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भगवती सूत्र-श. ७ उ. १ एषणा के दोष
(६) दायक-बालक आदि दान देने के अनधिकारी से, आहारादि लेना 'दायक' दोष है । यदि अधिकारीव्यक्ति स्वयं बालक आदि के हाथ से आहारादि बहराना चाहे, तो उसमें दोष नहीं हैं । पुरुषविशेष की अपेक्षा इसके चालीस भेद किये गये हैं। .
(७) उम्मीसे (उन्मिश्र)-अचित्त के साथ सचित्त या मिश्र मिला हुआ अथवा सचित्त या मिश्र के साथ अचित्त मिला हुआ आहार लेना 'उन्मिश्र' दोष है।
(८) अपरिणय (अपरिणत)-पूरे पाक के बाद वस्तु के निर्जीव होने से पहले ही उसे लेलेना अथवा जिसमें शस्त्र पूरी तरह परिणत न हुआ हो, ऐसी वस्तु लेना।
(९) लित्त (लिप्त) हाथ या पात्र (भोजन परोसने का बर्तन) आदि में लेप करने वाली वस्तु को 'लिप्त' कहते हैं । जैसे-दूध, दही, घी आदि लेप करनेवाला वस्तु को लेना 'लिप्त दोष' है । रसीली वस्तुओं के खाने से भोजन में गृद्धि बढ़ जाती है । दही आदि के हाथ या बर्तन आदि में लगे रहने पर उन्हें धोना पड़ता है। इससे 'पश्चात्कर्म' आदि दोष लगते हैं । इसलिये साधु को लेप करनेवाली वस्तुएं नहीं लेनी चाहिये । अधिक स्वाध्याय
और अध्ययन आदि खास कारण से या वैसी शक्ति न होने पर लेप वाले पदार्थ भी लेने कल्पते हैं । लेपवाली वस्तु लेते समय दाता का हाथ और परोसने का बर्तन संसृष्ट (जिसमें दही आदि लगे हुए हों) अथवा असंसृष्ट होते हैं । इसी प्रकार दिया जाने वाला द्रव्य सावशेष (जो देने से कुछ बाकी बच गया हो) या निरवशेष (जो बाकी न बचा हो) दो प्रकार का होता है । इन के आठ भांगे होते हैं। जैसे
(१) संसृष्ट-हाथ, संसृष्ट-पात्र और सावशेष द्रव्य । (२) संसृष्ट-हाथ, संसृष्ट-पात्र और निरवशेष द्रव्य । (३) संसृष्ट-हाथ, असंसृष्ट-पात्र और सावशेष द्रव्य । (४) संसृष्ट-हाथ, असंसृष्ट पात्र और निरवशेष द्रभ्य। (५) असंसृष्ट-हाथ, संसृष्ट पात्र और सावशेष द्रव्य । (६) असंसृष्ट-हाथ, संसृष्ट-पात्र और निरवशेष द्रव्य। (७) असंसृष्ट-हाथ, असंसृष्ट-पात्र और सावशेष द्रव्य ।
(८) असंसृष्ट-हाथ, असंसृष्ट-पात्र और निरवशेष द्रव्य । इन आठ भागों में विषम अर्थात् प्रथम, तृतीय, पंचम और सप्तम भंगों में लेप वाले पदार्थ ग्रहण किये जा सकते हैं । सम अर्थात् दूसरे, चौथे, छठे और आठवें भंग में ग्रहण न करना चाहिये।
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